वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 15
From जैनकोष
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं ।
अपदेससुत्तमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ।। 15 ।।
627-जिन शासन के अवगम की सार्थकता—जो आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष और आदि मध्य अंतरहित देखता है वह समस्त जिन शासन को देखता है । जिनेंद्र भगवान के समस्त अनुशासनों में प्रयोजनभूत शासन इतना ही है कि याने हुकम इतना ही है कि परम स्वभाव रूप आत्मा को देखो । अंगपूर्वों का पाठी होकर भी यदि इस प्रकार निज तत्त्व को देखता है तो वह ज्ञानी है, नहीं देखता तो वह भी अज्ञानी है । शुद्ध निश्चयनय से जो ज्ञान की अनुभूति हो, उसे ही ज्ञानी अनुभूति कहते हैं । जीव को इस प्रकार श्रद्धा लानी चाहिये कि ज्ञानमय परिणमन में ही मेरा हित है । विषय-कषाय की ओर गया उपयोग हमारा बैरी है । जिस ओर जीव की बुद्धि लगी रहती है उसी ओर उसकी श्रद्धा बन जाती है । विषय और कषाय का उपयोग एक बहुत बड़ी विपदा है । आत्मा निर्मल और चैतन्यस्वरूप है । वह किसी से संबंधित नहीं है । विषय-कषाय की ओर उपयोग मत लगाओ । रोगजनित पीड़ा होने पर भी कषाय को जागृत मत करो । रोगजनित पीड़ा न हो, रोग हो जाये तो कोई बात नहीं । मरते समय प्राय: कुछ न कुछ रोग होता ही है । प्राय: आदमी मरते समय रोग के शिकार रहते हैं । रोग में कलुषित परिणाम न हों । किसी भी समय विषय कषाय रूप दावानल की ओर उपयोग मत लाओ । प्रतिसमय आयु घटती रहती है अर्थात् प्रति समय मरण होता है । क्योंकि आयु का छूटना भी मरण ही के अंतर्गत है । आयु में भी भेद प्रभेद होते हैं । प्रतिक्षण समाधिभाव रखो । 628-ज्ञान की ओर ही सदा चित्त लगाने की प्रेरणा—जिस ओर जीव का उपयोग लग जाता है, उसी रूप उसकी उसमें श्रद्धा बन जाती है । अत: विषय-कषाय का उपयोग कभी शुरू मत होने दो । विषय-कषाय में उपयोग देने के कारण लोग सदा विपत्ति-जंजाल में जकड़े रहते हैं । उससे छुटकारा पाने के लिये ज्ञान स्वरूप की ओर ही अपना उपयोग लगाओ । ऐसा वह आत्मा जो स्वानुभव से ही समझ में आता है स्वानुभव से ही उसे पहिचानने का प्रयत्न करो । जैसे हम कहते हैं—यह घड़ी हमारी है । लेकिन घड़ी स्वतंत्र द्रव्य है । भिन्न द्रव्य होने से घड़ी हमारी कैसे कहलाई? घड़ी हमारी नहीं । हमारा और घड़ी का कोई संबंध नहीं । यह शरीर अपना कुछ नहीं लगता, यह भी अपना नहीं है । हमारे साथ रहनेवाले का और हमारा कोई संबंध नहीं है । यह आत्मा इस शरीर पंजर से निकलेगा तो ऐसा निकलेगा, जैसा तिलों से तेल निकल जाता है । जब जीवन भर साथी रहने वाला यह शरीर ही अपना नहीं तो फिर ये प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली वस्तुएं अपनी कैसे हो सकती हैं? पहले सब वस्तुओं के स्वरूप को समझो फिर सबके प्रति मध्यस्थ भाव धारण करो । आत्मा के स्वरूप को परखने के लिए ममत्व बुद्धि को छोड़कर एक बार तो लग जाओ, फिर इस आनंद को छोड़ने की अपने आप ही इच्छा नहीं होगी । 629-न्याय से अपनी वृत्ति रखने का प्रभाव—जो न्यायवृत्ति रखता है उसमें इतनी योग्यता है कि वह आत्मा के ध्यान के योग्य है । अन्याय में जिसकी बुद्धि लगी है; वह ध्यान के योग्य नहीं है । न्याय उपार्जित धन ही व्यय करना चाहिए । अन्याय से जो धन कमाये, व्यवहार करे, वार्तालाप करे उसका उपयोग आत्मा में नहीं लग सकता है । दूसरे का दिल दुखाकर कभी भी आत्मा का ध्यान नहीं कर सकते । ध्यान में मन लगाने के लिये उस समय से पूर्व के परिणाम भी निर्मल होने चहिये । बात करो तो न्याय की करो यदि न्यायपूर्ण बात करने में लौकिक हानि भी होती हो तो होने दो। धर्मध्यान के लिये चाहे थोड़ा ही समय लगाओ, न्यायपूर्ण व्यवहार रहा तो, उतने समय का ध्यान ही फलदायी है । बुद्धिपूर्वक शास्त्र में नींद नहीं लेनी चाहिए । बुद्धिपूर्वक शास्त्र में सोने से बहुत दोष हैं । ज्ञेय पदार्थों की ओर जिस समय जीव अपना मन लगाता है, उस समय उसे बड़ा आनंद आता है । यह ज्ञान स्वरूप आत्मा ही प्रशस्त आत्मा है । वही व्यक्ति ज्यादह समय धर्मध्यान में लगा सकता है, जिसे धन की कमाई नहीं करनी है । क्योंकि धनार्जन करते समय वियोग बुद्धि बहुत कम रहती है । घर में हों चाहे दुकान पर, बच्चों को खिला रहे हो, चाहे रोटी बना रहे हो, कपड़े धो रहे हो, चाहे बर्तन माँज रहे हो, उस समय भी यह सोचना सुगम है कि अब हमारा उपयोग इस मोह बला से कब हटे? धन कमाते समय वियोग बुद्धि होना कठिन बात है । स्त्रियों के विशुद्ध परिणाम हों तो आज उनका भी धर्म पुरुषों से कम नहीं है । पुरुषों का धनार्जन करते समय वियोग बुद्धि बनाना कठिन है । लेकिन घर में रहकर वियोग बुद्धि करना सरल है । दूसरे रसोई बनाते समय भी यदि शुद्धता का ध्यान रखा जाये तो पुण्य बंध भी होता है । विशुद्ध परिणामों से कर्मों की संवर-निर्जरा भी होती रहती है । भावों की निर्मलता आवश्यक है । पंच परमेष्ठी के ध्यान से आत्मा का विकल्प होता है शरीर पर मत जाओ, शरीर तो सबका मलिन है । शरीर के ध्यान करने से क्या मिलेगा? आचार्य उपाध्याय का शरीर आप लोगों जैसा ही है । यद्यपि उपवासादि करने से उनका शरीर कुछ व्यावहारिक शुद्ध हो जाता है । 630-आत्मा के विकास का नाम सिद्ध भगवान्—दरिद्र (मिथ्या दृष्टि), गृहस्थ, साधु, आचार्य, उपाध्याय, अरहंत और सिद्ध इस प्रकार क्रम से सात अवस्थाओं में आत्मा का विकास होता गया है । सम्यग्दृष्टि कभी भी भावों से दरिद्र नहीं हो सकता । जो यह अनुभव करे कि मैं दरिद्र हूँ वही दरिद्र है । ऊपर कहे गये ये सातों क्रमश: बड़े हैं । आचार्य उपाध्याय की आत्मा में छोटे बड़े का अंदाज नहीं लगा सकते । साधु में भी आत्मा के विकास के विषय में कहा नहीं जा सकता है । आत्मा के विकास की दृष्टि से साधु, उपाध्याय और आचार्यों में निर्मल परिणाम घट बढ़ भी हो सकते हैं फिर भी आत्महित में समान हैं । भगवान इतने बड़े हैं कि हम उनसे वार्तालाप नहीं कर सकते । अशुभ से बचने के लिए पंच परमेष्ठी का नित्य ध्यान करना चाहिये । 4 आदि के (साधु उपाध्याय, आचार्य और अरहंत) शरीर सहित भी ध्येय हैं । शरीर रहित सिद्ध भगवान् तो ध्येय हैं ही। पंच परमेष्ठी के ध्यान से परिणामों में निर्मलता आती है । मोह के कपाट इतने दृढ़ हैं, उनको खोलने के लिये भगवद् भक्ति की कुंजी चाहिए । जो भगवद् भक्ति कर लेते हैं, उन्हें लाभ है, और सब कुछ प्राप्य है । जिसने अपना ध्यान शुद्ध बना लिया, उसका आत्मा तो कृतकृत्य हो गया । जैसे नमक की एक पुतली बनाकर पानी में डाली जाये । पांच सात मिनट डुबकी लगाकर हमें बताना कि वहाँ क्या देखा? भैया ! वह तो घुल जाती है हमें वह क्या सुनाये? स्वानुभव की चीज आत्मानुभव से ही जानी जा सकती है । लोक में भी तो ऐसा ही चलता है—घड़ी को वही जान पायेगा जिसका घड़ी से परिचय है । जहाँ पर ‘घड़ी’ नहीं बोला जाता, वहाँ ‘घड़ी’ कहने से घड़ी को कोई नहीं समझ सकेगा । शक्कर का सबने स्वाद लिया तो शक्कर मीठी होती है ऐसा कहते ही उसे हर एक समझ जायगा, क्योंकि उसका अनुभव सभी ने किया है । जिस प्रकार नमक की डली पानी में मिलकर पानी ही बन जाती है, इसी प्रकार साधु लोग ध्यान में लगकर आत्मा में लीन हो जाते हैं । 631-दो मार्ग में अभीष्टता की खोज—मार्ग दो ही हैं:—1-पाप कमाकर संसार मार्ग, 2-कर्मों का भेदन कर मोक्षमार्ग । कोई भी प्राणी परिणाम ही खराब कर सकता है, इसके अलावा कुछ नहीं । कर्त्ता वह उसको कहता है, जिसके प्रति उसका कथन होता है । ‘भू’ सत्तार्थक धातु का प्रयोग करो तो अभिमान नहीं हो सकता है । ‘भू’ धातु से उत्पाद-व्यय को बताया जाता है । और भू का अर्थ है भू सत्तायां सो अस्ति ध्रौव्यता को बताती है । तीसरी क्रिया की आवश्यकता ही नहीं । अस्ति-भवति के सिवाय न बोलो तो समझो प्राय कि आध्यात्मिक भाषा बोल रहे हो । वस्तुत: कोई किसी का ध्यान भी नहीं करता है । जो जिस भाव से परिणमता है, वह उसी रूप कहलाने लगता है ज्ञान अपेक्षा से अरहंत का जो ध्यान करता है, वह भाव से वही (अरहंत) बन जाता है । अर्थात् ज्ञाननय से वह भक्त अरहंत है । 632-गुणों की नित्यता—द्रव्य गुणमय है । जैसे द्रव्य नित्य है, वैसे ही गुण भी नित्य है । जैसे द्रव्य में परिणमन होते हैं, वैसे ही गुण में भी परिणमन होते हैं । शंका:—गुण नष्ट हो जाता है, फिर दूसरा नया उत्पन्न होता है । हमें तो ऐसा ही मालुम होता । समाधान—किन्हीं गुणों का नाश हो और किन्हीं गुणों की उत्पत्ति हो, ऐसा नहीं है । जैसे कागज बादामी रंग का था, अब काला हो गया, लेकिन रूपत्व दोनों ही अवस्थाओं में रहा । जैसे आम पैदा होते ही काले रंग का होता है । फिर कुछ परिपक्वावस्था आने पर नीला और हरा क्रमश: पड़ जाता है । पूर्णत: पकने पर लाल हो जाता है । रंग की व्यक्त हालत का नाम पर्याय है । जो सब रंगों में जाता है, उसी का नाम गुण है । सामान्य रंग याने रूप गुण सर्व पर्यायों में रहता ही है पुद्गल की । आम पैदा होते ही काला था । बाद में नीला या हरा या पीला हो गया । रंग की पर्याय ही बदली, रूपत्व आम की सभी पर्यायों में विद्यमान है । गुण किसी को दिखाई नहीं देता पर्याय सबको दिखाई देती है । रूप की पर्याय नई उत्पन्न होती है, पुरानी नष्ट होती है । ऐसा नहीं कि गुण बिल्कुल नष्ट या उत्पन्न हो जाते हो । द्रव्य से गुण न्यारा नहीं है, ऐसा जानना चाहिये । गुण का नाम जैसे ज्ञान का सहजज्ञान रखो । मतिश्रुतादिकज्ञान सहजज्ञान की पर्याय हैं । सहजज्ञान की पर्याय नई उत्पन्न होती है । ज्ञान वही है, परंतु उपयोग बदल गया । ज्ञान नई-नई हालत रखता है वह हालत ज्ञान की पर्याय है । जिसकी हालत है वह ज्ञान गुण है । 