वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1607
From जैनकोष
प्रमाणनयनिक्षेपौनिर्णीतं तत्त्वमंजसा।
स्थित्युत्पत्तिव्ययोपेतं चिदचिल्लक्षणं स्मरेत्।।1607।।
आज्ञाविचय धर्मध्यानी पुरुष भगवान की आज्ञा की मुख्यता करता है, पर केवल भगवान ने कहा है इससे ठीक मानता हो ऐसा नहीं है, अपनी बुद्धि का कुछ भी बल न लगता हो यह बात नहीं है। बुद्धि बल का पूर्ण उपयोग है, तिस पर भी भगवान की परंपरा को प्रधान लेकर कथन करता है और अपने धर्म का विचार बनाता है। तो विश्वास में यद्यपि परीक्षा की प्रधानता है, पर परीक्षा कर-करके भी जब उसकी दृष्टि में तत्त्व सही उतरता है तो एकदम जिनेंद्रदेव की भक्ति उमड़ती है कि धन्य हैं जिनेंद्र प्रभु के वचन, कितने सत्य प्रभु के वचन निकलते हैं, अनुभवसिद्ध और युक्ति सिद्धि बात को जानकर भगवान के गुणस्मरण में आज्ञाविचय धर्मध्यानों की तीव्रता होती है कि भगवानके वचन कितने सत्य हैं जो युक्तियों से बिल्कुल ठीक उतरे। इसके अलावा और भी देखिये जो कथन हमारी युक्ति और अनुभव में उतरते हैं―वह बात जब हम पूर्ण सत्य पाते हैं तो जिनभगवान ने और भी जो वचन कहे जो युक्ति में नहीं भी उतरे हैं तो उन वचनों को भी सत्य मानता है। 7 तत्त्वों का प्रतिपादन युक्ति और अनुभव से भी जानाजाता है। आस्रव परिणाम किया है उस समय कर्मों की क्या स्थिति हो सकती है, सम्वर परिणाम क्या है और सम्वर परिणाम के समय कर्मों में क्या खलबली हो सकती है? ये सब बातें हम युक्ति से भी और अनुभव से भी जान सकते हैं और हम युक्ति अनुभव से जानकर आज्ञा से भी जान सकते हैं, उसके अलावा जैसे स्वर्गों की रचना―इतने स्वर्गों में पटल है, इतने श्रेणीबद्ध विमान हैं आदिक कथन है युक्ति और अनुभव से आगे निकला लेकिन जिन सर्वज्ञदेव ने वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन यथार्थ किया है जिसे हम युक्ति और अनुभव से जानते हैं, उनके समस्त वचन हैं इस विषय में उसकी श्रद्धा जम जाती है। तो परोक्षज्ञान तत्त्व में आज्ञा प्रधान रहा और अनुभव योग्य तत्त्व में परीक्षा प्रधान रहा। परीक्षा प्रमाण के लिए जब-जब परीक्षा में आवें तो उस-उस समय इस तरह यह आज्ञाविचय धर्मध्यानी पुरुष परीक्षा तत्त्व में भी आज्ञा की प्रधानता करता है, और जो परीक्ष्य नहीं है किंतु सर्वज्ञदेव द्वारा निर्णीत है उस तत्त्व में भी विश्वास करता है। यों आज्ञाविचय धर्मध्यानी पुरुष सर्वज्ञ की आज्ञा की मुख्यता से सर्वज्ञ के स्वरूप का चिंतन करता है। तो ये सूक्ष्म तत्त्व हुए परमाणु आदिक, आंतरिक तत्त्व हुए जो भूतकाल में हुए और दूरवर्ती तत्त्व हुए मेरु आदिक जो बहुत दूर हैं। ये इंद्रिय के विषयभूत नहीं हैं लेकिन ये किसी न किसी के द्वारा प्रत्यक्षभूत अवश्य हैं, क्योंकि किसी न किसी के अनुमान में आते हैं। जैसे पर्वत में धूम देखकर हम अग्नि का अनुमान करते हैं तो हम तब अनुमान केवल कर पाते हैं, पर पर्वत के निकट जो बैठे हैं वे तो साक्षात् देख सकते हैं, इन सब बातों में आज्ञा की प्रधानता होती है और भगवान की आज्ञा में जो-जो वचन कहे गए हैं और हमारे परोक्षभूत हैं, वे सत्य हैं ऐसा निर्णय करने का प्रमाण हमारे पास यह ही है कि वस्तुस्वरूप जो कि हमारे तत्त्व में, अनुभव में, युक्ति में उतर सकता है वह जब हममें यथार्थ उतरा तो उनका कथन जो भी हैवह सब प्रमाणभूत है, इस तरह परीक्ष्य तत्त्व के माध्यम से परोक्षभूत को भी तत्त्व मानाहै, यही आज्ञाविचय धर्मध्यान में है।
