वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 2
From जैनकोष
अनंतधर्मणस्तत्त्वं पश्यंती प्रत्यगात्मन: ।
अनेकांतमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम् ।।2।।
60―अनेकांतमयी मूर्ति जिनवाणी का अभिनंदन―इसमें भावना की है कि अनेकांतमयी मूर्ति सदा प्रकाशमान रहो । अनेकांतमयी मूर्ति हुई सरस्वती जिनवाणी, वस्तु स्वरूप की वाणी, याने जिन वचनों में वस्तु का यथार्थ स्वरूप बताया है वे वचन सदा प्रकाशमान रहे, वह ज्ञान सदा प्रकाशमान रहे क्योंकि जगत के जीव उस ही का सहारा लेकर आगे बढ़ पाते हैं, यदि जिनेंद्र भगवान की वाणी न होती, वह परंपरा से आज भी प्रचलित न होती तो किस तरह वस्तु का स्वरूप पाते? जिनवाणी अलग से जिनेंद्र की वाणी निकली हो और उसके अनुसार फिर जगत की व्यवस्था बनायी जाती हो ऐसी प्रक्रिया नहीं है, किंतु पदार्थ में जो स्वरूप बसा हुआ है, उस ही स्वरूप का प्रतिपादन जिनवाणी में हुआ है, याने समस्त पदार्थों का, सही-सही स्वरूप, दशा, घटना, बात बतायी गई है जिनवाणी में, और वह सिद्ध की जा सकती है तो अनेकांत विधि से ही । कैसे? किसी भी पदार्थ को लो, उसके स्वरूप में सभी दार्शनिक विवाद कर रहै हैं । जीवद्रव्य है, कोई दार्शनिक कहते हैं कि नित्य अपरिणामी है, इसमें परिणमन नहीं होता । सदा कूटस्थ बना ही रहता है । तो कोई दार्शनिक कहता है कि यह जीव तो नया-नया ही नये-नये क्षण में उत्पन्न होता है, पहले तो था ही नहीं । जो हुआ सो नया हुआ । अब इन दोनों दार्शनिकों ने बहुत बड़ा अपराध तो यों नहीं किया कि उनको ऐसा दिखा और वस्तु में ऐसा पड़ा भी है, पर अपराध यह हो गया कि किसी अपेक्षा से वस्तु में यह है लेकिन उन्होंने सर्वथा मान लिया जैसे द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य है, वह बदलता नहीं है । द्रव्यदृष्टि है, वह ध्रौव्य स्वरूप को बतलाती है और पर्यायदृष्टि से निरखते हैं, तो नई-नई बात नये-नये क्षण में उत्पन्न होती रहती हैं, परवस्तु न केवल द्रव्य रूप है न केवल पर्याय रूप है, किंतु द्रव्यपर्यायात्मक है, बस इस भूल के कारण सभी अन्य दार्शनिक भटक गए । मूल की बात सम्हाल लें कि वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है, कहीं कोई गलती न हो सकती थी । जैनशासन का आधार यही तो है । प्रत्येक पदार्थ द्रव्यपर्यायात्मक है, यह बताया गया होता तो सब सही-सही बात चलती, जिसका आधार सही है उसका वर्णन सब सही हो जाता है, जिसका आधार गलत है उसका वर्णन गलत हो जाता है । तो यह अनेकांतमूर्ति आत्मा का प्रकट स्वरूप दिखा रही है । यह आत्मा अनंतधर्मात्मक, अखंड एक है उसमें अनंतधर्मात्मक है यह तो व्यवहारनय से जाना अर्थात् व्यवहार से उसे निरखा गया तो अनंत गुण से सहित है यह समझा गया । और जब उसकी एक निगाह में, परिपूर्ण वस्तु को अखंडरूप में देखा, निश्चय की पद्धति से देखा तो वह अखंड है, ऐसा स्पष्ट स्वरूप का भान इस अनेकांतमयी मूर्ति सरस्वती, जिनवाणी मायने तत्त्वज्ञान की उपासना से प्रकट हुआ, ऐसी अनेकांतमयी मूर्ति सदा प्रकाशमान हो ।
