वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 155
From जैनकोष
जीवो सहावणियदो अणियदगुणपज्जओध परसमओ ।
जदि कुणदि सगं समयं पब्भस्सदि कम्मबंधादो ।।155।।
परसमय की विडंबना―जीव यद्यपि निश्चय से अपने स्वभाव में नियत है, फिर भी अनियत गुणपर्यायों सहित होता हुआ यह परसमय हो जाता है । अंत: स्वभावदृष्टि करें तो जीव कब पर में स्थित है? शरीर और यह जीव इस समय भी एक क्षेत्रावगाह है, और बंधन भी बन रहा है, लेकिन जीव के सत्त्व को देखो तो यह जीव शरीर में कहां मौजूद है? शरीर में शरीर है, और जीव में जीव है । किंतु ऐसा मान तो नहीं रहा यह मोही प्राणी और जब यथार्थ रूप में अपने को नहीं मान रहा है तो उपयोग का बंधन तो तत्काल ही है । और जीव में ऐसा विभावपरिणमन हुआ कि इस तरह के परभाव बंधन का निमित्त पाकर यहाँ शरीर कर्मबंधन विडंबित यों हो जाता है ।
एकस्वरूप का द्विविध परिणमन―शुद्ध निश्चय से तो यह जीव विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावी है, स्वभाव में नियत है, लेकिन मोहनीय कर्मों के उदयवश से जिसकी परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है, मोहादिक परिणामों में ही इस जीव की अनुवृत्ति हो रही है । बार-बार लगना, संबंध रखना, लगाव रखना ऐसी अनुवृत्ति इस जीव में अनादिकाल से चली आ रही है, जो कि वृत्ति इसके स्वभाव से विरुद्ध है । स्वभाववृत्ति तो ऐसी थी कि मोहरहित शुद्धज्ञान दर्शनरूप आत्मा की प्राप्ति करना, लेकिन कर रहा है यह मोहादिक विकारों की प्राप्ति को । सो नाना मतिज्ञानादिक विभाव गुणपर्यायों में और मनुष्य नारकी तिर्यंच देव जैसी पर्यायों में यह-यह परिणमकर परसमय बन रहा है । यही है संसारी जीव की वर्तमान परिस्थिति, किंतु जब यह जीव निर्मल विवेक ज्ञान भेदविज्ञान को उत्पन्न करने वाली अथवा निर्मल परमार्थ ज्योति को उत्पन्न करने वाली जब अपनी परम कला का अनुभव कर लेता है, केवल अपने आप अपने सत्त्व से जो कुछ मुझे में है उस अंतस्तत्त्व का अनुभव करता है तब जानता है―ओह ! यह मैं हूँ शुद्ध एक चैतन्यस्वभाव । अब यह ऐसे ही आत्मा का बार-बार अनुभव करता है उससमय यह जीव स्वसमय बनता है, स्वचरित बनता है । तब ऐसा आचरण करने वाला जीव कर्मबंध से नियम से मुक्त हो जायगा।
आत्मप्रतीति का प्रकाश―भैया ! एक सीधीसी बात यहाँ यह जान लेना कि जैसे लोग अपने आपके बारे में अधिकाधिक ऐसा अनुभव करते हैं कि मैं, अमुक चंद हूँ, अमुक प्रसाद हूँ, अमुक वर्ण का, जाति का हूँ, अमुक गाँव का हूँ, अमुक का पिता हूँ, बेटा हूँ आदिक रूप से अपने आप में कुछ अनुभव लगाया करता है । ये सारे अनुभव संसार बढ़ाने के कारण हैं, जन्ममरण की परंपरा के कारण हैं जीव के अहितरूप हैं । इन कल्पनाओं में आप केवल अपने भाव ही तो बना रहे हो । तो विरुद्ध भाव न बनाकर एक परमार्थ भाव बनायें तो इसमें जीव का हित है । किस प्रकार का परमार्थ भाव? लो यह मैं समस्त पदार्थों से न्यारा केवल एक ज्योतिस्वरूप हूँ । ऐसी दृष्टि दे तो कुछ लगता भी ऐसा है कि भीतर में कुछ विलक्षण प्रकाश पड़ा हुआ है, जो प्रकाश इन दीपक, रत्न, सूर्य, चंद्र आदि जैसा तो नहीं है, किंतु इससे भी विलक्षण है, जिस 'प्रकाश में ये सब प्रकाश भी समा जाते हैं, ऐसा अलौकिक ज्ञानप्रकाश मुझ में है, जिस प्रकाश