वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 98
From जैनकोष
पर्याऽट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधेहि बज्जिदो अप्पा।
सोहं इदि चिंतिज्जो तत्थेव य कुणदि थिरभावं।।98।।
बंधनिर्मुक्त आत्मतत्त्व का चिंतन- जो प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध से रहित है, वह मैं हूं, ऐसा चिंतन करता हुआ यह ज्ञानी पुरुष इस आत्मतत्त्व में ही स्थिरभाव को करता है। इस गाथा में सर्व प्रकार के बंधनों से निर्मुक्त आत्मतत्त्व की भावना का अनुरोध किया गया है साधुजनों की प्रत्याख्यानमयी स्थिति बताकर।
प्रदेशबंध– कर्म कामार्णवर्गणा जाति के सूक्ष्म पौद्गलिक स्कंध हैं। इस संसारी जीव के साथ अनंतानंत कार्माणवर्गणाएँ तो कर्मरूप बंधी हुई हैं और अनंत कार्माणवर्गणाएँ ऐसी भी जीव के साथ एकक्षेत्रावगाहरूप विराजी हुई हैं, जो कर्मबंधन के उम्मीदवार हैं। साथ ही अनंत कार्माणवर्गणाएँ इस लोक में ऐसी भी भरी पड़ी हैं, जो अभी तक किसी जीव के साथ विश्रसोपचयरूप भी नहीं हैं; किंतु जीव प्रदेश में आकर कर्मरूप होने की सामर्थ्य रखती हैं। इस प्रकार इस जगत् में जीवों से अनंतानंतगुणी कार्माणवर्गणाएँ भरी पड़ी हुई हैं। यह जीव जब राग-द्वेष-मोह का परिणाम करता है तो ये कार्माणवर्गणाएँ इस आत्मा के साथ निमित्तनैमित्तिक भाव की पद्धति से बंधन को प्राप्त हो जाती हैं। यह है प्रदेशबंध।
प्रकृतिबंध- प्रदेशबंध होने के समय उन समस्त कामार्णवर्गणावों में जो उस समय बंधी हुई हैं, उनमें तुरंत बंटवारा हो जाता है कि इतनी कार्माणवर्गणाएँ ज्ञान ढाकने का काम करेंगी, इतनी दर्शन को प्रकट न होने देने में निमित्त बनेंगी, इतनी सुख-दु:ख वेदन कराने में निमित्त बनेंगी। इतनी श्रद्धा और चारित्र को बिगाड़ने के लिए निमित्त होंगी। इतनी कार्माणवर्गणाएँ अगले भव में जीव को शरीर में रोके रहने के लिए कारण बनेंगी।, इतनी कार्माणवर्गणाएँ इस जीव को नया शरीर प्राप्त कराने के और निर्माण का कारण बनेंगी ये कार्माणवर्गणाएँ इस जीव के ऊँच और नीच कुल के व्यवहार कराने का निमित्त होंगी और ये इस जीव की अभीष्ट बात में बाधा डालने में निमित्त होंगी। ऐसा विभाजन तुरंत अपने आप हो जाता है। इस प्रकृति के बंटवारे का नाम, उन कार्माणवर्गणावों में ऐसी प्रकृति पड़ जाने का नाम प्रकृतिबंध है। ये दोनों प्रकार के बंध इस जीव के योग का निमित्त पाकर होते हैं।
स्थितिबंध- बंधन के समय ही इन कार्माणवर्गणावों की स्थिति भी निश्चित हो जाती हैं कि ये बंधे हुए कर्म इस जीव के साथ इतने वर्षों, सागरों पर्यंत रहेंगे, ये आबाधाकाल के बाद प्रतिसमय के निषेकों में विभक्त होकर रहेंगे। उनमें ऐसा प्रवर्तन चलता है, मोटेरूप में समझ लो। जैसे मान लो कि इस समय 10 करोड़ परमाणु बंधे हैं किसी एक प्रकृति के, तब उन 10 करोड़ परमाणुवों का यदि मान लो कि 1 लाख वर्ष तक के लिए बंधे हैं तो उन 10 करोड परमाणुवों में ऐसी स्थिति का विभाजन हो जाएगा कि इतने परमाणु 5 दिन बाद खिर जायेंगे, इतने 6 दिन बाद , इतने 7 दिन बाद। ऐसा मान लो कि एक एक दिन बढ़ाकर 10 लाख वर्ष तक वे परमाणु खिर जायेंगे, इसके व्यवहार में 1 लाख वर्ष की स्थिति हुई है। स्थिति में ऐसा नहीं है कि मान लो 1 लाख वर्ष की स्थिति पड़ी है तो उससे पहिले उनमें से कोई कर्म उदय में न आयें और एकदम 1 लाख वर्ष पूरे होने के टाइम में सारे उदय में आयें, ऐसा नहीं होता; किंतु कुछ ही समय के बाद अथवा आबाधाकाल के बाद निरंतर प्रतिक्षण उनमें से उदय चलता रहता है और यह उदय कब तक चलेगा? जब तक चलेगा, उतनी स्थिति कहलाती हैं।
