वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 954
From जैनकोष
प्राणात्ययेऽपि संपन्ने प्रत्यनीकप्रतिक्रिया।
मता सद्भि: स्वसिद्ध्यर्थं क्षमैका स्वस्थचेतसाम्।।954।।
शत्रु की चिकित्सा क्षमा― यह क्षमा है सो इस समय उसकी परीक्षा करने की जगह है। यदि पुण्य के योग से मुझे परीक्षा करने का अवसर प्राप्त हुआ है, मेरी परीक्षा किए जाने का मौका मिला है तो मैं देखूँ या मेरी परीक्षा करके यह अवसर देख रहे हैं कि मैं शांतभाव को प्राप्त हुआ कि नहीं। देखिये कोई जांच करना होता है तो प्रयोग करके ही तो होता है। मुझमें क्रोध नहीं है। यदि अपनी जाँच करना हो तो कैसे जांच करें? किसी से कहा जाय कि मैं तुम्हें 5) दूँगा, मुझ पर आधा घन्टा खूब क्रोध करो तो क्या वह क्रोध कर सकता है? न वह क्रोध कर सकेगा और न आप उस समय अपने परिणाम शांत बना सकेंगे। क्योंकि, आप समझते रहेंगे कि यह तो बनावटी क्रोध कर रहा है, यह मेरे क्रोध की परीक्षा नहीं ले रहा है, सो आप उस समय शांत परिणाम बना ही कैसे सकेंगे? किसी ने मुझ पर क्रोध किया और मैंने उस पर रोष न किया तो समझो उसमें मेरे बहुत से पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा हो गयी। जब उपसर्ग आने पर क्षमा कर दें तो समझो कि वह क्षमाभाव है और यदि क्षमा नहीं करते तो वह शांतभाव नहीं है। जब कोई क्रोध करे और उसमें हम अपने परिणाम शांत रख सकें यही अपने परिणाम शांत रखने का अभ्यास है। इस क्रोध कषाय पर विजय पाने के लिए ज्ञानी पुरुष इस प्रकार का चिंतन करते हैं कि मेरा क्रोध कषाय शांत हो। यों क्रोध कषाय को शांत करने का अपना सही ज्ञान बनाने का यत्न करते हैं।