वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 9
From जैनकोष
जह कंचणं विशुद्धं धम्मइयं खडियलवणलेवेण ।
तह जीवो वि विशुद्धं णाणविसलिलेण विमलेण ।।9।।
(16) निर्मलज्ञानसलिल से जीव की विशुद्धता―जैसे स्वर्ण किसी पाक पर उतरे, जैसा कि उपाय होता है, अग्नि में तपे, सुहागा और नमक उस मलिन स्वर्ण पर डालने से वह स्वर्ण निर्मल और विशेष कांति वाला हो जाता है । ऐसे ही ये जीव भी जो विषयकषाय के मल से मैले हैं, यदि वे निर्मल ज्ञान रूपी जल से अपने आपको धोये, साफ करें तो वे कर्मों से रहित होकर विशुद्ध सिद्ध भगवंत हो जाते हैं । अशांति की निष्पत्ति बनती है किसी भी परद्रव्य को आश्रय बनाने पर । यदि परद्रव्य के आश्रय बनाये बिना सुख अथवा दु:ख हो जाये तो वह स्वभाव बन बैठेगा और फिर उनको हटाने की कोई आवश्यकता ही न समझेगा । तो अपने आत्मा को ज्ञानरूपी जल से खूब धो-धोकर कर्मों से रहित स्थिति को पाना चाहिए । जब कोई निरंतर प्रतिदिन अपने बारे में भाये―मैं ज्ञानमात्र हूँ तो इस ज्ञानमात्र भावना का वह फल है कि ऐसी स्थिति पा लेता तो वहाँ किसी तरह का संकट अनुभव में नहीं रहता । सो बतला रहे हैं इस गाथा में कि जैसे निर्मल स्वर्ण या कोई स्वर्ण सुहागा और लवण (नमक) का लेप करने से कांतिवां बन जाता है ऐसे ही आत्मा ज्ञान के योग से, अपने को ज्ञानरूप निरखते रहने से यह जीव भी शुद्ध हो जाता है ।
(17) आत्मा की ज्ञानमयता―ज्ञान आत्मा का प्रधान गुण है । ज्ञानमय ही जीव है, ज्ञान से ही रचा हुआ जीव है । जैसे यहां के दिखने वाले पुद्गल रूप, रस, गंध, स्पर्शमय हैं, वस्तुत: तो जो वैसा है सो है, पर उसमें विदित तो होता है कि रूप है, तो रूप कहीं उस पुदगल में बाहर से आया हुआ नहीं है या उधार लाया हुआ नहीं है, किंतु वह रूपमय ही स्वयं है । जैसे कोयले में कालापन । जो बुझा हुआ कोयला है उसमें जो कालापन है सो वह कालापन कहीं बाहर का चिपकाया हुआ नहीं है, किंतु उसमें स्वयं ही वह रूप है । जैसे स्वर्ण का पीलापन । उसमें वह रूप रंग कहीं बाहर से बनाया हुआ नहीं है । कोईसा भी रूप हो, यह तो परिवर्तित हो जावेगा, मगर किसी समय पुद᳭गल रूपरहित हो जाये, यह कभी नहीं हो सकता । तो ऐसे ही आत्मा ज्ञानस्वरूप है । मीमांसकों की तरह जैनसिद्धांत नहीं है कि ज्ञान गुण नाम का पदार्थ अलग है और आत्मा नाम का द्रव्य अलग है और उनमें संयोग संबंध या समवाय बनने से आत्मा बनता है, ऐसा नहीं है । आत्मा का स्वरूप ही यही है, वह ज्ञानमय है और उसके ज्ञान में सर्व पदार्थ झलकते हैं । तो अपने को अंत: ज्ञानमात्र ही निरखे कोई तो अपना स्वरूप अपने को दृष्टिगत हो जायेगा । मोक्ष मार्ग के लिए, शांति पाने के लिए मात्र एक यही कर्तव्य है कि अपने को ज्ञानमात्र निरख लें । केवल जाननस्वरूप हो, ऐसा ज्ञानमात्र की भावना करने वाला पुरुष उन कर्मकलंकों से निवृत्त हो जाता है । आत्मा का यह स्वभाव, ज्ञानस्वभाव मिथ्यात्व और विषयों से मलिन हो रहा है । सो यथार्थ ज्ञान होने पर उस रूप पदार्थ को निरख-निरखकर आत्मा में जो एक पवित्रता बनती है उसके प्रताप से ये सर्व मलविकार दूर हो जाते हैं । सो विषयकषाय मिथ्यात्व के भाव दूर करके अपने में मैं ज्ञानमात्र हूँ ऐसी निरंतर भावना रखना चाहिए । जो रखता है उसके इस ध्यान के प्रसाद से कर्मों का नाश होता है, अनंत चतुष्टय प्रकट होता है और वह आत्मा शुद्ध पवित्र सदाकाल के लिए उत्कृष्ट आनंद वाला हो जाता है । तो अपनी इस अमूल्य निधि पर ध्यान देना चाहिए और संसार के इन विभिन्न पौद᳭गलिक चमत्कारों में अपने को न उलझाना चाहिए । इस प्रकार यह जीव ज्ञानस्वभावी मिथ्यात्व से वासित होकर अपने को दु:खी बना रहा है, पर वैसे ही स्वभाव का परिचय मिला और स्वभावरूप ही अपने की बार-बार भाया तो उसके ये सारे विरुद्ध कार्य, विरुद्ध विकार समाप्त हो जाते हैं ।