वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 20-21
From जैनकोष
अहमेंदं एदमहं अहमेंदस्सह्मि होमि मम एदं। अण्णं ज परदव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्संबा ।।20।।
आसि मम पुव्वमेद अहमेंदस्सावि पुव्वकालम्हि। होहिदि पुणोवि मज्झं अहमेदस्सावि होस्सामि।।21।। एयत्तु असंभूदं आदवियप्पं करेदि संमूढो । भूदत्थं जाणंतो ण करेदि दु तं असंमूढो ।।22।।
722-अज्ञानी जीव के लक्षणात्मक अभिप्राय के कथन का प्रकरण—अज्ञानी जीव के क्या लक्षण हैं वह बात इन गाथाओं में कही गई है । अज्ञानी का लक्षण बताने पर ज्ञानी का लक्षण और ज्ञानी का लक्षण बताने पर अज्ञानी का लक्षण समझ में आ जाता है । क्योंकि ये दोनों परस्पर प्रतिपक्ष हैं । अज्ञानी के लक्षण न मिले वह ज्ञानी, ज्ञानी के लक्षण न मिलें वह अज्ञानी । अज्ञान की क्या विचारधारा मूल में होती है? प्रथम विकल्प हैं—मैं यह हूँ ‘जो बाहर में चेतन अचेतन पदार्थ है उनमें यह बुद्धि आना कि मैं यह हूँ, मैं यह हूँ, और यह मैं हूँ’ सुनने में बात एकसी जंच रही होगी, मैं यह हूँ, इसका जो अर्थ हें सो ही तो यह मैं हूँ इसका अर्थ है । मोटे रूप में दोनों का करीब-करीब समान अर्थ है लेकिन इनमें दृष्टि का अंतर है । मैं यह हूँ । शरीर अथवा कुटुंब या जो कुछ भी लक्ष्य में आया है उसके प्रति जो यह सोच रहा—मैं यह हूँ इस विचार में अपना स्वरूपसत्त्व छोड़ दिया । मैं स्वरूप से सत् हूँ, अपने ही द्रव्य क्षेत्रकाल, भाव से सत् हूँ ऐसी उसकी दृष्टि में नहीं रहा । मैं कुछ भी नहीं रहा । कहीं विशेषण की प्रधानता हो जाती है वह यही तो स्थल है । जब यह सोच रहा हो कि यह मैं हूँ तब इसने अपने आप में पर रूप से असत् हूँ इस विचारधारा को छोड़ दिया । मैं अपने स्वरूप से ही सत् हूँ यह विचार उठने पर यह बुद्धि बनती है कि मैं यह हूँ । मैं कुछ नहीं रहा । यह है सो ही सब कुछ, और जब मैं पररूप से असत् हूँ यह बुद्धि नहीं रहती तब उस समय यह विकल्प होता है कि यह मैं हूँ । यह मौलिक अज्ञान की परिभाषा कही जा रही है । 723-स्वरूपसत्त्व व पररूपासत्त्व से वस्तु का परिचय—अपना अस्तित्व दो प्रकार से जाना जाता है । मैं स्वरूप से सत् हूँ पर रूप से असत् हूँ । प्रत्येक पदार्थ अनेकांत स्वरूप है और वह टाले भी नहीं टाला जा सका । यह घड़ी है ऐसा कहने के साथ यह बात लगी हुई ही है कि घड़ी के अलावा अन्य सब चीजें ये नहीं हैं ये दो बातें हो गयी, इनमें से कौनसी बात खतम करना चाहते? यह घड़ी है यह खतम कर दिया तो घड़ी का सत्त्व क्या रहा? घड़ी के अलावा अन्य कुछ नहीं है यह खत्म कर दिया तो फिर घड़ी ही क्या रही? मैं मैं हूँ ऐसा कहने में दोनों बातें आ गई । मैं मेरे से भिन्न अन्य सब कुछ मैं नहीं हूँ इन दोनों बातों में से यदि एक बात समाप्त करते हो तो हमारा अस्तित्व नहीं रहता कौनसा विचार खतम करना चाहते हो? मैं मैं हूँ ‘यदि यह न माना जायगा तो फिर मैं ही कुछ नहीं रहा’ अन्य सब नहीं हूँ यह बात न मानोगे तो इसका अर्थ क्या है कि मैं अन्य सब कुछ बन गया फिर मैं क्या रहा? इससे वस्तु के स्वरूप में अनेकांतात्मकता पड़ी हुई है, इसे कोई मेंट नहीं सकता । लोकव्यवहार में भी लोग कहते हैं कि मेरी बात बिल्कुल सच है तो इसमें यह भी तो बात बसी है कि मेरी बात झूठ नहीं है । इन दोनों का वहाँ संबंध है, अस्तित्व की बात पर के अस्तित्व के कहे बिना जमती नहीं है, पर के अस्तित्व की बात अपने अस्तित्व के जाने बिना जमती नहीं है । बात का उपयोग सब लोग कर रहे । जितने दर्शन है या व्यवहारिक पुरुष हैं अनेकांत के बल पर ही चल रहे, जी रहे—खा पी रहे और फिर भी अनेकांत को नहीं मानते तो यह उनकी हठ है और अपने मंतव्य का दुराग्रह । अज्ञानी जीव मानते हैं परवस्तु को निरखकर—मैं यह हूँ, यह मैं हूँ, इन दोनों बातों की दृष्टि में फर्क है । 724-वस्तुस्वातंत्र्य के अज्ञान की महाविषरूपता—अब आगे चलिये और क्या विकल्प करता है यह अज्ञानी? मैं इसका हूँ, मेरा यह है । पहिली बात अहंकार रूप से कही गई थी । अब यह बात ममकाररूप से कही जा रही है । मैं इसका हूँ ऐसा कहने में मैं की जान निकाल दी, मैं का कोई मूल्य नहीं रहा ।मैं इसका हूँ । जैसे कोई पुरुष नौकर के संबंध में कहे कि यह मेरा आदमी है तो फिर उसका याने आदमी की महत्ता नहीं रही । संबंध जोड़ने पर, मेरा कहने पर जिसको मेरा कहा गया उसका महत्त्व न रहा । मैं इसका हूँ इस चेतन का हूँ इस अचेतन का हूँ । मैं पुत्र का कुछ हूँ, स्त्री का कुछ हुँ, मैं इनका हूँ, अर्थात् मेरे में कुछ महत्त्व नहीं मेरा यह स्वामी है । अब दूसरी बात में देखिये मेरा यह है ऐसा कहने में उस परपदार्थ का कोई महत्त्व नहीं समझा । प्रत्येक पदार्थ खुद का स्वामी है और खुद का अधिकारी है, यह बात भूल गया । जैन शासन की सबसे बड़ी देन है तो वस्तु की स्वतंत्रता का परिचय करा देना है जीव को क्लेश और है क्या? सिवाय एक संबंध मानने के । मेरा यह है, इसका मैं हूँ, जहाँ यह संबंध माना गया वहाँ इसको आपत्ति ही है । है संबंध कुछ नहीं और संबंध मान लिया भीतर में, तो आपत्ति क्या बाहर से आयी? भीतर के विकल्पों को ही भीतर की आकुलता को उत्पन्न कर दिया । विपत्ति कहीं बाहर से नहीं आती । भले ही बाहरी पदार्थ निमित्त होते हैं, आश्रय होते हैं तिस पर भी मेरे में विपत्ति मेरे भाव से आती है, मेरी परिणति से आती है, किसी दूसरे के भाव से नहीं आती । यह बात पूर्ण तथ्य की है मेरे में संपत्ति समृद्धि शांति मेरे भाव से आती है, किसी दूसरे की करुणा से नहीं आती । यह वस्तु की स्वतंत्रता की बात कही जा रही है । 725-भूतार्थपरिचय से मोह का व्यय—सभी लोग यह कहते हैं कि दुखदायी तो मोह है और है मोह बिल्कुल व्यर्थ की चीज । किंतु, मोह जैसे मिटे वैसे प्रयोग से नहीं चलना चाहते । अनंतानंत जीवों में से आपके घर में जो दो चार जीव आ गए, पैदा हो गए तो वे जीव उन्हीं की तरह तो है जैसे कि अन्य सब अनंत जीव है । कुछ आपका उनसे संबंध है क्या? लेकिन जब इस मायामयी दुनिया की ओर दृष्टि की जाती है तो ऐसा ही सब लोग कर रहे हैं, मान रहे हैं, उससे बड़प्पन समझते हैं । तो जब वहाँ हमारी दृष्टि गई तो हम में योग्यता तो थी, वसा ही करने लगे । वस्तुत: विचारो तो जो घर में जीव हैं माता पिता, पुत्र, स्त्री, नाती पोते आदि, वे सब जीव उतने ही जुदे हैं जितने कि दुनिया के अनंतानंत सारे जीव । वहाँ स्वयं भी यह बात नहीं है कि वे तो पूरे जुदे है और घर में रहने वाले ये जीव कुछ-कुछ तो मेरे हैं, रंच मात्र भी संबंध नहीं है । जो संबंध माना जा रहा है वह कल्पना से माना जा रहा है । तो फिर मोह कैसे मिटे? अरे इस बुद्धि के मिटने का ही नाम मोह है, मेरा कोई नहीं है, मेरा मात्र मैं हूँ, यह सत्य बात चित्त में आये, मोह मिट गया । यह सत्य कैसे चित्त में आये, उसका उपाय है कि वस्तु के स्वरूप का अभ्यास रखें, स्वतंत्रता जानें, प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से है पर स्वरूप से नहीं हैं । कभी आपने अपने दरबान को कुछ हुक्म दिया और उसने बड़ी तत्परता से काम किया तो आपके हुक्म से काम नहीं किया । व्यवहार में तो कहा जायगा कि, मालिक ने काम कराया, मालिक के हुक्म ने काम कराया, पर आपके हुक्म ने उससे काम नहीं कराया, आपने काम नहीं कराया किंतु इसके चित्त में स्वयं यह बात समायी हुई थी कि मैं मालिक के अनुकूल चलूं, जैसी उनकी इच्छा हो, जैसा उनका आदेश हो, उनके अनुकूल चलूंगा तो इससे मेरे को लाभ है । इन भावों से प्रेरित होकर उसने अपनी चेष्टा की । वस्तु की स्वतंत्रता कैसे खोई जा सकती है । कितनी ही प्रेरणा, कितना ही दबाव हो, प्रत्येक स्थानों में प्रत्येक पदार्थ अपनी स्वतंत्रता से, अपनी परिणति से अपना परिणमन कर रहा है । यह बात जब ज्ञान में आती है तो वहाँ मोह नहीं रहता । बड़ा कौन लोक में? जिसके मोह न रहे और सम्यग्ज्ञान का अधिकार पा लिया हो वह बड़ा है । शांत कौन है? सुखी कौन है? कृतार्थ कौन है? वही पुरुष कृतार्थ है । लौकिक बड़ा होने पर यदि आध्यात्मिक क्षेत्र का भी यह बड़प्पन आया तो लोक में उसकी शोभा बढ़ जाती है । 726-लौकिक बड़प्पन से अशांति और आत्मतत्त्व के बड़प्पन से शांति—भैया ! अपने आपके आत्मा के नाते से अपना बड़प्पन प्रकट न हो तो इस जगत के बड़प्पन को क्या करे? कितने दिनों का बड़प्पन? और यह कर्म के अधीन, कल्पना में माना हुआ उसमें जान क्या! इसमें सार क्या? मान लो हजार पुरुषों ने किसी समय कुछ प्रशंसा के शब्द कह दिया कुछ यश की बात गा दी तो उन्होंने मेरा कुछ नहीं किया अपने ही भावों से, अपने ही स्वार्थ ने अपने आप में अपना परिणमन किया और यहाँ मैं अपने स्वरूप से चिगकर उनकी चेष्टावों से अपना बड़प्पन मानकर जो विकल्प मचाया उससे तो दुःख पाया है । बाह्य पदार्थों के संपर्क से क्लेश ही मिलता है, शांति प्राप्त नहीं होती । कदाचित सत्संग से, अच्छे वातावरण से कभी शांति विदित होती है तो वहाँ शांति तो नहीं मिली पर से, किंतु उसके खिलाफ जो अन्य और बुरे आशय रख रहे थे, जिससे अशांति बढ़ी हुई थी, वे आशय घटने से अशांति कम होती है, उसको हम शांति हुई है ऐसा ख्याल करते हैं । जैसे किसी को 104 डिग्री बुखार था, उतर कर 100 डिग्री रह गया, उससे कोई पूछता है—कहो भाई अब तुम्हारी कैसी तबीयत है तो वह कह उठता है कि अब तो तबीयत अच्छी है । अरे अच्छी कहाँ है? अभी तो-2 डिग्री बुखार है, पर वहाँ तबीयत अच्छी होने का अर्थ क्या है? बहुत खराबी के अश न रहकर थोडी खराबी रह गई । उससे वह अपनी तबीयत अच्छी मानता है । इस लोक में जिसमें हम सुख शांति का अनुभव करते हैं वह वस्तुत: सुखशांति नहीं है, किंतु बड़ा दुःख, बड़ी अशांति, बड़ी व्याकुलता न रही, थोड़ी रही तो उसे समझ लेते हैं कि मुझे शांति है, सुख है, वस्तुत: शांति तो तब ही मिलती है जब किसी पर का संपर्क उपयोग में न हो । केवल ज्ञान में ज्ञानस्वरूप निज तत्त्व ही विराज रहा हो, उसकी इस अमीरी, उसकी इस समृद्धि की उपमा जगत में किस पदार्थ से दी जा सकती है? अब तक क्या? पर घर फिरे । यह ज्ञान, यह उपयोग पर में बसा रहे तो पर में बसने के मायने पर घर में रहना कहलाया । जिस किसी भी पर में बसे वह पर तो सदा रहता नहीं । वह परपदार्थ मेरी इच्छा के अनुकूल बर्तता नही, वह परपदार्थ मेरे से भिन्न है, तब पर में जो हम अपना ज्ञान जमाते हैं, उपयोग लगाते हैं वह तो मेरे क्लेश के लिए ही होता है । आत्मकल्याण और लोकेषणा इन दोनों में बहुत विरोध है । लोकेषणा के मायने लोग मुझे समझे इस प्रकार की चाह और आत्मकल्याण याने आत्मा मेरा शांत रहे, क्लेश रहित हो, निर्विकल्प निस्तरंग हो, यह है आत्मकल्याण । तो इन दोनों में कितना प्रतिपक्षपना है । जब तक लोकेषणा का भाव रहेगा तब तक कितने ही उपाय बना लें पर शांति नहीं प्राप्त हो सकती । 727-धर्मसाधन के लिये दीर्घसूत्री बनने से हितविघात—भला जीवन में सब पर बात गुजर रही है कि सोचते तो यह हैं लोग कि अभी हम 25-30 वर्ष के हैं, 10 वर्ष में हम ऐसा काम पर काबू पा लेंगे कि हम को बड़ी चिंता न रहेगी और निर्द्वंद्व होकर धर्मसाधना में लगेंगे, शांत रहेंगे, करीब-करीब सभी लोग अपना ऐसा प्रोग्राम बनाते हैं । अज्ञानी भी चित्त में ऐसी बात तो रखते ही हैं कि ऐसा साधन बना लें, इतना संग्रह करले कि जिससे फिर इस जीवन में तकलीफ न भोगनी पड़े, परंतु होता क्या है कि वे 10 वर्ष गुजर गए, 20 वर्ष गुजर गए, 30 वर्ष भी गुजर गए, और पाया क्या जा रहा कि पहिले से अधिक व्याकुलता चिंता तृष्णा, इसका कारण क्या है? इसका कारण यह है कि पहिले तो मूल में ही उसने भूल की । यह प्रोग्राम बनाया कि मैं इतना संग्रह कर लूं, ऐसी व्यवस्था बना दू, व्यवस्था के मापने इतनी संपदा स्वरक्षित कर लूं, फिर मुझे अशांति न मिलेगी । तो पर के आश्रय से शांति पाने का भाव पहिले ही रखा हुआ है जो कि अशांति का ही कारण है । फिर उस भाव की बुनियाद पर कितना ही कुछ कर लिया जाय, पर शांति की कहाँ आशा की जा सकती है? जिसे धर्म करना है अभी से करले । समय ज्यादा नहीं है तो जितना समय है उतने ही समय करले । अधिक ज्ञान नहीं है जितना ज्ञान है उतने में करे । कैसी भी स्थिति हो, अभी से धर्म करने का यत्न करने वाला तो धर्म में आगे बढ़ेगा और जो यह सोचेगा कि 10 वर्ष तो यह काम करले, तब तक छोटा मोटा धर्म करने का हम क्यों कष्ट करें? इतने वर्ष बाद एकदम धर्म करेंगे, उससे नहीं बन सकता जिसकी आदत अभी से नहीं पड़ी । और अभी से ही यत्न करने का लक्ष्य न हो तो कुछ वर्ष बाद हम उसे करले यह बात नहीं पायी जा सकती । इससे हमारा कर्तव्य यह है कि जो बात हम, जिनवाणी में सुनते हैं उसे अपने आप पर घटित करने की आदत बनायें, यह स्वप्न देखना अच्छा नहीं कि अभी 10 वर्ष मैं अपनी व्यवस्था बना लूं बाद में निश्चिंत होकर धर्मपालन करेंगे । अरे अभी से जितनी शक्ति मिली है, जितने साधन मिले हैं उनका उपयोग करके धर्ममार्ग में चलें तो हम धर्ममार्ग में अपनी वृद्धि कर सकते हैं । 728-आत्मज्ञान व अनात्मोपेक्षण से ही आत्महित का लाभ—धर्म का प्रारंभ तो यहाँ से है— अपने आपके सही अस्तित्व की समझ बनाना । मैं मैं हूँ, मैं अन्य नहीं हूँ, इतने में सब आ गया । मैं मेरा हूँ, मैं मैं दूसरे का नहीं हूँ, इसमें अपने स्वरूप की बात आ गई । यह बात हम में आये, घटित हो तो हम उस धर्मपालन का या जो भी करना है धर्म के लिए हम उससे फायदा पा सकते हैं । जैसे एक का अंक लिखे बिना बिंदिया आप सैकड़ों धर लीजिये तो उनका कुछ अर्थ नहीं । एक का अंक लिखने के बाद एक बिंदु धर दिया गया तो उसका 10 गुणा महत्त्व बढ़ गया, दो बिंदु धर दी तो 100 गुना महत्त्व बढ़ गया । तो इसी तरह मैं क्या हूँ इसका परिज्ञान यह है एक का अंक मुझे बस यह एक चाहिये यह बात आ सकी तो फिर हम जितने भी साधन जुटायेंगे उन सबसे हमारा 10-10 गुना महत्त्व बढ़ता जायगा, प्रगति होगी । मूल में यह बात जाननी है और इस आत्मा के स्वरूप की जानने की विधि यह भी है कि हम वस्तुस्वरूप का अभ्यास करे और एक प्रयोगात्मक विधि यह भी हैं कि थोड़ा बहुत वस्तुस्वरूप जानकर इतना भी जान लिया कि ये समस्त पर पदार्थ हैं, ये मेरे नहीं हैं, असत् हैं, ये सदा रहेंगे नहीं, इनसे मेरे को लाभ नहीं, ये तो खेद ही मचायेंगे । आज इष्ट मिले हैं स्त्री पुत्रादिक, उनमें ममता बसा रहे हैं, पर इसका फल अंत में होगा क्या? कभी वियोग अवश्य होगा । जितना जो कुछ मिला है नियम से वियोग होगा । उस वियोग के समय में उतनी अधिक विह्वलता होगी जितना अधिक अभी हम राग मचाते हें । तो हम इष्ट के राग में सुख समझते हैं और उसके कारण इतना दुःख होगा कि बीसों वर्ष में जितना सुख माना है उस सारे सुख के मुकाबले में वह एक दिन या एक घंटे का दुःख अधिक होगा । सारी कसर निकल जायगी जितना कि जीवन भर में हम राग में, मोह में सुख मान रहे हैं । 729-निर्मोह होने से ही शांति की संभवता—यह मोह किसी पर भी रियायत नहीं करता है कि मैं शरीर से बड़ा बलवान हूँ तो दुख नहीं आने का मैं बड़ी विद्यायें जानता हूँ, व्याकरण छद ज्योतिष आदिक का बड़ा ज्ञान किया है, मेरे को दुःख न आ सकेगा । अथवा मेरे पास बड़ी संपदा है, मेरे को क्लेश न आ सकेगा। क्लेश तो मोह भाव के साथ ही लगा हुआ है । जहाँ मोह है वहाँ क्लेश है । तो इतना भी कोई जानकर कि पर पदार्थ सब भिन्न हैं, असत् हैं, असार हैं, इनसे मेरा कुछ संबंध नहीं है । तो मैं एक बार भी ऐसा तो प्रयत्न करूँ कि ये सब मेरे ज्ञान में एक भी न आये । कदाचित ज्ञान में कुछ आ गया तो झट उसी से बात करने लगे । यह असार है, भिन्न है, इस पर हम उपयोग दें उससे तो लाभ नहीं है ।जो भी ज्ञान में आये उससे यथार्थ वार्ता करने लगे उससे चित्त हट जायगा और अपने दिल को, ज्ञान को इस तरह से स्थिर बनायें कि इस समय में किसी भी पर पदार्थ का चिंतन न करें । चिंतन कर करके हैरान हो गए, विकल्प मचा मचाकर परेशान हो गए, और हाथ कुछ नहीं लगा । मेरे में समृद्धि कुछ नहीं लगी, शांति का लाभ नहीं हुआ । तो अब मैं ऐसा ही सारा अंतर्बल लगाकर यत्न करते हुए कि किसी भी पर पदार्थ को मैं ज्ञान में न आने दूंगा, ऐसा यदि अपना उपयोग बनाया तो चूंकि मेरा उपयोग है बाह्यपदार्थों को ज्ञान में आने से रोक लिया, तो उस उपयोग में फिर ‘‘मैं’’ रह जायगा, इस तरह मैं अपने स्वरूप का निर्णय कर सकता हूँ, जो करेगा प्रयत्न वह लाभ पायगा जो न करेगा उसे केवल बातों के करने मात्र से उसका लाभ नहीं मिलता । 730-अज्ञानी के कार—अज्ञानी जीव का ऐसा विचार रहता है, पर मैं कि यह मैं हूँ, मैं यह हूँ, यह मेरा है, मेरा यह है, यह मेरा था, मैं इसका था, मेरा यह होगा, इसका मैं होऊंगा तीनों काल के संबंध जाल को पूरता है और मूढ़ होकर विकल्प करके सत्य बात को न जानकर इस जगत में रुलता है, हम अपने आपके बोध पर अधिक दृष्टि दें । मैं क्या हूँ और उसके जानने का जो एक यह निजी उपाय हैकि एक बार पर को पूरा भुला दूं और शांत होकर बैठूं तो उसमें अपने आपके स्वरूप का बोध होगा, अनुभव भी होगा । बस यही काम यदि बन सका तो संसार के संकटों से नियम से पार हो जायेंगे । यही न बना तो चाहे कुछ बड़प्पन आ जाय, उससे तो पूरा नहीं पड़ सकता । अज्ञानमय विकल्पों में रह कर यदि यह श्रेष्ठ नरभव गमा दिया तो इस अपार असार अशरण संसार में कठिन-कठिन भव पा पाकर दुःखी ही होना पड़ेगा । अज्ञानी को अहंकार, परकार, ममकार व परीयकार ये चार कार ऐसे बेकार हैं जिनके फल में अनंत संकट सहने ही पड़ते हैं । 731-अज्ञानी का अवधारण—सचित्त अचित्त अथवा सचित्ताचित्त अन्य जो भी पर द्रव्य है, मैं यह हूँ, यह मैं है, मैं इसका हूँ, यह मेरा है, यह पहिले मेरा था, मैं पहिले इसका था, यह मेरा फिर भी होगा, मैं इसका भी होऊँगा, ऐसे असद्भूत आत्म विकल्प को यह मूढ़ करता है परंतु भूतार्थ तत्त्व को जानता हुआ अंतरात्मा अर्थात् ज्ञानी आत्मा इन असद्भूत विकल्पों को नहीं करता है वास्तव में यही असंमूढ है, ज्ञानी है । लोक में पुद्गल तीन प्रकार के है:—(1) सचित्त, (2) अचित्त और (3) सचित्ताचित्त । सचित्त वे हैं, जिन में चेतनता पाई जाये जैसे स्त्री-पुत्र, पिता-माता, मित्र आदि । अचित्त पदार्थों में रुपया पैसा, धन, मकान आदि हैं । और सचित्ताचित्त में मोहल्ला गाँव, शहर, देश आदि है । चेतन और अचेतन का समुदाय देश आदि हैं, अत: इनको मिश्र कहा है । इस प्रकार के पदार्थों में जो ममत्व बुद्धि रखता है, उसे अज्ञानी कहते हैं । साधुओं के पास सचित्त, अचित्त और मिश्र पदार्थों का परिग्रह है । जैसे शिष्य (सचित्त) शास्त्र, पीछी, कमंडलु आदि (अचित्त) और पुस्तक सहित शिष्य (मिश्र) परिग्रह है । परंतु वे व्यवस्थित-चित्त होने से ज्ञानी कहलाते हैं । यह मैं हूँ, मैं यह हूँ, यह मेरा है, मैं इसका हूँ, इस प्रकार आत्मा से भिन्न पर द्रव्यों में जब तक जीव की बुद्धि मोहित रहती है तब तक वह अज्ञानी, मोही, मूर्ख कहलाता है । 