प्रकृतिबंध: Difference between revisions
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<div class="HindiText">राग-द्वेषादि के निमित्त से जीव के साथ पौद्गलिक कर्मों का बंध निरंतर होता है। (देखें [[ कर्म ]]) जीव के भावों की विचित्रता के अनुसार वे कर्म भी विभिन्न प्रकार की फलदान शक्ति को लेकर आते हैं, इसी से वे विभिन्न स्वभाव या प्रकृतिवाले होते हैं। प्रकृति की अपेक्षा उन कर्मों के मूल 8 भेद हैं, और उत्तर 148 भेद हैं। उत्तरोत्तर भेद असंख्यात हो जाते हैं। सर्व प्रकृतियों में कुछ पापरूप होती हैं, कुछ पुण्य रूप, कुछ पुद्गल विपाकी, कुछ क्षेत्र व भवविपाकी, कुछ ध्रुवबंधी, कुछ अध्रुवबंधी इत्यादि। | |||
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<li class="HindiText"><strong>[[#1 | भेद व लक्षण]]</strong></li> | |||
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<li class="HindiText">[[ #1.1 | प्रकृति का लक्षण]]</li> | |||
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<li class="HindiText">[[ # | |||
<p><strong>1. बंध</strong>-<strong>योग्य प्रकृतियाँ</strong></p> | <p><strong>1. बंध</strong>-<strong>योग्य प्रकृतियाँ</strong></p> | ||
<p><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/2/5 </span>पंच णव दोण्णि छव्बीसमवि य चउरो कमेण सत्तीट्ठी। दोण्णि य पंच य भणिया एयाओ बंधपयडीओ।5। =ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की नौ, वेदनीय की दो, मोहनीय की छब्बीस, आयुकर्म की चार, नामकर्म की सड़सठ, गोत्रकर्म की दो और अंतरायकर्म की पाँच, इस प्रकार 120 बँधने योग्य उत्तर प्रकृतियाँ कही गयी हैं।5। | <p><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/2/5 </span><span class="PrakritText">पंच णव दोण्णि छव्बीसमवि य चउरो कमेण सत्तीट्ठी। दोण्णि य पंच य भणिया एयाओ बंधपयडीओ।5।</span> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/37/41 </span>भेदे छादालसयं इदरे बंधे हवंति वीससयं। = भेद-विवक्षा से मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति के बिना 146 प्रकृतियाँ बंध योग्य हैं। अर अभेद-विवक्षा से 120 प्रकृतियाँ बंध योग्य हैं।</p> | <span class="HindiText">=ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की नौ, वेदनीय की दो, मोहनीय की छब्बीस, आयुकर्म की चार, नामकर्म की सड़सठ, गोत्रकर्म की दो और अंतरायकर्म की पाँच, इस प्रकार 120 बँधने योग्य उत्तर प्रकृतियाँ कही गयी हैं।5। </span><span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड 35/40 )</span>।</p> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/37/41 </span><span class="PrakritText">भेदे छादालसयं इदरे बंधे हवंति वीससयं।</span> | |||
<span class="HindiText">= भेद-विवक्षा से मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति के बिना 146 प्रकृतियाँ बंध योग्य हैं। अर अभेद-विवक्षा से 120 प्रकृतियाँ बंध योग्य हैं।</span></p> | |||
<p><strong>2. बंध अयोग्य प्रकृतियाँ</strong></p> | <p><strong>2. बंध अयोग्य प्रकृतियाँ</strong></p> | ||
<p><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/2/6 </span>वण्ण-रस-गंध-फासा चउ चउ इगि सत्त सम्ममिच्छत्तं। होंति अबंधा बंधण पण पण संघाय सम्मत्तं।6। = चार वर्ण, चार रस, एक गंध, सात स्पर्श, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, पाँच बंधन और पाँच संघात, ये अठ्ठाईस (28) प्रकृतियाँ बंध के अयोग्य होती हैं।6।</p> | <p><span class="GRef"> (पंचसंग्रह / प्राकृत/2/6) </span><span class="PrakritText">वण्ण-रस-गंध-फासा चउ चउ इगि सत्त सम्ममिच्छत्तं। होंति अबंधा बंधण पण पण संघाय सम्मत्तं।6।</span> | ||
< | <span class="HindiText">= चार वर्ण, चार रस, एक गंध, सात स्पर्श, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, पाँच बंधन और पाँच संघात, ये अठ्ठाईस (28) प्रकृतियाँ बंध के अयोग्य होती हैं।6।</span></p> | ||
<p> | <li class="HindiText" id="2.5"><strong>सांतर, निरंतर व उभय-बंधी की अपेक्षा</strong></li> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 8/3,6/18/2 </span>तासिं णामणिद्देसो कीरदे। तं जहा-सादावेदणीयपुरिसवेद-हस्स-रदि-तिरिक्खगइ-मणुस्सगइ-देवगइ-पंचिंदिय-जादि-ओरालिय-वेउव्विय-सरीर-समचउरससंठाण-ओरालिय-वेउव्विय- सरीर- अंगोवंग-वज्जरिसह-वइरणारायणसरीरसंघडण-तिरिक्खगइ-मणुस्सगइ-देवगइपाओग्गाणुपुव्वि-परघादुस्सास-पसत्थ-विहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-णीचुच्चागोदमिदि सांतर-णिरंतरेण बज्झमाणपयडीओ। = 1. तीर्थंकर, आहारकद्विक, चारों आयु, और ध्रुवबंधी सैंतालीस प्रकृतियाँ, इन सब चौवन प्रकृतियों का निरंतर बंध होता है।74। 2. अंतिम पाँच संस्थान, अंतिम पाँच संहनन, साता वेदनीय, उद्योत, एकेंद्रिय जाति, तीन विकलेंद्रिय जातियाँ, स्थावर, नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, अरति, शोक, अयशःकीर्ति, दुर्भग, दुःस्वर, अशुभ, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, नरकद्विक, अनादेय, असाता वेदनीय, अस्थिर, और अप्रशस्त विहायोगति; इन चौंतीस प्रकृतियों का नियम से सांतर बंध कहा गया है।75-76। | <p><span class="GRef">(पंचसंग्रह/3/74-77)</span><span class="PrakritText"> तित्थयराहारदुअं चउ आउ धुवा य वेइ चउवण्णं। एयाणं सव्वाणं पयडीणं णिरंतरो बंधो।74। संठाणं संघयणं अंतिमदसयं च साइ उज्जोयं। इगिविगलिंदिय थावर संढित्थी अरइ सोय अयसं च।75। दुब्भग दुस्सरमसुभं सुहुमं साहारणं अपज्जत्तं णिरयदुअमणादेयं असायमथिरं विहायमपसत्थं।76। चउतीसं पयडीणं बंधो णियमेण संतरो भणिओ। बत्तीस सेसियाणं बंधो समयम्मि उभओ वि।77।</span></p> | ||
< | <p><span class="GRef"> (धवला 8/3,6/18/2) </span><span class="PrakritText">तासिं णामणिद्देसो कीरदे। तं जहा-सादावेदणीयपुरिसवेद-हस्स-रदि-तिरिक्खगइ-मणुस्सगइ-देवगइ-पंचिंदिय-जादि-ओरालिय-वेउव्विय-सरीर-समचउरससंठाण-ओरालिय-वेउव्विय- सरीर- अंगोवंग-वज्जरिसह-वइरणारायणसरीरसंघडण-तिरिक्खगइ-मणुस्सगइ-देवगइपाओग्गाणुपुव्वि-परघादुस्सास-पसत्थ-विहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-णीचुच्चागोदमिदि सांतर-णिरंतरेण बज्झमाणपयडीओ।</span> | ||
<p><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/4/235-236 </span>साइ अणाइ य धुव अद्धुवो य बंधो दु कम्मछक्कस्स। तइए साइयसेसा अणाइधुव सेसओ आऊ।235। <strong>उत्तर -</strong>पयडीसु तहा धुवियाणं बंध चउवियप्पो दु। सादिय अद्धुवियाओ सेसा परियत्तमाणीओ।236। =<strong>1. मूल प्रकृतियों की अपेक्षा</strong>—ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, नाम, गोत्र और अंतराय, इन छह कर्मों का सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव चारों प्रकार का बंध होता है। वेदनीय कर्म का सादि बंध को छोड़कर शेष तीन प्रकार का बंध होता है। आयुकर्म का अनादि और ध्रुव बंध के सिवाय शेष दो प्रकार का बंध होता है।235। <strong>2. उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा</strong>—उत्तर प्रकृतियों में जो सैतालीस ध्रुवबंधी प्रकृतियाँ है, उनका चारों प्रकार का बंध होता है तथा शेष बची जो तेहत्तर प्रकृतियाँ हैं, उनका सादिबंध और अध्रुवबंध होता है।236। | <span class="HindiText">= 1. तीर्थंकर, आहारकद्विक, चारों आयु, और ध्रुवबंधी सैंतालीस प्रकृतियाँ, इन सब चौवन प्रकृतियों का निरंतर बंध होता है।74। 2. अंतिम पाँच संस्थान, अंतिम पाँच संहनन, साता वेदनीय, उद्योत, एकेंद्रिय जाति, तीन विकलेंद्रिय जातियाँ, स्थावर, नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, अरति, शोक, अयशःकीर्ति, दुर्भग, दुःस्वर, अशुभ, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, नरकद्विक, अनादेय, असाता वेदनीय, अस्थिर, और अप्रशस्त विहायोगति; इन चौंतीस प्रकृतियों का नियम से सांतर बंध कहा गया है।75-76। <span class="GRef">( धवला 8/3,6/16/6 )</span>। 3. शेष बची बत्तीस प्रकृतियों का बंध परमागम में उभयरूप अर्थात् सांतर और निरंतर कहा गया है।77। उनका नाम निर्देश किया जाता है। वह इस प्रकार है—सातावेदनीय, पुरुष वेद, हास्य, रति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेंद्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक शरीरांगोपांग, वैक्रियिक शरीरांगोपांग, वज्रर्षभनाराचशरीर सहंनन, तिर्यग्मनुष्य व देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, नीच गोत्र, उच्चगोत्र, ये सांतर-निरंतर रूप से बँधनेवाली हैं।</span> <span class="GRef">( धवला 8/3, 6/ गाथा/17-19/17)</span>, <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/404-407/568 )</span>, <span class="GRef">(पंचसंग्रह/संस्कृत/3/93-101)</span></p> | ||
< | <li class="HindiText" id="2.6"><strong>सादि अनादि बंधी प्रकृतियों की अपेक्षा</strong></li> | ||
<p><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/4/237 </span>आवरण विग्घ सव्वे कसाय मिच्छत्त णिमिण वण्णचदुं। भयणिंदागुरुतेयाकम्मुवघायं धुवाउ सगदालं।237।</p> | <p><span class="GRef"> (पंचसंग्रह / प्राकृत/4/235-236) </span><span class="PrakritText">साइ अणाइ य धुव अद्धुवो य बंधो दु कम्मछक्कस्स। तइए साइयसेसा अणाइधुव सेसओ आऊ।235। <strong>उत्तर -</strong>पयडीसु तहा धुवियाणं बंध चउवियप्पो दु। सादिय अद्धुवियाओ सेसा परियत्तमाणीओ।236।</span> | ||
<p><strong>1. ध्रुवबंधी प्रकृतियाँ</strong>—पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, पाँच अंतराय, सभी अर्थात् सोलह कषाय, मिथ्यात्व, निर्माण, वर्णादि चार, भय, जुगुप्सा, अगुरुलघु, तैजस शरीर, कार्मण शरीर और उपघात; ये सैंतालीस ध्रुवबंधी प्रकृतियाँ हैं।237। | <span class="HindiText">=<strong>1. मूल प्रकृतियों की अपेक्षा</strong>—ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, नाम, गोत्र और अंतराय, इन छह कर्मों का सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव चारों प्रकार का बंध होता है। वेदनीय कर्म का सादि बंध को छोड़कर शेष तीन प्रकार का बंध होता है। आयुकर्म का अनादि और ध्रुव बंध के सिवाय शेष दो प्रकार का बंध होता है।235।</span> <br> | ||
<p><strong>2. अध्रुवबंधी प्रकृतियाँ</strong>—निष्प्रतिपक्ष और सप्रतिपक्ष के भेद से परिवर्तमान (अध्रुवबंधी) प्रकृतियों के दो भेद हैं। अतः देखो ‘अगला शीर्षक’।</p> | <span class="HindiText"><strong>2. उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा</strong>—उत्तर प्रकृतियों में जो सैतालीस ध्रुवबंधी प्रकृतियाँ है, उनका चारों प्रकार का बंध होता है तथा शेष बची जो तेहत्तर प्रकृतियाँ हैं, उनका सादिबंध और अध्रुवबंध होता है।236।</span> <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/124/126 )</span>।</p> | ||
< | <li class="HindiText" id="2.7"><strong>ध्रुव व अध्रुव बंधी प्रकृतियों की अपेक्षा</strong></li> | ||
<p><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/238-240 </span>परघादुस्सासाणं आयावुज्जोवमाउ चत्तारि। तित्थयराहारदुयं एक्कारस होंति सेसाओ।238। सादियरं वेयाविहस्साइचउक्क पंच जाईओ। संठाणं संघयणं छच्छक्क चउक्क आणुपुव्वीय।239। गइ चउ दोय सरीरं गोयं च य दोण्णि अंगबंगा य।239। दह जुयलाण तसाइं गयणगइदुअं विसट्ठिपरिवत्ता।240।</p> | <p><span class="GRef"> (पंचसंग्रह / प्राकृत/4/237) </span><span class="PrakritText">आवरण विग्घ सव्वे कसाय मिच्छत्त णिमिण वण्णचदुं। भयणिंदागुरुतेयाकम्मुवघायं धुवाउ सगदालं।237।</span></p> | ||
<p><strong>1. निष्प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ </strong>— परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, चारों आयु, तीर्थंकर और आहारक द्विक ये ग्यारह अध्रुव निष्प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं।238। | <p><span class="HindiText"><strong>1. ध्रुवबंधी प्रकृतियाँ</strong>—पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, पाँच अंतराय, सभी अर्थात् सोलह कषाय, मिथ्यात्व, निर्माण, वर्णादि चार, भय, जुगुप्सा, अगुरुलघु, तैजस शरीर, कार्मण शरीर और उपघात; ये सैंतालीस ध्रुवबंधी प्रकृतियाँ हैं।237।</span> <span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/9 )</span>; <span class="GRef">(पंचसंग्रह/संस्कृत/2/42-43)</span>; <span class="GRef">(पंचसंग्रह/संस्कृत/4/107-108)</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/124/126/6 )</span>।</p> | ||
<p><strong>2. सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ </strong>— साता वेदनीय, असाता वेदनीय, तीनों वेद, हास्यादि चार (हास्य, रति, अरति और शोक), एकेंद्रियादि 5 जातियाँ, छह संस्थान, छह संहनन, 4 आनुपूर्वी, 4 गति, औदारिक और वैक्रियिक ये दो शरीर तथा इन दोनों के दो अंगोपांग, दो गोत्र, त्रसादि दश युगल (त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुस्वर, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति ये 20) और दो विहायोगति, ये बासठ सप्रतिपक्ष अध्रुवबंधी प्रकृतियाँ हैं।239-240। | <p><span class="HindiText"><strong>2. अध्रुवबंधी प्रकृतियाँ</strong>—निष्प्रतिपक्ष और सप्रतिपक्ष के भेद से परिवर्तमान (अध्रुवबंधी) प्रकृतियों के दो भेद हैं। अतः देखो ‘अगला शीर्षक’।</span></p> | ||
< | <li class="HindiText" id="2.8"><strong>सप्रतिपक्ष व अप्रतिपक्ष प्रकृतियों की अपेक्षा</strong></li> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/34/39 </span>देहे अविणाभावी बंधणसंघाद इदि अबंधुदया। वण्णचउक्केऽभिण्णे गहिदे चत्तारि बंधुदये।34। = पाँचों प्रकार के शरीरों का अपना-अपना बंधन व संघात अविनाभावी है। इसलिए बंध और उदय में पाँच बंधन व पाँच संघात ये दशों जुदे न कहे शरीर प्रकृति विषै गर्भित किये तथा अभेद विवक्षा से वर्णादिक की मूलप्रकृति चार ही ग्रहण की, 20 नहीं।</p> | <p><span class="GRef"> (पंचसंग्रह / प्राकृत/238-240) </span><span class="PrakritText">परघादुस्सासाणं आयावुज्जोवमाउ चत्तारि। तित्थयराहारदुयं एक्कारस होंति सेसाओ।238। सादियरं वेयाविहस्साइचउक्क पंच जाईओ। संठाणं संघयणं छच्छक्क चउक्क आणुपुव्वीय।239। गइ चउ दोय सरीरं गोयं च य दोण्णि अंगबंगा य।239। दह जुयलाण तसाइं गयणगइदुअं विसट्ठिपरिवत्ता।240।</span></p> | ||
< | <p><span class="HindiText"><strong>1. निष्प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ </strong>— परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, चारों आयु, तीर्थंकर और आहारक द्विक ये ग्यारह अध्रुव निष्प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं।238। </span><span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/210 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/125 )</span> <span class="GRef">(पंचसंग्रह/संस्कृत/2/44)</span>, <span class="GRef">(पंचसंग्रह/संस्कृत 4/109-110)</span>।</p> | ||
< | <p><span class="HindiText"><strong>2. सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ </strong>— साता वेदनीय, असाता वेदनीय, तीनों वेद, हास्यादि चार (हास्य, रति, अरति और शोक), एकेंद्रियादि 5 जातियाँ, छह संस्थान, छह संहनन, 4 आनुपूर्वी, 4 गति, औदारिक और वैक्रियिक ये दो शरीर तथा इन दोनों के दो अंगोपांग, दो गोत्र, त्रसादि दश युगल (त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुस्वर, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति ये 20) और दो विहायोगति, ये बासठ सप्रतिपक्ष अध्रुवबंधी प्रकृतियाँ हैं।239-240।</span> <span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/11-12 )</span>, <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/125/127 )</span>; <span class="GRef">(पंचसंग्रह/संस्कृत/2/45-46)</span>; <span class="GRef">(पंचसंग्रह/संस्कृत/4/111-112)</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/2/3 </span>पड पडिहारसिमज्जाहडि चित्त कुलालभंडयारीणं। जह एदेसिं भावा तह वि य कम्मा मुणेयव्वा।3। = पट (देव-मुख का आच्छादक वस्त्र), प्रतीहार (राजद्वार पर बैठा हुआ द्वारपाल), असि (मधुलिप्त तलवार), मद्य (मदिरा), हडि (पैर फँसाने का खोड़ा), चित्रकार (चितेरा), कुंभकार और भंडारी (कोषाध्यक्ष) इन आठों के जैसे अपने-अपने कार्य करने के भाव होते हैं, उन ही प्रकार क्रमशः कर्मों के भी स्वभाव समझना चाहिए।3। | <li class="HindiText" id="2.9"><strong>अंतर्भाव योग्य प्रकृतियाँ</strong></li> | ||
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<p><span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ </span> | <p><span class="GRef"> (गोम्मटसार कर्मकांड/34/39) </span><span class="PrakritText">देहे अविणाभावी बंधणसंघाद इदि अबंधुदया। वण्णचउक्केऽभिण्णे गहिदे चत्तारि बंधुदये।34।</span> | ||
< | <span class="HindiText">= पाँचों प्रकार के शरीरों का अपना-अपना बंधन व संघात अविनाभावी है। इसलिए बंध और उदय में पाँच बंधन व पाँच संघात ये दशों जुदे न कहे शरीर प्रकृति विषै गर्भित किये तथा अभेद विवक्षा से वर्णादिक की मूलप्रकृति चार ही ग्रहण की, 20 नहीं।</span></p> | ||
<p><strong><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,1/70/16 </span>पर विशेषार्थ | <li class="HindiText" id="3"><strong>प्रकृतिबंध निर्देश</strong></li> | ||
<p>देखें [[ वेदनीय#2 | वेदनीय - 2 ]](वेदनीयकर्म के कारण नाना प्रकार के शारीरिक सुख-दुःख के कारणभूत बाह्य सामग्री की प्राप्ति होती है।)</ | <ol> | ||
<p>< | <li class="HindiText" id="3.1"><strong>आठ प्रकृतियों के आठ उदाहरण</strong></li> | ||
< | <p><span class="GRef"> (पंचसंग्रह / प्राकृत/2/3) </span><span class="PrakritText">पड पडिहारसिमज्जाहडि चित्त कुलालभंडयारीणं। जह एदेसिं भावा तह वि य कम्मा मुणेयव्वा।3।</span> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 12/4,2,10,2/303/2 </span>प्रक्रियते अज्ञानादिकं फलमनया आत्मन: इति प्रकृतिशब्दव्युत्पत्तेः।.... उदीर्णस्य भवतु नाम प्रकृतिव्यपदेशः, फलदातृत्वेन परिणतत्वात्। न बध्यमानोपशांतयोः, तत्र तद्भावादिति। न, त्रिष्वपि कालेषु प्रकृति शब्दसिद्धेः। तेण जो कम्मक्खंधो जीवस्स वट्टमाणकाले फलं देइ जो च देइस्सदि, एदेसिं दोण्णं पि कम्मक्खंधाणं पयडित्तं सिद्धं। अधवा, जहा उदिण्णं वट्टमाणकाले फलं देदि एवं वज्झमाणुवसंतापि वि वट्टमाणकाले वि देंति फलं, तेहि विणा कम्मोदयस्स अभावादो। ... भूदभविस्सपज्जायाणं वट्टमाणत्तब्भुवगमादो वा णेगमणयम्मि एसावुप्पत्ती घडदे। = जिसके द्वारा आत्मा को अज्ञानादिरूप फल किया जाता है वह प्रकृति है, यह प्रकृति शब्द की व्युत्पत्ति है। < | <span class="HindiText">= पट (देव-मुख का आच्छादक वस्त्र), प्रतीहार (राजद्वार पर बैठा हुआ द्वारपाल), असि (मधुलिप्त तलवार), मद्य (मदिरा), हडि (पैर फँसाने का खोड़ा), चित्रकार (चितेरा), कुंभकार और भंडारी (कोषाध्यक्ष) इन आठों के जैसे अपने-अपने कार्य करने के भाव होते हैं, उन ही प्रकार क्रमशः कर्मों के भी स्वभाव समझना चाहिए।3।</span> <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/21/15 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/20/13/13 )</span>; <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/33/92/8 )</span>।</p> | ||
