वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 493
From जैनकोष
वरमेकाक्षरं ग्राह्यं सर्वसत्त्वानुंपनं ।न त्वक्षपोषकं पापं कुशास्त्रं धूर्त्तचर्चितम् ॥493॥
दया बिना अन्य गुणों की निरर्थकता ― समस्त प्राणियों को दया की बात सिखाने वाला एक अक्षर भी हो तो भी वह ग्रहण के योग्य है । वह अक्षर श्रेष्ठ है, किंतु जो कुशास्त्र धूर्तों के द्वारा बनाये गये ऐसे हैं जिनमें विषयों का पोषण भरा है पापरूप हैं वे कुशास्त्र श्रेष्ठ नहीं हैं, किंतु दुर्गति के कारण हैं । व्यावहारिक जीव दया का भी जो परिणाम रखता है उसे पुण्यबंध तो होता ही है, साथ ही उसके आत्मा में एक बड़ी पात्रता जगती है । दयाहीन पुरुष को दुर्गति सुगम है, चाहे वह व्रत सहित भी हो, दुर्गति ही पाता है और दयालु पुरुष चाहे व्रत न भी ग्रहण किए हो पर दया की प्रकृति का ऐसा माहात्म्य है कि उसके लिए सद्गति सुगम है, वह सुगति प्राप्त करता है । द द द तीन द लो । दया, दान, दमन इन तीन शब्दों को याद रखिये । दान तो दान है और दमन नाम है इंद्रिय के विषय का निरोध करना । ये दान और दमन भी दया पर निर्भर हैं । जिसके दया नहीं है उसका दान क्या ॽ और वह इंद्रिय विषय का दमन क्या करेगा ॽ
क्रूर चित्त वालों के अनर्थता ― क्रूर चित्त रौद्र आशय वाला पुरुष इतना पापिष्ट चित्त का होता है कि आर्तध्यानी पुरुष जितना पापबंध नहीं करता उससे अधिक पापबंध रौद्रध्यानी कर लेता है । आर्तध्यान में तो क्लेश है और रौद्रध्यान में मौज है लेकिन रौद्रध्यान का मौज आर्तध्यान के क्लेश से भी बहुत भयंकर है । जैसे दुष्ट जीव की प्रसन्नता अनर्थ का ही कारण है ऐसे ही रौद्रध्यान का मौज अनर्थ का ही कारण है । दया से इस जीवन में एक बड़ी सुवासना होती है दयाहीन क्या जीवन है, न उसकी लोक में प्रतिष्ठा, न उसकी अध्यात्म में प्रतिष्ठा, न उसका कहीं विश्वास, अतएव वह अपने चित्त में दु:खी ही रहा करता है ।
पूर्वकृत दया से ही वैभव की प्राप्ति ― जितना जो कुछ समागम मिला है वह आपके वर्तमान बुद्धि के प्रताप से नहीं जुड़ गया । आपसे भी कई गुना बुद्धिमानी जिनके है, जो एम. ए. डबल एम. ए. पास हैं, जो भाषण देनें में भी चतुर हैं, नेतागिरी में चतुर हैं, बड़ा-बड़ा दिमाग रखते हैं, और कहो उनके ठाठ कुछ भी न हों, ये समागम कुछ भी न हों । तो वर्तमान में जो बुद्धि है इस बुद्धि का यह फल नहीं है कि वैभव जुट जाय, किंतु यह पूर्वकृत दया धर्म का फल है । तो इस समय भी यदि कोई स्वदया, परदया और धर्मबुद्धि से रहे और कुछ नुकसान पड़े तो समझना चाहिए कि पूर्वकृत पाप हमारे घोर रहा है । धर्म करने से और व्यवहार से नुकसान नहीं होता, वह तो लाभ के लिए ही है ऐसा जानकर प्रत्येक परिस्थिति में चाहे संकट की स्थिति हो, चाहे मौज की स्थिति हो, अपने धर्म का परित्याग कभी न करना चाहिए । धर्महीन मनुष्य सब तरह से दीन है । न वर्तमान में प्रसन्न रह पाता है और न भावी काल में प्रसन्न रह सकेगा । तो जिसमें धर्म की प्रेरणा हो, दया का उपदेश हो ऐसा एक भी अक्षर हो तो भी वह श्रेष्ठ है ।
