वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 120
From जैनकोष
मैकाग्रय्यमेव कलयंति सदैव ये ते । रागादिमुक्तमनस: सततं भवंत: पश्यंति बंधविधुरं समयस्य सारम् ॥120॥
980- ज्ञानघन शुद्धात्मा का अवलंबन- हम आप सब ज्ञानस्वरूप पदार्थ हैं। ऐसा कोई पदार्थ है अंदर, जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं जो पकड़े से पकड़ा नहीं जा सकता छेदा नहीं जा सकता, बहाया नहीं जा सकता, आकाश की तरह अमूर्त, किंतु ज्ञानघन। जैसे कि घड़े में पानी भरा हुआ है तो वह पानी घन है याने उस पानी का जितना विस्तार है उसके भीतर कहीं भी एक सूत भी पानी नहीं रहे ऐसा नहीं है और इसी दृष्टांत के कारण पानी से भरा हुआ कलश कोई ला रहा हुआ दिख जाय तो उसे आप सगुन मान जाते हैं। जल से परिपूर्ण कलश का दिखना सगुन जो माना जा रहा है उसकी मूल बात यहाँ ये उठी। ज्ञानघन आत्मा को निहारना वास्तव में यह ही सगुन है, कहीं मिट्टी पानी सगुन नहीं या कोई आदमी , स्त्री सगुन नहीं है। अरे इस सगुन आत्मा का, ज्ञानघन का यह दृष्टांतरूप है। ताकि उसे देखकर झट ख्याल आये कि जैसे वह घडा अपने आपमें जल से ऐसा भरा है कि घनरूप है। घन उसे कहते हैं कि जिसके बीच में कहीं भी उस सारतत्त्व से रहित स्थान न हो। घन का अर्थ वजनदार नहीं किंतु जितनी उसकी बोडी है, अवगाहना है, पदार्थ जितने को ओकोपाई किए हुए हैं उस स्वक्षेत्र के अंदर रंचमात्र भी एक प्रदेश भी ऐसी जगह नहीं है जो उस स्वरूप को घेरे हुए नहीं हो, सो ऐसा जो होता है वह प्राय: वजनदार हो ही जाता है। ठोस लकड़ी जैसे कि कुछ सागौन की लकड़ी दिखती है। तो ठोस लकड़ी कौन। जिसके अंदर साररहित स्थान न हो, जो पोली न हो और कुछ साधारण एक फसफस जैसी स्थिति न हो तो वह वजनदार तो बन ही जायगी, मगर घन का अर्थ यह है कि उसके बीच में द्रव्यांतर न होना, अन्य स्वभाव न होना, असार बात न आना। तो यह आत्मा ज्ञानघन है, इस आत्मा के इन प्रदेशों में इस स्वपदार्थ में कहीं भी ज्ञान से रिक्त स्थान या प्रदेश नहीं होता। तो यह आत्मा अमूर्त है, ज्ञानघन है, और जो सहज है, स्वरूप है दर्शनज्ञानमय चैतन्यमात्र उसका ध्यान बने, दर्शन हो, लक्ष्य हो तो समझिये वह एक मोक्षमार्ग है, मोक्ष के अत्यंत निकट है वह जीव जिसका ज्ञान अपने सहज स्वरूप में बसा हुआ हो वहाँ वैसी स्थिति बन जाती है। विशेष स्थिति तो भयंकर हुआ करती है। जैसे कहीं भी बलबा मच गया तो इसको खबरों में कहते हैं कि अभी साधारण स्थिति नहीं हो सकी। साधारण स्थिति मायने शांत, संतोष आनंदमयी स्थिति, तो जब यह ज्ञान अपने सहज ज्ञानस्वभाव में उपयुक्त होता है तो वहाँ साधारण स्थिति बन जाती है। अर्थात् निर्विकल्प केवल ज्ञानस्वरस का ही अनुभव ऐसी आनंदमयी स्थिति होती है। बस उस स्वरूप को कहते हैं शुद्धनय। शुद्धनय का अर्थ तो है शुद्धतत्त्व को जानने वाला विकल्प। मगर शुद्धनय का जो विषयभूत है उसे भी शुद्धनय बोलते हैं। यह एक बोलने की भाषा है। तो इस शुद्ध अखंड तत्त्व का आश्रय करके जो स्वरूप में ही एकाग्रता लाते हैं वे ही समयसार का अनुभव करते हैं। 981- समयसारप्रयोगयोगपौरुषी के प्रायोगिक तीन पुरुषार्थ-
