वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 36
From जैनकोष
लावण्णसीलकुसलो जम्ममहीरुहो जस्म सवणस्स ।
सो सीलो स महप्पा भमित्थ गुणवित्थरं भविए ।।36।।
(75) शीलयुक्त गुणी महात्माओं की प्रशंस्यता―ऐसे मुनि महाराज का गुण समस्त लोक में विस्तार को प्राप्त होता है जो मुनि महाराज सर्व लोक की प्रशंसा के योग्य है । दुनिया में यश उसी का ही तो गाया जाता जो कि प्रशंसा के योग्य होता है, सो प्रशंसा के योग्य मुनि कौन है? जिसका शील उत्तम है, स्वभावदृष्टि निज आत्मरमण में चल रही है ऐसा उपयोग वाला आत्मा शील को प्रकट करता हुआ प्रशंसा के योग्य होता है । तो कोई मुनि चाहे सर्वांग सुंदर हो, वचन-काय की चेष्टा भली हो तो भी प्रशंसा उसकी होती है जिसका शील उत्तम हो । जैसे वृक्ष की शाखा पत्ते फूल फल सुंदर हो और छाया से भी सहित हो तथा सर्व लोगों का बराबर उपकार करने वाला है याने उस वृक्ष से सज्जन लोग भी फल खायें, दुर्जन लोग भी फल खायें, सज्जन लोग भी उसकी छाया में बैठकर विश्राम लें और दुर्जन लोग भी, वृक्ष सबका समान उपकार करता है तो वह वृक्ष प्रशंसनीय होता है । इसी तरह जिसमें अनेक गुण हों । जाति, रूप, कुल, अवस्था, ज्ञान आदि सभी गुण उत्तम हों और रागद्वेषरहित सर्व का समान उपकारक हो और शील गुण से युक्त हो तो वह महात्मा सर्व लोगों द्वारा प्रशंसा के योग्य है । सो इसमें भी उसके शील की महिमा समझिये । हम आपका उद्धार अपने आपके स्वभाव की दृष्टि किए बिना, आत्मस्वभाव में रमे बिना कभी संभव नहीं है । यह बहुत बड़ी भारी विपत्ति छायी है जो इस जीव की दृष्टि जड़ पदार्थों में रमती है । यद्यपि थोड़े ही दिनों में इस भव का भी फैसला होना है, मरण होगा, सब यहीं रह जायेगा । कुछ साथ न देगा, लेकिन जब तक जीवित है, यह मोही प्राणी अपनी उपयोग भूमि पर इन जड़ पदार्थों की छाया लादकर भारसहित होकर समय बुरी तरह गुजार रहा है । सो कुछ अपने को चेतना चाहिए और कुछ मुख मोड़ना चाहिए एक दृढ़ कदम के साथ । एक ही निर्णय और विश्वास के साथ कि हम को तो संसार से हटकर केवल सिद्ध अवस्था पानी है और उसी के लिए ही हमारा सब कुछ त्याग रहेगा, समर्पण रहेगा, उसी के लिए ही ध्यान रहेगा, ऐसी अतीव दृढ़ता के साथ जिसका स्वभाव की ओर आकर्षण होगा वह पुरुष मुक्ति अवस्था को प्राप्त कर सकता है ।