61―अनेकांतमयी मूर्ति सरस्वती का मूल स्रोत निर्दोष आप्त देव―यह निर्दोष जिनवाणी प्रकट कहाँ से हुई? यह कपोलकल्पित नहीं, किसी आचार्य के मन में आया और उस मन के द्वारा ही जो चित्त में आया सो कहा गया हो सो बात नहीं । एक तो वस्तुस्वरूप के अनुकूल व्याख्यान है सब आचार्यों का और यह परंपरा अरहंत प्रभु से हुई । अरहंत प्रभु क्या हैं कि कोई भी साधु जब अपने में अभेद अंतस्तत्त्व की साधना करता है और उस निराकार, निर्विकल्प, निरंजन, अलख, सहजात्मस्वरूप में अपने उपयोग को स्थिर करता है, यह ही मैं हूँ इस प्रकार अभेद रूप में जब परिणति बनती है तो चार घातियां कर्मों का विनाश होता है और वे अरहंत प्रभु हो जाते हैं । शरीर तो अभी है लेकिन केवलज्ञान हो गया सो शरीर में भी परिणमन हो गया निमित्त नैमित्तिक योग से । अब शरीर पहले जैसा अपवित्र नहीं, बुढ़ापा जैसा नहीं । मान लो किसी साधु के तपस्या के कारण हड्डी निकल आयी हों अथवा वृद्धावस्था के कारण शरीर की आकृति बदल गई हो, कैसी भी स्थिति हो, शरीर का आकार चाहे बौना हो, लंबा हो, अटपट हो, हुंडक संस्थान भी क्यों न हो, शरीर की कैसी ही आकृति बन गई हो, लेकिन केवलज्ञान होने पर ये सब दोष दूर हो जाते हैं और एक बहुत नवीनसा शरीर, पवित्र शरीर, निगोद जीवों से रहित शरीर, अशुचिता से पृथक् स्फटिकमणि के समान स्वच्छ कांतिमान शरीर हो जाता है । बताते हैं ना कि भगवान के शरीर की छाया नहीं पड़ती । जैसे अपन लोग धूप में जायें, तो अपने शरीर की छाया पड़ती है ऐसी छाया प्रभु के शरीर की नहीं पड़ती, इसका कारण क्या है कि शरीर स्वच्छ स्फटिक तुल्य हो गया । आपको स्फटिक में भी छाया न मिलेगी । जो वास्तविक स्फटिकमणि की मूर्ति हो उसे आप धूप में रख दीजिए तो उसकी छाया जमीन पर न पड़ेगी, ऐसे ही प्रभु के शरीर की छाया नहीं है । देखना, अभी शरीर है, केवलज्ञान हो गया, अभी चूँकि शरीर की चेष्टायें भी हैं, योग भी है, विहार होता है मगर मोहनीयकर्म नहीं रहा, इच्छा नहीं है, उनका विहार इस प्रकार होता है कि जैसे मेघ चलते हैं । मेघ क्या इच्छापूर्वक चलते हैं कि मैं इस दिशा में जाकर बरसूं ताकि इधर के लोग सुखी हो जायें? अरे यहाँ ऐसी कुछ इच्छा नहीं है, जिधर के लोगों का भाग्य है उधर को ही वायु से प्रेरित होकर मेघ पहुँच जाते हैं और जलवृष्टि कर देते हैं और बरसकर वहाँ सुख साता के कारण बन जाते हैं, ऐसे ही अरहंत भगवान ये इच्छा तो नहीं रखते कि मैं इस दिशा में पहुँच जाऊं और लोगों को उपदेश करूँ, ऐसी उनके इच्छा नहीं होती, क्योंकि घातिया कर्म दूर हो गए, वहाँ इच्छा का कोई प्रश्न नहीं, लेकिन जिन भव्य जीवों का भाग्य है और प्रभु का योग है उस तरफ पहुंच जाते हैं और इसी तरह दिव्यध्वनि खिरती है जो बिना इच्छा के खिरती है । केवलज्ञान के द्वारा जिसने सब कुछ जान लिया है ऐसे आत्मा का वहाँं संबंध है सो जो भी दिव्यध्वनि खिरती है उसका प्रमेय वस्तुस्वरूप के अनुरूप सिद्ध होता है । बस उस दिव्यध्वनि की परंपरा से यह समस्त जिन उपदेश अब तक अवच्छिन्न चला आया है ।