समयसार का प्रयोग बने, अंत: प्रकाशमान ज्ञानस्वभाव काउपयोग बने, इसके लिए और कितना पुरुषार्थ करना होगा? उन सब पुरुषार्थों में सबसे पहला पुरुषार्थ है कि सर्व जीवों में समता की दृष्टि आना। अगर आत्मा के उस विशुद्ध स्वरूप का उपयोग करना चाहते हैं तो जब तक यह स्थिति न बने- सर्व जीवों में समता आना, तब तक आत्मा के उस विशुद्धस्वरूप का उपयोग नहीं बन सकता। और, क्यों जी, जितने हम आप मनुष्य बैठे हैं, या जितने भी हैं उन सब मनुष्यों के अंदर यह मेरा यह गैर, यह अमुक यह तमुक, यों अगर भावना हो और ऐसी बात चित्त में संभावना भी हो सकती है क्या? कितनी तैयारी करना, कितना पुरुषार्थ करना कि हम अपने आपमें अंत:प्रकाशमान इस सहज ज्ञानस्वभाव का अनुभव कर सकते।इसका उद्यम करना है। अब धर्म के नाम पर किसी तत्त्व पर कितने ही पक्ष बनें और वहाँ मैं मैं, तेरा मेरा, ऐसी बात आये तो वह आत्मकल्याण का पात्र नहीं। पहला पौरुष तो यह है। दूसरा पौरुष यह करना कि अपने अपने प्रसंग में, अपने उपयोग में जो जीवन की जो उपयोगी बाह्य बातें हुआ करती है, जिनके कारण विकल्प मचा करते हैं उन समस्त पदार्थों को चेतन हो, अचेतन हो, अणुअणुमात्र समस्त पदार्थों का परपदार्थ जानकर और इनसे मेरा कोई संबंध नहीं, यह मेरा कोई रक्षक नहीं, ऐसी उन सब बातों को अपने लिए असार जानकर एक चित्त होकर अपने आपके स्वभाव के अभिमुख होना, यह उसका एक बहुत बड़ा पौरुष है। और बन सके ऐसा तो वह अनुभव करेगा, मगर बाधा क्या आती है कि अपने अंदर वासनायें पड़ी हुई है नाना तरह विषयों के उपयोग की अन्य–अन्य बातों की तो उन वासनाओं का परिहार करने के लिए अपना जीवन कैसा विशुद्ध होना चाहिए? वह त्यागमय, त्यागप्रधान, जितने से अपना काम चले वह तो ठीक है, मगर बाहरी ऊलमथूल साधन विकल्प न हो याने फंसाव न बने ऐसी अपनी बाहरी स्थिति होनी चाहिए। बस इसको बताता है चरणानुयोग।अभक्ष्य का त्याग, कम खाना, रात्रिभोजन का त्याग, और-और, जीवदया करना, इस तरह से जिनका चित्त सुवासित है वहाँ ये वासनायें परेशान न करेगी और हम अपने स्वभाव की अनुभूति में सफल हो जायेंगे। तो ये तीन तरह की बातें अगर हम कर सके, प्रयोग में ला सके तो किसी क्षण हम अपने उन स्वरूप का अनुभव पा लेंगे कि जिसके बाद यह निश्चय है कि नियम से मोक्ष होगा। संसार के जन्म मरण के संकटों से हम सदा के लिए निश्चय से छूट जायेंगे। कभी भी हम संसार से छूटें, निकटकाल में तीन बातें आयेंगी।
982- सर्वजीवों में साम्यभाव पुरुषार्थ की ज्ञानवृत्ति-