633-पर्याय व पदार्थ — हालत तो पर्याय है, जिसकी हालत है वह पदार्थ है—जैसे मिट्टी से घर बना । लेकिन मिट्टी रूप तो रहा ही है । रूप सामान्य का नाम रूप गुण है और विशेष रूप गुण की पर्याय है । ज्ञान की हालत का नाम पर्याय है । ज्ञान सामान्य का नाम ज्ञान है । ज्ञानसामान्य गुण कहलाया । यह सब उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता का विलास है इसी को कुछ लोग सत्त्व, रज तमोगुण ये तीनों पदार्थ में रहते हैं—ऐसा कहते हैं । इसी प्रकार जैन सिद्धांत भी कहता है । (जैन सिद्धांत और ये सिद्धांत एक समान हो गये । किंतु अन्य अभिप्राय कहते हैं कि ये तीनों एक साथ नहीं आते हैं । जैसे मिट्टी का घड़ा बना—इसमें घड़े का उत्पाद मिट्टी के लौंदे का व्यय और मिट्टी की ध्रुवता हरेक हालत में रही । अत: उत्पाद व्यय व ध्रौव्य तीनों एक साथ रहते हैं वैसी बात सत्त्व रजो तम का सिद्धांत नहीं कहता । वस्तु की स्थिति है, वस्तु परिणामी होने से प्रति समय बदलती भी रही ध्यान रहे कि वस्तु की पर्याय बदली, वस्तु दूसरी पर्याय के रूप में वही रही । सत्त्व, रज तमोगुण ये सब उनकी क्रमभावी पर्याय हैं । अत: ये तीनों एक साथ रह ही नहीं सकते । कुछ लोग पर्याय को भी गुण मानते हैं । जो वस्तु नष्ट हो जाती है वे सब पर्याय हैं । यदि आप सत्त्व, रज और तमोगुण को भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य जैसा स्वरूप मान लो तो इन सब पदार्थों को सत्त्व-रज-तमोगुण से युक्त मान सकते हैं । यदि उनकी दृष्टि से माने तो सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण ये सब पर्याय हैं वे व्यतिरेकी है । सब पदार्थ उत्पाद, व्यय ध्रौव्यात्मक हैं । 634-समस्त पदार्थ त्रिदेवतामय—उत्पाद-ब्रह्मा, व्यय-महादेव एवं ध्रौव्य-विष्णु होता है । ये त्रिदेवता अलग नहीं । स्वयं पदार्थ सत्त्व, रज व तमो गुणमय है । चीज है, स्वयं परिणमती है । वस्तु का निमित्त मिलने पर भी वह अपने आप में परिणमा । प्रत्येक पदार्थ अपने में ही काम करता है । संयोग में आकर चीज भी चल जाती है । हाथ ने हाथ को चलाया । उसका निमित्त पाकर पदार्थ में क्रिया हुई । पिता ने पुत्र का कुछ नहीं किया । पुत्र के पुण्य का उदय था, पिता के धन का निमित्त पाकर पुत्र स्वयं पढ़ा । पिता की आत्मा में परिणमन हुआ पिता के अन्वय से । वहाँ उसी प्रकार की क्रिया हुई केवल वह निमित्त बना तो पुत्र को उसने पढ़ाया ऐसा उपचार से कहते हैं । हम किसी को समझा नहीं सकते । तुम स्वयं समझते हो । हम तो तुम्हारे समझने में निमित्त मात्र बन जाते हैं । पदार्थों का परिणमन स्वयं अपने में ही होता है । पदार्थ चाहे कहीं भी पड़ा हो वहीं निमित्त नैमित्तिकभाव से परिणमता रहता है । जब वह आत्मा अपने आप में दृष्टि लगाए, तो अपने आप यह कर्मबंध से मुक्त हो जाता है । ईश्वर का ध्यान करने से लाभ यह है कि हमारा चित्त शुद्ध हो जाता है । हम लोग भगवान का ध्यान करके अपना उद्धार कर लेते हैं । भगवान् स्वयं किसी के लिये कुछ नहीं करते । भगवान का ध्यान हमारे कल्याण में निमित्त मात्र है । जैसे—मिट्टी का घड़ा बना तो घड़े में मिट्टी सत्तारूप से नष्ट नहीं हो जाती । घड़े में मिट्टी का सद्भाव सभी पर्यायों में रहता है । अत: मिट्टी नित्य कहलाई । जो ज्ञान हमारा इष्ट रूप था, वह यदि बुरे रूप हो गया तो उसकी पर्याय ही बदली, ज्ञान वहीं का वहीं रहा । पर्याय के समय ज्ञान है, किंतु सदा उस पर्यायरूप नहीं रहता । जैसी पर्याय होती है, उसी रूप गुण हो जाता है । इसी प्रकार आत्मा सामान्य पर्याय बदलने पर भी वहीं का वहीं रहता है । जैसे हम क्रोध में थे, अब घमंड में आ गये तो ऐसा नहीं कि हमारी आत्मा बदल गई हो, आत्मा वही की वही हैं, पर्याय क्रोध से घमंडरूप हो गई । द्रव्यदृष्टि से यदि आत्मा को देखो तो आत्मा नित्य, निर्लेप, अविकारी जान पड़ता है । पर्यायदृष्टि से आत्मा अनित्य है । 635-मन के प्रकार:—द्रव्यमन और भावमन — मन के ऐसे दो भेद हैं। जो भी मन में हम संकल्प विकल्प करते हैं वह भावमन है । द्रव्यमन आत्मा से भिन्न है । भावमन आत्मा की एक पर्याय है । दुःखी होने वाला भावमन है । गंध का ज्ञान करने वाला आत्मा है, नासिका तो गंध ज्ञान करने का निमित्तमात्र है । आत्मा वही का वही रहता है । उसकी पर्यायें बदलती जाती है । भाव मन आत्मा की एक अवस्था हे । भावमन बदलता रहता है, आत्मा नहीं बदलती । जैसे अब हमें भूख की पीड़ा हुई तो अब हमारा भावमन भूख की पीड़ारूप हो जाता है । आत्मा को भावमन नहीं कह सकते । आत्मा की पर्याय को भावमन कह सकते हैं । केवलज्ञान होने पर केवली के द्रव्यमन रहता है, भावमन नहीं रहता क्योंकि केवली भगवान् सचराचर को जानते हैं । भावमन तभी तक रहता है, जब तक छद्मस्थ अवस्था है । छद्मस्थावस्था में भी आत्मा में लीन रहो, तो भावमन उस समय नहीं रहता है तब अतींद्रिय प्रत्यक्षज्ञान है । जिस समय आत्मा पर के विषय में संकल्प-विकल्प करता है, उस समय कह देते हैं आत्मा पर में लीन है । जिस समय आत्मा पर पदार्थों से मन हटा लेता है, तब कह देते हैं कि आत्मा आत्मा में लीन है । स्वानुभव तो आत्मा की निर्विकल्प अवस्था है । शंका:—गुण तो आधेय है, द्रव्य आधार है क्या ऐसा है? समाधान—नहीं, ऐसा नहीं है । ऐसा कहना चाहिये कि गुण पर्याय इन सबका एक क्रम ही द्रव्य है । शंका: आत्मा के जितने प्रदेश हैं उन प्रदेशों का नाम ही गुण है । अर्थात् द्रव्य न्यारी चीज है गुण न्यारी चीज है— ऐसा है क्या ? समाधान:—गुणों से पृथक् प्रदेश नहीं है । गुणोंमय द्रव्य की स्थिति में प्रदेश का देखना होता है । द्रव्य एक स्वभाव है उस स्वभाव के समझने के अर्थ जो यत्न हैं भेद हैं वह गुण कहलाते हैं । गुण नित्य रहता है जैसे रूप सामान्य नित्य रहता है । रूप सामान्य की पर्याय मिट जाती है । रूप सामान्य जल्दी इसलिये समझ में नहीं आता कि वह आंखों से नहीं दिखाई देता है । रूप सामान्य की पर्याय ही आंखों से दिखाई देती है । पर्यायों की संतान के सहारे जो समझ में आवे, उसे द्रव्य कहते हैं । 636-समगुणपर्याय द्रव्यम्:—जो गुण और पर्याय के बराबर हो, उसे द्रव्य कहते हैं। शंका—हम तो ऐसा मानेंगे कि द्रव्य के जो प्रदेश हैं, वे द्रव्य के आश्रय रहने वाला अप्रकट गुण है । ऐसा मानने से तुम्हारे उत्पाद, व्यय ध्रौव्य की बात ठीक घटती है । समाधान:—ऐसा मानने से गुण क्षणिक हो जायेंगे । गुणों के क्षणिक होने से प्रत्यभिज्ञान भी नहीं बन सकेगा । प्रत्यभिज्ञान से अन्वयी बनता है । प्रत्यभिज्ञान का अभाव होने से अन्वयी कैसे बने? गुण की पर्याय ही नष्टोत्पन्न होती हैं गुण नष्ट नहीं होते । शंकाकार के कथनानुसार एक साथ नाना गुण उत्पन्न नहीं हो सकते । यह तभी हो सकेगा, जब कि गुणों के समूह का नाम द्रव्य रखोगे । इसे दृष्टांत द्वारा समझाते हैं । आम में रूप, रस, गंध, स्पर्श स्पष्ट प्रतीत होते हैं । इसी प्रकार आत्मा में भी अनंत गुण हैं । गुणों के समूह का नाम ही द्रव्य है । द्रव्य गुण अलग-अलग नहीं हैं । दिखाई देने वाला द्रव्य एक द्रव्य नहीं । परंतु इनके जो परमाणु हैं, वे ही द्रव्य हैं । दिखने वाले स्कंध अनंत द्रव्य की पर्याय हैं । या कहो कि गुण नित्य है, परिणामी है, ऐसा तो हम कहलाना चाहते हैं । चीज हमेशा से है और हमेशा रहेगी । वस्तु नित्य है, स्वत: परिणमनशील भी है । आत्मा, परमाणु आदि सभी परिणामी हैं । यदि तुम कहो कि पदार्थ नित्य नहीं है किसी ने बनाया है तो बताओ, वह किसके द्वारा बनाई गई है। यदि वह किसी चीज के द्वारा बनाई गई है तो वह किस चीज के द्वारा बनाई गई है । अंत में मानना ही पड़ेगा कि चीज स्वत: सिद्ध अनादि अवश्य है । असत् की कभी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । वस्तु स्वत: सिद्ध है, अत: वह अनादि अनंत तक रहेगी । और सदा स्वत: परिणमती रहेगी । शुद्ध पर्याय कभी परिणमती नहीं है क्योंकि उसमें विकार आने का कोई कारण नहीं है । भगवान् कभी अवतार नहीं लेते । भगवान का अवतार मानना कल्पना या मिथ्यात्व है । अवतार कहते हैं उतरने को (अवनति को) । किसी आत्मा का उतार हो जाता है यह बात तो ठीक है । 637-आत्म द्रव्य क्या है—शंकाकार कहता है, जो आत्मा की लंबाई चौड़ाई है, वह तो द्रव्य है, उसके आश्रित रहने वाले जो गुण हैं, उनको गुण मान रखा है, जो नष्ट-उत्पन्न होते रहते हैं । ऐसा कहना ठीक नहीं । इसमें-2 आपत्ति हैं:—ऐसा मानने से गुणों में नष्टपना आ गया, तथा गुण अन्वयी भी नहीं रहे । फिर गुण एक ही रहेगा, नाना नहीं हो सकता । किंतु गुण अनेक हैं । जैसे आम में रूप, रस, गंध, स्पर्श—चारों एक साथ हैं । उसी प्रकार आत्मा में भी अनेक गुण साथ हैं । शंका:—हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि गुण नित्य है, और पर्याय अनित्य है दोनों का समुदाय द्रव्य है । उत्तर—परिणाम नित्य है याने गुण नित्य हैं और परिणमते रहते हैं । गुण हालतें बदलने में कारण बन सकते हैं । इनके बदलने में भगवान् कारण नहीं है । हम लोग उसके बदलने में बाह्य कारण बन सकते हैं यदि बाह्य दृष्टि से देखा जावे । भगवान तो ज्ञाता दृष्टा हैं । वस्तु का स्वभाव ही बदलने का है । वस्तु अपने आपमें स्वत: परिणमती रहती है, उसे कोई परिणमा नहीं सकता । वह प्रतिक्षण बदलती रहती है । इसके अतिरिक्त यदि कहो, प्रदेश का नाम द्रव्य है, उसमें रहने वाला गुण है । चलो, तुम्हारे कहने से यह भी हम ठीक मान लेते हैं परंतु प्रदेश और गुणों को भिन्न-भिन्न मत निरखो । प्रदेश अलग से कुछ चीज नहीं है । गुणों का समूह ही द्रव्य कहलाता है । द्रव्य के देशांश प्रदेश कहलाते हैं । शंका—गुणों का समुदाय द्रव्य है ऐसा तुमने माना यों आत्मा में जो पर्याय है, वह गुणों की ही दशा होनी चाहिए, द्रव्यों की दशा नहीं होनी चाहिये । समाधान:—प्रत्येक द्रव्य में द्रव्यपर्याय और गुण पर्याय ये दो पर्याय अवश्य होना चाहिये । क्योंकि गुणों में गुणपना होने पर भी गुणों के क्रियावती और भाववती शक्ति—इस प्रकार दो शक्तियां होती हैं; जिसमें किसी की हलन चलन क्रिया हो, उसे क्रियावती शक्ति कहते हैं । गुणों के परिणमन को भाववती शक्ति कहते हैं । क्रियावती शक्ति का सामंजस्य प्रदेशवत्त्व गुण के साथ है । गुणों के समुदाय का नाम ही द्रव्य है । गुण अनंत हैं । एक प्रदेशवत्व गुण में आकार क्रियावतीशक्ति के कारण बनता है । 638-भेद और भेदक, अभेद और अभेदक—इसी आत्मा को सामान्यदृष्टि से समझो तो कोई भेद नहीं आयेगा । यदि विशेष की दृष्टि से देखो तो आत्मा के अनेकों भेद समझ में आयेंगे । सारांश यह है कि द्रव्य गुणों का समूह है । यह भी उपचार है वस्तु अखंड है । उसमें भेद बताया है । प्रदेशवत्त्व गुण की पर्याय को द्रव्यपर्याय कहते हैं और अन्य गुणों के परिणमन को गुणपर्याय कहते हैं । जितने प्रदेश रूप अंश हैं, उतने द्रव्यपर्याय हैं । जितने उस द्रव्य में गुण हैं उतने गुणपर्याय हैं । प्रदेशों की संख्या आकार बताना द्रव्यपर्याय कहलाती है जैसे यह चौकी है । इतनी लंबी-चौड़ी है यह द्रव्यपर्याय रूप से देखा । और यह काला है, यह भद्दा है, यह गुण पर्यायरूप से देखा । ऐसा नहीं कि द्रव्य कोई अलग चीज हो। वह तो सर्व गुणमय है । अत: सिद्ध हुआ कि भेददृष्टि से देखो तो गुण है । अभेददृष्टि से देखो तो वही द्रव्य है । जैसे वृक्ष को अभेददृष्टि से देखो तो वह वृक्ष दिखेगा और उसी वृक्ष को भेददृष्टि से जानो तो शाखा, कोंपल, फूल, फल रूप दिखेगा। आत्मा अभेददृष्टि से देखे जाने पर वह परमार्थ परमस्वभाव है । जिनशासन के मनन अध्ययन ज्ञान का यहाँ परमफल है कि अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष, आदि मध्यांतरहित आत्मा का अनुभव हो । यदि यह अनुभव हो गया तो मानो समस्त जिनशासन का अनुभव हो गया । जिनशासन श्रुतज्ञानरूप है, श्रुतज्ञान स्वयं आत्मा है । अत: जिनशासन का अनुभव कहो, ज्ञान का अनुभव कहो या आत्मा का अनुभव कहो, यहाँ सब एकार्थक है । ज्ञान का अनुभव सामान्य के आविर्भाव व विशेष के तिरोभाव से अनुभूयमान होता है । परंतु, अज्ञानी और लोभी आत्माओं की दृष्टि पर की ओर व परभाव की ओर रहती है उनके सामान्य का तो तिरोभाव रहता और विशेष का आविर्भाव रहता अत: ज्ञान का अनुभव नहीं होता । जैसे कि नाना प्रकार के नमकीन व्यंजन पकवान को अबुद्ध व व्यंजन लुब्ध खाये तो उसकी दृष्टि व्यंजन पर रहती, नमक पर दृष्टि नहीं रहती किंतु स्वाद तो नमक ही बना रहा है, परंतु वह लोभी यही समझता है कि व्यंजन का उत्तम स्वाद है । वहाँ नमक सामान्य का तो तिरोभाव है और व्यंजन विशेष का आविर्भाव है । व्यंजन संयोग न होने पर नमक सामान्य का जो स्वाद जाना जाता है वह वहाँ तब ज्ञात होवे जब सामान्य के आविर्भाव व विशेष के तिरोभाव रूप से स्वादा जावे । और देखो, नमक जो विशेषाविर्भाव से अनुभव किया है वही सामान्याविर्भाव से भी किया जा सकता किंतु इसके अर्थ ज्ञान और अलोभ होना चाहिये । इसी प्रकार नाना ज्ञेयाकारों के मिश्रण में है तो ज्ञान उपादान और ज्ञेय निमित्त, किंतु अज्ञानी और ज्ञेय लोभी आत्मा की दृष्टि ज्ञेय पर तो होती है ज्ञानसामान्य पर नहीं होती। भैया ! सामान्य के तिरोभाव व विशेष के आविर्भाव रूप से अनुभव होता है, सामान्य के आविर्भाव व विशेष के तिरोभावरूप से नहीं । जो ज्ञान विशेष के आविर्भाव रूप से अनुभवा जा रहा है वही तो सामान्य के आविर्भावरूप से अनुभवा जा सकता है किंतु इसके लिये चाहिये ज्ञान और अनासक्ति । जैसे अन्य द्रव्य के संयोग से रहित केवल नमक की डली ही स्वादी जावे तो नमक रूप से ही स्वाद आता है इसी प्रकार अन्य द्रव्य व अन्य भाव के संयोग से रहित केवल ज्ञानस्वभाव ही अनुभवा जावे तो ज्ञान से यह विज्ञानघन आत्मा अनुभव में आता ही है । इस ज्ञानघन आत्मा का परिचय करो । यह बहुत कुछ तो आत्मा के वाचक शब्दों के अर्थ से ही जाना जा सकता है । 639-नाम तो पदार्थ के विशेषण हैं—जैसे कि आत्मा के ये 3 नाम हैं:—आत्मा, ज्ञानात्मा, चिदात्मा । आत्मा माने आत्मा । आततीति आत्मा—जो ज्ञान से दुनिया भर में निरंतर चले उसे आत्मा कहते हैं । ज्ञान ही जिसका स्वरूप है उसे ज्ञानात्मा कहते हैं । चैतन्य जिसका स्वरूप है, उसे चिदात्मा कहते हैं । चेतन उसे कहते हैं, जो जाने, चेते, देखे । ज्ञाता माने जानने वाला । दृष्टा माने जो प्रतिभास करे । इस प्रकार आत्मा के कई नाम हैं । इसी प्रकार गुण के चार नाम हैं:— गुण, सहभू, अन्वयी और अर्थ । आत्मा तो द्रव्य है । आत्मा में जो ज्ञान, दर्शन चारित्र व शक्तियां हैं, वे गुण कहलाते हैं । मनुष्य, तिर्यंच, देव, नारकी आदि होना, ये आत्मा की पर्याय हैं । एक साथ जो रहे उसे सहभू कहते हैं ।जो क्रम-कम से होवे उसे क्रमभू कहते हैं । आत्मा में गुण सहभू हैं, क्योंकि गुण आत्मा में एक साथ बने रहते हैं । समस्त पर्याय क्रमभू है । आत्मा कभी देव बनता है, कभी मनुष्य, कभी नारकी। एक साथ ही आत्मा देव नारकी आदि नहीं बन सकता है । अत: पर्यायें क्रमभू कहलाती हैं । जितनी भी अनंतशक्तियां है वे जीव में एक साथ रह सकती हैं । सहभू कहते हैं एक साथ एक काल में रहने को या जो आत्मा के साथ-साथ रहे । गुण अनंत गुणों के साथ रहते हैं परस्पर में उनमें कोई विरोध नहीं । द्रव्य में प्रति समय अनंत गुण रहते हैं । द्रव्य अनंतकाल तक रहेगा सो गुण भी तन्मय होकर अनंत काल रहेगा। पर्याय माने परिणमन अर्थात् जो बदले चूंकि पर्याय भिन्न-भिन्न समय में होती हैं, अत: पर्यायें क्रमभावी हैं । एक गुण की पर्यायें एक साथ दो नहीं हो सकती । ऐसा कोई समय नहीं आयेगा जिस समय आत्मा में गुण न रहे । गुण तीनों कालों में आत्मा में विद्यमान रहते हैं । भिन्न समयवर्ती होने से पर्याय क्रमभावी होती हैं । शंका:—एक साथ मिलकर रहने वाले गुणों को सहभू कहने चाहिये । द्रव्य के साथ मिलकर ये गुण सहभू कहलायेंगे । समाधान:—यदि ऐसा कहोगे तो द्रव्य व गुण अलग-अलग हो जायेंगे । हम पहले कह आये हैं, गुणमय द्रव्य है । जैसे हाथमय शरीर है । ऐसा नहीं कि शरीर में हाथ हो । कोंपल, पते, शाखा, फूल, फलमय वृक्ष है । ऐसी नहीं कि वृक्ष में फूल-फल-पत्ते हों । ऐसा कहें कि हमारे साथ जो रहे वह हमारा मित्र है । मित्र और हम तो अलग-अलग हो जायेंगे, ऐसा सहभू का अर्थ नहीं है । सहभू का सही अर्थ है कि दो प्रतिसमय साथ रहे । ऐसे आत्मा में रहने वाले गुण हैं । आत्मा एक अखंड द्रव्य है । आत्मा ज्ञान दर्शनमय है । आत्मा से द्रव्य गुण कभी अलग नहीं हो सकते हैं । अलग होने पर गुण मिट जायेंगे, उनकी सत्ता ही नहीं रहेगी । और गुण मिट जावेंगे तो द्रव्य ही न रहेगा । शंका— जो द्रव्यों के साथ मिलकर रहे, उसे गुण कहते हैं तो पर्याय में भी गुण का लक्षण चला जायेगा अर्थात् गुण ही पर्याय कहलायेंगी । इस कारण उसमें अतिव्याप्ति दोष आ जायेगा और द्रव्य से गुण अलग कहलाएंगे । जिस समय आत्मा मनुष्य पर्याय में है तो क्या उसमें आत्मा नहीं? समाधान:—पर्याय द्रव्य से न्यारी नहीं है । यदि हमारा ज्ञान हमसे अलग हो जाये तो क्या वह तुम्हारा नहीं कहलाने लग जायेगा? जिस समय पर्याय है, उस समय पर्याय द्रव्य में तन्मय है, किंतु द्रव्य में त्रिकाल तन्मय नहीं । 