732-किसी के स्वरूप में किसी अन्य का न स्वागत न दुरागत—किन्हीं पदार्थों का कभी समागम नहीं हो सकता है । सब पदार्थ एक-दूसरे पदार्थ से भिन्न हैं । सैकडों इस संसार स्थली पर आते हैं और हाथ पसारे चले जाते हैं । किसी के साथ कुछ नहीं जाता । दुनिया को अच्छी या बुरी करामात दिखा जाते हैं । अच्छे परिणाम किये, अपना ही अच्छा किया, बुरे परिणाम किये, अपना ही बुरा किया । तीर्थकर चक्रवर्ती जैसे महापुरुष कभी मोह में नहीं फंसे । जीव के दुःख का कारण मोह ही तो है । राम में स्नेह तो होता है, परंतु मोहरहित राम में यह मैं हूँ, यह मेरा हैं, ऐसी प्रतीति नहीं होती है । मोह में ही ऐसी प्रतीति होती है । मोह का संबंध अज्ञान से अधिक है । अप्रमत्त में भी राग होता है, परंतु बुद्धिपूर्वक राग नहीं होता है । सम्यग्दृष्टि मोही नहीं होता है । मोह की पहिचान है कि राग में राग करना । राग उत्पन्न हो रहा है, उसमें वियोग बुद्धि किये रहो तो उसमें राग नहीं है । महाराज, बड़ा आनंद है—यह मोह का वचन है । राग करता हुआ सम्यग्दृष्टि राग को विपत्ति समझता है । मिथ्यादृष्टि राग को आपत्ति नहीं मानता है । चौथे गुणस्थान के बाद राग की ऐसी स्थिति नहीं रहती है । जैसे गुरु, पास में रहने वाले शिष्य, पीछी, कमंडलु आदि से मोह नहीं रखते, उसी प्रकार गृहस्थ, स्त्री, पुत्र, धन वैभव आदि में मोह नहीं रखता । वह, राग आया तो राग क्यों आया ऐसी वियोगबुद्धि भाता है । निर्मल परिणाम बनाये रखने के लिये साधु को कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता है । गृहस्थ को निर्मल परिणामों के बनाने में कठिनाई पड़ती है क्योंकि उसके बाह्य में परिग्रह संबंध है जो भाव साधु का रहता है, वही भाव सम्यग्दृष्टि गृहस्थ का रहता है । गृहस्थ भी साधु की तरह से परिग्रह में वियोग-बुद्धि रखता है । सम्यग्दृष्टि गृहस्थ और साधु में भावों की जाति की अपेक्षा कोई अंतर नहीं है । भाव दोनों के समान है । सम्यक्त्व की महिमा अपार है । 733-गृहस्थ सम्यग्दृष्टि की लीला—यद्यपि साधु और गृहस्थ में अंतर है, तो भी सम्यक्त्व की अपेक्षा से दोनों एकसा कार्यं कर रहे हैं । अनात्मा में आत्मतत्त्व की श्रद्धा न साधु के हैं, न गृहस्थ के हैं । तीन ही प्रकार के परिग्रह हैं:—अतीत, वर्तमान और अनागत । अतीत में ज्ञानी विशेष बुद्धि नहीं डालता ।मृत प्राणी के प्रति अज्ञानी लोग ऐसे रोते हैं कि मलते-मलते आंखें भी खराब हो जाती हैं । जो मर गया ,वह हमारा कुछ नहीं करता था, अपने ही परिणामों की चेष्टा करता था । अतीत का रोना अज्ञानियों के होता है । ज्ञानी भविष्य का भी परिग्रह नहीं रखता है, वह बाह्य की आकांक्षा ही नहीं करता, इसलिये वर्तमान में वियोग बुद्धि बनाये रक्खे कि इससे मेरा कब पिंड छूटे आदि बातें सम्यक्त्व के कारण ही आयी है । बनाये से परिणाम नहीं बनते । शरीर का और वचन का काम तो (निमित्त दृष्टि से) किये से हो सकता है, लेकिन परिणाम तो जो हो गया सो हो गया, नहीं हुआ तो नहीं हुआ । पुरुषार्थ करने के बाद परिणामों की निर्मलता होती है । ज्ञानात्मक प्रयत्न करो तो निर्मल परिणाम होते हैं क्रियात्मक पुरुषार्थ से निर्मल परिणाम नहीं होते । क्रिया भी करो तो ज्ञानात्मक पुरुषार्थ से न चूको । आजकल ज्ञान करने के लिये भी समय चाहिये । खाना-पीना-संग्रह करना यह सब पर्याय की सेवा है । आत्मा की सेवा में समय अधिक लगाना चाहिये, यदि आत्मा की बात मुख्य है तो आत्मा की सेवा में अधिक समय लगता है । और शरीर को यदि प्रधानता दो तो शरीर की सेवा में अधिक समय लगता है । आत्मा मुख्य है, अत: आत्मा की सेवा में अधिक समय लगाना चाहिये। यह मेरा है, यह मेरा पहिले था, अब दूसरे का हो गया है । हम ऐसे थे कि हमारे दरवाजे पर हाथी झूमा करता था । रोज 100 जूते हमारे दरवाजे पर निकलते थे, आदि यह सब अतीत काल का परिग्रह है । जब, मेरा था, का ख्याल आता है, जल्दी से आँसू टपकने लगते हैं । यह सब अतीत काल का परिग्रह ही तो है । जो गुजर गया, उसी का ध्यान बना रहने को अतीत काल का परिग्रह करते हैं । 734-भविष्यत्काल के परिग्रह का विप्रतिषेध—मैं इसका अमुक बनूंगा, यह मेरा भाई बनेगा, वह मेरी स्त्री होगी, आदि भविष्यत्काल का परिग्रह है । सगाई होने पर ही लोग रिश्ता लगा लेते हैं । सगाई न हो, तब भी सोचने लगते हैं कि यह मेरा फलाना होगा । यह सब भविष्यत्काल का परिग्रह ही तो हैं । सब लोग ऊपर से ही मोह दिखाते हैं, अंतरंग से कोई मोह कर ही नहीं सकता । मोह दिखावटी ही होता है । हमने तुम से मोह किया तो मोह पर्याय हमारी ही हुई, अत: हमारा मोह तुम्हारे में जा ही नहीं सकता । अत: सबसे मोह में कपट व्यवहार ही होता है । निश्चय से मोह कोई किसी से कर ही नहीं सकता । हमारा राग हमारे में ही सीमित रहेगा सब स्वार्थ के साथी है । यदि कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का परिणमन करते तो द्रव्य ही नहीं रहेगा । मोही जीव अपने सही धंधे में लगा हुआ है, नहीं तो मोह ही मिट जाता । मोही मोह की बात कर सकता है । यदि मोही ज्ञान की बात कर दे तो सारे शास्त्र झूठे हो जायेंगे । मोह मोहियों को डटकर होता है । इसी तरह ज्ञानी मोह की बात नहीं कर सकता है । अपने ही अपने काम में लगा रहना-यह ठीक है । यद्यपि चीज ऐसी नहीं है कि किसी का कुछ लग जाय तथापि मान्यता मोही की ऐसी है; अत: मोही का मिथ्या विकल्प कहलाया । भगवान् यदि अपनी शान मारे कि हमारा ज्ञान अनंत है तो मोही कहेगा कि हमारा दुःख अनंत है । उनका तो सीधा-साधा रोजगार है, किंतु हमारा विकल्प करने का टेढ़ा रोजगार है; फिर भी हम नहीं घबराते हैं । सर्वत्र आत्मा की लीला अचिंत्य है । जिस शक्ति का अपव्यय मोही मोह में करता है, यदि उसी शक्ति का उपयोग ज्ञान में करे तो वह भी ज्ञानी बन सकता है । दृष्टि फिरना भर है । यदि दृष्टि फिर गई तो सब कुछ ठीक दिखने लगेगा । 735-आत्मा का बड़प्पन तत्त्वज्ञान से—बहुत से लोग कहने लगते हैं कि यह 18 वर्ष का हो गया, परंतु इसे अभी तक अकल नहीं आई, ऐसा चिंता उनको लगी रहती है । परंतु आत्मा का बड़प्पन आयु पर अवलंबित नहीं है, उसका बड़प्पन उसकी करनी पर अवलंबित है । जो पर पदार्थों में विकल्प करता है, वह अज्ञानी है । जो स्वत: सिद्ध तत्त्व को जानता है, वह ज्ञानी है । वह इन विकल्पों को नहीं करता है । पुत्र पुत्रादि कभी साथी नहीं हो सकते । धन पाकर गर्व न करना, यह कुछ चीज नहीं है, ये सब असार चीज हैं, अस्थिर है, पर है, इनसे हित की संभावना नहीं है—ज्ञानी जीव ऐसी श्रद्धा परपदार्थों में रखता है । जो पदार्थों को स्वतंत्र-स्वतंत्र निरखते हैं, वे ही ज्ञानी है । मन को शुद्ध करने से ही मन शुद्ध होता है, कहने से नहीं । जब तक मोही में मोह है, तब तक शुद्ध चैतन्य मात्र आत्मा का अनुभव नहीं कर सकता है । प्रयत्न ज्ञान सीखने में करो । अज्ञान में अज्ञानमय भाव होता है और ज्ञान में ज्ञानमयभाव होते हैं । अज्ञानी जब तक यह सोचता है कि यह मेरा है, मैं इसका हूँ, तभी तक वह अज्ञानी है । 736-अज्ञानी जीव की पहिचान—अज्ञानी जीव की क्या पहिचान है कि यह अज्ञानी है? जैसे कोई अग्नि को ही ईंधन में लगी हुई अग्नि को एक समझता है । तब तक वह अज्ञानी है । क्यों भैया ! ईंधन और आग क्या एक चीज है? ईंधन अलग चीज है, अग्नि अलग । वे एक नहीं हो सकते हैं । जो आकार दिखाई दे रहा है, वह ईंधन है । गर्मी के ढंग से जो जानने में आ रहा है, वह अग्नि हे । अग्नि का ईंधन है या ईंधन की अग्नि है, यह जो कहे वह अज्ञानी है । क्योंकि किसी का किसी में स्वामित्व हो ही नहीं सकता । अतएव संबंध को कारकों की श्रेणी में नहीं रक्खा है । पृथक्-पृथक् दो वस्तुओं में संबंध हो ही नहीं सकता । किसी का कुछ है, ऐसा संबंध नहीं होता है । इस आत्मा का यह आत्मा या यह पदार्थ कुछ है, ऐसा मानना अज्ञान है । संयोग संबंध नाम की कोई चीज ही नहीं है, फिर संबंध कैसे हो सकता है । जैसे—यहाँ अंगुली से अंगुली का संबंध है । लेकिन वास्तव में अंगुली का अंगुली से संबंध नहीं है, क्योंकि उनमें संबंध परिणमन ही नहीं है । यदि उनमें संबंध होता तो अलग होने पर भी संबंध उनमें दिखाई देना चाहिये था । किसी चीज का किसी अन्य चीज से संबंध नहीं है । संबंध तो हमारे दिमाग बसा है, जिससे हम कुबुद्धि कर लेते हैं कि अमुक का अमुक से संबंध है । जो चीज किसी आकाश प्रदेश पर है, उसी के पास वाले दूसरे आकाश प्रदेश पर दूसरी चीज हो तो उनमें हम लोग संबंध की कल्पना कर लेते हैं । पदार्थ में संबंध नहीं है, हां, निमित्त नैमित्तक भाव तो कोई चीज है परंतु संबंध नाम की कोई चीज ही नहीं है । ईंधन की अग्नि, कंडे की आग, यह सब अज्ञानी की भाषा है । ईंधन का ईंधन होता है, आग की आग होती है । यद्यपि हमें यह बोलने में अटपटासा लगता है, क्योंकि हमें इस प्रकार बोलने का मुहावरा नहीं है तथा आवश्यकता भी नहीं है। अग्नि का ईंधन था, ईंधन की अग्नि थी, यह भूत संबंध विचार है । ईंधन में असद्भूत अग्नि है । जो जल सके, उसे ईंधन कहते हैं, जो जल रहा है, उसे आग कहते हैं । ईंधन और अग्नि का संबंध मानने वाले जीव अज्ञानी हैं । सम्यग्दृष्टि भी यही कहता है हमारा बच्चा तुमने देखा है क्या? किंतु श्रद्धा यही करेगा कि यह मेरा नहीं है । क्योंकि बच्चे का परिणमन बच्चे में है, मेरा परिणमन मुझ में है । मैं बच्चे का कुछ नहीं कर सकता, बच्चा मेरा कुछ नहीं कर सकता । जिस प्रकार ईंधन में असद्भूत अग्नि की प्रतिष्ठा करने वाला अज्ञानी समझा जाता है और ईंधन व अग्नि का विलक्षण स्वरूप मानने वाला ज्ञानी समझा जाता है । इसी प्रकार कर्म नोकर्म में आत्मा की प्रतिष्ठा करने वाला अज्ञानी समझा जाता है और यह मैं नहीं हूँ, यह मेरा नहीं हैं, इस प्रकार का विलक्षण विलक्षण स्वरूप देखकर विचार करने वाला सम्यग्दृष्टि समझा जाता है । 737-परद्रव्य में अकर्तृत्व—तीन प्रकार की पर्याय होती है:—(1) सचित्त (लड़के, पुत्र, कलत्र, मित्र, भाई, बहन) (2) अचित्त (मकान, रुपया, पैसा, धन, दौलत आदि) ( 3) मिश्र-सचित्ताचित्त (नगर, मोहल्ले, देश आनि) इन तीनों को सामने रखकर यह मैं हूँ, ऐसी बुद्धि जो करता है, वह अज्ञानी है । इन सबकी स्वतंत्र सत्ता है, इनका परिणमन इनमें है, मेरा परिणमन मेरे में है । यदि हमारा परिणमन अन्य में होता तो पता नहीं क्या-2 हो जाता? परवस्तु के आप स्वतंत्र कर्ता नहीं हैं, आप अपने स्वतंत्र कर्त्ता हैं । ऐसा विचार सम्यग्दृष्टि करता है । यह मेरा है, जो ऐसा विकल्प करे वही अज्ञानी है इसका मैं श्वसुर था, यह मेरा था, यह सब अज्ञान ही तो है । यह मेरा था, यह फिर मेरा होगा, इस प्रकार पर द्रव्य में असद्भूत आत्मा का अज्ञानी जीव विकल्प करता रहता है, करता रहेगा करता था । ‘गा’, ‘था’, ‘है’ ये ही तो जीव को इस संसार में भटकाने वाले हैं । भूत, वर्तमान और अनागत में ममता की दृष्टि से दुःख ही दुःख है, परद्रव्य में कोई कुछ कर ही नहीं सकता । क्या अज्ञानी सदा अज्ञानी ही बना रहेगा? नहीं, जब उसकी बुद्धि सही मार्ग पर लग जायेगी, पर पदार्थों में अनासक्त रहेगा तो ज्ञानी कहलायेगा । अग्नि ईंधन नहीं है, ईंधन अग्नि नहीं है, यह प्रतिभास ज्ञानी को होता है । ईंधन की अग्नि, घी का डब्बा आदि प्रतिभास अज्ञानी को होता है । अग्नि अग्नि है ईंधन ईंधन है अग्नि की अग्नि है, ईंधन का ईंधन है । यह कहना अटपटा सा लगता है, किंतु तथ्य यही है । दो में भी कोई संबंध नहीं हो सकता, एक में संबंध नहीं हो सकता । संबंध को कारकों की श्रेणी में ही नहीं रक्खा । अग्नि की अग्नि है, इसका कोई अर्थ नहीं होता, फिर भी ईंधन की अग्नि नहीं है इसको समझाने के लिये वैसा कहा गया है । व्यवहार में निमित्त का प्रयोग होना पड़ता । व्यवहार धर्म के लिये भी तो देख लो कितना आलंबन बनता है। 