वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 13
From जैनकोष
धावदि पिंडणिमित्तं कलहं काऊण भुंजदे पिंडं ।
अवरूपरूई संतो जिणमग्गि ण होइ सो समणो ।।13꠰।
(30) आहारनिमित्त उलायत दौड़सी मचाने वाले मुनिवेषियों की जिनमार्गबहिष्कृतता―जो मुनिलिंग धारण करके आहार के लिए दौड़ते हैं, आहार के लिए कलह करके आहार खाते हैं और आहार आदिक के लिए दूसरों से परस्पर ईर्ष्या करते हैं वे श्रमण नहीं हैं, वे जिनमार्गी नहीं हैं । कुंदकुंदाचार्य के समय जिनमुद्रा, जिनलिंग शब्द का प्रयोग श्वेतांबरों में भी और दिगंबरों में भी होता रहता था और उस समय सभी जैन साधु भी रूढ़ि में रहते थे । तो जो यह शिक्षण दिया जा
रहा तो उन वस्त्रधारी साधुवों को शिक्षा विशेष रूप से है और अनेक दिगंबर साधु भी इसी तरह की प्रवृत्ति करते हों तो उनके लिए भी शिक्षा है ꠰ आहार के लिए दौड़ते हैं अर्थात् जब चर्या का समय हो जाता है तब दिगंबर मुनिभेषी यदि बहुत से मुनियों का संघ है तो विकल्प रखते हैं कि मैं पहले
पहुंचूं मैं खोज लूं पहले और श्वेतांबर साधु हों तो उनके बारों का तो कुछ विवेक न रहा । यद्यपि उनके शास्त्र में भी एक बार ही भोजनपान करने का लिखा हुआ है, दूसरी बार को नहीं लिखा । कभी कोई यदि वृद्ध हो, रोगी हो तो उसके लिए कभी अपवाद रूप है, पर नियम केवल एक ही बार का है । बहुत बार आहारगोचरी करने की प्रवृत्ति हो गई थी तो भी वे अपने समय पर जल्दी-जल्दी चलकर आहार को लाते थे ꠰ तो जो मुनिभेषी आहार के निमित्त उतावलापन करे वह श्रमण नहीं है, वह जिनमार्गी नहीं है ꠰
(31) कलह करके आहार करने वाले मुनिवेषियों की अश्रमणता―कलह करके भोजन कैसा? श्वेतांबर साधु में तो यह रिवाज है कि अनेक घरों से भोजन मांगकर लाये, लेकर आये, एक जगह बैठे तो वे एक के लाये हुए भोजन में अनेक भी भोजन कर लेते हैं तो उस समय कुछ मन में आहार के प्रति विकल्प रह सकते हैं, ऐसी चीज मैं खाऊँ, यह इतना ले ले, क्योंकि वह सब इकट्ठा रखा हुआ है तो उसमें भी कलह हो सकती है । दिगंबरभेषी साधुवों में भोजन के लिए कलह तो नहीं होता, पर भोजन करते समय ऐसा वातावरण बना लेता जैसे कि मानो वह साधु झगड़ ही रहा हो । बड़ा हूँहूकार, बड़ा आंखों का चढ़ाना, यह सब कलह ही तो है । तो जो मुनिभेषी इस प्रकार की प्रवृत्ति आहार के लिए करे वह जैनमार्गी नहीं है । गृहस्थ भी कलह करके नहीं खाता, तब फिर साधु की लिए तो बात ही कहां ठीक हो सकती है?
(32) आहारनिमित्त ईर्ष्या रखने वाले मुनिवेषियों की अश्रमणता―जो आहार के ही निमित्त दूसरों से ईर्ष्या करते हैं वे भी जिनमार्गी नहीं हैं । ईर्ष्या एक मन का विचार है, इसको लोग अधिक पूछते हैं हम को कम पूछते हैं, जो पात्र में ले आते हैं उनमें भी यह ही ख्याल । जो दिगंबरमार्गी बने हैं उनमें भी यह ही ख्याल हो तो वे जिनमार्गी नहीं हैं । आहार तो गृहस्थ भी तृष्णा करके नहीं खाता, किंतु वह मना करता हुआ खाता है । अब न चाहिए यह चीज । घर के लोग उसे मनाते हैं, इस तरह के आहार में शोभा होती है, पर जो भीतर तृष्णा का भाव रखे, आहार के लिए कलह करे, आहार के विषय में दूसरों से ईर्ष्या करे तो वह कैसा साधु है? वह जिनमार्गी नहीं हैं । इस लिंगपाहुड ग्रंथ में साधुवों को जो न करना चाहिए केवल उन ही बातों का वर्णन चल रहा है । इससे यह न समझना कि कोई यहाँ आलोचना की जा रही है । वह प्रकरण ही ऐसा रखा, दूसरे शब्द नहीं हैं । साधुवों को क्या करना चाहिए और कैसे उनमें गुण होते हैं । उनकी प्रशंसा के बारे में मोक्षपाहुड या और और ग्रंथों में काफी वर्णन किया गया है । इस ग्रंथ में जो कर्तव्य नहीं हैं, अकर्तव्य हैं, ओछी बातें हैं उनका विवरण दिया जा रहा कि ऐसा जो कोई करे वह जिनमार्गी नहीं है ।