640-अन्वयी का अर्थ—‘अनु’ शब्द प्रवाहरूप से चलने के अर्थ में आता है । अयति माने चलना । अनु+अय् माने जो अविच्छिन्न प्रवाहरूप से चले, उसे अन्वय याने द्रव्य कहते हैं । जो अन्वय में क्रमवर्तीरूप से रहे उसे पर्याय कहते हैं । जैसे आत्मा अभी मनुष्य में था, अब वही आत्मा देव हो गया, लेकिन आत्मा अविच्छिन्न रूप से बनी रही । अत: आत्मा की सब पर्यायों में आत्मा अविच्छिन्न रूप से बनी रहती है । द्रवति—गच्छति तान् तान् पर्यायान् इति द्रव्यम् । अर्थात् जो भिन्न-भिन्न पर्यायों में साथ जाये उसे द्रव्य कहते हैं । अत: सिद्ध हुआ द्रव्य परिणामी है । ठंडी वस्तु का निमित्त मिलने से पानी स्वयं ठंडा हो जाता है। द्रव्य का स्वभाव ही स्वयं परिणमन का है । जैसे हम तुम लोगों को समझा रहे हैं ऐसा किसी को दिखे । लेकिन तुम हमारे समझाने से नहीं समझ रहे हो । अपितु तुम स्वयं समझ रहे हो । तुम्हारे समझाने में हम निमित्त अवश्य हैं । इसे इस प्रकार से कहें, हमें निमित्त पाकर तुम अपने आप समझ रहे हो । जैसे पानी गर्म हुआ, वह स्वयं गर्म हुआ । उसमें अग्नि ने कुछ नहीं किया । पानी के गर्म होने में अग्नि निमित्त मात्र है । इसे इस तरह से कह सकते हैं, अग्नि को निमित्त पाकर जल स्वयं उष्ण हो गया । कई वस्तुएं ऐसी हैं कि निमित्त के हट जाने पर नैमित्तिक स्वयं हट जाता है जैसे दर्पण में आया हुआ प्रतिबिंब । दर्पण में मोर का प्रतिबिंब पड़ा । इसमें मोर निमित्त है । मोर के अंतर्हित होने पर उसका नैमित्तिक (प्रतिबिंब) भी हट जायेगा । पानी गर्म हो रहा है । अग्नि पानी गर्म होने में निमित्त है । निमित्त के (अग्नि के) हटने पर नैमित्तिक (जल का उष्णत्व) क्रम-क्रम से हटेगा । लेकिन निमित्त के अभाव होने पर नैमित्तिक का अभाव हो जाना है। 641-द्रव्य के पर्यायवाची शब्द—(1) सत्ता माने ‘है’ पना, यह जो प्रत्यय है, बोधरूप है वही द्रव्य है । आत्मा द्रव्य है, वह समझी जा सकती है । आत्मा देखी नहीं जा सकती । आत्मा पकड़ी नहीं जा सकती है, उसके टुकड़े नहीं हो सकते । आत्मा अखंड द्रव्य है । आत्मा, परमाणु, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये भी ज्ञान में ही आते हैं, देखे नहीं जा सकते हैं । जो सत् यह प्रत्यय है वही द्रव्य है । द्रव्य का विकास तो ज्ञाता से शुरू हुआ । (2) सत्त्वम्—सदिति प्रत्ययविषयत्वं सत्त्वम् । जो सत् इस प्रत्यय का विषय है वह सत्त्व है वह द्रव्य है । (3) सत् जो अर्थ क्रियाकारी हो वह सत् है, द्रव्य है । अर्थक्रिया उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त में होती है । सो सत् उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त है । (4) सामान्य माने विशेषों में जो रहे उसे सामान्य कहते हैं अथवा विशेषों का जो आधार है उसे सामान्य कहते हैं । जैसे देव मनुष्यपर्याय में आत्मा । बालक जवान बूढ़े में मनुष्यत्व देखते हैं लोक में यहाँ मनुष्य सामान्य मान लिया । और बालक जवान बूढ़ा विशेष मान लिया । दृष्टांत में आत्मा सामान्य हैं । देव, मनुष्य, ये सब विशेष हैं । (5) द्रव्य:—जो पर्यायों को ग्रहण करता है, या करेगा या की थी, उसे द्रव्य कहते हैं । जब द्रव्य है तो वह स्वयं अपना जिम्मेवार है । (6) अन्वय:—जो अविच्छिन्न प्रवाह रूप से पर्यायों में चले । (7) वस्तु:—जो अपने गुणों को ग्रहण करे, पर के गुणों को ग्रहण न करे, अपने चतुष्टय से रहे, पर के चतुष्टय से न रहे उसे वस्तु कहते हैं । (8) अर्थ:—जो निश्चय किया जाये उसे अर्थ कहते हैं । (9) विधि—जो अस्तित्वरूप है, उसे विधि कहते हैं । अथवा जो विधाता है स्वयं की परिणतियों का उसे विधि कहते हैं। ये सब द्रव्य के पर्यायवाची शब्द हैं । ‘‘है और परिणमा’’ इसी का नाम द्रव्य है । यदि निमित्त न हो तो स्वभाव के अनुकूल परिणमन चलेगा । निमित्त हो तो विभावशक्ति वाले द्रव्यों में विभाव परिणमन चलेगा । 642-स्थिरता के लिये स्थिरतत्त्व का उपयोग:—अन्वय माने द्रव्य और अन्वयी माने गुण । ये दोनों त्रैकालिक है । पर्यायें त्रैकालिक नहीं । पर्यायें एक समय को होती है, दूसरे समय में पर्याय नष्ट हो जाती है और नवीन होती है । गुणों के समूह का नाम द्रव्य है । एक द्रव्य में अनंत गुण हैं द्रव्य और गुणों में सापेक्षता है । पर्याय में विपक्षता है । जब एक पर्याय रहती है, उसी समय में दूसरी पर्याय नहीं रह सकती । एक पर्याय के बाद ही दूसरी पर्याय होगी । जो एक समय में पर्याय है, वह दूसरे समय में नहीं रहती । सापेक्ष गुणों के पिंड का नाम द्रव्य है । भेद दृष्टि करने से द्रव्य अनंत है । अभेददृष्टि करने से द्रव्य एक है । यथार्थज्ञान हो वहाँ सुख है । अज्ञान में होने वाला सुख क्षणिक है । या तो कुछ भी मान लो और मानकर धर्म कर लिया ऐसे संतोष की सांस ले लो । कोई एक ही व्यापक चीज है । दिखाई देने वाली उनकी भिन्न-भिन्न तरंगे हैं । यह कल्पना ज्ञान के विरुद्ध है । इस प्रकार का ब्रह्म का ध्यान सदा बनाये भी नहीं बना रह सकता । आनंद मानना तो किसी भी जगह बनाया जा सकता । आनंद तो नींद में भी आता है । परंतु इससे स्वभाव की परख नहीं हो सकती जितनी चीजें दिखाई देती हैं, वह सब माया (पर्याय) है । ज्ञानस्वरूप चैतन्य का ध्यान करना चाहिये । ज्ञान स्वरूप आत्मा का ध्यान करने से ज्ञाता ज्ञेय एक हो जाता है । अत: यह ध्यान सर्वोत्तम है । महासत्ता की दृष्टि से सारा जगत् एक सत् है, उसी को लोग ब्रह्म कहते हैं । जैसे 50 गायों का नाम गाय सामान्य रख देते हैं । परंतु गाय सामान्य का दूध नहीं दुह सकते । दूध पीने के लिये गाय विशेष का ही मिलेगा । महासत्ता से काम नहीं बन सकता याने महासत्ता की अर्थक्रिया नहीं होती । किसी चीज विशेष से ही काम बनेगा । वस्तु तो जैसी है तैसी है । 50 गायों के सामान्य में हाथ पैर पूंछ आदि नहीं हैं । गाय विशेष के हाथ पैर आदि होते हैं । अत: महासत् से कोई काम नहीं चलेगा । 643-सत् की सनातनता व अविनाशिता:—जो है, वह किसी विशेष दिन पैदा हुआ हो, पहले नहीं था — ऐसा नहीं है । जो है, वह कभी नष्ट भी नहीं हो सकता । मैं आत्मा भी कभी पैदा नहीं होता, न कभी पैदा हुआ और न कभी पैदा होऊँगा । इसी प्रकार आत्मा कभी नष्ट भी नहीं होता, कभी नष्ट भी नहीं हुआ और कभी नष्ट भी नहीं होगा । पर्याय नष्ट होने के बाद दूसरी पर्याय उसी समय मिल जाती है । सत् को बताया नहीं जा सकता, वह अवक्तव्य है । वस्तु के स्वरूप को कोई कह नहीं सकता । अत: वस्तु को समझाने के लिये उसके टुकड़े कर करके बता दिये जाते हैं । वस्तु के विषय में कोई कुछ कहता है, कोई कुछ, क्योंकि वस्तुस्वरूप अवक्तव्य है । वस्तु के स्वरूप को स्याद्वाद अच्छी तरह से बता सकता है । स्याद्वाद कहता है कि जितनी चीज जिस अपेक्षा से हम बता रहे हैं उतनी सत्य है । जितनी वस्तु को जितने प्रकार से बताया जा सके, उतने प्रकार से बताना, यही स्याद्वाद का सिद्धांत है । सब-सब प्रकार से वस्तुओं का परिज्ञान करके प्रकार छोड़ दो, जैसी वस्तु समझ में आई, बस वही वस्तु स्वरूप है । वस्तु के स्वरूप को बताने के लिये ‘‘स्याद्वाद’’ समर्थ है । अभेददृष्टि से आत्मा में एक स्वभाव है और भेददृष्टि से अनंत स्वभाव है । अभेददृष्टि से आत्मा का चैतन्य स्वभाव है । वास्तव में आत्मा का एक भी नाम नहीं है । जहाँ नाम ले दिया, वहाँ नानात्व आ गया । जो आत्मा की जानकारी से परिचित है, उसे आत्मा की एक बात भी बताए, वह समग्र आत्मस्वरूप को समझ जाता है । 644-नाना दृष्टियों से द्रव्य की जानकारी—हम कभी किसी वस्तु के स्वभाव को या गुण या पर्याय को नहीं देख सकते उनकी मुख्यता से द्रव्य को जान सकते हैं । जैसे हमने घड़ी देखी तो हम घड़ी के रूप को नहीं देख रहे हैं । घड़ी को देख रहे हैं, रूप तो देखा ही नहीं जा सकता है सफेद के रूप से घड़ी दिख रही है घड़ी हमें सफेद दिखाई दे रही है । अच्छा, आप सफेद-सफेद को देखते रहिये, देखें; कैसे आपको सफेदी दिखाई देती है । क्यों भैया ! देख ली अच्छा अब सफेदी वहीं धरी रहने दो घड़ी यहाँ ले आवो । ऐसा नहीं हो सकता ना । छूना, सूंघना, चखना, देखना सुनना हमने ये सब नाम रख लिये हैं, वैसे सभी का अर्थ जानना होता है । जब हम रस द्वारा आम को जानते हैं तो क्या हम अंशरूप आम को जान रहे हैं ! नहीं, थोड़ा चखकर पूरे आम को जान रहे हैं । एक अंश के द्वारा पूरे पदार्थ का परिचय हो जाता है । आत्मा का जो ज्ञान रखता है, आत्मा का एक गुण जानने पर भी पूरे आत्मा को जान लेता है । किसी गुण का मुख्यता से कथन होता है, शेष गुणों का गौण रूप से कथन होता है । जैसे आत्मा ज्ञानमय है, यह कहने से आत्मा में जितने भी ज्ञान हैं, सभी का बोध हो जाता है । एक गुण के कहने से अनंत गुण समझ में आते हैं । अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व, अस्तित्वादि - ये आत्मा के गुण कहे गये हैं । तो ज्ञान के कहने से सूक्ष्मत्व, अमूर्तत्व, प्रमेयत्व, अस्तित्वादि सभी का ज्ञान अपने आप हो जाता है । गुणों में सापेक्षता है । आत्मा में अनेक गुण एकमेक होकर रहते हैं । एक पर्याय का नाम लेने से समस्त पर्यायों का बोध नहीं हो सकता है क्योंकि हालतों में सापेक्षता नहीं, विपक्षता है । अत: गुण सापेक्ष और पर्यायें विपक्ष कहलाती हैं । 645-पहिले जान लो फिर भूल जावो—वस्तु को सब प्रकार से जानकर सब प्रकार का जानना भूल जाओ, तभी वस्तु स्वरूप समझ में आयेगा । निर्विकल्पक अवस्था जैसा ही वस्तुस्वरूप है । अर्थात् वस्तु-स्वरूप को समझने के बाद उसमें कोई विकल्प नहीं उठता है । वस्तु का स्वरूप जब नाना प्रकार से बता रहे हैं उसको ग्रहण करने के लिये नहीं बता रहे हैं, बल्कि नानात्व को छोड़ने के लिये वस्तु का स्वरूप नाना प्रकार से बताया जाता है । उस वस्तु स्वरूप या आत्मतत्त्व का परिज्ञान करने के लिये प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक प्रकार का परिश्रम करता है । पर्याय क्रमवर्ती और गुण सहभावी होते हैं । सहभावियों में (गुणों में) यह विशेषता है कि किसी एक गुण का नाम लो तो सभी गुणों का परिज्ञान हो जाता है । परंतु जिस गुण का नाम लिया जायेगा, उसका मुख्य रूप से बोध होगा, शेष का गौण रूप से ज्ञान होगा । पर्यायों में ऐसी सापेक्षता नहीं । एक पर्याय कहने से एक पर्याय का ही ज्ञान होगा, अन्य पर्याय का नहीं । गुण का लक्षण यह है कि जिसमें अन्वय पाया जाये, वह गुण कहलाता है । 