738-व्यवहार धर्म की नींव मूर्तियां—संसार में आजकल जितने भी धर्म चल रहे हैं, सब मूर्ति को मानने के बल पर टिके हुए हैं । मूर्ति न होती तो वे आश्रय विहीन होकर सब समाप्त हो जाते । प्रश्न:—संसार में इस समय ऐसे भी धर्म चल रहे हैं, जो मूर्ति को नहीं मानते अपितु मूर्ति को मानने का विरोध करते हैं तो उनका धर्म कैसे चल रहा है? उत्तर:—जो मूर्ति नहीं मानते, उनका धर्म भी मूर्ति मानने वालों के बल पर चल रहा है । यदि मूर्ति मानने वाले नहीं है तो विरोध किसका करेंगे? जैसे कि जिन प्राणियों का धर्म है, मूर्ति न मानना, मूर्ति मानने का विरोध करना, मूर्ति का अपमान करना, मूर्ति को खंडित कर देना तो यह भी उनका खंडनरूप धर्म ही तो चला । बिना मूर्ति के वे किसका खंडन करते? जो ऊंचे साधु हैं खूब ज्ञानी हैं, वे अवश्य उस सिद्ध भगवान् की अशरीरिता का व चेतन के चैतन्य का विचार करके धर्म पा लेते हैं । लेकिन वे तो प्रारंभ में मंदिर में जाते होंगे, मूर्ति को मानते होंगे, पूजा करते होंगे आदि । प्रारंभ में ही निश्चयनय की बात कोई नहीं जान सकता, पहले उसे व्यवहारनय का ही आश्रय लेना पड़ा । यदि मूर्ति मानने वालों का धर्म जीवित है उसको न मानने वालों का भी जीवित रह सकता क्योंकि एक वर्ग के लोग मूर्ति को मानेंगे, विरोधी-पक्ष मूर्ति का विरोध करेगा ही । इस प्रकार मूर्ति के बल पर ही दोनों धर्मों की सत्ता रहेगी । 739-ज्ञानी का अवधारण—अग्नि का ईंधन नहीं था, न ईंधन की आग थी अग्नि की अग्नि ही थी, ईंधन का ईंधन । अग्नि का ईंधन नहीं होगा, ईंधन की अग्नि नहीं होगी । अग्नि की अग्नि ही रहेगी, ईंधन का ईंधन ही रहेगा । अग्नि की अग्नि ही रहती है अग्नि का ईंधन नहीं हो सकता । ईंधन का ईंधन ही रहेगा, ईंधन की आग नहीं हो सकतीं । इस प्रकार की जिस जीव की बुद्धि रहे जैसे वह ज्ञानी है । इसी प्रकार यह मैं नहीं हूँ, मैं यह नहीं हूँ, मैं इसका न था यह मेरा न था, मैं इसका न होऊंगा, न यह मेरा होगा, मैं मैं ही हूँ, यह यह ही है, यह इसका ही है, मैं मेरा ही हूँ, मैं मेरा था यह इसका था, मैं मेरा रहूँगा, इसका यह ही रहेगा । ऐसी प्रतीति वाला पुरुष (जीव) ज्ञानी है । सम्यग्दृष्टि ऐसा विचार करता है । क्योंकि सब द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से अलग-अलग हैं और अलग-अलग परिणमते हैं । सब अपनी-अपनी पर्यायों में ही प्रवर्तते हैं । हम तो किसी का कुछ करने के लिये कषायों की चेष्टा मात्र कर सकते हैं । आज तक पिता ने पुत्र का और पिता का पुत्र ने क्या उपकार किया ? कुछ नहीं । पुत्र के पुण्य का उदय था उसके पढ़ाने मैं पिता निमित्त बन गया लेकिन पढ़ा वह स्वयं, उसमें पिता ने कुछ नहीं किया । कोई किसी को न सुख देता न दु:ख देता और न जीवन मरण करता है । 740-अपने ही ज्ञान की अपने को शरण्यता—एक बुढ़िया के एक लाड़ला लड़का था । एक दिन वह बच्चा विकराल काल के गाल का ग्रास बना । वह रोती हुई जंगल में जा रही थी, उसे वहाँ एक साधु मिले, साधु ने पूछा—तू क्यों रो रही है? उस बुढ़िया ने कहा महाराज, मेरा यह बच्चा इकलौता था, वही मर गया, अब मैं भी जी करके क्या करूंगी? साधु ने कहा तू रो मत, हम तेरे बच्चे को जिंदा कर देंगे, जो हम कहेंगे, वह कर लोगी? बुढ़िया—हां महाराज, मैं अवश्य कर लूंगी । साधु ने कहा—जिस घर में कोई न मरा हो वहाँ से सरसों के दाने ले आओ । बुढ़िया घर-घर गई और सरसों के दाने मांगने लगी । लेकिन उसे कोई भी घर ऐसा नहीं मिला, जिस धर में कोई न मरा हो । इस प्रकार उसने पूरा भूमंडल का चक्कर लगाया, उसे कोई भी घर इस मरण रूप व्याधि से अछूता नहीं मिला और उसे प्रत्येक घर से यही उत्तर मिला कि हमारे घर तो फलाना मर गया है, तो उस बूड़िया को ज्ञान उत्पन्न हो गया कि सभी मरते हैं, जो उत्पन्न होता है, वह अवश्य मरता है । जब इस संसार के प्राणियों का मरना कर्मस्वभाव है तो मैं क्यों मोह में पड़ी हूँ? वह साधु के पास जाकर बोली कि महाराज, मेरा निज का बच्चा जिंदा हो गवा है । जितने दिन भी पुत्र, मित्र कलत्र नादिका संयोग था, उस समय भी मैं उनका नहीं था न वे मेरे थे और मैं उनका न कभी हो सकूंगा । जब ऐसा ज्ञान हो जाता है तो यह जीव प्रतिबुद्ध कहलाता है । मेरा यह नहीं है के मुकाबिले में मेरा मैं हूँ, बोलना पड़ता है । लेकिन मैं मेरा हूँ, इसका कोई नहीं अर्थ है । बोलने में भी अटपटा सा लगता है । जब, मैं मेरा हूँ, अन्य बाह्य पदार्थ मेरे नहीं हैं, यह भाव आ गया, तभी वह प्रतिबुद्ध कहलाता है । निज आत्म द्रव्य में सद्भूत द्रव्य का विचार करना ज्ञानी की निशानी है । प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप है । मैं भी अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप हूँ । किसी बाह्य पदार्थ का परिणमन मैं नहीं कर सकता, कोई वस्तु मुझे नहीं परिणमा सकती है । मैं स्वयं अपने आप में परिणमता हूँ । परंतु वस्तु में ऐसी लीला है कि वह निमित्त पाकर विभाव रूप परिणमती हैं, निमित्त बिना पाये स्वभावरूप परिणमति है, इस प्रकार का विचार ज्ञानी जीव का होता है । इस प्रकार हमें शिक्षा मिलती है कि हमारा बाह्य पदार्थ कोई नहीं है, किसी का मैं कुछ नहीं हूँ, न मैं किसी का कुछ हो सकूंगा, न मैं किसी का कुछ था, सदा ऐसी प्रतीति करना चाहिये । 741-अपना घर अपना अस्तित्व—जब तक जीव को आत्मा अनात्मा का विवेक नहीं रहता है, तब तक जीव अज्ञानी बना रहता है । आत्मा चैतन्य पदार्थ है । उसमें दो प्रकार की शक्तियां पाई जाती हैं—(1) भाववती शक्ति और (2) क्रियावती शाक्त । भाववती शक्ति से आत्मा के गुण में परिणमन होता है । क्रियावती शक्ति से आत्मा एक क्षेत्र से दूसरे क्षत्र में चला जाता है । पुद्गल में भी ये ही भावयति और क्रियावती दो शक्तियां हैं । भाववती शक्ति से पुद्गल के गुणों में परिणति होती हैं । क्रियावती शक्ति से पुद्गल एक जगह से दूसरी जगह चला जाता है । जीव और पुद्गल में दोनों शक्तियां हैं । धर्म, अधर्म, आकाश, और काल द्रव्यों में केवल एक भाववती शक्ति पाई जाती है । समस्त द्रव्यों में भाववती शक्ति से परिणमन होता है । प्रश्न—जीव चैतन्य मात्र तत्त्व को शुद्ध विकास को छोड़कर उल्टा क्यों परिणम जाता है? जीव का जैसा स्वभाव है, उसका वैसा ही परिणमन होना चाहिये । समाधान—जीव में इस प्रकार की भाववती शक्ति है कि निमित्त पाकर जीव, विभावरूप परिणम जाता है । निमित्त बिना पाये स्वभाव रूप परिणमता है । इसी प्रकार पुद्गल भी निमित्त पाकर विभाव रूप परिणम जाता है निमित्त बिना पाये स्वभाव रूप परिणमता है । भाव माने गुण है । जैसे सोने का भाव 107) है । सोने में 107) रुपये नहीं लिखा है, लेकिन सोने के विषय के जीव के भाव ( विचार) ही सोने का भाव है सोने का भाव माने जीवों के विचार । जीव जो विचार करता है, वह भाववती शक्ति से करता है । जीब निमित्त पाये उल्टा परिणम जाता है, निमित्त न पाये स्वभाव रूप परिणमता है, इसे विभाव शक्ति कहते हैं । शंका—जो तुमने कहा कि जीव में विभाव शक्ति से उल्टा और स्वभावरूप परिणमन होता है इससे तो जीव में दो शक्तियां मानना ठीक रहेगा—(1) स्वभाव शक्ति, (2) विभाव शक्ति । समाधान—(1) शक्ति द्रव्योपजीवनी है । (2) शक्ति कभी परिणमन किये बिना नहीं रहती है । शक्ति नित्य है, लेकिन परिणामी है । यदि दो शक्तियां मानी जाती हैं तो दोनों शक्तियों का सदा परिणमन मानना होगा । स्वभाव और विभाव शक्ति माननी तुम्हारी कल्पना है । दो शक्ति मानने में दोष है, क्योंकि शक्ति वह है जो सदा परिणमती रहे । जीव में यदि दो शक्ति एक साथ रहें, तो वे दोनों युगपत कैसे परिणमेगी? जीव में स्वभाव शक्ति है, थोड़ी देर के लिये ऐसा मान लेते हैं कि विभाव शक्ति संसार अवस्था में परिणमती है, मुक्त अवस्था में नहीं तो मुक्त अवस्था में विभाव शक्ति बेकार हो जावेगी । शक्ति काम निरंतर परिणमते रहने का है, आराम करने का नहीं । स्वभाव और विभाव दो शक्तियाँ जीव के मानने से यह दोष आ जायेगा कि सिद्धों में भी विभाव शक्ति का तुम्हारा माना गया परिणमन पाया जाना चाहिए । शंका—भाव शक्ति धर्म, अधर्म आकाश-काल द्रव्य में भी है, वह क्यों नहीं उल्टी परिणमती? फिर जीव में ही क्या उल्टी परिणमती है? समाधान—प्रत्येक द्रव्य में भाववती शक्ति है, भाववती शक्ति का यह काम है कि पदार्थ के गुण सदा परिणमते रहें । जीव पुद्गल में ही यह विशेषता है कि है वे विभावरूप भी परिणम जाते । इस मर्म को बताने के लिये भाववती शक्ति का नाम विभाव शक्ति रख दिया । पदार्थ में जो भी विडंबना हो उसको कोई शक्ति अवश्य कारण होती है । पुद्गल और जीव में ऐसी भावशक्ति है कि निमित्त पाये तो विभावरूप निमित्त न पाये तो स्वभावरूप परिणमा देती है । इसी का भाव प्रकट करने के लिये उसका नाम विभाववती शक्ति रख दिया । यह नाम केवल लोगों को समझाने के लिये रक्खा है यदि इसका नाम स्वभावशक्ति रख देते तो उल्टा परिणमन भी होता है, ऐसा भाव प्रकट न होता । वह भाववती इस ढंग की है कि उल्टा परिणमन भी कराती है, इसीलिये इसका नाम विभाववती शक्ति रक्खा है । शंका—हम तो दो शक्तियां मानते हैं—स्वभावशक्ति और विभाववती शक्ति । इससे सारा मामला साफ व स्पष्ट हो जायेगा । समाधान शक्तियां दो मानने में कितने ही दोष हैं । एक तो कार्यकारण का नाश होता है, दूसरा जीव को मोक्ष कैसे होगा? क्योंकि विभाव एवं स्वभाव दोनों शक्तियां अपना कार्य करेंगी । शंका—जिस समय आप आत्मा में विभावशक्ति मानते थे, उस समय कार्य कारण कैसे बन जाता था? समाधान—विभाववती शक्ति के विभावरूप परिणमन के व्यय का नाम कारण और स्वभावरूप परिणमन का नाम कार्य है । विभाववती शक्ति के विभावरूप परिणमने का नाम बंध और स्वभावरूप परिणमने का नाम मोक्ष है एक काल में एक शक्ति के दो परिणमन नहीं हो सकते । दोनों परिणमन एक साथ कहाँ और कब होते हैं? विभावशक्ति तो हमें इसलिये नाम रखना पड़ा कि जीव और पुद्गल निमित्त पाकर उल्टे भी परिणम जाते हैं । ऐसी विशेषता बताना है । धर्म-अधर्म-आकाश-कालद्रव्यों में इस प्रकार की भाववती शक्ति नहीं है । 