< | <li class="HindiText" id="3.2"><strong>पुण्य व पाप प्रकृतियों का कार्य</strong></li> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,13/14/5 </span>अट्ठेव मूलपयडीओ। तं कुदो णव्वदे। अट्ठकम्मजणिदकज्जेहिंतो पुधभूदकज्जस्स अणुवलंभादो। = <strong>प्रश्न—</strong>यह कैसे जाना जाता है कि मूल प्रकृतियाँ आठ ही हैं ? <strong>उत्तर—</strong>आठ कर्मों के द्वारा उत्पन्न होने वाले कार्यों से पृथग्भूत कार्य पाया नहीं जाता, इससे जाना जाता है कि मूल प्रकृतियाँ आठ ही हैं।</p> | <p><span class="GRef"> (परमात्मप्रकाश/ मूल/2/63)</span> <span class="PrakritText">पावें णारउ तिरिउ जिउ पुण्णें अमरु वियाणु। मिस्सें माणुस-गइ लहइ दोहि वि खइ णिव्वाणु।63।</span> | ||
<p>< | <span class="HindiText">= यह जीव पाप के उदय से नरकगति और तिर्यंच गति पाता है, पुण्य से देव होता है, पुण्य और पाप के मेल से मनुष्य गति को पाता है, और दोनों के क्षय से मोक्ष को पाता है।</span> | ||
< | <ul><li class="HindiText">(और भी देखें [[ पुण्य ]]; व [[ पाप ]])।</li></ul></p> | ||
<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/4/381/2 | <li class="HindiText" id="3.3"><strong>अघातिया कर्मों का कार्य</strong></li> | ||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/8/4/3,7/568/9 </span> | </ol> | ||
<p><span class="GRef"> धवला/12/4,2,8,11/287/10 </span>कम्मइयवग्गणाए पोग्गलक्खंधा एयसरूवा कधं जीवसंबंधेण अट्ठभेदमाढउक्कंते। ण, मिच्छत्तासंजम-कसायजोगपच्चयावट्ठंभबलेण समुप्पण्णट्ठसत्तिसंजुत्तजीवसंबंधेण कम्मइयपोग्गलक्खंधाणं अट्ठकम्मायारेण परिणमणं पडिविरोहाभावादो। | <p><strong><span class="GRef"> (कषायपाहुड़ 1/1,1/70/16)</strong> </span><span class="HindiText">पर विशेषार्थ- जिनके उदय का प्रधानतया कार्य संसार की निमित्तभूत सामग्री को प्रस्तुत करना है, उन्हें अघातियाकर्म कहते हैं।</span></p> | ||
< | <p><span class="HindiText">देखें [[ वेदनीय#2 | वेदनीय - 2 ]](वेदनीयकर्म के कारण नाना प्रकार के शारीरिक सुख-दुःख के कारणभूत बाह्य सामग्री की प्राप्ति होती है।)</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/8/4/9-14/568/26 </span>पुद्गलद्रव्यस्यैकस्यावरणसुखदुःखादिनिमित्तत्वानुपपत्तिर्विरोधात्।9। न वा, तत्स्वाभाव्यादग्नेर्दाहपाकप्रतापप्रकाशसामर्थ्यवत्।10। अनेकपरमाणुस्निग्धरूक्षबंधापादितानेकात्मकस्कंधपर्यायार्थादेशात् स्यादनेकम् । ततश्च नास्ति विरोधः।11। पराभिप्रायेणेंद्रियाणां भिन्नजातीयानां क्षीराद्युपयोगे वृद्धिवत् ... यथा पृथिव्यप्तेजोवायुभिरारब्धानामिंद्रियाणां भिन्नजातीयानां क्षीरघृतादिष्वेकमप्युपयुज्यमानम् अनुग्राहकं दृष्टं तथेदमपि इति।12। वृद्धिरेकैव, तस्या घृताद्यनुग्राहकमिति न विरोध इति; तन्न, किं कारणम्। प्रतींद्रियं वृद्धिभेदात्। यथैवेंद्रियाणि भिन्नानि तथैवेंद्रियवृद्धयोऽपि भिन्नाः।13। यथा भिन्नजातीयेन क्षीरेण तेजोजातीयस्य चक्षुषोऽनुग्रहः, तथैव आत्मकर्मणोश्चेतनाचेतनत्वात् अतुल्यजातीयं कर्म आत्मनोऽनुग्राहकमिति सिद्धम्। | <li class="HindiText" id="4"><strong>प्रकृति बंध विषयक शंका-समाधान</strong></li> | ||
< | <ol> | ||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/8/4/16-23, 569/20 </span>क्रमप्रयोजनं ज्ञानेनात्मनोऽधिगमात्। ततो दर्शनावरणमनाकारोपलब्धे:। .... साकारोपयोगाद्धि अनाकारोपयोगो निकृष्यते अनभिव्यक्तग्रहणात्। उत्तरेभ्यस्तु प्रकृष्यते अर्थोपलब्धितंत्रत्वात्।17। तदनंतरं वेदनावचनं तद्व्यभिचारात्। .... ज्ञानदर्शनाव्यभिचारिणी हि वेदना घटादिष्वप्रवृत्तेः।18। ततो मोहाभिधानं तद्विरोधात्। .... क्वचिद्विरोधदर्शनात् ... न सर्वत्र। मोहाभिभूतस्य हि कस्यचित् हिताहितविवेकादिर्नास्ति।19। आयुर्वचनं तत्समीपे तंनिबंधनत्वात्। .... आयुर्निबंधनानि हि प्राणिनां सुखादीनि।20। तदनंतरं नामवचनं तदुदयापेक्षात्वात् प्रायो नामोदयस्य।21। ततो गोत्रवचनं प्राप्तशरीरादिलाभस्य संशब्दनाभिव्यक्तेः।22। परिशेषादंते अंतरायवचनम्।23। | <li class="HindiText" id="4.1"><strong>बध्यमान व उपशांत कर्म में ‘प्रकृति’ व्यपदेश कैसे ?</strong></li> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/16-20 </span>अब्भरहिदादु पुव्वं णाणं तत्तो हि दंसणं होदि। सम्मत्तमदो विरियं जीवाजीवगदमिदि चरिमे।16। आउबलेण अवट्ठिदि भवस्स इदि णाममाउपुव्वं तु। भवमस्सिय णीचुच्चं इदि गोदं णामपुव्व तु।18। णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीयमोहणीयं। आउगणामं गोदंतरायमिदि पढिदमिदि सिद्धं।20। =1. आत्मा के सब गुणों में ज्ञानगुण पूज्य है, इस कारण सबसे पहले कहा। उसके पीछे दर्शन, तथा उसके भी पीछे सम्यक्त्व को कहा है तथा वीर्य शक्तिरूप है। वह जीव व अजीव दोनों में पाया जाता है। जीव में तो ज्ञानादि शक्तिरूप और अजीव-पुद्गल में शरीरादि की शक्तिरूप रहता है। इसी कारण सबसे पीछे कहा गया है। इसीलिए इन गुणों के आवरण करने वाले कर्मों का भी यही क्रम माना है।16। 2. (अंतराय कर्म कथंचित् अघातिया है, इसलिए उसको सर्व कर्मों के अंत में कहा है) देखें [[ अनुभाग | <p><span class="GRef"> (धवला 12/4,2,10,2/303/2) </span><span class="SanskritText">प्रक्रियते अज्ञानादिकं फलमनया आत्मन: इति प्रकृतिशब्दव्युत्पत्तेः।.... उदीर्णस्य भवतु नाम प्रकृतिव्यपदेशः, फलदातृत्वेन परिणतत्वात्। न बध्यमानोपशांतयोः, तत्र तद्भावादिति। न, त्रिष्वपि कालेषु प्रकृति शब्दसिद्धेः। तेण जो कम्मक्खंधो जीवस्स वट्टमाणकाले फलं देइ जो च देइस्सदि, एदेसिं दोण्णं पि कम्मक्खंधाणं पयडित्तं सिद्धं। अधवा, जहा उदिण्णं वट्टमाणकाले फलं देदि एवं वज्झमाणुवसंतापि वि वट्टमाणकाले वि देंति फलं, तेहि विणा कम्मोदयस्स अभावादो। ... भूदभविस्सपज्जायाणं वट्टमाणत्तब्भुवगमादो वा णेगमणयम्मि एसावुप्पत्ती घडदे।</span> | ||
< | <span class="HindiText">= जिसके द्वारा आत्मा को अज्ञानादिरूप फल किया जाता है वह प्रकृति है, यह प्रकृति शब्द की व्युत्पत्ति है। <br> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 8/3,6/17/7 </span>णिरंतरबंधस्स धुवबंधस्स को विसेसो। जिस्से पयडीए पच्चओ जत्थ कत्थे वि जीवे अणादिधुवभावेण लब्भइ साधुवबंधपयडी। जिस्से पयडीए पच्चओ णियमेण सादि-अद्धुओ अंतोमुहुत्तादिकालावट्ठाई सा णिरंतरबंधपयडी। = <strong>प्रश्न—</strong>निरंतर-बंध और ध्रुवबंध में क्या भेद है ? <strong>उत्तर—</strong>जिस प्रकृति का प्रत्यय जिस किसी भी जीव में अनादि एवं ध्रुवभाव से पाया जाता है वह ध्रुवबंध प्रकृति है, और जिस प्रकृति का प्रत्यय नियम से सादि एवं अध्रुव तथा अंतर्मुहूर्त आदि काल तक अवस्थित रहने वाला है वह निरंतर-बंधी प्रकृति है।</p> | <strong>प्रश्न—</strong>उदीर्ण कर्म पुद्गल स्कंध की प्रकृति संज्ञा भले ही हो, क्योंकि वह फलदान स्वरूप से परिणत है। बध्यमान और उपशांत कर्म-पुद्गल स्कंधों की यह संज्ञा नहीं बन सकती, क्योंकि उनमें फलदान स्वरूप का अभाव है ? <br> | ||
< | <strong>उत्तर—</strong>1. नहीं, क्योंकि तीनों ही कालों में प्रकृति शब्द की सिद्धि की गयी है। इस कारण जो कर्म-स्कंध वर्तमान काल में फल देता है और भविष्यत् में फल देगा, इन दोनों ही कर्म स्कंधों की प्रकृति संज्ञा सिद्ध है। 2. अथवा जिस प्रकार उदय प्राप्त कर्म वर्तमान काल में फल देता है, उसी प्रकार बध्यमान और उपशम भाव को प्राप्त कर्म भी वर्तमान काल में भी फल देते हैं, क्योंकि, उनके बिना कर्मोदय का अभाव है। 3. अथवा भूत व भविष्यत् पर्यायों को वर्तमानरूप स्वीकार कर लेने से नैगम नय में यह व्युत्पत्ति बैठ जाती है।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 12/4,2,7,199/91/7 </span>पयडी अणुभागो किण्ण होदि। ण, जोगादो उप्पज्जमाणपयडीए कसायदो उप्पत्तिविरोहादो। ण च भिण्णकारणाणं कज्जाणमेयत्तं, विप्पडिसेहादो। किं च अणुभागवुड्ढी पयडिवुडढिणिमित्ता, तीए महंतीए संतीए पयडिकज्जस्स अण्णाणादियस्स वुड्ढिदंसणादो। तम्हा ण पयडी अणुभागो त्ति घेत्तव्वो। = <strong>प्रश्न—</strong>प्रकृति अनुभाग क्यों नहीं हो सकती ? <strong>उत्तर—</strong>1. नहीं, क्योंकि, प्रकृति योग के निमित्त से उत्पन्न होती है, अतएव उसकी कषाय से उत्पत्ति होने में विरोध आता है। भिन्न कारणों से उत्पन्न होने वाले कार्यों में एकरूपता नहीं हो सकती, क्योंकि इसका निषेध है। दूसरे, अनुभाग की वृद्धि प्रकृति की वृद्धि में निमित्त होती है क्योंकि, उसके महान् होने पर प्रकृति के कार्यरूप अज्ञानादिक की वृद्धि देखी जाती है। इस कारण प्रकृति अनुभाग नहीं हो सकती, ऐसा जाना चाहिए।</ | <li class="HindiText" id="4.2"><strong>प्रकृतियों की संख्या संबंधी शंका</strong></li> | ||
<p>< | <p><span class="GRef"> (धवला 6/1,9-1,13/14/5) </span><span class="PrakritText">अट्ठेव मूलपयडीओ। तं कुदो णव्वदे। अट्ठकम्मजणिदकज्जेहिंतो पुधभूदकज्जस्स अणुवलंभादो। = <br> | ||
< | <span class="HindiText"><strong>प्रश्न—</strong>यह कैसे जाना जाता है कि मूल प्रकृतियाँ आठ ही हैं ? <br> | ||
< | <strong>उत्तर—</strong>आठ कर्मों के द्वारा उत्पन्न होने वाले कार्यों से पृथग्भूत कार्य पाया नहीं जाता, इससे जाना जाता है कि मूल प्रकृतियाँ आठ ही हैं।</p> | ||
<p><span class="HindiText"><strong>नोट—</strong>(उत्तर प्रकृतियों की संख्या संबंधी शंका समाधान—देखें [[ उस उस मूल प्रकृति का नाम]] )।</span></p> | |||
<li class="HindiText" id="4.3"><strong>एक ही कर्म अनेक प्रकृतिरूप कैसे हो जाता है ?</strong></li> | |||
<p><span class="GRef"> (सर्वार्थसिद्धि/8/4/381/2 ) </span><span class="SanskritText">एकेनात्मपरिणामेनादीयमानाः पुद्गला ज्ञानावरणाद्यनेकभेदं प्रतिपद्यंते सकृदुपभुक्तान्नपरिणामरसरुधिरादिवत्। = एक बार खाये गये अन्न का जिस प्रकार रस, रुधि आदि रूप से अनेक प्रकार का परिणमन होता है उसी प्रकार एक आत्मपरिणाम के द्वारा ग्रहण किये गये पुद्गल ज्ञानावरणादि अनेक भेदों को प्राप्त होते हैं।</span> <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/4 )</span>।</p> | |||
<p><span class="GRef"> (राजवार्तिक/8/4/3,7/568/9) </span><span class="SanskritText">यथा अन्नादेरभ्यवह्नियमाणस्यानेकविकारसमर्थवातपित्तश्लेष्मखलरसभावेन परिणामविभागः तथा प्रयोगापेक्षया अनंतरमेव कर्माणि आवरणानुभवन-मोहापादन-भवधारण-नानाजातिनामगोत्र-व्यवच्छेदकरणसामर्थ्यवैश्वरूप्येण आत्मनि संनिधानं प्रतिपद्यंते।3। ... यथा अंभो नभसः पतदेकरसं भाजनविशेषात् विष्वग्रसत्वेन विपरिणमते यथा ज्ञानशक्त्युपरोधस्वभावाविशेषात् उपनिपतत् कर्म प्रत्यास्रवं सामर्थ्यभेदात् मत्याद्यावरणभेदेन व्यवतिष्ठते।7।</span> | |||
<span class="HindiText">= 1. जिस प्रकार खाये हुए भोजन का अनेक विकार में समर्थ वात, पित्त, श्लेष्म, खल, रस आदि रूप से परिणमन हो जाता है उसी तरह बिना किसी प्रयोग के कर्म आवरण, अनुभव, मोहापादन, नाना जाति, नाम, गोत्र और अंतराय आदि शक्तियों से युक्त होकर आत्मा से बंध जाते हैं।3। 2. जैसे—मेघ का जल पात्र विशेष में पड़कर विभिन्न रसों में परिणमन कर जाता है। (अथवा हरित पल्लव आदि रूप परिणमन हो जाता है।) <span class="GRef">( प्रवचनसार )</span> उसी तरह ज्ञानशक्ति का उपरोध करने से ज्ञानावरण सामान्यतः एक होकर भी अवांतर शक्ति भेद से मत्यावरण, श्रुतावरण आदि रूप से परिणमन करता है। इसी तरह अन्य कर्मों का भी मूल और उत्तर प्रकृत्ति रूप से परिणमन हो जाता है।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> (धवला/12/4,2,8,11/287/10) </span><span class="PrakritText">कम्मइयवग्गणाए पोग्गलक्खंधा एयसरूवा कधं जीवसंबंधेण अट्ठभेदमाढउक्कंते। ण, मिच्छत्तासंजम-कसायजोगपच्चयावट्ठंभबलेण समुप्पण्णट्ठसत्तिसंजुत्तजीवसंबंधेण कम्मइयपोग्गलक्खंधाणं अट्ठकम्मायारेण परिणमणं पडिविरोहाभावादो।</span> | |||
<span class="HindiText">= <strong>प्रश्न—</strong>कार्मण वर्गणा के पौद्गलिक स्कंध एक स्वरूप होते हुए जीव के संबंध से कैसे आठ भेद को प्राप्त होते हैं ? <br> | |||
<strong>उत्तर—</strong>नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगरूप प्रत्ययों के आश्रय से उत्पन्न हुई आठ शक्तियों से संयुक्त जीव के संबंध से कार्मण पुद्गल-स्कंधों का आठ कर्मों के आकार से परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है।</span></p> | |||
<li class="HindiText" id="4.4"><strong>एक ही पुद्गल कर्म में अनेक कार्य करने की शक्ति कैसे ?</strong></li> | |||
<p><span class="GRef"> (राजवार्तिक/8/4/9-14/568/26) </span><span class="SanskritText">पुद्गलद्रव्यस्यैकस्यावरणसुखदुःखादिनिमित्तत्वानुपपत्तिर्विरोधात्।9। न वा, तत्स्वाभाव्यादग्नेर्दाहपाकप्रतापप्रकाशसामर्थ्यवत्।10। अनेकपरमाणुस्निग्धरूक्षबंधापादितानेकात्मकस्कंधपर्यायार्थादेशात् स्यादनेकम् । ततश्च नास्ति विरोधः।11। पराभिप्रायेणेंद्रियाणां भिन्नजातीयानां क्षीराद्युपयोगे वृद्धिवत् ... यथा पृथिव्यप्तेजोवायुभिरारब्धानामिंद्रियाणां भिन्नजातीयानां क्षीरघृतादिष्वेकमप्युपयुज्यमानम् अनुग्राहकं दृष्टं तथेदमपि इति।12। वृद्धिरेकैव, तस्या घृताद्यनुग्राहकमिति न विरोध इति; तन्न, किं कारणम्। प्रतींद्रियं वृद्धिभेदात्। यथैवेंद्रियाणि भिन्नानि तथैवेंद्रियवृद्धयोऽपि भिन्नाः।13। यथा भिन्नजातीयेन क्षीरेण तेजोजातीयस्य चक्षुषोऽनुग्रहः, तथैव आत्मकर्मणोश्चेतनाचेतनत्वात् अतुल्यजातीयं कर्म आत्मनोऽनुग्राहकमिति सिद्धम्।</span> | |||
<span class="HindiText">= <strong>प्रश्न—</strong>पुद्गल द्रव्य जब एक है तो वह आवरण और सुख-दु:खादि अनेक कार्यों का निमित्त नहीं हो सकता? <br> | |||
<strong>उत्तर—</strong>ऐसा ही स्वभाव है। जैसे एक ही अग्नि में दाह, पाक, प्रताप और सामर्थ्य है उसी तरह एक ही पुद्गल में आवरण और सुख दु:खादि में निमित्त होने की शक्ति है, इसमें कोई विरोध नहीं है। 2. द्रव्यदृष्टि से पुद्गल एक होकर भी अनेक परमाणु के स्निग्धरूक्ष बंध से होने वाली विभिन्न स्कंध पर्यायों की दृष्टि से अनेक है, इसमें कोई विरोध नहीं है। 3. जिस प्रकार वैशेषिक के यहाँ पृथिवी, जल, अग्नि और वायु परमाणुओं से निष्पन्न भिन्नजातीय इंद्रियों का एक ही दूध या घी उपकारक होता है उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए। 4. जैसे इंद्रियाँ भिन्न हैं वैसे उनमें होने वाली वृद्धियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं। जैसे पृथिवीजातीय दूध से तेजोजातीय चक्षु का उपकार होता है उसी तरह अचेतन कर्म से भी चेतन आत्मा का अनुग्रह आदि हो सकता है। अतः भिन्न जातीय द्रव्यों में परस्पर उपकार मानने में कोई विरोध नहीं है।</span></p> | |||
<li class="HindiText" id="4.5"><strong>आठों प्रकृतियों के निर्देश का यही क्रम क्यों ?</strong></li> | |||
<p><span class="GRef"> (राजवार्तिक/8/4/16-23, 569/20) </span><span class="SanskritText">क्रमप्रयोजनं ज्ञानेनात्मनोऽधिगमात्। ततो दर्शनावरणमनाकारोपलब्धे:। .... साकारोपयोगाद्धि अनाकारोपयोगो निकृष्यते अनभिव्यक्तग्रहणात्। उत्तरेभ्यस्तु प्रकृष्यते अर्थोपलब्धितंत्रत्वात्।17। तदनंतरं वेदनावचनं तद्व्यभिचारात्। .... ज्ञानदर्शनाव्यभिचारिणी हि वेदना घटादिष्वप्रवृत्तेः।18। ततो मोहाभिधानं तद्विरोधात्। .... क्वचिद्विरोधदर्शनात् ... न सर्वत्र। मोहाभिभूतस्य हि कस्यचित् हिताहितविवेकादिर्नास्ति।19। आयुर्वचनं तत्समीपे तंनिबंधनत्वात्। .... आयुर्निबंधनानि हि प्राणिनां सुखादीनि।20। तदनंतरं नामवचनं तदुदयापेक्षात्वात् प्रायो नामोदयस्य।21। ततो गोत्रवचनं प्राप्तशरीरादिलाभस्य संशब्दनाभिव्यक्तेः।22। परिशेषादंते अंतरायवचनम्।23। </span> | |||
<span class="HindiText">= 1. ज्ञान से आत्मा का अधिगम होता है अतः स्वाधिगम का निमित्त होने से वह प्रधान है, अतः ज्ञानावरण का सर्वप्रथम ग्रहण किया है।16। 2. साकारोपयोगरूप ज्ञान से अनाकारोपयोगरूप दर्शन अप्रकृष्ट है परंतु वेदनीय आदि से प्रकृष्ट है क्योंकि उपलब्धिरूप है, अतः दर्शनावरण का उसके बाद ग्रहण किया।17। 3. इसके बाद वेदना का ग्रहण किया है, क्योंकि, वेदना ज्ञान-दर्शन की अव्यभिचारिणी है, घटादि रूप विपक्ष में नहीं पायी जाती।18। 4. ज्ञान, दर्शन और सुख-दुःख वेदना का विरोधी होने से उसके बाद मोहनीय का ग्रहण किया है। यद्यपि मोही जीवों के भी ज्ञान, दर्शन, सुखादि देखे जाते हैं फिर भी प्राय: मोहाभिभूत प्राणियों को हिताहित का विवेक आदि नहीं रहते। अतः मोह का ज्ञानादि से विरोध कह दिया है।19। 5. प्राणियों को आयु-निमित्तक सुख-दुखः होते हैं। अतः आयु का कथन इसके अनंतर किया है। तात्पर्य यह है कि प्राणधारियों को ही कर्म निमित्तक सुखादि होते हैं और प्राणधारण आयु का कार्य है।20। 6. आयु के उदय के अनुसार ही प्राय: गति आदि नामकर्म का उदय होता है अतः आयु के बाद नामकर्म का ग्रहण किया है।21। 7. शरीर आदि की प्राप्ति के बाद ही गोत्रोदय से शुभ अशुभ आदि व्यवहार होते हैं। अतः नाम के बाद गोत्र का कथन किया गया है।22। 8. अन्य कोई कर्म बचा नहीं है अतः अंत में अंतराय का कथन किया गया है।23।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> (गोम्मटसार कर्मकांड/16-20) </span><span class="PrakritText">अब्भरहिदादु पुव्वं णाणं तत्तो हि दंसणं होदि। सम्मत्तमदो विरियं जीवाजीवगदमिदि चरिमे।16। आउबलेण अवट्ठिदि भवस्स इदि णाममाउपुव्वं तु। भवमस्सिय णीचुच्चं इदि गोदं णामपुव्व तु।18। णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीयमोहणीयं। आउगणामं गोदंतरायमिदि पढिदमिदि सिद्धं।20।</span> | |||
<span class="HindiText">=1. आत्मा के सब गुणों में ज्ञानगुण पूज्य है, इस कारण सबसे पहले कहा। उसके पीछे दर्शन, तथा उसके भी पीछे सम्यक्त्व को कहा है तथा वीर्य शक्तिरूप है। वह जीव व अजीव दोनों में पाया जाता है। जीव में तो ज्ञानादि शक्तिरूप और अजीव-पुद्गल में शरीरादि की शक्तिरूप रहता है। इसी कारण सबसे पीछे कहा गया है। इसीलिए इन गुणों के आवरण करने वाले कर्मों का भी यही क्रम माना है।16। 2. (अंतराय कर्म कथंचित् अघातिया है, इसलिए उसको सर्व कर्मों के अंत में कहा है) देखें [[ अनुभाग#3.5 | अनुभाग 3.5 ]]। 3. नामकर्म का कार्य चार गति रूप शरीर की स्थिति रूप है। वह आयुकर्म के बल से ही है इसलिए आयुकर्म को पहले कहकर पीछे नामकर्म को कहा है। और शरीर के आधार से ही नीचपना व उत्कृष्टपना होता है, इस कारण नामकर्म को गोत्र के पहले कहा है।18। 4. (वेदनीयकर्म कथंचित् घातिया है। इसलिए उसको घातिया कर्मों के मध्य में कहा। देखें [[ अनुभाग#3.4 | अनुभाग - 3.4]])। 5. इस प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय यह कर्मों का पाठक्रम सिद्ध हुआ।20.</span></p> | |||