तत्त्व का निर्णय प्रमाण नय निक्षेप इन तीन से होता है। प्रमाण में द्रव्यदृष्टि, पर्यायदृष्टि, निश्चयव्यवहार ऐसी दृष्टियों का स्वभाव निर्णय करना उसे तो प्रमाण कहते हैं और प्रमाण से ग्रहण किए हुए पदार्थ में एक अंश को मुख्य बना करके उसका मुख्य निर्णय करना सो नय है। प्रमाण और नय से जिसका निर्णय किया जा चुका है ऐसे तत्त्व निक्षेप से व्यवहार करना यह भी निर्णय में शामिल है, जिस नामनिक्षेप से हम पदार्थ को जानते रहते हैं। नाम से पहिले पदार्थ का प्रतिपादन या उसका व्यवहार शुरू नहीं हो सकता। नाम किसी का धरा जाय तब तो उससे व्यवहार चला, इसलिए सबसे पहिले निक्षेपों में नामनिक्षेप कहा है। नाम बिना क्या व्यवहार करना, नाम बिना कुछ व्यवहार नहीं हो सकता इसलिए नामनिक्षेप सबसे प्रथम है। प्रमाण नय, निक्षेप से निर्णय किए हुए तत्त्व में यह स्मरण तो करता है आज्ञाविचय धर्मध्यानी पुरुष, मगर उसका इस ही और बराबर ख्याल बना रहता है कि कितना सत्य भगवान जिनेंद्रदेव के वचनहै? उस आज्ञाविचय धर्मध्यानी के भगवान जिनेंद्रदेव की आज्ञा की प्रधानता है। युक्ति से और अनुभव से सब तरह से निर्णय करके भी वह आज्ञाविचय धर्मध्यानी पुरुष इस प्रतीति को नहीं छोड़ता कि भगवान जिनेंद्रदेव के वचन बिल्कुल सत्य हैं। जब उत्पाद व्यय धौव्य की बात प्रत्येक पदार्थ में निरखता है तो उसे यह स्पष्ट मालूम होता है कि प्रत्येक पदार्थ अपनी पर्याय बनाता है, पूर्व पर्याय उसमें लीन हो जाती हैऔर नवीन पर्याय उत्पन्न होकर पूर्वपर्याय होकर भी वह सनातन तत्त्व बना रहता है―यह बात उसे हर चीज में नजर आती है, कंकड़, पत्थर, जीव देहादिक में, क्योंकि यह बिल्कुल स्पष्ट बात है। घड़ा उत्पन्न हुआ तो मिट्टी का लौंदा विलीन हो गया और मिट्टी उन सब अवस्थावों में बनी रही। तो यह स्थिति उत्पाद व्यय की बराबर स्पष्ट नजर आती है। पर स्पष्ट नजर आकर भी भगवान की आज्ञा का संबंध बंधा होता है। कितना स्पष्ट और प्रमाण से निर्णीत तत्त्व है जो भगवान सर्वज्ञ ने बताया है, यों आज्ञाविचय धर्मध्यान की बात कही जा रही है। आज्ञा को मुख्य करके चिंतन करना वह सब आज्ञाविचय धर्मध्यान है। फिर यह भी देख रहा है कि चेतन अचेतन में जितना तत्त्व का निर्णय जिनेंद्रदेव ने किया है वह बिल्कुल यथार्थ है। अचेतन में भी पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल जो द्रव्य जाति का निर्णय बताया है वह भी युक्ति में उतरती हुई बात है। ऐसा चेतन अचेतन लक्षण वाले पदार्थ स्पष्ट हो रहे हैं और उनको स्पष्ट जानकर भगवान की आज्ञा में प्रधानता रखता है―धन्य हैं वे जिनेंद्र प्रभु आज्ञा के शब्द एकदम सत्य निकलते हैं, जो सत्य है वही ही प्रभु का उपदेश है।