742-जीव के विभाव में निमित्तत्व—शंका—अनादि काल से सब पदार्थ स्वत: सिद्ध है, इसी प्रकार परिणमन भी स्वत: सिद्ध है । जीव राग-द्वेष कुछ भी करे वह निमित्त की अपेक्षा नहीं रखता ।क्योंकि वस्तु स्वत: परिणामी है, वह परिणमता जाये । फिर आत्मा के परिणमन में कर्म निमित्त क्यों बनते हैं? फिर क्या कारण है कि यह जीव उल्टा परिणम जाता है? जीव के राग में कर्म क्यों निमित्त मानते हो, विस्रसोपचय को क्यों निमित्त नहीं मानते? स्वभाव से ही आत्मा के साथ जो ढेर बना रहे उसे विस्रसोपचय कहते हैं । विस्रसोपचय सबके न्यारे-न्यारे हैं । जो कर्म बन गये, उनका नाम कर्म है और जो आत्मा के साथ चिपके रहते हैं तथा कर्म बनने की योग्यता रखते हैं, उसे विस्रसोपचय कहते हैं । कर्म की भाति विस्रसोपचय भी विभाव में निमित्त क्यों नहीं होता? समाधान—तुम ठीक कह रहे हो कि जीव में कर्म भी मौजूद है और विस्रसोपचय भी मौजूद है । आचार्य कहते हैं कि जीव में दो प्रकार की कार्मणवर्गणायें है—(1) बद्ध कर्मरूप और (2) अबद्ध कर्मरूप । जो कर्म बनकर बंध में आ चुके उन्हें बद्ध कर्म और जो कर्म बनने की शक्ति रखते हैं उन्हें अबद्ध कर्म अर्थात् विस्रसोपचय कहते हैं । विस्रसोपचय अबद्ध है । बद्ध निमित्त होता है, अबद्ध निमित्त नहीं होता है । अबद्ध होने पर भी विस्रसोपचय आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह रहता है । कर्म तो आत्मा के विभाव में निमित्त पड़ता है, विस्रसोपचय निमित्त नहीं पड़ता है । फिर विस्रसोपचय एक क्षेत्रावगाह क्यों रहता है? रहता है इसी प्राकृतिकता को बताने के लिये विस्रसा शब्द पड़ा हुआ है । 743-बद्ध और अबद्ध का अंतर—शंका—बद्ध और अबद्ध कर्म में क्या अंतर पड़ता है? समाधान बद्ध में तो दो में बंधन होता है और दोनों ही स्वरूप से च्युत हो जाते हैं । जीव और पुद्गलकर्मों के बंधन से अपने स्वभाव से च्युत (विकृत) हो जाते हैं । जीव की स्वभाव च्युति के साथ कर्म भी स्वभाव से च्युत हो जाते हैं । विस्रसोपचय में ऐसा नहीं होता विस्रसोपचय उस प्रकार च्युत नहीं होता । बंध तब होता है, जहाँ दोनों स्वरूप से च्युत हो जायें । एक दूसरे से बंधे रहना बद्ध कहलाता है । जैसे जब आप घर से दूर चले जाते हैं तो आप घरवालों का ख्याल करते हैं, घरवाले आपका । क्योंकि आप और आपके घरवाले आपस में मोह से जकड़े हुए हैं । दुश्मन-दुश्मन भी बद्ध हैं, क्योंकि वे सदा एक दूसरे का बुरा विचारते रहते हैं । वे बुरा करने के लिये बद्ध हैं । जैसे दर्पण में किमी पदार्थ का प्रतिबिंब आया, प्रतिबिंब आने से पदार्थ में कोई खराबी नहीं आयी, दर्पण में ही खलबली मची उस खलबली को ही दर्पण की अशुद्धता कहेंगे । जो बद्ध हैं, वह तो निश्चित अशुद्ध है । अबद्ध अशुद्ध होता भी हैं नहीं भी होता । जीव और पुद्गल जैसा है उसे वैसा समझो उनमें स्वत्व का भाव न लाओ । आत्मा को आत्मा जानो, पदार्थ को पदार्थ जानो, वही उत्तम जानना है । 744-पर्याय बुद्धि ही सब अपराधों का मूल—मैं मैं हूँ, मैं और कुछ नहीं हूँ । मैं मेरा था, अन्य किसी का नहीं था । इस प्रकार के ज्ञान में यह जीव क्यों नहीं रह पाता है, इसका कारण है, पर्याय बुद्धि ।जाव को जिस समय जो पर्याय मिलती है, वह उसी पर्याय में यह मैं हूँ, इस प्रकार का विचार बना लेता है ।पतन की जड़ यह पर्याय बुद्धि है । सम्यग्दृष्टि के चलते हुए भी यह मैं नहीं हूँ, इस प्रकार का विचार निम्नअवस्था में भी होता है । यह पर्याय मैं नहीं हूँ । इस प्रकार की श्रद्धा में कितना बड़ा बल है । इस प्रकार की श्रद्धा वाला व्यक्ति येन केन प्रकारेण अपनी पर्यायों को सुधार कर निर्मल परिणामों में आ जायेगा । यदि व्यक्ति की ऐसी श्रद्धा न हो तो ऐसे मोही जीव को और कोई आश्रय नहीं है, जो निम्न अवस्था से उठाकर उच्च अवस्था में पहुँचा देवे । सम्यक्त्व राजा की यही कृपा है कि वह उच्च अवस्था में पहुंचा देता है ।इस जीव को पर्याय पर्याय बुद्धि ही मोही बनाती है । जीव में जिस समय पर्याय होती है, उस समय पर्याय उसमें तन्मय हैं । पर्याय के साथ लगा है अज्ञान, अत: वह अपने को पर्याय से अलग नहीं समझ पाता है ।पर्याय के बनने का आश्रय, पर्याय के संग्रह में लग जाना है । समस्त आपदाओं की जड़ यह मैं हूँ, इस प्रकार की पर्याय बुद्धि है । यह पर्याय विभावरूप इसलिये बनी कि जीव में इस प्रकार की विभावशक्ति है, जो निमित्त पाकर उल्टा परिणमन करती है और निमित्त न पाये स्वभावरूप परिणमती है । जीव के परिणमन के कारण ही कर्मबंध होता है, हुआ था और होगा । अत: वह मलिन पर्यायों को उत्पन्न करता रहता है । अत: हे संसार के मोहियो ! अब मोह को छोड़ दो और यथार्थ का परिज्ञान करो । तुम्हारे भाव जो खोटे परिणमन रूप हैं, उनको सुधारों । तुम्हारे खोटे परिणमन कल्पना है, उसे ज्ञान से जीतो । ज्ञान के लिये पुरुषार्थ करो । वस्तु को ज्ञान से जानो तो कर्म अपने आप दूर हो जायें । कर्म शत्रुओं की प्रबल सेना को मोह जिसका सेनापति है, जीतने के लिये ज्ञान का अमोघ अस्त्र चाहिये । अत: अनादिकाल से भली प्रकार चाहे गये इस मोह को अब तो छोड़ दो । सम्यग्ज्ञानरूप अस्त्र से मोह का विध्वंस करो । आत्म-रसिक-लिये रुचिकर रोचन तत्त्वज्ञान का स्वाद लो । 745-तुम अपने परिणमन के सिवाय अन्य कुछ नहीं करते हो—मैं जानन मात्र हूँ, जानने के सिवा मैं और कुछ नहीं करता । आम मीठा है, यह जानना ही तो है । आम मीठा है, आत्मा को इस जानने मात्र से सुख होता है, मीठे से या आम से सुख नहीं होता है । जानने में ही तो सुख-दुःख होते हैं । यदि आत्मा अच्छा जानना है तो सुख, बुरा जानता है तो दुःख होता है । अत: ऐसा जानो, जिससे सुख प्राप्त हो । ज्ञान का जानना, स्वभाव का जानना, आत्मा का जानना ये सब सुख के कारण हैं । अमुक पदार्थ से मुझे सुख होता है । यही सोचना दुःख का कारण हैं तो वे पदार्थ कितने भयावह होंगे? अत: हे संसार के भोले प्राणियों, जो ज्ञानियों को हितकर है, उसका स्वाद लो । यह आत्मा किसी भी प्रकार से अनात्मा के साथ तादात्म्य नहीं कर सकता है । मोही मोह की चीजों को रखने के लिये पूर्ण कोशिश करता है, उनको भोगने का पूर्ण प्रयत्न करता है । इतना करनेपर भी कभी कुछ साथ नहीं जाता है । जैसे एक बार एक शराबी ने शराब की एक दुकान पर जाकर शराब मांगी । शराबी ने कहा, बढ़िया शराब देना । दुकानदार ने कहा हां बढ़िया देंगे । देखो, इतने बेहोश पड़े हैं, उनको देखकर तो विश्वास करो । इसी प्रकार इस संसार में इतने जीव मरे, किसके साथ क्या गया? सबका कल्पित सर्वस्व यहीं तो छूट गया । इन प्रतिदिन मरने वाले मृत शरीरों को देखकर अपने मन में कुछ ऐसी बात तो लाओ कि इन सबसे मोह हटे । ये सब पदार्थ स्वप्नवत् हैं । 746-जो जीवन शेष है उसका ही सदुपयोग कर लो—बीता समय स्वप्नवत् प्रतीत होता है । यह पूरा दिन बीतना बड़ा मुश्किल प्रतीत होता है । लेकिन बीते दिनों के बराबर ही हैं । जिस तरह से यह पिछला समय (मनुष्य की अभी तक की आयु) बीता, उसी तरह अवशिष्ट आयु भी समाप्त हो जानी है । अत: जितनी आयु बाकी बची है, उतने समय का तो सदुपयोग करो । ऐसा कोई प्रकार नहीं कि आत्मा अनात्म कृति को अपना सके । आत्मा अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से है, पर के चतुष्टय से नहीं है । अत: हे मोह में फंसे प्राणियों ! अनादि काल से चाटे गये इस मोह को तो छोड़ो । तुमने इस मोह को इतना चाटा कि इसका अंश तक भी मोह करने से शेष नहीं बचा । तीव्र आसक्ति में चाटना होता है । चाट की तरह से यह जीव मोह का अनादिकाल में स्वाद ले रहा है । यह जीव अनात्मा में तादात्म्य वृत्ति को नहीं कर सकता । पर पदार्थ में यह मैं हूँ, मैं यह हूँ, इस प्रकार से परपदार्थ और अपने में एकत्व बुद्धि ही मोह है ।इस बुद्धि से यह जीव अनादि काल से बद्ध है । 747-बंध की त्रिविधता—जीव का बंध तीन प्रकार से होता है—(1) भाव बंध, (2) द्रव्यबंध और (3) उभय बंध । जीव का रागादिक भावों में बंधना भावबंध है । जैसे सिनेमा के पर्दे पर मशीन के निरंतर चलने के कारण फोटो आते हैं । उसी प्रकार यह आत्मा मानो एक पर्दा है व कर्म मानो एक मशीन है । कर्म निरंतर अपना काम करते रहते हैं, उनका फोक्स आत्मा पर पड़ता है । चाहे आप स्वानुभव में हों, चाहे बड़ी भक्ति में हों, किंतु एक समय भी ऐसा नहीं जा सकता जो जीव में कर्म अपना काम न करें । अपना उपयोग पर पदार्थ में न लगे, उसे स्वानुभव कहते हैं । किसी न किसी हद तक कर्मों का परिणमन आत्मा में निरंतर चलता है । जो सम्यग्दृष्टि कर्मों के परिणमन की ओर उपयोग नहीं लगाता समझो वह मोक्ष के सही रास्ते पर चल रहा है, वह अपने कल्याण को करने में तत्पर हैं । जैसे आप आंख खोलते हुए किसी विचार में बैठे हुए हैं आपके सामने से कोई चीज निकली, फिर भी आपके उस चीज के जानने में आने पर भी पकड़ नहीं है । उसी प्रकार वह स्थिति स्वानुभव है, जहाँ आत्मा में रागादिकभाव उठ रहे हैं, फिर भी उन्हें उपयोग नहीं पकड़ता है । वही बंध में हीनता लाता है, ऐसी स्थिति में जो स्व का उपयोग है, उसे स्वानुभव कहते हैं । पहले से लगे हुए कर्मों में नये कर्मों का बंधना द्रव्य बंध कहलाता है । जीव का और कर्मों का एक क्षेत्रावगाह होना उभयबंध कहलाता है । जीव का और कर्म का जो उभयबंध छलता है, वह एक दूसरे की अपेक्षा से चलता है । द्रव्य और भावबंध में अशुद्धता है, उभयबंध में बंध है । जिसमें जीव और कर्म अपने गुणों से च्युत हो जायें, उसे उभयबंध कहते हैं । 