62―सरस्वतीज्ञानप्रवाह में निदेषिता की रक्षा―अनेकांत शासन परंपरा होने पर भी बीच-बीच में कभी कुछ कुबुद्धि जनों ने कुछ अंतर डाला भी होगा, मगर वह चल न सका । क्योंकि श्रोताजन भी तो कुछ बुद्धि रखते हैं । वीतरागता की ओर प्रेरणा देना, युक्तियों से सिद्ध होना, पूर्वापर मिलान किए हुए होना इन सब परिणामों द्वारा बस जिनोपदेश की मूल बात में जो कुछ कुबुद्धियों द्वारा गलती की गई हो वह दूर हो जाती है । तो ये प्रभु अरहंत, जिनकी दिव्यध्वनि की परंपरा से अब तक दिव्योपदेश मिल रहा है वे योगी थे, मायने यद्यपि वहाँ मन, वचन, काय का योग था, तथापि इच्छा न होने से वे योग से भिन्न थे । सयोगी होकर भी अयोगी थे, योगी थे । और, उनके स्वरूप के अनुरूप अनंत गुण जहाँ व्यक्त हो गए, केवलज्ञान जहाँ प्रकट हो गया उनके उस ज्ञान महासरोवर से मानों गंगा, सिंधु नदी की तरह यह दिव्यवाणी प्रवाहित हो उठी । जैसे भरत क्षेत्र में पहला पर्वत है हिमवान पर्वत, उस हिमवानपर्वत की गोद से जहाँ कि पद्य नाम का सरोवर है, वहाँ से गंगा और सिंधु नदी निकली, ऐसे ही मानो हिमवानपर्वत की तरह तो वह केवलज्ञानमय अरहंत प्रभु है, वहाँ से निर्मल गंगा की तरह एक प्रवाह होता है दिव्यध्वनि का । उसको झेला गणधर देव ने । क्या था उस ज्ञानप्रकाश में? अनंत नयात्मकता का प्रकाश था । सर्व दृष्टियों से वस्तुस्वरूप की ज्योति उसमें थी । वही सत्यस्वरूप है, उस ही को सिद्धांत कहते हैं जिसको ज्ञानीजन कुछ समझते हैं और अज्ञानीजन उसमें छिद्र देखते हैं । देखो अज्ञानियों द्वारा कल्पित छिद्र सिद्धांत में कुछ चलता नहीं है, यह स्पष्ट बात है, सत्य बात है, उसमें बना करके क्या दोष बनाया जायेगा? मगर जिनका दूषित अभिप्राय है वे इस बात की जबरदस्ती करते ही हैं । जैसा कि कुछ दार्शनिकों ने इस जैन सिद्धांत की अनेकांतमयी मूर्ति के विषय में यह कहकर निराकरण करना चाहा कि एक पदार्थ में अनेक पदार्थ असंभव है, “नैकस्मिन्नसंभवात्” इस तरह कहा, पर यह न देखा कि व्यवहार में भी एक में अनेक धर्म का परिचय किया जा रहा है, एक मनुष्य का परिचय करना है, हो रहा है परिचय, यह अमुक का पिता है, अमुक का पुत्र है, अमुक का मामा है, अमुक का साला है आदिक रूप से बहुत परिचय हो ही रहे हैं तो अपेक्षा से एक-एक धर्म की बात सिद्ध होती है और चूंकि जब निरपेक्ष होकर देखा जा रहा हो तो वहाँ कोई भी एक धर्म विदित नहीं होता, किंतु अखंड परिपूर्ण वस्तु उनके ज्ञान में रहती है । स्याद्वाद का सहारा लिए बिना तो हम वस्तु के स्वरूप में प्रवेश ही नहीं कर सकते ।