646-समस्त पदार्थों की परस्पर में भिन्नता—हमारा आत्मा तुम्हारे आत्मा से भिन्न है, तुम्हारा आत्मा हमारे आत्मा से भिन्न है । शरीर आत्मा से भिन्न है । द्रव्य क्षेत्र काल भाव ये चारों चीजें आत्मा में हैं । हम तुम से जुदे हैं । इसका मतलब है कि हमारा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव तुम्हारे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से जुदा है । एक परमाणु का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव दूसरे प्राणी के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से जुदा है । पदार्थों में परस्पर चारों का व्यतिरेक है । द्रव्य व्यतिरेक—एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से न्यारा है । दोनों मिलकर एक नहीं बन जाते हैं। क्षेत्र व्यतिरेक—एक द्रव्य का क्षेत्र दूसरे द्रव्य के क्षेत्र से भिन्न है, दोनों द्रव्यों का क्षेत्र मिल एक नहीं बन जाता है। काल व्यतिरेक—एक द्रव्य का काल दूसरे द्रव्य के काल से भिन्न है, दोनों द्रव्यों का काल मिलकर एकमेक नहीं हो जाता है। भाव व्यतिरेक—एक परमाणु का भाव दूसरे परमाणु के भाव से अलग है; दोनों के भाव मिलकर एक नहीं बन जाते। इस प्रकार प्रत्येक परमाणु द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा अलग-अलग है। किसी का किसी अन्य पर शासन नहीं है। साधु संत महात्माओं में आचार्य भी होते हैं वे ज्ञानी हैं वे अन्य पर शासन नहीं चलाते । शासन चलता है । पहले के साधु संघ बनाकर इसलिये साथ रह जाते थे कि सभी को कल्याण की अभिलाषा थी । वे सोचते थे कि हमें अपने कल्याण के लिए अपनी सद्वृत्ति बनानी है । किसी पर क्रोध नहीं करना, कषाय नहीं करनी, द्वेष नहीं करना । वे सब इन सब बातों से बहुत दूर रहने का प्रयत्न करते थे । अत: सब साधु अपने कल्याण पथ में लगे रहते थे । क्योंकि वे लोग सोचते थे कि आचार्य के तत्त्वावधान में हमारा निशल्य व्रत पालन होना है अत: साधु विनयी बनकर स्वयं आचार्यों के पास रहते थे । यदि स्वयं कल्याण का भाव हो तो हजारों मुनियों का संघ एक साथ चल सकता है । अपने कल्याण के स्वार्थ से वे लोग एक साथ रहते थे । बिना संक्लेश के सारा कार्य चलता था । 647-द्रव्यों के स्वरूपचतुष्टय की परस्पर भिन्नता—एक द्रव्य का द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव दूसरे द्रव्य के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से बिल्कुल भिन्न है । यदि ऐसा नहीं मानते हो तो सारा संसार एक द्रव्य रूप हो जायेगा । यदि सारा संसार एक द्रव्य रूप है तो सारे विश्व की एकसी परिणति होनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता है । आत्मा एक द्रव्य है, क्योंकि जो आत्मा में परिणमन होता है, वह पूरे आत्मा में उसी समय होता है एक परिणमन जितने में होना ही पड़े उसे एक द्रव्य कहते हैं । यदि सारा संसार एक ब्रह्मरूप होता तो सारे विश्व की एक ही पर्याय (परिणति) होनी चाहिये । मगर ऐसा नहीं होता है । जो लोग कहते हैं कि यह सारा संसार कल्पना मात्र है । यदि ऐसा है तो सारे संसार का एकसा परिणमन होना चाहिये । नाना परिणमन नहीं होना चाहिये । अत: सारा जगत् एक ब्रह्मरूप नहीं हो सकता है । सबका आत्मा न्यारा-न्यारा है । यदि उस चैतन्य स्वरूप पर दृष्टि डालें, तो सारा संसार नाना रूप दिखेगा, एक रूप दिख ही नहीं सकता । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से सभी द्रव्य न्यारे हैं । 648-सभी को अपने आत्मा की जानकारी—चाहे मिथ्यादृष्टि हो, चाहे सम्यग्दृष्टि जानते सभी अपने को हैं । मिथ्यादृष्टि तो मैं सुखी, दुखी, मैं रंक राव, मेरे गृह गोधन प्रभाव—इस प्रकार जानता है । सम्यग्दृष्टि अपने को इन सब से अलग जानता है । जो व्यक्ति संस्कृत या धर्मशास्त्र नहीं पढ़े हैं, उन्हें भी घबड़ाने की कोई बात नहीं है आत्मा का ज्ञान आत्मा के आश्रय से प्रकट होता है । अपनी समझ रखनी चाहिये कि मेरी आत्मा अबद्ध है, अस्पृष्ट है, किसी से बंधी हुई नहीं है छुई हुई नहीं है । अपनी आत्मा को जाने कि मैं अबद्ध हूँ । यह तभी हो सकता है जब, आत्मा जितना है, उतना ही देखे, उससे अलग पदार्थों को नहीं देखे । यह आत्मा अकेला, जितना इसका स्वरूप है, उतना ही समझ में आए तो आत्मा अबद्ध दिखेगा ही । नहीं तो आत्मा बंधा है । केवल आत्मस्वरूप को ही देखा जाये तो आत्मस्वरूप देखा जा सकता है । जो आत्मा को अबद्ध रूप से देख लेवे, तो जिसको बड़े-बड़े विद्वान ग्रंथों का मंथन करके देखेंगे उतना वह केवल आत्मा पर दृष्टि डालने से दिखाई दे जायेगा । शरीर में संबद्ध आत्मा में शरीर के कारण नाना विपत्तियां आ रही है, ऐसी आत्मा को भी केवल आत्मा पर दृष्टि डालने पर अबद्ध देखा जा सकता है । इस शरीर में रहने वाले आत्मा में जब खालिसपना दिखाई दे जाता है, तो शरीर से ममत्व नहीं रहता है । आत्मा को खालिस देखने पर बड़े-बड़े ग्रंथों का फल प्राप्त कर लेते हैं । जो आत्मा को खालिस नहीं देख पावे उसका बड़े-बड़े ग्रंथ पढ़ना व्यर्थ है । शरीर और आत्मा में संयोग नहीं है । संयोग कल्पना मात्र है । संयोग नाम की चीज न कोई द्रव्य है, न कोई गुण और न कोई पर्याय ही है। संयोग नाम की कोई चीज नहीं है ही नहीं, निमित्त नैमित्तिक भाव तो है। दूर रहने वाली चीज का भी निमित्त नैमित्तिक हो सकता है और एक क्षेत्र में रहने वाली चीज का भी निमित्त नैमित्तिक हो सकता है। निमित्त परद्रव्य है और नैमित्तिक पर्याय है। संयोग किसी की भी पर्याय नहीं है । अशुद्धता तो आत्मा की नैमित्तिक पर्याय है । 649-दो के ऐक्य का अभाव:—आत्मा की पर्याय आत्मा है और शरीर की पर्याय शरीर में ही है । आत्मा के स्वरूप को देखो तो आत्मा अबद्ध मालूम पड़ता है । यदि आत्मा को शरीरादिकों के साथ देखो तो आत्मा बद्ध मालूम पड़ेगा । आत्मा के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में शरीर का कुछ नहीं जाता । शरीर के द्रव्य-क्षेत्र-काल भाव में आत्मा का कुछ नहीं जाता । जो आत्मा को अबद्ध और अस्पृष्ट देख लेता है, वह समझो जिनागम को समझ गया । आत्मा चाहे जितनी भी नई पर्याय ग्रहण कर लेवे, समस्त पर्यायों में आत्मा वही का वही है । वही हम एक आत्मा हैं, उस आत्मा से पर का संबंध नहीं होता है । ऐसा जानने पर जितने दुनिया से भिन्न हो, उतने ही घर वालों से भी भिन्न जान पड़ोगे । जितना न्यारा यह आत्मा दूसरे के शरीरों से है उतना ही अपने से शरीर भिन्न जान पड़ेगा । क्योंकि आत्मा अबद्ध है, अस्पृष्ट है, अनन्य है—यदि आत्मा ऐसा देखने में आता है तो उसका कल्याण निश्चित है । आत्मा को भिन्न-भिन्नरूप गुणरूप भी नहीं देखना चाहिये । आत्मा एक सत् है एक ही द्रव्य है, एक ही गुण है, एक पर्याय है—ये सभी अवक्तव्य हैं । इनको वक्तव्य बनाने के लिये इन सबके भेद करने पड़ेंगे । शब्द से जैसा समझना है उसे समझाने वाला कोई शब्द नहीं । मैं चैतन्य स्वरूपात्मा अबद्ध हूँ, अनंत हूँ ऐसा एक ही स्वरूप को देखने पर सोचा जा सकता है । इस प्रकार से आत्मा को देखने पर निज का कल्याण होना स्वाभाविक है । धर्म होने में (श्रद्धा में) 10 वर्ष नहीं लगते । धर्म तो अंतर्मुहूर्त में ही हो सकता है । धर्म तो सौदा तोलते समय दूकान पर बैठे हुए, चलते हुए, सफर करते हुए, रोटी पकाते समय बच्चे को खिलाते समय आदि किसी भी समय हो सकता है। जिस स्थान पर जिस समय आत्मा को अबद्ध देख लिया, समझो वहीं पर धर्म हो जाता है। 650-ज्ञान से धर्म का संबंध:—इस नगर में भी अनेक विद्वान है उनसे अपना लाभ उठाओ । हमें वचन बोलने की शक्ति उपलब्ध हुई है, अत: उस को उचित प्रकार से उपयोग में लाना चाहिये । तनिक सी देर के लिये अच्छी वाणी बोल दो, थोड़ी सी गुरुओं की विनय कर दो तो पंडित लोग व गुरुजन धर्म पढ़ाने के लिये तुम्हारे ही हो जायेंगे । इन वचनों को थोड़ा सुधारना पड़ेगा । यदि अच्छी वाणी बोल दो इस संसार के समस्त महापुरुष तुम्हारे ही उद्धार में लग जायेंगे । वचन अच्छे बोलने में तुम्हारा कुछ खर्च नहीं होता । तन-मन-धन-वचन ये चार चीजें उचित स्थान पर व्यय करने के लिये हम को मिली हैं । मन यदि तुम्हारा मायाचारी का है, तो वचन कभी अच्छे निकल ही नहीं सकते । क्योंकि ‘वक्त्रं वक्ति हि मानसम्।’ संसार से छूटने का यदि इलाज मिलेगा तो उसमें आपका कोई खर्च नहीं होना है । क्योंकि यह दुःख भी फ्री फंड से ही प्राप्त हुआ है । जिसे हम बुरा मानते हैं । किसी प्राणी से तुम्हें दुःख नहीं होगा उससे तनिक अच्छी तरह बोल दो वह तुम्हारा ही हो जायेगा । सदा दूसरे के हित का ध्यान रखकर बोलना चाहिये । दुनिया में कोई किसी का बैरी नहीं है । जरा मन से किसी की शुभ कामना कर दो तो तुम्हारा किसी से बैर नहीं रहेगा । यह शरीर तुम्हें दूसरे दीन दुखियों की सेवा करने के लिये मिला है । दुखियों की सेवा करना लोक में सबसे बड़ा धर्म है । आत्मा का पतन सुख और संपत्ति में ही हो सकता है । असमर्थों की सेवा से आत्मा का उत्थान होता है । अत: तन-मन-धन और वचन का उचित स्थान पर उचित प्रयोग करो, जिससे आत्मा की भलाई हो । जो अपनी आत्मा को दूसरे की सेवा में लगाता है, वही उसका फल पायेगा । जो जीव आत्मा को अबद्ध और अस्पृष्ट देखता है, समझो उसका कल्याण हो गया है । ज्ञान की अनुभूति आत्मा की अनुभूति है । जिसको छोड़ना है, उसको भी जानना है । जिसमें प्रवृत्ति करना है, उसे भी जानना है, यह निश्चयनय का विषय है, वही समझायेगा । जानना सब कुछ पड़ेगा । व्यवहार और निश्चयनय का जितना विषय है वह सब ज्ञेय है । निश्चयनय अधिक कार्यकारी है । अशुभोपयोग के बाद ही शुद्धोपयोग नहीं हो जाता है । शुभोपयोग के बाद शुद्धोपयोग होता है इस दृष्टि से व्यवहार निश्चय का कारण है । आत्मा से अबुद्धि को छोड़कर, ज्ञान प्राप्त करना है । पर-वस्तु मेरी है, इस बुद्धि को छोड़ना ही पड़ेगा । यही आत्मा कर सकता है । जो अपनी आत्मा को ज्ञानरूप देखे, वही जिन शासन का मर्मज्ञ है । यह मनुष्यभव यों ही गंवा देने की वस्तु नहीं है । इस मनुष्यभव को ज्ञान में प्रवृत्त करना चाहिये । वस्तु को जानने की कला है । वस्तु को यदि सामान्य के ढंग से जाना तो हम वस्तु की वास्तविकता को जान सकते हैं । 651-प्रत्येक पदार्थ की सामान्य विशेषात्मकता—जैसे लौकिक बात लो—मनुष्य है, उसमें मनुष्यपना सामान्य है । बाल, युवा, वृद्ध ये अवस्थाएं विशेष हैं । ऐसा नहीं कि मनुष्य तो हो जाएं, अवस्थाएं न हों । सामान्य विशेषात्मक पदार्थ को कभी सामान्य की मुख्यता से जाने, कभी विशेष की मुख्यता से जाने । इसी प्रकार आत्मा भी सामान्य विशेषात्मक है । कभी हम सामान्य की मुख्यता से जाने तो जान सकते हैं, कभी विशेष की मुख्यता से जाने तो भी जान सकते हैं। इस प्रकार दोनों प्रकार से जानने में कोई विघ्न नहीं है । मोही जीव को विशेष का अर्थात् पर्याय का ही परिचय है । तथा कोई अनेकांत की ओर से ऐसे भागे कि सामान्य का एकांत कर दिया—ऐसा करना भी मिथ्यात्व है । प्रमाण तो है नहीं, किसी नय को ही पकड़कर रह गये तो पदार्थ का यथार्थ ज्ञान होना कठिन है । सामान्य तो नित्य प्रकट है । विशेष नित्य प्रकट नहीं है । जिस समय वर्तमान में है तो प्रकट है, जब वर्तमान गया तो अप्रकट हो जाता है । सामान्य की मुख्यता से जाने तो निश्चयनय है । विशेष की अपेक्षा से जानना व्यवहारनय की अपेक्षा से है । जैसे यहाँ पर इतने मनुष्य बैठे हैं । यहाँ पर उनको सामान्य की दृष्टि से देखने में कोई आकुलता नहीं है । यदि विशेष की दृष्टि से देखें तो बड़ी परेशानी रहेगी । इसी प्रकार आत्मा है । यदि विशेष पर दृष्टि डालते हैं तो मोह पैदा होता है । सामान्यदृष्टि से आत्मा को परखने में आकुलता नहीं होती है । तथा विशेष दृष्टि से आत्मा को देखें तो आकुलता पैदा होती है । मैं किसी का क्या कर सकता हूँ? मैं केवल अपने चैतन्य का परिणमन ही तो कर सकता हूँ । जब तक इस स्वभाव का परिचय न हो तब तक जीव को मोक्षमार्ग नहीं मिलता है । पहले अपने चैतन्य सामान्य को पहिचानो । विशेष के प्रादुर्भाव में सामान्य का तिरस्कार हो गया । 652-जीव का अन्य में अकर्तृत्व—अत: यह आत्मा कुछ करता नहीं है, केवल भाव बनाता है, अत: आत्मा को चाहिये कि विशुद्ध भाव बनावे, तभी कल्याण मार्ग सम्मुख है । वस्तु में सामान्य नित्य रहता है, विशेष बदलता रहता है । आत्मा को यदि सामान्य की दृष्टि से जाना जाये तो आत्मा अखंड, अबद्ध, अस्पृष्ट तथा नित्य दिखाई देता है । जो आत्मा को इस रूप देख लेता है, वह सारे जैन शासन को जानता है । यदि किसी जीव ने बिना शास्त्रों का अध्ययन किये आत्मस्वरूप को समझ लिया तो समझो, मानो उसने सारे शास्त्रों का अध्ययन कर लिया है याने अध्ययन का फल पा लिया । यद्यपि उसे बिना अध्ययन किये कितनी ही कठिनाइयां उठानी पड़ेगी, लेकिन आत्मज्ञान प्राप्त होते ही सारी कठिनाइयां नौ-दो-ग्यारह हो जायेंगी । विद्या व्यवस्थित रूप से अध्ययन करने से आती है । अपने समय को यों ही नहीं बिता देना चाहिये । बेकार बैठे रहने से कुभावों में बुद्धि चली जाती है । खाली बैठने से तो अच्छा दीनों की सेवा करना है । जब ज्ञान ध्यान, तप, सामायिकादि में मन नहीं लगता तो उस समय को दीन, दु:खी, गरीबों की सेवा में लगाओ । ऐसा करने से आत्मिक शक्ति का विकास होता है । द्रव्य व्यतिरेक, पर्याय व्यतिरेक, भाव व्यतिरेक एक दूसरे पदार्थों में रहता है । सबका द्रव्य, भाव, पर्याय अपने में ही बना रहता है, पर में जा ही नहीं सकता । यहाँ अनेकांत दृष्टि से यह समझ लेना कि जो द्रव्य का लक्षण किया है वह पर्याय व गुण का नहीं, जो पर्याय का लक्षण किया वह द्रव्य व गुण का नहीं, जो गुण का लक्षण किया वह द्रव्य व पर्याय का नहीं । इस दृष्टि से तीनों का व्यतिरेक एक पदार्थ में है । पर्याय का तो पर्याय में भी व्यतिरेक है ! पूर्व पर्याय का उत्तर पर्याय में व्यतिरेक है । उत्तर पर्याय का पूर्व पर्याय में व्यतिरेक है। एक गुण का भी लक्षण दूसरे गुण का नहीं सो गुण, गुण में भी व्यतिरेक है । समस्त व्यतिरेकों की दृष्टि गौण करके परमशुद्ध निश्चयनय से आत्मपदार्थ का दर्शन करके अनुभव करना चाहिये । सम्यग्दृष्टि सोचता है कि मैंने पर की परिणति में कुछ नहीं किया और न मैं पर परिणति में कुछ कर सकता हूँ, चाहे मेरे निमित्त से उसमें परिणमन हो जाये । लेकिन मैं पर में कुछ नहीं कर सकता हूँ—इस प्रकार सम्यग्दृष्टि सदा यही विचारता रहता है और सदा अपने में सचेत रहता है, अत: वह कृतकृत्य हो जाता है । जिसे कुछ करना न हो उसे कृतकृत्य कहते हैं । जो अकृतकृत्य है जिसका विशेष पर अनुभव चला जाता है, उसकी सामान्य को जानने की गति रुक जाती है । 653-कैसा भी कोई जाने उसी से आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि:—जैसे मैं आत्मा नहीं हूँ, ऐसा जो तुम समझ रहे हो वही आत्मा है । आत्मा नहीं है ऐसा माना ही नहीं जा सकता । सामान्य को मना करे, वही सामान्य है । विशेष को तो यह जीव मना ही नहीं करता है कि मैं मनुष्य या पशु नहीं हूँ । विशेष की ओर बुद्धि लगाने से पर्याय बुद्धि लगाने से पर्याय बुद्धि हो जाती है और उसी पर्याय रूप कार्य करता है। विशेष का परिचय होने पर सामान्य का बोध करना चाहिये । निश्चय एकांत भी बुरा है और व्यवहार का एकांत भी बुरा है । एक बार यथार्थ परिचय प्राप्त कर लेने पर तुम्हारी इच्छा हो सामान्य की दृष्टि से देखो तुम्हारी इच्छा हो विशेष की दृष्टि से देखो तब भी कोई हानि नहीं है । सामान्य और विशेष में जीव अनुभव तो विशेष का ही करता है । लेकिन विशेष सामान्य के आश्रित ही तो चलता है । जिनकी पर्याय में (विशेष में) ही आसक्ति है सामान्य को खो बैठते हैं । जीवों को अनेकों प्रकार का परिचय हो रहा है । विशेष से तो जीव का परिचय है, सामान्य से उसका किसी प्रकार का परिचय नहीं है । जो जैसी करतूत करता है, उसको वैसा ही फल भोगना पड़ता है । अन्य को उसका फल नहीं भोगना पड़ता है । अज्ञानी मोही जीव जो कि विशेष की ओर दृष्टि लगाए हुए है, वह सामान्य को नहीं जानता है । परमात्मा दो प्रकार से दृष्ट होता है:—1-कार्य परमात्मा, 2-कारण परमात्मा । कारणपरमात्मा दो प्रकार का है:—सामान्य कारण परमात्मा, विशेष कारण परमात्मा । कार्य परमात्मा है:—अरहंत, सिद्ध भगवान् । सामान्य कारण परमात्मा वह है जो कि अनादिकाल से भव्य जीव में भी है । जो सामान्य कारण परमात्मा को समझते हैं उनके कार्य परमात्मा का गुण प्रकट होने लगता है और वह कारण परमात्मा बन जाता है । कार्य परमात्मा भी दो प्रकार का है:—1-जो परमात्मा हो गया है, 2-जो परमात्मा होने जा रहा है । 654-स्वभाव का आश्रय करने में ही आत्मा की सिद्धि—विभाव का आश्रय करने से संसार ही बढ़ता है । स्वभाव की परख सर्वोत्कृष्ट चीज है । इसी स्वभाव शक्ति के परिणमन ही आत्मा कर पाता है । भगवान का सुख अनंत होता है । मोहियों का दुःख अनंत होता है । भगवान केवल अपना ही परिणमन कर सकते हैं । हम लोग भी अपना ही परिणमन कर सकते हैं कुछ हो रहा स्वभाव का परिणमन । पकवान में सामान्य को नमक का दृष्टांत घटित होता है । और विशेष में वेशनादि का दृष्टांत घटित होता है । व्यंजन के स्वाद के लोभ के कारण नमक की ओर किसी की दृष्टि नहीं जाती है, केवल लोग वेशन के स्वाद की ओर दृष्टि रखते हैं । आत्मा और शरीर का संबंध है । सबकी दृष्टि शरीर पर ही जाती है, आत्मा की ओर किसी की दृष्टि नहीं जाती है । आजकल धर्म के ध्येय से कुछ भी तन, मन या धन नहीं खर्च होता है । प्राय: जगत में सभी स्वार्थ की ओर झुके हुये हैं । स्वयं धर्म नहीं पढ़े तो कम से कम अपने बच्चों को तो धर्म पढ़ाओं और उनसे पूछो भैया आज क्या पढ़ आये । आजकल के बच्चे णमोकार मंत्र भी ठीक से उच्चारण नहीं कर पाते हैं । पहले की अपेक्षा धार्मिक क्रियाओं के विषय में भी समाज का पतन ही होता जा रहा है । आयु पूर्णता को आ रही है, फिर भी मन में विचार नहीं आता कि अब तो घर से विराम लेवें । अंत में मरते समय तो घर, स्त्री, पुत्र, धन, संपत्ति सभी को छोड़कर जाना पड़ेगा । धर्म विद्या पढ़ाने के हेतु अब एक भी साधन नहीं है, प्राय: सर्वत्र ऐसा हाल है । धर्म बिना आत्मा की जिंदगी नहीं है । बस बच्चों के बाह्य साधनों पर शरीर की स्वच्छता पर ही दृष्टि जाती है, धर्म की ओर, आत्मा के सुधार की ओर किसी की दृष्टि नहीं जाती है । भैया ! ‘‘ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारण’’, अत: ज्ञान के साधनों को अवश्य जुटाना चाहिये । प्रकरण चल रहा है कि पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है । सामान्य नित्य रहने वाला है । विशेष सदा नहीं रहता है । मनुष्य सदा से ज्ञेय का लोभी रहा, ज्ञान की ओर अज्ञानता के कारण उसने तनिक भी ध्यान नहीं दिया । ज्ञान प्राप्त करके अपनी आत्मा का कल्याण कर सकते हो । आत्मा को जो अबद्ध देखता है वह आत्मा के स्वरूप को पहिचान लेता है । और समझा उसी ने जिन शासन का ज्ञान पाया है । 