सर्व जीवों में आत्मस्वरूप को निरखना और उस स्वरूप की दृष्टि करके सर्व जीवों में समता का भाव आना यह बहुत बड़ा कठिन तपश्चरण है। जरा सी कोई प्रतिकूल बात निहारते हैं तो हम उसमें उद्विग्न हो जाते हैं, मगर यह जानें कि उसके प्रतिकूल जो यह चेष्टा है तो इससे आगे इसका क्या अपराध? इस आत्मा को क्या जरूरतपड़ी है? यह आत्मा तो सहज निरपराध चैतन्य स्वरूप है, पर कर्मविपाक की ऐसी छाया है कि उसमें ऐसी अटक चल रही है, पर यह मूलत: स्वभावत: निरपराध है। सर्व जीवों में समता की बुद्धि चाहिए। यह है मूलमार्ग, पर इसकी उपेक्षा करके कोई धर्म में बढ़ना चाहे कि हम प्रयोगात्मक कुछ लाभ पा लें तो वह कठिन है। तो स्वरूपदृष्टि का ऐसा दृढ़ अभ्यास बने कि सर्व जीवों को किसी को भी देखें तो पहले स्वरूप दिखे, पीछे गड़बड़ी दिखे। एक धुन ही तो होती है। जिसको जिसकी धुन होती है उसको वही सब दिखता है। एक खवास (नाई) बादशाह की हजामत बना रहा था। तो देखा होगा आपने कि खवास लोग बाल बनाते समय बातें बहुत किया करते, तो बादशाह से भी बहुत-बहुत बातें कर रहा था। बादशाह ने पूछा- खवास जी, सच बताओ हमारी नगरी की जनता सुखी है या दु:खी? तो खवास बोला- महाराज आपकी नगरी में सारी जनता सुखी है। घी दूध की तो बहुत नदियाँ बहती हैं। बादशाह ने समझ लिया कि सचमुच यह सुखी है, इसके पास घी दूध का अच्छा साधन है, तभी तो उसकी सारी जनता सुखी दिखाई देती है। पूछ बैठा बादशाह- बताओ तुम्हारे पास कितनी गाय भैंसे हैं? तो खवास बोला- महाराज हमारे पास सैकड़ों की संख्या में काफी-काफी गाय दूध देने वाली भैंसे हैं।...ठीक है। अब बादशाह ने क्या किया कि कुछ थोड़ा सा आरोप लगाकर उस खवास की सारी गाय भैंसे जब्त करवा ली। कुछ दिन बाद फिर वही खवास बादशाह की हजामत बनाने आया। वहाँ बादशाह ने पूछा- कहो खवास जी, हमारी नगरी की सारी जनता सुखी है या दु:खी? तो वहाँ खवास ने जवाब दिया महाराज- आपकी नगरी की सारी जनता बहुत दु:खी है।घी दूध के तो किसी को दर्शन भी नहीं होते। तो जिसके मन में जैसा है उसको वैसी बात बाहर में दिखती। अभी कोई बड़ा दु:खी हो, वह कहीं जा रहा हो, रास्ते में उसे कोई हंसते बोलते लोग दिख जायें तो वह तो यही सोचता कि ये सब बनावटी हँस रहे, अंदर सेदु:खी है। और ऐसी ही अगर कोई बड़ा खुश हो, उसे कोई दु:खी लोग दिखें तो वह सोचता कि ये लोग बनावटी दु:खी हो रहे, अंदर से ये सब खुश हैं। तो ऐसी ही बात सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष की है। ज्ञानी पुरुष को अपने सहज ज्ञानस्वरूप का ऐसा दृढ़ अभ्यास है कि उसको सब जीवों में उस सहज स्वरूप के सर्वप्रथम दर्शन होते हैं। बाद में जब चेष्टायें दिख रहीं, घटनायें दिख रही तो यह जंचेगा कि यह सर्व कर्मविपाक का फल है। तो सबसे पहली बात है सर्व जीवों में समता आना।
983- समयसारदर्शी का अनात्मत्वसन्न्यास- समयसारदर्शी का दूसरा पौरुष है अपने जीवन को एक त्यागमय बनाना। अगर त्याग करना बेकार और फोकट है तो बेकार और फोकट बात करने में क्यों कठिनाई महसूस की जा रही है? सबका एक निर्णय है कि जो बेकार है सो उसको धारण करने में भीतर कठिनाई महसूस नहीं होती है। वह क्यों होती हैं कि इंद्रिय के विषय भीतर से सता रहे हैं, वे छोड़े नहीं जा सक रहे तो फिर बाहरी थोड़ा त्याग कैसे बन सकता है? यह स्वभाव