अनुभागबंध- इसमें यह भी जान जाइए कि किन किन समयों के बांधे हुए कर्म उदय में आ रहे हैं। करोड़ो वर्ष पहिले के बांधे हुए कर्म भी आज उदय में आ रहे हैं और इसी भव के बांधे हुए कर्म भी उदय में आ रहे हैं। अत: वर्तमान में एक समय में उदय की जो परिस्थिति बनती है, वह एक समिश्रणरूप बनती है। इस ही समय करोड़ों वर्ष पहिले के बांधे कर्म भी उदय में हैं और कुछ दिन पहिले के बांधे हुए कर्म भी उदय में हैं तो उन सबमें फल देने की जो शक्ति है, उन शक्तियों का जो अनुपात में मेल बैठता है, उसके अनुसार फल मिलता है। इन प्रकृतियों में उस ही समय अनुभाग बंध पड़ जाता है। जो कर्म बंधे, उन कर्मप्रकृतियों में ये वर्गणाएँ इतने दर्जे का फल देने में निमित्त होंगी, ये इतने दर्जे का फल देने में कारण होंगी, ऐसा उनमें फलदानशक्ति का भी बंधन हो जाता है, इसे कहते हैं अनुभागबंध।
कर्मबंधन में चतुष्टयात्मकता- विपाकानुभव का कारण, विपदा का कारण, विडंबना का कारण यह है अनुभाग। एक कल्पना करो कि अनुभाग कर्म में न हों, वे बंधे रहे, उनमें प्रकृति पड़ी रहे, उनमें स्थिति बनी रहे और जो कर्म आज बंधे हैं उनमें भी अनंतगुणे उसके ऊपर चढ़ते रहें; लेकिन उनमें अनुभाग न हो, फलदान शक्ति न हो तो उनका क्या डर है? लेकिन ऐसा नहीं होता है। अनुभाग भी पड़ा हुआ है और अनुभाग प्रकृतिप्रदेश की स्थिति बिना आ नहीं सकती हैं, अत: वे तीन भी बंधे हुए हैं। अनुभाग किनमें पड़ा है? जिनमें पड़ा है, उसका नाम है प्रदेशबंध। यह अनुभाग वाला प्रदेश कितने समय तक रहेगा? ऐसी बात न हो, कुछ ठहरे ही नहीं आत्मा में, तब अनुभाग कहां विराजेगा? यह अनुभाग किस प्रकार के फल को देने में कारण है? ऐसा कोई प्रकार न हो, प्रकृति न हो तो वह अनुभाग किसका है? यों कर्मबंधन में प्रकृति प्रदेश स्थिति और अनुभाग चार बंधन आ सकते हैं।
बंधनचतुष्टयात्मकता पर भोजन का दृष्टांत- जैसे मनुष्य ने भोजन किया तोभोजन का जो स्कंध है, उसका पेट में बंधन हुआ। यह तो समझ लीजिए। प्रदेशबंधन और उस भोजन में यह बंटवारा हो जाना कि यह भोजन इतने अंग में तो खूनरूप बनेगा, इतने में मलरूप, इतने में मूत्ररूप, इतने में पसीनारूप, इतने में हड्डीरूप और इतने में वीर्यरूप बनेगा, इस प्रकार का बंटवारा हो जाता है। तभी तो वैद्य कहते हैं कि इसको खावों तो मल अधिक बनता है, इसको खावो तो खून कम बनता है, इसको खावो तो वीर्य अधिक बनता है, इसे खावो तो रूधिर अधिक बनता है, इसे खावो तो हड्डीरूप बनता है, इसे खावो तो मांस-मज्जा बढ़ता है- जैसे भोजन में बंटवारा हो जाना, प्रकृति पड़ जाना, इसको कह लीजिए प्रकृतिबंधन। साथ ही उस खाये हुए भोजन में जो ऐसी स्थिति पड़ जाती है कि जो मलरूप बन गया है अंश, वह तो 10 घंटेभर रहेगा; जो पसीनारूप बन गया है, वह घंटेभर रहेगा; जो खूनरूप बन गया है, वह कुछ वर्ष रहेगा; जो हड्डीरूप बन गया है, वह 50 वर्ष रहेगा; जो वीर्यरूप बन गया है, वह इतने वर्ष रहेगा। ऐसी उसमें रहने की म्याद भी पड़ जाती है ना? समझ लीजिए इसका नाम है स्थितिबंधन। साथ ही उस भोजन में शक्ति भी पड़ जाती है। पसीने में शक्ति का अंश बहुत कम है, मूत्र में शक्ति उससे अधिक है, मल में शक्ति उससे अधिक है, खून में उससे अधिक है, मांस-मज्जा मेंउससे अधिक है, हड्डी में उससे अधिक है और वीर्य में सर्वाधिक शक्ति दिखाई देती है। इस प्रकार से उस भोजन में शक्ति के पड़ जाने पर यह मान लीजिए कि यह अनुभागबंधन है। जहां ये चार प्रकार के बंध होते है, उसे कहते हैं बंधन।