655-आत्मा की सामान्य विशेषात्मकता—आत्मा वही का वही सब पर्याय में रहता है । जो सब पर्यायों में रहता है, वह सामान्य है । और जो बार-बार अवस्थाएं बदलती हैं, वे पर्याय हैं । विशेष के परिचय वालों के हीं समझाना है । पर्याय बुद्धि वालों को भेद करके समझाते हैं । जिन जीवों ने विशेष चीजों का मोह वासित अध्ययन न करके सामान्य आत्मा का अध्ययन कर लिया, समझलो, उसने समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर लिया । सामान्य कोई चीज नहीं है, सामान्य जो है सो है । बाह्य पदार्थों में आसक्त है, वह चाहे Minister क्या न हो, वह भी दुःखी है । विशेष पर दृष्टि रखने से व्याकुलता है । तथा सामान्य पर दृष्टि रखने से निराकुल सुख की प्राप्ति होती है । मनुष्य समाज में धन का आदर होता है । आत्मा और किसी तरह से उठता है । मूढ़ लोक की द्दष्टि में मनुष्य धन से उठा करता है, आत्मा नहीं, आत्मा तो रत्नत्रय साधन से ही उत्थान करता है । विशेष दृष्टि से ही ऐसा होता है । सामान्यदृष्टि से देखो मैं आत्मा हूँ, ज्ञाता द्रष्टा हूँ शरीर से बिल्कुल भिन्न हूँ । अत: विशेष के लोभियों को अब पुरानी वासना की हट छोड़कर सामान्य पर दृष्टि डालनी चाहिये । जातियां सब विशेष के आश्रित हैं ।जो पदार्थ जीव के ज्ञान में आया, जो अच्छा लगा, वह उसी का स्वाद है । जैसे पकवान खाते हुए । नमक के भाव के स्वाद को भूल जाते हैं । यह जीव उसी प्रकार धन मकान में आनंद मानता है अपने ज्ञान को भूल जाता है । जो आत्मा को असंयत, स्पृष्ट अनियत प्रतीत होता है वही आत्मा है, उनके अभिप्राय में । यदि अभिन्नकारकता का तथ्य समझ में आ जावे तो पर की उपेक्षा हो ही जावेगी । 656-जैन शासन के हृदय पर अधिकार—जो आत्मा को अबद्ध अस्पृष्ट अनन्य, अविशेष और अनादि अनंत निरखता है वह समस्त जैन शासन को निरखता है समस्त जैन शासन के ज्ञान का फल यही है कि अपने आत्मा के सहज विशद्ध स्वभाव की दृष्टि कर ले । और किसी ने इस सहज स्वभाव की दृष्टि थोड़ा भी जैन शासन समझकर कर ली है उसने समस्त जैन शासन का फल पा लिया । जैसे अनेक मुनि श्रुतकेवली होकर केवल ज्ञान को प्राप्त कर मुक्त गए और अनेक शिवभूति जैसे तुषमात्र भिन्न के एक उपाय से भिन्न जानकर अबद्ध अस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष, और अनादि अनंत, इस स्वभाव को परखकर विश्लेषण चाहे न कर सके, प्रतिपादन चाहे न हो सके लेकिन ऐसी झलक पाकर अनेक मुनि मुक्त हुए हैं । मुक्त होकर अब उनमें क्या घटा बढ़ा है, वहाँ क्या विवाद झगड़ा है हम तो श्रुत केवली बनकर मुक्त हुए हैं ओर तुम तो साधारण सी बुद्धि रखकर मुक्त हुए हो, यों वहाँ विवाद नहीं है, एक सी अवस्था है । तो जैन शासन का फल है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की पूर्णता होना । यह बात जिन्हें मिली हुई है उन्होंने सारा जिन शासन देख लिया । 657-लुब्धता के अभाव में ज्ञानानुभूति की पात्रता—एक और दृष्टि से भी देखिये कि सारा श्रुतज्ञान एक आत्मारूप है । तब आत्मा का अनुभव ज्ञान की अनुभूति है । समस्त श्रुतज्ञान को जानकर आखिर प्रेरणा यही तो मिलती है कि दर्शन ज्ञान सामान्यातम अंतस्तत्त्व लोभियों के स्वाद में नहीं आता और अज्ञानियों की स्वाद में नहीं आता । इन दो विशेषणों से भी जीवन की शिक्षा मिलती है । कल्याण है ज्ञानानुभूति में । ज्ञानानुभूति का वही पुरुष अधिकारी है जो उसका पात्र हो । पात्र वही है जो लोभी न हो और वस्तु स्वरूप की जानकारी का इच्छुक हो । दो बातें होनी चाहिए तो उसको मार्ग धड़ाधड़ स्पष्ट होता जायगा । जैसे व्यंजन के लोभी को व्यंजन का भी शुद्ध स्वाद नहीं विदित होता और न नमक का शुद्ध स्वाद विदित होता है, जिस नमक के रहने के कारण उन व्यंजनों में स्वाद आया । व्यंजन के लोभी पुरुष उस नमक के जरा भी कृतज्ञ नहीं होते । आशक्ति से खाते जाते हैं और उस बेचारे नमक की याद भी नहीं करते, जिस नमक की छोटी कणिका के डाल देने से सारा भोजन रूचिकर हो रहा है मगर भोजन का इतना विशिष्ट लोभ है कि उस बिचारे नमक की कोई कृतज्ञता जाहिर नहीं करता कोई सुध नहीं लेता तो जैसे नमक का शुद्ध स्वाद पा लेने की एक ही तरकीब है कि किसी चीज को साथ न लेकर केवल नमक की उसी का ही स्वाद लिया जाय तो लोभ उसके न ठहर सकेगा शुद्ध स्वाद जान लेगा इसी प्रकार यहाँ देखो कि इन ज्ञेय पदार्थों के जो लोभी बन रहे हैं ऐसे पुरुषों को जिस ज्ञान के प्रसाद से इन ज्ञेयों में भी कुछ-कुछ नजर आ रहा, इनके प्रसंग में सुख कुछ माना जा रहा उस ज्ञान बेचारे की कोई सुध भी नहीं लेता, याद भी नहीं करता । न ज्ञान होता तो इन ज्ञेयों की सत्ता का क्या पता रहता । तो जिस ज्ञान के प्रसाद से ज्ञेयों के विकल्पों से भी हम कुछ मौज लुटा करते हैं, उस मौज में, उस अनुभव में जिसका प्रसाद है उसकी सुध भी नहीं लेते । उसके कृतज्ञ भी नहीं बनना चाहते । हां उस ज्ञान का शुद्ध स्वाद तब लिया जा सकता है जबकि किसी परपदार्थ को ज्ञेय में न लेकर, किसी परपदार्थ में अटक न खाकर केवल ज्ञान का ही स्वाद ले तो स्वाद लिया जा सकता है । फिर वह ज्ञेय का लोभ होने का प्रसंग नहीं आता, जबकि केवल ज्ञान मात्र स्वरूप को अनुभव में लिया जाय । ऐसी बात जिन होनहार आत्माओं ने प्राप्त कर ली है उन्होंने समस्त जिन शासन को जान लिया । 658-जिन शासन के परिज्ञान का परमसंतोषमय फल—जैसे पी एच. डी की डिग्री मिलती है और उसका जब सम्मान किया जाता है तो उस सम्मान में उसे डाक्टर की पदवी मिलती है, उस पदवी को पाकर वह ऐसा संतोष करता है कि कई वर्षों के अध्ययन परिश्रम का फल मैंने पा लिया, और जब किन्हीं लोगों को नेतागिरी की वजह से या वोटों से कोई अच्छा पोस्ट मिल जाता है, या अब तो किन्हीं-किन्हीं को डाक्टरी का पद मुफ्त में ही दे दिया जाता है चाहे वह व्यक्ति बिल्कुल बुद्धु हो तो लो बिना ही श्रम किये वह डाक्टर के उत्सव का समारोह का, पदवी ग्रहण करने का मौज मान रहा है । लो मैंने तो दसों वर्षों के अध्ययन परिश्रम का फल यों ही मुफ्त में पा लिया । यहाँ तो मौलिक बात कुछ नहीं है, पर इस ज्ञानी जीव की तो मौलिक बात साथ में लगी है । ज्ञान की अनुभूति के बिना समस्त जिन शासन का निरखना नहीं बताया गया । उस व्यवहार में यदि उन बुद्धूवों के भी डाक्टर की पदवी दे दी जाती हैं और वे चाहे दसों वर्षों तक श्रम करके, परेशान होकर डाक्टर पद प्राप्त कर पाते हैं वहाँ तो विषमता है लेकिन दृष्टांत इस दृष्टि में लिया जा रहा है कि समस्त अध्ययनों का फल क्या है लौकिक विद्याओं के अध्ययन का आखिरी फल क्या है? कुछ लोग कहते हैं कि ये डाक्टर हो गए। फल की बात कही जा रही है । दृष्टांत यहाँ विषमयों है कि न जानकार को भी बना दिया जाय, किंतु यहाँ जो द्वादशांग के श्रुत का अध्ययन करके बात प्राप्त कर ली जाती है वही ठीक-ठीक बात मूल में किसी ने प्राप्त कर ली हो तो जो बस समस्त जैन शासन का ज्ञाता उसे समझ लीजिये । 659-पदार्थ का निजस्वरूप जाति के अप्रतिकुल परिणमता—द्रव्य में परिणमन तो नया-नया होता है, किंतु उसमें जाति से विपरीत परिणमन नहीं होगा । जैसे पुद्गल में परिणति होती है, उसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श की ही परिणति होती है । जैसे—जीव के लोक के बराबर असंख्यात प्रदेश होते हैं वे कदाचित् संकुचित विस्तृत होते हैं । द्रव्य के प्रदेशों के संकोच विस्तार से द्रव्य की हानि नहीं होती । अर्थात् द्रव्य का स्वभाव नहीं बदल जाता । इसी प्रकार उसके परिणमन भी अनेक है तो भी उसके परिणमन में हानि वृद्धि होती है । पर्याय में अंतर आ सकता है । किंतु द्रव्य में नहीं । जैसे दीपक की शिक्षा परिणमति हुई भी अपने परिणमन में अव्यवस्थित है । जैसे समुद्र अपने में उतना ही है । द्रव्य वही का वही है । परंतु उसमें एक लहर आ गई । वह लहर समुद्र के स्वभाव को छोड़कर लहर नहीं बनी । आत्मा के परिणमन आत्मा के स्वभाव को छोड़कर परिणम नहीं सकते । शरीर में रहता हुआ भी आत्मा रूप, रस, गंध, स्पर्श रूप नहीं परिणम जाता । घटकों जानने वाला ज्ञान घटाकार है । लेकिन वही ज्ञान जब लोका-लोक को जानने लगेगा तो वही ज्ञान लोकालोक के आकार रूप परिणम जायगा । वह नया ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ, उसी ज्ञान का विकास हो गया असत् प्रादुर्भाव कभी नहीं हो सकता । अगुरुलघु नाम के गुण के द्वारा द्रव्य की पर्याय बदलती रहती है। पर्यायें 3 प्रकार से बताई गई हैं क्रमवर्ती व्यतिरेकी और उत्पादव्यय ध्रौव्य वाली । क्रमवती उसे कहते हैं जो क्रम से होती है—यह सूक्ष्म चीज हुई । व्यतिरेकी-यह है तो यह नहीं, यह है तो यह नहीं—इस प्रत्येक के विषय भूत पर्याय को कहते हैं व्यतिरेकी प्रति समय का परिणमन क्रमवर्ती पर्याय का विषय है । यह परिणमता हुआ मालूम नहीं पड़ता । जैसे किसी लड़के को 1 वर्ष बाद देखा वह कुछ बड़ा हो गया । परंतु वह वर्ष के अंतिम दिन नहीं बढ़ गया, वह तो प्रति मिनट बढ़ा । लेकिन बढ़ता हुआ मालूम नहीं पड़ा : यह तो स्थूल और लौकिक बात है । प्रति समय का परिणमन क्रमवर्ती कहलाया । कोई भी एक सेकिंड तक क्रोध नहीं कर सकता । क्रोध करते हुए बीच में घमंड वगैरह आ जाता है । कषाय प्रति समय बदलती रहती है । क्रमवर्ती पर्याय क्रम-क्रम से आती है । व्यतिरेकी पर्याय भिन्न समय में आती है । पर्याय में प्रति समय उत्पाद व्यय होते रहते हैं, उसे उत्पाद व्यय वाली पर्याय कहते हैं । उत्पाद व्यय होने से ध्रौव्यत्व भी पर्याय में प्रतिसमय रहता है । 