की अनुभूति की सही बात कह रहे हैं। कैसे अनुभव की पात्रता आती है। तीसरा पौरुष यह है कि जिन-जिन साधनों में हमें रहना पड़ता है, घर है, दूकान है, मील है, परिजन है, जो-जो भी साधन हैं उन सब साधनों में सबको एक बराबर, एक समान, एक साथ परतत्त्व जानकर यह मेरे आत्मा में क्या कर सकता है। मेरे इस ज्ञानस्वरूप आत्मा की ये कोई परिणति बना देंगे क्या? कुछ भी नहीं कर सकते हैं, तब उसके विकल्प करके मैं अपने में विकल्प क्यों करूँ और स्वानुभव का अवसर क्यों खोऊँ। एक ही साथ मेरे तो सबका त्याग है। मैं अपने इस सहज अंतस्तत्त्व को ही निरखूँ, ऐसा एक दृढ़ संकल्प बनाकर स्वभाव के अभिमुख हों तो वह वहाँ एक ऐसी साधारण स्थिति पा लेगा कि जिसमें क्लेश का काम नहीं, आनंद का सहज अनुभव है। ऐसा पुरुष समयसार का अनुभव कर सकता है। समयसार मायने आत्मा का विशुद्ध सहज निरपेक्षस्वरूप। 984- अंतस्तत्त्व के रुचिया की रागादिमुक्तमनस्कता- समयसार दर्शन की पात्रता तब आ पाती है तब सर्वजीवसाम्यभाव व सकलसन्न्यास प्रयोग में आ सके। कभी समयसार ग्रंथ हाथ में ले लिया, दो लकीर बाँच लिया, इतने से बात नहीं बनती या समयसार विवेचन करने वाले कुछ हर्ष दिखाकर, उछल कुंद कर वहाँ बाँचने लगे तो उनको उससे कहीं अनुभव नहीं होता। अपने में अगर सर्वजीव समता अनात्मत्वसन्न्यास व संयम प्रयोग में आ पाते हैं तो अनुभव हो, जिसको ज्ञानज्योति जग गई वह तो अकेला ही रहना चाहता है, अकेला ही निवास चाहता है। उसको बाहरी बातें सब कीचड़, विपत्ति, आफत जंचती है, क्योंकि सार कुछ है नहीं औरफंसाव बड़ा हो जाता है। यह उसके ध्यान में है। ज्ञानदृष्टि श्रावक के ध्यान में है कि परिजन, वैभव, अन्य–अन्य बातें, इनके संगप्रसंग में मेरे इस परमार्थ आत्मा का कोई भला नहीं है। जिसे वास्तविक भलाई कहते हैं और उसमें विघ्न बन रहा है। केवल एक ही तत्त्व इस ज्ञानी को रुचा है, दूसरी कोई बात नहीं रुची। उसको स्पष्ट बोध है कि घर में रहने वाले दो चार जीव स्वतंत्र सत्ता वाले हैं इसके ही भाव के अनुसार इसका कर्मबंध है, इसके ही उदय के अनुसार इसकी सांसारिक स्थिति है। इसके ही वीतराग परिणाम आये तो यह मोक्ष पायेगा। सब कुछ इसका इसके भाव पर ही निर्भर है, उसमें मेरा रंच भी दखल नहीं, ऐसे ही सब कुछ भवितव्य मेरा मेरे पर ही निर्भर है, मेरे भाव पर ही निर्भर है। यहाँ भी किसी का दखल नहीं।तब ऐसे ये सब पदार्थ स्वयं अपने आपमें नंगे-नंगे रहा करते हैं। जब ऐसे ये पदार्थ स्वयं अपने आपमें नंगे रहा करते हैं, तो मतलब नहीं किसी का किसी दूसरे से तो फिर वह जीव अपने आपको कर्मस्वभावरूप से बनाकर क्यों दु:खी होता है? यह ज्ञान अपने ज्ञान को ज्ञान स्वभावरूप से बनाकर क्यों नहीं सर्वसंकटों से मुक्त होता? उसकी दृष्टि में यह अपना शुद्ध सार तत्त्व आया है तो अब उसे बाहर में कुछ भी रुचिकर नहीं है। हाँ परिस्थितियाँ होती हैं ऐसी कि उन्हें करना पड़ता है, परमार्थ रुचि केवल अपने अंतस्तत्त्व में है। तो जो जीव इस शुद्धनय का, इस अंतस्तत्त्व का, किसका? जिसका कि उन्नत ज्ञान ही चिह्न है याने जिसको कोई रोक नहीं सकता ऐसा उद्वत ज्ञान वही जिसका लक्षण है, ऐसे शुद्धनय का सहारा लेकर जो एकाग्र मन से उसही का संग्रह करता है ज्ञान में लेता है वह पुरुष रागादिक से मुक्त मन वाला हो जाता है। 985- करणानुयोग व द्रव्यानुयोग में निरास्रवता बताने का विभिन्न वर्णन होने पर भी अविरोध-
