वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 10
From जैनकोष
णाणस्स णत्थि दोसो कप्पुरिसाणो वि मंदबुद्धीणो ।
जे णाणगव्ब्दिा होऊणं विसएसु रज्जंति ।।10।।
(18) ज्ञानगर्वित पुरुषों की विषयानुरक्ति में ज्ञान के दोष का अभाव―कोई ज्ञान का गर्व करके विषयों में अनुरक्त होते हैं तो वहाँ यह दोष ज्ञान का न समझिये, किंतु वो मंदबुद्धि हैं और खोटी विकारवासना बनी है, चारित्रमोह का उदय है तो ये विकार बने हैं, ज्ञान का तो जानना काम है शुद्ध काम अर्थात् मात्र ज्ञान का ही जो काम है उसमें दोष नहीं है । दोष आता है किसी परउपाधि से, क्योंकि ज्ञान तो आत्मा का स्वरूप है, चाहे वह थोड़ा हो, अधिक हो, चाहे उल्टा ज्ञान में आ रहा हो, मिथ्या जान रहा हो, पर उसमें जो जानन अंश है वह तो है ज्ञान का काम और जितना विकार अंश है वह है चारित्रमोह का काम । जैसे बल्ब के ऊपर हरा कागज लगा देने से रोशनी हरी हो रही है, पर वहाँ रोशनी हरी नहीं है । रोशनी का जितना शुद्ध काम है वह तो प्रकाशरूप है । उस हरे प्रकाश में दो दृष्टियां रखनी हैं―(1) केवल प्रकाशन और (2) हरापन । तो जितना हरापन है वह प्रकाश से अलग बात है और जितना प्रकाश है वह दीपक का कार्य है । तो ऐसे ही जो ज्ञान विकृत है, जिस ज्ञान के साथ विकार चल रहा है, तो लगता है कि ज्ञान ही तो विकृत हुआ, पर वहाँ ज्ञान का जितना कार्य है वह तो है केवल प्रतिभास, जानन और बाकी जितना विकार है वह चारित्रमोहादिक का कार्य है ।
(19) ज्ञान का परिणमन प्रतिभासमात्र―निश्चयत: देखें तो जो संशयज्ञान है, विपरीत ज्ञान है वहाँ भी ज्ञान का कार्य प्रतिभास है, कल्पना विकार है, जैसे पड़ा तो है मानो कांच और सोच रहे हैं चांदी, या पड़ी तो है रस्सी और सोच रहे हैं कि सांप पड़ा है । तो जो ऐसा उल्टा ज्ञान जगा है उसमें जितना जाननरूप कार्य है वह तो ज्ञान का है और जितना उल्टापन साथ लगा है वह अन्य कारणों से हुआ है । जैसे दृष्टि बंद होना, बहुत दूर पड़ा होना और वैसा आकार सांप का होता है उस ही ढंग में रस्सी पड़ी हो और उनका विशेष अंतर प्रदर्शित करने वाली बात ज्ञान में आ न रही हो तो ऐसे कई कारण होने पर वह उल्टापन होता है । तो वहाँ सिर्फ जितना जानन अंश है वह तो ज्ञान का कार्य है और बाकी सम उपाधि का कार्य है । संशयज्ञान में भी जैसे पड़ी तो सीप है और ज्ञान यों सोच रहा है कि यह सीप है या चांदी वैसे तो जो प्रतिभास में आया सफेद स्वच्छ आकार याने जिस ज्ञान के संबंध में शब्द योजना नहीं बनती, खाली प्रतिभास हो रहा वह तो शुद्ध है याने वही है, किंतु उपाधि का संबंध होने से कुछ अन्य कारणकूट मिलने से विकल्प बन गए हैं । सो यह तो और भी सूक्ष्म बात है, पर ज्ञानी पुरुष अपार ज्ञान पाकर और व्यर्थ के विकल्पों में आकर विषयों से अनुरक्त रहें तो वह दोष ज्ञान का नहीं है, किंतु उपाधि का दोष है, ऐसा कहकर आत्मा में शील स्वभाव पर मुख्य दृष्टि करायी गई है । यह शीलपाहुड ग्रंथ है, इसमें आत्मा के शील का वर्णन है । शील, शील क्या ? ज्ञान, मात्र जानन । जो स्वभाव है वह शील है । तो शील की दृष्टि से देखें तो आत्मा में जो ज्ञान जग रहा है उसका कोई दोष नहीं होता । दोष होता है उपाधि के मेल का ।
(20) विकार की मोहनिमित्तता व ज्ञान की प्रतिभासमात्रता―इस प्रकरण में मुनियों की बात कही जा रही है । वे समझ वाले हैं, ज्ञान वाले हैं तो उस दृष्टि से देखें तो ज्ञान का दोष नहीं है, वह उपाधि का दोष है और सभी जीवों में देख लो कोई अज्ञानी जीव है तो न भी मात्र ज्ञान और शील की दृष्टि से देखें तो मात्र जो जानन है वह तो ज्ञान है और उसके साथ जो विकल्प हर्ष, विषाद आदिक लग रहे हैं वह सब उपाधिकृत बात है । यहाँ कोई ऐसा न समझे कि ज्ञान से जब पहले पदार्थों को जाना तब ही वह विषयों में रंजायमान हुआ, राजी हुआ तो यह ज्ञान का दोष है और ज्ञान से कुछ जाने बिना कोई विषयों में लगता नहीं, चाहे कुछ जाने, जब विषयभूत पदार्थों का उपयोग नहीं है तो विषयसाधन कैसे बनेंगे? सो ज्ञान से कष्ट लगा है । उत्तर जो विवाद हुआ है वह ज्ञान का दोष नहीं है, किंतु वह पुरुष खोटा है, मंदबुद्धि है, उसका होनहार खोटा है, बुद्धि बिगड़ गई है, विकार साथ में आया है सो गर्व में छककर वह विषयों में आसक्त बना है । सो वहाँ ज्ञान का कार्य तो, उतना ही है कि जो वस्तु जैसी हो वैसा जान जाये । पीछे जो प्रवृत्ति होती है वह जैसी श्रद्धा है और चारित्र है वैसी प्रवृत्ति होती है ।