वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 235
From जैनकोष
अत्यंतदुर्लभेष्वेषु दैवाल्लब्धेष्वपि क्वचित्।
प्रमादात्प्रच्यवंतेऽत्र केचित्कामार्थलालसा:।।235।।
दुर्लभतर तत्त्वोपब्धि होने पर प्रमाद न करने का अनुरोध―उत्तरोत्तर दुर्लभ और उनमें भी अत्यंत दुर्लभ तत्त्वनिर्णय जैसी बात पा लेने पर भी यदि कोई प्रमाद करे, काम और धन के लोभ में आकर सन्मार्ग से च्युत हो जाय तो यह बड़े खेद की बात है। देखिये इस जीव ने तत्त्वनिर्णय के पाने तक कितनी अच्छी स्थिति पायी है? इसे फिर से दुहरायें तो कितनी ही स्थितियाँ बन गयी। सबसे पहिले यह जीव निगोद था। निगोद से निकला तो प्रत्येक स्थावरों में पैदा हुआ। प्रत्येक स्थावरों से निकलकर दो इंद्रिय में, दो इंद्रिय से निकलकर तीन इंद्रिय में, तीन इंद्रिय से चार इंद्रिय में, उसके बाद हुआ असंज्ञी पंचेंद्रिय में, उसमें भी पर्याप्त हुआ, उसके बाद संज्ञी पंचेंद्रिय में वहाँ भी अपर्याप्त रहा तो क्या सिद्धि? उसके बाद संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त हुआ। यहाँ तक तो तिर्यंचगति मान लीजिए। चार इंद्रिय तक तो केवल तिर्यंच ही होता है, अब इस तिर्यंच गति से निकलकर अन्य देव, नारकी कुछ बन जाय तो वहाँ संयम नहीं है। उन सबसे भी दुर्लभ चीज है मनुष्य का होना, और मनुष्य होने पर भी नीच हिंस्र बने तो क्या? उससे भी दुर्लभ है उत्तम देश जाति कुल का मिलना। इतना मिलने पर भी दीर्घ आयु विशेष आयु का मिलना दुर्लभ है। विशेष आयु के बाद फिर इंद्रिय का साधन सामग्री मिलना दुर्लभ है, फिर उत्तम बुद्धि मिलना दुर्लभ है, मंद कषाय मिलना दुर्लभ है, चित्त का विरक्तपरिणाम होना दुर्लभ है। इतना सब मिले उससे यम नियम शुद्ध भाव, वैराग्य परिणाम मिलना दुर्लभ है। यहाँ तक करीब 20 बातें हो चुकी। तत्त्वनिर्णय भी प्राप्त हो जाय, बुद्धि तत्त्व को पकड़ने लगे, उस ओर दृष्टि जाने लगे, बड़ा अच्छा समय व्यतीत होने लगे, काम के वशीभूत हो, प्रमाद के वशीभूत हो, धन का लाभ हो जाय तो सब किया कराया भी खराब हो गया, भ्रष्ट हो गया। तो इस प्रकार धन के या अन्य किसी लोभ में आकर सन्मार्ग से च्युत हो जाता है। जीव की यह दशा बोधिदुर्लभ भावना में बतायी जा रही है। इससे यह शिक्षा लेनी है कि अत्यंत दुर्लभ हित की सामग्री पाकर हमें प्रमादी नहीं बनना चाहिए। प्रमाद का अर्थ है पापों में चित्त का लगना। मोक्षमार्ग में प्रमाद न करना चाहिए।