वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 771
From जैनकोष
प्रत्यासत्तिं समायातैर्विषयै: स्वांतरंजकै:।
न धैर्यं स्खलितं येषां ते वृद्धा विबुधैर्मता:।।
वृद्ध पुरुषों की विशेषता- वृद्ध पुरुष वे हैं जो मन को रंजायमान करने वाले अनेक समागम भी निकट आ जायें तो भी उनके कारण जिनका धैर्य स्खलित न हो। धीरता बराबर बनी रहे। अब भी और कुछ पहले समय में ऐसे बुजुर्ग लोग होते थे और अब भी क्वचित् पाये जाते हैं कि जिनमें रागद्वेष मोह की मात्रा बढ़ी हुई नहीं है, अपने बच्चे का पक्ष लेना पसंद नहीं करते, जिन्हें न्यायप्रिय है, सब पर जिनकी समान दृष्टि रहती है, यह मेरा है, यह दूसरे का है, यह भाई है, यह मेरा लड़का है इस तरह की पक्षपात की दृष्टि जिनके नहीं है, किंतु उन सबको समान दृष्टि से निरखते हैं ऐसे बुजुर्ग अब भी क्वचित् पाये जाते हैं। देखो भैया ! जो प्राचीन रीति-रिवाज हैं माता पिता के सामने बच्चों को कैसे रहना चाहिए, युवक हो जाने पर भी बालक माता पिता की अनुनय विनय रखे रहे और घर में बहुवें सास ससुर आदि की अनुनय विनय रखे रहे, ये सब रीति रिवाज, ये सब बातें एक शांति का वातावरण रखने में सहायक हैं। जब से ये अनुनय विनय की बातें छूटी तब से विवाद होना बहुत बढ़ गया है, हम जगत के वैभव को सुख का कारण न समझें, किंतु मेरा ज्ञान सही रहे, मैं अपने को पहिचान लूँ, पापों से दूर रहूँ, दरिद्रता को तो पसंद कर लें किंतु अन्याय न पसंद करें ऐसे आशय से हमें सुख प्राप्त होगा। इन सब कल्याण की बातों को पाने के लिए जीवन में इतना तो अभ्यास कर ही लें कि हमारा सबके लिए वचनव्यवहार प्रिय बने। सबसे मुख्य बात है, क्योंकि मनुष्य का धन एक वचन ही है। वचनों से हम एकदम ज्ञात कर सकते हैं कि यह मनुष्य कैसा है?
हितमित प्रिय वचनव्यवहार से समृद्धिलाभ की पात्रता- हमारे वचन हित, मित, प्रिय हों, ऐसी वाणी बोलने का अभ्यास बनायें। अपनी भाषा में कुछ सुधार भी बनायें जिन वचनों को सुनकर दूसरे सुखी हो जायें वे वचन खुद को भी लाभ देंगे और दूसरों को भी लाभ देंगे। अभी गाँव में या किसी भी जगह जितने भी झगड़े उठते हैं निर्णय यदि करें तो उन झगड़ों में मूल में यही बात पायेंगे कि उसने यों कह दिया तो उस पर बढ़ते-बढ़ते झगड़ा हो गया। यदि मर्मछेदी वचन हों तो दूसरे के चित्त को ऐसी पीड़ा देते हैं कि जैसी पीड़ा कोई किसी शस्त्र से भी नहीं दे सकता। लोक साहित्यिक ढंग से मुख को कमल कहा करते हैं। आपके मुखारबिंद से कुछ शब्द निकलें तो ऐसे निकलें कि सुनने वालों को प्रिय लगें। तो मुखारबिंद मायने मुखरूपी कमल है। जैसे फूले हुए कमल से मानो प्रसन्नता टपकती है ऐसे ही मुख से ऐसे वचन निकलने चाहिए जिसको सुनकर दूसरे को प्रसन्नता प्रकट हो। ऐसे ही वचन मिलने वाले मुख को कमल की तरह बताया है।
अहित अप्रिय वचन व्यवहार से सर्वत्र अहित- यदि किसी के मुख से ऐसे वचन निकलें जो दूसरे के हृदय को पीड़ा देने वाले हों तो क्या ऐसे मुख को कोई कमल की तरह कहेगा? मुख को धनुष कह लो। जैसे जिस धनुष से बाण छूट गया तो जिसका लक्ष्य करके छूटा है वह उसके हृदय को छेद भेद देगा। बाण छूट जाने पर कोई कितनी ही मिन्नत करे कि ऐ बाण, तू भूल से छूट गया, वापिस आ जा, तो क्या वह छूटा हुआ बाण वापिस हो सकता है? नहीं हो सकता। वह तो जिसका लक्ष्य करके मारा गया है उसे छेद देगा, ऐसे ही जिसके मुख से दुर्वचन निकल गए तो वे तो उसके हृदय को छेद भेद देंगे जिसका लक्ष्य करके वचन बोले गये हैं, वचन मुख से निकल जाने पर कोई कितनी ही मिन्नत करे कि ऐ वचन, तुम वापिस आ जावो, तुम भूल से मुख से निकल गए हो, तो क्या वे वचन वापिस हो सकते हैं? नहीं हो सकते। इस मुख का भी आकार धनुषाकार होता है। जैसे धनुष दोनों ओर से टेढ़ा होता है ऐसे ही क्रोधदशा में मुख का भी आकार बन जाता है। तो इस बात से हम अपने लिए यह शिक्षा लें कि मुख से कभी भी खोटे वचन न निकालें, दुर्वचन न बोलें, सत्संग में अधिकाधिक रहें, इन दोनों बातों से हमारे जीवन के उद्धार का काम बन सकता है।