वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 798
From जैनकोष
यथा यथा मुनिर्धत्ते चेत: सत्संगवासितम्।
तथा तथा तपोलक्ष्मी: परां प्रीतिं प्रकाशयेत्।।
सत्संग से तपोलक्ष्मी का प्रसाद- साधु संतजन जैसे जैसे अपने चित्त को सज्जन पुरुषों की संगति में लगाते हैं वैसे ही वैसे तपरूपी लक्ष्मी का प्रकाश करती है। तपस्या की प्रभावना तपस्वी संतों के संग में रहकर होती है। जैसा संग मिलता है वैसा ही भाव बनता है। जिन्हें खोटा संग मिलता है उनका खोटा भाव बनता है, जिनका भला संग बनता है उनका भला भाव बनता है। संगति से गुण उत्पन्न होते हैं और संगति से ही अवगुण उत्पन्न होते हैं। सज्जनों का संग मिले तो उससे गुण उत्पन्न होते हैं। जैसे फूलों की संगति से कीड़ा भी सज्जन पुरुषों के सिर पर आ बैठता है। कीड़ा फूल में अंदर छिपकर बैठ जाता है तो उस फूल के संग से वह कीड़ा भी राजा महाराजावों के गले पर आ जाता है। जो मनुष्य तपस्वीजनों के संग में रहते हैं वे उनके तपश्चरण को निरखकर खुद में ही तपश्चरण का भाव जगा लेते हैं। सत्संग की महिमा बतायी जा रही है। लोक में सत्संग का बहुत बड़ा शरण होता है। एक तो वैसे ही अनादिकाल से मोह रागद्वेष की वासना से दु:खी हैं, और फिर अगर सत्संग मिल गया तो विचार शुद्ध बनते हैं। ये जगत के प्राणी एक तो स्वयं दु:खी हैं, पीड़ित हैं, इनमें अज्ञान फैला हुआ है, और मिल जाय अज्ञानियों का संग तो उससे यह जीव बरबाद हो जाता है। अग्नि एक शुद्ध तत्त्व है, उसको पीटने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन लोहे का संग पाकर अग्नि भी पीट जाती है। अकेली आग को कौन पीटेगा। लोहे का संग पाया तो अग्नि भी पीट गई। तो खोटा संग पाने से खोटी आदत बनती है और भला संग पाने से भली आदत बनती है। जो मनुष्य बचपन से कुसंग में पड़ जाता है तो प्राय: जीवनभर उस आदत का मिटाना कठिन है, इससे मनुष्य को अपने बचपन से ही सत्संग का ध्यान रखना चाहिए।