लोकबंधन का एक दृष्टांत– किसी मनुष्य को रस्सी से बाँध लो- नारियल की रस्सी से बाँध लो, रेशम की रस्सी से बाँध लो, सूत की रस्सी से बाँध लो। जहां किसी परपदार्थ का इस भांति से संपर्क होता है तो वह प्रदेशबंधन है। उसमें जो प्रकृति पड़ी हुई है, उसका बंधन इस प्रकृति का है। रेशम की भांति और नारियल की भांति का बंधन कुछ प्रकृति में अंतर रखता है ना? वह प्रकृतिबंधन है। कब तक प्रकृतिबंध रहेगा? ऐसा उसमें प्रमाण रहना, सो स्थितिबंधन है। कितना तगड़ा, कितना कठोर, कितना क्लेशकारी इसका बंधन है? यह बात भी तो पड़ जाती है, यह समझ लो अनुभागबंधन। ये चार प्रकार के बंधन बंध में हुआ करते हैं।
प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध का कारण योग- इन चार बंधनों में से प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध तो शुभ अशुभ, मन, वचन, काय की क्रियावों से होता है। जो लोग दूसरों के लंगड़ेपन को, रोग को देखकर किसी प्रकार की नकल करता है, मजाक करता है अथवा उसे चिढ़ाता है, जैसे हाथ-पैर कुछ टूटे से चलते हैं तो उस तरह से चलाए, उसकी नकल करे- ऐसी अशुभ क्रियाएँ की जाती हैं तो वैसा ही अशुभ कर्म बंधता है, उसे भी थोड़ा बहुत वैसा ही होना पड़ेगा। जैसे शुभ क्रियाएँ मन की करें, वचन की करें और शरीर की करें, कर्म में उस प्रकार की शुभ प्रकृति पड जाती है और भविष्य में प्राय: वैसी ही मन, वचन, काय की क्रियाएँ होंगी। मन, वचन, काय की नवीन कर्म परमाणुवों का आकर्षण करने में कारण होती हैं। इसी प्रकार मन, वचन, काय के कार्यों से प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होता है।
स्थितिबंध व अनुभागबंध का कारण कषाय- उस बद्धकर्म में जो स्थिति पड़ती है कि यह प्रकृति इतने दिनों तक रहेगी या उनको जो फलदानशक्ति पड़ती है कि यह कर्म इतनी डिग्री का फल देने का कारण होगा। यह दोनों प्रकार का बंध कषायों द्वारा होता है। तिर्यंच, मनुष्य और देव आयु अधिक से अधिक बंधे, इसका कारण है मंदकषाय। मंदकषाय ही तो इन तीनों आयुवों की स्थिति ज्यादा बंधती है। इसके अतिरिक्त जितने भी कर्म हैं, उन कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बंधे तो उसका कारण है तीव्रकषाय। ये तीनआयु पुण्य-प्रकृति हैं-मनुष्य, तिर्यंच और देव। क्योंकि इनको अपनी आयु प्यारी है, ये कभी मरना नहीं चाहते। नरक आयु पापायु है। ये नारकी प्रार्थना करते रहते हैं कि मैं झट मर जाऊँ। कितने समय तक यहाँ रहना पड़ेगा। यह नरकायु भी पापायु है। यदि ये तीन आयु शुभ आयु हैं तो इनकी स्थिति ज्यादा बंधेंगी अर्थात् ज्यादा दिन तक उस भव में यह रह सके- ऐसी उत्कृष्ट स्थिति का बंधना मंदकषाय से होगा। यदि तीव्रकषाय है- क्रोध, मान, माया, लोभ की प्रचुरता है तो ये तीन आयु उत्कृष्ट स्थिति में न आ सकेंगी। इनकी अल्प स्थिति रह जाएगी। इन तीन पुण्य आयु के अतिरिक्त बाकी पुण्य-प्रकृतियां भी बहुत हैं। शुभ, सुभग, यश:कीर्ति, तीर्थंकर आदि अनेक पुण्य-प्रकृतियां हैं। इन आयुवों से भी अच्छी समझ में आने वाले शुभ प्रकृतियां हैं। उनकी ज्यादा स्थिति बंधेगी तो तीव्रकषायों में बंधेगी।