बिना सूर्य चंद्र के प्रकाश भी फीके हैं, अस्तित्व ही नहीं पाते हैं, जिस प्रकाश के कारण सूर्य चंद्र भी सत् विदित होते हैं और कुछ शुद्ध विश्राम के साथ अपने आप में अपने आपको जब लखते हैं तो यह निर्भार सूक्ष्म अमूर्त न्यारा आनंदस्वरूप प्रतिभास अपने को विदित होता है । उसका गुण नियत है, उसका यह अंतर्वृत्ति परिणमन नियत है । यह ऐसा ही है, इसमें विभिन्नताएँ नहीं हैं, ऐसे नियत गुणपर्याय वाले जीवस्वभाव में अवस्थित होना इसका नाम है स्वसमय ।
आत्मा का बड़प्पन―स्वचरित्र ही मुक्ति का मार्ग है । लोग अपना बड़प्पन समझते हैं बहुत से महल बन जायें, बड़ा वैभव इकट्ठा हो जाय, बहुतसी रकम जमा हो जाय; समाज में, बिरादरी में, देश में लोग हमारी पूछ करने लगें, नाम लेने लगे, इन बातों में अपनी उत्कृष्टता जानते हैं, लेकिन ये सबकी सब बातें तो मोह की नींद के स्वप्न हैं । जैसे स्वप्न की बात ठहरती नहीं है, आंखें खुल जाने पर तो कुछ भी नहीं रहता है, ऐसे ही ये सारी कल्पनाएँ परवस्तुवों के संचय के कारण अपने आपको बड़ा मानने की कल्पनाएँ ये सब असार हैं, और जब जान जगता है, यथार्थ बात समझ में आती है तब ये चीजें कुछ ठहरती नहीं हैं । यहाँ कुछ है ही नहीं । उनसे बड़प्पन मत मानो । अपना महत्त्व मत इन बातों में मानिये । दुनिया जाने अथवा न जाने, यह पर का ढेर इकट्ठा हो अथवा न हो, किंतु यह मैं अपने आपके इस सहज ज्ञानानंदस्वभाव को पहिचान लूँ और अपना लगाव इस स्वभाव में ही रक्खूं, ऐसा कर सका तो इससे बढ़कर काम लोक में कुछ भी नहीं है ।
व्यर्थ विकल्प―मान लो आपके यहाँ दो चार लाख का वैभव पड़ा हुआ है तो आप इतना ही अपना क्यों समझते हैं? तीनों लोक में जितने भी ढेर पड़े हुए हैं उन सबको अपना समझ लो ना । मानने में फिर क्यों कंजूसी करते? जब मानने की हठ ही कर रहे हो । आप कहोगे वाह ! कैसे अपना मान लें । तीनों लोक का वैभव मेरे साथ तो नहीं है । अरे तो जो दो-चार लाख का धन आपके घर में है वह भी तो आपके साथ नहीं है । आप जहाँ मरे तहाँ यह दो-चार लाख का भी धन छूट जायगा और यह तीनों लोकों का भी सारा धन आप से छूट जायगा । आप से छूटा हुआ तो अब भी है जब तक आप इस भव में भी जीवित हैं । इस वैभव से आत्महित की बात न मिलेगी । अपने आत्मस्वभाव में नियत होने का यत्न करें ।
स्वहित की दिशा―भैया ! किसी ने कुछ कह दिया तो क्या हो गया? उसका परिणमन उसमें है । कोई प्रशंसा कर दे तो उससे यहाँ क्या लाभ है? कोई निंदा कर दे? तो उससे यहाँ क्या हानि है? लेकिन एक बात ध्यान में रखिये―हम यदि किसी का अपमान कर दें, निंदा कर दें तो उसमें हमारी हानि है । दूसरा कोई पुरुष मेरा अपमान करे तो उससे मेरा कोई बिगाड़ नहीं है । अपना ज्ञानबल बढ़ाये और सत्य बल समझे । धीरता रक्खे, क्षोभ होने ही न दें तो उससे क्या बिगाड़ होता है? हम किसी दूसरे का अपमान कर दे, निंदा कर दें तो उससे हमारा बिगाड़ इस ही भव में हो चुका । इन परपदार्थों के परिणमन से अपना कुछ भी हित न माने । अपने आपका स्वरूप अपने आपकी निगाह में रहे और उसकी ओर ही लगाव रहे तो ऐसे पुरुषार्थ में ही अपना हित है, यही वास्तविक धर्मपालन है, यही मोक्षमार्ग है, यही विवेक है, यही समझदारी है, और इस दुर्लभ नरजीवन को सफल बनाने का यही एकमात्र सही उपाय है ।