748-वर्तमान विधेक लाभ ही का कारण—पूर्वकाल में बंधे हुए कर्मों का उदय होना वर्तमान दुःख का कारण है किंतु वर्तमान ज्ञान से कर्मफल में भी अंतर पड़ जाता है । कर्म न बंधे तो आगामी कर्मों का उदय भी नहीं होगा और दुःख भी नहीं होगा अभी हमारे में ऐसी ताकत नहीं कि कर्म बिल्कुल ही न बंधे । बंधेंगे तो अवश्य, हाँ अपनी ऐसी स्थिति बना लेवें कि कर्म कम बंधे, जो बंधे उनमें पुण्य का अधिक बंध होवे । इसका भी सच्चा उपाय कर्मदृष्टि नहीं है, किंतु स्वभाव का उपयोग है । पुण्य की आशा से कभी- पुण्यबंध नहीं होता । जो जीव पुण्य की आशा न रखकर मोक्ष मार्ग में प्रवृत्ति करता है, उसके अधिक पुण्यबंध होता है । भावों से पुण्य-पाप का बंध होता है । जीव की जैसी बाह्य प्रवृत्ति होती है, उस प्रवृति को लोग पुष्य, पाप और धर्म समझने लगे हैं । शरीरादि की प्रवृत्ति से न पुण्य होता, न धर्म होता और न पाप ही होता है । भावों से ही पुण्य-पाप व धर्म होते हैं । लेकिन जीवों ने प्रवृत्ति को ही पुण्य-पाप का कारण समझकर सुख-दुख का कारण समझ लिया है । जीव के परिणाम खराब नहीं होने चाहियें । परिणाम करना ही दुख-सुख का कारण है । हिंसा के यदि हमारे परिणाम नहीं हैं, चार हाथ आगे की भूमि देखकर चल रहे हैं, ऐसे में यदि अनजाने में हिंसा भी हो जाये, तब भी पाप बंध नहीं होता है । परिणाम जीव को मारने के हो गये, चाहे उससे हिंसा भी न हो पाये, लेकिन उसके परिणाम खराब हो जानें के कारण उसके हिंसा न करनेपर भी पाप का बंध हो चुका है । जैसे धवल सेठ ने श्रीपाल को मारने के लिये समुद्र में गिरवा दिया था । लेकिन श्रीपाल आयु शेष रहने के कारण मरा नहीं, प्रत्युत उसे राज्य प्राप्ति हुई । लेकिन धवल सेठ ने उसे मारने के परिणाम करके श्रीपाल को मारनेरूप पाप का बंध कर लिया । भावों के अनुसार पुण्य-पाप का बंध होता है, चाहे प्रवृत्ति होवे या न हो पाये । सारांश—भाव यह है, जैसे कर्म है, जीव ने अपने मन में बुरे परिणाम किये, लेकिन कर्म में उसी समय में बहुत से कर्म परमाणुओं का अपने आप लगना और स्थिति का विभाग होना तथा किस कर्म के लिये कितने कर्म परमाणुओं का बंध हुआ आदि, यह सब कार्य हुआ । कर्मों में डिग्रियां भी एक समय में बन जाती हैं । जीव ने तो केवल भाव बनाया, लेकिन कर्म में एक साथ इतनी खलबली मच गई और इतने कार्य एक साथ हो गये । जैसे आतिशबाजी में अनार में आग मात्र दिखाई जाती है, लेकिन उसमें छुर्र-छुर्र व आघात अपने आप बहुत देर तक होती रहती है । इसी प्रकार जीव तो भावमात्र बनाता है, कर्म में उसी समय अपने आप काम हो जाते हैं । 749-अपने आपको शुद्ध चैतन्यमात्र अनुभवो—जीव में ‘मैं पर्याय नहीं हूँ, मैं चैतन्य स्वरूप आत्मा हूँ, इस वृद्धि से जो अनुभव हुआ, सो हुआ, उससे कितने ही कर्म जो उदय में आने वाले थे और जो अधिक स्थिति वाले थे, उनकी कर्म स्थिति हो जाना आदि ऐसे अनेकानेक काम कर्मों में अपने आप एक समय में हो जाते हैं । स्वभावदृष्टि करने में कर्मों में बडी उथल-पुथल अपने आप हो जाती है, इस उथल-पुथल को हमें नहीं करना पड़ता है, हमने तो अपने चैतन्य स्वभावपर दृष्टि दी । पर्याय बुद्धि से इतनी हानियां हैं, जितने लाभ स्वभावदृष्टि में है । इस बचन की भी बडी करामात हैं । जरा अच्छा बोल बोल दो, तो सभी लोग तुम्हारा कार्य करने के लिये तत्पर रहेंगे इसी प्रकार जीव ने वस्तु के स्वभाव के अनुरूप अच्छा भाव बनाया तो कर्मों में उथल-पुथल मच जाती है । बुरे परिणाम किये तो कर्मों की सेना आकर जम जाती है । जैसे दर्पण को देखने समय आंख का प्रतिबिंब दर्पण में पड़ा, अत: प्रतिबिंबरूप कार्य के लिए आंख कारण है । दर्पण में जो आंख का प्रतिबिंब बना, उसे प्रतिबिंबरूप आंख का हमारी आंख कारण हैं और उस प्रतिबिंब द्वारा आँख देखने के लिये वही आंख कार्य है । यही आंख अपनी आंख को देखने के लिये कार्य कारण दोनों बनती हैं, तभी आंख देखी जा सकती है । वैसे ही इस जीव के नये द्रव्य कर्म के लिये रागादि कारण हैं, कर्म कार्य है और रागादि होने के लिये कर्म कारण है, रागादि कार्य है । जैसे दर्पण की आंख और आंख की आंख के कार्य कारण संबंध होने पर ही आँख की आंख देखी जा सकती है, अन्यथा नहीं । वैसे ही इस संसार का काम बनने के लिये द्रव्य कर्म और भाव कर्म कार्यकारण बनते हैं । इस प्रकार जीव और कर्म का कार्य कारण भाव बना । 750-तेरे स्वरूप के अलावा तेरा और क्या है—आत्मा अनात्मा के साथ एकमेक कभी नहीं ही सकता है । तब ऐसा मानना कि यह मेरा है, यह मेरा था, यह मेरा होगा, जीव को ऐसा भ्रम क्यों हो गया? बात यह है कि वह द्रव्य कर्म जीव के भावादि विकारों का कारण हैं । जीव के कर्म विकार कर्मबंध का कारण है । वे एक दूसरे के उपकारक हैं । जीव विकार और कर्म मित्र के समान हैं । इसने जब भेद डाल दिया जाये, तब काम बने । भेद भेदविज्ञान से पड़ सकता है । जीव में जो चिद् विकार आया, वह वैभाविक भाव हैं । जीव का विभाव के साथ और कर्म के साथ क्या संबंध है? जीव का विभावादि के साथ उपादान-उपादेय का संबंध है जीव विकार और कर्म यद्यपि बहुत भिन्न हैं, लेकिन फिर भी ये आपस में श्रंखलावत् मिले हुए हैं । जीव विकार निमित्त है, कर्म का बंध नैमित्तिक है, इनमें फूट डाल दो तभी ठीक रहेगा । वह द्रव्यकर्म उभय बंध के बिना जीव विकार में कारण नहीं है । जीवबंध और कर्मबंध दोनों उभयबंध कहलाते हैं । जहाँ पर बंध होता है, उनमें अशुद्धता अवश्य रहती है । जहाँ अशुद्धता होती है, वहाँ कर्मबंध हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता । परंतु अशुद्धता के बिना बंध हो नहीं सकता । जैसे एक पुरुष एक पुरुष से मोह करता है यदि उनमें से एक मोह न करे तो वह भी बंध नहीं कहलाया, और जहाँ दोनों ही मोह न करे तो मित्रता में अशुद्धता आ गई । जीव ने अभी तक अपनी पर्याय को ही माना कि यह ही मैं सब कुछ हूँ । मैं माता हूँ मैं उसका पिता या पुत्र या भाई या मित्र हूँ । इस प्रकार पर्याय पर दृष्टि देख क्यों इस मनुष्यभव को व्यर्थ गवाते हो? जीव सदा क्षणिक पर्याय से रमता रहा । वह अपने को माता-पिता-भाई-बहन-स्त्री-पुत्र-मित्र-नेता-त्यागी मानता रहा, इससे पर्याय बुद्धि हो ही जाती है । विभाव किसी का न किसी का आश्रय लेकर उत्पन्न होता है, अतएव गह जीव पर्यायबुद्धि करता हुआ अज्ञानी बना रहा। 751-अज्ञानी जीव की बाह्य पदार्थों को अपना समझने की बुद्धि—पुद्गल को—यह मेरा है, मेरा यह है, धन, मकान, स्त्री, पुत्रादि सब मेरे हैं । यह जीव बद्धाबद्ध पुद्गलों को अपना मानता रहा है । यह अज्ञानी अपने शरीर को निज और दूसरे के शरीर को अन्य जीव मानता है । वह सब पुद्गलों से ही मोह करता है । यदि वही शक्तिप्रयोग पुद्गल से हटाकर आत्मा से करे तो संहार संतति छिन्न हो जावे । आत्मा में रुचि होती तो आत्मा को जान लेते कि आत्मा चैतन्य स्वरूप है । यदि ऐसा बोध हो गया होता तो वह आत्मा दु:खों से निकल जाता । इसे पढ़ाओं, इसे न पढ़ाओं, यह मेरा पुत्र है—इत्यादि भाव न होते । संसार के ये मोही प्राणी बद्ध से तो मोह करते ही हैं, अबद्ध से भी करते हैं । अपना शरीर बद्ध पुद्गल है ।जो आत्मा के चलने पर साथ चले, उसे बद्ध पुद्गल कहते हैं । जो आत्मा के एक स्थान से दूसरे स्थान पर समय साथ न जाये उसे अबद्ध पुद्गल कहते हैं । जैसे स्त्री, पुत्र मकान, धन, संपत्ति, पुरुष आदि । यह अज्ञानी दोनों प्रकार के पुद्गलों को अपना मान रहा है । बद्ध को (अपने शरीर को अपना माने तो सदाशा के आधार पर कुछ माफी भी मिल सकती है, परंतु यह तो अबद्ध को भी अपना रहा है । यह तो बहुत बड़ा अपराध है, यह तो महा मूर्खता है । अज्ञानी बद्ध अबद्ध को अपना इसलिये मानता है कि उसने जीव की स्वतंत्र सत्ता का ज्ञान नहीं किया । 752-जीव का अपने आप में परिणमन करते हुए काल गमन है:—तुम्हारी शक्ति से तुम्हारे से बाह्यपदार्थ नहीं परिणम सकता । तुम्हें परिणमाने में बाह्य पदार्थ भी कार्यकारी नहीं हो सकता । जीव स्वार्थ और प्रतिष्ठा के लाभ के चक्कर में पड़कर मोह के फंदे में फंसता है । यदि स्वार्थ और प्रतिष्ठा का भाव न रहे तो कौन किसका क्या करेगा? पुत्र बूढ़े पिता की सेवा भी प्रतिष्ठा के लाभ से करता है कि यदि मैंने बुढ़ापे में पिता की सेवा न की तो लोग मुझे बुरा कहेंगे । कोई किसी के कहने से मानता नहीं है, यही वस्तु का स्वरूप है । कोई पदार्थ किसी का कुछ नहीं कर सकता है, क्योंकि जीव का अन्य पदार्थों से अत्यंताभाव है । जीव का लक्षण उपयोग है और पुद्गल का लक्षण उपयोग नहीं है तो फिर असमान धर्म वाले एक कैसे हो सकते हैं? पुद्गल और आत्मा एक हो ही नहीं सकते । पुद्गल का द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव पुद्गल में है, हमारा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव हमारे में है । हमारे द्रव्य क्षेत्रादि पुद्गल से बिल्कुल अलग हैं, कभी एक नहीं हो सकते । पुद्गल और जीव अत्यंत व्यतिरेकी हैं । कोई अन्य पदार्थ अपना नहीं हो सकता । मोह के बिना भी राग होता है । मोह का लक्षण है, एक दूसरे को एक मानना । मोह में मोही बेहोश हो जाता है । उसकी बुद्धि काम नहीं करती । राग में रागी व्यवस्थित चित्त रह सकता है । जहाँ स्व और पर की स्वतंत्रता की प्रतीति ही नहीं है, वह मोह है । मोह में राग भी प्रबल होता है । अप्रत्याख्यानावरण की गड़बड़ी छह महीने से अधिक नहीं चलती है । तब भी राग ने रामचंद्रजी को कितना सता डाला था । सम्यक्त्व-तेज अंदर प्रकट रहता है बाहर दिखाई नहीं पड़ता है । कोई गृहस्थ राग से ग्रस्त है या मोह से ग्रस्त है, इस विषय में निर्णय नहीं दिया जा सकता है । गृहस्थ स्वयं जान सकता है कि हम राग पूर्वक घर में रहते हैं या मोह पूर्वक । पुद्गल आत्मा नहीं हो सकता, आत्मा पुद्गल नहीं हो सकता है । अत: पुद्गल को अपना मत मानो । आत्मा अखंड है, अविकारा है, चैतन्य स्वरूप है । आत्मा कर्म से जुदा है आत्मा में कर्म आ गये और आ करके उसमें मिल गये । ऐसा उपचार से कहा जाता है । उस अद्वैत में भी द्विधा आ जाती है । अद्वैत माने-अखंड, जिसके विषय में कोई कल्पना की जा सके द्वैत:—द्वैत दो प्रकार का है—(1) अपने अंशों को बताना और (2) दूसरे जीव के अंशों को बताना । आत्मा चैतन्य स्वरूप है, यह भी द्वैत है । आत्मा में ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि गुण तथा अनंत शक्तियां हैं, यह भी द्वैत हैं । आत्मा-आत्मा-आत्मा मात्र कहना अद्वैत है । 