उत्कृष्ट स्थितिबंध का कारण- संक्लेश परिणाम से तीर्थंकर जैसी उत्कृष्ट प्रकृति का बंध है। सम्यग्दृष्टियों में जितना संक्लेश संभव है, उसमें उत्कृष्ट स्थिति बंधती है। प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति तो तीव्रकषायों में बंधती ही है, इसमें तो संदेह ही नहीं है। स्थिति के बंधन की निर्भरता कषाय पर है। जैसी तीव्रकषाय होगी, उसी प्रकार की स्थितियां बंधेंगी। इस प्रसंग में थोड़ा यह संदेह किसी को हो रहा होगा कि ये पुण्यप्रकृतियां शुभ, शुभग, यश:कीर्ति, तीर्थंकर और अनेक उत्कृष्ट स्थितियां तीव्रकषायवश हुआ करती है। इसका क्या कारण है? इसका कारण स्पष्ट है। कर्ममात्र भी का बंधन इस जीव की अपवित्रता का कारण है। ये संसार में रोके रहेंगी। ये कर्म जब तक जीव के साथ हैं, तब तक ये रोके रहेंगी।
स्थितिबंध का उपसंहार- इन कर्मों के द्वारा संसार में रुके रहने का काम उसके बड़ा होगा, जिसके तीव्रकषाय होगी। संक्लेश परिणाम के ही कारण यह जीव संसार में अधिक दिनों तक टिक सकेगा, इस कारण शुभ कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति संक्लेश परिणाम से होती है; किंतु तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु की उत्कृष्ट स्थिति का बंध तीव्रकषाय से नहीं हो सकता। यह बात भी स्पष्ट समझ में आ जाती है। कहीं तेज क्रोध करने से बहुत दिनों तक देव रह सकेंगे क्या? कहीं तीव्रक्रोध करने से बहुत दिनों तक मनुष्य रह सकें, ऐसी स्थिति पायी जा सकती है क्या? यहां शायद आप यह कहेंगे कि यदि ये कर्म तीन शुभ आयु के बहुत दिन तक न रह सकें तो इसमें तो यह नुकसान है कि संसार ज्यादा दिनों तक न रहेगा। भैया ! उसकी क्या चिंता है? ज्यादा दिनों तक एक गति में रहकर संसार वृद्धकों में मुख्यरूप से रहना है तो नरक आयु का तो दरवाजा खुला है। खूब क्रोध करें, खूब मान, माया, लोभ करें तो नरकगति उनके लिए हाजिर है। तीव्रसंक्लेश में, तीव्रकषाय में, तीव्रतृष्णा में नरक आयु का बंध उत्कृष्ट पड़ता हैं। यों स्थितिबंध और अनुभागबंध इस जीव के कषाय के अनुसार होता है।
सत् उपयोग- ये चार प्रकार के बंधन इस जीव के साथ अनादिकाल से चले आ रहे हैं। इस जीव ने इस बंधन के वश कैसी-कैसी दुर्गति पायी है, महाकष्ट भोगा है। उन सबके मुकाबले आज जो हम आपने स्थिति पायी है, वह एक बहुत उत्कृष्ट स्थिति है। इस मनुष्यभव में इतना उत्कृष्ट मन मिला है कि इसका उपयोग करें, इस मायामय जीव-लोक से अपना नाता रखने में बड़प्पन न समझें, अपने स्वरूप की ओर दृष्टि करें तो लोकबंधन और संसार का संकट अवश्य समाप्त हो सकता है। इन चार बंधनों से रहित जो आत्मतत्त्व है, वह मैं हूं। ऐसा ज्ञानी पुरुष चिंतन कर रहा है। यद्यपि ये चार प्रकार के बंधन आत्मपदार्थ पर पड़े हुए हैं; पर इस आत्मपदार्थ में जो सहज सिद्ध आत्मतत्त्व है, वह आत्मतत्त्व इन चार प्रकार के बंधनों से रहित है। यह आत्मतत्त्व त्रिकाल निरावरण निरंजन सदा शुद्ध सदामुक्त स्वरूपमात्र है। ऐसा यह निर्द्वंद्व आत्मतत्त्व जो सदा निरुपाधिस्वरूप है, वह मैं हूं। इस प्रकार की सम्यग्ज्ञानी पुरुष भावना किया करता है और इस भावना के प्रसाद से भविष्यत् सभी प्रकार के कर्मों का निरोध हो जाता है, त्याग हो जाता है।
