वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 131
From जैनकोष
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥131॥
1041- भेदविज्ञान से ही सिद्धि की संभवता- जितने भी जीव, भव्य अंतरात्मा सिद्ध बने हैं वे इस भेदविज्ञान के बल से ही शुद्ध बने हैं, याने आत्मा और कर्मविपाक अर्थात् यह ज्ञान और कर्मप्रतिफलन इनमें भेद किया कि यह मैं नहीं हूँ, याने आत्मा और कर्म के एकत्व के आशय का छेदन कर दिया, मैं एक नहीं हूँ, मायने आत्मा और कर्म जो एकरूप बने यह मैं नहीं हूँ। कर्म कर्म हैं, आत्मा आत्मा है। तो जब यह आत्मा , यह अध्यवसान यह मिथ्याभाव दूर हुआ तो अब रागद्वेष भी उसके दूर होने लगे। किसमें राग करूँ? ये सदा मेरे से चिपके रह सकने वाले नहीं। मेरे राग और द्वेष का अभाव बनता है तो बस नहीं रहे कर्मों के आस्रव थे रागद्वेष, तो रागद्वेष जब दूर होंगे तो आस्रव न रहा। आस्रव न रहा तो कर्म भी न रहे। कर्म न रहेंगे तो शरीर कहाँ से मिलेगा, शरीर न मिलेगा तो संसार क्या फिर? फिर तो यहाँ से मुक्ति होगी, जिसमें सदैव अनाकुलता रहेगी। 1042- विपत्तियों का मूल शरीरात्मबुद्धि- मोटे रूप में पहिचान हो तो यों कह लीजिए कि सारी विपत्तियों की जड़ है शरीर में आत्मा का अनुभव करना, यह मैं हूँ। जब शरीर को माना कि यह मैं हूँ तो दूसरों के शरीर को माना कि ये अपने हैं देखो है तो यह अंतर? बाकी जितने मनुष्य दिख रहे ये सब मुझसे अन्य है, ये सब दूसरे हैं, ये सब गैर हैं। मगर इस अज्ञानी आत्मा ने इस नाते से गैर माना कि यह जो शरीर है सो मैं हूँ और यह जो शरीर है सो यह गैर है, आत्मस्वरूप का बोध करके इसको गैर नहीं माना, और उनमें भी जो नातेदार हैं, जिनसे नातेदारी है, जिनसे कुटुंब परिजन का संबंध है उन्हें कहते हैं कि यह मेरा है बाकी ये सब गैर हैं। उपयोग तो रहा इसमें कि हमारी नातेदारी है। नातेदारी का अर्थ क्या है? ना मायने नहीं, ते मायने तुम्हारे, दारी मायने संबंध, याने तुम्हारे संबंधी नहीं, ऐसा तो कह रहा है यह नातेदारी शब्द, और यह मानता है अपना संबंधी, उनसे अपना लगाव बना रहा कि इनसे हमारी नातेदारी है, उन्हें माना अपना, बाकी को नाता गैर, फिर जब शरीर को माना कि यह मैं हूँ सो शरीर की उत्पत्ति के जो निमित्त है पिता माता, उनको माना कि ये मेरे माता पिता है, इस शरीर के साथ उस उदर से तो शरीर और हुए उसे कहते हैं भाई बहिन। देखो शरीर का नाता है जितना यह संबंध माना जाता है सबमें, जहाँ भी नाता मिलेगा। इस शरीर को उत्पन्न करने वाले पिता के साथ जो उत्पन्न हुए हैं वे हैं चाचा, बुवा...इस शरीर को रमाने वाला जो शरीर है वह कहलाता है स्त्री अथवा पति। सारे संबंध शरीर के नाते से हैं। यहाँ इस आत्मा के नाते से कोई संबंध नहीं। 1043- भ्रम के आधार पर देह राग आदि का जीवन-
जब हमने शरीर का संबंध माना कियह मैं हूँ तो सारे भ्रम बढ़ गए। और यह शरीर का नाता छोड़ दिया जाय भीतर से तो ये सारे विकल्प बिखर जायेंगे। एक जंगल में स्याल था और उसकी स्यालनी। तो स्यालिनी के गर्भ था, बच्चे होने को थे तो उसनेकहा कि कौनसी जगह में बच्चे पैदा होने चाहिए? तो एक शेर की गुफा थी तो उसी में वह ले गया। उस समय वहाँ शेर था नहीं।स्यालिनी बोली इस शेर की गुफा में बच्चे कैसे रक्षित रह सकेंगे ? तो स्याल ने कहा कि देखो तुम कुछ चिंता न करो। हम सब काम बना लेंगे। तुम एक काम यह करना कि जब शेर यहाँ आवे तो बच्चों को रुला देना हम ऊपर से पूछेंगे कि ये बच्चे क्यों रोते हैं? तो तुम यही कहना कि ये बच्चे शेर का मांस खाने को मांगते हैं, बस इतना भर बोल देना, बाकी काम हम सब बना लेंगे।...