753-द्वैत बुद्धि के अनेक स्वांग:—(1) स्वभाव और स्वभाववान् का द्वैत—जैसे जीव में चैतन्य स्वभाव । (2) गुण और गुण का द्वैत—जैसे जीव में ज्ञानदर्शनादि अनेक गुण हैं । (3) द्रव्य-पर्याय और द्रव्य का द्वैत—जैसे जीव की मनुष्य-देव-तिर्यंच-नरकादि पर्यायें । (4) गुण-पर्याय और द्रव्य का द्वैत—जैसे जीव में क्रोध, मान, मायादि कषाय हैं । (5) आत्मा और उपाधि का द्वैत—जैसे जीव में कर्म लगे हैं । सोपाधि अंश कल्पना गुण-पर्याय में हुई । आत्मा में असंख्यात प्रदेश हैं । यह स्वांश कल्पना है । जीव में चैतन्य स्वभाव है । यह स्वांश कल्पना है । जीव में रागादि हैं, यह उपाधि कल्पना है । इस प्रकार जीव की कल्पना में नाना द्वैत माना जाता है । एक साथ नाना प्रकार के बंधन की उपाधि लग रही है । आठों कर्म आत्मा में एक साथ लग रहे हैं । कर्म आत्मा में एक साथ उदय आ रहे हैं । उनके उदय के निमित्त से जो विभाव होता है, वह भी बात हो रही है । जैसे स्फटिक पत्थर में दाग लगाने से मलिनता आ जाती है । इसी प्रकार जिस जाति के कर्म होते हैं, उसी जाति के विभाव होते हैं । आत्मा और कर्म का मेल है । मेल के कारण यह जीव अनादिकाल से भ्रमण करता रहा है । यह मनुष्यभव विवेकपूर्ण पाया है जिसमें बोल सकते हो, समझ सकते हो पढ़ सकते हो, आज हम कितने विशिष्ट भव में हैं । ऐसा जान कर अपने स्वरूप को जानो । अपना स्वरूप पदार्थ के ज्ञान के बिना नहीं जाना जा सकता । अत: पदार्थ को जानकर अपने स्वरूप को पहिचानो, इसी में मनुष्यभव की सफलता है । 754-कर्म उपाधि का प्रसंग—शंका—आत्मा के साथ तुमने कर्म और उपाधि की बात बताई कि आत्मा सोपाधि है । उपाधि तो कल्पना है, वह कहां से लग गई? जैसे ज्ञान ने रस को जाना तो ज्ञान रसरूप तो नहीं हो गया? ज्ञान और रस का संबंध तो नहीं है । ज्ञान ज्ञान की जगह है और रस रस की जगह । उसी प्रकार आत्मा आत्मा की जगह है और कर्म का (स्वरूप) अलग है, दोनों मिलकर एक नहीं हो सकते । आत्मा के लिये कर्म उपाधि कैसे बन जायेंगे दोनों पास है तो संबंध भी ऐसी बात नियम की तो नहीं है । समाधान—आत्मा और कर्म एक साथ रहे हैं, इससे आत्मा का क्या बिगाड़? सिद्ध प्रभु की आत्मा के पास छहों द्रव्य ठसाठस भरे हैं, परंतु उनकी आत्मा का क्या बिगाड़ है? विकार, बंधन आदि यह तो निमित्त नैमित्तिक से होता है । देखो भैया ! सारी विभिन्नताओं का कारण कर्म है । ईश्वर तो एक उत्कृष्ट ज्ञान है । ईश्वर यदि वारण है तो सारी सृष्टि एक तरह की होनी चाहिये । ईश्वर यदि उपादान है तब भी सारी सृष्टि एक तरह की होनी चाहिये । यत: उपादान सदृशं कार्यम् । उपादान (ईश्वर) यदि एक है तो कार्य (सृष्टि) भी एक ही होना चाहिये । परंतु ऐसा नहीं होता है । अत: सृष्टि में ईश्वर कारण भी नहीं है, उपादान भी नहीं । पदार्थ का स्वभाव कारण हो-ऐसा भी नहीं है । स्वभाव अविनाशी है । जिस चीज का कारण स्वभाव हो, वह चीज अविनाशी हो जायेगी । अत: आत्मा से राग-द्वेष-मोह नहीं मिटना चाहिये, लेकिन मिट जाते हैं । आत्मा के नाना परिणामों का कारण बाह्य निमित्त अवश्य है । यदि कोई एक ही प्रकार का निमित्त मानोगे तो सारी चीजें एक ही तरह की बन जायेंगी । आत्मा के नाना परिणामों का कारण नाना निमित्तरूप बाह्य पदार्थ है, ऐसा मानना ही पड़ेगा । वह है नाना विधि कर्म । 755-करनी संभालो तो फल भी संभल गया—जैसा करते हो, उसका वैसा ही फल मिलता है । इसमें कोई विवाद नहीं है । लोग कहते हैं कि जैसा करोगे, उसका वैसा फल ईश्वर दे देता है । चाहे कोई भी फल देवे, लेकिन तुम्हारी करनी का फल तो तुम्हें मिलेगा ही । जैसी करनी करोगे, वैसा ही फल मिलेगा । जब करनी करना तुम्हारे कर्म में है; तो ऐसा कार्य मत करो, जिससे दुःख प्राप्ति हो । दु:ख का कारण हमारे विकल्प हैं । जैसे लोक में कहा करते हैं—हाय, हमें ऐसी चीज प्राप्त नहीं हुई, इसने ऐसा क्यों किया, ऐसा क्यों नहीं किया? इस प्रकार दुःख विचार बनाने से ही आये ना? यदि ऐसा विचार हो कि मैं अकेला हूँ, मैं अपना फल स्वयं भोगता हूँ । जैसा मैं करूंगा, वैसा ही फल मिलेगा । करनी अच्छी करूंगा तो सुख पाऊंगा, पर का विचार पराधीनता का भाव दुःख का कारण है । मेरे दुःख का कारण मेरे विचार है, अन्य कुछ नहीं । पर की चीज हमारे अधीन नहीं है अत: उसका विचार ही न करो । पर के विचार में आकुलता के सिवाय और क्या मिलेगा? मित्र का ख्याल करते हैं राग उत्पन्न होता है, शत्रु का ख्याल करने से द्वेष उत्पन्न हुआ-अतः दूसरे का ख्याल करना भी दुःख का ही कारण है । आत्मा में राग ही राग चलता रहे तो मिथ्यात्व का कारण है । आत्मा में राग हो रहा है, लेकिन वह रागी होना नहीं चाहता, वह सम्यग्दृष्टि है । विकल्प का नाम ही सुख दुःख है । अत: विकल्प ऐसे करो कि पर का चिंतन ही न हो । पराधीन भावों का लक्ष्य ही न हो । इसका उपाय स्व का चिंतन स्व का लक्ष्य बनाओ । 756-उपाधि तो है किंतु आत्मस्वभाव निरुपाधि है—कर्म के उदय के बिना रागादि नहीं होते । कम उदित होते हैं, तभी रागादिरूप परिणाम होते हैं । अत: इनका उपाधि संबंध माना गया है । हमारे, तुम्हारे, सबके अज्ञान हैं । गणधरों के औदायिक अज्ञान हैं । अज्ञान उपाधि हुई ना? मिथ्यादृष्टि भी रागी है । चौथे गुणस्थानवर्ती जीव भी रागी है । राग दसवें गुण स्थान तक होता है । अज्ञान और राग में कर्म हेतु है, कर्म का निमित्त पाकर अज्ञान और राग उत्पन्न होता है । कर्म के होने पर ही राग होता है, कर्म के न होने पर नहीं होता । संसारी जीव सोपाधि हैं और मुक्त जीव निरुपाधि हैं । आत्मा में जैसी उपाधि लगती है, आत्मा वैसी ही दिखने लगती है । आत्मा में उपाधि कैसे लगती है—इसकी अन्यत्र कहीं व्याख्या नहीं देखने में आई हैं । जैन सिद्धांत के आधे ग्रंथ कर्म सिद्धांत के वर्णन से पूरित हैं । आक्रांतावों की चेष्टा के निमित्त से जैन साहित्य काफी नष्ट हो चुका है, फिर भी ठोस की दृष्टि से अब भी सर्वाधिक साहित्य, जैन साहित्य है । उपाधि के बारे में कि जीव के साथ उपाधि कैसे लग गई, इसका विवरण यहाँ मिलेगा । 757-सबका अपने में अपनी शक्ति का परिणमन—समस्त द्रव्यों में अपनी-अपनी शक्ति का परिणमन होता है । जीव विभावरूप परिणमता है तो अपनी ही शक्ति का परिणमन कर रहा है, कर्म में बंध, उदय आदि अवस्थायें होती हैं तो कर्म अपनी ही शक्तियों के परिणमन करते हैं । एक के विभावपरिणमन में अन्य पदार्थ निमित्तमात्र हैं । देखो, जब जीव कषायभाव करता है तब कार्मणवर्गणायें स्वयं कर्मरूप परिणम जाते हैं और उनमें भी कितनी कार्मणवर्गणायें ज्ञानावरण कर्मरूप हों व कितनी कार्मण-वर्गणायें दर्शनावरण कर्मरूप हों इत्यादि कार्मणवर्गणावों का विभाव भी उसी समय स्वयं हो जाता है । उनमें भी अर्थात् एक समय में बद्ध कर्मवर्गणावों में भी कितने अबाधाकाल के बाद के समय में उदय आवें और कितने दूसरे तीसरे आदि समयों में उदय आवें ऐसी निषेक रचना भी उसी समय स्वयं हो जाती है । कहीं भी कभी भी एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का परिणमन नहीं करता । कोई उपाधि निमित्त हो तो जीव कैसा परिणमन कर जाय और कोई उपाधि न हो तो जीव कैसा परिणमन कर जाय यह सब जीव की शक्ति की ही कला है । निरुपाधि सिद्ध आत्मा है । सिद्ध आत्मा क्षायिक ज्ञान से युक्त, अबद्ध और निरुपाधि है । मतिज्ञान-श्रुतज्ञान-अवधिज्ञान-मन:पर्ययज्ञान ये चारों ज्ञान सोपाधि हैं, अतएव अशुद्ध हैं । जिस ज्ञान में जरा भी कम हो, वह सोपाधि कहलाता है । अत: ज्ञान परिपूर्णता से थोड़ा भी कम हो, अशुद्ध कहलाता है । परिपूर्ण ज्ञान शुद्ध है । 758-जीव का काम जीव में व कर्म का काम कर्म में—जीव जब कषाय करता है, तो जीव में एकक्षेत्रावगाह से रहने वाले विस्रसोपचय सात या आठ कर्मरूप बंध जाते हैं । इस जीव के कर्म सात हमेशा बंधते हैं । आयु बंधने का समय हो तो आठ कर्म बंधते हैं । जैसे किसी की आयु 81 वर्ष की है । 54 वर्ष की आयु होने पर कर्म-बंधेगे । 72 वर्ष की आयु होने पर, फिर 78 वर्ष की आयु होने पर, फिर 80 वर्ष की आयु हो जाये तब आठ कर्म बंधेंगे । इस तरह शेष का भी त्रिभाग करो । यह त्रिभाग 8 बार होता है । जितने कर्म बध जाते हैं, उनमें विभाग हो जाता है कि इतने कर्म दर्शनावरण के, इतने वेदनीय के आदि । जैसे तुम भोजन करते हो, तुम्हारा काम तो पेट में पहुँचाना है । इसकी चिंता न करो कि किसका, कितना, क्या, कैसे बनेगा । पेट में जाकर स्वयमेव विभाग हो जाता है, इतना खून बनेगा, इतना मल बनेगा आदि । इसी प्रकार तुम तो कषाय करलो, उसकी चिंता न करो कि किस कर्म की कितनी प्रकृतियों का बंध हुआ । इसके बाद कर्म में भी विभाग हो जाते हैं । जैसे ज्ञानावरण में 5 विभाग हो जाते हैं कि मतिज्ञानावरण की इतनी वर्गणायें, श्रुतज्ञानावरण की इतनी आदि । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि और मन:पर्यय के भी दो-दो विभाग हो जाते है—कुछ देशघाती प्रकृतियाँ और कुछ सर्वघाती प्रकृतियां ।