विषयपोषण वाले शास्त्र पापरूप ― किंतु धूर्तों के द्वारा बनाए गए कुशास्त्र जिनमें विषयपोषण की बात लिखी है वे सब पापरूप हैं, श्रेष्ठ नहीं हैं । हमारी कल्पना में तो धर्म के नाम पर पशुवध करना इस कारण से कभी शुरु हुआ होगा कि कुछ समझदार इज्जत वाले लोग चाहते तो हों माँस खाने की बात, लोक में इज्जत भी रहे, धर्मात्मा भी कहलायें तो यों ही तो कर नहीं सकते । तो एक यही उपाय है कि धर्मात्मा भी कहलाते रहें हम प्रजाजनों के द्वारा और माँसभक्षण की हमारी प्रवृत्ति भी कायम रहे, इसके लिए धर्म के नाम पर पशु वध जैसी प्रवृत्ति की हो । इन इंद्रियविषयों ने इस जगत को बरबाद कर दिया है वह है क्या, कुछ थोड़ा सा रसनाइंद्रिय की आशक्ति । न जाने उसमें क्या स्वाद होगा, क्या रस होगा, लेकिन कुबुद्धि ऐसी जग गयी कि जो सब न करें उस काम को करने में कुछ रस सा मानते हैं । सब अन्न खाते हैं तो उसके अतिरिक्त उस माँसभक्षण में कुछ समझ रखा होगा अज्ञानीजनों ने कि इसमें कुछ विशेषता है और जब आदत बन जाती है तो उसका त्याग मुश्किल हो जाता है । आशक्ति की क्या बात बतायें । लोग प्राय: करके भोजन नहीं खाते किंतु पैसा खाते हैं । उदाहरण के लिए मूँगफली और काजू दो चीजें रख लीजिए । किसी को यह पता न हो कि ये 5-6 रु. सेर काजू मिलते हैं तो काजू और मूँगफली इन दोनों के स्वाद में ईमानदारी से मूँगफली का स्वाद अच्छा बतावेगा । लेकिन 5-6 रु. सेर वाले काजू के सामने 8 आने सेर वाली मूँगफली की कदर नहीं है । तो यह आशक्ति की ही तो बात है । जो चीज साफ-साफ सीधे खाई जा सकती है उसे घी में सेंककर चटकीला बनाकर खाते हैं तो यह आशाक्ति की ही तो बात है ।
दया, दान, दमन से कल्याण संभव ― भोजन स्वास्थ्य के लिए किया जाता है । ऐसा उद्देश्य जिसका नहीं है उसको तो पाप का बंध हो रहा है, और इस रसनाइंद्रिय की विषयाशक्ति में निर्दयता भी बसी हुई है । जो पदार्थ सब जीवों द्वारा भोगने योग्य हैं वे सब चाहते हैं खाना । और, उसमें फाल्तू किसी चीज को हम ही अधिक से अधिक उपयोग में लायें यह तो अच्छी आदत नहीं है । यह तो आप पर एक निर्दयता है । अपने ब्रह्मस्वरूप की सुध खोकर केवल उस रसास्वादन में लीन हो गया तो उसने अपनी भी बरबादी किया, तो दमन, दान और दया इन तीन चीजों का स्मरण रखिये । यह कल्याणार्थी का मुख्य कर्तव्य है । अहिंसा के प्रकरण में दया की बात यहाँ चल रही है । दया बिना कोई शुद्ध दान नहीं दे पाता । दया बिना कोई निश्चय से इंद्रिय दमन नहीं कर सकता । दया की प्रवृत्ति बनाना बहुत आवश्यक है ।