वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 474
From जैनकोष
सत्याद्युतरनि:शेषयमजातनिबंधम् ।शीलैश्चर्याद्यधिष्ठानमहिंसाख्यं महाव्रतम् ॥474॥
सर्वोत्कृष्ट व्रत अहिंसा ― मुख्य व्रत तो अहिंसा है, इसके बाद सत्य, अचौर्य आदिक 4 महाव्रत और हैं । अहिंसा के मायने है, चित्त में विकार न उत्पन्न हो जाना । जीवघात न करना यह तो द्रव्य अहिंसा है, जीव घात न करके भी वह अहिंसक है यह नियम नहीं है । अहिंसक तो वास्तविक मायने में तब है जब हम अपने चित्त में विकारभाव नहीं लाते हैं, तो विकार न आने देना ऐसी अहिंसा हो वही तो सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और निष्परिग्रहता का पालन कर सकता है, अतएव अहिंसा महाव्रत 4 महाव्रतों का कारण है । दूसरी दृष्टि से देखिये तो सब कुछ अहिंसा के पालन के लिए किया जाता है, सत्य भी अहिंसा का साधक, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, निष्परिग्रहता आदिक भी अहिंसा के साधक हैं । तो चार महाव्रतों का कारण अहिंसा है और जितने भी अतिरिक्त गुण पालन किए जायें, बहुत ऊँची- ऊँची चर्चायें, तपश्चरण, अनशन आदिक विधान किये जायें उनका स्थान भी अहिंसा है अर्थात् समस्त उत्तरगुण भी इस अहिंसा महाव्रत के आधीन हैं । अहिंसा व्रत में मुख्यता अपने में विकार न आने देने की है । निर्विकार हृदय होगा तो सब आचरण सही होंगे और अंतर में विकार होंगे तो आचरण सही नहीं हो सकता ।