<li class="HindiText" id="4.6"><strong>ध्रुवबंधी व निरंतरबंधी प्रकृतियों में अंतर</strong></li> | |||
<p><span class="GRef"> (धवला 8/3,6/17/7) </span><span class="PrakritText">णिरंतरबंधस्स धुवबंधस्स को विसेसो। जिस्से पयडीए पच्चओ जत्थ कत्थे वि जीवे अणादिधुवभावेण लब्भइ साधुवबंधपयडी। जिस्से पयडीए पच्चओ णियमेण सादि-अद्धुओ अंतोमुहुत्तादिकालावट्ठाई सा णिरंतरबंधपयडी। <br> | |||
<span class="HindiText">= <strong>प्रश्न—</strong>निरंतर-बंध और ध्रुवबंध में क्या भेद है ?<br> | |||
<strong>उत्तर—</strong>जिस प्रकृति का प्रत्यय जिस किसी भी जीव में अनादि एवं ध्रुवभाव से पाया जाता है वह ध्रुवबंध प्रकृति है, और जिस प्रकृति का प्रत्यय नियम से सादि एवं अध्रुव तथा अंतर्मुहूर्त आदि काल तक अवस्थित रहने वाला है वह निरंतर-बंधी प्रकृति है।</span></p> | |||
<li class="HindiText" id="4.7"><strong>प्रकृति और अनुभाग में अंतर</strong></li> | |||
</ol> | |||
<p><span class="GRef"> (धवला 12/4,2,7,199/91/7) </span><span class="PrakritText">पयडी अणुभागो किण्ण होदि। ण, जोगादो उप्पज्जमाणपयडीए कसायदो उप्पत्तिविरोहादो। ण च भिण्णकारणाणं कज्जाणमेयत्तं, विप्पडिसेहादो। किं च अणुभागवुड्ढी पयडिवुडढिणिमित्ता, तीए महंतीए संतीए पयडिकज्जस्स अण्णाणादियस्स वुड्ढिदंसणादो। तम्हा ण पयडी अणुभागो त्ति घेत्तव्वो।</span> | |||
<span class="HindiText">= <strong>प्रश्न—</strong>प्रकृति अनुभाग क्यों नहीं हो सकती ?<br> | |||
<strong>उत्तर—</strong>1. नहीं, क्योंकि, प्रकृति योग के निमित्त से उत्पन्न होती है, अतएव उसकी कषाय से उत्पत्ति होने में विरोध आता है। भिन्न कारणों से उत्पन्न होने वाले कार्यों में एकरूपता नहीं हो सकती, क्योंकि इसका निषेध है। दूसरे, अनुभाग की वृद्धि प्रकृति की वृद्धि में निमित्त होती है क्योंकि, उसके महान् होने पर प्रकृति के कार्यरूप अज्ञानादिक की वृद्धि देखी जाती है। इस कारण प्रकृति अनुभाग नहीं हो सकती, ऐसा जाना चाहिए।</span></p> | |||
<li class="HindiText" id="5"><strong>प्रकृति बंध संबंधी कुछ नियम</strong></li> | |||
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<li class="HindiText" id="5.1"><strong>युगपत् बंध योग्य संबंधी</strong></li>—<span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/800/979/5 )</span>। (प्रत्यनीक, अंतराय, उपघात, प्रद्वेष, निह्नव, आसादन) ये छहों युगपत् ज्ञानावरण वा दर्शनावरण दोनों के बंध को कारण हैं।</p> | |||
<li class="HindiText" id="5.2"><strong>सांतर-निरंतर-बंधी प्रकृतियों संबंधी—</strong><span class="GRef">( धवला 8/33/5 )</span>।</li> | |||
<p>(विवक्षित उत्तर प्रकृति के बंधकाल के क्षीण होने पर नियम से (उसी मूल प्रकृति की उत्तर) प्रतिपक्षी प्रकृतियों का बंध संभव है।</p> | <p>(विवक्षित उत्तर प्रकृति के बंधकाल के क्षीण होने पर नियम से (उसी मूल प्रकृति की उत्तर) प्रतिपक्षी प्रकृतियों का बंध संभव है।</p> | ||
< | <li class="HindiText" id="5.3"><strong>ध्रुव-अध्रुव-बंधी प्रकृतियों संबंधी—</strong><span class="GRef">( धवला 8/29/40 )</span></li> | ||
<p>मूल नियम—(ओघ अथवा आदेश जिस गुणस्थान में प्रतिपक्षी प्रकृतियों का बंध होता है उस ओघ या मार्गणा स्थान के उस गुणस्थान में उन प्रकृतियों का अध्रुव बंध का नियम जानना। तथा जिस स्थान में केवल एक ही प्रकृतिका बंध है, प्रतिपक्षी का नहीं, उस स्थान में ध्रुव ही बंध जानो। यह प्रकृतियाँ ऐसी हैं जिनका बंध एक स्थान में ध्रुव होता है तथा किसी अन्य स्थान में अध्रुव हो जाता है।</p> | <p>मूल नियम—(ओघ अथवा आदेश जिस गुणस्थान में प्रतिपक्षी प्रकृतियों का बंध होता है उस ओघ या मार्गणा स्थान के उस गुणस्थान में उन प्रकृतियों का अध्रुव बंध का नियम जानना। तथा जिस स्थान में केवल एक ही प्रकृतिका बंध है, प्रतिपक्षी का नहीं, उस स्थान में ध्रुव ही बंध जानो। यह प्रकृतियाँ ऐसी हैं जिनका बंध एक स्थान में ध्रुव होता है तथा किसी अन्य स्थान में अध्रुव हो जाता है।</p> | ||
< | <li class="HindiText" id="5.4"><strong>विशेष प्रकृतियों के बंध संबंधी कुछ नियम—</strong><span class="GRef">( धवला 8/ पृष्ठ)</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/ भा./पृष्ठ)</span></li> | ||
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<p>पुरुष वेद</p> | <p>पुरुष वेद, स्त्री वेद</p> | ||
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<td width="366"> | <td width="366"> | ||
<p>नरक-तिर्यंचगति के साथ बँधे।</p> | <p>नरक-तिर्यंचगति के साथ न बँधे।</p> | ||
</td> | </td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 584: | Line 682: | ||
</table> | </table> | ||
<p> </p> | <p> </p> | ||
< | <li class="HindiText" id="5.5">सांतर निरंतर बंधी प्रकृतियों संबंधी नियम—<span class="GRef">( धवला 8/ </span>पृ.)।</li> | ||
<table> | <table> | ||
<tbody> | <tbody> | ||
Line 951: | Line 1,049: | ||
</table> | </table> | ||
<p> </p> | <p> </p> | ||
< | <li class="HindiText" id="5.6"><strong>मोह प्रकृति-बंध संबंधी कुछ नियम</strong></li> | ||
< | <ol> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 8/3,24/56/7 </span> | <li class="HindiText" id="5.6.1"><strong>क्रोधादि चतुष्क की बंध व्युच्छित्ति संबंधी दृष्टिभेद</strong></li> | ||
<p>< | <p><span class="GRef"> (धवला 8/3,24/56/7) </span><span class="PrakritText">क्रोधसंजलणे विणट्ठे जो अवसेसो अणियट्ठिअद्धाए संखेज्जादिभागो तम्हि संखेज्जे खंडे कदे तत्थ बहुभागे गंतूण एयभागावसेसे माणसंजलणस्स बंधवोच्छेदो। पुणो तम्हि एगखंडे संखेज्जखंडे कदे तत्थ बहुखंडे गंतूण एगखंडावसेसे मायासंजलणबंधवोच्छेदो त्ति। कधमेदं णव्वदे। ‘सेसे सेसे संखेज्जे भागे गंतूणेत्ति’ विच्छाणिद्देसादो। कसायपाहुडसुत्तेणेदं सुत्तं विरुज्झदि त्ति वुत्ते सच्चं विरुज्झइ, किंतु एयंतग्गहो एत्थ ण कायव्वो, इदमेव तं चेव सच्चमिदि सुदकेवलीहि पच्चक्खणाणीहि वा विणा अवहारिज्जमाणे मिच्छत्तप्पसंगादो।</span> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 8/3,28/60/10 </span>णवरि हस्स-रदीओ तिगइसंजुत्तं बंधइ, तब्बंधस्स णिरयगइबंधेण सह विरोहादो। = इतना विशेष है कि हास्य और रति को तीन गतियों से संयुक्त बाँधता है, क्योंकि इनके बंध का नरकगति के बंध के साथ विरोध है।</p> | <span class="HindiText">= संज्वलन क्रोध के विनष्ट होने पर जो शेष अनिवृत्तिबादरकाल का संख्यातवाँ भाग रहता है उसके संख्यात खंड करने पर उनमें बहुत भागों को बिताकर एक भाग शेष रहने पर संज्वलन मान का बंध-व्युच्छेद होता है। पुन: एक खंड के संख्यात खंड करने पर उनमें बहुत खंडों को बिताकर एक खंड शेष रहने पर संज्वलन माया का बंध-व्युच्छेद होता है। <br> | ||
<p><span class="GRef"> कषायपाहुड़/3/3,22/198/7 </span>एदाणि चत्तारि वि कम्माणि उक्कस्ससंकिलेसेण किण्ण बंज्झंति। ण साहावियादो। | <strong>प्रश्न—</strong>यह कैसे जाना जाता है ? <br> | ||
<p><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 3/3,22/487/271/9 </span>उक्कस्सट्ठिदिबंधकाले एदाओ किण्णबज्झंति। अच्चसुहत्ताभावादो साहावियादो वा। = <strong>प्रश्न—</strong>उत्कृष्ट स्थिति के बंधकाल में ये चारों | <strong>उत्तर—</strong>‘शेष शेष में संख्यात बहुभाग जाकर’ इस वीप्सा अर्थात् दो बार निर्देश से उक्त प्रकार दोनों प्रकृतियों का व्युच्छेद काल जाना जाता है। <br> | ||
< | <strong>प्रश्न -</strong>कषाय प्राभृत के सूत्र से तो यह सूत्र विरोध को प्राप्त होता है ? <br> | ||
<p><strong>1. गति नामकर्म</strong></p> | <strong>उत्तर—</strong>ऐसी आशंका होने पर कहते हैं कि सचमुच में कषाय प्राभृत के सूत्र से यह सूत्र विरुद्ध है, परंतु यहाँ एकांत ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि, ‘यही सत्य है’ या ‘वही सत्य है’ ऐसा श्रुतकेवलियों अथवा प्रत्यक्ष ज्ञानियों के बिना निश्चय करने पर मिथ्यात्व का प्रसंग होगा।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 8/3,8/33/8 </span>तेउक्काइया-वाउक्काइयमिच्छाइट्ठीणं सत्तमपुढविणेरइयमिच्छाइट्ठीणं च भवपडिबद्धसंकिलेसेण णिरंतरबंधोवलंभादो। ... सत्तमपुढविसासणाण तिरिक्खगइं मोत्तूणण्णगईणं बंधाभावादो।</p> | <li class="HindiText" id="5.6.2"><strong>हास्यादि के बंध संबंधी शंका-समाधान</strong></li> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 8/3,18/47/4 </span> | </ol> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 8/3,145/208/10 </span>अपज्जत्तद्धाए तासिं बंधाभावादो। = तैजसकायिक और वायुकायिक मिथ्यादृष्टियों तथा सप्तम पृथिवी के नारकी मिथ्यादृष्टियों के भव से संबंध संक्लेश के कारण उक्त दोनों (तियग्द्वय) प्रकृतियों का निरंतर बंध पाया जाता है। ... सप्तम पृथ्वी के सासादन सम्यग्दृष्टियों के तिर्यग्गति को छोड़कर अन्य गतियों का बंध नहीं होता (33/8) आनतादि देवों में (मनुष्यद्विक को) निरंतर बंध को प्राप्त कर अन्यत्र सांतर बंध पाया जाता है (47/4) अपर्याप्त काल में उनका (देव व नरक गति का ) बंध नहीं होता। | <p><span class="GRef"> (धवला 8/3,28/60/10) </span><span class="PrakritText">णवरि हस्स-रदीओ तिगइसंजुत्तं बंधइ, तब्बंधस्स णिरयगइबंधेण सह विरोहादो। = इतना विशेष है कि हास्य और रति को तीन गतियों से संयुक्त बाँधता है, क्योंकि इनके बंध का नरकगति के बंध के साथ विरोध है।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 6/1,9-2,62/103/3 </span>णिरयगईए सह जासिमक्कमेण उदओ अत्थि ताओ णिरयगईए सह बंधमागच्छंति त्ति केइं भणंति, तण्ण घडदे। = कितने ही आचार्य यह कहते हैं कि नरकगति नामक नामकर्म की प्रकृति के साथ जिन प्रकृतियों का युगपत् उदय होता है, वे प्रकृतियाँ नरकगति नामकर्म के साथ बंध को प्राप्त होती है। किंतु उनका यह कथन घटित नहीं होता।</p> | <p><span class="GRef"> (कषायपाहुड़/3/3,22/198/7) </span><span class="PrakritText">एदाणि चत्तारि वि कम्माणि उक्कस्ससंकिलेसेण किण्ण बंज्झंति। ण साहावियादो। </span> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/745/899/5 </span>अष्टाविंशतिकं नरकदेवगतियुतत्वादसंज्ञिसंज्ञितिर्यक्कर्मभूमिमनुष्या एव विग्रहगतिशरीरमिश्रकालावतीत्य पर्याप्तशरीरकाले एव बघ्नंति। | <span class="HindiText">= <strong>प्रश्न—</strong>ये स्त्री वेदादि चारों कर्म उत्कृष्ट संक्लेश से क्यों नहीं बँधते ? <strong>उत्तर—</strong>नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेश से नहीं बँधने का इनका स्वभाव है।</span></p> | ||
<p><strong>2. जाति नामकर्म</strong></p> | <p><span class="GRef"> (कषायपाहुड़ 3/3,22/487/271/9) </span><span class="PrakritText">उक्कस्सट्ठिदिबंधकाले एदाओ किण्णबज्झंति। अच्चसुहत्ताभावादो साहावियादो वा।</span> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/745/899/1 </span>देवेषु भवनत्रयसौधर्मद्वयजानामेवैकेंद्रियपर्याप्तयुतमैवं बंधं 25 एव। = भवनत्रिक सौधर्म द्विक देवनिकै एकेंद्रिय पर्याप्त युत ही पचीस का बंध है।</ | <span class="HindiText">= <strong>प्रश्न—</strong>उत्कृष्ट स्थिति के बंधकाल में ये चारों <span class="GRef">( कषायपाहुड़ 3/3,22/ </span>चूर्ण सूत्र/485/270) (स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रति) प्रकृतियाँ क्यों नहीं बँधती हैं ? <br> | ||
<p><strong>3. शरीर नामकर्म</strong></p> | <strong>उत्तर—</strong>1. क्योंकि यह प्रकृतियाँ अत्यंत अशुभ नहीं है इसलिए उस काल में इनका बंध नहीं होता। 2. अथवा उस समय न बँधने का इनका स्वभाव है।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 8/3,37/72/10 </span>अपुव्वस्सुवरिमसत्तमभागे किण्ण बंधो। ण।</p> | <li class="HindiText" id="5.7"><strong>नामकर्म की प्रकृतियों के बंध संबंधी कुछ नियम</strong></li> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/525/684/3 </span>आहारकद्वयं...देवगत्यैव बध्नंति। कुत:। संयतबंधस्थानमितराभिर्गतिभिर्न बध्नातीति कारणात् ।</p> | </ol> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/1 </span> | <p class="HindiText"><strong>1. गति नामकर्म</strong></p> | ||
<p><strong>4. अंगोपांग नामकर्म</strong></p> | <p><span class="GRef"> (धवला 8/3,8/33/8) </span><span class="PrakritText">तेउक्काइया-वाउक्काइयमिच्छाइट्ठीणं सत्तमपुढविणेरइयमिच्छाइट्ठीणं च भवपडिबद्धसंकिलेसेण णिरंतरबंधोवलंभादो। ... सत्तमपुढविसासणाण तिरिक्खगइं मोत्तूणण्णगईणं बंधाभावादो।</span></p> | ||
<p><strong><span class="GRef"> धवला 6/1, 9 </span></strong> | <p><span class="GRef"> (धवला 8/3,18/47/4) </span><span class="PrakritText">आणदादिदेवेसु णिरंतरबंध लद्धूण अण्णत्थ सांतरबंधुवलंभादो।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/685/11 </span>त्रसापर्याप्तसपर्याप्तयोरंयतरबंधेनैव षट्संहननानां त्र्यंगोपांगानां चैकतरं बंधयोग्यं नान्येन। = 1. एकेंद्रिय जीवों के अंगोपांग नहीं होते। 2. त्रस पर्याप्त वा अपर्याप्तनि विषै एक किसी प्रकृति सहित छह संहनन, तीन अंगोपांग विषै एक-एक बंध हौ है।</p> | <p><span class="GRef"> (धवला 8/3,145/208/10) </span><span class="PrakritText">अपज्जत्तद्धाए तासिं बंधाभावादो।</span> | ||
<p | <span class="HindiText">= तैजसकायिक और वायुकायिक मिथ्यादृष्टियों तथा सप्तम पृथिवी के नारकी मिथ्यादृष्टियों के भव से संबंध संक्लेश के कारण उक्त दोनों (तियग्द्वय) प्रकृतियों का निरंतर बंध पाया जाता है। ... सप्तम पृथ्वी के सासादन सम्यग्दृष्टियों के तिर्यग्गति को छोड़कर अन्य गतियों का बंध नहीं होता (33/8) आनतादि देवों में (मनुष्यद्विक को) निरंतर बंध को प्राप्त कर अन्यत्र सांतर बंध पाया जाता है (47/4) अपर्याप्त काल में उनका (देव व नरक गति का ) बंध नहीं होता।</span> <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/1 )</span>।</p> | ||
<p><strong><span class="GRef"> धवला 6/1, 9 </span></strong> | <p><span class="GRef"> (धवला 6/1,9-2,62/103/3) </span><span class="PrakritText">णिरयगईए सह जासिमक्कमेण उदओ अत्थि ताओ णिरयगईए सह बंधमागच्छंति त्ति केइं भणंति, तण्ण घडदे।</span> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 6/1,9-2,76/112/8 </span>एइंदियाणं छ संठाणाणि किण्ण परूविदाणि। ण पच्चवयवपरूविदलक्खणपंचसंठाणाणं समूहसरूवाणं छ संठाणत्थित्तविरोहा। = 1. विकलेंद्रिय जीवों के हुंडकसंस्थान इस एक प्रकृति का ही बंध और उदय होता है। (भावार्थ-तथापि संभव अवयवों की अपेक्षा अन्य भी संस्थान हो सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक अवयव में भिन्न-भिन्न संस्थान का प्रतिनियत स्वरूप माना गया है। किंतु आज यह उपदेश प्राप्त नहीं है कि उनके किस अवयव में कौन सा संस्थान किस आकार रूप से होता है) | <span class="HindiText">= कितने ही आचार्य यह कहते हैं कि नरकगति नामक नामकर्म की प्रकृति के साथ जिन प्रकृतियों का युगपत् उदय होता है, वे प्रकृतियाँ नरकगति नामकर्म के साथ बंध को प्राप्त होती है। किंतु उनका यह कथन घटित नहीं होता।</span></p> | ||
<p><strong>6. संहनन नामकर्म</strong></p> | <p><span class="GRef"> (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/745/899/5) </span><span class="SanskritText">अष्टाविंशतिकं नरकदेवगतियुतत्वादसंज्ञिसंज्ञितिर्यक्कर्मभूमिमनुष्या एव विग्रहगतिशरीरमिश्रकालावतीत्य पर्याप्तशरीरकाले एव बघ्नंति।</span> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 6/1,9-2,96/123/7 </span>देवगदीए सह छ संघडणाणि किण्ण बज्झंति। ण.।</p> | <span class="HindiText">= अठाईस का बंध नरक-देवगति युत है। इसलिए असंज्ञी संज्ञी तिर्यंच वा मनुष्य है, ते विग्रहगति मिश्रशरीर को उल्लंघकर पर्याप्त काल में बाँधता है।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/685/10 </span> | <p class="HindiText"><strong>2. जाति नामकर्म</strong></p> | ||
<p><strong>7. उपघात व परघात नामकर्म</strong></p> | <p><span class="GRef"> (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/745/899/1) </span><span class="SanskritText">देवेषु भवनत्रयसौधर्मद्वयजानामेवैकेंद्रियपर्याप्तयुतमैवं बंधं 25 एव।</span> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/685/12 </span>पर्याप्तेनैव समं वर्तमानसर्वत्रत्रसस्थावराभ्यां नियमादुच्छ्वासपरघातौ बंधयोग्यौ नान्येन। | <span class="HindiText">= भवनत्रिक सौधर्म द्विक देवनिकै एकेंद्रिय पर्याप्त युत ही पचीस का बंध है।</span></p> | ||
<p><strong>8. आतप उद्योत नामकर्म</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>3. शरीर नामकर्म</strong></p> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 6/1,9-2,102/126/1 </span>देवगदीए सह उज्जोवस्स किण्ण बंधो होदि। ण। = देवगति के साथ उद्योत प्रकृति का बंध नहीं होता।</ | <p><span class="GRef"> (धवला 8/3,37/72/10) </span><span class="PrakritText">अपुव्वस्सुवरिमसत्तमभागे किण्ण बंधो। ण।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड | <p><span class="GRef"> (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/525/684/3) </span><span class="SanskritText">आहारकद्वयं...देवगत्यैव बध्नंति। कुत:। संयतबंधस्थानमितराभिर्गतिभिर्न बध्नातीति कारणात् ।</span></p> | ||
<p><strong>9. उच्छ्वास नामकर्म</strong></p> | <p><span class="GRef"> (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/1) </span><span class="SanskritText">नात्र देवगत्याहारकद्वययुतं अप्रमत्ताकरणयोरेव तद्बंधसंभवात्।</span> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/686/12 </span>पर्याप्तैव समं वर्तमानसर्वत्रसस्थावराभ्यां नियमादुच्छ्वासपरघातौ बंधयोग्यौ नान्येन। = पर्याप्त सहित वर्तमान सर्व ही त्रस स्थावर तिनिकर सहित उच्छ्वास परघात बंधयोग्य है अन्य सहित नहीं।</p> | <span class="HindiText">= अपूर्वकरण के उपरिम सप्तम भाग में इन (आहारक द्विक) का बंध नहीं होता <span class="GRef">( धवला/8 )</span> आहारक द्विक देवगति सहित ही बांधे जातै संयत के योग्य जो बंधस्थान सो देवगति बिना अन्यगति सहित बांधै नाहीं। <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/525 )</span>। देवगति आहारक द्विक सहित स्थान न संभवै है जातैं इसका बंध अप्रमत्त अपूर्वकरण विषै ही संभवै है।</span></p> | ||
