वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 4
From जैनकोष
उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदांके, जिनवचसि रमंते ये स्वयं वांतमोहा: ।
सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै-रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षंत एव ॥4॥
76―परमशरण समयसार के दर्शन के पात्र―अपने ज्ञान द्वारा किस तत्त्व को देखना जिससे कि कल्याण हो जाये? जगत में कोई भी पदार्थ आश्रय योग्य नहीं है । धन, वैभव, मकान, पुत्र, मित्र, परिवार, इज्जत ये सब इस जीव के कल्याण के लिये नहीं हैं, विनाशीक हैं, अल्प हैं, इनसे इस आत्मा का संबंध नहीं है, यह आत्मा कल्पन करके उनमें रमता है । तो बाहर में तो कोई पदार्थ आश्रय लेने योग्य नहीं है । अब अंदर में देखो अपने आपमें यह जीवात्मा, इसके साथ देह लगा वह भी भिन्न है । वह भी दृष्टि देने योग्य नहीं, याने आराधना के योग्य नहीं । जीव के साथ कर्म लगे वे भी भिन्न हैं, वे भी आराधना के योग्य नहीं, और जीव में रागादिक भाव होते हैं वे औपाधिक विभाव हैं, वे भी जीव की आराधना के योग्य नहीं, जो विचार वितर्क उठते हैं वे भी औपाधिक हैं । फिर जीव में आराधना योग्य क्या चीज हैं? जीव का निज सहज स्वरूप याने यह जीव अपने आपमें सत्त्व के कारण सहज जैसा हो उस रूप में अपने को आराधना चाहिए कि मैं जैसा हूँ, वह है सहज चैतन्य स्वरूप । इसी को कहते हैं समयसार । कौन प्राणी इस समयसार का दर्शन करते हैं । जो मोह को त्यागकर जिनेंद्र भगवान के वचनों में रमते हैं वे ही इस समयसार के दर्शन करते हैं । जिनेंद्र भगवान के वचनों में रमने का अर्थ है, जिनेंद्र देव के वचनों का जो अर्थ है, जो तत्त्व है, जो मर्म है उसमें लगें, उसमें रमण करें । उसकी विधि ही यह है कि मोह का वमन करके रमण करें ।
77―मोहवमन करके ही तत्त्वरमण द्वारा समयसार ईक्षण की विधि―एक उपयोग में दो बातें न समा सकेंगी कि मोह भी किये जावें और मोक्षमार्ग में भी लगे रहें । जहाँ मोह है वहाँ मोक्षमार्ग नहीं और जहाँ मोक्षमार्ग है वहाँ मोह नहीं । राग भले ही रहा आये, पर मोह नहीं रहता । राग और मोह में क्या अंतर है? राग तो कहते हैं प्रीति को और मोह कहते हैं एकमेक मानने को । जिस घर में रहते, परिस्थिति है? स्त्री से बोलना होगा, पुत्रों से बोलना होगा, नौकरों से बोलना होगा, प्रेम का व्यवहार रखना होगा, उसके बिना तो गृहस्थी न चलेगी । यह सब करते हुए जो मानते हैं कि मैं एक ही हूँ, जो स्त्री है सो ही मैं हूँ, मेरे ही हैं और कुछ नहीं हैं उनमें पार्थक्य नहीं समझ पाते, भेद नहीं समझ पाते, वह तो है मोह और जो भेद जानता है―ये जीव जुदे, मैं जीव जुदा, इनके साथ इनके कर्म, मेरे साथ मेरी बात ऐसा जुदा-जुदा जो जानता है और फिर भी राग करना पड़ता है तो, उसके मोह नहीं है और राग है । तो मोह का वमन करने की बात यहाँ कही । और, देखो मोह के त्यागने में पुरुषार्थ काम देगा । एक क्षण में मोह को मिटा दो । वस्तु का सही स्वरूप समझें, तत्त्वज्ञान जगे तो तुरंत मोह मिटेगा । मगर राग के लिए तुरंत मिटाने की ऐसी बात नहीं मिल पाती । मिटता तो है, जल्दी मिटता है, पर जरा कुछ समय पाकर मिटता है । तो मोह वमन करो । निज को निज पर को पर जान । पर को निज मत समझ लो, स्वपर में एकत्व बुद्धि न हो, बस निराकुलता की बात आये । तो ऐसा मोह वमन करके फिर जिनेंद्र भगवान के वचनों में जो रमे, जिनेंद्र देव ने जो बताया है उस विधि से जो तत्त्व की परख करें उसको समयसार का दर्शन होगा ।