660-स्याद्वाद के बिना गुजारे का अभाव—पदार्थ कथंचित् नित्य है, कथंचित् अनित्य । स्याद्वाद कहता है कि पदार्थों को दृष्टियों से समझो । जो सर्वथा नित्य है, उसमें भी अथक्रिया व परिणमन नहीं होता है । जो सर्वथा, अनित्य है उसमें भी अर्थ क्रिया व परिणमन नहीं होता ।स्याद्वाद सिद्धांत को छोड़कर कोई भी वाद पूर्ण नहीं है । जैन सिद्धांत अभी तक अपने में पूर्ण बना हुआ है । अन्य सब वाद आपस में घुल-मिल जाने से खिचड़ी बन गये । अन्यवाद का कोई भी विद्वान अपने धर्म पर व्याख्यान देता हुआ किसी एक निश्चित सिद्धांत पर नहीं बोल सकता । थोड़ी-2 सामग्री सामग्र दर्शनों की लेकर बोल सकेगा । अथवा बोलना पड़ता है । वह अपने व्याख्यानों को सब वादों की खिचड़ी कर देता है । स्याद्वाद स्वयं खिचड़ी नहीं है, लेकिन वह सदा ही खिचड़ी बनाये रहेगा । जो दर्शन दूध का दूध पानी का पानी अलग कर देवे तो वह खिचड़ी दर्शन नहीं कहलाता । यही गुण स्याद्वाद में है । स्याद्वाद हंस के समान नीर क्षीर अलग कर देता है वस्तु का ठीक-ठीक निर्णय करने वाला स्याद्वाद ही है । वस्तु स्वरूप को समझने वाला ही स्याद्वादी कहलाता है । वस्तु कथंचित् नित्य है कथंचित् अनित्य है । कुछ ने ऐसा किया कि जिस महापुरुष का जिस समय जोर रहा, उसको उन्होंने अवतार मान लिया, जिससे हमारे धर्म की सदा प्रतिष्ठा बनी रहे । ऋषभदेव भगवान से भव महावीर तक जैन सिद्धांत में कोई अंतर नहीं पड़ा । हम इन तीर्थंकरों को व्यक्ति विशेष के कारण नहीं मानते, मानते हैं तो परमात्मपद सिद्धपद के कारण मानते हैं । आत्मा के विकास के कारण मानते हैं । 661-आत्मा का विकास करने के लिये आत्मस्वरूप को पहिचानने की आवश्यकता—अपने स्वभावपर दृष्टि डालो तो अपने आप ही आत्मा का कल्याण हो जायेगा । स्याद्वाद विकास का सिद्धांत है । जैनसिद्धांत में अंधविश्वास को स्थान नहीं है । जिन चीजों में तर्क वितर्क चलते हैं, जब वे बातें ठीक उतरी तो जिन बातों में युक्ति ही नहीं उतरती, जैसे नरक, स्वर्ग में, तो उनको भी सत्य मानना चाहिये । आचार्यों ने स्वर्ग, नरक के बारे में इतना सूक्ष्म लिखा फिर भी सब आचार्यों का ज्यों का त्यों वर्णन मिलता है । अत: युक्ति अगम्य बातोंपर भी स्वयं विश्वास हो जाता है । लोग कहते हैं पृथ्वी शेषनाग पर टिकी हुई है, उसका अर्थ है कि शेष हवा (नाग) पर टिकी हुई है । नाग=हवा:—ग=तीव्र गति वाला, अ+ग=न जाने वाला-स्थिर, न+अ+ग=नाग=विशेष तीव्र गति से जाने वाला, हवा पृथ्वी में भी हवाभरी है । उससे जो बची वह शेष हवा (शेष नाग) कहलाया । उसी शेष हवा पर यह पृथ्वी टिकी हुई है । उसी को हम लोग तीन वलय कहते हैं । इन बातों पर विश्वास करना अंध विश्वास नहीं है । इन्हें युक्ति की प्रधानता से मान लो या आज्ञा की प्रधानता से । पदार्थ में नित्यानित्यात्मक का सिद्धांत व्यवहार में भी चलता है । जैसे आटे की रोटी बनाई, आटा तो रोटी में भी वही है अत: आटा नित्य कहलाया । रोटी बन गई । पर्याय, परिणमन हो गया अत: अनित्य कहलाया । यह सब स्याद्वाद की कृपा है आत्मा को नित्य मानो तभी तो लेन देन का व्यवहार चलता है । यदि आत्मा को क्षणिक मानो तो जो आज आत्मा था, वह कल नहीं रहेगा तो लेन-देन का व्यवहार कैसे चलेगा? समग्र व्यवहार स्याद्वाद से होते हैं फिर भी स्याद्वाद को मानो, न मानो, तुम्हारी मर्जी । ब्रह्मसूत्र में जैन दर्शन का खंडन करने के लिये एक सूत्र आया है:—‘‘नैकस्मिन्नतंभवात्’’। जैन दर्शन में पदार्थ को नित्य अनित्य केवल व्यवहार कुशल लोगों को समझाने के लिये कहा है पदार्थ का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता । वह तो है और न के बीच में जो कुछ हैं सो है । 662-पदार्थ की उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता—इसी को चाहे सत्त्व, रज, तम कह लो । चाहे ब्रह्मा, विष्णु, महेश कह दो । कुछ लोगों ने हर्ष विषाद और शांति का नाम सत्त्व रज तम कहा है । यह उत्पादव्यय ध्रौव्य को मूल बनाता है । पदार्थ के नित्यानित्यात्मक मानने पर ही कार्य कारण भाव बनता है । क्योंकि पूर्व पर्याय प्रकट होने पर ही उत्तर पर्याय होती है । सामान्य विशेषात्मक आत्मा को सामान्यविशेषात्मक देखने से आत्मा अबद्ध अस्पृष्ट व अविनश्वर मालूम पड़ेगा तो कल्याण होगा । जो विशेष (पर्याय) पर ही दृष्टि देगा तो संसार बढ़ेगा । प्रमाद में दर्शन, स्वाध्याय ध्यान करना ही पड़ता है । अत: छठे गुणस्थानवर्ती मुनि तक यह संभव है । श्रावकों और गृहस्थों के लिये यह (दर्शन, स्वाध्याय करना) अति आवश्यक है । ज्ञान ही एक सहाय है । आत्मा का उद्धारक आत्मज्ञान है । आत्मज्ञान भी आत्मा हीं है । आत्मा ज्ञानधन है । इसकी उपासना से ज्ञाता दृष्टा रहने की स्थिति बनती हैं । कल्याणार्थियों को यह परमात्मा परमोपास्य है । जिनको इसकी प्राप्ति करना है, उपासन्न करना है उन्हें इस ज्ञानधन की नित्य द्वैत और अद्वैत उपाय से उपासना करना चाहिये । प्रथम द्वै त उपासना होती है, पश्चात् अद्वैत उपासना बनती है । यह विज्ञान-धन आत्मा एक स्वरूप है । यह आज मलिन पर्याय से गुजर रहा है यही इसकी असिद्धि है । इससे मुक्त होना यह तो साध्य है और उससे मुक्त होने का यत्न करने वाला भी यही है अत: यही साधक भी है । अब आगे श्रीमत्कुंदकुंद देव इसी सिद्धि के अर्थ मुमुक्षुवों को शिक्षा देते है— 663-आत्मा की नित्य उपास्यता—कल्याणार्थी पुरुषों को यह आत्मा ज्ञानधन के रूप में नित्य उपासना करना चाहिये । उपासना तो की जानी है अभेदरूप अंतस्तत्त्व ज्ञायक स्वभाव की किंतु वह भाव जिस प्रकार से पाया जा सके उस प्रकार से पा लेना चाहिये । तो वह प्रकार और क्या हो सकता है? एक भेद पद्धति ने जाना दूसरे अभेद पद्धति से जाना । आत्मतत्त्व को पाने का उपाय प्रथम भेद पद्धति है आत्मा की उपासना करना चाहिये इसका अर्थ यह है कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र की उपासना करना चाहिये । वे तीनों के तीनों एक आत्मा ही तो है निश्चय से । करना क्या है आत्मा को? आत्मा की सिद्धि करना है । अपने को अपनी सिद्धि करना है । स्वयं को स्वयं की अनुभूति करनी है । यह बात तब तक नहीं बनती जब तक कि पर को भिन्न हेय ज्ञात न कर लिया जाय पर के संग्रह में जिनकी बुद्धि रम रही है वे इस अंतस्तत्त्व की अनुभूति करने के पात्र नहीं है । आत्मा का श्रद्धान क्या? आत्मा जैसा सहज ज्ञानानंद-स्वरूपमय है उस प्रकार से आत्मा की आस्था होना, हाँ यही है आत्मा, ऐसा ज्ञानमात्र ही नहीं किंतु रुचिवर्द्धक एक जानकारी । जानकारी तो एक ऐसी होती है कि जान ली कुछ उससे मतलब नहीं । तो उसमें हम श्रद्धा शब्द नहीं जोड़ सकते, और एक वह तत्त्व है जिसको जान लिया और आदेय रूप से उसकी ओर अकृष्ट भी हुए, इसे कहेंगे श्रद्धा । तो आत्मतत्त्व को जानकर उस आत्मतत्त्व में लगाव रहना, तब जो भीतरी वृत्ति बनती है वह श्रद्धा के प्रताप से बनती है । जिस बात में श्रद्धा नहीं होती उस बात में लगन नहीं हुआ करती । वे तीनों ही दर्शन, ज्ञान चारित्र जिसमें श्रद्धा होना, ज्ञान होना और रमण करना ये तीनों परमार्थ से एक आत्मा ही है क्योंकि उसमें दूसरी वस्तु नहीं आ गई । यह आत्मा ही है जो अपने-अपने रूप से श्रद्धान करता है, अपने रूप से परिज्ञान करता है और अपने ही रूप से उसमें आचरण करता है । ऐसे वे तीनों एक ही हैं । उसकी सेवा करें अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का पोषण करें किसी भी प्रयोजन की सिद्धि का उपाय यह ही है—जानना और उसका फिर श्रद्धान करना कि ज्ञान और सम्यक् दृढ़ कहलाने लगे और फिर उसमें ही लग जाना यही उपाय प्रत्येक सिद्धि का है । चाहे वे लौकिक कार्य हों अथवा पारमार्थिक कार्य हों हमें आत्मा की सिद्धि करना है तो इसका अर्थ यह है कि हम अपने आत्मा को जान लें । मेरा आत्मा इस शरीर से भी निराला आकाश की तरह अमूर्त केवल ज्ञानानंदस्वरूप से रचा गया एक विशुद्ध तत्त्व है । इसमें स्वरूपत: कोई विकार नहीं, कोई क्लेश नहीं, कोई विडंबना नहीं । ऐसे इस आत्मतत्त्व को ज्ञान में लेना, श्रद्धा में लेना और चारित्र में लेना बस यही उसकी सिद्धि का उपाय है ।