<p><strong>10. विहायोगति नामकर्म</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>4. अंगोपांग नामकर्म</strong></p> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/685/11 </span>त्रसपर्याप्तबंधेनैव सुस्वरदुस्वरयोः प्रशस्तविहायोगत्योश्चैकतरं बंधयोग्यं नान्येन। | <p><strong><span class="GRef"> (धवला 6/1, 9 -2, 76/112)</span></strong> <span class="PrakritText">एइंदियाणमंगोवंगं किण्ण परूविदं। ण।</span></p> | ||
<p><strong>11. सुस्वर-दुस्वर, दुर्भग-सुभग, आदेय-अनादेय</strong></p> | <p><span class="GRef"> (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/685/11) </span><span class="SanskritText">त्रसापर्याप्तसपर्याप्तयोरंयतरबंधेनैव षट्संहननानां त्र्यंगोपांगानां चैकतरं बंधयोग्यं नान्येन।</span> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 6/1,9-2,86/118/1 </span>दुभग-दुस्सर-अणादेज्जाणं धुवबंधित्तादो संकिलेसकाले वि बज्झमाणेण तित्थयरेण सह किण्ण बंधो। ण तेसिं बंधाणं तित्थयरबंधेण सम्मत्तेण य सह विरोहादो। संकिलेसकाले वि सुभग-सुस्सर-आदेज्जाणं चेव बंधुवलंभा। = | <span class="HindiText">= 1. एकेंद्रिय जीवों के अंगोपांग नहीं होते। 2. त्रस पर्याप्त वा अपर्याप्तनि विषै एक किसी प्रकृति सहित छह संहनन, तीन अंगोपांग विषै एक-एक बंध हौ है।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 6/1,9-2, 98/125/4 </span>का भावार्थ - (देवगति के साथ अप्रशस्त प्रकृतियों का बंध नहीं होता है।)</p> | <p class="HindiText"><strong>5. संस्थान नामकर्म</strong></p> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/685/12 </span>त्रसपर्याप्तेनैव सुस्वर-दुःस्वरयो: ... एकतरं बंधयोग्यं नान्येन। = | <p><strong><span class="GRef"> (धवला 6/1, 9 -2, 18/108/7)</span></strong><span class="PrakritText"> विगलिंदियाणं बंधो उदओ वि हुंडसंठाणमेवेत्ति।</span></p> | ||
<p><strong>12. पर्याप्त</strong>-<strong>अपर्याप्त नामकर्म</strong></p> | <p><span class="GRef"> (धवला 6/1,9-2,76/112/8) </span><span class="PrakritText">एइंदियाणं छ संठाणाणि किण्ण परूविदाणि। ण पच्चवयवपरूविदलक्खणपंचसंठाणाणं समूहसरूवाणं छ संठाणत्थित्तविरोहा।</span> | ||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/745/898/3 </span>एकेंद्रियापर्याप्तयुतत्वाद्देवनारकेभ्योऽंये त्रसस्थावरमनुष्यमिथ्यादृष्टय एव बध्नंति। = एकेंद्रिय अपर्याप्त सहित है तातैं इस स्थान को देव नारकी बिना अन्य त्रस, स्थावर, तिर्यंच या मनुष्य मिथ्यादृष्टि ही बाँधे हैं।</p> | <span class="HindiText">= 1. विकलेंद्रिय जीवों के हुंडकसंस्थान इस एक प्रकृति का ही बंध और उदय होता है। (भावार्थ-तथापि संभव अवयवों की अपेक्षा अन्य भी संस्थान हो सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक अवयव में भिन्न-भिन्न संस्थान का प्रतिनियत स्वरूप माना गया है। किंतु आज यह उपदेश प्राप्त नहीं है कि उनके किस अवयव में कौन सा संस्थान किस आकार रूप से होता है) <span class="GRef">( धवला 6/1,9-21/8/107/8 भावार्थ)</span>। 2. एकेंद्रिय जीवों के छहों संस्थान नहीं बतलाये क्योंकि प्रत्येक अवयव में प्ररूपित लक्षणवाले पाँच संस्थानों को समूहस्वरूप से धारण करने वाले एकेंद्रियों के पृथक्-पृथक् छह संस्थानों के अस्तित्व का विरोध है। (अर्थात् एकेंद्रिय जीवों के केवल हुंडकसंस्थान ही होता है।)</span></p> | ||
<p><strong>13. स्थिर-अस्थिर नामकर्म</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>6. संहनन नामकर्म</strong></p> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 6/1,9-2,93/122/4 </span>संकिलेसद्धाए बज्झमाण अप्पज्जत्तेण सह थिरादीणं विसोहिपयडीणं बंधविरोहा।</p> | <p><span class="GRef"> (धवला 6/1,9-2,96/123/7) </span><span class="PrakritText">देवगदीए सह छ संघडणाणि किण्ण बज्झंति। ण.।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 6/1, 9-2, 93/124/4 </span>एत्थ अत्थिरादीणं किण्ण बंधो होदि। ण एदासिं विसोहीए बंधविरोहा। = संक्लेशकाल में बँधनेवाले अपर्याप्त नामकर्म के साथ स्थिर आदि विशुद्धि काल में बँधनेवाली शुभ प्रकृति के बंध का विरोध है। 2. इन अस्थिर आदि अशुभ प्रकृतियों का (देवगति रूप) विशुद्धि के साथ बँधने का विरोध है।</p> | <p><span class="GRef"> (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/685/10) </span> | ||
<p><strong>14. यशः अयशः नामकर्म</strong></p> | <span class="SanskritText">त्रसापर्याप्तत्रसपर्याप्तयोरंयतरबंधेनैव षट्संहनानां ... चैकतरं बंधयोग्यम्।</span> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 6/1,9-2, 98/124/4 </span>का भावार्थ (देवगति के साथ अप्रशस्त प्रकृतियों के बँधने का विरोध है।)</p> | <span class="HindiText">= देवगति के साथ छहों संहनन नहीं बँधते। 2. त्रस पर्याप्त वा अपर्याप्त में से एक किसी प्रकृति सहित छह संहनन में से ... एक का बंध होता है।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 8/3, 6/28/7 </span>जसकित्तिं पुण णिरयगइं मोत्तूण तिगइसंजुत्तं बंधदि। = यशःकीर्ति को नरकगति को छोड़कर तीन गतियों से संयुक्त बाँधता है।</ | <p class="HindiText"><strong>7. उपघात व परघात नामकर्म</strong></p> | ||
<p>< | <p><span class="GRef"> (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/685/12) </span><span class="SanskritText">पर्याप्तेनैव समं वर्तमानसर्वत्रत्रसस्थावराभ्यां नियमादुच्छ्वासपरघातौ बंधयोग्यौ नान्येन।</span> | ||
< | <span class="HindiText">= पर्याप्त के साथ वर्तमान सब ही त्रस स्थावर तिनिकर सहित उच्छ्वास परघात बंध योग्य है, अन्य सहित नहीं।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 6/1, 9-3, 2/139/7 </span>कुदो एस बंधवोच्छेदकमो। असुह-असुहयरअसुहतमभेएण पयडीणमवट्ठाणादो। = <strong>प्रश्न—</strong>यह प्रकृतियों के बंध-व्युच्छेद का क्रम किस कारण से है ? <strong>उत्तर—</strong>अशुभ, अशुभतर और अशुभतम के भेद से प्रकृतियों का अवस्थान माना गया है। उसी अपेक्षा से यह प्रकृतियों के बंध-व्युच्छेद का क्रम है।</p> | <p class="HindiText"><strong>8. आतप उद्योत नामकर्म</strong></p> | ||
< | <p><span class="GRef"> (धवला 6/1,9-2,102/126/1) </span><span class="PrakritText">देवगदीए सह उज्जोवस्स किण्ण बंधो होदि। ण।</span> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 8/33/3,8/33/7 </span>होदु सांतरबंधो पडिवक्खपयडीणं बंधुवलंभादो; ण णिरंतरबंधो, तस्स कारणाणुवलंभादो त्ति वुत्ते वुच्चदे - ण एस दोसो, तेउक्काइया-वाउक्काइयमिच्छाइट्ठीणं सत्तमपुढविणेरइयमिच्छाइट्ठीणं च भवपडिबद्धसंकिलेसण णिरंतरं बंधोवलंभादो। = <strong>प्रश्न—</strong>प्रतिपक्षभूत प्रकृतियों के बंध की उपलब्धि होने से (तिर्यग्गति व तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी प्रकृतियों का) सांतर बंध भले ही हो, किंतु निरंतर बंध नहीं हो सकता, क्योंकि उसके कारणों का अभाव है। <strong>उत्तर—</strong>यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि तेजकायिक और वायुकायिक मिथ्यादृष्टियों तथा सप्तम पृथिवी के नारकी मिथ्यादृष्टियों के भव से संबद्ध संक्लेश के कारण उक्त दोनों प्रकृतियों का निरंतर बंध पाया जाता है।</p> | <span class="HindiText">= देवगति के साथ उद्योत प्रकृति का बंध नहीं होता।</span></p> | ||
< | <p><span class="GRef"> (गोम्मटसार कर्मकांड व टीका/524/683)</span><span class="PrakritText"> भूवादरपज्जत्तेणादावं बंधजोग्गमुज्जोवं। तेउतिगूणतिरिक्खपसत्थाणं एयदरणेण।524। पृथ्वीकायबादरपर्याप्तेनातपः बंधयोग्यो नान्येन। उद्योतस्तेजोवातसाधारणवनस्पतिसंबंधिबादरसूक्ष्माण्यंयसंबंधिसूक्ष्माणि च अप्रशस्तत्वात् त्यक्त्वा शेषतिर्यक्संबंधिबादरपर्याप्तादिप्रशस्तानामंयतरेण बंधयोग्यः, ततः पृथ्वीकायबादरपर्याप्तेनातपोद्योतान्यतरयुतं, बादराप्कायपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिपर्याप्तयोरन्यतरेणोद्योतयुतं च षड्विंशतिकं, द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियसंज्ञिपंचेंद्रियकर्मांयतरेणोद्योतयुतं त्रिंशत्कं च भवति।</span> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 8/3, 324/393/1 </span>पंचिंदियजादि-ओरालियसरीर-अंगोवंग-परघादु-स्यास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं मिच्छाइट्ठिम्हि सांतरणिरंतरो, सणक्कुमारादिदेवणेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो। विग्गहगदीए कधं णिरंतरदा। ण, सत्ति पडुच्च णिरंतरत्तुवदेसादो। = पंचेंद्रियजाति, औदारिक शरीरांगोपांग, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक शरीर का मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सांतर-निरंतर बंध होता है, क्योंकि, सनत्कुमारादि देव और नारकियों में उनका निरंतर बंध पाया जाता है। <strong>प्रश्न—</strong>विग्रह गति में बंध की निरंतरता कैसे संभव है ? <strong>उत्तर—</strong>नहीं, क्योंकि, शक्ति की अपेक्षा उसकी निरंतरता का उपदेश है।</p> | <span class="HindiText">= पृथ्वीकाय बादरपर्याप्त सहित ही आतप प्रकृति बंधयोग्य है अन्य सहित बंधे नाहीं। बहुरि उद्योत प्रकृति है सो तेज वायु साधारण वनस्पति संबंधी बादर सूक्ष्म अन्य संबंधी सूक्ष्म ये अप्रशस्त हैं तातैं इन बिना अवशेष तिर्यंच संबंधी बादर पर्याप्त आदि प्रशस्त प्रकृतिनिविषैं किसी प्रकृति सहित बंध योग्य हैं तातैं पृथ्वीकाय बादरपर्याप्त सहित आतप उद्योत विषै एक प्रकृति संयुक्त छब्बीस प्रकृति रूप बंध स्थान हो है, वा बादर अप्कायिक पर्याप्त, प्रत्येक वनस्पति पर्याप्त विषै किसी करि सहित उद्योत प्रकृति संयुक्त छब्बीस प्रकृतिरूप बंध स्थान हो है। और बेंद्री, तेंद्री, चौंद्री, पंचेंद्रियसंज्ञी, पंचेंद्रिय असंज्ञी विषै किसी एक प्रकृतिकरि सहित उद्योत प्रकृतिसंयुक्त तीस प्रकृतिरूप बंधस्थान संभवै है।</span></p> | ||
< | <p class="HindiText"><strong>9. उच्छ्वास नामकर्म</strong></p> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 8/3, 13/40/1 </span>अप्पसत्थाए तिरिक्खगईए सह कधं सादबंधो। ण, णिरयगइं व अच्चंतिय अप्पसत्थत्ताभावादो। = <strong>प्रश्न—</strong>अप्रशस्त तिर्यग्गति के साथ कैसे साता वेदनीय का बंध होना संभव है। <strong>उत्तर—</strong>नहीं, क्योंकि तिर्यग्गति नरकगति के समान अत्यंत अप्रशस्त नहीं है।</p> | <p><span class="GRef"> (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/686/12) </span><span class="SanskritText">पर्याप्तैव समं वर्तमानसर्वत्रसस्थावराभ्यां नियमादुच्छ्वासपरघातौ बंधयोग्यौ नान्येन।</span> | ||
< | <span class="HindiText">= पर्याप्त सहित वर्तमान सर्व ही त्रस स्थावर तिनिकर सहित उच्छ्वास परघात बंधयोग्य है अन्य सहित नहीं।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 3/3, 22/198/7 </span>एदाणि चत्तारि वि कम्माणि उक्कस्ससंकिलेसेण किण्ण बज्झंति। ण, साहावियादो। = <strong>प्रश्न—</strong>ये स्त्रीवेद आदि (स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रति) चारों कर्म उत्कृष्ट संक्लेश से क्यों नहीं बँधते हैं ? <strong>उत्तर—</strong>नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेश से नहीं बँधने का इनका स्वभाव है।</p> | <p class="HindiText"><strong>10. विहायोगति नामकर्म</strong></p> | ||
< | <p><span class="GRef"> (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/685/11) </span><span class="SanskritText">त्रसपर्याप्तबंधेनैव सुस्वरदुस्वरयोः प्रशस्तविहायोगत्योश्चैकतरं बंधयोग्यं नान्येन।</span> | ||
< | <span class="HindiText">= त्रस पर्याप्त सहित ही सुस्वर दुस्वर विषैं एकका वा प्रशस्त अप्रशस्तविहायोगतिविषै एकका बंध योग्य है अन्य सहित नहीं। (देवगति के साथ अशुभ प्रकृति नहीं बँधती।</span> <span class="GRef">( धवला 6/1,9-2, 98/124/4 )</span>।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong>11. सुस्वर-दुस्वर, दुर्भग-सुभग, आदेय-अनादेय</strong></p> | |||
<p><span class="GRef"> (धवला 6/1,9-2,86/118/1) </span><span class="PrakritText">दुभग-दुस्सर-अणादेज्जाणं धुवबंधित्तादो संकिलेसकाले वि बज्झमाणेण तित्थयरेण सह किण्ण बंधो। ण तेसिं बंधाणं तित्थयरबंधेण सम्मत्तेण य सह विरोहादो। संकिलेसकाले वि सुभग-सुस्सर-आदेज्जाणं चेव बंधुवलंभा।</span> | |||
<span class="HindiText">=संक्लेश काल में भी बँधने वाले तीर्थंकर नामकर्म के साथ ध्रुवबंधी होने (पर भी) दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इन प्रकृतियों का बंध नहीं होता है, क्योंकि उन प्रकृतियों के बंध का तीर्थंकर प्रकृति के साथ और सम्यग्दर्शन के साथ विरोध है। संक्लेश-काल में भी सुभग-सुस्वर और आदेय प्रकृतियों का ही बंध पाया जाता है।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> (धवला 6/1,9-2, 98/125/4) </span><span class="HindiText">का भावार्थ - (देवगति के साथ अप्रशस्त प्रकृतियों का बंध नहीं होता है।)</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/685/12) </span><span class="SanskritText">त्रसपर्याप्तेनैव सुस्वर-दुःस्वरयो: ... एकतरं बंधयोग्यं नान्येन।</span> | |||
<span class="HindiText">= त्रस पर्याप्त सहित ही सुस्वर-दुस्वर विषैं एक का बंध योग्य है अन्य सहित नहीं।</span></p> | |||
<p class="HindiText"><strong>12. पर्याप्त</strong>-<strong>अपर्याप्त नामकर्म</strong></p> | |||
<p><span class="GRef"> (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/745/898/3) </span> | |||
<span class="SanskritText">एकेंद्रियापर्याप्तयुतत्वाद्देवनारकेभ्योऽंये त्रसस्थावरमनुष्यमिथ्यादृष्टय एव बध्नंति।</span> | |||
<span class="HindiText">= एकेंद्रिय अपर्याप्त सहित है तातैं इस स्थान को देव नारकी बिना अन्य त्रस, स्थावर, तिर्यंच या मनुष्य मिथ्यादृष्टि ही बाँधे हैं।</span></p> | |||
<p class="HindiText"><strong>13. स्थिर-अस्थिर नामकर्म</strong></p> | |||
<p><span class="GRef"> (धवला 6/1,9-2,93/122/4) </span><span class="PrakritText">संकिलेसद्धाए बज्झमाण अप्पज्जत्तेण सह थिरादीणं विसोहिपयडीणं बंधविरोहा।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> (धवला 6/1, 9-2, 93/124/4) </span><span class="PrakritText">एत्थ अत्थिरादीणं किण्ण बंधो होदि। ण एदासिं विसोहीए बंधविरोहा।</span> | |||
<span class="HindiText">= संक्लेशकाल में बँधनेवाले अपर्याप्त नामकर्म के साथ स्थिर आदि विशुद्धि काल में बँधनेवाली शुभ प्रकृति के बंध का विरोध है। 2. इन अस्थिर आदि अशुभ प्रकृतियों का (देवगति रूप) विशुद्धि के साथ बँधने का विरोध है।</span></p> | |||
<p class="HindiText"><strong>14. यशः अयशः नामकर्म</strong></p> | |||
<p><span class="GRef"> (धवला 6/1,9-2, 98/124/4) </span><span class="HindiText">का भावार्थ (देवगति के साथ अप्रशस्त प्रकृतियों के बँधने का विरोध है।)</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> (धवला 8/3, 6/28/7) </span><span class="PrakritText">जसकित्तिं पुण णिरयगइं मोत्तूण तिगइसंजुत्तं बंधदि।</span> | |||
<span class="HindiText">= यशःकीर्ति को नरकगति को छोड़कर तीन गतियों से संयुक्त बाँधता है।</span></p> | |||
<li class="HindiText" id="6"><strong>प्रकृतिबंध के नियम संबंधी शंकाएँ</strong></li> | |||
<ol> | |||
<li class="HindiText" id="6.1"><strong>प्रकृतिबंध की व्युच्छित्ति का निश्चित क्रम क्यों ?</strong></li> | |||
<p><span class="GRef"> (धवला 6/1, 9-3, 2/139/7) </span><span class="PrakritText">कुदो एस बंधवोच्छेदकमो। असुह-असुहयरअसुहतमभेएण पयडीणमवट्ठाणादो।</span> | |||
<span class="HindiText">= <strong>प्रश्न—</strong>यह प्रकृतियों के बंध-व्युच्छेद का क्रम किस कारण से है ?<br> | |||
<strong>उत्तर—</strong>अशुभ, अशुभतर और अशुभतम के भेद से प्रकृतियों का अवस्थान माना गया है। उसी अपेक्षा से यह प्रकृतियों के बंध-व्युच्छेद का क्रम है।</span></p> | |||
<li class="HindiText" id="6.2"><strong>तिर्यग्गति द्विक के निरंतर बंध संबंधी</strong></li> | |||
<p><span class="GRef"> (धवला 8/33/3,8/33/7) </span><span class="PrakritText">होदु सांतरबंधो पडिवक्खपयडीणं बंधुवलंभादो; ण णिरंतरबंधो, तस्स कारणाणुवलंभादो त्ति वुत्ते वुच्चदे - ण एस दोसो, तेउक्काइया-वाउक्काइयमिच्छाइट्ठीणं सत्तमपुढविणेरइयमिच्छाइट्ठीणं च भवपडिबद्धसंकिलेसण णिरंतरं बंधोवलंभादो।</span> | |||
<span class="HindiText">= <strong>प्रश्न—</strong>प्रतिपक्षभूत प्रकृतियों के बंध की उपलब्धि होने से (तिर्यग्गति व तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी प्रकृतियों का) सांतर बंध भले ही हो, किंतु निरंतर बंध नहीं हो सकता, क्योंकि उसके कारणों का अभाव है।<br> | |||
<strong>उत्तर—</strong>यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि तेजकायिक और वायुकायिक मिथ्यादृष्टियों तथा सप्तम पृथिवी के नारकी मिथ्यादृष्टियों के भव से संबद्ध संक्लेश के कारण उक्त दोनों प्रकृतियों का निरंतर बंध पाया जाता है।</span></p> | |||
<li class="HindiText" id="6.3"><strong>पंचेंद्रियजाति व औदारिक शरीरादि के निरंतर बंध संबंधी</strong></li> | |||
<p><span class="GRef"> (धवला 8/3, 324/393/1) </span><span class="PrakritText">पंचिंदियजादि-ओरालियसरीर-अंगोवंग-परघादु-स्यास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं मिच्छाइट्ठिम्हि सांतरणिरंतरो, सणक्कुमारादिदेवणेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो। विग्गहगदीए कधं णिरंतरदा। ण, सत्ति पडुच्च णिरंतरत्तुवदेसादो।</span> | |||
<span class="HindiText">= पंचेंद्रियजाति, औदारिक शरीरांगोपांग, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक शरीर का मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सांतर-निरंतर बंध होता है, क्योंकि, सनत्कुमारादि देव और नारकियों में उनका निरंतर बंध पाया जाता है।<br> | |||
<strong>प्रश्न—</strong>विग्रह गति में बंध की निरंतरता कैसे संभव है ? <strong><br> | |||
उत्तर—</strong>नहीं, क्योंकि, शक्ति की अपेक्षा उसकी निरंतरता का उपदेश है।</span></p> | |||
<li class="HindiText" id="6.4"><strong>तिर्यग्गति के साथ साता के बंध संबंधी</strong></li> | |||