78―जिनवचनों की उभयनय विरोधवंसिता―जैसे आत्मा के ही बारे में जिनवाणी में क्या बताया है कि यह आत्मा निश्चयनय से तो एक अखंड अद्वैत है, निश्चयनय से आत्मा का वह स्वभाव समझा गया जो अखंड है और व्यवहारनय से आत्मा के भेद, यह ज्ञानी है, दर्शनवान है, चारित्रवान है । अब दो बातें लगती हैं ना विरुद्ध सी कि एक तो अखंड कह देना और एक को खंड-खंड बता देना, इसमें विरोध जचता है, पर विरोध नहीं । इस विरोध को नष्ट करने वाला जिनवचन है, स्याद्वाद है, नय प्रणाली है । शुद्ध निश्चय से अखंड और व्यवहारनय से खंड-खंड । एक ही वस्तु में नय के भेद से, नय की अपेक्षा से उसमें विरोध नहीं रहता । जैसे कोई एक पुरुष है, उसकी पहिचान हो रही है, एक व्यक्ति कहता है कि यह पिता है और एक व्यक्ति कहता है कि यह पुत्र है । तो जो पिता है वह पुत्र कैसे हो सकता? सुनने में तो विरोध है मगर अपेक्षा से दोनों बातें ठीक बन जाती हैं । वह इसके पिता की अपेक्षा से पुत्र है और इसके पुत्र की अपेक्षा से पिता है । दोनों नयों के विरोध का ध्वंस करने वाला यह जिनवचन है । नय के विरोध से तो संसार में घूमना फल है और नय को अविरोध रूप से समझने का मोक्षमार्ग फल है । जितने नय से हम बात समझते हैं उतने नयों को अन्य दार्शनिकों ने माना नहीं क्या? माना है, पर विरोध करके एक-एक नय को माना है । यहाँ एक ही वस्तु में अनंत धर्म की सिद्धि होती है नय की अपेक्षा से । तो ऐसे नय के द्वारा जो वचन होते हैं उन वचनों में जो रमते हैं वे मोक्षमार्ग पाते हैं ।
79―जिनवचनों की पहिचान स्यात्पदांकितता―यह कैसा है, जिन वचन के स्यात् पद करके चिह्नित है । स्यात् के मायने शायद यह अर्थ न लगाना । स्यात् मायने अपेक्षा से । जैसे कहते हैं ना―जीव स्यात् अस्ति एव, स्यात्, नास्ति एव । इस तरह से स्याद्वाद चलता है । 3 शब्द हैं स्यात् अस्ति और एव । अपेक्षा से है ही, अपेक्षा से नहीं ही हैं, अपेक्षा से नित्य ही है । अपेक्षा से अनित्य ही है । यह जीव द्रव्यदृष्टि से नित्य ही है, पर्याय दृष्टि से अनित्य ही है, लेकिन आजकल अनेकांत के समझने को बहुत सुगम पद्धति बनाया तो है मगर वह उचित नहीं है । क्या बनाया है? क्या है? भी लगाते जाओ, जीव नित्य भी है, अनित्य भी है । बात इसमें आ तो जाती है हेरफेर के साथ । एक मन को समझा लो, मगर यह शब्दप्रणाली हमारे आगम में दी नहीं है । आचार्यों के जितने भी शास्त्र देखेंगे वहाँ ‘भी’ लगाकर न होगा । ‘ही’ लगाकर होगा । निश्चय बताकर होगा, पर ‘ही’ कैसे सही बैठेगा? अपेक्षा साथ लगे उससे सही बैठेगा । यदि अपेक्षा साथ न हो तो उसके मायने सर्वथा हुआ सो उसके साथ “ही” का विरोध है । अरे क्यों जी अपेक्षा लगाया और उसके साथ भी लगाया तो कैसा रहेगा? गलत रहेगा । जैसे एक दृष्टांत देते हैं उससे आप समझ लेंगे कि अपेक्षा लगाकर ‘भी’ लगाने में कितनी विकट लड़ाई की बात हो जाती है । कोई तीन व्यक्ति लो―बाबा, बाप और बेटा, मान लो उनके क्रमश: नाम हैं―सुरेश, नरेश और महेश । सुरेश तो बाबा है, नरेश सुरेश का बेटा है और महेश नरेश का बेटा है, इनमें मान लो नरेश की पहिचान करना है तो यही तो कहा जायेगा कि नरेश महेश का पिता ही है । कोई ऐसा तो न कह देगा कि नरेश महेश का पिता भी है । इसका तो अर्थ हो गया कि नरेश महेश का और कुछ भी होगा, पुत्र भी होगा, तो इसमें लड़ाई मच जाती है । मान लो नरेश को किसी ने कहा कि नरेश सुरेश का पुत्र भी है तो यह भी कहना गलत, क्योंकि इसका तो अर्थ है कि नरेश सुरेश