देखो करणानुयोग की दृष्टि से याने वास्तविकता से ज्ञानी के भी और प्रमत्त अवस्था तक अधिक रूप से उसके संग चल रहे हैं अपने अपने भाव के अनुसार, तो भी मन रागादिक से मुक्त है। श्रद्धा में तो रागादिकरूप निराला ज्ञानस्वरूप ही मेरे लिए सर्वस्व है, इस कारण द्रव्यानुयोग में सम्यग्ज्ञान जगने पर भेदविज्ञान प्रकट होने पर यह ही वर्णन आता है कि ज्ञानी के रागादिक छूट गए। रागद्वेष अब असंभव हैं, इसलिए वे निराश्रव हैं। देखो करणानुयोग से द्रव्यानुयोग का विरोध नहीं। करणानुयोग तो सूक्ष्म और स्थूल, बुद्धि और अबुद्धिपूर्वक सब घटनाओं का वर्णन करता है। और द्रव्यानुयोग कुछ बुद्धिपूर्वक जो घटनायें हैं उनका वर्णन करता है और इतना काम ही बुद्धिपूर्वक बनता द्रव्यानुयोग से, शेष है अबुद्धिपूर्वक, पर इसकी बात क्या चलाना, वह तो अपने आप नष्ट होगा। हम ज्ञान को अपने स्वभाव की ओरले जायें तो बुद्धिपूर्वक हमने यह पुरुषार्थ किया और बुद्धिपूर्वक वहाँ आस्रव नहीं। तो रागादिक भावों से जिनका मन मुक्त है वे सतत ऐसे ही विविक्त होते हुए इस बधविधुर समय के सार को देखते हैं। वह अखंड तत्त्व, वह सहज ज्ञानस्वरूप, वह शक्तिरूप वह बंध से निराला है, वहाँ बंध का क्या काम?पदार्थ में जब सत्ता है तो सत्ता तो अपने आप है ना निरपेक्ष है ना? उस सत्त्व में क्या बंध पड़ा है, भले ही स्थिति है बंध की, स्थिति है राग की, मगर स्वरूप को देखें तो स्वरूप में बंध नहीं है। अगर स्वरूप ही बंध वाला हो तो मोक्ष की चर्चा करनी भी व्यर्थ है, क्योंकि स्वरूप कभी मिटता नहीं। सो बंध स्वरूप नहीं है। ऐसे बंध से विविक्त अंतस्तत्त्व के सार को वे पाते हैं। जिसकी जो श्रद्धा, जिनकी जहाँ लगन, जिसको जो समाया हुआ है सो कारणवश दूसरी बात में भी लगना पड रहा हो तो भी प्रतीति निरंतर है उसकी, जिसकी ओर लगन है और अवसर पाकर तुरंत ही उसकी ओर शीघ्र पहुंचता है। जैसे जिसको किसी इष्टवियोग की चोट लग गई हो, खाना उसे भी पड़ता है, व्यवहार भी उसे करना पड़ता, मगर धुन तो उस ही की लगी रहती है।
986- स्वभावानंद व भवभय के परिणाम का फल- बताया है कि जो साधुजन होते हैं प्रमत्त विरत गुणगान वाले उनको नींद, अधिक नहीं आती, अल्प निद्रा बतायी है। आप सोचते होंगे कि कारण क्या है जो उनको कम नींद आती। अच्छा तो साधुवों की बात छोड़ो, और की बात बताओ, जिसको नींद नहीं आती और कभी कभी तो रात भर भी नींद नहीं आती उनको क्या कारण है? तो उनको नींद दो कारणों से नहीं आती। एक तो किसी बात का भय हो या किसी बात की उमंग हो, देखो अगर उमंग हो तो भी