वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 957
From जैनकोष
चिराभ्यस्तेन किं तेन शमेनास्त्रेण वा फलम्।
व्यर्थीभवति यत्कार्ये समुत्पन्ने शरीरिणाम्।।957।।
शमभाव व शस्त्रविद्या के अभ्यास का फल अवसर पर विफल न होना― जैसे कोई पुरुष शस्त्र चलाने का अभ्यास करता है और कर चुका है, बड़ा निपुण है और मौका आने पर उसकी शस्त्रकला व्यर्थ हो जाय तो उस अभ्यास ये फायदा क्या मिला? इसी तरह चिरकाल से तत्त्वज्ञान करके सत्संग बनाकर स्वाध्याय प्रभुभक्ति आदिक करके समता का शांति का अभ्यास बनाया था कुछ काम पड़ने पर, उपसर्ग होने पर वह शांति का अभ्यास व्यर्थ हो जाय तो उस शांति के अभ्यास से लाभ क्या हुआ? उपसर्ग आने पर यदि क्षमा न की और शत्रु के सम्मुख आने पर शस्त्रविद्या का प्रयोग न किया तो उनका अभ्यास करना व्यर्थ ही होगा। जितने भी धर्मपालन हैं वे इसलिए हैं कि यह आत्मा विषय कषायों से दूर हो, और अपने सहज स्वरूप की दृष्टि बनाये जिससे अशांति समाप्त हो और शांति का उदय हो। धर्म पालन करता जाय और मौका आये तो क्रोध कर बैठे तो उस अभ्यास से लाभ क्या हुआ? जैसे मंदिर में जाकर बहुत-बहुत पूजन करते हैं स्तवन करते हैं― हे प्रभो ! आतम के अहित विषय कषाय हैं, क्रोध, मान, माया, लोभ के परिणाम आत्मा का अहित करने वाले हैं, इनमें मेरी परिणति न जाय, ऐसा मंदिर में स्तवन करते हैं और मंदिर से बाहर निकले अथवा मंदिर के ही भीतर, झगड़ने लगते, क्रोध करने लगते। अरे यह क्या हो गया? अभी तो क्या कह रहे थे और अब क्या कह रहे हैं? तो मंदिर में स्तवन में जो कुछ कह रहे थे वह विवेकपूर्वक सच्चे दिल से नहीं कह रहे थे। अभी तो उत्कृष्ट विचार कर रहे थे कि यह सारा जगत तो असार है, परिग्रह बंधन का कारण है, परिजन व्यवहार दुर्गति का कारण है, अब थोड़ी ही देर बाद में राग, द्वेष, मोह के सारे अवगुण आ गए। तो क्या उतनी जल्दी असर मिट जाता है, लो लोहा भी अग्नि में गर्म किया जाता है तो अग्नि से बाहर निकलने के बाद बड़ी देर तक गर्म रहता है, पर वह तो मंदिर में उत्कृष्ट विचार करने के बाद एक सेकेंड भी शांत न रह सका। मंदिर में उत्कृष्ट विचार भी करते जा रहे हैं और लड़ते भी जा रहे हैं। तो इतना जल्दी वह प्रभाव कैसे समाप्त हो गया? अरे जब उत्कृष्ट विचार कर रहे थे उस समय भी विषय कषायों की वासना लगी हुई थी। अभ्यास वास्तव में कोई करे उसके लिए बात कही जा रही है कि सत्संग से, गुरुपासना से, भगवद्भक्ति से, तत्त्वज्ञान से जो समतापरिणाम रखने का, शांतभाव लाने का अभ्यास किया था, खूब अभ्यास कर चुके, अब जब उपसर्ग आया तो उस मौके पर वे अभ्यास बिगड़ गए। क्रोध आ गया तो ऐसे अभ्यास से लाभ क्या? व्यर्थ ही हुआ। और व्यर्थ भी नहीं हुआ, अभ्यास करना तो भला ही है। अभ्यास करने पर मान लो एक समय व्यर्थ हो गया, फिर सम्हल जावें, उसका पश्चाताप भी करें। तो अभ्यास करना तो योग्य ही है, पर क्रोध न आने देने के लिए एक ताड़ना की है कि समय पर यदि क्रोध आ गया तो वह अभ्यास व्यर्थ ही रहा।