वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 22
From जैनकोष
गसियाइं पुग्गलाइं भुवणोदरपत्तियाइं सव्वाइं ।
पत्तोसि तो ण तित्तिं पुणरुत्तं ताइं भुंजंतो ।।22।।
(33) अनंतबार ग्रसकर उज्झित भोगों का मोही द्वारा ग्रसण―अभी यह बताते आये थे कि एक भाव के बिना, निजस्वरूप के ज्ञान के बिना द्रव्यलिंग धारण किया, बड़े व्रत तपश्चरण भी किया तो भी यह जन्ममरण की परंपरा न टूटी । अब यहाँ यह बतला रहे हैं कि उन जन्मों में उस जीव ने क्या किया ? जन्म हुआ जीवन चला, मरण हुआ और उसकी प्रथा में जन्ममरण चल रहा तो इसको क्यों बुरा कहा जा रहा, इसमें इस जीव ने क्या किया तो बुरा तो स्पष्ट यह है कि जन्म में भी दुःख, मरण में भी दुःख, रह गया यह जीवन का संबंध सो जीवन में इस जीव ने भोगों को भोगा और दूसरी कोई धुन न रही । स्पर्शन इंद्रिय के विषय मिले तो उसमें आनंद माना । रसना इंद्रिय का विषय रहा, अच्छे भोजन पकवान मिले, उसमें मौज माना । घ्राण, चक्षु कर्ण के विषय मिले, उनमें यह रमा । एक रसना इंद्रिय की ही बात सुनो । इन पुद्गल स्कंधों में जो लोक में रह रहे है उन सबको तूने अनेक बार तो खाया, भोगा और बार-बार छोड़ा तो छोड़-छोड्कर फिर भोगा । अगर कोई इसी समय कोई चीज खा ले और खाकर उगल दे तो उस उगले हुए भोजन को फिर नहीं खाया जा सकता । मगर भव-भव में तूने इन सब भोगों को भोगा, छोड़ा तो उगाल तो हो ही गया । तूने उन उगालों को बड़ी रुचि से खाया, खाता जा रहा । वह ही तो उगाल है जो पहले विकल्पों से भोगा था, फिर भोगा फिर छोड़ा । यह जो एक परभाव की चक्की चल रही है, जिसमें विषय कषायों के परिणमन चल रहे, यह ही इस जीव को जगत में रुलाने वाली करतूत है । तो इस जगत के सर्वपदार्थों से उपेक्षा रखकर अपने आपके सहज ज्ञानस्वरूप में रमो ।
(34) इंद्रियविषयों में आसक्त न होने का अनुरोध―भले ही खाये बिना नहीं चलता, खा ले, पर उस खाये में ऐसा अनुभव तो नहीं करना कि अहो मेरी जिंदगी आज सफल हो गई । बहुत मीठा खा लिया, बड़ा मौज मिला, बड़ा मधुर भोजन मिला, इस प्रकार का विकल्प और आशक्ति बनती । तो यह तेरे लिए भयंकर परिणाम देने वाला है । खाते हुए में भी यह समझो कि यह खाना पड़ रहा है, पर मेरा स्वरूप खाने से रहित है । भोजन ग्रहण करने से पहले और भोजन कर चुकने के बाद सिद्धभक्ति क्यों की जाती है ? अनेक गृहस्थ भी तो णमोकार मंत्र पढ़कर भोजन शुरू करते हैं और भोजन करने के बाद कुल्ला करके फिर णमोकार मंत्र पढ़ते हैं, ऐसा तो बहुत से साधारण गृहस्थ भी करते हैं, फिर मुनि त्यागी तो सिद्ध भक्ति से पाठ पढ़कर णमोकार मंत्र पढ़ते हैं, फिर भोजन करते हैं, ऐसा क्यों किया जाता है कि यह ज्ञानी गृहस्थ यह एक त्यागी मुनि यह जानकर प्रभु का स्मरण करता कि हे प्रभु में अब ऐसा काम करने जा रहा हूँ कि जिससे मैं अपनी सुध भी भूल सकता हूँ और उन भोगों में आसक्त होकर बिकट कर्मबंध कर लूंगा, ऐसा काम मैं शुरू करने वाला हूँ, तो इस बिकट काम में मैं अपनी सुध न खो दूं इस लिए प्रभु का पहले स्मरण किया । खाते भी रहें और क्षुधा शांति बिना निर्वाह न होगा, अत: मुझको मेरी सुध रहे कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, अमूर्त हूँ । मेरा काम भागने का नहीं है, खाने का नहीं है । यह समय-समय पर इस बीच भी सुध आती रहे, इसके लिए णमोकार मंत्र पढ़ते हैं और भोजन कर चुकने के बाद फिर क्यों पढ़ते हैं कि उस समय फिर पूरी सुध आती है भोजन कर चुकने के बाद कि मैंने इस तरह के भाव में इतना समय गुजार दिया, स्वाद लिया, मौज भी माना, लेकिन उसमें मैंने अपने को खो दिया था । हे सिद्ध प्रभो तुम तो इस राग से दूर हो, निर्लेप हो, ज्ञानस्वरूप हो, वही मेरा स्वरूप है । इस स्वरूप की जो सुध लेता है वह भोजन समाप्ति के बाद सिद्ध प्रभु की स्मृति करता है । तो यह भोग भोगना भी बहुत ही भयंकर परिणाम वाली बात है । तूने इन भोगों को अनंत बार भोगा । अब उन छोड़े हुए झूठे भोगों को क्यों बार-बार भोगता है ? अपने ज्ञानमात्र आत्मा की सुध ले, इससे ही संसार संकट कटेंगे ।