वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2182
From जैनकोष
धर्मोगतिस्वभावोऽयमधर्म: स्थितिलक्षण: ।
तयोर्योगात्पदार्थानां गतिस्थिती उदाहृते ।।2182।।
धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य का निमित्तत्व―ये धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य क्या हैं? हैं ये सूक्ष्म अमूर्त तथा रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित, किंतु ये ऐसी एक असाधारणता को लिए हुए हैं कि जीव और पुद्गल गमन करें तो उनके गमन में निमित्त होते हैं । जैसे कोई मुसाफिर गर्मी के दिनों में चला जा रहा है, रास्ते में कोई वृक्ष मिला तो कुछ देर वह उस वृक्ष के नीचे बैठकर विश्राम करता है । वृक्ष ने उसे बुलाया नहीं, किंतु वह मुसाफिर स्वयं वहाँ जाकर ठहरता है, तो वह वृक्ष उसके ठहराने में उदासीन कारण है, ठहरने वाला ठहरना चाहे तो ठहर जाये, इसी प्रकार ये जीव जब चले, उनका गमन हो तो उसमें यह धर्मद्रव्य सहायक निमित्त है और अधर्मद्रव्य चलते हुए जीव पुद्गल जब ठहरे तो उनके ठहराने में उदासीन निमित्त हैं । यह धर्मद्रव्य लोकाकाश में ही रह रहा है, इससे बाहर नहीं, अधर्मद्रव्य भी बाहर नहीं । ऊर्ध्वगमन स्वभावी जब ये परमात्मा ऊपर गमन कर रहे हैं, तो जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक इसका गमन बिना अविरोध के हो रहा है । जहाँ ये सर्वथा निष्कलंक आत्मा ठहरे हैं वह सिद्ध लोक है ।
सिद्धत्वव्यवस्था―सिद्ध के संबंध में हिंदी स्तवन में कहते हैं कि―जो एक माँहि एक राजे एक माहि अनेकनो । एक अनेकन की नहि संख्या, नमो सिद्ध निरंजनो ।। इसका अर्थ यह है कि सिद्ध भगवान जो कि निरंजन हैं, द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से रहित हैं वे प्रभु सिद्ध लोक में विराजे हैं । सो एक में एक ही है वह, एक में दूसरा सिद्ध नहीं है । वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है कि एक वस्तु दूसरी वस्तु में नहीं समाती । यहाँ प्रदेश की बात नहीं कह रहे, गुणपर्याय अनुभवन परिणमन की बात चल रही है । जैसे एक घर में रहते हुए उन गृहवासी चार आदमियों में परस्पर में प्रेम न हो, रहते हैं वे एक घर में, पर हैं वे एक दूसरे से निराले, विपरीत, उल्टे । किसी में कोई लगा ही नहीं है । यह तो एक मोटी बात कह रहे हैं । वस्तुत: तो कोई भी जीव किसी अन्य में लगा ही नहीं, तो ऐसे ही वे प्रभु सिद्ध लोक में विराजे. हैं, वहाँ अनंत सिद्ध हैं तिस पर भी उन सब सिद्धों का परिणमन ज्ञान उनके प्रदेश एक का एक में ही है । एक में दूसरा समाया नहीं है । यों प्रभु का परिणमन एक का एक में है, और एक माहि अनेकनो, सो बिल्कुल प्रकट बात है । इस ही जगह से अनंत जीव मुक्त हुए हैं तो उन्हें और क्या कहा जाय? एक में अनेक विराज रहे यही कहा जायगा । तत्त्ववेदी पुरुष जब स्वरूप की उपासना करता है तो कहता है कि एक अनेकन की नहीं संख्या । उसके लिए न तो अनेक सिद्ध हैं और न एक सिद्ध है । उसकी दृष्टि में तो एक शुद्ध चित्स्वरूप है । ऐसे निरंजन सिद्ध प्रभु को नमस्कार हो ।