वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 988
From जैनकोष
नयंति विफलं जन्म प्रयासैर्मृत्युगोचरै:।
वराका: प्राणिनोऽजस्रं लोभादप्राप्तवांछिता:।।
लोभी प्राणियों के जन्म की विफलता―माया कषाय का वर्णन करने के बाद माया की बड़ी सखी तृष्णा (लोभ) कषाय का अब वर्णन करते हैं। ये कायर प्राणी लोभकषाय के वशीभूत होकर अपना बिगाड़ कर रहे हैं। जिसके हृदय में तृष्णा है, लोभ है वह उन पर पदार्थों की प्राप्ति के लिए मृत्यु से भी नहीं डरता। इस तरह ऐसा कठोर श्रम करके अपनी सुध भूलकर अपना जीवन व्यर्थ खो देता है। लोभ कषाय की बात पुराण पुरुषों में भी देखिये धन कमाने के लिए निकले थे चारुदत्त और उनके चाचा।उन्होंने सुना कि रत्नद्वीप पहुँचने पर धन की बहुत बड़ी कमाई होती है इसलिए वे वहाँपहुँचने के लिए उद्यमी हुए। बीच में था बड़ा भारी समुद्र, उस समुद्र को पार करके वहाँपहुँचने के लिए चाचा ने क्या उपाय सोचा कि किसी बकरे की दो ताजी भातड़ी बनायी जाय, उसके बीच दोनों घुस जायें और उसे सी दें। उसको कोई पक्षी अपने मुख में दाब लेगा, और वह पक्षी उस भातड़ी सहित हमें रत्नद्वीप के तट पर पटक देगा, बस पहुँच जायेंगे। आखिर उन्होंने ऐसा उपाय रच ही डाला। देखिये इस लोभ कषाय के वश यह प्राणी कितने कठिन श्रम कर डालता है।वह लोभकषाय के वश होकर अपने प्राणों की बाजी तक लगा देता है इतने पर भी उस लोभी प्राणी के मनोवांछित कार्यों की सिद्धि नहीं होती है। उन्हें संतोष तो नहीं मिल पाता। लोभी पुरुष संतोष कहाँसे पायेंगे? जो चाहा सो यदि मिल गया तो अब उससे भी अधिक मिलने की चाह हो जाती है। जो मिलना था सो मिला, क्योंकि वे तो परद्रव्य हैं, पर उसने अपनी कल्पना ऐसी बना डाली कि मेरे पास तो अभी कुछ भी नहीं है। लो इस तृष्णा के वश होकर वह अपने को सदा रीता का रीता अनुभव करता है। उसे कभी संतोष नहीं प्राप्त होता। जैसे तेज गर्मी के दिनों में रेगिस्तान में रहने वाला हिरण जब दोपहर के समय में प्यासा होता है तो वह अपना सिर उठाकर सामने दृष्टि डालता है और दूर की चमकने वाली रेत पानी जैसी प्रतीत होती है, वह अपनी प्यास बुझाने के लिए वहाँदौड़कर जाता है, पर वहाँपानी का नाम नहीं। वहाँदौड़कर जाने से उसकी प्यास और भी बढ़ गई, फिर अपना मुख उठाकर दूर दृष्टि डाला तो वहाँ फिर दूर की चमकती हुई रेत पानी जैसी प्रतीत हुई फिर दौड़ लगाकर वहाँपहुँचा, देखा तो पानी है ही नहीं। वह बेचारा हिरण तो दौड़ लगाकर अपने प्राण खो बैठता है, अपनी प्यास नहीं बुझा पाता, ठीक इसी प्रकार ये संसारी अज्ञानी प्राणी लोभकषाय के वश होकर बाह्य पदार्थों के पीछे दौड़ लगाते हैं, फल यह होता हे कि उन्हें जीवन में कभी शांति नहीं मिलपाती और अंत में इस अशांति अनल की ज्वाला में भस्म होकर अपने प्राण गवा देते हैं । अरे उदयानुसार जो कुछ मिल गया सो ही काम चलाने के लिए बहुत है, पर इस तृष्णा के वश होकरवर्तमान में पाये हुए सुख साधनों का लाभ भी ये नहीं लूट पाते। तो इन लोभी जनों ने सिद्धि तो कुछ न पाई, क्योंकि मिला कुछ भी नहीं, संतोष नहीं, तृप्ति नहीं उसका मिलना क्या? तो बाह्य वस्तु हैं, लेकिन तृष्णा के आधीन होकर लोभी अपने आत्मा की सुध खो बैठता है और जीवन व्यर्थ गवा डालता हैं।