63―दार्शनिकों में अनेकांतमयी वृत्ति सरस्वती के उपासकों की बहुलता―भैया ! भली प्रकार में इसको समझें जो कि स्पष्ट हैं । चैतन्य का स्वरूप बताया है―उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । जो उत्पाद व्यय ध्रौव्य से युक्त हो वह है पदार्थ । याने कोई भी पदार्थ है तो प्रतिसमय उसकी अवस्था बनती है, प्रतिसमय उसकी पूर्व अवस्था विलीन होती है और उसका सहज स्वरूप सदा रहा करता है, इस बात में कोई दो राय हो सकतीं है क्या? सभी कबूल करेंगे । निषेध करने वाले भी कबूल करते हैं । जैसे यहाँ कई हठी लोग मिल जाते हैं कि उनका दिल तो कह देता है कि हम गलत कर रहे मगर उस हठ पर चलते हैं, तो ऐसे ही दार्शनिकों की हठ होती है, जिस हठ पर चलते हैं उसमें सार नहीं जचता उन्हें, तिस पर भी कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं, जन्मजात संस्कार ऐसे होते कि जिस कुल में उत्पन्न हुए उस कुल में जो धर्म मिला है, संप्रदाय मिला है उसका संस्कार होता कि दिल नहीं चाह रहा, नहीं समझ रहा फिर भी हठ किये जा रहे हैं । जिसे कल्याण चाहिए उसे शुद्ध आत्मा का नाता रखकर सुनना चाहिए, किसी भी धर्म का, मजहब का, संप्रदाय का हो, उसकी क्या पोजीशन है यह सब बात अलग करके सब एक आत्मत्व के नाते से निर्णय बनाया जायेगा तो उसे ही सही निर्णय मिलेगा । यह सब उपकार किसका है? इस अनेकांतमयी मूर्ति सरस्वती देवी का । यह कोई देवगति का जीव नहीं है । देवी कहने का तो रिवाज है । जो श्रेष्ठ हो, विशिष्ट हो और स्त्रीलिंग का शब्द हो तो उसके साथ देवी शब्द का प्रयोग किया जाता है । “जिनवचनी” कहा हो उसके साथ देवी न लगेगी । तो देवी और देव का मतलब नहीं है, यह है एक जिनेंद्र भगवान का वचन, जिसमें कि ज्ञान बसा हुआ है । जिसके माध्यम से हम वस्तु के सही ज्ञान तक पहुंचते हैं, उस ज्ञान को उस विद्या को सरस्वती के रूप में स्मरण किया है, और यह सदा प्रकाशमान रहे ऐसा कहकर भीतरी भाव पूर्वक नमस्कार किया है ।
64―सरस्वती की मूर्ति में तात्त्विक मर्मों का निर्देश―इसको सरस्वती क्यों कहने लगे है ? तो जिनेंद्र भगवान की वाणी, जिसमें कि वस्तुस्वरूप का ज्ञान बताया गया, इसे सरस्वती क्यों कहा गया? तो सरस्वती का अर्थ है―सर: वत् प्रसरणं यस्या: सा सरस्वती । सर कहते हैं फैलाव को । लोग तो तालाब का नाम सर बताते हुए हिंदी में, किंतु संस्कृत में है सकारांत शब्द, सर तो इस तालाब को बहुत फैले हुए जलपुंज को क्यों सर कहने लगे कि इसका फैलाव बहुत है । तो सर: शब्द का शुद्ध अर्थ है फैलाव, पर यहाँ देखें जिनवाणी का फैलाव कितना है । यह ज्ञान द्वारा समझ सकते । जिसके द्वारा मिले हुए ज्ञान से तीन लोक और अलोक को हमने जाना तो फैलाव तो बहुत बड़ा हुआ ना? तो फैलाव बड़ा है इस कारण से इसका नाम सरस्वती है । अब चूंकि सरस्वती शब्द स्त्रीलिंग है और उसके साथ देवी शब्द का प्रयोग किया जाने लगा तो अब उसकी असलियत को तो भूल गए कुछ लोग और एक देवी का आकार समझने लगे, जैसे कि लोग सरस्वती देवी का रूप बनाते हैं, हंस पर बैठी हुई, चारों हाथ निकले हैं, विकसित कमल पर बैठी हुई है, हंस पास में बैठा है, एक हाथ में