कर्मनिर्मुक्त स्वत्व का चिंतन- यहां यह ज्ञानी पुरुष बंधनिर्मुक्त आत्मतत्त्व का चिंतन कर रहा है। इस चिंतन में जो कर्मनिर्मुक्त अरहंत सिद्ध प्रभु का आत्मा है, वैसा ही मैं हूं- ऐसा चिंतन करना व्यवहारदृष्टि का चिंतन है और यह जीवतत्त्व चैतन्यस्वरूप अपने स्वरूप में अपने स्वभावरूप है। इसमें कर्म आदि किसी भी परद्रव्य का प्रवेश नहीं है, ऐसा चैतन्यमात्र मैं हूं। ऐसे चिंतन को निश्चयनय का चिंतन कहते हैं। निश्चयनय में जो निर्णय पड़ा हुआ है, वह जहां विशुद्ध व्यक्त हो जाता है, उसे कहते हैं शुद्ध निश्चयनय का व्यवहार।
मुक्ति के उपाय में प्रथमपुरुषार्थ- यह जीव कर्मों से कैसे मुक्त होता है? उसके उपाय में सर्वप्रथम यह मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञानाभ्यास करता है, अपनी शक्ति के माफिक तत्त्वचिंतन करता है। इस चिंतना के प्रसाद से मोह मंद होता है, वस्तुस्वरूप पर दृष्टि लगती है, तब इस अभ्यास के बल से इसके अध:करण, अपूर्णकरण और अनिवृत्तिकरण परिणाम होता है। अध:करण परिणाम उसे कहते हैं, जिसके ऊपर के समय वाले साधक जैसा विशुद्ध परिणाम नीचे के समय वाले साधक में भी हो सके। ऐसी अनुकृष्टिरचनारूप जहां परिणामों की विशुद्धि चलती है, उसे अध:करण परिणाम कहते हैं। यह प्रयोगात्मक विशुद्धि का प्रथम कदम है। इस विशुद्धि के प्रयोग में फिर ऐसी योग्यता आ जाती है कि प्रति समय इसके अपूर्व-अपूर्व विशुद्ध परिणाम चलते रहते हैं। यह द्वितीय कदम है, जिसमें बहुत सी उत्कर्षता की बातें होने लगती हैं। असंख्यातगुणी निर्जरा पहिले समय में हुई, उससे असंख्यातगुणी निर्जरा अगले समय में होती है; किंतु यह निर्जरा स्थिति और अनुभाग की निर्जरा है, प्रकृति की निर्जरा नहीं है।
सर्वप्रथम प्रकृतिनिर्जरण- प्रकृति की निर्जरा का अर्थ है कि वह प्रकृति ही न रहे और स्थिति अनुभाग की निर्जरा का अर्थ यह है कि उन परमाणुवों का स्थितिघात हो जाए और अनुभाग का फलदान शक्ति भी घात हो जाए। इस निर्जरा के फल में प्रकृतिनिर्जरा होगी। अनवृत्तिकरण परिणाम पाकर इसके प्रकृतिनिर्जरा हो जाती है। उस समय सम्यक्त्वघातक 7 प्रकृतियों की निर्जरा हो सकती है। सप्तप्रकृतियों की निर्जराक्षायिक सम्यक्त्व में ही हुआ करती है। उपशमसम्यक्त्व में प्रकृतिनिर्जरा नहीं है, वरन् विसंयोजन है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में भी प्रकृतिनिर्जरा नहीं है। प्रकृतिनिर्जरा में फिर वह प्रकृति ही नहीं रहती है। उपशमसम्यक्त्व में सम्यक्त्वघातक 7 प्रकृतियां उपशांत हैं, दबी हुई हैं, सत्ता से खत्म नहीं होती हैं। क्षायोपशमिकसम्यक्त्व में 6 प्रकृतियां दबी हैं और कुछ निष्फल होती हुई उदयावलि में आती रहती हैं तथा एक सम्यक्त्वप्रकृति का उदय भी रहता है; किंतु क्षायिक सम्यक्त्व तब ही संभव है, जब इन सातों प्रकृतियों की सत्ता ही मिट जाए। इन प्रकृतियों की जब निर्जरा होती है तो इन कर्मों में बहुत बड़ा प्रक्षोभ हो जाता है। कैसे प्रकृतियों के निषेक टूटते हैं, नीचे मिलाया जाता है, कैसे उनका अनुभागघात होता है। वह सब यों जान लीजिए कि अनादिकाल से प्रबलतापूर्वक चले आये हुए ये कर्म जब समूल नाश को प्राप्त होंगे तो कितना भड़भड़ इसमें हो सकता है और कैसी दुर्दशा में ये कर्म नष्ट हुआ करते हैं?
मोक्षमार्गी जीव के कुछ प्रकृतियों का जन्मत:ही असत्त्व- जो जीव उस ही भव से सर्वथा कर्मनिर्मुक्त होंगे, उस जीव के नरक आयु, तिर्यंच आयु और देव आयु की सत्ता ही नहीं रहती है। जिस पुरुष को मोक्ष जाना है, उस पुरुष के तो सिर्फ एक मनुष्य आयु है। अत: वह भी जो भोगी जा रही है, वह मनुष्य आयु है। अन्य मनुष्य आयु बंधी हुई नहीं है, जिससे अगले भव में भी मनुष्य हो। यह तो इस मनुष्यदेह को छोड़कर मुक्त होगा। उसके तीन आयु नहीं है। कोई मनुष्य ऐसा हो कि जो तीर्थंकर न होगा और मुक्त होगा, उसके तीर्थंकरप्रकृति की भी सत्ता न होगी और कोई पुरुष ऐसा हो कि जिसने आहारक शरीर का बंध न किया हो तो उसके आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग- ये दोनों प्रकृतियां भी नहीं रहती हैं।
असंख्यातगुणी निर्जरा का अवसर- अब यह जीव व्रतावस्था में बढ़ा, इसके अव्रत परिणाम के विकल्प छूटे। व्रत परिणाम में यह आया, अत: व्रत परिणाम में जब यह आता है तो इसके अध:करण और अपूर्वकरण- ये दो परिणाम होते हैं। जिस समय व्रतग्रहण होता है, ब्रह्म का भाव होता है, उस समय इसके असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। व्रतग्रहण कर चुकने के बाद वर्षों तक यह व्रती रहेगा; किंतु वर्षों तक असंख्यातगुणी निर्जरा नहीं होती, साधारणरूप से हुआ करती है। यह करणानुयोग का मर्म इस तथ्य को भी प्रकट करता है कि देखा होगा। कोई साधु बनता है, कोई प्रतिमा ग्रहण करता है तो प्रारंभ में उसके कितनी बड़ी निर्मलता होती है? बड़ा उत्कृष्ट वैराग्य होता है। जब साधु हो रहा है तो वह न मां की सुने, न पिता की सुने, न मित्रों की सुने। उसके तो एक ही धुन है। लोग इस अचरज में हो जाते हैं कि क्या हो गया है इसके दिल में? अभी तक हम सबका बड़ा विश्वासपात्र था, जो हम कहते थे सो करता था। अब इसके क्या धुन समा गई? इतनी उत्कृष्ट वैराग्य की अवस्था हो जाती है। उस समय विशेष निर्जरा चलती है। व्रतग्रहण कर चुकने के बाद वर्षों तक यह साधु रहेगा, पर प्राय: देखा होगा कि इतनी धुन, इतनी निर्मलता, इतना वैराग्य फिर नहीं रह पाता है। कोई-कोई तो अपनी ज्ञानभावना भी खो डालते हैं। यह केवल अज्ञानियों की बात है, पर ज्ञानी भी रहे तो भी इतनी प्रकर्ष निर्जरा असंख्यातगुणे रूप से नहीं चलती है।
सम्यग्दृष्टि, श्रावकव्रती और मुनिव्रती के असंख्यातगुणी निर्जरा- सूत्रजी में बताया है कि सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव के अपूर्वकरण, अनवृत्तिकरण परिणाम में जितनी निर्जरा होती है, उससे असंख्यातगुणी निर्जरा सम्यक्त्वग्रहण के समय होती है। सम्यग्दृष्टि कि जितनी निर्जरा होती है, उससे असंख्यातगुणी निर्जरा श्रावकव्रत ग्रहण करने वाले पुरुष के होती है। श्रावक के जितनी कर्मनिर्जरा होती है, उससे असंख्यातगुणी निर्जरा महाव्रत धारण करने वाले के होती है। महाव्रत धारण करने वाले के जितनी निर्जरा होती है, उससे असंख्यातगुणी निर्जरा अनंतानुबंधी का विसंयोजन करने वाले पुरुष के होती है।