<p><span class="GRef"> (धवला 8/3, 13/40/1) </span><span class="PrakritText">अप्पसत्थाए तिरिक्खगईए सह कधं सादबंधो। ण, णिरयगइं व अच्चंतिय अप्पसत्थत्ताभावादो।</span> | |||
<span class="HindiText">= <strong>प्रश्न—</strong>अप्रशस्त तिर्यग्गति के साथ कैसे साता वेदनीय का बंध होना संभव है। | |||
<br> | |||
<strong>उत्तर—</strong>नहीं, क्योंकि तिर्यग्गति नरकगति के समान अत्यंत अप्रशस्त नहीं है।</span></p> | |||
<li class="HindiText" id="6.5"><strong>हास्यादि चारों उत्कृष्ट संक्लेश में क्यों न बँधे ?</strong></li> | |||
</ol> | |||
<p><span class="GRef"> (कषायपाहुड़ 3/3, 22/198/7) </span><span class="PrakritText">एदाणि चत्तारि वि कम्माणि उक्कस्ससंकिलेसेण किण्ण बज्झंति। ण, साहावियादो।</span> | |||
<span class="HindiText">= <strong>प्रश्न—</strong>ये स्त्रीवेद आदि (स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रति) चारों कर्म उत्कृष्ट संक्लेश से क्यों नहीं बँधते हैं ? <br> | |||
<strong>उत्तर—</strong>नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेश से नहीं बँधने का इनका स्वभाव है।</span></p> | |||
<li class="HindiText" id="7"><strong>प्रकृतिबंध विषयक प्ररूपणाएँ</strong></li> | |||
</ol> | |||
<ol> | |||
<li class="HindiText" id="7.1">सारिणी में प्रयुक्त संकेतों का परिचय</li> | |||
</ol> | |||
<p>मिथ्या. मिथ्यात्व</p> | <p>मिथ्या. मिथ्यात्व</p> | ||
<p>स</p> | <p>स</p> | ||
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[[Category: करणानुयोग]] |
Latest revision as of 15:15, 27 November 2023
- भेद व लक्षण
- प्रकृति का लक्षण
- प्रकृति बंध का लक्षण
- कर्मप्रकृति के भेद
- सादि-अनादि व ध्रुव-अध्रुवबंधी प्रकृतियों के लक्षण
- सांतर-निरंतर, व उभयबंधी प्रकृतियों के लक्षण
- परिणाम, भव व परभविक प्रत्यय रूप प्रकृतियों के लक्षण
- बंध व सत्त्व प्रकृतियों के लक्षण
- भुजगार व अल्पतर बंधादि प्रकृतियों के लक्षण
- प्रकृतियों का विभाग निर्देश
- पुण्य पाप प्रकृतियों की अपेक्षा
- जीव, पुद्गल, क्षेत्र व भवविपाकी की अपेक्षा
- परिणाम, भव व परभविक प्रत्यय की अपेक्षा
- बंध व अबंध योग्य प्रकृतियों की अपेक्षा
- सांतर, निरंतर व उभयबंधी की अपेक्षा
- सादि अनादि बंधी प्रकृतियों की अपेक्षा
- ध्रुव व अध्रुवबंधी प्रकृतियों की अपेक्षा
- सप्रतिपक्ष व अप्रतिपक्ष प्रकृतियों की अपेक्षा
- अंतर्भाव योग्य प्रकृतियाँ
- प्रकृति बंध निर्देश
- आठ प्रकृतियों के आठ उदाहरण
- पुण्य व पाप प्रकृतियों का कार्य
- अघातिया कर्मों का कार्य
- प्रकृति बंध विषयक शंका समाधान
- बध्यमान व उपशांत कर्म में ‘प्रकृति’ व्यपदेश कैसे
- प्रकृतियों की संख्या संबंधी शंका
- एक ही कर्म अनेक प्रकृति रूप कैसे हो जाता है
- एक ही पुद्गल कर्म में अनेक कार्य करने की शक्ति कैसे
- आठों प्रकृतियों के निर्देश का यही क्रम क्यों
- ध्रुवबंधी व निरंतर बंधी प्रकृतियों में अंतर
- प्रकृति व अनुभाग में अंतर
- प्रकृति बंध संबंधी कुछ नियम
- युगपत् बंध योग्य संबंधी
- सांतर निरंतर बंधी प्रकृतियों संबंधी
- ध्रुव अध्रुव बंधी प्रकृतियों संबंधी
- विशेष प्रकृतियों के बंध संबंधी कुछ नियम
- सांतर निरंतर बंधी प्रकृतियों संबंधी नियम
- मोह प्रकृति बंध संबंधी कुछ नियम
- नामकर्म की प्रकृतियों के बंध संबंधी कुछ नियम
- प्रकृति बंध के नियम संबंधी शंकाएँ
- प्रकृति बंध को व्युच्छित्ति का निश्चित क्रम क्यों
- तिर्यग्द्विक के निरंतर बंध संबंधी
- पंचेंद्रिय जाति औदारिक शरीरादि के निरंतर बंध संबंधी
- तिर्यग्गति के साथ साता के बंध संबंधी
- हास्यादि चोरों उत्कृष्ट संक्लेश में क्यों न बंधें
- प्रकृति बंध विषयक प्ररूपणाएँ
- सारणी में प्रयुक्त संकेतों का परिचय
- बंध व्युच्छित्ति ओघ प्ररूपणा
- सातिशय मिथ्यादृष्टि में बंध योग्य प्रकृतियाँ
- सातिशय मिथ्यादृष्टि में प्रकृतियों का अनुबंध
- बंध व्युच्छित्ति आदेश प्ररूपणा
- सामान्य प्रकृति बंधस्थान ओघ प्ररूपणा
- विशेष प्रकृति बंधस्थान ओघ प्ररूपणा
- मोहनीय बंध स्थान ओघ प्ररूपणा
- नामकर्म प्ररूपणा संबंधी संकेत
- नामकर्म के बंध के योग्य आठ स्थानों का विवरण
- नामकर्म बंध स्थान ओघ प्ररूपणा
- जीव समासों में नामकर्म बंधस्थान प्ररूपणा
- नामकर्म बंध स्थान आदेश प्ररूपणा
- मूल उत्तर प्रकृतियों में जघन्योत्कृष्ट बंध तथा अन्य संबंधी प्ररूपणाओं की सूची
* देखें - उदय, सत्त्व व संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ
* प्रकृतियों में घाती अघाती की अपेक्षा। - देखें अनुभाग ।
* स्वोदय परोदय बंधी प्रकृतियाँ।- देखें उदय - 7।
* उदय व्युच्छित्ति के पहले, पीछे वा युगपत् बंध व्युच्छित्ति वाली प्रकृतियाँ।- देखें उदय - 7।
* द्रव्यकर्म की सिद्धि आदि।- देखें कर्म - 3।
* सिद्धों के आठ गुणों में किस-किस प्रकृति का निमित्त है। - देखें मोक्ष - 3।
* प्रकृति बंध में योग कारण है।- देखें बंध - 5.1।
* किस प्रकृति में 10 करणों से कितने करण संभव है।- देखें करण - 2।
* प्रत्येक प्रकृति की वर्गणा भिन्न है।- देखें वर्गणा निर्देश 2.7।
* कर्म प्रकृतियों के सांकेतिक नाम।- देखें उदय - 6.1।
* तीर्थंकर प्रकृति बंध संबंधी नियम।- देखें तीर्थंकर - 2 ।
* आयु प्रकृतिबंध संबंधी प्ररूपणा नियमादि।- देखें आयु - 6 ।
* प्रकृतियों में सर्वघाती देशघाती संबंधी विचार।- देखें अनुभाग 4.1 ।
* विकलेंद्रियों में हुंडक संस्थान के बंध संबंधी।- देखें उदय - 5।
* आयु प्रकृति बंध संबंधी प्ररूपणा।- देखें आयु - 7 ।
* बंध, उदय व सत्त्व की संयोगी प्ररूपणाएँ।- देखें उदय - 8।
* मूल उत्तर प्रकृति बंध व बंध को विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।
- देखें वह वह नाम ।
* बंध, उदय व सत्त्व की संयोगी प्ररूपणाएँ।- देखें उदय - 8।
* मूल उत्तर प्रकृति बंध व बंध को विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।
- देखें वहवह नाम ।
- भेद व लक्षण
- प्रकृति का लक्षण
- स्वभाव के अर्थ में (पंचसंग्रह / प्राकृत/4/514-515) पयडी एत्थ सहावो...। 514। एक्कम्मि महुर-पयडी। ....515। = प्रकृति नाम स्वभाव का है।...। 514। जैसे - किसी एक वस्तु में मधुरता का होना उसकी प्रकृति है। 515। (पंचसंग्रह/संस्कृत/366-367); (/ धवला/10/4,2,4,213/510/8 )।
- एकार्थवाची नाम
- प्रकृति बंध का लक्षण
- कर्म प्रकृति के भेद
- मूल व उत्तर दो भेद
- मूल प्रकृति के आठ भेद
- उत्तर प्रकृति के 148 भेद
- असंख्यात भेद
- सादि-अनादि व ध्रुव-अध्रुवबंधी प्रकृतियों के लक्षण
- सांतर, निरंतर व उभय-बंधी प्रकृतियों के लक्षण
- परिणाम, भव व परभविक प्रत्यय रूप प्रकृतियों के लक्षण
- बंध व सत्त्व प्रकृतियों के लक्षण
- भुजगार व अल्पतर बंधादि प्रकृतियों के लक्षण
- प्रकृतियों का विभाग निर्देश
- पुण्य-पापरूप प्रकृतियों की अपेक्षा
- जीव, पुद्गल, क्षेत्र व भवविपाकी की अपेक्षा
- परिणाम, भव व परभविक प्रत्यय की अपेक्षा
- बंध व अबंध-योग्य प्रकृतियों की अपेक्षा
- सांतर, निरंतर व उभय-बंधी की अपेक्षा
- सादि अनादि बंधी प्रकृतियों की अपेक्षा
- ध्रुव व अध्रुव बंधी प्रकृतियों की अपेक्षा
- सप्रतिपक्ष व अप्रतिपक्ष प्रकृतियों की अपेक्षा
- अंतर्भाव योग्य प्रकृतियाँ
- प्रकृतिबंध निर्देश
- आठ प्रकृतियों के आठ उदाहरण
- पुण्य व पाप प्रकृतियों का कार्य
- अघातिया कर्मों का कार्य
- प्रकृति बंध विषयक शंका-समाधान
- बध्यमान व उपशांत कर्म में ‘प्रकृति’ व्यपदेश कैसे ?
- प्रकृतियों की संख्या संबंधी शंका
- एक ही कर्म अनेक प्रकृतिरूप कैसे हो जाता है ?
- एक ही पुद्गल कर्म में अनेक कार्य करने की शक्ति कैसे ?
- आठों प्रकृतियों के निर्देश का यही क्रम क्यों ?
- ध्रुवबंधी व निरंतरबंधी प्रकृतियों में अंतर
- प्रकृति और अनुभाग में अंतर
- प्रकृति बंध संबंधी कुछ नियम
- युगपत् बंध योग्य संबंधी —( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/800/979/5 )। (प्रत्यनीक, अंतराय, उपघात, प्रद्वेष, निह्नव, आसादन) ये छहों युगपत् ज्ञानावरण वा दर्शनावरण दोनों के बंध को कारण हैं।
- सांतर-निरंतर-बंधी प्रकृतियों संबंधी—( धवला 8/33/5 )।
- ध्रुव-अध्रुव-बंधी प्रकृतियों संबंधी—( धवला 8/29/40 )
- विशेष प्रकृतियों के बंध संबंधी कुछ नियम—( धवला 8/ पृष्ठ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/ भा./पृष्ठ) <tbody> </tbody>
- सांतर निरंतर बंधी प्रकृतियों संबंधी नियम—( धवला 8/ पृ.)। <tbody> </tbody>
- मोह प्रकृति-बंध संबंधी कुछ नियम
- क्रोधादि चतुष्क की बंध व्युच्छित्ति संबंधी दृष्टिभेद
- हास्यादि के बंध संबंधी शंका-समाधान
- नामकर्म की प्रकृतियों के बंध संबंधी कुछ नियम
- प्रकृतिबंध के नियम संबंधी शंकाएँ
- प्रकृतिबंध की व्युच्छित्ति का निश्चित क्रम क्यों ?
- तिर्यग्गति द्विक के निरंतर बंध संबंधी
- पंचेंद्रियजाति व औदारिक शरीरादि के निरंतर बंध संबंधी
- तिर्यग्गति के साथ साता के बंध संबंधी
- हास्यादि चारों उत्कृष्ट संक्लेश में क्यों न बँधे ?
- प्रकृतिबंध विषयक प्ररूपणाएँ
(सर्वार्थसिद्धि/8/3/378/9) प्रकृतिः स्वभावः। निम्वस्य का प्रकृतिः। तिक्तता। गुडस्य का प्रकृतिः। मधुरता। तथा ज्ञानावरणस्य का प्रकृतिः। अर्थानवगमः।...इत्यादि। = प्रकृति का अर्थ स्वभाव है। जिस प्रकार नीम की क्या प्रकृति है? कडुआपन। गुड की क्या प्रकृति है? मीठापन। उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म की क्या प्रकृति है? अर्थ का ज्ञान न होना।...इत्यादि। ( राजवार्तिक/8/3/4/567/1 ); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/936 )।
(धवला 12/4,2,10,2/303/2) प्रक्रियते अज्ञानादिकं फलमनया आत्मनः इति प्रकृतिशब्दव्युत्पत्तेः। ...जो कम्मखंधो जीवस्स वट्टमाणकाले फलं देइ जो च देइस्सदि, एदेसिं दोण्णं पि कम्मक्खंधाणं पयडित्तं सिद्धं। = 1. जिसके द्वारा आत्मा को अज्ञानादि रूप फल किया जाता है, वह प्रकृति है, यह प्रकृति शब्द की व्युत्पत्ति है। ....2. जो कर्म स्कंध वर्तमान काल में फल देता है और जो भविष्यत् में फल देगा, इन दोनों ही कर्म स्कंधों की प्रकृति संज्ञा सिद्ध है।
(गोम्मटसार कर्मकांड/2/3) पयडी सीलसहावो....।....। 2। = प्रकृति, शील और स्वभाव ये सब एकार्थ हैं।
(पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/48) शक्तिर्लक्ष्म विशेषो धर्मोरूपं गुणः स्वभावाश्च। प्रकृतिः शीलं चाकृतिरेकार्थवाचका अमी शब्दाः। 48। = शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण तथा स्वभाव, प्रकृति, शील और आकृति ये सब एकार्थवाची हैं।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/40 ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मणां तत्तद्योग्यपुद्गलद्रव्य-स्वीकारः प्रकृतिबंधः। = ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मों के उस कर्म के योग्य ऐसा जो पुद्गल द्रव्य का स्व-आकार वह प्रकृति बंध है।
(मूलाचार/1221) दुविहो य पयडिबंधो मूलो तह उत्तरो चेव। = प्रकृतिबंध मूल और उत्तर ऐसे दो प्रकार का है। 1221। ( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/1 ) ( कषायपाहुड़ 2/2-22 चूर्ण सूत्र/41/20); ( राजवार्तिक/8/3/11/567/20 ); ( धवला 6/1,9-1,3/5/6 ); (पंचसंग्रह/संस्कृत/2/1)
(षट्खंडागम 13/5,5/ सूत्र 19/205)..... कम्मपयडी णाम सा अट्ठविहा- णाणावरणीयकम्मपयडी एवं दंसणावरणीय-वेयणीय- मोहणीय-आउअ-णामा-गोद-अंतराइयकम्मपयडी चेदि।19। = नोआगम कर्म द्रव्य प्रकृति आठ प्रकार की ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय कर्म प्रकृति।19। ( षट्खंडागम 6/1,9-1/ सूत्र 4-12/6-13); ( तत्त्वार्थसूत्र/8/4 ); (मूलाचार/1222); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/2 ); ( नयचक्र बृहद्/84 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/8/7 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/31/90/6 )।
(तत्त्वार्थसूत्र/8/5) पंचनवद्व्यष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्द्विपंचभेदा यथाक्रमम्।5। = आठ मूल प्रकृतियों के अनुक्रम से पाँच, नौ, दो, अट्टाईस, चार, ब्यालीस, दो और पाँच भेद हैं।5। (विशेष देखो—उस-उस मूल प्रकृति का नाम) ( षट्खंडागम/6/1,9-1/ सूत्र/पृष्ठ 13/14; 15/31; 17/34;19/ 37;25/48;29/49;45/77;46/78); ( षट्खंडागम 13/5,5/ सूत्र/पृष्ठ 20/209;84/363;88/356;90/357;99/362;101/363;135/388;137/389); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/4 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/22/15 ); (पंचसंग्रह/संस्कृत/2/3-35)।
(गोम्मटसार कर्मकांड/7/6) तं पुण अट्टविहं वा अडदालसयं असंखलोगं वा। ताणं पुण घादित्ति अ-घादित्ति य होंति सण्णाओ।7। = सामान्य कर्म आठ प्रकार है, वा एक सौ अड़तालीस प्रकार है, वा असंख्यात लोकप्रमाण प्रकार है। तिनकी पृथक् - पृथक् घातिया व अघातिया ऐसी संज्ञा है।7।
(पंचाध्यायी/ उत्तरार्ध/1000) उत्तरोत्तरभैदैश्च लोकासंख्यातमात्रकम्। शक्तितोऽनंतसंज्ञश्च सर्वकर्मकदंबकं।1000। (अवश्यं सति सम्यक्त्वे तल्लब्ध्यावरणक्षतिः) ( पंचाध्यायी x`/856 )
= उत्तरोत्तर भेदों की अपेक्षा से कर्म असंख्यात लोक प्रमाण हैं। तथा अपने अविभाग प्रतिच्छेदों के शक्ति की अपेक्षा से संपूर्ण कर्मों का समूह अनंत है। 1000। (ज्ञान से चेतनावरण- स्वानुभूत्यावरण कर्म का नाश अवश्य होता है। इत्यादि और भी देखें नामकर्म )।
(पंचसंग्रह/प्राकृत/4/233) साइ अबंधाबंधइ अणाइबंधो य जीवकम्माणं। धुवबंधो य अभव्वे बंध-विणासेण अद्धुवो होज्ज। 233। = विवक्षित कर्म प्रकृति के अबंध अर्थात् बंध-विच्छेद हो जाने पर पुन: जो उसका बंध होता है, उसे सादिबंध कहते हैं। जीव और कर्म के अनादि कालीन बंध को अनादिबंध कहते हैं। अभव्य के बंध को ध्रुवबंध कहते हैं। एक बार बंध का विनाश होकर पुन: होने वाले बंध को अध्रुवबंध कहते हैं। अथवा भव्य के बंध को अध्रुवबंध कहते हैं।
(धवला 8/3,6/17/7) जिस्से पयडीए पच्चओ जत्थ कत्थ वि जीवे अणादि- धुवभावेण लब्भइ सा धुवबंधीपयडी। = जिस प्रकृति का प्रत्यय जिस किसी भी जीव में अनादि एवं ध्रुव भाव से पाया जाता है वह ध्रुवबंध प्रकृति है।
(गोम्मटसार कर्मकांड व टीका/123/124) सादि अबंधबंधे सेढिअणारूढगे अणादीहु। अभव्वसिद्धम्हि धुवो भवसिद्धे अद्धुवो बंधो।123। सादिबंधः अबंधपतितस्य कर्मणः पुनर्बंधे सति स्यात्, यथा ज्ञानावरणपंचकस्य उपशांतकषायादवतरतः सूक्ष्मसांपराये। यत्कर्म यस्मिन् गुणास्थाने व्युच्छिद्यते तदनंतरोपरितनगुणस्थानं श्रेणिः तत्रानारूढे अनादिबंधः स्यात्, यथा सूक्ष्मसांपरायचरमसमयादधस्तत्पंचकस्य। तु-पुन: अभव्यसिद्धे ध्रुवबंधो भवति निष्प्रतिपक्षाणां बंधस्य तत्रानाद्यनंतत्वात्। भव्यसिद्धे अध्रुवबंधो भवति। सूक्ष्मसांपराये बंधस्य व्युच्छित्त्या तत्पंचकादीनामिव। = जिस कर्म के बंध का अभाव होकर फिर बंध होइ तहाँ तिस कर्म के बंध कौ सादि कहिये। जैसे- ज्ञानावरण की पाँच प्रकृति का बंध सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान पर्यंत जीव के था। पीछे वही जीव उपशांत कषाय गुणस्थानकौं प्राप्त भया तब ज्ञानावरण के बंध का अभाव भया। पीछे वही जीव उतर कर सूक्ष्मसांपराय को प्राप्त हुआ वहाँ उसके पुन: ज्ञानावरण का बंध भया तहाँ तिस बंधकौं सादि कहिये। ऐसे ही और प्रकृतिनिका जानना। जिस गुणस्थान में जिस कर्म की व्युच्छित्ति होइ, तिस गुणस्थान के अनंतर ऊपरि के गुणस्थान को अप्राप्त भया जो जीव ताके तिस कर्म का अनादिबंध जानना। जैसे - ज्ञानावरण की व्युच्छित्ति सूक्ष्मसांपराय का अंत विषैं है। ताके अनंतर ऊपरकै गुणस्थान को जो जीव अप्राप्त भया ताकै ज्ञानावरण का अनादिबंध है। ऐसे ही अन्य प्रकृतियों का जानना। - बहुरि अभव्यसिद्ध जो अभव्यजीव तीहिविषैं ध्रुवबंध जानना। जातै निःप्रतिपक्ष जे निरंतर बंधी कर्म प्रकृति का बंध अभव्य के अनादि अनंत पाइए है। बहुरि भव्यसिद्धविषैं अध्रुव बंध है जातैं भव्य जीवकैं बंध का अभाव भी पाइए वा बंध भी पाइए। जैसे - ज्ञानावरण पंचक की सूक्ष्म सांपराय विषै बंध की व्युच्छित्ति भई। नोट - (इसी प्रकार उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट तथा जघन्य व अजघन्य बंध की अपेक्षा भी सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव विकल्प यथा संभव जानना। ( (गोम्मटसार कर्मकांड/जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका 91/75/15)।
(गोम्मटसार कर्मकांड/भाषा/90/75/4) विवक्षित बंध का बीच में अभाव होइ बहुरि जो बंध होइ सो सादिबंध है। बहुरि कदाचित् अनादि तैं बंध का अभाव न हूवा होइ तहाँ अनादिबंध है। निरंतर बंध हुआ करे सो ध्रुवबंध है। अंतरसहित बंध होइ सो अध्रुवबंध कहते हैं।
(धवला 8/3, 6/17/8) जिस्से पयडीए पच्चओ णियमेण सादि अद्धुओ अंतोमुहुत्तादिकालावट्ठाई सा णिरंतरबंधपयडी। जिस्से पयडीए अद्धाक्खएण बंधवोच्छेदो संभवइ सा सांतरबंधपयडी। = जिस प्रकृति का प्रत्यय नियम से सादि एवं अध्रुव तथा अंतर्मुहूर्त आदि काल तक अवस्थित रहने वाला है, वह निरंतर-बंधी प्रकृति है। जिस प्रकृति का कालक्षय से बंध-व्युच्छेद संभव है वह सांतरबंधी प्रकृति है।
(गोम्मटसार कर्मकांड/भाषा/406-407/570/17) जैसे — अन्य गति का जहाँ बंध पाइये तहां तौ देवगति सप्रतिपक्षी है सो तहाँ कोई समय देव गति का बंध होई, कोइ समय अन्य गति का बंध होई तातै सांतरबंधी है। जहाँ अन्य गति का बंध नाहीं केवल देवगति का बंध है तहाँ देवगति निष्प्रतिपक्षी है सो तहाँ समय समय प्रति देवगति का बंध पाइए तातै निरंतर-बंधी है। तातै देवगति उभयबंधी है।
(लब्धिसार/जीव तत्त्व प्रदीपिका/306-307-388) पंचविंशतिप्रकृतय: परिणामप्रत्ययाः, आत्मनो विशुद्धिसंक्लेशपरिणामहानिवृद्ध्यनुसारेण एतत्प्रकृतमनुभागस्य हानिवृद्धिसद्भावात्।306। चतुस्त्रिंशत्प्रकृतयो, भवप्रत्यया:। एतासामनुभागस्य विशुद्धिसंक्लेशपरिणामहानिवृद्धिनिरपेक्षतया विवक्षितभवाश्रयेणैव षट्स्थानपतितहानिवृद्धिसंभवात् । अत: कारणादवस्थितविशुद्धिपरिणामेऽप्युपशांतकषाये एतच्चतुस्त्रिंशत्प्रकृतीनां अनुभागोदयस्त्रिस्थानसंभवो भवति। कदाचिद्धीयते कदाचिद्वर्धते कदाचिद्धानिवृद्धिभ्यां विना एकादृशं एवावतिष्ठते।307। = पच्चीस प्रकृति परिणाम प्रत्यय हैं। इनका उदय होने के प्रथम समय में आत्मा के विशुद्धि-संक्लेश परिणाम हानि-वृद्धि लिये जैसे पाइए तैसे हानि-वृद्धि लिये इनका अनुभाग तहाँ उदय होइ। वर्तमान परिणाम के अनुसार इनका अनुभाग-उत्कर्षण अपकर्षण हो है।306। चौंतीस प्रकृति भव प्रत्यय हैं। आत्मा के परिणाम जैसे होई। तिनकी अपेक्षारहित पर्याय ही का आश्रय करि इनका अनुभाग विषै षट्स्थानरूप हानि-वृद्धि पाइये है तातै इनका अनुभाग का उदय इहाँ (उपशांतकषाय गुणस्थान में) तीन अवस्था लीएँ है। कदाचित् हानिरूप, कदाचित् वृद्धिरूप, कदाचित् अवस्थित जैसा का तैसा रहे हैं।307।
(धवला 6/1,9 -8, 14/293/25) विशेषार्थ- नामकर्म की जिन प्रकृतियों का परभव संबंधी देवगति के साथ बंध होता है उन्हें परभविक नामकर्म कहा है।