का बाप वगैरह भी हो सकता, तो इसमें तो लड़ाई मच जायेगी । कहा यह जायेगा कि नरेश सुरेश का पुत्र ही है, नरेश महेश का पिता ही है । उसी तरह महेश को कहा जायेगा कि महेश नरेश का पुत्र ही है, नरेश महेश का पिता ही है । इस प्रकार बोलने से निश्चय हो गया, सही बात आ गई अन्यथा वह तो एक संशय की बात रहेगी । अन्य दार्शनिक स्याद्वादियों को संशयवादी कहते ही हैं, पर संशय की कोई बात नहीं है । तो अपेक्षा लगाकर ‘ही’ लगाना यह स्याद्वाद का चिन्ह है । सो स्यात् पद कर जो अंकित है ऐसे जिनेंद्र वचनों में जो रमण करते हैं वे पुरुष इस समयसार को, इस अंतस्तत्त्व को प्राप्त कर लेते हैं ।
80―समयसार की विभुता―देखो नय के मूल दो भेद है―(1) द्रव्यार्थिकनय और (2) पर्यायार्थिकनय । वस्तु का स्वरूप समझना है तो समझो―जो भी चीज होती है वह सदा रहती है कि नहीं? सदा रहती और क्षण-क्षण में नई-नई बनती कि नहीं? नई-नई अवस्था-बनती क्षण-क्षण में पूर्व-पूर्व अवस्था मिटती और उसकी सत्ता बनी रहती, ये तीनों बातें वस्तु में हैं कि नहीं? इसी को कहते हैं द्रव्यदृष्टि से तो सदा है, पर्यायदृष्टि से क्षण-क्षण में मिटता है । तो वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक हुई । द्रव्य को ग्रहण करने वाला नय द्रव्यार्थिकनय । पर्याय को ग्रहण करने वाला नय पर्यायार्थिकनय । दो नय बिना कोई बात ही न चलेगी इसलिए अनेकांत तो आ ही गया । तो ऐसे इस स्यात् पद से चिन्हित जिनेंद्र देव के वचनों में जो रमते हैं मायने उन वचनों का जो अर्थ है, भाव है उसमें रमते हैं वे शीघ्र ही समयसार का अनुभव करते हैं, यह बात काम में आ रही ना । कैसे आ रही? वर्णन किसका चल रहा? समयसार का याने आत्मा के विशुद्धस्वरूप का । वह कैसे जाना जायेगा? वह अलग धरा है क्या कहीं? वह तो स्वसमय और परसमय में मिलेगा । याने मिथ्यादृष्टि और अंतरात्मा, परमात्मा सबमें ही समयसार मिलेगा । तो मूल भेद दो हुए इस जीव के―(1) स्वसमय और (2) परसमय । और समयसार कहाँ रहता है? स्वसमय परसमय दोनों में ही एक रूप से । जैसे बताओ बालक, जवान, बूढ़ा इनको छोड़कर कहीं मनुष्य देखा क्या? वही मनुष्य पहले बालक था, फिर जवान हुआ फिर बूढ़ा हो गया । इन तीनों अवस्थाओं को छोड़कर मनुष्य कुछ नहीं । तो जैसे मनुष्यपना ध्रुव है, तीनों अवस्थाओं में है ऐसे ही समयसार ध्रुव है स्वसमय परसमय दोनों अवस्थाओं में । तो स्वसमय परसमय को भी मना नहीं कर सकते मगर समय याने अपने स्वरूप के एकत्व के निश्चय में जो प्राप्त हुआ है वह है समयसार जो सार है, श्रेष्ठ है ।
81―समयसार की अंतस्तत्त्वरूपता―समयसार को प्राप्त आप्त को हम जैन आगम का आधार परखेंगे और उस आधार से हम समयसार को निरखेंगे । देखो जीव का स्वरूप समझने के लिए मार्गणा और गुणस्थान बताये गए हैं । गति है 4―नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति, देव गति । इसके अतिरिक्त है गति रहित । सब जीवों को समझ लें, 5 इंद्रिय वाले जीव―एकेंद्रिय दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, पंचेंद्रिय, और एक ऐसे हैं जो इनसे अतीत हैं । ऐसे ही मार्गणा और गुणस्थान द्वारा परिचय पाते जायेंगे, पर वह सब पर्यायों का परिचय है । उन सबमें रहने वाला जो एकत्व है, वह है समयसार । अपनी ही बात है यह सब । जो समझ ले सो संसार से पार हो जाता है । आत्मज्ञान बिना धर्म नहीं होता, और आत्मज्ञान से ही समयसार के दर्शन होते हैं । अपनी समझ किसको नहीं । मैं आत्मा हूँ, ऐसा सब जान रहे हैं । अब