पुस्तक है, एक में वीणा, एक में माला और एक में शंख है । एक ऐसी मुद्रा लोग बनाने लगे, और उस मुद्रा को देखकर लोग ऐसा सोचने लगे कि हाँ है कोई ऐसी देवी, और उसकी आराधना करने के लिये यह सोचकर कि उसकी आराधना करने से सब संपत्ति प्राप्त होगी, पर वह देवी वह सरस्वती कोई व्यंतर जाति की नहीं है, भले ही किसी का नाम सरस्वती धरा हो तो कहीं नाम धर देने मात्र से वह देवी नहीं हो गई । यहाँ भी तो लोग किसी का नाम पार्श्वनाथ धर देते तो उससे कहीं वह व्यक्ति पार्श्वनाथ भगवान तो नहीं बन गया, तो ऐसे ही सरस्वती नाम की कोई देवी नहीं है, यह तो एक जिनेंद्र भगवान के वचन का नाम धरा गया है सरस्वती, तब इस तरह की मूर्ति जब बनायी जाने लगी प्रथम ही प्रथम, तब तक वहाँ बिगाड़ न हुआ होगा ।
65―सरस्वती की मूर्ति में आराधना के प्रकारों का निर्देश―सरस्वतीदेवी की आराधना कैसे की जाये, इसकी आराधना कौन करता है, तो उन उपायों और साधकों की बात एक इस मुद्रा में दिखाई गई । सरस्वती की उपासना कौन करता है? निर्मल हंस । हंस तो जीव को भी बोलते हैं, किसी के मर जाने पर लोग कहते ना कि हंसा उड़ गया । तो मायने निर्मल जीव, भव्य जीव, वह है सरस्वती का उपासक । सरस्वती याने जिनवाणी, इस तत्त्वज्ञान की ओर उसकी दृष्टि रहती है और वह सरस्वती कमल पर विराजमान है । कमल कहते हैं हृदय को । तो वह हृदय में विराजमान है । बुद्धि से वह ग्रहण में आता है । उसके हैं चार हाथ । तो पहले, हाथों का भी अर्थ समझ लीजिए―प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग ये उसके चार हाथ हैं । इनका कोई अध्ययन करे, ज्ञान करे तो अपने ज्ञान का फैलाव बना सकता है । और हाथों में जो चीजें रख दी गई हैं उनका मतलब समझ में यह आता है कि माला तो है भगवान का जाप ध्यान, चिंतन आदि करने का प्रतीक, पुस्तक है अध्ययन करने का प्रतीक, शंख है ज्ञान की एक अनहद ध्वनि की मुद्रा और वीणा है एक संगीत का प्रतीक । देखो प्रभुभक्ति में अथवा आत्मभक्ति में विशेषतया उतरने का साधन एक संगीत भी तो है । तो उपाय और साधकों की बात उस मूर्ति में बतायी गई, पर धीरे-धीरे लोग इस तथ्य से दूर हुए तो एक सीधा यही जाना कि कोई सरस्वती देवी है । मगर वह सरस्वती देवी क्या है? एक अनेकांतमयी मूर्ति । अपेक्षा से पदार्थ के स्वरूप का कथन होता है । ऐसे इस स्याद्वाद के द्वारा अनेक जीवों ने आत्मज्ञान पाया और इस ज्ञान में बढ़े, निःसंग हुए, निष्परिग्रह हुए, निर्विकल्प हुए, अपने आपमें अपने आपका विशिष्ट ध्यान बना, जिसके प्रसाद से वे अकलंक हुए, सिद्ध भगवान हुए और सदा के लिए इस संसार संकटों से छूट गए । अब उनके न जन्म है न मरण । सब दोषों से अतीत हैं, तो अब समझो कि पूर्ण कल्याणमयी दशा प्राप्त होने में हमको प्रारंभिक आलंबन अनेकांतमयी मूर्ति से मिला, इसी कारण से बहुत प्रसन्न होकर सब जीवों पर भी, एक कल्याण की भावना रखकर कहा गया कि ऐसी अनेकांतमयी मूर्ति नित्य ही प्रकाशमान होवो,