(धवला 12/4,2,14,38/495/11) जासिं पयडीणं ट्ठिदिसंतादो उवरि कम्हि विकाले ट्ठिदिबंधो संभवदि ताओ बंधपयडीओ णाम। जासिं पुण पयडीणं बधो चेव णत्थि, बंधे संते वि जासिं पयडीणं ट्ठिदि संतादो उवरि सव्वकालं बंधो ण संभवदि, ताओ संतपयडीओ, संतपहाणत्तादो। ण च आहारदुग-तित्थयराणं ट्ठिदिसंतादो उवरि बंधो अत्थि, सम्माइट्ठीसु तदणुवलंभादो तम्हा सम्मामिच्छत्ताणं व एदाणि तिण्णि वि संतकम्माणि। = जिन प्रकृतियों का स्थिति सत्त्व से अधिक किसी भी काल में बंध संभव है, वे बंध प्रकृतियाँ कही जाती हैं। परंतु जिन प्रकृतियों का बंध ही नहीं होता है और बंध के होने पर भी जिन प्रकृतियों का स्थिति सत्त्व से अधिक सदा काल बंध संभव नहीं है वे सत्त्व प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि सत्त्व की प्रधानता है। आहारक द्विक और तीर्थंकर प्रकृति का स्थिति सत्त्व से अधिक बंध संभव नहीं है, क्योंकि वह सम्यग्दृष्टियों में नहीं पाया जाता है। इस कारण सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व के समान तीनों ही सत्त्व प्रकृतियाँ हैं।
महाबंध/270/145/2 याओ एण्णिं ट्ठिदीओ बंधदि अणंतरादिसक्का-विदविदिक्कंते समये अप्पदरादो बहुदरं बंधदि त्ति एसो भुजगारबंधो णाम। .... याओ एण्णि ट्ठिदीओ बंधदि अणंतरउस्सक्काविदविदिक्कंते समये बहुदरादो अप्पदरं बंधदि त्ति एसो अप्पदरबंधो णाम।... याओ एण्णि ट्ठिदीओ बंधदि अणंतरओसक्काविदउस्सक्काविदविदिक्कंते समये तत्तियाओ ततियाओ चेव बंधदि त्ति एसो अवट्ठिदिबंधो णाम। ... अबंधदो बंधदि त्ति एसो अवत्तव्वबंधो णाम। = वर्तमान समय में जिन स्थितियों को बाँधता है उन्हें अनंतर अतिक्रांत समय में घटी हुई बाँधी गयी अल्पतर स्थिति से बहुतर बाँधता है यह भुजगारबंध है। ...वर्तमान समय में जिन स्थितियों को बाँधता है, उन्हें अनंतर अतिक्रांत समय में बढ़ी हुई बाँधी गई बहुतर स्थिति से अल्पतर बाँधता है यह अल्पतरबंध है। ... वर्तमान समय में जिन स्थितियों को बाँधता है, उन्हें अनंतर अतिक्रांत समय में घटी हुई या बढ़ी हुई बाँधी गयी स्थिति से उतनी ही बाँधता है, यह अवस्थित बंध है। अर्थात् - प्रथम समय में अल्प का बंध करके अनंतर बहुत का बंध करना भुजगारबंध है। इसी प्रकार बहुत का बंध करके अल्प का बंध करना अल्पतरबंध है। पिछले समय में जितना बंध किया है, अगले समय में उतना ही बंध करना अवस्थितबंध है। ( (गोम्मटसार कर्मकांड/469/615;563-564/764) ) ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/453/602/5 )। बंध का अभाव होने के बाद पुन: बाँधता है यह अवक्तव्यबंध है।
(गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/470/616/10)
सामान्येन भंगविवक्षामकृत्वा अवक्तव्यबंध:।
= सामान्यपने से भंग विवक्षा को किये बिना अवक्तव्यबंध है।
तत्त्वार्थसूत्र/8/25-26 सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्।25। अतोऽन्यत्पापम्।26। = साता वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र ये प्रकृतियाँ पुण्यरूप हैं।25। इनके सिवा शेष सब प्रकृतियाँ पापरूप हैं।26। ( नयचक्र बृहद्/161 ); (द्रव्यसंग्रह/मूल/38); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/643/1095/3 )।
(पंचसंग्रह / प्राकृत/453-459) सायं तिण्णेवाऊग मणुयदुगं देवदुव य जाणाहि। पंचसरीरं पंचिदियं च संठाणमाईयं।453। तिण्णि य अंगोवंगं पसत्थविहायगइ आइसंघयणं। वण्णचउक्कं अगुरु य परघादुस्सास उज्जोवं।454। आदाव तसचउक्कं थिर सुह सुभगं च सुस्सरं णिमिणं। आदेज्जं जसकित्ती तित्थयरं उच्च बादालं।455। णाणांतरायदसयं दंसणणव मोहणीय छव्वीसं। णिरयगइ तिरियदोण्णि य तेसिं तह आणुपुव्वीयं।456। संठाणं पंचेव य संघयणं चेव होंति पंचेव। वण्णचउक्कं अपसत्थविहायगई य उवघायं।457। एइंदियणिरयाऊ तिण्णि य वियलिंदियं असायं च। अप्पज्जत्तं थावर सुहुमं साहारणं णाम।458। दुब्भग दुस्सरमजसं अणाइज्जं चेव अथिरमसुहं च। णीचागोदं च तहा वासीदी अप्पसत्थं तु।459।
(गोम्मटसार कर्मकांड/42,44/44-45) अट्ठसट्ठी बादालमभेददो सत्था।42। बंधुदयं पडिभेदे अडणउदि सयं दुचदुरसीदिदरे।44। = पुण्य प्रकृतियाँ—साता वेदनीय, नरकायु के बिना तीन आयु, मनुष्य द्विक, देवद्विक, पाँच शरीर, पंचेंद्रिय जाति, आदि का समचतुरस्र संस्थान, तीनों अंगोपांग, प्रशस्त विहायोगति, आदि का वज्रवृषभनाराच संहनन, प्रशस्तवर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, आतप, त्रस चतुष्क, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, निर्माण, आदेय, यशस्कीर्ति, तीर्थंकर और उच्चगोत्र; ये ब्यालीस प्रशस्त, शुभ या पुण्यप्रकृतियाँ हैं। 453-455। 2. पाप प्रकृतियाँ—ज्ञानवरण की पाँच, अंतराय की पाँच, दर्शनावरण की नौ, मोहनीय की छब्बीस, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, आदि के बिना शेष पाँच संस्थान, आदि के बिना शेष पाँचों संहनन, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, उपघात, एकेंद्रियजाति, नरकायु, तीन विकेलेंद्रिय जातियाँ, असाता वेदनीय, अपर्याप्त, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, दुर्भग, दुःस्वर, अयशःकीर्ति, अनादेय, अस्थिर, अशुभ और नीचगौत्र, ये ब्यासी (82) अप्रशस्त, अशुभ या पाप प्रकृतियाँ हैं।456-459। 3. भेद-अपेक्षा से 68 प्रकृति पुण्यरूप हैं और अभेद विवक्षाकरि पाँच बंधन, 5 संघात और 16 वर्णादिक घटाइये 42 प्रकृति प्रशस्त हैं।42। भेद-विवक्षाकरि बंधरूप 98 प्रकृतियाँ हैं, उदयरूप 100 प्रकृतियाँ हैं। अभेद-विवक्षाकरि वर्णादि 16 घटाइ बंधरूप 82 प्रकृति हैं, उदयरूप 84 प्रकृति हैं।44। ( सर्वार्थसिद्धि/8/25-26/404/3 ), (राजवार्तिक/8/25-26/586/6,15), ( गोम्मटसार कर्मकांड/41-44/44 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/38/158/10 ), (पंचसंग्रह/संस्कृत/4/275-284)।
(पंचसंग्रह / प्राकृत/490-493) पण्णरसं छ तिय छ पंच दोण्णि पंच य हवंति अट्ठेव। सरीरादिय फासंता। य पयडीओ आणुपुव्वीए।490। अगुरुयलहुगुवघाया परघाया आदवुज्जोव णिमिणणामं च। पत्तेयथिर-सुहेदरणामाणि य पुग्गल विवागा।490। आऊणि भवविवागी खेत्तविवागी उ आणुपुव्वी य। अवसेसा पयडोओ जीवविवागी मुणेयव्वा।492। वेयणीय-गोय-घाई-णभगई जाइ आण तित्थयरं। तस-जस-बायर-पुण्णा सुस्सर-आदेज्ज-सुभगजुयलाइं।493। = 1. शरीर नामकर्म से आदि लेकर स्पर्श नामकर्म तक की प्रकृतियाँ आनुपूर्वी से शरीर 5, बंधन 5 और संघात 5, इस प्रकार 15; संस्थान 6, अंगोपांग 3, संहनन 6, वर्ण 5, गंध 2, रस 5 और स्पर्श आठ; तथा अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, निर्माण, प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभ; ये सर्व 62 प्रकृतियाँ पुद्गल-विपाकी हैं, (क्योंकि इन प्रकृतियों का फलस्वरूप विपाक पुद्गलरूप शरीर में होता है।) 2. आयु कर्म की चारों प्रकृतियाँ भवविपाकी हैं (क्योंकि इनका विपाक नरकादि भवों में होता है।) 3. चारों आनुपूर्वी प्रकृतियाँ क्षेत्रविपाकी हैं। (क्योंकि इनका विपाक विग्रह गतिरूप में होता है ) 4. शेष 78 प्रकृतियाँ जीवविपाकी जानना चाहिए, (क्योंकि उनका विपाक जीव में होता है।490-492। वेदनीय की 2, गोत्र की 2, घाति कर्मों की 47, विहायोगति 2, गति 4, जाति 5, श्वासोच्छवास 1, तीर्थंकर 1, तथा त्रस, यशःकीर्ति, बादर, पर्याप्त, सुस्वर, आदेय और सुभग, इन सात युगलों की 14 प्रकृतियाँ; इस प्रकार सर्व मिलाकर 78 प्रकृतियाँ जीवविपाकी हैं।493। ( राजवार्तिक/8/23/7/584/33 ), ( धवला 14/ गाथा 1-4/13-14), ( गोम्मटसार कर्मकांड/47-50/47 ), (पंचसंग्रह/संस्कृत/4/326-333)।
(लब्धिसार/ जीव तत्त्व प्रदीपिका/306-307) ध्रुवोदयप्रकृतयस्तैजसकार्मणशरीरवर्णगंधरसस्पर्शस्थिरास्थिरशुभाशुभागुरुलघुनिर्माणनामानो द्वादश, सुभगादेययशस्कीर्तय: उच्चैर्गोत्रं पंचांतररायप्रकृतय: केवलज्ञानावरणीयंकेवलदर्शनावरणीयं निद्रा प्रचला चेति पंचविंशतिप्रकृतय: परिणामप्रत्ययाः।306। मतिश्रुतावधिमन:पर्ययज्ञानावरणचतुष्यं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणत्रयं सातासातवेदनीयद्वयं मनुष्यायुर्मनुष्यगतिपंचेंद्रियजात्यौदारिकशरीरतदंगोपांगाद्यसंहननत्रयषट्संस्थानोपघातपरघातोच्छ्वासविहायोगतिद्वयप्रत्येकत्रसबादरपर्याप्तस्वरद्वयनामप्रकृतयश्चतुर्विंशतिरिति चतुस्त्रिंशत्प्रकृतिभवप्रत्यया:।307। = 1. तैजस, कार्मण शरीर, वर्णादि 4, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशभु, अगुरुलघु, निर्माण ये नामकर्म की ध्रुवोदयी 12 प्रकृति अर सुभग, आदेय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र, पाँच अंतराय, केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण अर निद्रा, प्रचला ये पच्चीस प्रकृति परिणाम प्रत्यय है।306। 2. अवशेष ज्ञानावरण की 4, दर्शनावरण की 3, वेदनीय की 2, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेंद्रिय जाति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, आदि के तीन संहनन, 6 संस्थान, उपघात, परघात, उच्छ्वास, विहायोगति दो, प्रत्येक, त्रस, बादर, पर्याप्त स्वर की दोय ऐसे 34 प्रकृति भव प्रत्यय है।
(धवला 6/1,9-8,14/293/26) पर विशेषार्थ-परभविक नामकर्म ... की प्रकृतियाँ कम-से-कम 27 और अधिक-से-अधिक 30 होती हैं।—1. देवगति, 2. पंचेंद्रियजाति, 3-6. औदारिक शरीर को छोड़कर चार शरीर, 7. समचतुरस्रसंस्थान, 8. वैक्रियिक और 9. आहारक अंगोपांग, 10. देवगत्यानुपूर्वी, 11. वर्ण, 12. गंध, 13. रस, 14. स्पर्श, 15-18. अगुरुलघु आदि चार, 19. प्रशस्त विहायोगति, 20-23. त्रसादि चार, 24. स्थिर, 25. शुभ, 26. सुभग 27. सुस्वर, 28. आदेय, 29. निर्माण और 30. तीर्थंकर। इनमें से आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग और तीर्थंकर, ये तीन प्रकृतियाँ जब नहीं बँधती तब शेष 27 ही बँधती हैं।
1. बंध-योग्य प्रकृतियाँ
पंचसंग्रह / प्राकृत/2/5 पंच णव दोण्णि छव्बीसमवि य चउरो कमेण सत्तीट्ठी। दोण्णि य पंच य भणिया एयाओ बंधपयडीओ।5। =ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की नौ, वेदनीय की दो, मोहनीय की छब्बीस, आयुकर्म की चार, नामकर्म की सड़सठ, गोत्रकर्म की दो और अंतरायकर्म की पाँच, इस प्रकार 120 बँधने योग्य उत्तर प्रकृतियाँ कही गयी हैं।5। ( गोम्मटसार कर्मकांड 35/40 )।
गोम्मटसार कर्मकांड/37/41 भेदे छादालसयं इदरे बंधे हवंति वीससयं। = भेद-विवक्षा से मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति के बिना 146 प्रकृतियाँ बंध योग्य हैं। अर अभेद-विवक्षा से 120 प्रकृतियाँ बंध योग्य हैं।
2. बंध अयोग्य प्रकृतियाँ
(पंचसंग्रह / प्राकृत/2/6) वण्ण-रस-गंध-फासा चउ चउ इगि सत्त सम्ममिच्छत्तं। होंति अबंधा बंधण पण पण संघाय सम्मत्तं।6। = चार वर्ण, चार रस, एक गंध, सात स्पर्श, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, पाँच बंधन और पाँच संघात, ये अठ्ठाईस (28) प्रकृतियाँ बंध के अयोग्य होती हैं।6।
(पंचसंग्रह/3/74-77) तित्थयराहारदुअं चउ आउ धुवा य वेइ चउवण्णं। एयाणं सव्वाणं पयडीणं णिरंतरो बंधो।74। संठाणं संघयणं अंतिमदसयं च साइ उज्जोयं। इगिविगलिंदिय थावर संढित्थी अरइ सोय अयसं च।75। दुब्भग दुस्सरमसुभं सुहुमं साहारणं अपज्जत्तं णिरयदुअमणादेयं असायमथिरं विहायमपसत्थं।76। चउतीसं पयडीणं बंधो णियमेण संतरो भणिओ। बत्तीस सेसियाणं बंधो समयम्मि उभओ वि।77।
(धवला 8/3,6/18/2) तासिं णामणिद्देसो कीरदे। तं जहा-सादावेदणीयपुरिसवेद-हस्स-रदि-तिरिक्खगइ-मणुस्सगइ-देवगइ-पंचिंदिय-जादि-ओरालिय-वेउव्विय-सरीर-समचउरससंठाण-ओरालिय-वेउव्विय- सरीर- अंगोवंग-वज्जरिसह-वइरणारायणसरीरसंघडण-तिरिक्खगइ-मणुस्सगइ-देवगइपाओग्गाणुपुव्वि-परघादुस्सास-पसत्थ-विहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-णीचुच्चागोदमिदि सांतर-णिरंतरेण बज्झमाणपयडीओ। = 1. तीर्थंकर, आहारकद्विक, चारों आयु, और ध्रुवबंधी सैंतालीस प्रकृतियाँ, इन सब चौवन प्रकृतियों का निरंतर बंध होता है।74। 2. अंतिम पाँच संस्थान, अंतिम पाँच संहनन, साता वेदनीय, उद्योत, एकेंद्रिय जाति, तीन विकलेंद्रिय जातियाँ, स्थावर, नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, अरति, शोक, अयशःकीर्ति, दुर्भग, दुःस्वर, अशुभ, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, नरकद्विक, अनादेय, असाता वेदनीय, अस्थिर, और अप्रशस्त विहायोगति; इन चौंतीस प्रकृतियों का नियम से सांतर बंध कहा गया है।75-76। ( धवला 8/3,6/16/6 )। 3. शेष बची बत्तीस प्रकृतियों का बंध परमागम में उभयरूप अर्थात् सांतर और निरंतर कहा गया है।77। उनका नाम निर्देश किया जाता है। वह इस प्रकार है—सातावेदनीय, पुरुष वेद, हास्य, रति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेंद्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक शरीरांगोपांग, वैक्रियिक शरीरांगोपांग, वज्रर्षभनाराचशरीर सहंनन, तिर्यग्मनुष्य व देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, नीच गोत्र, उच्चगोत्र, ये सांतर-निरंतर रूप से बँधनेवाली हैं। ( धवला 8/3, 6/ गाथा/17-19/17), ( गोम्मटसार कर्मकांड/404-407/568 ), (पंचसंग्रह/संस्कृत/3/93-101)
(पंचसंग्रह / प्राकृत/4/235-236) साइ अणाइ य धुव अद्धुवो य बंधो दु कम्मछक्कस्स। तइए साइयसेसा अणाइधुव सेसओ आऊ।235। उत्तर -पयडीसु तहा धुवियाणं बंध चउवियप्पो दु। सादिय अद्धुवियाओ सेसा परियत्तमाणीओ।236।
=1. मूल प्रकृतियों की अपेक्षा—ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, नाम, गोत्र और अंतराय, इन छह कर्मों का सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव चारों प्रकार का बंध होता है। वेदनीय कर्म का सादि बंध को छोड़कर शेष तीन प्रकार का बंध होता है। आयुकर्म का अनादि और ध्रुव बंध के सिवाय शेष दो प्रकार का बंध होता है।235।
2. उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा—उत्तर प्रकृतियों में जो सैतालीस ध्रुवबंधी प्रकृतियाँ है, उनका चारों प्रकार का बंध होता है तथा शेष बची जो तेहत्तर प्रकृतियाँ हैं, उनका सादिबंध और अध्रुवबंध होता है।236। ( गोम्मटसार कर्मकांड/124/126 )।
(पंचसंग्रह / प्राकृत/4/237) आवरण विग्घ सव्वे कसाय मिच्छत्त णिमिण वण्णचदुं। भयणिंदागुरुतेयाकम्मुवघायं धुवाउ सगदालं।237।
1. ध्रुवबंधी प्रकृतियाँ—पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, पाँच अंतराय, सभी अर्थात् सोलह कषाय, मिथ्यात्व, निर्माण, वर्णादि चार, भय, जुगुप्सा, अगुरुलघु, तैजस शरीर, कार्मण शरीर और उपघात; ये सैंतालीस ध्रुवबंधी प्रकृतियाँ हैं।237। ( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/9 ); (पंचसंग्रह/संस्कृत/2/42-43); (पंचसंग्रह/संस्कृत/4/107-108); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/124/126/6 )।
2. अध्रुवबंधी प्रकृतियाँ—निष्प्रतिपक्ष और सप्रतिपक्ष के भेद से परिवर्तमान (अध्रुवबंधी) प्रकृतियों के दो भेद हैं। अतः देखो ‘अगला शीर्षक’।
(पंचसंग्रह / प्राकृत/238-240) परघादुस्सासाणं आयावुज्जोवमाउ चत्तारि। तित्थयराहारदुयं एक्कारस होंति सेसाओ।238। सादियरं वेयाविहस्साइचउक्क पंच जाईओ। संठाणं संघयणं छच्छक्क चउक्क आणुपुव्वीय।239। गइ चउ दोय सरीरं गोयं च य दोण्णि अंगबंगा य।239। दह जुयलाण तसाइं गयणगइदुअं विसट्ठिपरिवत्ता।240।
1. निष्प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ — परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, चारों आयु, तीर्थंकर और आहारक द्विक ये ग्यारह अध्रुव निष्प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं।238। ( पंचसंग्रह / प्राकृत/210 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/125 ) (पंचसंग्रह/संस्कृत/2/44), (पंचसंग्रह/संस्कृत 4/109-110)।
2. सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ — साता वेदनीय, असाता वेदनीय, तीनों वेद, हास्यादि चार (हास्य, रति, अरति और शोक), एकेंद्रियादि 5 जातियाँ, छह संस्थान, छह संहनन, 4 आनुपूर्वी, 4 गति, औदारिक और वैक्रियिक ये दो शरीर तथा इन दोनों के दो अंगोपांग, दो गोत्र, त्रसादि दश युगल (त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुस्वर, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति ये 20) और दो विहायोगति, ये बासठ सप्रतिपक्ष अध्रुवबंधी प्रकृतियाँ हैं।239-240। ( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/11-12 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड/125/127 ); (पंचसंग्रह/संस्कृत/2/45-46); (पंचसंग्रह/संस्कृत/4/111-112)
(गोम्मटसार कर्मकांड/34/39) देहे अविणाभावी बंधणसंघाद इदि अबंधुदया। वण्णचउक्केऽभिण्णे गहिदे चत्तारि बंधुदये।34। = पाँचों प्रकार के शरीरों का अपना-अपना बंधन व संघात अविनाभावी है। इसलिए बंध और उदय में पाँच बंधन व पाँच संघात ये दशों जुदे न कहे शरीर प्रकृति विषै गर्भित किये तथा अभेद विवक्षा से वर्णादिक की मूलप्रकृति चार ही ग्रहण की, 20 नहीं।
(पंचसंग्रह / प्राकृत/2/3) पड पडिहारसिमज्जाहडि चित्त कुलालभंडयारीणं। जह एदेसिं भावा तह वि य कम्मा मुणेयव्वा।3। = पट (देव-मुख का आच्छादक वस्त्र), प्रतीहार (राजद्वार पर बैठा हुआ द्वारपाल), असि (मधुलिप्त तलवार), मद्य (मदिरा), हडि (पैर फँसाने का खोड़ा), चित्रकार (चितेरा), कुंभकार और भंडारी (कोषाध्यक्ष) इन आठों के जैसे अपने-अपने कार्य करने के भाव होते हैं, उन ही प्रकार क्रमशः कर्मों के भी स्वभाव समझना चाहिए।3। ( गोम्मटसार कर्मकांड/21/15 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/20/13/13 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/33/92/8 )।
(परमात्मप्रकाश/ मूल/2/63) पावें णारउ तिरिउ जिउ पुण्णें अमरु वियाणु। मिस्सें माणुस-गइ लहइ दोहि वि खइ णिव्वाणु।63। = यह जीव पाप के उदय से नरकगति और तिर्यंच गति पाता है, पुण्य से देव होता है, पुण्य और पाप के मेल से मनुष्य गति को पाता है, और दोनों के क्षय से मोक्ष को पाता है।
(कषायपाहुड़ 1/1,1/70/16) पर विशेषार्थ- जिनके उदय का प्रधानतया कार्य संसार की निमित्तभूत सामग्री को प्रस्तुत करना है, उन्हें अघातियाकर्म कहते हैं।
देखें वेदनीय - 2 (वेदनीयकर्म के कारण नाना प्रकार के शारीरिक सुख-दुःख के कारणभूत बाह्य सामग्री की प्राप्ति होती है।)
(धवला 12/4,2,10,2/303/2) प्रक्रियते अज्ञानादिकं फलमनया आत्मन: इति प्रकृतिशब्दव्युत्पत्तेः।.... उदीर्णस्य भवतु नाम प्रकृतिव्यपदेशः, फलदातृत्वेन परिणतत्वात्। न बध्यमानोपशांतयोः, तत्र तद्भावादिति। न, त्रिष्वपि कालेषु प्रकृति शब्दसिद्धेः। तेण जो कम्मक्खंधो जीवस्स वट्टमाणकाले फलं देइ जो च देइस्सदि, एदेसिं दोण्णं पि कम्मक्खंधाणं पयडित्तं सिद्धं। अधवा, जहा उदिण्णं वट्टमाणकाले फलं देदि एवं वज्झमाणुवसंतापि वि वट्टमाणकाले वि देंति फलं, तेहि विणा कम्मोदयस्स अभावादो। ... भूदभविस्सपज्जायाणं वट्टमाणत्तब्भुवगमादो वा णेगमणयम्मि एसावुप्पत्ती घडदे।
= जिसके द्वारा आत्मा को अज्ञानादिरूप फल किया जाता है वह प्रकृति है, यह प्रकृति शब्द की व्युत्पत्ति है।
प्रश्न—उदीर्ण कर्म पुद्गल स्कंध की प्रकृति संज्ञा भले ही हो, क्योंकि वह फलदान स्वरूप से परिणत है। बध्यमान और उपशांत कर्म-पुद्गल स्कंधों की यह संज्ञा नहीं बन सकती, क्योंकि उनमें फलदान स्वरूप का अभाव है ?