अनंतानुबंधीविसंयोजक की विशुद्धि- अब यहां परिणामों की विचित्रता देखने का अवसर मिल रहा है। यह महाव्रती छठे गुणस्थान वाला है और कहो कि अनंतानुबंधी का विसंयोजन कभी चतुर्थ गुणस्थान से भी पहिले कर रहा हो, सातिशय मिथ्यात्व में भी कर रहा हो अर्थात् सम्यक्त्व जिसके पैदा होने को है, उससे कुछ पूर्व की दशा हो, यहां उसकी महाव्रत के ग्रहण समय की निर्जरा से असंख्यातगुणी निर्जरा बतायी गई है। इस जीव की बहुत अधिक निर्जरा तो सम्यक्त्व होने से पहिले ही हो जाती है। इस जीव पर कर्मों का कितना कूड़ा-कचरा लगा है? जितना लगा है उसका बहुत कुछ भाग तो सम्यक्त्व होने के समय नष्ट होता है। बाद में इतना विकट भार नहीं रहता है। हजारों सागरों की कर्मनिर्जरा सातिशय मिथ्यात्व में हो जाती हैं। सम्यक्त्व होने के बाद फिर निर्जरा के लिए कर्म इतने विशाल, कठोर नहीं मिल पाते हैं, जितने की सत्यक्त्व होने से पहिले कर्मनिर्जरा के लिए कर्म होते हैं।
दर्शनमोहक्षपण की भूमिका- अनंतानुबंधी का विसंयोजन करने में जितना कर्मनिर्जरण होता है, उससे असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरण दर्शनमोहनीय का क्षय करने में होता है। जो जीव क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करता है, वह किस प्रकार करता है? इस विधि को सुनिये- क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव ही क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करता है, यह नियम है। मिथ्यात्व गुणस्थान के बाद एकदम क्षायिक सम्यक्त्व नहीं हो सकता या उपशम सम्यक्त्व के बाद क्षायिक सम्यक्त्व नहीं हो सकता, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के बाद ही क्षायिक सम्यक्त्व होता है। उस क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के सातों प्रकृति की सत्ता बनी हुई है। अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति- ये सात प्रकृतियां सम्यक्त्व को उत्पन्न न होने देने में निमित्त हैं। इन 7 प्रकृतियों के नाश के प्रसंग में प्रथम अनंतानुबंधी का विनाश करने के लिए अध:करण, अपूर्वकरण, अनवृत्तिकरण परिणाम होता है। इस समय में अनंतानुबंधी की स्थिति और अनुभागनिर्जरा होती है, फिर तो कुछ थोड़ा बहुत अनुभागस्थिति का अनंतानुबंधी कर्म रह जाता है तो वह समूचा का समूचा एक साथ अप्रत्याख्यानावरणरूप हो जाता है। उसमें अनंतानुबंधीपना रंच भी नहीं रहता, इसे कहते हैं अनंतानुबंधी का विसंयोजन। बड़ा पुरुषार्थ है इस जीव का अनंतानुबंधी विसंयोजन में और इसी कारण फिर अंतर्मुहूर्त वह विश्राम लेता है।
दर्शनमोहक्षपण में असंख्यातगुणी निर्जरा- अनंतानुबंधी के विसंयोजन के बाद फिर अध:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण परिणाम करता है। अबकी बार ये परिणाम दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों के क्षय को लिए हुए हैं, उनमें स्थितिनिर्जरण, अनुभागनिर्जरण ये सब चल रहे हैं। पश्चात् मिथ्यात्वप्रकृति रही सही एकदम सम्यक्मिथ्यात्वरूप हो जाती है, यों मिथ्यात्व का नाश हुआ और सम्यक्मिथ्यात्व प्रकृति रही सही सम्यक्प्रकृतिरूप हो जाती है, यों सम्यक्मिथ्यात्व का नाश हुआ। अंत में यह सम्यक्प्रकृति क्षीण होती हुई गुणसंक्रमण और सर्वसंक्रमण होकर पूर्णतया नष्ट हो जाती है। क्षायिक सम्यक्त्व के समय दो काम हुए-- अनंतानुबंधी का विसंयोजन और दर्शनमोहनीय का क्षय। इसमें अनंतानुबंधी के विसंयोजन में जितना कर्मनिर्जरण हुआ है, उससे असंख्यातगुणे कर्मनिर्जरण दर्शनमोहनीयक क्षय में हुआ है।