रातभर नींद नहीं आती। कोई ऐसा ममता परिणाम हो जाय, कोई जैसे मान लो एम. पी. निर्वाचन में खड़ा है, आ गया रिजल्ट, हो गया निर्वाचन में सफल तो उसे उमंग के मारे रातभर नींद भी नहीं आती। और, चिंता, भय लग जाय तो उसमें भी नींद नहीं आती। यह ही बात मुनि महाराज की है। उनको भय इतना लगा कि उसके मारे उन्हें नींद नहीं आती। काहे का भय लगा है? संसार में रुलने का, इस जन्ममरण की परंपरा का, इस भवधारण करने की विपत्ति का उनको भय लगा है, यह कैसे मिटे, यह बड़ा खतरनाक है, और उमंग किसकी है? अपने आपमें सहज परमात्मतत्त्व के दर्शन हुए हैं और उसका एक अलौकिक आनंद पाया है तो उस आनंद के कारण इतना विभोर रहता है, इतनी उमंग रहती है कि उनका यह ही चाव रहता है कि मैं उस शुद्धनय के आश्रित होने वाला अद्भुत आनंद वही-वही मेरे वर्तो, प्रक्रिया वही, प्रयत्न वही, तो स्वभावदर्शन में तो उमंग और भव भ्रमण का भय, ये दो स्थितियाँ मुनिराज की हैं सो उनके भी नींद नहीं आती। चूँकि शरीर है तो झपक तो आ ही जाती है, तो ये दो बातें अपने में पैदा करें। शायद आप सोचते होंगे कि यह तो अच्छी बात बतायी कि जिससे हमको नींद भी न आये, आराम से सो भी नहीं सकते। अरे, थोड़ा उमंग बनावें तो सही अपने आपके स्वभावदर्शन की, फिर अनुपम सहज आनंद पावेंगे, नींद की क्या फिकर? 987- अंतस्तत्त्व की शरण गह कर दुर्लभ नरभव को सफल करने का संदेश- मेरा शरण केवल मेरा स्वरूप है, उसकी ओर मेरी बुद्धि हो, वही मेरा ज्ञान बना रहे, बाहरी विकल्पों में उलझे नहीं तोइसको आनंद यहाँ ही है। अन्यथा, यह बात अगर नहीं बन सकती तो यह न सोचो कि हम मनुष्य हो गए हैं सो जैसे कि लोग सोचते हैं कि मैं तो अब मरकर मनुष्य ही बनूँगा। यदि मरकर बन गए और कुछ, घटने का काम बने, तो...। अज्ञानी जीव की ऐसी स्थिति है कि यह घटे तो तुरंत निगोद हो सकता, एकेंद्रिय दोइंद्रिय आदिक हो सकता, अन्य जीव की बात तो ऐसी है कि उनमें कुछ नियंत्रण है कि ये ये ही बन सकेंगे और कुछ नहीं। जो देवगति के जीव हैं वे मनुष्य या तिर्यंच गति ही पा सकते हैं, नारकी और देव नहीं बन सकते। नरकगति में जीव मरकर मनुष्य या तिर्यंच ही बन सकते, नारकी या देव नहीं हो सकते। छोटे-मोटे सभी जीवों में ऐसा नियंत्रण है, मगर मनुष्यों के लिए कोई नियंत्रण नहीं है। एक मनुष्य सामान्य के लिए बात लीजिए। एकेंद्रिय से लेकर समस्त पंचेंद्रिय तक ये जन्म ले सकते हैं, नरक में, देवों में, चारों गतियों में। और, इनका बल बने तो ये मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं। यह सब मनुष्यों की बात कहा जा सकती। पंचमकाल के मनुष्यों पर ही दृष्टि नहीं है। आज यह दुर्लभ मानव जीवन पाया तो इस भव से मोक्ष नहीं बनता तो न सही मगर इसका पौरुष हम इस भव में भी बना सकते हैं, वह बना लें, फिर अपने आनंद का आनंद होगा। इन बाहरी बातों में, हठों में, इनमें पड करके अपने जीवन को व्यर्थ गमा देने में चतुराई नहीं है, चतुराई अपने आत्मकल्याण का काम बनाने में है।