वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 986
From जैनकोष
क्व मायाचरणं हीनं क्व सन्मार्गपरिग्रह:।
नापवर्गपथि भ्रात: संचरंतीह वंचका:।।986।।
मायाचारी पुरुषों द्वारा मोक्षमार्ग में संचरण की असंभवता― देखो दोनों स्थितियों में कितना अंतर है। एक स्थिति तो है मायाचार की, मायारूप हीन आचरण करना, छल-कपट करना, मन में और, वचन में और, करे कुछ और कहाँ तो मायारूप तुच्छ आचरण और कहाँमहाव्रत की स्थिति बन जाना, बड़े तप व्रत आचरण का ग्रहण करना। यह ग्रंथ साधुजनों की मुख्यता से समझाने के लिए बना है। तो सबसे बड़ी व्रत की बात कही जायगी। कितना अंतर है कि कहाँ तो भारी व्रत का ग्रहण करना और कहाँमायाचाररूप आचरण करना ! क्या कुछ मेल भी बैठता है? जैसे कोई कहे कि आटे में नमक जैसा, तो फब जायगा। जैसे कहते हैं कि आजकल सरकारी कानून अधिक खराब बने हैं तो टैक्स वगैरह बिना काम ही अफसर अंधाधुंध लगा देते हैं। अगर कोर्इ टैक्स ठीक देने की दृष्टि से कुछ लेखा जोखा गलत रूप में रखे तो कितना गलत रख सकता है? अरे आटे में नमक जैसा गलत तो फब सकता है पर कोर्इ चाहे कि बिल्कुल ही गलत दिखावें तो वह फबेगा कैसे? ऐसे ही यहाँकोई महाव्रत और संयम की स्थिति में कुछ जरा सा हीन आचरण रखेगा तब तो वह फब सकता है, पर कोई बिल्कुल ही मायाचार की प्रवृत्ति रखे, अपने संयम में बिल्कुल ही शिथिलाचरण करे तो वह कहाँ से फब सकता है? सो हे भाई जिन्होंने महाव्रत धारण किया है उनके तो जरा भी मायाचार न होना चाहिये। जो मायाचारी हैवह मोक्षमार्ग में कभी विचरण नहीं कर सकता। मोक्षमार्ग याने शांतिमार्ग, उन्हें शांति कहाँ से मिल सकती, जहाँ कुटिल भाव आ गया, यह भी भाव आ जायकि मैं लोगों को, भक्तों को अपनी कुछ बात दिखाऊँ, सदाचरण बताऊँ, तपश्चरण दिखाऊँ कि मैं ढंग से हूँ, मैं इन लोगों में अपनी श्रेष्ठता जताऊँ, इतना भी भाव आये तो वह मायाचार की धारा है। मुनि तो उसका नाम है जो निरंतर आत्मा के सहज चैतन्य स्वरूप का मनन करता रहे। और ऐसा ही सर्व संन्यास में है। तो थी तो बात यह और किया गया मायारूप आचरण, तो आचार्यदेव खेद के साथ कहते हैं कि ऐसा मायाचारी पुरुष शांति के साथ विचरण नहीं कर सकता।सब लोगों को खुश करना, प्रसन्न रखना, कैसे लोग समझें कि इनका बहुत अच्छा आचरण है, बहुत अच्छा स्वभाव है, सारे लोग भली भाँतिजान जाय, ऐसी किसी भी प्रकार की मन में जो वांछा रहती हैवह मायाचार का एक साधन है। ऐसी इच्छा होने पर मायाचार की प्रवृत्ति आ सकती है लेकिन जहाँएक समता के साथ प्राणिमात्र के प्रति हित की भावना हो वहाँ इसका प्रसंग नहीं। जो सर्व जीवों के प्रति लोकहित की भावना रखता है उसकी प्रवृत्ति ऐसी नहीं हो सकती कि श्रद्धा कुछ हो और कार्य कुछ किया जाय। तो मायाचार से जिसका हृदय कलुषित है ऐसा पुरुष आनंदमहल में प्रवेश नहीं कर सकता।