उपशमक, उपशांतमोह, क्षपक, क्षीणमोह व केवलिजिन के असंख्यातगुणी निर्जरा- दर्शनमोहक्षपक के क्षायिक सम्यक्त्व के उत्पन्न होते समय कर्मों की जितनी निर्जरा हुई, उससे असंख्यातगुणी निर्जरा उपशम श्रेणी चढ़ने वाले जीवों के अपूर्वकरण, अनवृत्तिकरण नामक गुणस्थान में होती है। जितनी निर्जरा इस उपशम श्रेणी चढ़ने वाले के हुई, उससे असंख्यातगुणी निर्जरा 11वें गुणस्थान में होती है। जितनी निर्जरा 11वें गुणस्थान में होती है, उससे असंख्यातगुणी निर्जरा क्षपकश्रेणी चढ़ने वाले साधुवों के 8वें, 9वें गुणस्थान में होती है, उससे असंख्यातगुणी निर्जरा 12वें गुणस्थान में और उससे असंख्यातगुणी निर्जरा केवलीभगवान के होती है और 14वें गुणस्थान में पूर्णतया कर्मों का विनाश हो जाता है, तब सिद्ध दशा प्रकट होती है। जैसे ये अरहंत, सिद्ध कर्मों से निर्मुक्त हैं, ऐसे ही मैं भी कर्मनिर्मुक्त हूं। यों प्रभु की पर्याय का चिंतन करके अपनी योग्यता का चिंतन करना और शुद्ध पर्याय वाले प्रभु के पर्याय की शुद्धता के दर्शन के माध्यम से स्वभाव की परख करके अपने स्वभाव की परख करना- ये सब एक भेदरूप उपाय हैं।
निश्चय से अंतर्भावना- भैया ! निश्चय से तो अभेद उपाय से यह ज्ञानी पुरुष इसी समय अपने आपके अंतर में सर्वपरविविक्त चैतन्यस्वभाव का चिंतन करके भावना कर रहा है कि जो प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध- इन चार बंधनों से रहित आत्मतत्त्व है, वह मैं हूं- ऐसा चिंतन करके यह निकटभव्य स्थिरभाव को कर रहा है। जो पुरुष शाश्वतकल्याण चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि इस सहज परम आनंदमय चैतन्यस्वभाव को जो कि निरुपम है और कर्मों का छुटकारा दिलाने वाला है, मुक्तिसाम्राज्य का मूल है- ऐसे चैतन्यस्वरूप को अभेदरूप से ग्रहण करें। सोहं-सोहं का ध्यान करते हुए सोहं के विषय का परिहार हो जाए और केवल अपने आपको अहंरूप अनुभव कर लें।
सहजानंदानुभव के लिए एकमात्र कर्तव्य- शुद्ध सहजानंदानुभव के लिए हे मुमुक्ष पुरुषों ! बहुत ही शीघ्र बड़ी प्रगति के साथ इस चैतन्यचमत्कारमात्र निजअंतस्तत्त्व की ओर अपना उपयोग लगावो। इस जगत् में कोई भी अन्य पदार्थ हम आपके लिए शरण नहीं है। कैसे हो शरण? सभी पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में परिणमते रहने का दृढ़, कठोर पूर्णव्रत लिए हुए हैं। उनमें अन्य पदार्थ का दखल ही नहीं है। मैं ही अपने जैसे भावों को बनाता हूं, उसके अनुसार अपनी परिणति प्राप्त किया करता हूं। शुभ-अशुभ भावों के फल में यह संसार-परिणति लग रही थी। अब निरपेक्ष शुद्ध चैतन्यस्वभाव का उपयोग किया जाएगा तो अवश्य ही संसार-परिणति मिटेगी और मुक्तिसाम्राज्य मिलेगा। सर्वप्रकार से एक यह ही यत्न करने योग्य है कि हम अपने को मात्र ज्ञानानंदस्वरूप ही अनुभव किया करें।