वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 102
From जैनकोष
जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता ।
तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा ।।102।।
पदार्थों का अपने परिणमनशीलता का स्वभाव―आत्मा जिस शुभ अशुभ भाव को करता है वह उस भाव का कर्ता होता है, वह भाव उसका कर्म होता है और यही आत्मा उस भाव का भोक्ता होता है । सर्व अर्थ अपने-अपने स्वरूपास्तित्व को लिये हुये हैं और अपने ही रूप से वे हैं पर रूप से नहीं हैं―यदि पररूप से कोई हो जाता तो उसका उच्छेद हो जाता, अभाव हो जाता । तो पदार्थ सब हैं, अपने-अपने स्वरूप से हैं, पर के स्वरूप से नहीं हैं और निरंतर परिणमते रहते हैं । सत् का स्वभाव ही यह है कि निरंतर परिणमते रहना । परिणमन न हो और कोई पदार्थ हो, ऐसा जगत में कुछ नहीं है । चाहे उसकी परिणमन, परिवर्तन, अवस्था से अवस्था की विलक्षणतायें होना विदित हो या न हो अथवा कोई पदार्थ विलक्षण न परिणमे, सदृश ही परिणमता रहे फिर भी वह प्रतिसमय नई-नई शक्ति के परिणमनरूप परिणमता रहता है । अर्थक्रिया होना उस वस्तु का काल होना यह परिणमते रहते बिना नहीं हो सकता । इस कारण प्रत्येक पदार्थ निरंतर परिणमते रहते हैं और वे अपने ही स्वभाव की सीमा में परिणमते रहते हैं, अपने ही गुणों के परिणमन से परिणमते हैं, किन्हीं अन्य के पर्यायोंरूप से नहीं परिणमते । और, इतना सब कुछ होते हुये भी प्रत्येक द्रव्य अपने ही प्रदेशों में रहता है, अपने प्रदेशों से बाहर नहीं रहता । जब ऐसी बात सभी पदार्थों की है तो किस पदार्थ का स्वामी बताया जाये? अन्य कोई स्वामी है ही नहीं ।
जानन वैभव का दुरुपयोग―भैया ! अपन चेतन हैं, जानकार हैं इसलिये इन अजीव पदार्थों पर सभी डींग मारते हैं ओर बोलते रहते हैं कि मैं मकान का मालिक हूँ । यह अपना बड़प्पन बताया जाता है और जिसका मालिक कहा जाये उसकी लघुता बताई जाती है मैं मकान का मालिक हूँ मायने मकान न कुछ चीज हो, किसी चेतन का मालिक बताते तो वह भी बताता । ये अचेतन बेचारे तो जड़ हैं, गरीब है, ये क्या कर सकते हैं । ये बेचारे अजीव बोलते-चालते भी नहीं हैं इसलिये कहते जावो कि मैं मकान का मालिक हूँ यदि मकान भी कुछ जानदार होते तो इसकी खबर ले लेते और कहते कि जा हट, मेरा मालिक मैं हूँ तो अज्ञान से पर का यह अपने को स्वामी समझता है । पर अस्तित्त्व और अर्थ क्रिया परिणमन अपने आपमें ही हो सकता है अन्यथा वस्तु का उच्छेद होगा । वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है फिर कहां है गुंजाइश कि एक परमाणु दूसरे परमाणु का मालिक बन सके । एक परमाणु का किसी परमाणु मात्र को मालिक बताया जा सके ऐसी कहां गुंजाइश है पर वस्तुस्वरूप से अज्ञानी को क्या मतलब है । वह तो अपना कल्पित मौज मानना चाहता है । वस्तु के स्वरूप के विरुद्ध जो चाहे अपराध किया जाये उसे अज्ञानी जीव अपराध तो जानता ही नहीं है । इस अज्ञानी जीव ने अनादिकाल से अज्ञानभाव से परपदार्थों में और आत्मा में एकत्व का निश्चय किया है यही मैं हूं―सो यद्यपि इस विज्ञानघन अचलित स्वरूप वाले आनंदमय आत्मा का स्वाद एक है निराकुल रूप है, किंतु जहाँ पर के साथ संबंध जोड़ा कि भेदवासनायें उठने लगीं ।
