वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 112
From जैनकोष
भावहि पढमं तच्चं विदियं तदियं चउत्थपंचमयं ।
तियरणसुद्धो अप्पं अणाइणिहणं तिवग्गहरं ।।112।।
(425) आत्महितभावना का महत्त्व―हे आत्मन् ! तू 7 तत्त्वों की श्रद्धा रख । जीव अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष और मन, वचन, काय से शुद्ध होता हुआ आत्मा को ध्यान में रख । जो आत्मा मोक्षस्वरूप है याने आत्मा का जो सहज स्वरूप है याने अपने सत्त्व के ही कारण जो इसका स्वरूप है उसे ध्यान में लें । वह तो ज्ञानमात्र हैं और उसकी परिणति मात्र ज्ञानपरिणति है, जो स्वत: होता है, जहाँ औपाधिकता नहीं, केवल अपने स्वरूप को निरख । मोक्ष पाने का उपाय अपने सहजस्वरूप का ध्यान है । मगर सहजस्वरूप का ध्यान मुनि अवस्था के बिना नहीं बन पाता, जो मोक्ष का कारणभूत होता है, ऐसी जिसको सहजस्वरूप के ध्यान की धुन है उसके निरंतर निर्ग्रंथपने का आदर है । आत्महित की भावना, जिसका होनहार भला है उस भव्य पुरुष के होती है । और आत्महित की भावना तो अंत: नहीं बनी, किंतु बातों से उसे पूरा करना यह तो एक मनोविनोद का ढंग है । एक यही मनोविनोद पसंद आता है, पर अपने पर दया हो कि मैं संसार में अब तक अपने आत्मा की सुध लिए बिना रुलता रहा । अब तो मैं केवल अपने आत्मा के नाते से ही धर्मपालन करूंगा । आत्मा का नाता अपने से रखें और आत्मा का स्वरूप है ज्ञान, वही धर्म है उस अपने को प्रतीति में लें, चेष्टा तो करना है ऐसी कि अपना ज्ञान अपने आपके आत्ममार्ग में ऐसा लगे कि कुछ क्षण यह निर्विकल्प हो और अपने ज्ञानस्वरूप के अनुभव से ही ज्ञानामृत का पान करे । ऐसे ज्ञानामृत के पाने के लिए दुर्भाव के त्याग की आवश्यकता है । और त्याग हो सके तो आगे चलेगा मगर थोड़ा बहुत ज्ञानानुभव मिले उसके लिए क्रोध, मान, माया, लोभ संबंधित मन के विषय कीर्ति यश से संबंधित खोटी भावनाओं का बलिदान करना होगा, तब हम अपने सहजस्वरूप के ध्यान के अधिकारी बन सकेंगे ।
(426) ध्येय जीव तत्त्व की भावना करने का उद्बोधन―हे मुने ! तू प्रथम जीव तत्त्व को जान । जो 7 तत्त्वों से संबंध रखकर जीव को जानेगा तो जिससे 7 आदिक बने, उस जीव का ध्यान किया, मगर 7 तत्त्व या 9 तत्त्वों का संबंध बनाये बिना मात्र जीव के सहजस्वरूप को जानेगा तो वह परमार्थस्वरूप को जानेगा, कारण समयसार को जानेगा, सहज परमात्मतत्त्व को जानेगा ꠰ पर अनेकांत को छोड़कर इस सहजपरमात्मतत्त्व का ही एकांत किया तो वह भी विवाद बनता है । जैसे ऊपर छत है, वह चारों ओर बनी दीवाल या खंभों पर सधी है, पर इसके सामने केवल एक ही भींत दिखती है और यही निर्णय बना कि बस एक ही भींत है और यदि हमारे इस निर्णय का पालन यह छत करे तो यह अभी हो जायेगी पर वह छत बेचारी हमारी आज्ञा का पालन नहीं कर रही, इसलिए सधी हुई है और कभी किसी भींत पर कुछ उपासना तत्त्व की बात चित्रित हो तो दृष्टि तो एक पर ही की जाये और करते ही हैं, मगर श्रद्धा में रखे हैं कि और भी भीतें हैं । यहीं किसी के गल्ती हुई जो एक ब्रह्म एकांत बना जीव का स्वभाव सहजज्ञानस्वरूप है, उसमें परिणमन नहीं निरखे जाते । तो वह पारिणामिक परमार्थ तत्त्व दिखता है, किंतु ऐसा ही है, परिणमन है ही नहीं ऐसा एकांत होने पर वह स्याद्वाद से बाहर हो गया । सब ओर की खबर जानकर अपने ध्येय में लगा हुआ निर्विघ्न सफल होता है और अज्ञानवश किसी एक ही बात का एकांत करने वाला कहीं टिक नहीं पाता । फल यह होता है कि अस्थिरता में ही जीवन व्यतीत से जाता है । जानना सब और लक्ष्य होना शुद्ध तत्त्व का । तो जीव तत्त्व के परखने की दो पद्धतियां हैं । एक 7 तत्त्व का प्रकरण बनाकर जीव को परखना और केवल 7 तत्त्वों का प्रकरण न बनाकर मात्र अभेद बुद्धि से एक सहजस्वरूप को निरखना, मगर यह अलग-अलग चलने की पद्धति नहीं है । दोनों की ही समझ रखने वाले 7 तत्त्वों के भेद में न पड़कर अभेद अखंड अंतस्तत्त्व की आराधना करें तो उसका अर्थ बनता है, नहीं तो उसके मिथ्या शल्य रहती है । तो सर्वप्रकार से हे मुने इन 7 तत्त्वों को जानो । अजीव कर्म । आस्रव जीव में कर्म का आना तो आस्रव, बंध-बंध जाना, संवर-कर्मत्व का आना बंद हो जाना, निर्जरा बद्धकर्मों का खिरना, समस्त कर्म खिर जायें वह है मोक्ष । इसको पर्यायरूप से जानें, द्रव्यरूप से जानें, भावरूप से जाने और तीनों को ही छोड़कर केवल सहज आत्मस्वरूप को जानें ऐसे इस अनादि निधन आत्मतत्त्व का ध्यान करें मन, वचन, काय से शुद्ध होकर । जिसका मन शुद्ध नहीं, वचन शुद्ध नहीं, काय शुद्ध नहीं वह चारित्रमार्ग में चलने के योग्य आगे नहीं बढ़ पाता । अत: कह रहे इस गाथा में कि तीन चीजों से शुद्ध होकर धर्म, अर्थ काम इन तीन वर्गों से विविक्त एक शुद्ध ज्ञानमात्र प्रतिकर का ध्यान कर ।