वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 5
From जैनकोष
णाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहणं च दंसणविहूणं ।
संजमहीणो य तवो जइ चरइ णिरत्थयं सव्वं ।।5।।
(9) चारित्रहीन ज्ञान की निरर्थकता―ज्ञान तो चारित्रहीन हो और निर्ग्रंथ दिगंबर भेष का ग्रहण करना, सम्यक्त्वरहित के हो और बड़े-बड़े दुर्धर तप संयम से रहित हो तो ऐसे पुरुष का जो कुछ भी आचरण है वह सब निरर्थक है । ये तीन बातें अपने में होनी चाहिएँ । पहली बात―चारित्रसहित ज्ञान हो, जितना सुख शांति अनुभूत होती है वह सब ज्ञानभावना का ही प्रताप है । जब यह जीव अमूर्त निर्मल केवल ज्ञानज्योति मात्र है तो इसका किसी अन्य द्रव्य से क्या संबंध है? चेतन मनुष्य कितने ही भले जंचते हों और उनमें अपनी कीर्ति की भावना हो, मेरा नाम फैले, मेरा यश बने, मैं श्रेष्ठ कहाऊँ । तो ऐसा सोचने में उसके पर्यायबुद्धि आ गई । भावना और ध्यान तो यह होना चाहिए कि मैं सर्व से निराला, केवल ज्ञानमात्र हूँ बाहर में जो होता हो, जिनका होता हो उसके ज्ञाता द्रष्टा रहें, पर यह बात विषय के लोभियों में कभी संभव नहीं हो सकती । चारित्रहीन ज्ञान निरर्थक है । एक सिद्धांत की बात यह जानें कि जो तीन बातें हैं―1-श्रद्धान, 2-ज्ञान और-3 चारित्र, ये मोही अज्ञानी जीवों के तो खोटे रूप रहती हैं―मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान व मिथ्याचारित्र और भेद विज्ञानी जीव के रत्नत्रय स्वभावरूप में रहता है । सो इन तीन में कर्म के बंध का, आस्रव का कारण दो हैं―(1) श्रद्धान और (2) चारित्र । मात्र ज्ञान से कर्म बंध नहीं, कर्म का आस्रव नहीं । जो कुज्ञान को कहते हैं कि कुज्ञान बुरा है और कुज्ञान से बंध बनता है तो उसमें यह विभाग जानें कि जो अंश ज्ञान का है उससे तो कर्म नहीं बंधता, पर उसके साथ जो अज्ञान, रागद्वेष लगा हुआ है उससे कर्म बंधता है । मतलब यह है कि कर्मबंधन का कारण श्रद्धान और चारित्र है, ज्ञान नहीं । सो जिस पुरुष को कुछ ज्ञान तो अधिक हो, मगर श्रद्धाहीन है, चारित्रहीन है तो वह बंधन में हैं । कर्मबंध ज्ञान के अनुसार होगा या श्रद्धान चारित्र के अनुसार होगा? जैसी श्रद्धा, जैसा चारित्र उसके अनुरूप कर्मबंध होने व न होने की व्यवस्था है, पर ज्ञान से नहीं है, सो जो चारित्रहीन ज्ञान है वह निरर्थक है । चारित्र उसके साथ होना ही चाहिए ।
(10) सम्यक्त्वहीन लिंगग्रहण की व संयमविहीन तपश्चरण की निरर्थकता―दूसरी बात यह है कि जो सम्यग्दर्शन से हीन है वह यदि दिगंबर भेष, मुनिभेष भी धारण करे तो उसका वह भेष व्यर्थ है । कर्म बंधने से हट जायें इस काम में कर्म शरीर की चेष्टाओं को नहीं देखते कि यह शरीर से कैसी चेष्टायें करता है उसके अनुसार हम बँधें, किंतु श्रद्धा और चारित्र का बिगाड़ देखकर बिगाड़ का निमित्त पाकर कर्म बंधते हैं । कर्मबंध का कोई दूसरा साधन नहीं है । सो इस गाथा में कहते हैं कि चारित्रहीन ज्ञान निरर्थक है । और सम्यक्त्वहीन भेष का ग्रहण निरर्थक है । श्रद्धा ही नहीं है कि किसलिए निर्ग्रंथ दिगंबर हुए । बस अपने आराम को सुविधा के लिए, लोगों के द्वारा पुजापा बनाने के लिए निर्ग्रंथ हो जाते हैं, दिगंबर भेष में हो जाते हैं, किंतु श्रद्धाविहीन पुरुष का कुछ भी तप भेष यह सार्थक नहीं होता । कर्मबंध इससे रुक जाये ऐसा नहीं होता । तीसरी बात है संयमहीन तपश्चरण । कोई तपश्चरण करे तो करे पर इंद्रियसंयम और प्राणसंयम रंच भी न हो साथ तो उसका तपश्चरण निरर्थक है । सो अपने लिए इससे यह शिक्षा ग्रहण करनी है कि जीवन अपना चारित्रमय बने, क्योंकि प्रकृति तो चारित्र से चलती है और अपने स्वभाव को स्वयं चारित्ररूप देखें । यह ज्ञानमात्र स्वभाव है और अपने ही स्वरूप में रहने वाला है, ऐसी दृष्टि करके अपने स्वरूप को निरखे तो उसका कल्याण है । आत्मज्ञान बिना धर्म के नाम पर बड़े-बड़े भेष भी रख ले तो भी उससे न उसका खुद का लाभ है, न दूसरे को लाभ है । तो अपना जीवन चारित्रमय होना चाहिए और विषयों से विरक्त होना चाहिए ।