स्वादभेद की भूमिका―भैया ! पर का परिणमन अपने आधीन नहीं संयोग वियोग अपने आधीन नहीं पुद्गल कर्म की अनेक विपाक दशायें चलती हैं, कभी उदय मंद हो कभी तीव्र हो कभी अनुभव ज्यादा किया, कभी कम किया, इस तरह आत्मा के स्वाद में यह अज्ञानी जीव भेद डाल देता है । थाली में एक ही चीज खाने की हो तो बड़े सुख से खा लोगे । जहाँ तीन चीजें धर ली तो कल्पना होगी स्वादभेद की, यह बढ़िया चीज है इसे पहिले खाना चाहिये । इस शुद्ध आत्मस्वरूप की दृष्टि में एक प्रकार का स्वाद है वह है सत्य और निराकुलतारूप । पर जहाँ परपदार्थों में संबंध जोड़ा इष्ट अनिष्ट की बुद्धि उत्पन्न हुई बस स्वाद में भेद आने लगा । कभी कम मौज माना कभी ज्यादा मौज माना । इस प्रकार शुभ अशुभ भाव से जिसको यह जीव करता है उस शुभ अशुभ काम में यह आत्मा तन्मय है उसही भाव में व्यापक हो रहा है । सो यह आत्मा उस भाव का कर्ता होता । वह भाव भी उस समय तन्मयता के कारण आत्मा का कर्म होता है ।
दृष्टांतपूर्वक आत्मा में निज के ही कर्तृत्व की सिद्धि―सीधी अंगुली टेढ़ी कर दी तो अंगुली ने किसे टेढ़ी किया? अपनी अवस्था को । कर्ता कौन हुआ? अंगुली, कर्म कौन हुआ? अंगुली की अवस्था । इसी प्रकार आत्मा जिस शुभ अशुभ भाव को करता है वहाँ कर्ता कौन हुआ? आत्मा हुआ? कर्म कौन हुआ? वे शुभ अथवा अशुभ भाव । सो यह आत्मा अपने ही भावों का कर्ता है और उस काल में उस भाव में ही भावक है इसलिये वहां अनुभव करने वाले है और वही भाव अनुभव में आने वाला है । अज्ञानी जीव ने कोई विरुद्ध कल्पना की, रस्सी को वह सांप मान बैठा तो उस अज्ञानी ने क्या किया? सांप नहीं किया किंतु एक भ्रमपूर्ण जानकारी बनाई । और उसके साथ घबड़ाहट को ही उसने भोगा । कोई महिला अपने श्रृंगार से ठन बनकर आभूषण पहिनकर या आज कल के फैशन में पाउडर या लाली लगाकर ऐना में देखकर एक अपनी ठसक मानती है, तो वह महिला किसका भोग कर रही है? गहना पाउडर या लाली का ? नहीं । कल्पना में आई हुई उसका और मौज भाव का ही भोग कर रही है । पर वस्तु का भोग कोई नहीं कर सकता । आत्मा केवल भावों का ही कर्ता है । इससे आगे किसी के सुधार बिगाड़ का कर्ता नहीं है । यह शुद्ध ज्ञान निकट भव्य ज्ञानी पुरुषों के हुआ ही करता है ।
भावों में उत्कृष्टता लाने का अनुरोध―भैया ! अपना महत्त्व बढ़ाने के लिये क्या धन वैभव आदि में परिवर्तन करना है? जब भावों के अतिरिक्त और कुछ कर ही नहीं सकते तो अशुभ भावों को छोड़ो और शुभ भाव ही होने दो बस यही उत्तम इस समय का व्यवसाय है । बच्चे लोग जब बच्चों की पंगत करते हैं तो झूठ मूठ के लिये बड़े पत्ते ले आये, उनको थाली बना दी और छोटे पत्ते ले आये उनको रोटी मान ली । छोटे कंकड़ बीन लाये उनको गुड़ का ढेला मान लिया । इस तरह से बच्चे लोग वहाँ केवल भावों की ही पंगत कर रहे हैं । वहां न पेट भरने की रोटी है, न स्वाद लेने को गुड़ है । पर कुछ बुद्धिमान और प्रगतिशील बच्चे हों तो छोटे पत्तों को रोटी न कहकर परोसते समय कचौड़ी कहकर परोसते । अथवा छोटे कंकड़ों को गुड़ की डली न कहकर उन्हें लड्डू कह कर परोसते । जब भावों की ही बात है तो भावों की उत्कृष्टता लावो । कर तो कुछ सकते नहीं बाहरी पदार्थों में, भाव ही करते हैं और भावों की ही करनी में ऐसा रोजगार फैल जाता है कि शुभभाव हों, अशुभ भाव हों, पुण्य बंध हो, वैभव संपदा मिले । ये सारे काम होने लगते हैं ।
अज्ञानी के भी पर का अकर्तृत्व―भैया ! अज्ञानी जीव को देख लो यह भी परभावों का कर्ता नहीं है, यह अपने विकल्पों को ही किया करता है ꠰ पर का भाव किसी भी पर के द्वारा किया ही नहीं जा सकता है इस बात को इस गाथा में स्पष्ट करते हैं―