मैं कैसा हूँ बस इसी के समझने की तारीफ है कि सही बात पर आ जाये तो सम्यग्दर्शन और उल्टी बात पर रहे तो मिथ्यादर्शन । समझ सबमें है । एक मंत्री था, वह बड़ा विद्वान था । वह राजा को बहुत समझाता था कि आत्मा है, आत्मा का कल्याण करो । राजा कहे कि आत्मा फात्मा कुछ नहीं । एक बार राजा घोड़े पर चढ़े हुए चला जा रहा था और मंत्री के दरवाजे से निकला, तो खड़े होकर राजा बोलता है―मंत्री जी हमें आत्मा और परमात्मा का कुछ ज्ञान करा दो । तो मंत्री बोला―महाराज आप घोड़े से नीचे उतरें, कुछ घंटा आधा घंटा बैठकर आत्मा परमात्मा की बात सुनें तो आपकी समझ में ठीक-ठीक आ पायेगा । तो राजा बोला―हमें इतनी फुरसत कहाँ? हमें तो 5 मिनट में यों ही खड़े-खड़े समझा दो । तो मंत्री बोला महाराज हमारा कसूर यदि माफ हो तो 5 मिनट की बात क्या, पाव सेकेंड में ही समझा देंगे । तो राजा बोला अच्छा तुम्हारा कसूर माफ । मंत्री बलवान तो था ही, राजा के हाथ से कोड़ा छीन कर दो तीन कोड़े राजा के जड़ दिये । राजा चिल्ला उठा अरे रे रे भगवान । मंत्री बोला बस आप समझ गए आत्मा और परमात्मा के विषय में । जिसमें अरे रे रे हुआ वह तो है आत्मा और जिसे भगवान कहा वह है परमात्मा । तो कौन नहीं जानता? अपने आपका जो आत्मा का स्वरूप है वह सबसे निराला है । अपने सत्त्व से अपने आपके स्वरूप में रहने वाला है, ऐसे आत्मा को पहिचानें? उसमें रमे तो शांति प्राप्त होगी । तो यह समयसार जो अखंड है, नय से तो समझा जाता है मगर खंडित नहीं है । है एक स्वरूप, अपना सहज स्वरूप । उसे मान लें कि यह मैं हूँ बस बेड़ा पार हो गया । लेकिन इस स्वरूप को न समझकर न जाने क्या-क्या रूप मानते हैं । मैं इतने पुत्रों वाला हूँ, व्यापारी हूँ? ऐसी पोजीशन का हूँ........बस यह ही तो मिथ्यात्व है, और एक ज्ञानस्वरूप मात्र हूँ, सबसे निराला, ऐसी मान्यता बने तो यह है सम्यक्त्व का रूप । आत्मज्ञान, आत्मा जिसका विषय है वह आत्मा ही न मिले तो फिर धर्म करने का अर्थ क्या है? मुझे सुखी होना है, यह अंत: आवाज उठनी चाहिए―सुखी होने का उपाय है अपने आपके स्वरूप में रम जाना । जो इस तरह जिनेंद्र वचन में रमते हैं वे समयसार को प्राप्त करते हैं ।
82―समयसार की सहजसिद्धता―समयसार को ही सहजसिद्ध बोलते हैं । सहजसिद्ध भगवान की पूजा में पढ़ते हैं ना सहजसिद्धमहं परिपूजये । सो दोनों जगह अर्थ लगाते जाओ । मुक्त आत्मा में भी अर्थ लगाते जाओ और अपने स्वरूप में भी । सहजसिद्ध याने अपने आप सहज ही पर की अपेक्षा बिना जो सिद्ध है, निष्पन्न है, परिपूर्ण है उसे कहते हैं सहजसिद्ध । वह सहजसिद्ध आँखों न दिखेगा । उपयोग में ही ज्ञान से ही इस सहजसिद्ध भगवान के दर्शन होते हैं । देखो जगत के सभी जीव चाहते क्या हैं? आनंद । इस आनंद के सामने उसकी सब चीजें गौण हो गईं । ज्ञान को भी नहीं चाहते । परंतु ज्ञान है अविनाभावी, फिर चाह आनंद की होती । ज्ञान हो तो क्या, न हो तो क्या, हमको तो अनंत आनंद चाहिए, सो जैनशासन उस ही आनंद के उपाय को बताता है पहले बनो सम्यग्दृष्टि याने समस्त पदार्थों को न्यारा-न्यारा समझ लो । सम्यक्त्व के बाद फिर व्रत संयम में बढ़ो, अपने आपमें रमो, मोक्षमार्ग मिलेगा । यह मोक्षमार्ग, यह मोक्ष जिसको दिलाना है वह समयसार, आज तक इसको प्राप्त नहीं हुआ, और विषयों के कथन तो इसने बार-बार अनेक भवों में सुने हैं, परिचय में है, अब भी सामने हैं । लेकिन जो उभयनयविरोधध्वंसी जिनेंद्र वचनों में रमण करते हैं वे समयसार को प्राप्त करते हैं ।