केवल ज्ञानावरण में सर्वघाती प्रकृतियों का ही बंध होता है, देशघाती का नहीं । पाप-प्रकृतियां दूर-दूर तक बंधसी रहती है । सर्वघाती उसे कहते हैं कि जो सब कुछ मिटा दे । देशघाती उसे कहते हैं जो कुछ मिटावे, कुछ रहने देवे । केवल ज्ञानावरण का उदय हो तो केवलज्ञान बिल्कुल नहीं हो सकता । मनःपर्ययज्ञानावरण या मति-श्रुति-अवधि ज्ञानावरण के क्षयोपशम व उदय होने पर ये ज्ञान थोड़े-थोड़े रहते हैं । आत्मा में कर्म बंधते ही इतने कर्म एक साथ हो जाते हैं आत्मा में कर्म राग द्वेष है, यह अशुद्ध का वर्णन है । भेदरूप व्यवहार में आत्मा में केवल ज्ञान है यह कहना भी अशुद्ध का वर्णन कहलाया । आत्मा में ज्ञान-दर्शन-शक्ति आदि हैं, यह कहना भी अशुद्ध का वर्णन कहलाया । तव प्रश्न हो सकता है कि कैसा वर्णन करे कि शुद्ध का वर्णन कहलाये? उत्तर—कहते हैं कि केवल आत्मा को जानो, उसे कहो मत, विकल्पित करो मत, तब शुद्ध कहलायेगा । आत्मा में जोड़ करना या तोड़ करना, अशुद्ध का वर्णन है । जोड़ तोड़ से रहित अखंड वस्तु शुद्ध है । जोड़ के कहने में आध्यात्मिक अशुद्धता है । अशुद्धता दो प्रकार की है—सोपाधि अशुद्ध और निरुपाधि अशुद्ध । शुद्ध आत्मा किसे कहते हैं? शुद्ध आत्मा सिद्धों को नहीं कहा, मनुष्यों को शुद्ध आत्मा नहीं कहा, तिर्यंचों की आत्मा को शुद्ध आत्मा नहीं कहा, नारकियों की और देवों की आत्मा को शुद्ध आत्मा नहीं कहा । किसी को शुद्धआत्मा नहीं बताया । किंतु द्रव्य दृष्टि से सभी उनमें शुद्ध आत्मा है । सिद्ध पर्याय निरुपाधि अशुद्ध है, मनुष्य देव आदि पर्याय सोपाधि अशुद्ध है । आत्मद्रव्य निर्विकल्प शुद्ध है । 759-विवक्षाओं से सब निर्णय—आत्मा सोपाधि भी है, निरुपाधि भी । जीव के साथ दूसरी चीज न लगी हो तो जीवों की पर्यायगत विविधताएं कैसे शुद्ध हों? दूसरी चीज के संबंध के बिना आत्मा में राग द्वेष कलुषता हो जाये तो सिद्धों में भी राग-द्वेष आदि उत्पन्न हो जाना चाहिये । यदि जीव के साध सोपाधि और निरुपाधि भाव कारण न मानो तो जिनके बंध है, उनके बंध सदा ही बना रहेगा । बंधरहित अवस्था न रहे तो सारे जीव एक समान हो जायें, सिद्ध भी संसारियों के समान हो जायेंगे, कोई अंतर न रहेगा । शुद्ध आत्मा और अशुद्ध आत्मा का अंतर नहीं होना चाहिये । जैसे-अग्नि के बिना पानी गर्म होना चाहिये और विशिष्ट गर्म ठंडा नहीं होना चाहिये । विभाव पर्याय निमित्त करके होती है ।कोई कहे कि कर्म वगैरह कुछ निमित्त नहीं, स्वभाव से ही जीव ऐसा होता है; सो ठीक नहीं । कार्य से कारण का अनुमान होता है । राग के बंध की यदि कमी हो तो यह भी सिद्ध होता है कि जिसमें बिल्कुल भी बंध न हो वह सिद्ध आत्मा है । जिसके जैसी कमजोर उपाधि है, उसके वैसा ही कमजोर राग भी होता जाता है । जीव बंध सहित और बंध रहित दोनों प्रकार के पाये जाते हैं । जो समस्त पदार्थों को एक साथ जान ले, ऐसे अधिक ज्ञान वाला भी कोई अवश्य है । जीव के साथ में कोई अवश्य लगा हुआ है, तभी तो उसकी उल्टी गति होती है, क्योंकि जीव का स्वभाव स्वभावरूप परिणमने का है । जीव स्वभावरूप परिणत नहीं रहा है तो इसका कारण अन्य विजातीय द्रव्य का संसर्ग ही तो है । संसार के इन सभी जीवों में राग-द्वेष मोह करना और विकल्प करना पाया जाता है । राग-द्वेषादि संसार के कारण हैं । यदि जीव के साथ उपाधि न हो तो राग-द्वेष आदि नहीं दिखने चाहियें । जीव में विपरीतता पाया जाना संसार का कारण है । अत: सिद्ध है कि जीव सोपाधि है, बद्ध है । जीव के स्वभाव का स्वरूप अबद्ध है । शक्ति का लक्षण यदि बंध हो जाये तो जीव बद्ध ही रहेगा, कभी अबद्ध नहीं हो सकता । अत: सिद्ध है कि ज्ञान सोपाधि भी है ओर निरुपाधि भी है । सोपाधि ज्ञान अशुद्ध है और निरुपाधि शुद्ध ज्ञान है । उप+आधि=उपाधि—मानसिक दुःख के पास जो ले जाये उसे उपाधि कहते हैं । उपाधि मानसिक दुःख को प्राय: बढ़ाती है । मानसिक दुःख बड़े आदमियों के पास अधिक होते हैं । मानसिक दुःख के पास ले जाने वाले कर्म है । शंका—बद्धता और अशुद्धता में क्या अंतर है? समाधान—कार्य कारण के भेद से दोनों में भेद है । अशुद्धता में एक पर दृष्टि होती है, बद्धता मैं दो पर दृष्टि जाती है । ‘वद्ध’ माने बंधा हुआ । बंधा हुआ किन्हीं दो में अवश्य होता है । 760-बद्धता और अशुद्धता के चिन्ह—बंध कारण है और अशुद्धता कार्य है । बंध कारण न हो तो अशुद्धता नहीं हो सकती है । वह बंध कार्यरूप भी है । जीव अशुद्ध न होता तो नवीन कर्म कैसे बंधता? देखो भैया ! वास्तव में शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से जीव शुद्ध है तथापि व्यवहारनय की अपेक्षा से वही जीव अशुद्ध है । जीव को आध्यात्मिक दृष्टि से बद्ध और मुक्त कहने में भी अशुद्धता है । जीव न बद्ध है, न मुक्त है । जैसे किसी को कहें कि तुम अभी कैद में हो या कैद से छूट गये हो—इस प्रकार कहने से दोनों अवस्थाओं में ही जीव को बुरा मालूम पड़ता है । क्योंकि किसी को बंधा हुआ या छूटना बताना उसके लिये ‘‘गाली’’ है । जीव का स्वरूप बंध में या मोक्ष में नहीं है । उसका स्वरूप तो चैतन्यमय है ।जीव के निज स्वरूप पर, बंधन या मोक्ष मानने में दृष्टि नहीं जाती । चैतन्य आत्मा पर दृष्टि दो तो जीव का कल्याण हो जायेगा । जीव को न बद्ध मानो और न मुक्त मानो—ऐसे शुद्ध चैतन्यमय जीव पर दृष्टि देने से ही कल्याण होगा । केवल, भगवान की भक्ति से भी कल्याण नहीं होता है । हाँ पुण्य बंध अवश्य हो सकता है । संचित पुण्य के प्रताप से राजा, इंद्र आदि पद प्राप्त अवश्य कर लोगे । भक्ति से ब्रह्म में लीन होने के लिये उत्साह जग सकता है यह भी हो जायगा, परंतु भक्ति करते वक्त ब्रह्म में लीन नहीं हुए । भगवान की भक्ति करने से बुरी आकुलताएं घट जाती हैं । आत्मा तो स्वयं प्रभु है । यदि उस प्रभु आत्मा को लाखों की जायदाद मिल गई तो कौन बड़ी बात हो गई? उन लाखों में लग गये या उन्हीं का प्रभुत्व मान बैठे तो प्रभुता ही चली जायेगी । बड़े आदमी होने के कारण थोड़े से लोग तुम्हारे अनुकूल हो गये तो क्या बड़ी बात हुई? भाई ! यदि उसी में अटक गये तो अटके ही रहोगे । मनुष्यभव में बड़ी विशिष्टता है । यदि इस विशिष्टता को पाकर उपयोग न किया और आहार-निद्रा-भय-मेथुनादि में ही समय गंवा दिया तो आत्म-कल्याण से हाथ धो बैठोगे । मनुष्यभव के चले जानें पर चिरकाल तक हाथ मलते रहोगे । 761-द्रव्यशुद्धता—जीव शुद्ध है । अपने गुणों में तन्मय रहना, पर पदार्थ के द्रव्य क्षेत्र-काल-भाव से जुदा रहने का नाम शुद्धता है । सदा अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप पर दृष्टि डालना चाहिये । शुद्ध दो प्रकार के होते हैं—(1) द्रव्य शुद्ध और (2) पर्याय शुद्ध । द्रव्य से शुद्ध तो समस्त जीव हैं । अपने ही द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में रहने को द्रव्य शुद्ध कहते हैं । जो पर्याय से शुद्ध हो गया हो, उसे पर्याय शुद्ध कहते हैं ।पर्याय शुद्धि सिद्धों में है । निगोदिया जीव या संसारी जीवों में पर्याय की शुद्धता नहीं है । द्रव्य शुद्धि तो निगोदिया जीव में भी है । क्योंकि उसकी आत्मा अपने ही द्रव्य क्षेत्रकाल-भाव में है, पर के चतुष्टय में नहीं है एव पर्यायों का आधारभूत एक स्वभाव भी है । द्रव्य दृष्टि से सभी पदार्थ शुद्ध है । पर्याय शुद्धि अरहंत-सिद्ध में ही है, अन्य में नहीं । जगत के सारे जीव अपने स्वभाव से अकेले हैं । Pure माने केवल-अकेला । अकेला होना ही द्रव्य की शुद्धता है । किसी से भी प्रेम-मोह करलो, कभी भी दो मिलकर एक बन ही नहीं सकते । जैसे बच्चे खेलते रहते हैं । उनमें आते हैं, चले जाते हैं । उन्हें इसका कोई हर्षविषाद नहीं होता है । उनमें से कोई भी दो मिलकर एक नहीं होते हैं । जब तक साथ-साथ खेलते हैं पक्के दोस्त है । उसी प्रकार इस संसार में जीव आते हैं, मोही सबसे मोह करता है, लेकिन कोई कभी मिल करके एक होता देखा गया है? प्रयोजन यह है कि भाव बनाने में ही बद्धता और अशुद्धता है । यदि तुमने द्रव्य की शुद्धि जान ली तो निर्विकल्प बन जाओगे । संयोग होकर, मोह करके किसी से कोई लाभ नहीं होना है । आत्मा का हित संयोग में नहीं है । जिससे अहित होता है, उसके नष्ट होने पर भी दु:ख होता है । अहित कारक वस्तु मिले तो दुःख होता है, जाये तो दुःख होता है । न मिले और न जाये तो आनंद ही आनंद है । जीव का जैसा राग मोह है, उसको उतना ही दुःख है । दुःख देने कोई विलायत से नहीं आता, वह तो अपने ही भावों से मिलता है । शुद्धता की दृष्टि से प्रत्येक जीव द्रव्य शुद्ध है । दो के चक्कर में पड़ने से ही अशांति और आकुलता मिलती है । निर्द्वंद माने अकेला । अर्थात् जिससे किसी का संबंध नहीं है । जहा दो हैं, बहां दुःख है । जहाँ दो नहीं-वहां परमानंद है । शुद्धनय से जीव निर्विकल्प और निर्द्वंद है । जीव में राग है, केवल ज्ञान है यह भी शुद्धनय नहीं है । जीव में चैतन्य है यह भी शुद्धनय नहीं है । शुद्धनय तो वह कि जीव के स्वरूप को जान लो, कुछ कहो मत । नेति-नेति प्रतीति पूर्वक करने से शुद्धनय का विषय बनता है । शुद्धनय हा, कहे से नहीं जाना जाता । तत्त्व क्या है, ऐसा प्रश्न करनेपर तुम बोलकर उत्तर देते रहो, हम नेति-नेति कहते रहेंगे, वहाँ जानते हो तो शुद्धनय है । व्यवहारनय सद्वंद सविकल्प और अनेक है । शुद्धनय का विषय चिदात्मक शुद्ध जीव है । ‘‘है’’ बताओ ऐसा कि जिसमें जोड़ और तोड़ न हो । जीव चिदात्मक है, इसमें जोड़-तोड़ नहीं है, यह शुद्धनय का विषय है । जीव-अजीव-आस्रव-बंध-संवर-निर्जरा-मोक्ष-पुण्य और पाप व्यवहारनय के विषय है । भूतार्थनय से जाने गये सातों तत्त्व सम्यक्त्व के कारण हैं । भूतार्थनय पद्धति का अनुसरण न होने से इस अवस्था में जीव पर्याय की ओर झुकते हैं, अतएव बाह्य संपर्क में रचते हैं । ऐसे जीव अप्रतिबुद्ध है । अब इन अप्रतिबुद्धों के लिये आचार्यदेव यत्न करते हैं:—