वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1792-1793
From जैनकोष
सर्वाक्षसुखदे रम्ये नित्योत्सवविराजिते ।
गीतवादित्रलीलाढये जय जीवस्वनाकुले ।। 1792 ।।
दिव्याकृतिसुसंस्थाना: सप्तधातुविवर्जिता: ।
कायकांतिपय: पूरै: प्रसादितदिगंतरा: ।।1793 ।।
शिरीषसुकुमारांगा: पुण्यलक्षणलक्षिता: ।
अणिमादिगुणोपेता: ज्ञानविज्ञानपारगा: ।।1794।।
मृगांगमूर्तिसंकाशा शांतदोषा: शुभाशया: ।
अचिंत्यमहिमोपेता भयक्लेशार्तिवर्जिता: ।।1795।।
वर्द्धमानमहोत्साहा वज्रकाया महावला: ।
अचिंत्यपुण्ययोगेन गृह्णंति वपुरूर्जितम् ।।1796।।
देवों की सुखद जन्मविधि―वह उपपादशय्या का स्थान समस्त इंद्रियों को सुख देने वाला है, जहाँ रमणीक रचनायें हैं, रत्नमणि आदिक से चित्र विचित्रित हैं, और देखने में भी वहाँ जन्म के समय कोई घृणा वाली बात नहीं नजर आती है । अभी कोई था नहीं और अब दिखने लगा, इतना ही मात्र उनका जन्म समझ में आता है । जिस समय वह शरीर नजर आने लगता है उस समय तो शरीर बहुत छोटा होता है बालक जैसा, पर एक मिनट के अंदर ही वह शरीर एकदम युवा बन जाता है और उठकर सब कुछ निरखने लगता है । तो वह उपपादशय्या का स्थान समस्त इंद्रियों को सुख देने वाला है, सुहावना है, नित्य ही उत्सव सहित विराजमान है । उत्सव उसके समीप ही तो हुआ करता है जहाँ कोई जन्म होता है । तो इस प्रकार से उस उपपादशय्या पर देव उत्पन्न होते रहते हैं । देवों की गिनती असंख्यात है । मनुष्यों से कई गुना देव हुआ करते हैं । तो वहाँ उपपादशय्या के निकट सदा उत्सव समारोह हुआ करते हैं । जो जैसा देव है उसका वैसा उत्सव समारोह हुआ करता है । उन उत्पन्न होने वाले देवों के पुण्य की प्रेरणा से स्वर्ग में रहने वाले देव वहाँ आते हैं और उत्पन्न हुए देव की महिमा गाते हैं और उनका चित्त प्रसन्न हो वैसा वार्तालाप करते हैं और वहाँ की सारी रचनावों का बखान करते हैं । तो वह उपपाद का स्थान नित्य उत्सव सहित विराजमान है जहाँ गीत बाजे व नृत्य आदि की अनेक लीलायें बनी रहती हैं । हे देव ! जयवंत होओ, चिरंजीवी होवो, इस प्रकार के अनेक शब्द कहते रहते हैं । ऐसे स्थानों पर वे देव उत्पन्न होते हैं । जो देव उत्पन्न होते वे किस प्रकार हैं कि उनका दिव्य सुंदर आकार है, संस्थान उनका समचतुरस्र है, शरीर सप्तधातुरहित है । वहाँ शरीर में हड्डी, खून, मांस, मज्जा, रोम, चमड़ी आदिक कुछ भी नहीं पाये जाते, पर हैं वे मनुष्य जैसे शरीर । वे वैक्रियक वर्गणायें हैं जो शरीर तो है और मनुष्यों के आकार जैसी बात है, पर शरीर में घृणा की बात नहीं । सप्त धातुवें नहीं, तो विचित्र ही वैक्रियक वर्गणायें हैं । पुण्य के फल की बात है । जैसे यहाँ मनुष्यों में जैसे-जैसे पुण्यहीन मनुष्य हैं वैसे ही वैसे उनके शरीरों में भी त्रुटियां बहुत पायी जाती हैं और तिर्यंचों में तो स्पष्ट नजर आता है, कोई जीव किसी आकार का है कोई किसी आकार है, किसी का कैसा ही बेढंगा मुख है तो किसी का कैसा ही बेढंगा शरीर है । स्थावर जीवों को देखो तो पेड़ किस तरह के आकार वाले हैं । तो उन देवों का शरीर सप्तधातुवों से रहित है, उनके शरीर की प्रभा समस्त देवतावों को प्रसन्न करने वाली है, उनका शरीर पुष्प के समान कोमल है, अनेक पवित्र लक्षणों वाला है, अणिमा महिमादि गुण से युक्त है । वे देव अवधिज्ञानी होते हैं, उस अवधिज्ञान से सारी बातें जानकर वे उपपादशय्या पर पड़े हुए देव अति प्रसन्न होते हैं । वे देव चंद्रमा की मूर्ति के समान हैं जिन में सभी प्रकार के दोष शांत हो गए हैं, उनको किसी भी प्रकार का कोई क्लेश नहीं रह गया है । उनको कोई चिंता नहीं रहती है, किसी प्रकार का भय, क्लेश, पीड़ा आदि नहीं है । उनका उत्साह सदा बढ़ता ही रहता है, शरीर भी बच्चे जैसा है । दृढ़ और पुष्ट शरीर है, बड़े पराक्रम वाला है । तो पुण्यवान देव पुण्य के योग से इस उपपादशय्या पर शरीर को ग्रहण कर लेते हैं । यों समझिये कि इस उपपादशय्या में अभी कोई नजर नहीं आ रहा था लेकिन अब बालक नजर आता है । उसी समय देव आते हैं और उसका सम्मान करते हैं । इस प्रकार वे देव उपपादशय्या पर आते हैं, उन्हें जन्म के समय में किसी प्रकार की कोई पीड़ा नहीं होती ।