उत्तर—1. नहीं, क्योंकि तीनों ही कालों में प्रकृति शब्द की सिद्धि की गयी है। इस कारण जो कर्म-स्कंध वर्तमान काल में फल देता है और भविष्यत् में फल देगा, इन दोनों ही कर्म स्कंधों की प्रकृति संज्ञा सिद्ध है। 2. अथवा जिस प्रकार उदय प्राप्त कर्म वर्तमान काल में फल देता है, उसी प्रकार बध्यमान और उपशम भाव को प्राप्त कर्म भी वर्तमान काल में भी फल देते हैं, क्योंकि, उनके बिना कर्मोदय का अभाव है। 3. अथवा भूत व भविष्यत् पर्यायों को वर्तमानरूप स्वीकार कर लेने से नैगम नय में यह व्युत्पत्ति बैठ जाती है।
(धवला 6/1,9-1,13/14/5) अट्ठेव मूलपयडीओ। तं कुदो णव्वदे। अट्ठकम्मजणिदकज्जेहिंतो पुधभूदकज्जस्स अणुवलंभादो। =
प्रश्न—यह कैसे जाना जाता है कि मूल प्रकृतियाँ आठ ही हैं ?
उत्तर—आठ कर्मों के द्वारा उत्पन्न होने वाले कार्यों से पृथग्भूत कार्य पाया नहीं जाता, इससे जाना जाता है कि मूल प्रकृतियाँ आठ ही हैं।
नोट—(उत्तर प्रकृतियों की संख्या संबंधी शंका समाधान—देखें उस उस मूल प्रकृति का नाम )।
(सर्वार्थसिद्धि/8/4/381/2 ) एकेनात्मपरिणामेनादीयमानाः पुद्गला ज्ञानावरणाद्यनेकभेदं प्रतिपद्यंते सकृदुपभुक्तान्नपरिणामरसरुधिरादिवत्। = एक बार खाये गये अन्न का जिस प्रकार रस, रुधि आदि रूप से अनेक प्रकार का परिणमन होता है उसी प्रकार एक आत्मपरिणाम के द्वारा ग्रहण किये गये पुद्गल ज्ञानावरणादि अनेक भेदों को प्राप्त होते हैं। ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/4 )।
(राजवार्तिक/8/4/3,7/568/9) यथा अन्नादेरभ्यवह्नियमाणस्यानेकविकारसमर्थवातपित्तश्लेष्मखलरसभावेन परिणामविभागः तथा प्रयोगापेक्षया अनंतरमेव कर्माणि आवरणानुभवन-मोहापादन-भवधारण-नानाजातिनामगोत्र-व्यवच्छेदकरणसामर्थ्यवैश्वरूप्येण आत्मनि संनिधानं प्रतिपद्यंते।3। ... यथा अंभो नभसः पतदेकरसं भाजनविशेषात् विष्वग्रसत्वेन विपरिणमते यथा ज्ञानशक्त्युपरोधस्वभावाविशेषात् उपनिपतत् कर्म प्रत्यास्रवं सामर्थ्यभेदात् मत्याद्यावरणभेदेन व्यवतिष्ठते।7। = 1. जिस प्रकार खाये हुए भोजन का अनेक विकार में समर्थ वात, पित्त, श्लेष्म, खल, रस आदि रूप से परिणमन हो जाता है उसी तरह बिना किसी प्रयोग के कर्म आवरण, अनुभव, मोहापादन, नाना जाति, नाम, गोत्र और अंतराय आदि शक्तियों से युक्त होकर आत्मा से बंध जाते हैं।3। 2. जैसे—मेघ का जल पात्र विशेष में पड़कर विभिन्न रसों में परिणमन कर जाता है। (अथवा हरित पल्लव आदि रूप परिणमन हो जाता है।) ( प्रवचनसार ) उसी तरह ज्ञानशक्ति का उपरोध करने से ज्ञानावरण सामान्यतः एक होकर भी अवांतर शक्ति भेद से मत्यावरण, श्रुतावरण आदि रूप से परिणमन करता है। इसी तरह अन्य कर्मों का भी मूल और उत्तर प्रकृत्ति रूप से परिणमन हो जाता है।
(धवला/12/4,2,8,11/287/10) कम्मइयवग्गणाए पोग्गलक्खंधा एयसरूवा कधं जीवसंबंधेण अट्ठभेदमाढउक्कंते। ण, मिच्छत्तासंजम-कसायजोगपच्चयावट्ठंभबलेण समुप्पण्णट्ठसत्तिसंजुत्तजीवसंबंधेण कम्मइयपोग्गलक्खंधाणं अट्ठकम्मायारेण परिणमणं पडिविरोहाभावादो।
= प्रश्न—कार्मण वर्गणा के पौद्गलिक स्कंध एक स्वरूप होते हुए जीव के संबंध से कैसे आठ भेद को प्राप्त होते हैं ?
उत्तर—नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगरूप प्रत्ययों के आश्रय से उत्पन्न हुई आठ शक्तियों से संयुक्त जीव के संबंध से कार्मण पुद्गल-स्कंधों का आठ कर्मों के आकार से परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है।
(राजवार्तिक/8/4/9-14/568/26) पुद्गलद्रव्यस्यैकस्यावरणसुखदुःखादिनिमित्तत्वानुपपत्तिर्विरोधात्।9। न वा, तत्स्वाभाव्यादग्नेर्दाहपाकप्रतापप्रकाशसामर्थ्यवत्।10। अनेकपरमाणुस्निग्धरूक्षबंधापादितानेकात्मकस्कंधपर्यायार्थादेशात् स्यादनेकम् । ततश्च नास्ति विरोधः।11। पराभिप्रायेणेंद्रियाणां भिन्नजातीयानां क्षीराद्युपयोगे वृद्धिवत् ... यथा पृथिव्यप्तेजोवायुभिरारब्धानामिंद्रियाणां भिन्नजातीयानां क्षीरघृतादिष्वेकमप्युपयुज्यमानम् अनुग्राहकं दृष्टं तथेदमपि इति।12। वृद्धिरेकैव, तस्या घृताद्यनुग्राहकमिति न विरोध इति; तन्न, किं कारणम्। प्रतींद्रियं वृद्धिभेदात्। यथैवेंद्रियाणि भिन्नानि तथैवेंद्रियवृद्धयोऽपि भिन्नाः।13। यथा भिन्नजातीयेन क्षीरेण तेजोजातीयस्य चक्षुषोऽनुग्रहः, तथैव आत्मकर्मणोश्चेतनाचेतनत्वात् अतुल्यजातीयं कर्म आत्मनोऽनुग्राहकमिति सिद्धम्।
= प्रश्न—पुद्गल द्रव्य जब एक है तो वह आवरण और सुख-दु:खादि अनेक कार्यों का निमित्त नहीं हो सकता?
उत्तर—ऐसा ही स्वभाव है। जैसे एक ही अग्नि में दाह, पाक, प्रताप और सामर्थ्य है उसी तरह एक ही पुद्गल में आवरण और सुख दु:खादि में निमित्त होने की शक्ति है, इसमें कोई विरोध नहीं है। 2. द्रव्यदृष्टि से पुद्गल एक होकर भी अनेक परमाणु के स्निग्धरूक्ष बंध से होने वाली विभिन्न स्कंध पर्यायों की दृष्टि से अनेक है, इसमें कोई विरोध नहीं है। 3. जिस प्रकार वैशेषिक के यहाँ पृथिवी, जल, अग्नि और वायु परमाणुओं से निष्पन्न भिन्नजातीय इंद्रियों का एक ही दूध या घी उपकारक होता है उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए। 4. जैसे इंद्रियाँ भिन्न हैं वैसे उनमें होने वाली वृद्धियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं। जैसे पृथिवीजातीय दूध से तेजोजातीय चक्षु का उपकार होता है उसी तरह अचेतन कर्म से भी चेतन आत्मा का अनुग्रह आदि हो सकता है। अतः भिन्न जातीय द्रव्यों में परस्पर उपकार मानने में कोई विरोध नहीं है।
(राजवार्तिक/8/4/16-23, 569/20) क्रमप्रयोजनं ज्ञानेनात्मनोऽधिगमात्। ततो दर्शनावरणमनाकारोपलब्धे:। .... साकारोपयोगाद्धि अनाकारोपयोगो निकृष्यते अनभिव्यक्तग्रहणात्। उत्तरेभ्यस्तु प्रकृष्यते अर्थोपलब्धितंत्रत्वात्।17। तदनंतरं वेदनावचनं तद्व्यभिचारात्। .... ज्ञानदर्शनाव्यभिचारिणी हि वेदना घटादिष्वप्रवृत्तेः।18। ततो मोहाभिधानं तद्विरोधात्। .... क्वचिद्विरोधदर्शनात् ... न सर्वत्र। मोहाभिभूतस्य हि कस्यचित् हिताहितविवेकादिर्नास्ति।19। आयुर्वचनं तत्समीपे तंनिबंधनत्वात्। .... आयुर्निबंधनानि हि प्राणिनां सुखादीनि।20। तदनंतरं नामवचनं तदुदयापेक्षात्वात् प्रायो नामोदयस्य।21। ततो गोत्रवचनं प्राप्तशरीरादिलाभस्य संशब्दनाभिव्यक्तेः।22। परिशेषादंते अंतरायवचनम्।23। = 1. ज्ञान से आत्मा का अधिगम होता है अतः स्वाधिगम का निमित्त होने से वह प्रधान है, अतः ज्ञानावरण का सर्वप्रथम ग्रहण किया है।16। 2. साकारोपयोगरूप ज्ञान से अनाकारोपयोगरूप दर्शन अप्रकृष्ट है परंतु वेदनीय आदि से प्रकृष्ट है क्योंकि उपलब्धिरूप है, अतः दर्शनावरण का उसके बाद ग्रहण किया।17। 3. इसके बाद वेदना का ग्रहण किया है, क्योंकि, वेदना ज्ञान-दर्शन की अव्यभिचारिणी है, घटादि रूप विपक्ष में नहीं पायी जाती।18। 4. ज्ञान, दर्शन और सुख-दुःख वेदना का विरोधी होने से उसके बाद मोहनीय का ग्रहण किया है। यद्यपि मोही जीवों के भी ज्ञान, दर्शन, सुखादि देखे जाते हैं फिर भी प्राय: मोहाभिभूत प्राणियों को हिताहित का विवेक आदि नहीं रहते। अतः मोह का ज्ञानादि से विरोध कह दिया है।19। 5. प्राणियों को आयु-निमित्तक सुख-दुखः होते हैं। अतः आयु का कथन इसके अनंतर किया है। तात्पर्य यह है कि प्राणधारियों को ही कर्म निमित्तक सुखादि होते हैं और प्राणधारण आयु का कार्य है।20। 6. आयु के उदय के अनुसार ही प्राय: गति आदि नामकर्म का उदय होता है अतः आयु के बाद नामकर्म का ग्रहण किया है।21। 7. शरीर आदि की प्राप्ति के बाद ही गोत्रोदय से शुभ अशुभ आदि व्यवहार होते हैं। अतः नाम के बाद गोत्र का कथन किया गया है।22। 8. अन्य कोई कर्म बचा नहीं है अतः अंत में अंतराय का कथन किया गया है।23।
(गोम्मटसार कर्मकांड/16-20) अब्भरहिदादु पुव्वं णाणं तत्तो हि दंसणं होदि। सम्मत्तमदो विरियं जीवाजीवगदमिदि चरिमे।16। आउबलेण अवट्ठिदि भवस्स इदि णाममाउपुव्वं तु। भवमस्सिय णीचुच्चं इदि गोदं णामपुव्व तु।18। णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीयमोहणीयं। आउगणामं गोदंतरायमिदि पढिदमिदि सिद्धं।20। =1. आत्मा के सब गुणों में ज्ञानगुण पूज्य है, इस कारण सबसे पहले कहा। उसके पीछे दर्शन, तथा उसके भी पीछे सम्यक्त्व को कहा है तथा वीर्य शक्तिरूप है। वह जीव व अजीव दोनों में पाया जाता है। जीव में तो ज्ञानादि शक्तिरूप और अजीव-पुद्गल में शरीरादि की शक्तिरूप रहता है। इसी कारण सबसे पीछे कहा गया है। इसीलिए इन गुणों के आवरण करने वाले कर्मों का भी यही क्रम माना है।16। 2. (अंतराय कर्म कथंचित् अघातिया है, इसलिए उसको सर्व कर्मों के अंत में कहा है) देखें अनुभाग 3.5 । 3. नामकर्म का कार्य चार गति रूप शरीर की स्थिति रूप है। वह आयुकर्म के बल से ही है इसलिए आयुकर्म को पहले कहकर पीछे नामकर्म को कहा है। और शरीर के आधार से ही नीचपना व उत्कृष्टपना होता है, इस कारण नामकर्म को गोत्र के पहले कहा है।18। 4. (वेदनीयकर्म कथंचित् घातिया है। इसलिए उसको घातिया कर्मों के मध्य में कहा। देखें अनुभाग - 3.4)। 5. इस प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय यह कर्मों का पाठक्रम सिद्ध हुआ।20.
(धवला 8/3,6/17/7) णिरंतरबंधस्स धुवबंधस्स को विसेसो। जिस्से पयडीए पच्चओ जत्थ कत्थे वि जीवे अणादिधुवभावेण लब्भइ साधुवबंधपयडी। जिस्से पयडीए पच्चओ णियमेण सादि-अद्धुओ अंतोमुहुत्तादिकालावट्ठाई सा णिरंतरबंधपयडी।
= प्रश्न—निरंतर-बंध और ध्रुवबंध में क्या भेद है ?
उत्तर—जिस प्रकृति का प्रत्यय जिस किसी भी जीव में अनादि एवं ध्रुवभाव से पाया जाता है वह ध्रुवबंध प्रकृति है, और जिस प्रकृति का प्रत्यय नियम से सादि एवं अध्रुव तथा अंतर्मुहूर्त आदि काल तक अवस्थित रहने वाला है वह निरंतर-बंधी प्रकृति है।
(धवला 12/4,2,7,199/91/7) पयडी अणुभागो किण्ण होदि। ण, जोगादो उप्पज्जमाणपयडीए कसायदो उप्पत्तिविरोहादो। ण च भिण्णकारणाणं कज्जाणमेयत्तं, विप्पडिसेहादो। किं च अणुभागवुड्ढी पयडिवुडढिणिमित्ता, तीए महंतीए संतीए पयडिकज्जस्स अण्णाणादियस्स वुड्ढिदंसणादो। तम्हा ण पयडी अणुभागो त्ति घेत्तव्वो।
= प्रश्न—प्रकृति अनुभाग क्यों नहीं हो सकती ?
उत्तर—1. नहीं, क्योंकि, प्रकृति योग के निमित्त से उत्पन्न होती है, अतएव उसकी कषाय से उत्पत्ति होने में विरोध आता है। भिन्न कारणों से उत्पन्न होने वाले कार्यों में एकरूपता नहीं हो सकती, क्योंकि इसका निषेध है। दूसरे, अनुभाग की वृद्धि प्रकृति की वृद्धि में निमित्त होती है क्योंकि, उसके महान् होने पर प्रकृति के कार्यरूप अज्ञानादिक की वृद्धि देखी जाती है। इस कारण प्रकृति अनुभाग नहीं हो सकती, ऐसा जाना चाहिए।
(विवक्षित उत्तर प्रकृति के बंधकाल के क्षीण होने पर नियम से (उसी मूल प्रकृति की उत्तर) प्रतिपक्षी प्रकृतियों का बंध संभव है।
मूल नियम—(ओघ अथवा आदेश जिस गुणस्थान में प्रतिपक्षी प्रकृतियों का बंध होता है उस ओघ या मार्गणा स्थान के उस गुणस्थान में उन प्रकृतियों का अध्रुव बंध का नियम जानना। तथा जिस स्थान में केवल एक ही प्रकृतिका बंध है, प्रतिपक्षी का नहीं, उस स्थान में ध्रुव ही बंध जानो। यह प्रकृतियाँ ऐसी हैं जिनका बंध एक स्थान में ध्रुव होता है तथा किसी अन्य स्थान में अध्रुव हो जाता है।
प्रमाण |
प्रकृति |
बंध संबंधी नियम |
1-2. ज्ञान-दर्शनावरण— |
||
गो./800/989 |
ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी |
दोनों युगपत् बँधती है। |
3. वेदनीय— |
||
धवला/118/40 |
साता |
नरकगति के साथ न बँधे, शेष गति के साथ बँधे। |
धवला/118 |
असाता |
चारों गति सहित बँधे। |
धवला/11/312 |
साता, असाता |
दोनों प्रतिपक्षी हैं, एक साथ न बँधे। |
4. मोहनीय— |
||
धवला/54 |
पुरुष वेद, स्त्री वेद |
नरकगति सहित न बँधे। |
धवला/60 |
हास्य, रति |
नरकगति सहित न बँधे। |
विशेष देखें आगे शीर्षक नं - 6 |
||
5. आयु— |
||
गो./639/836 |
तिर्यंचायु |
सप्तम पृथिवी में नियम से बँधे। |
गो./645/905 |
मनुष्यायु |
तेज, वात, काय को न बँधे। |
धवला/63,65 |
आयु सामान्य |
उस-उस गति सहित ही बँधे। |
6. नाम— |
||
गो./745/899 |
नरक, देवगति |
मनुष्य तिर्यंच पर्याप्त ही बँधे अपर्याप्त नहीं। |
गो./745/903 |
एकेंद्रियजाति अपर्याप्त |
देव नारकी न बाँधे, अन्य त्रस स्थावर बाँधते है। |
गो./546/708 |
औदारिक व औदारिकमिश्र शरीर |
देव-नरकगति सहित न बँधे। |
धवला/69 |
वैक्रियक शरीर |
देव-नरकगति सहित ही बँधे। |
पंचसंग्रह / प्राकृत/3/98 |
तीर्थंकर |
सम्यक्त्वसहित ही बँधे। |
पंचसंग्रह / प्राकृत/3/98 |
आहारक द्विक |
संयमसहित ही बँधे। |
गो./528/686 |
अंगोपांग सामान्य |
त्रस पर्याप्त व अपर्याप्त सहित ही बँधे। |
धवला/69 |
वैक्रियक अंगोपांग |
नरक-देवगति सहित ही बँधे। |
|
औदारिक अंगोपांग |
तिर्यंच-मनुष्यगति सहित ही बँधे। |
गो./528/686 |
संहनन सामान्य |
त्रस पर्याप्त व अपर्याप्त प्रकृति सहित ही बँधे। |
धवला/69 |
आनुपूर्वी सामान्य |
उस-उस गति सहित ही बँधे, अन्य गति सहित नहीं। |
गो./528/686 |
परघात |
त्रस स्थावर पर्याप्त सहित ही बँधे। |
गो./524/683 |
आतप |
पृथिवीकाय पर्याप्त सहित ही बँधे। |
गो./524/683 |
उद्योत |
तेज, वात, साधारण वनस्पति, बादर, सूक्ष्म तथा अन्य सर्व सूक्ष्म नहीं बाँधते, अन्यत्र बँधती हैं। |
गो./528/686 |
उच्छ्वास |
त्रस स्थावर पर्याप्त सहित ही बँधे। |
गो./528/686 |
प्रशस्त अप्रशस्त विहायोगति |
त्रस पर्याप्त सहित ही बँधे। |
गो./528/686 |
सुस्वर-दुस्वर |
त्रस पर्याप्त सहित ही बँधे। |
धवला/74 |
स्थिर |
नरकगति के साथ न बँधे। |
धवला/74 |
शुभ |
नरकगति के साथ न बँधे। |
धवला/28 |
यश:कीर्ति |
नरकगति के साथ न बँधे। |
धवला/74 |
तीर्थंकर |
नरक व तिर्यंचगति के साथ न बँधे। |
विशेष देखें आगे शीर्षक नं - 7 |
||
7. गोत्र— |
||
धवला/22 |
उच्चगोत्र |
नरक-तिर्यंचगति के साथ न बँधे। |
नोट—जहाँ नियम नहीं कहा वहाँ सर्वत्र ही बंध संभव जानना। |
प्रमाण |
प्रकृति |
निरंतर बंध के स्थान |
1. वेदनीय— |
||
|
साता |
|
2. मोहनीय— |
||
58,282,394 |
पुरुष वेद |
पद्म शुक्ल लेश्यावाले तिर्यंच मनुष्य 1-2 गुणस्थान तक |
60 |
हास्य |
7-8 गुणस्थान तक |
60 |
रति |
7-8 गुणस्थान तक |
3. नाम — |
||
33,166,168,194,332 |
तिर्यंचगति |
तेज, वात, काय, सप्त पृ., तेज, वात काय से उत्पन्न हुए, निवृत्यपर्याप्त जीव या अन्य यथायोग्य मार्गणागत जीव। |
211,234,252, 315,322,218 |
मनुष्यगति |
आनतादि देव, तथा सासादन से ऊपर, तथा आनतादि से आकर उत्पन्न हुए यथायोग्य पर्याप्त व निवृत्यपर्याप्त आदि कोई जीव। |
68,259,314 |
देवगति पंचेंद्रियजाति |
भोग भूमिया बिना मनुष्य तथा सासादन से ऊपर। सनत्कुमारादि देव, नारकी, भोगभूमिज तिर्यंच, मनुष्य। तथा सासादन से ऊपर। तथा उपरोक्त देवों से आकर उत्पन्न हुए पर्याप्त व निवृत्यपर्याप्त जीव (पृ.259) अन्य कोई भी योग्य मार्गणागत जीव। |
7,211,382,315 |
औदारिक शरीर |
सनत्कुमारादि देव, नारकी व वहाँ से आकर उत्पन्न हुए यथायोग्य पर्याप्त निवृत्यपर्याप्त जीव। तथा सासादन से ऊपर या अन्य कोई भी मार्गणागत जीव। तेज, वात काय। |
— |
वैक्रियक शरीर |
देवगतिवत् । |
— |
औदारिक वैक्रियक अंगोपांग |
औदारिक वैक्रियक शरीरवत् |
68,259 |
समचतुरस्र संस्थान |
औदारिक वैक्रियक शरीरवत् । |
47 |
वज्रऋषभनाराच |
सर्वदेवनारकी। |
— |
तिर्यंच, मनुष्य, देव-गत्यानुपूर्वी |
उस उस गतिवत् । |
69,161 |
परघात |
पंचेंद्रियजातिवत् । |
69,161 |
उच्छ्वास |
पंचेंद्रियजातिवत् । |
68,259,314 |
प्रशस्त विहायोगति |
देवगतिवत् । |
69,211 |
प्रत्येक |
पंचेंद्रियजातिवत् । |
69,208 |
त्रस |
पंचेंद्रियजातिवत् । |
68,259,314 |
सुभग |
देवगतिवत् । |
68,259,314 |
सुस्वर |
देवगतिवत् । |
69,211 |
बादर |
पंचेंद्रियवत् । |
69,211 |
पर्याप्त |
पंचेंद्रियवत् । |
69 |
स्थिर |
प्रमत्त संयत से ऊपर। |
68,259,314 |
आदेय |
देवगतिवत् । |
69 |
शुभ |
प्रमत्त संयत से ऊपर। |
|
यश:कीर्ति |
|
4. गोत्र— |
||
244,282,314 |
उच्च गोत्र |
पद्म, शुक्ल लेश्यावाले तिर्यंच मनुष्य 1-2 गुणस्थान। |
28 |
|
नरक व तिर्यंचगति के साथ नहीं बँधता |
166-176,34 |
नीच गोत्र |
तिर्यंचगतिवत् । |
34 |
|
तेज व वायुकाय तथा सप्तम पृथिवी में निरंतर बंध होता है। |
(धवला 8/3,24/56/7) क्रोधसंजलणे विणट्ठे जो अवसेसो अणियट्ठिअद्धाए संखेज्जादिभागो तम्हि संखेज्जे खंडे कदे तत्थ बहुभागे गंतूण एयभागावसेसे माणसंजलणस्स बंधवोच्छेदो। पुणो तम्हि एगखंडे संखेज्जखंडे कदे तत्थ बहुखंडे गंतूण एगखंडावसेसे मायासंजलणबंधवोच्छेदो त्ति। कधमेदं णव्वदे। ‘सेसे सेसे संखेज्जे भागे गंतूणेत्ति’ विच्छाणिद्देसादो। कसायपाहुडसुत्तेणेदं सुत्तं विरुज्झदि त्ति वुत्ते सच्चं विरुज्झइ, किंतु एयंतग्गहो एत्थ ण कायव्वो, इदमेव तं चेव सच्चमिदि सुदकेवलीहि पच्चक्खणाणीहि वा विणा अवहारिज्जमाणे मिच्छत्तप्पसंगादो।
= संज्वलन क्रोध के विनष्ट होने पर जो शेष अनिवृत्तिबादरकाल का संख्यातवाँ भाग रहता है उसके संख्यात खंड करने पर उनमें बहुत भागों को बिताकर एक भाग शेष रहने पर संज्वलन मान का बंध-व्युच्छेद होता है। पुन: एक खंड के संख्यात खंड करने पर उनमें बहुत खंडों को बिताकर एक खंड शेष रहने पर संज्वलन माया का बंध-व्युच्छेद होता है।
प्रश्न—यह कैसे जाना जाता है ?
उत्तर—‘शेष शेष में संख्यात बहुभाग जाकर’ इस वीप्सा अर्थात् दो बार निर्देश से उक्त प्रकार दोनों प्रकृतियों का व्युच्छेद काल जाना जाता है।
प्रश्न -कषाय प्राभृत के सूत्र से तो यह सूत्र विरोध को प्राप्त होता है ?
उत्तर—ऐसी आशंका होने पर कहते हैं कि सचमुच में कषाय प्राभृत के सूत्र से यह सूत्र विरुद्ध है, परंतु यहाँ एकांत ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि, ‘यही सत्य है’ या ‘वही सत्य है’ ऐसा श्रुतकेवलियों अथवा प्रत्यक्ष ज्ञानियों के बिना निश्चय करने पर मिथ्यात्व का प्रसंग होगा।
(धवला 8/3,28/60/10) णवरि हस्स-रदीओ तिगइसंजुत्तं बंधइ, तब्बंधस्स णिरयगइबंधेण सह विरोहादो। = इतना विशेष है कि हास्य और रति को तीन गतियों से संयुक्त बाँधता है, क्योंकि इनके बंध का नरकगति के बंध के साथ विरोध है।
(कषायपाहुड़/3/3,22/198/7) एदाणि चत्तारि वि कम्माणि उक्कस्ससंकिलेसेण किण्ण बंज्झंति। ण साहावियादो। = प्रश्न—ये स्त्री वेदादि चारों कर्म उत्कृष्ट संक्लेश से क्यों नहीं बँधते ? उत्तर—नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेश से नहीं बँधने का इनका स्वभाव है।
(कषायपाहुड़ 3/3,22/487/271/9) उक्कस्सट्ठिदिबंधकाले एदाओ किण्णबज्झंति। अच्चसुहत्ताभावादो साहावियादो वा।
= प्रश्न—उत्कृष्ट स्थिति के बंधकाल में ये चारों ( कषायपाहुड़ 3/3,22/ चूर्ण सूत्र/485/270) (स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रति) प्रकृतियाँ क्यों नहीं बँधती हैं ?
उत्तर—1. क्योंकि यह प्रकृतियाँ अत्यंत अशुभ नहीं है इसलिए उस काल में इनका बंध नहीं होता। 2. अथवा उस समय न बँधने का इनका स्वभाव है।
1. गति नामकर्म
(धवला 8/3,8/33/8) तेउक्काइया-वाउक्काइयमिच्छाइट्ठीणं सत्तमपुढविणेरइयमिच्छाइट्ठीणं च भवपडिबद्धसंकिलेसेण णिरंतरबंधोवलंभादो। ... सत्तमपुढविसासणाण तिरिक्खगइं मोत्तूणण्णगईणं बंधाभावादो।
(धवला 8/3,18/47/4) आणदादिदेवेसु णिरंतरबंध लद्धूण अण्णत्थ सांतरबंधुवलंभादो।
(धवला 8/3,145/208/10) अपज्जत्तद्धाए तासिं बंधाभावादो। = तैजसकायिक और वायुकायिक मिथ्यादृष्टियों तथा सप्तम पृथिवी के नारकी मिथ्यादृष्टियों के भव से संबंध संक्लेश के कारण उक्त दोनों (तियग्द्वय) प्रकृतियों का निरंतर बंध पाया जाता है। ... सप्तम पृथ्वी के सासादन सम्यग्दृष्टियों के तिर्यग्गति को छोड़कर अन्य गतियों का बंध नहीं होता (33/8) आनतादि देवों में (मनुष्यद्विक को) निरंतर बंध को प्राप्त कर अन्यत्र सांतर बंध पाया जाता है (47/4) अपर्याप्त काल में उनका (देव व नरक गति का ) बंध नहीं होता। ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/1 )।
(धवला 6/1,9-2,62/103/3) णिरयगईए सह जासिमक्कमेण उदओ अत्थि ताओ णिरयगईए सह बंधमागच्छंति त्ति केइं भणंति, तण्ण घडदे। = कितने ही आचार्य यह कहते हैं कि नरकगति नामक नामकर्म की प्रकृति के साथ जिन प्रकृतियों का युगपत् उदय होता है, वे प्रकृतियाँ नरकगति नामकर्म के साथ बंध को प्राप्त होती है। किंतु उनका यह कथन घटित नहीं होता।
(गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/745/899/5) अष्टाविंशतिकं नरकदेवगतियुतत्वादसंज्ञिसंज्ञितिर्यक्कर्मभूमिमनुष्या एव विग्रहगतिशरीरमिश्रकालावतीत्य पर्याप्तशरीरकाले एव बघ्नंति। = अठाईस का बंध नरक-देवगति युत है। इसलिए असंज्ञी संज्ञी तिर्यंच वा मनुष्य है, ते विग्रहगति मिश्रशरीर को उल्लंघकर पर्याप्त काल में बाँधता है।
2. जाति नामकर्म
(गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/745/899/1) देवेषु भवनत्रयसौधर्मद्वयजानामेवैकेंद्रियपर्याप्तयुतमैवं बंधं 25 एव। = भवनत्रिक सौधर्म द्विक देवनिकै एकेंद्रिय पर्याप्त युत ही पचीस का बंध है।
3. शरीर नामकर्म
(धवला 8/3,37/72/10) अपुव्वस्सुवरिमसत्तमभागे किण्ण बंधो। ण।
(गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/525/684/3) आहारकद्वयं...देवगत्यैव बध्नंति। कुत:। संयतबंधस्थानमितराभिर्गतिभिर्न बध्नातीति कारणात् ।
(गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/1) नात्र देवगत्याहारकद्वययुतं अप्रमत्ताकरणयोरेव तद्बंधसंभवात्। = अपूर्वकरण के उपरिम सप्तम भाग में इन (आहारक द्विक) का बंध नहीं होता ( धवला/8 ) आहारक द्विक देवगति सहित ही बांधे जातै संयत के योग्य जो बंधस्थान सो देवगति बिना अन्यगति सहित बांधै नाहीं। ( गोम्मटसार कर्मकांड/525 )। देवगति आहारक द्विक सहित स्थान न संभवै है जातैं इसका बंध अप्रमत्त अपूर्वकरण विषै ही संभवै है।
4. अंगोपांग नामकर्म
(धवला 6/1, 9 -2, 76/112) एइंदियाणमंगोवंगं किण्ण परूविदं। ण।
(गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/685/11) त्रसापर्याप्तसपर्याप्तयोरंयतरबंधेनैव षट्संहननानां त्र्यंगोपांगानां चैकतरं बंधयोग्यं नान्येन। = 1. एकेंद्रिय जीवों के अंगोपांग नहीं होते। 2. त्रस पर्याप्त वा अपर्याप्तनि विषै एक किसी प्रकृति सहित छह संहनन, तीन अंगोपांग विषै एक-एक बंध हौ है।
5. संस्थान नामकर्म
(धवला 6/1, 9 -2, 18/108/7) विगलिंदियाणं बंधो उदओ वि हुंडसंठाणमेवेत्ति।
(धवला 6/1,9-2,76/112/8) एइंदियाणं छ संठाणाणि किण्ण परूविदाणि। ण पच्चवयवपरूविदलक्खणपंचसंठाणाणं समूहसरूवाणं छ संठाणत्थित्तविरोहा। = 1. विकलेंद्रिय जीवों के हुंडकसंस्थान इस एक प्रकृति का ही बंध और उदय होता है। (भावार्थ-तथापि संभव अवयवों की अपेक्षा अन्य भी संस्थान हो सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक अवयव में भिन्न-भिन्न संस्थान का प्रतिनियत स्वरूप माना गया है। किंतु आज यह उपदेश प्राप्त नहीं है कि उनके किस अवयव में कौन सा संस्थान किस आकार रूप से होता है) ( धवला 6/1,9-21/8/107/8 भावार्थ)। 2. एकेंद्रिय जीवों के छहों संस्थान नहीं बतलाये क्योंकि प्रत्येक अवयव में प्ररूपित लक्षणवाले पाँच संस्थानों को समूहस्वरूप से धारण करने वाले एकेंद्रियों के पृथक्-पृथक् छह संस्थानों के अस्तित्व का विरोध है। (अर्थात् एकेंद्रिय जीवों के केवल हुंडकसंस्थान ही होता है।)
6. संहनन नामकर्म
(धवला 6/1,9-2,96/123/7) देवगदीए सह छ संघडणाणि किण्ण बज्झंति। ण.।
(गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/685/10) त्रसापर्याप्तत्रसपर्याप्तयोरंयतरबंधेनैव षट्संहनानां ... चैकतरं बंधयोग्यम्। = देवगति के साथ छहों संहनन नहीं बँधते। 2. त्रस पर्याप्त वा अपर्याप्त में से एक किसी प्रकृति सहित छह संहनन में से ... एक का बंध होता है।
7. उपघात व परघात नामकर्म
(गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/685/12) पर्याप्तेनैव समं वर्तमानसर्वत्रत्रसस्थावराभ्यां नियमादुच्छ्वासपरघातौ बंधयोग्यौ नान्येन। = पर्याप्त के साथ वर्तमान सब ही त्रस स्थावर तिनिकर सहित उच्छ्वास परघात बंध योग्य है, अन्य सहित नहीं।
8. आतप उद्योत नामकर्म
(धवला 6/1,9-2,102/126/1) देवगदीए सह उज्जोवस्स किण्ण बंधो होदि। ण। = देवगति के साथ उद्योत प्रकृति का बंध नहीं होता।
(गोम्मटसार कर्मकांड व टीका/524/683) भूवादरपज्जत्तेणादावं बंधजोग्गमुज्जोवं। तेउतिगूणतिरिक्खपसत्थाणं एयदरणेण।524। पृथ्वीकायबादरपर्याप्तेनातपः बंधयोग्यो नान्येन। उद्योतस्तेजोवातसाधारणवनस्पतिसंबंधिबादरसूक्ष्माण्यंयसंबंधिसूक्ष्माणि च अप्रशस्तत्वात् त्यक्त्वा शेषतिर्यक्संबंधिबादरपर्याप्तादिप्रशस्तानामंयतरेण बंधयोग्यः, ततः पृथ्वीकायबादरपर्याप्तेनातपोद्योतान्यतरयुतं, बादराप्कायपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिपर्याप्तयोरन्यतरेणोद्योतयुतं च षड्विंशतिकं, द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियसंज्ञिपंचेंद्रियकर्मांयतरेणोद्योतयुतं त्रिंशत्कं च भवति। = पृथ्वीकाय बादरपर्याप्त सहित ही आतप प्रकृति बंधयोग्य है अन्य सहित बंधे नाहीं। बहुरि उद्योत प्रकृति है सो तेज वायु साधारण वनस्पति संबंधी बादर सूक्ष्म अन्य संबंधी सूक्ष्म ये अप्रशस्त हैं तातैं इन बिना अवशेष तिर्यंच संबंधी बादर पर्याप्त आदि प्रशस्त प्रकृतिनिविषैं किसी प्रकृति सहित बंध योग्य हैं तातैं पृथ्वीकाय बादरपर्याप्त सहित आतप उद्योत विषै एक प्रकृति संयुक्त छब्बीस प्रकृति रूप बंध स्थान हो है, वा बादर अप्कायिक पर्याप्त, प्रत्येक वनस्पति पर्याप्त विषै किसी करि सहित उद्योत प्रकृति संयुक्त छब्बीस प्रकृतिरूप बंध स्थान हो है। और बेंद्री, तेंद्री, चौंद्री, पंचेंद्रियसंज्ञी, पंचेंद्रिय असंज्ञी विषै किसी एक प्रकृतिकरि सहित उद्योत प्रकृतिसंयुक्त तीस प्रकृतिरूप बंधस्थान संभवै है।
9. उच्छ्वास नामकर्म
(गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/686/12) पर्याप्तैव समं वर्तमानसर्वत्रसस्थावराभ्यां नियमादुच्छ्वासपरघातौ बंधयोग्यौ नान्येन। = पर्याप्त सहित वर्तमान सर्व ही त्रस स्थावर तिनिकर सहित उच्छ्वास परघात बंधयोग्य है अन्य सहित नहीं।
10. विहायोगति नामकर्म
(गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/685/11) त्रसपर्याप्तबंधेनैव सुस्वरदुस्वरयोः प्रशस्तविहायोगत्योश्चैकतरं बंधयोग्यं नान्येन। = त्रस पर्याप्त सहित ही सुस्वर दुस्वर विषैं एकका वा प्रशस्त अप्रशस्तविहायोगतिविषै एकका बंध योग्य है अन्य सहित नहीं। (देवगति के साथ अशुभ प्रकृति नहीं बँधती। ( धवला 6/1,9-2, 98/124/4 )।
11. सुस्वर-दुस्वर, दुर्भग-सुभग, आदेय-अनादेय
(धवला 6/1,9-2,86/118/1) दुभग-दुस्सर-अणादेज्जाणं धुवबंधित्तादो संकिलेसकाले वि बज्झमाणेण तित्थयरेण सह किण्ण बंधो। ण तेसिं बंधाणं तित्थयरबंधेण सम्मत्तेण य सह विरोहादो। संकिलेसकाले वि सुभग-सुस्सर-आदेज्जाणं चेव बंधुवलंभा। =संक्लेश काल में भी बँधने वाले तीर्थंकर नामकर्म के साथ ध्रुवबंधी होने (पर भी) दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इन प्रकृतियों का बंध नहीं होता है, क्योंकि उन प्रकृतियों के बंध का तीर्थंकर प्रकृति के साथ और सम्यग्दर्शन के साथ विरोध है। संक्लेश-काल में भी सुभग-सुस्वर और आदेय प्रकृतियों का ही बंध पाया जाता है।
(धवला 6/1,9-2, 98/125/4) का भावार्थ - (देवगति के साथ अप्रशस्त प्रकृतियों का बंध नहीं होता है।)
(गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/528/685/12) त्रसपर्याप्तेनैव सुस्वर-दुःस्वरयो: ... एकतरं बंधयोग्यं नान्येन। = त्रस पर्याप्त सहित ही सुस्वर-दुस्वर विषैं एक का बंध योग्य है अन्य सहित नहीं।
12. पर्याप्त-अपर्याप्त नामकर्म
(गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/745/898/3) एकेंद्रियापर्याप्तयुतत्वाद्देवनारकेभ्योऽंये त्रसस्थावरमनुष्यमिथ्यादृष्टय एव बध्नंति। = एकेंद्रिय अपर्याप्त सहित है तातैं इस स्थान को देव नारकी बिना अन्य त्रस, स्थावर, तिर्यंच या मनुष्य मिथ्यादृष्टि ही बाँधे हैं।
13. स्थिर-अस्थिर नामकर्म
(धवला 6/1,9-2,93/122/4) संकिलेसद्धाए बज्झमाण अप्पज्जत्तेण सह थिरादीणं विसोहिपयडीणं बंधविरोहा।
(धवला 6/1, 9-2, 93/124/4) एत्थ अत्थिरादीणं किण्ण बंधो होदि। ण एदासिं विसोहीए बंधविरोहा। = संक्लेशकाल में बँधनेवाले अपर्याप्त नामकर्म के साथ स्थिर आदि विशुद्धि काल में बँधनेवाली शुभ प्रकृति के बंध का विरोध है। 2. इन अस्थिर आदि अशुभ प्रकृतियों का (देवगति रूप) विशुद्धि के साथ बँधने का विरोध है।
14. यशः अयशः नामकर्म
(धवला 6/1,9-2, 98/124/4) का भावार्थ (देवगति के साथ अप्रशस्त प्रकृतियों के बँधने का विरोध है।)
(धवला 8/3, 6/28/7) जसकित्तिं पुण णिरयगइं मोत्तूण तिगइसंजुत्तं बंधदि। = यशःकीर्ति को नरकगति को छोड़कर तीन गतियों से संयुक्त बाँधता है।
(धवला 6/1, 9-3, 2/139/7) कुदो एस बंधवोच्छेदकमो। असुह-असुहयरअसुहतमभेएण पयडीणमवट्ठाणादो।
= प्रश्न—यह प्रकृतियों के बंध-व्युच्छेद का क्रम किस कारण से है ?
उत्तर—अशुभ, अशुभतर और अशुभतम के भेद से प्रकृतियों का अवस्थान माना गया है। उसी अपेक्षा से यह प्रकृतियों के बंध-व्युच्छेद का क्रम है।
(धवला 8/33/3,8/33/7) होदु सांतरबंधो पडिवक्खपयडीणं बंधुवलंभादो; ण णिरंतरबंधो, तस्स कारणाणुवलंभादो त्ति वुत्ते वुच्चदे - ण एस दोसो, तेउक्काइया-वाउक्काइयमिच्छाइट्ठीणं सत्तमपुढविणेरइयमिच्छाइट्ठीणं च भवपडिबद्धसंकिलेसण णिरंतरं बंधोवलंभादो।
= प्रश्न—प्रतिपक्षभूत प्रकृतियों के बंध की उपलब्धि होने से (तिर्यग्गति व तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी प्रकृतियों का) सांतर बंध भले ही हो, किंतु निरंतर बंध नहीं हो सकता, क्योंकि उसके कारणों का अभाव है।
उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि तेजकायिक और वायुकायिक मिथ्यादृष्टियों तथा सप्तम पृथिवी के नारकी मिथ्यादृष्टियों के भव से संबद्ध संक्लेश के कारण उक्त दोनों प्रकृतियों का निरंतर बंध पाया जाता है।
(धवला 8/3, 324/393/1) पंचिंदियजादि-ओरालियसरीर-अंगोवंग-परघादु-स्यास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं मिच्छाइट्ठिम्हि सांतरणिरंतरो, सणक्कुमारादिदेवणेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो। विग्गहगदीए कधं णिरंतरदा। ण, सत्ति पडुच्च णिरंतरत्तुवदेसादो।
= पंचेंद्रियजाति, औदारिक शरीरांगोपांग, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक शरीर का मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सांतर-निरंतर बंध होता है, क्योंकि, सनत्कुमारादि देव और नारकियों में उनका निरंतर बंध पाया जाता है।
प्रश्न—विग्रह गति में बंध की निरंतरता कैसे संभव है ?
उत्तर—नहीं, क्योंकि, शक्ति की अपेक्षा उसकी निरंतरता का उपदेश है।
(धवला 8/3, 13/40/1) अप्पसत्थाए तिरिक्खगईए सह कधं सादबंधो। ण, णिरयगइं व अच्चंतिय अप्पसत्थत्ताभावादो।
= प्रश्न—अप्रशस्त तिर्यग्गति के साथ कैसे साता वेदनीय का बंध होना संभव है।
उत्तर—नहीं, क्योंकि तिर्यग्गति नरकगति के समान अत्यंत अप्रशस्त नहीं है।
(कषायपाहुड़ 3/3, 22/198/7) एदाणि चत्तारि वि कम्माणि उक्कस्ससंकिलेसेण किण्ण बज्झंति। ण, साहावियादो।
= प्रश्न—ये स्त्रीवेद आदि (स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रति) चारों कर्म उत्कृष्ट संक्लेश से क्यों नहीं बँधते हैं ?
उत्तर—नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेश से नहीं बँधने का इनका स्वभाव है।
- सारिणी में प्रयुक्त संकेतों का परिचय
मिथ्या. मिथ्यात्व
स