वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1788
From जैनकोष
न तत्र दु:खितो दीनो वृद्धो रोगी गुणच्युतः ।
विकलांगो गतश्रीक: स्वर्गलोके विलोक्यते ।।1788।।
स्वर्गलोक में दुखित दीनादिकों का अभाव―संस्थानविचय धर्मध्यान करने वाला यह जानी पुरुष लोक की रचना का चिंतन कर रहा है । अधोलोक और मध्यलोक का चिंतन करने के बाद ऊर्ध्वलोक में स्वर्गो की बात निरख रहा है कि वहाँ कोई भी देव दुःखी नहीं देखे जाते हैं । उनका शरीर है ऐसा दिव्य है कि जो रोग क्षुधा तृषा आदिक से रहित है । यहाँ तक कि पसीना का व घृणास्पद किसी भी चीज का वहाँ लगार नहीं है । सभी प्रकार के मलों से रहित उनका शरीर है तो दुःख का वहाँ कोई अवकाश ही नहीं है । वहाँ कोई भी देव दुःखी नजर नहीं आता, न कोई दीन नजर आता । जैसे मनुष्यों में भिक्षा मांगने वाले कुछ दीन भिखारी फिरा करते हैं उस तरह से देव लोग नहीं फिरा करते । हां, इतनी सी बात तो वहाँ पुण्य पाप के अनुसार है कि कोई देव किसी देव का सेवक बनकर रह रहा है, कोई किसी को प्रसन्न करने में अपना बड़प्पन समझता है । तो कुछ मानसिक दुःख तो परस्पर के व्यवहार का है पर दीन हीन भिखारी वहाँ कोई न मिलेगा । आवश्यकता ही नहीं है किसी को कुछ मांगने की कोई आवश्यकता हो, किसी चीज की पूर्ति न हो तब तो किसी से दीनता की जाय । स्वर्गों में कोई दीन ही न मिलेगा, कोई वृद्ध न मिलेगा । वहाँ उत्पन्न होते ही वह देव अंतर्मुहूर्त में पूर्ण शरीर वाला बन जाता है । जैसे यहाँ मनुष्यों में पूर्ण शरीर वाला मनुष्य बनने में 10-15 वर्ष लग जाते हैं ऐसे उन देवों को पूर्ण शरीरी बनने में समय नहीं लगता । वे तो एक मिनट में ही पूर्ण शरीरी बन जाते हैं, वे फिर सारी जिंदगी भर युवा रहते हैं, वृद्ध कभी नहीं होते । मरणकाल जब आता है तो 6 महीना पहिले उनके शरीर में कुछ विचित्रता होने लगती है, उनकी माला मुरझा जाती है तब उन्हें पता पड़ता हूं कि अब हमारी मृत्यु निकट आ गयी । वे वृद्ध नहीं नजर आयेंगे । कोई देव गुणरहित नहीं होता उनमें अनेक प्रकार की चतुराइयाँ होती हैं । देवों में कोई विकल अंग वाले भी नहीं हैं । किसी का हाथ कम हो, किसी का पैर कम हो अथवा कभी कोई हाथ पैर टूट जाय, लंगड़े लूले हो जायें ऐसी स्थिति देवों में नहीं होती । वे समस्त देव संपूर्ण अंग वाले होते हैं और कांति संपन्न होते हैं ।