ठीक है। स्यालिनी ने उस गुफा में बच्चों को जन्म दिया। जब शेर आया तो नीचे से स्यालिनी ने बच्चों को रुला दिया। ऊपर से स्याल ने पूछा ये बच्चे क्यों रोते हैं? तो स्यालिनी बोली ये बच्चे शेर का मांस खाने को माँगते हैं। तो यह बात सुनकर शेर काँप गया, सोचा- अरे मेरा माँस खाने को बच्चे माँगते तो मालूम होता कि यह जो गुफा के ऊपर बैठा है वहमेरे से भी बलवान है, यह सोचकर डरकर वह भग गया। इसी प्रकार दूसरा शेर आया वह भी डरकर भग गया। इसी प्रकार से अनेकों शेर आये और डरकर भाग जावें। एक बार सभी शेरों ने मिलकर सलाह किया कि देखो अपनी तो गुफा है और कैसा इस बादशाह का अधिकार हो गया है। इसे भगाने का कोई उपाय करना चाहिए। तो उपाय समझ में आ गया। सलाह हुई कि उसको किसी तरह से पकड़कर मार दिया जाय। अब मार भी कैसे सकें? शिखर काफी ऊँची थी। सलाह हुई अपन सब एक पर एक चढ़कर उसके पास तक पहुँच लेंगे और उसे पकड़कर मार देंगे। पर एक पर एक चढ़े कैसे? सलाह हुई कि अपन में से जो लँगड़ा शेर है वह ऊपर तो चढ़ नहीं सकता, वह तो रहे नीचे और बाकी शेर एक की पीठ पर एक चढ़चढ़कर उसके पास पहुँचकर पकड़ लेगा,...ठीक है। सो लँगड़ा शेर तो नीचे खड़ा हुआ और उसके ऊपर एक पर एक चढ़ते गये, जब स्याल के पास पहुँचने ही वाले थे कि स्यालिनी ने अपने बच्चों को रुला दिया। ऊपर से स्याल ने पूछा ये बच्चे क्यों रोते हैं? तो स्यालिनी बोली ये बच्चे लंगड़े शेर का माँस खाना चाहते हैं। अब यह बात सुनकर लँगड़ा शेर डरा और नीचे से खिसका तो बाकी शेर भदाभद नीचे गिरे और भगे। तो जैसे लंगड़े शेर के निकलने से शेष शेर दूर हो गए, गिर गए ऐसे ही इस लंगड़े भ्रम के दूर होने से रागद्वेष कर्मबंधन जन्म मरण के ये सारे संकट दूर हो जाते हैं। यह हम आपका भ्रम भी तो लँगड़ा है, इसके पाये नहीं जम रहे, क्योंकि जैसे दर्पण में आया हुआ जो फोटो है वह फोटो लँगड़ा है। वह दर्पण की चीज नहीं है। वहाँ जम नहीं सकता। वह जब तक सामने चीज है तब तक वहाँ प्रतिबिंब है। सामने चीज न रहे तो प्रतिबिंब भी न रहे, ऐसे ही ये विभाव ये सब लंगड़े भ्रम हैं। यह भ्रम समाप्त होवे तो सारे संकट भी समाप्त हो सकते हैं। तो यह भ्रम समाप्त कैसे हो? बस भेदविज्ञान से। भेदविज्ञान किया जाय तो सारी सिद्धि बनेगी।
1044- सिद्ध होने का मूल उपाय भेदविज्ञान-
जो-जो भी सिद्ध हुए तीर्थंकर, श्रीराम, हनुमान, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन आदिक, उन्होंने यह ही उपाय किया था कि आत्मस्वभाव और यह कर्मविपाक इन दोनों में अंतर करना और स्वभाव की ओर अभिमुख होना, इन विपाकों से उपेक्षा करना, ऐसा भेदविज्ञान जब किया तो प्रधानता से उपेक्षा हुई और शुद्ध आत्मतत्त्व की रुचि प्रगट हुई।यह ही हितरूप है, यह ही आनंदमय है। उसमें हितरूपता का विश्वास हो, यह ही कहलाया शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि। जहाँ अपने उपयोग में ऐसा सहज शुद्ध अंतस्तत्त्व आया कि इसमें से आस्रव दूर हो गए, सम्वर हो गया, निर्जरा हो रही, कर्मक्षय हो जायगा। तो सिद्ध होने का मूल उपाय तो भेदविज्ञान है। तो जितने भी अब तक सिद्ध हुए वे भेदविज्ञान से ही सिद्ध हुए। और, जितने अभी तक बंधे हुए पड़े हैं ये चारों गति के जीव जो भी बंधे हैं वे सब इस भेदविज्ञान के अभाव में ही बँधे हुए हैं- क्योंकि कर्म में स्नेह करने की प्रीति रही तो कर्म का आना बराबर जारी रहा। उसका विपाक आता, सो उसका फल चारों गतियों में भ्रमण होता है। तो यह भ्रमण दूर हो सकता है भेदविज्ञान से, इसलिए भेदविज्ञान के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए।