मरण: Difference between revisions
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<p class="HindiText">लोक प्रसिद्ध मरण तद्भवमरण कहलाता है और प्रतिक्षण आयु का क्षीण होना नित्य मरण कहलाता है। यद्यपि संसार में सभी जीव मरणधर्मा हैं, | <p class="HindiText">लोक प्रसिद्ध मरण तद्भवमरण कहलाता है और प्रतिक्षण आयु का क्षीण होना नित्य मरण कहलाता है। यद्यपि संसार में सभी जीव मरणधर्मा हैं, परंतु अज्ञानियों की मृत्यु बालमरण और ज्ञानियों की मृत्यु पंडितमरण हैं, क्योंकि, शरीर द्वारा जीव का त्याग किया जाने से अज्ञानियों की मृत्यु होती है और जीव द्वारा शरीर का त्याग किया जाने से ज्ञानियों की मृत्यु होती है, और इसीलिए इसे <strong>समाधिमरण</strong> कहते हैं। अतिवृद्ध या रोगग्रस्त हो जाने पर जब शरीर उपयोगी नहीं रह जाता तो ज्ञानीजन धीरे-धीरे भोजन का त्याग करके इसे कृष करते हुए इसका भी त्याग कर देते हैं। अज्ञानीजन इसे अपमृत्यु समझते हैं, पर वास्तव में कषायों के क्षीण हो जाने पर सम्यग्दृष्टि जागृत हो जाने के कारण यह अपमृत्यु नहीं बल्कि <strong>सल्लेखनामरण</strong> है जो उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य के भेद से तीन विधियों द्वारा किया जाता है। यद्यपि साधारणत: देखने पर अपमृत्यु या यह पंडितमरण अकालमरण सरीखा प्रतीत होता है, पर ज्ञाता-द्रष्टा रहकर देखने पर वह अकाल होने पर भी अकाल नहीं है। </p> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #1 | भेद व लक्षण]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[#1.1 | मरण सामान्य का लक्षण।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#1.2 | मरण के भेद।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#1.3 | नित्य व तद्भव मरण के लक्षण।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#1.4 | बाल व पंडितमरण सामान्य व उनके भेदों के लक्षण।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#1.5 | अन्य भेदों के लक्षण।]]</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[#2 | मरण निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#2.1 | आयु का क्षय ही वास्तव में मरण है।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#2.2 | चारों गतियों में मरण के लिए विभिन्न शब्द।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#2.3 | पंडित व बाल आदि मरणों की इष्टता-अनिष्टता।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> सल्लेखनागत क्षपक के मृत शरीर | <li class="HindiText"> सल्लेखनागत क्षपक के मृत शरीर संबंधी।–देखें [[ सल्लेखना#6 | सल्लेखना - 6]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मुक्त जीव के मृत शरीर | <li class="HindiText"> मुक्त जीव के मृत शरीर संबंधी–देखें [[ मोक्ष#5 | मोक्ष - 5]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> सभी गुणस्थानों व मार्गणास्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें [[ मार्गणा ]]। <br /> | <li class="HindiText"> सभी गुणस्थानों व मार्गणास्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें [[ मार्गणा ]]। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #3 | गुणस्थान आदि में मरण संबंधी नियम]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#3.1 | आयुबंध व मरण में परस्पर गुणस्थान संबंधी।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#3.2 | निम्न स्थानों में मरण संभव नहीं।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#3.3 | सासादन गुणस्थान में मरण संबंधी।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#3.4 | मिश्र गुणस्थान में मरण के अभाव संबंधी।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#3.5 | प्रथमोपशम सम्यक्त्व में मरण के अभाव संबंधी।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#3.6 | अनंतानुबंधी विसंयोजक के मरणाभाव संबंधी।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#3.7 | उपशम श्रेणी में मरण संबंधी।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#3.8 | कृतकृत्यवेदक में मरण संबंधी।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#3.9 | नरकगति में मरणसमय की लेश्या व गुणस्थान।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#3.10 | देवगति में मरणसमय की लेश्या।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#3.11 | आहारकमिश्र काययोगी के मरण संबंधी।]]</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #4 | अकालमृत्यु निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#4.1 | कदलीघात का लक्षण।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#4.2 | बद्धायुष्क की अकालमृत्यु संभव नहीं।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#4.3 | देव-नारकियों की अकालमृत्यु संभव नहीं।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#4.4 | भोगभूमिजों की अकालमृत्यु संभव नहीं।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#4.5 | चरमशरीरियों व शलाकापुरुषों में अकालमृत्यु की संभावना व असंभावना।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#4.6 | जघन्य आयु में अकालमृत्यु की संभावना व असंभावना।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#4.7 | पर्याप्त होने के अंतर्मुहूर्त काल तक अकालमृत्यु संभव नहीं।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#4.8 | कदलीघात द्वारा आयु का अपवर्तन हो जाता है।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#4.9 | अकाल मृत्यु का अस्तित्व अवश्य है।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#4.10 | अकाल मृत्यु की सिद्धि में हेतु।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#4.11 | स्वकाल व अकाल मृत्यु का समन्वय।]]</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #5 | मारणांतिक समुद्घात निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#5.1 | मारणांतिक समुद्घात का लक्षण।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[#5.2 | सभी जीव मारणांतिक समुद्घात नहीं करते।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#5.3 | ऋजु व वक्र दोनों प्रकार की विग्रहगति में होता है।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#5.4 | मारणांतिक समुद्घात का स्वामित्व।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#5.5 | प्रदेशों का पूर्ण संकोच होना आवश्यक नहीं।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> इसकी स्थिति | <li class="HindiText"> इसकी स्थिति असंख्यात समय है।–देखें [[ समुद्घात#4 | समुद्घात - 4]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> इसका विसर्पण एक दिशात्मक होता है–देखें [[ समुद्घात ]]।<br /> | <li class="HindiText"> इसका विसर्पण एक दिशात्मक होता है–देखें [[ समुद्घात#3 | समुद्घात - 3]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#5.6 | प्रदेशों का विस्तार व आकार।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> मारणांतिक समुद्घात में मोड़े लेने संबंधी दृष्टिभेद।–देखें [[ क्षेत्र#3.4 | क्षेत्र - 3.4]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#5.7 | वेदना, कषाय और मारणांतिक समुद्घात में अंतर।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[#5.8 | मारणांतिक समुद्घात में कौन कर्म निमित्त है ?]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> इसमें तीनों योगों की | <li class="HindiText"> इसमें तीनों योगों की संभावना कैसे।–देखें [[ योग#4 | योग - 4]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> इसमें उत्कृष्ट योग | <li class="HindiText"> इसमें उत्कृष्ट योग संभव नहीं–देखें [[ विशुद्धि#8.4 | विशुद्धि - 8.4]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> इसमें उत्कृष्ट संक्लेश व विशुद्ध परिणाम | <li class="HindiText"> इसमें उत्कृष्ट संक्लेश व विशुद्ध परिणाम संभव नहीं।–देखें [[ विशुद्धि#8.4 | विशुद्धि - 8.4]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> मारणांतिक समुद्घात में महामत्स्य के विस्तार संबंधी दृष्टिभेद–देखें [[ मरण#5.6 | मरण - 5.6]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1">भेद व लक्षण</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1.1" id="1.1"><strong>मरण सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.1" id="1.1"><strong>मरण सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/7/22/362/12 </span><span class="SanskritText">स्वपरिणामोपात्तस्यायुष इंद्रियाणां बलानां च कारणवशात्संक्षयो मरणम्।</span> = <span class="HindiText">अपने परिणामों से प्राप्त हुई आयु का, इंद्रियों का और मन, वचन, काय इन तीन बलों का कारण विशेष के मिलने पर नाश होना मरण है। <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/5/20/289/2 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/20/4/474/29; 7/22/1/550/17 )</span>; <span class="GRef">( चारित्रसार/47/3 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड प्र./606/1062/16)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,33/234/2 </span><span class="SanskritText">आयुष: क्षयस्य मरणहेतुत्वात्।</span> = <span class="HindiText">आयुकर्म के क्षय को मरण का कारण माना है। <span class="GRef">( धवला 13/5,5,63/333/11 )</span>। </span><br> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/85,86/ </span>पंक्ति <span class="SanskritText">मरणं विगमो विनाशः विपरिणाम इत्येकोऽर्थ:।9। अथवा प्राणपरित्यागो मरणम्।13। अण्णाउगोदये वा मरदि य पुव्वाउणासे वा। (उद्धृत गाथा 1 पृष्ठ 86)। अथवा अनुभूयमानायु:संज्ञकपुद्गलगलनं मरणम्।</span> = <span class="HindiText">मरण, विगम, विनाश, विपरिणाम ये एकार्थवाचक हैं। अथवा प्राणों के परित्याग का नाम मरण है। अथवा प्रस्तुत आयु से भिन्न अन्य आयु का उदय आने पर पूर्व आयु का विनाश होना मरण है। अथवा अनुभूयमान आयु नामक पुद्गल का आत्मा के साथ से विनष्ट होना मरण है। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="1.2" id="1.2"><strong> मरण के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.2" id="1.2"><strong> मरण के भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/ </span>गा. <span class="PrakritText">पंडिदपंडिदमरणं पंडिदमरणं पंडिदयं बालपंडिदं चेव। बालमरणं चउत्थं पंचमयं बालबालं च।26। पायोपगमणमरणं भत्तपइण्णा य इंगिणी चेव। तिविहं पंडियमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस्स।28। दुविहं तु भत्तपच्चक्खाणं सविचारमध अविचारं।...।65। तत्थ पढमं णिरुद्धं णिरुद्धतरयं तहा हवे विदियं। तदियं परमणिरुद्ध एवं तिविधं अवीचारं।2012। दुविधं तं पि अणीहारिमं पगासं च अप्पगासं च। ...।2016। </span>= <span class="HindiText">मरण पाँच प्रकार का है–पंडितपंडित, पंडित, बालपंडित, बाल, बालबाल।26। तहाँ पंडितमरण तीन प्रकार का है–प्रायोपगमन, भक्तप्रत्याख्यान व इंगिनी।29। इनमें से भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकार का है–सविचार और अविचार।65। उनमें से अविचार तीन प्रकार का है–निरुद्ध, निरुद्धतर व परम निरुद्ध।2012। इनमें भी निरुद्धाविचार दो प्रकार है–प्रकाशरूप और अप्रकाशरूप।2016। <span class="GRef">(मूलाचार/59) </span>; (देखें [[ निक्षेप#5.2 | निक्षेप - 5.2]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/7/22/2/550/19 </span><span class="SanskritText">मरणं द्विविधम्–नित्यमरणं तद्भवमरणं चेति।</span> = <span class="HindiText">मरण दो प्रकार का है–नित्यमरण और तद्भवमरण। </span><span class="GRef">( चारित्रसार/47/3 )</span>। <br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/86/10,13 </span><span class="SanskritText">मरणानि सप्तदश कथितानि।(86/10)।– </span> | |||
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<li class="SanskritText"> अवीचिमरणं, </li> | <li class="SanskritText"> अवीचिमरणं, </li> | ||
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<li><span class="SanskritText"> केवलिमरणं चेति।(86/13)। </span>= <span class="HindiText">मरण 17 प्रकार के बताये गये हैं– </span> | <li><span class="SanskritText"> केवलिमरणं चेति।(86/13)। </span>= <span class="HindiText">मरण 17 प्रकार के बताये गये हैं– </span> | ||
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<li class="HindiText"> अवीचिमरण | <li class="HindiText"> [[#1.3| अवीचिमरण]] </li> | ||
<li class="HindiText"> तद्भवमरण | <li class="HindiText"> [[#1.3| तद्भवमरण]] </li> | ||
<li class="HindiText"> अवधिमरण | <li class="HindiText"> [[अवधि_मरण | अवधिमरण]] </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> आदिअंतिममरण, </li> | ||
<li class="HindiText"> बालमरण, </li> | <li class="HindiText"> बालमरण, </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> पंडितमरण, </li> | ||
<li class="HindiText"> ओसण्णमरण, </li> | <li class="HindiText"> ओसण्णमरण, </li> | ||
<li class="HindiText"> बालपडिण्तमरण, </li> | <li class="HindiText"> बालपडिण्तमरण, </li> | ||
Line 199: | Line 200: | ||
<li class="HindiText"> वोसट्टमरण, </li> | <li class="HindiText"> वोसट्टमरण, </li> | ||
<li class="HindiText"> विप्पाणसमरण, </li> | <li class="HindiText"> विप्पाणसमरण, </li> | ||
<li class="HindiText"> गिद्धपुट्ठमरण | <li class="HindiText"> [[गृद्धपिच्छ_मरण | गिद्धपुट्ठमरण]] </li> | ||
<li class="HindiText"> भक्तप्रत्याख्यानमरण, </li> | <li class="HindiText"> भक्तप्रत्याख्यानमरण, </li> | ||
<li class="HindiText"> प्रायोपगमनमरण, </li> | <li class="HindiText"> प्रायोपगमनमरण, </li> | ||
<li class="HindiText"> इंगिनीमरण. </li> | <li class="HindiText"> इंगिनीमरण. </li> | ||
<li class="HindiText"> केवलिमरण। (तहाँ इनके भी उत्तर भेद निम्न प्रकार हैं)। ( | <li class="HindiText"> केवलिमरण। (तहाँ इनके भी उत्तर भेद निम्न प्रकार हैं)। <span class="GRef">( भावपाहुड़ टीका/32/147-149 )</span>; (विशेष देखें [[ उस ]]उस मरण के लक्षण)।<br>चार्ट </li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> नित्य व तद्भव मरण के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/7/22/2/550/20 </span><span class="SanskritText">तत्र नित्यमरणं समयसमये स्वायुरादीनां निवृत्ति:। तद्भवमरणं भवांतरप्राप्त्यनंतरोपश्लिष्टं पूर्वभवविगमनम्।</span> = <span class="HindiText">प्रतिक्षण आयु आदि प्राणों का बराबर क्षय होते रहना '''नित्यमरण''' है (इसको ही भगवती आराधना व भावपाहुड़ में '''अवीचिमरण''' के नाम से कहा गया है)। और नूतन शरीर पर्याय को धारण करने के लिए पूर्व पर्याय का नष्ट होना तद्भवमरण है। <span class="GRef">( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/86/17 )</span>; <span class="GRef">( चारित्रसार/47/4 )</span>; <span class="GRef">( भावपाहुड़ टीका/32/147/6 )</span>।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="1.4" id="1.4"><strong> बाल | <li><span class="HindiText" name="1.4" id="1.4"><strong> बाल व पंडितमरण सामान्य व उनके भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/गाथा </span> <span class="SanskritText">पंडिदपंडिदमरणे खीणकसाया मरंति केवलिणो। विरदाविरदा जीवा मरंति तदियेण मरणेण।27। पायोपगमणमरणं भत्तपइण्णा य इंगिणी चेव। तिविहं पंडियमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस्स।29। अविरदसम्मादिट्ठी मरंति बालमरणे चउत्थम्मि। मिच्छादिट्ठी य पुणो पंचमए बालबालम्मि।30। इह जे विराधयित्ता मरणे असमाधिणा मरेज्जण्ह। तं तेसिं बालमरणं होइ फलं तस्स पुव्वुत्तं।1962। </span>= <span class="HindiText">क्षीणकषाय केवली भगवान् <strong>पंडितपंडित</strong> मरण से मरते हैं। <span class="GRef"> (भगवती आराधना/2159) </span> विरताविरत जीव के मरण को <strong>बालपंडितमरण</strong> कहते हैं। (विशेष देखें अगला संदर्भ)।27। <span class="GRef"> (भगवती आराधना/2078); (भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/88/21>) </span> चारित्रवान् मुनियों को <strong>पंडितमरण</strong> होता है। वह तीन प्रकार का है–भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन (इन तीनों के लक्षण देखें [[ सल्लेखना#3 | सल्लेखना - 3 ]])।29। अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के मरण को बालमरण कहते हैं और मिथ्यादृष्टि जीव के मरण को <strong>बालबालमरण</strong> कहते हैं।30। अथवा रत्नत्रय का नाश करके समाधिमरण के बिना मरना <strong>बालमरण</strong> है।1962।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/2083-2084/1800 </span><span class="PrakritText">आसुक्कारे मरणे अव्वोच्छिण्णाए जीविदासाए। णादीहि या अमुक्को पच्छिमसल्लेहणपकासी।2083। आलोचिदणिस्सल्लो सघरे चेवारुहिंतु संथारं। जदि मरदि देसविरदो तं वुत्तं बालपंडिदयं।2084।</span>–<span class="HindiText">इन 12 व्रतों को पालने वाले गृहस्थ को सहसा मरण आने पर, जीवित की आशा रहने पर अथवा बंधुओं ने जिसको दीक्षा लेने की अनुमति नहीं दी है, ऐसे प्रसंग में शरीर सल्लेखना और कषाय सल्लेखना न करके भी आलोचना कर, नि:शल्य होकर घर में संस्तर पर आरोहण करता है। ऐसे गृहस्थ की मृत्यु को <strong>बालपंडितमरण</strong> कहते हैं।2083-2084।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> मूलाचार/गाथा </span> <span class="PrakritGatha"> जे पुण पणट्ठमदिया पचलियसण्णाय वक्कभावा य। असमाहिणा मरंते णहु ते आराहिया भणिया।60। सत्थग्गहणं विसभक्खणं च जलणं जलप्पवेसो य। अणयारभंडसेवी जम्मणमरणाणुबंधीणी।74। णिमम्मो णिरहंकारो णिक्कासाओ जिदिंदिओ धीरो। अणिदाणो दिट्ठिसंपण्णो मरंतो आराहओ होई।103।</span> = <span class="HindiText">जो नष्टबुद्धि वाले अज्ञानी आहारादि की वांछारूप संज्ञा वाले मन वचन काय की कुटिलतारूप परिणाम वाले जीव आर्तरौद्र ध्यानरूप असमाधिमरण कर परलोक में जाते हैं, वे आराधक नहीं हैं।60। शस्त्र से, विषयभक्षण से, अग्नि द्वारा जलने से, जल में डूबने से, अनाचाररूप वस्तु के सेवन से अपघात करना जन्ममरणरूप दीर्घ संसार को बढ़ाने वाले हैं अर्थात् <strong>बालमरण</strong> हैं।74। निर्मम, निरहंकार, निष्कषाय, जितेंद्रिय, धीर, निदानरहित, सम्यग्दर्शन-संपन्न जीव मरते समय आराधक होता है, अर्थात् <strong>पंडितमरण</strong> से मरता है।103।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/87/21 </span><span class="SanskritText"> बालमरणमुच्यते–बालस्य मरणं, स च बाल: पंचप्रकार:–अव्यक्तबाल:, व्यवहारबाल:, ज्ञानबाल:, दर्शनबाल:, चारित्रबाल: इति। अव्यक्त: शिशु, धर्मार्थकामकार्याणि यो न वेत्ति न च तदाचरणसमर्थशरीर: सोऽव्यक्तबाल:। लोकवेदसमयव्यवहारान्यो न वेत्ति शिशुर्वासौ व्यवहारबाल:। मिथ्यादृष्टि: सर्वथा तत्त्वश्रद्धानरहिता: दर्शनबाला:। वस्तुयाथात्म्यग्राहिज्ञानन्यूना ज्ञानबाला:। अचारित्रा: प्राणभृतश्चारित्रबाला:। ... दर्शनबालस्य पुन: संक्षेपतो द्विविधं मरणमिष्यते। इच्छया प्रवृत्तमनिच्छयेति च। तयोराद्यमग्निना धूमेन, शस्त्रेण, विषेण, उदकेन, मरुत्प्रपातेन, ... विरुद्धाहारसेवनया बाला मृतिं ढौकंते, कुतश्चिन्निमित्ताज्जीवितपरित्यागैषिण:; काले अकाले वा अध्यवसानादिना यन्मरणं जिजीविषो तद्द्वितीयम्। ... पंडितमरणमुच्यते–व्यवहारपंडित:, सम्यक्त्वपंडित:, ज्ञानपंडितश्चारित्रपंडित: इति चत्वारो विकल्पा:। लोकवेदसमयव्यवहारनिपुणो व्यवहारपपंडित:, अथवानेकशास्त्रज्ञ: शुश्रूषादिबुद्धिगुणसमन्वित: व्यवहारपंडित:, क्षायिकेण क्षायोपशमिकेनौपशमिकेन वा सम्यग्दर्शनेन परिणत: दर्शनपंडित:। मत्यादिपंचप्रकारसम्यग्ज्ञानेषु परिणत: ज्ञानपंडित:। सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातचारित्रेषु कस्मिंश्चित्प्रवृत्तश्चारित्रपंडित:।</span> = <span class="HindiText">अज्ञानी जीव के मरण को <strong>बालमरण</strong> कहते हैं। वह पाँच प्रकार का है–अव्यक्त, व्यवहार, ज्ञान, दर्शन व चारित्रबालमरण। धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को जानता नहीं तथा उनका आचरण करने में जिसका शरीर असमर्थ है वह <strong>अव्यक्तबाल</strong> है। लोकव्यवहार, वेद का ज्ञान, शास्त्रज्ञान, जिसको नहीं है वह <strong>व्यवहारबाल</strong> है। तत्त्वार्थश्रद्धान रहित मिथ्यादृष्टि जीव <strong>दर्शनबाल</strong> है। जीवादि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान जिनको नहीं है वे <strong>ज्ञानबाल</strong> हैं। चारित्रहीन प्राणी को <strong>चारित्रबाल</strong> कहते हैं। दर्शनबालमरण दो प्रकार का है–इच्छाप्रवृत्त और अनिच्छाप्रवृत्त। अग्नि, धूम, विष, पानी, गिरिप्रपात, विरुद्धाहारसेवन इत्यादि द्वारा इच्छापूर्वक जीवन का त्याग इच्छा प्रवृत्त <strong>दर्शनबाल</strong> मरण है। और योग्य काल में या अकाल में ही मरने के अभिप्राय से रहित या जीने की इच्छासहित दर्शनबालों का जो मरण होता है वह <strong>अनिच्छाप्रवृत्त दर्शनबालमरण</strong> है। पंडितमरण चार प्रकार का है–व्यवहार, सम्यक्त्व, ज्ञान व चारित्रपंडित मरण। लोक, वेद, समय इनके व्यवहार में जो निपुण हैं वे व्यवहारपंडित हैं, अथवा जो अनेक शास्त्रों के जानकार तथा शुश्रूषा, श्रवण, धारणादि बुद्धि के गुणों से युक्त हैं, उनको <strong>व्यवहारपंडित</strong> कहते हैं। क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दर्शन से जीव <strong>दर्शनपंडित</strong> होता है। मति आदि पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान से जो परिणत हैं उनको <strong>ज्ञानपंडित</strong> कहते हैं। सामायिक, छेदोपस्थापना आदि पाँच प्रकार चारित्र के धारक <strong>चारित्रपंडित</strong> हैं। <span class="GRef"> (भावपाहुड़ टीका/32/147/20) </span></span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="1.5" id="1.5"><strong> अन्य | <li><span class="HindiText" name="1.5" id="1.5"><strong> अन्य भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/87/13 </span><span class="SanskritText">यो यादृशं मरणं सांप्रतमुपैति तादृगेव मरणं यदि भविष्यति तदवधिमरणम्। तद्द्विविधं देशावधिमरणं सर्वावधिमरणम् इति। ... यदायुर्यथाभूतमुदेति सांप्रतं प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशैस्तथानुभूतमेवायुः प्रकृत्यादिविशिष्टं पुनर्बध्नाति उदेष्यति च यदि तत्सर्वावधिमरणम्। यत्सांप्रतमुदेत्यायुर्यथाभूतं तथाभूतमेव बध्नाति देशतो यदि तद्देशावधिमरणम्। ... सांप्रतेन मरणेनासादृश्यभावि यदि मरणमाद्यंतमरणं उच्यते, आदिशब्देन सांप्रतं प्राथमिकं मरणमुच्यते तस्य अंतो विनाशभावो यस्मिन्नुत्तरमरणे तदेतदाद्यंतमरणम् अभिधीयते। प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशैर्यथाभूतै: सांप्रतमुपेति मृतिं यथाभूतां यदि सर्वतो देशतो वा नोपैति तदाद्यंतमरणम्।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/88/12 </span><span class="SanskritText">निर्वाणमार्गप्रस्थितात्संयतसार्थाद्योहीन: प्रच्युत: सोऽभिधीयते ओसण्ण इति। तस्य मरणमोसण्णमरणमिति। ओसण्णग्रहणेन पार्श्वस्था:, स्वच्छंदा:, कुशीला:, संसक्ताश्च गृह्यंते। ... सशल्यमरणं द्विविधं यतो द्विविधं शल्यं द्रव्यशल्यं भावशल्यमिति। ... द्रव्यशल्येन सह मरणं पंचानां स्थावराणां भवति असंज्ञिनां त्रसानां च। ... भावशल्यविनिर्मुक्तं द्रव्यशल्यमपेक्षते। ... एतच्च संयते, संयतासंयते, अविरतसम्यग्दृष्टावपि भवति। ... विनयवैयावृत्त्यादावकृतादर: ... ध्याननमस्कारादेः पलायते अनुपयुक्ततया, एतस्य मरणं बलायमरणं। सम्यक्त्वपंडिते, ज्ञानपपंडिते, चरणपपंडिते च बलायमरणमपि संभवति। ओसण्णमरणं ससल्लमरणं च यदभिहितं तत्र नियमेन बलायमरणम्। तद्वयतिरिक्तमपि बलायमरणं भवति। ... वसट्टमरणं नाम – आर्ते रौद्रे च प्रवर्तमानस्य मरणं। तत्पुनर्चतुर्विधंइंदियवसट्टमरणं, वेदणावसट्टमरणं, कसायवसट्टमरणं, नोकसायवसट्टमरणम् इति। इंदियवसट्टमरणं यत्पंचविधं इंद्रियविषयापेक्षया ... मनोज्ञेषु रक्तोऽमनोज्ञेषु द्विष्टो मृतमेति।... इति इंद्रियानिंद्रियवशार्तमरणविकल्पा:। वेदणावसट्टमरणं द्विभेदं समासत:। सातवेदनावशार्तमरणं असातवेदनावशार्तमरणं। शारीरे मानसे वा दु:खे उपयुक्तस्य मरणं दु:खवशार्तमरणमुच्यते ... तथा शारीरे मानसे व सुखे उपयुक्तस्य मरणं सातवशार्तमरणम्। कषायभेदात्कषायवशार्तमरणं चतुर्विधं भवति। अनुबंधरोषो य आत्मनि परत्र उभयत्र वा मरणवशोऽपि मरणवश: भवति। तस्य क्रोधवशार्तमरणं भवति। ... हास्यरत्यरति ... मूढमतेर्मरणं नोकषायवशार्तमरणं। ... मिथ्यादृष्टेरेतद्बालमरणं भवति। दर्शनपंडितोऽपि अविरतसम्यग्दृष्टि: संयतासंयतोऽपि वशार्तमरणमुपैति तस्य तद्बालपंडितं भवति दर्शनपंडितं वा। अप्रतिषिद्धे अनुज्ञाते च द्वे मरणे। विप्पाणसं गिद्धपुट्ठमितिसंज्ञिते। दुर्भिक्षे, कांतारे ... दुष्टनृपभये ... तिर्यगुपसर्गे एकाकिन: सोढुमशक्ये ब्रह्मव्रतनाशादिचारित्रदूषणे च जाते संविग्नः पापभीरु: कर्मणामुदयमुपस्थितं ज्ञात्वा तं सोढुमशक्त: तन्निस्तरणस्यासत्युपाये ... न वेदनामसंक्लिष्टः सोढुं उत्सहेत् ततो रत्नत्रयाराधनाच्युतिर्ममेति निश्चितमतिर्निर्मायश्चरणदर्शनविशुद्ध: ... ज्ञानसहायोऽनिदान: अर्हदंतिके, आलोचनामासाद्य कृतशुद्धिः, ... सुलेश्य: प्राणापाननिरोधं करोति यत्तद्विप्पाणसं मरणमुच्यते। शस्त्रग्रहणेन यद्भवति तद्गिद्धपुट्ठमिति।</span> = <span class="HindiText">जो प्राणी जिस तरह का मरण वर्तमान काल में प्राप्त करता है, वैसा ही मरण यदि आगे भी उसको प्राप्त होगा तो ऐसे मरण को <strong>अवधिमरण</strong> कहते हैं। यह दो प्रकार का है–सर्वावधि व देशावधि। प्रकृति, स्थिति अनुभव व प्रदेशों सहित जो आयु वर्तमान समय में जैसी उदय में आती है वैसी ही आयु फिर प्रकृत्यादि विशिष्ट बँधकर उदय में आवेगी तो उसको <strong>सर्वावधिमरण</strong> कहते हैं। यदि वही आयु आंशिकरूप से सदृश होकर बँधे व उदय में आवेगी तो उसको <strong>देशावधि</strong> <strong>मरण</strong> कहते हैं। यदि वर्तमानकाल के मरण या प्रकृत्यादि के सदृश उदय पुन: आगामी काल में नहीं आवेगा, तो उसे <strong>आद्यंतमरण</strong> कहते हैं। मोक्षमार्ग में स्थित मुनियों का संघ जिसने छोड़ दिया है ऐसे पार्श्वस्थ, स्वच्छंद, कुशील व संसक्त साधु <strong>अवसन्न</strong> कहलाते हैं। उनका मरण <strong>अवसन्नमरण</strong> है। सशल्य मरण के दो भेद हैं–द्रव्यशल्य व भावशल्य। तहाँ माया मिथ्या आदि भावों को भावशल्य और उनके कारणभूत कर्मों को द्रव्यशल्य कहते हैं। भावशल्य की जिनमें संभावना नहीं है, ऐसे पाँचों स्थावरों व असंज्ञी त्रसों के मरण को <strong>द्रव्यशल्यमरण</strong> कहते हैं। भावशल्यमरण संयत, संयतासंयत व अविरत सम्यग्दृष्टि को होता है। विनय वैयावृत्त्य आदि कार्यों में आदर न रखने वाले तथा इसी प्रकार सर्व कृतिकर्म, व्रत, समिति आदि, धर्मध्यान व नमस्कारादि से दूर भागने वाले मुनि के मरण को <strong>पलायमरण</strong> या <strong>बलाकामरण</strong> कहते हैं। सम्यक्त्वपंडित, ज्ञानपंडित व चारित्रपंडित ऐसे लोक इस मरण से मरते हैं। अन्य के सिवाय अन्य भी इस मरण से मरते हैं। आर्त रौद्र भावों युक्त मरना <strong>वशार्तमरण</strong> है। यह चार प्रकार है–इंद्रियवशार्त, वेदनावशार्त, कषायवशार्त और नोकषायवशार्त। पाँच इंद्रियों के पाँच विषयों की अपेक्षा इंद्रियवशार्त पाँच प्रकार का है। मनोहर विषयों में आसक्त होकर और अमनोहर विषयों में द्विष्ट (घृणायुक्त) होकर जो मरण होता है वह श्रोत्र आदि इंद्रियों व मन संबंधी वशार्तमरण है। शारीरिक व मानसिक सुखों में अथवा दु:खों में अनुरक्त होकर मरने से <strong>वेदनावशार्त</strong> सात व असात के भेद से दो प्रकार का है। कषायों के क्रोधादि भेदों की अपेक्षा <strong>कषायवशार्त</strong> चार प्रकार का है। स्वत: में, दूसरे में अथवा दोनों में उत्पन्न हुए क्रोध के वश मरना <strong>क्रोधकषायवशार्त</strong> है। (इसी प्रकार आठ मदों के वश मरना <strong>मानवशार्त</strong> है, पाँच प्रकार की माया से मरना <strong>मायावशार्त</strong> और परपदार्थों में ममत्व के वश मरना <strong>लोभवशार्त</strong> है)। हास्य, रति, अरिति आदि से जिसकी बुद्धि मूढ हो गयी है ऐसे व्यक्ति का मरण <strong>नोकषायवशार्त</strong> मरण है। इस मरण को बालमरण में अंतर्भूत कर सकते हैं। दर्शनपंडित, अविरतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीव भी वशार्तमरण को प्राप्त हो सकते हैं। उनका यह मरण बालपंडित मरण अथवा दर्शनपंडितमरण समझना चाहिए। विप्राणस व गृद्धपृष्ठ नाम के दोनों मरणों का न तो आगम में निषेध है और न अनुज्ञा। दुष्काल में अथवा दुर्लंघ्य जंगल में, दुष्ट राजा के भय से, तिर्यंचादि के उपसर्ग में, एकाकी स्वयं सहन करने को समर्थ न होने से, ब्रह्मव्रत के नाश से चारित्र में दोष लगने का प्रसंग आया हो तो संसारभीरु व्यक्ति कर्मों का उदय उपस्थित हुआ जानकर जब उसको सहन करने में अपने को समर्थ नहीं पाता है, और न ही उसको पार करने का कोई उपाय सोच पाता है, तब ‘वेदना को सहने से परिणामों में संक्लेश होगा और उसके कारण रत्नत्रय की आराधना से निश्चय ही मैं च्युत हो जाऊंगा' - ऐसी निश्चल मति को धारते हुए, निष्कपट होकर चारित्र और दर्शन में निष्कपटता धारण कर धैर्ययुक्त होता हुआ, ज्ञान का सहाय लेकर निदानरहित होता हुआ अर्हंत भगवान् के समीप आलोचना करके विशुद्ध होता है। निर्मल लेश्याधारी वह व्यक्ति अपने श्वासोच्छ्वास का निरोध करता हुआ प्राणत्याग करता है। ऐसे मरण को <strong>विप्राणस मरण</strong> कहते हैं। उपर्युक्त कारण उपस्थित होने पर शस्त्र ग्रहण करके जो प्राणत्याग किया जाता है वह <strong>गृद्धपृष्ठ मरण</strong> है। <span class="GRef"> (भावपाहुड़ टीका/32/147/11 )।</span></span></li> | |||
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<li><span class="HindiText" name="2.1" id="2.1"><strong> आयु का क्षय ही वास्तविक मरण है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.1" id="2.1"><strong> आयु का क्षय ही वास्तविक मरण है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,56/292/10 </span><span class="SanskritText">न तावज्जीवशरीरयोर्वियोगमरणम्। </span>= <span class="HindiText">आगम में जीव और शरीर के वियोग को मरण नहीं कहा गया है। (अथवा पूर्णरूपेण वियोग ही मरण है एकदेश वियोग नहीं। और इस प्रकार समुद्घात आदि को मरण नहीं कह सकते।–देखें [[ आहारक#3.5 | आहारक - 3.5]]। अथवा नारकियों के शरीर का भस्मीभूत हो जाना मात्र उनका मरण नहीं है, बल्कि उनके आयु कर्म का क्षय ही वास्तव में मरण है–देखें [[ मरण#4.3 | मरण - 4.3]])।<br /> | |||
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<li class="HindiText" name="2.2" id="2.2"><strong> चारों गतियों में मरण के लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग</strong> <br /> | <li class="HindiText" name="2.2" id="2.2"><strong> चारों गतियों में मरण के लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग</strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,76-243/477/22 </span>विशेषार्थ–सूत्रकार भूतबलि आचार्य ने भिन्न-भिन्न गतियों से छूटने के अर्थ में संभवत: गतियों की हीनता व उत्तमता के अनुसार भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया है (देखें मूल सूत्र - 73-243)। नरकगति, व भवनत्रिक देवगति हीन हैं, अतएव उनसे निकलने के लिए <strong>उद्वर्तन</strong> अर्थात् उद्धार होना कहा है। तिर्यंच और मनुष्य गतियाँ सामान्य हैं, अतएव उनसे निकलने के लिए <strong>काल करना</strong> शब्द का प्रयोग किया है और सौधर्मादिक विमानवासियों की गति उत्तम है, अतएव वहाँ से निकलने के लिए <strong>च्युत</strong> होना शब्द का प्रयोग किया गया है। जहाँ देवगति सामान्य से निकलने का उल्लेख किया गया है वहाँ भवनत्रिक व सौधर्मादिक दोनों की अपेक्षा करके ‘उद्वर्तित और च्युत’ इन दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है।</li> | |||
<li><span class="HindiText" name="2.3" id="2.3"><strong> | <li><span class="HindiText" name="2.3" id="2.3"><strong> पंडित व बाल आदि मरणों की इष्टता</strong>-<strong>अनिष्टता</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/28/112 </span><span class="PrakritGatha">पंडिदपंडिदमरणं च पंडिदं बालपंडिदं चेव। एदाणि तिण्णि मरणाणि जिला णिच्चं पसंसंति।28।</span> =<span class="HindiText"> पंडित-पंडित, पंडित व बालपंडित इन तीन मरणों की जिनेंद्र देव प्रशंसा करते हैं।</span><br /> | |||
मू.आ./61 <span class="PrakritGatha">मरणे विराधिदं देवदुग्गई दुल्लहा य किर वोही। संसारो य अणंतो होइ पुणो आगमे काल।61।</span>=<span class="HindiText">मरणसमय सम्यक्त्व आदि गुणों की विराधना करने वाले दुर्गतियों को प्राप्त होते हुए | मू.आ./61 <span class="PrakritGatha">मरणे विराधिदं देवदुग्गई दुल्लहा य किर वोही। संसारो य अणंतो होइ पुणो आगमे काल।61।</span>=<span class="HindiText">मरणसमय सम्यक्त्व आदि गुणों की विराधना करने वाले दुर्गतियों को प्राप्त होते हुए अनंत संसार में भ्रमण करते हैं, क्योंकि रत्नत्रय की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है।<br /> | ||
देखें [[ मरण#1.5 | मरण - 1.5 ]](विप्राणस व गृद्धपृच्छमरण का आगम में न निषेध है और न अनुज्ञा।)</span></li> | देखें [[ मरण#1.5 | मरण - 1.5 ]](विप्राणस व गृद्धपृच्छमरण का आगम में न निषेध है और न अनुज्ञा।)</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> गुणस्थानों आदि में मरण | <li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> गुणस्थानों आदि में मरण संबंधी नियम </strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="3.1" id="3.1"><strong> | <li><span class="HindiText" name="3.1" id="3.1"><strong> आयुबंध व मरण में परस्पर गुणस्थान संबंधी</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 8/3,84/145/4 </span><span class="PrakritText">जेण गुणेणाउबंधो संभवदि तेणेव गुणेण मरदि, ण अण्णगुणेणेत्ति परमगुरूवदेसादी। ण उवसामगेहिं अणेयंतो, सम्मत्तगुणेण आउबंधाविरोहिणा णिस्सरणे विरोहाभावादो।</span> = | |||
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<li class="HindiText"> जिस गुणस्थान के साथ | <li class="HindiText"> जिस गुणस्थान के साथ आयुबंध संभव है उसी गुणस्थान के साथ जीव मरता है। <span class="GRef">( धवला 4/1,5,46/363/3 )</span>। </li> | ||
<li class="HindiText"> अन्य गुणस्थान के साथ नहीं (अर्थात् जिस गति में जिस गुणस्थान में आयुकर्म का | <li class="HindiText"> अन्य गुणस्थान के साथ नहीं (अर्थात् जिस गति में जिस गुणस्थान में आयुकर्म का बंध नहीं होता, उस गुणस्थानसहित उस गति से निर्गमन भी नहीं होता–<span class="GRef">( धवला 6/463/8 )</span> इस नियम में उपशामकों के साथ अनैकांतिक दोष भी संभव नहीं है, क्योंकि, आयुबंध के अविरोधी सम्यक्त्व गुण के साथ निकलने में कोई विरोध नहीं है। <span class="GRef">( धवला 6/1,9-1,130/463/8 )</span>।</li> | ||
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<li><span class="HindiText" name="3.2" id="3.2"><strong> निम्न स्थानों में मरण | <li><span class="HindiText" name="3.2" id="3.2"><strong> निम्न स्थानों में मरण संभव नहीं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/560-561/762 </span><span class="PrakritGatha">मिस्साहारस्सयया खवगणा चड्यमाडपढमपुव्वा य। पढमुवसमया तमतमगुडपडिवण्णा य ण मरंति।560। अणसंजोजिदमिच्छे मुहुत्तअंतं तु णत्थि मरणं तु। किद करणिज्जं जाव दु सव्वपरट्ठाण अट्ठपदा।561।</span> = <span class="HindiText">आहारकमिश्र काययोगी, चारित्रमोह क्षपक, उपशमश्रेणी आरोहण में अपूर्वकरण के प्रथम भागवाले प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि, सप्तमपृथिवी का नारकी सम्यग्दृष्टि, अनंतानुबंधी विसंयोजन के अंतमुहूर्त कालपर्यंत तथा कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि इन जीवों का मरण नहीं होता है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="3.3" id="3.3"><strong> सासादन गुणस्थान में मरण | <li><span class="HindiText" name="3.3" id="3.3"><strong> सासादन गुणस्थान में मरण संबंधी</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,83/324/1 </span><span class="SanskritText">नापि बद्धनरकायुष्क: सासादनं प्रतिपद्य नारकेषूत्पद्यते तस्य तस्मिन्गुणे मरणाभावात्।</span> = <span class="HindiText">नरक आयु का जिसने पहले बंध कर लिया है, ऐसा जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर नारकियों में उत्पन्न नहीं होता (विशेष देखें [[ जन्म#4.1 | जन्म - 4.1]]) क्योंकि ऐसे जीव का सासादनसहित मरण ही नहीं होता।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,14/331/5 </span><span class="PrakritText">आसाणं पुण गदो जदि मरदि, ण सक्को णिरयगदिं तिरिक्खगदिं मणुसगदिं वा गंतुं, णियमा देवगदिं गच्छदि। ... हंदि तिसु आउएसु एक्केण वि बद्धेण ण सक्को कसाए उवसामेंदुं, तेण कारणेण णिरयतिरिक्ख–मणुसगदीओ ण गच्छदि। </span>= <span class="HindiText">(द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव) सासादन को प्राप्त होकर यदि मरता है तो नरक, तिर्यंच व मनुष्य इन तीन गतियों को प्राप्त करने के लिए समर्थ नहीं होता है। नियम से देवगति को ही प्राप्त करता है क्योंकि इन तीन आयुओं में से एक भी आयु का बंध हो जाने के पश्चात् जीव कषायों को उपशमाने के लिए समर्थ नहीं होता है। इसी कारण वह इन तीनों गतियों को प्राप्त नहीं करता है। (दूसरी मान्यता के अनुसार ऐसे जीव सासादन गुणस्थान को ही प्राप्त नहीं होते (देखें [[ सासादन ]])। <span class="GRef">( लब्धिसार/349-350/438 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/548/718/18 </span><span class="SanskritText">सासादना भूत्वा प्राग्बद्धदेवायुष्का मृत्वा अबद्धायुष्का: केचिद्देवायुर्बध्वा च देवनिर्वृत्त्यपर्याप्तसासादना: स्यु:।</span> = <span class="HindiText">(पूर्वोक्त द्वितीयोपशम सम्यक्त्व से सासादन को प्राप्त होने वाला जीव) सासदन को प्राप्त होकर यदि पहले ही देवायु का बंध कर चुका है तो मरकर अन्यथा कोई-कोई जिन्होंने पहले कोई आयु नहीं बाँधी है, अब देवायु को बाँधकर देवगति में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार निर्वृत्त्यपर्याप्त देवों में सासादन गुणस्थान होता है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="3.4" id="3.4"><strong> मिश्र गुणस्थान में मरण के अभाव | <li><span class="HindiText" name="3.4" id="3.4"><strong> मिश्र गुणस्थान में मरण के अभाव संबंधी</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 4/1,5,17/गाथा 33/349 </span><span class="PrakritGatha"> णय मरइ णेव संजमुवेइ तह देससंजमं वावि। सम्मामिच्छादिट्ठी ण उ मरणंतं समुग्घादो।33।</span> = <span class="HindiText">सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव न तो मरता है और न मारणांतिक समुद्घात ही करता है। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/24/49 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 5/1,6,34/31/2 </span><span class="PrakritText">जो जीवो सम्मादिट्ठी होदूण आउअं बंधिय सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जदि, सो सम्मत्तेणेब णिप्फददि। अह मिच्छदिट्ठी होदूण आउअं बंधिय सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जदि, सो मिच्छत्तेणेव णिप्फददि।</span> = <span class="HindiText">जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर और आयु को बाँधकर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, वह सम्यक्त्व के साथ ही उस गति से निकलता है। अथवा जो मिथ्यादृष्टि होकर और आयु को बाँधकर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, वह मिथ्यात्व के साथ ही निकलता है। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/23-24/48 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/456/605/3 )</span>।</span><br><span class="GRef"> धवला 8/3,84/145/2 </span><span class="PrakritText">सम्मामिच्छत्तगुणेण जीवा किण्ण मरंति। तत्थाउस्स बंधाभावादो।</span> = <span class="HindiText">सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में क्योंकि आयु का बंध नहीं होता है, इसलिए वहाँ मरण भी नहीं होता है। (और भी देखें [[ मरण#3.1 | मरण - 3.1]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/24/49/13 </span><span class="SanskritText">अन्येषामाचार्याणामभिप्रायेण नियमो नास्ति।</span> = <span class="HindiText">अन्य किन्हीं आचार्यों के अभिप्राय से यह नियम नहीं है, कि वह जीव आयुबंध के समय वाले गुणस्थान में ही आकर मरे। अर्थात् सम्यक्त्व व मिथ्यात्व किसी भी गुणस्थान को प्राप्त होकर मर सकता है।</span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> प्रथमोपशम सम्यक्त्व में मरण के अभाव संबंधी</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़ सुत्त/10/गाथा 97/611 </span> <span class="PrakritText">उवसामगो च सव्वो णिव्वाघादो। </span>= <span class="HindiText">दर्शनमोह के उपशामक सर्व ही जीव निर्व्याघात होते हैं, अर्थात् उपसर्गादि के आने पर भी विच्छेद या मरण से रहित होते हैं। <span class="GRef"> (धवला 6/1,9-8,9/गाथा 4/239); (लब्धिसार/मूल/99/136) </span>; (देखें [[ मरण#3.2 | मरण - 3.2]])। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,171/407/8 </span><span class="SanskritText">मिथ्यादृष्टय उपात्तौपशमिकसम्यग्दर्शना: ... संत:... तेषां तेन सह मरणाभावात्।</span> = <span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यग्दर्शन को ग्रहण करके (वहाँ देवगति में उत्पन्न नहीं होते) क्योंकि उनका उस सम्यग्दर्शन सहित मरण नहीं होता। <span class="GRef"> (धवला 2/1,1/430/7); (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/695/1131/15)</span></span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="3.6" id="3.6"><strong> | <li><span class="HindiText" name="3.6" id="3.6"><strong> अनंतानुबंधी विसंयोजन के मरणाभाव संबंधी</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/4/103 </span><span class="PrakritGatha">आवलियमेत्तकालं अणंतबंधीण होइ णो उदओ। अंतोमुहुत्तमरणं मिच्छत्तं दंसणापत्ते।103।</span> = <span class="HindiText">जो अनंतानुबंधी का विसंयोजक सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होता है, उसको एक आवलीमात्र काल तक अनंतानुबंधी कषायों का उदय नहीं होता है । ऐसा मिथ्यादृष्टि का अर्थात् सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व को प्राप्त होने वाले जीव का अंतर्मुहूर्त काल तक मरण नहीं होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 2-22/119/101/6 </span><span class="PrakritText">अंतोमुहुत्तेण विणा संजुत्त विदियसमए चेव मरणाभावादो।</span> = <span class="HindiText">अनंतानुबंधी का पुन: संयोजन होने पर अंतर्मुहूर्त काल हुए बिना दूसरे समय में ही मरण नहीं होता है। <span class="GRef"> (कषायपाहुड़ 2/2-22/125/108/3); (गोम्मटसार कर्मकांड/561/763) </span></span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="3.7" id="3.7"><strong> उपशम श्रेणी में मरण | <li><span class="HindiText" name="3.7" id="3.7"><strong> उपशम श्रेणी में मरण संबंधी</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/10/1/3/640/7 </span><span class="SanskritText">सर्वमोहप्रकृत्युपशमात् उपशांतकषायव्यपदेशभाग्भवति। आयुष: क्षयात् म्रियते।</span> = <span class="HindiText">मोह की सर्व प्रकृतियों का उपशम हो जाने पर उपशांतकषाय संज्ञावाला होता है। आयु का क्षय होने पर वह मरण को भी प्राप्त हो जाता है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 2/1,1/430/8 </span><span class="PrakritText">चारित्तमोहउवसामगा मदा देवेसु उववज्जंति।</span> = <span class="HindiText">चारित्रमोह का उपशम करने वाले जीव मरते हैं तो देवों में उत्पन्न होते हैं। <span class="GRef"> (लब्धिसार/मूल/308/390)</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 4/1,5,22/352/7 </span><span class="PrakritText">अपुव्वकरणपढमसमयादो जाव णिद्दापयलाणं बंधो ण वोच्छिज्जदि ताव अपुव्वकरणाणं मरणाभावा।</span> = <span class="HindiText">अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम समय से लेकर जब-तक निद्रा और प्रचला, इन दोनों प्रकृतियों का बंध व्युच्छिन्न नहीं हो जाता है (अर्थात् अपूर्वकरण के प्रथम भाग में) तब-तक अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती संयतों का मरण नहीं होता है। (और भी देखें [[मरण#3.2 | मरण - 3.2); <span class="GRef"> (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/55/148/13) </span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,4,31/130/8 </span><span class="PrakritText">उवसमसेडीदो ओदिण्णस्स उवसमसम्माइट्ठस्स मरणे संते वि उवसमसमत्तेण अंतोमुहुत्तमच्छिदूण चेव वेदगसम्मत्तस्स गमणुवलंभादो।</span> = <span class="HindiText">उपशम श्रेणी से उतरे हुए उपशम सम्यग्दृष्टि का यद्यपि मरण होता है, तो भी यह जीव उपशम सम्यक्त्व के साथ अंतर्मुहूर्तकाल तक रहकर ही वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त होता है। (देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.3.4 | सम्यग्दर्शन - IV.3.4]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड </span>व जी.प्र./730/1325 <span class="SanskritText">विदियुवसमसम्मत्तं सेढीदोदिण्णि अविरदादिसु सगसगलेस्सामरिदे देवअपज्जत्तगेव हवे।731। बद्धदेवायुष्कादन्यस्य उपशमश्रेण्यां मरणाभावात्। </span>= <span class="HindiText">उपशम श्रेणी से नीचे उतरकर असंयतादिक गुणस्थानों में अपनी-अपनी लेश्या सहित मरैं तो अपर्याप्त असंयत देव ही होता है, क्योंकि, देवायु के बंध से अन्य किसी भी ऐसे जीव का उपशमश्रेणी में मरण नहीं होता है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="3.8" id="3.8"><strong> कृतकृत्यदेव में मरण | <li><span class="HindiText" name="3.8" id="3.8"><strong> कृतकृत्यदेव में मरण संबंधी</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,12/263/1 </span><span class="PrakritText">कदकरणिज्जकालब्भंतरे तस्स मरणं पि होज्ज।</span> = <span class="HindiText">कृतकृत्यवेदककाल के भीतर उसका मरण भी होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 2/2-22/242/215/6 </span><span class="PrakritText">जइ वसहाइरियस्स वे उवएसा। तत्थ कदकरणिज्जो ण मरदि त्ति उवदेसमस्सिदूण एदं मुत्तं कदं। ... ‘पढमसमयकदकरणिज्जो जदि मरदि णियमा देवेसु उववज्जदि। जदि णेरइएसु तिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा उववज्जदि तो णियमा अंतोमुहुत्तकदकरणिज्जो’ त्ति जइवसहाइरियपरूविदपुण्णिसुत्तादो। णवरि, उच्चारणाइरियउवएसेण पुण कदकरणिज्जो ण मरइ चेवेति णियमो णत्थि।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़/पु.2/2-22/244/217/8 </span> <span class="PrakritText">मिच्छत्तं खविय सम्मामिच्छत्तं खवेंतो ण मरदि त्ति कुदो णव्वदे। एदम्हादो चेव सुत्तादो। </span>= <span class="HindiText">यतिवृषाभाचार्य के दो उपदेश हैं। उनमें से कृतकृत्यवेदक जीव मरण नहीं करता है इस सूत्र का आश्रय लेकर यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है। ... ‘कृतकृत्यवेदक जीव यदि कृतकृत्य होने के प्रथम समय में मरण करता है तो नियम से देवों में उत्पन्न होता है किंतु जो कृतकृत्यवेदक जीव नारकी, तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होता है, वह नियम से अंतर्मुहूर्त काल तक कृतकृत्यवेदक रहकर ही मरता है।’ यतिवृषभ के इस सूत्र से जाना जाता है कि कृतकृत्यवेदक जीव मरता है। किंतु इतनी विशेषता है कि उच्चारणाचार्य के उपदेशानुसार कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं ही मरता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। = <strong>प्रश्न</strong>–‘मिथ्यात्व का क्षय करके सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय करने वाला जीव नहीं मरता यह कैसे जाना जाता है ? <strong>उत्तर</strong>–इसी सूत्र से जाना जाता है।<br /> | |||
देखें [[ मरण#3.2 | मरण - 3.2 ]]( | देखें [[ मरण#3.2 | मरण - 3.2 ]](दर्शनमोह का क्षय करने वाला यावत् कृतकृत्यवेदक रहता है तावत् मरण नहीं करता।)</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.9" id="3.9"><strong> नरकगति में मरण समय के लेश्या व गुणस्थान</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.9" id="3.9"><strong> नरकगति में मरण समय के लेश्या व गुणस्थान</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/2/294 </span><span class="PrakritGatha">किण्हाय णीलकाऊणुदयादो बंधिऊण णिरयाऊ। मरिऊण ताहिं जुत्तो पावइ णिरयं महाघोरं।294।</span> = <span class="HindiText">कृष्ण, नील अथवा कापोत इन तीन लेश्याओं का उदय होने से नरकायु को बाँधकर और मरकर उन्हीं लेश्याओं से युक्त होकर महा भयानक नरक को प्राप्त करता है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/539/698 </span><span class="PrakritGatha">तत्थतणविरदसम्मो मिस्सो मणुवदुगमुच्चयं णियमा। बंधदि गुणपडिवण्णा मरंति मिच्छेव तत्थ भवा।</span> = <span class="HindiText">तत्रतन अर्थात् सातवीं नरक पृथिवी में सासादन, मिश्र व असंयतगुणस्थानवर्ती जीव मरण के समय मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को प्राप्त होकर ही मरते हैं। (विशेष देखें [[ जन्म#6 | जन्म - 6]])।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="3.10" id="3.10"><strong> देवगति में मरण समय की लेश्या</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.10" id="3.10"><strong> देवगति में मरण समय की लेश्या</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 8/3,258/323/1 </span><span class="PrakritText">सव्वे देवा मुदयक्खणेण चेव अणियमेण असुहतिलेस्सासु णिवदंति ... अण्णे पुण आइरिया ... मुददेवाणं सव्वेसिं वि काउलेस्साए चेव परिणामब्भुवगमादो।</span> = <span class="HindiText">सब देव मरणक्षण में ही नियम रहित अशुभ तीन लेश्याओं में गिरते हैं, और अन्य आचार्यों के मत से सब ही मृत देवों का कापोत लेश्या में ही परिणमन स्वीकार किया गया है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="3.11" id="3.11"><strong> आहारकमिश्र काययोगी के मरण | <li><span class="HindiText" name="3.11" id="3.11"><strong> आहारकमिश्र काययोगी के मरण संबंधी</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 15/64/1 </span><span class="PrakritText">आहारसरीरमुट्ठावेंतस्स अपज्जत्तद्धाए मरणाभावादो।</span> = <span class="HindiText">आहारक शरीर को उत्पन्न करने वाले जीव का अपर्याप्तकाल में मरण संभव नहीं है। (और भी देखें [[ मरण#3.2 | मरण - 3.2]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/238/501 </span><span class="PrakritText">अव्वाघादी अंतोमुहुत्तकालट्ठिदी जहण्णिदरे। पज्जत्तीसंपुण्णो मरणं पि कदाचि संभवई।</span> = <span class="HindiText">आहारक शरीर अव्याघाती है, अंतर्मुहूर्त कालस्थायी है, और पर्याप्तिपूर्ण हो जाने पर उस आहारक शरीरधारी मुनि का कदाचित् मरण भी संभव है।</span></li> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4.1" id="4.1"><strong>कदलीघात | <li><span class="HindiText" name="4.1" id="4.1"><strong>कदलीघात का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भावपाहुड़/मूल/25 </span><span class="PrakritGatha">विसवेयणरत्तक्खय-भयसत्थग्गहणसंकिलिस्साणं। आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिणए आऊ।12।</span> = <span class="HindiText">विष खा लेने से, वेदना से, रक्त का क्षय होने से, तीव्र भय से, शस्त्रघात से, संक्लेशकी अधिकता से, आहार और श्वासोच्छ्वास के रुक जाने से आयु क्षीण हो जाती है। (इस प्रकार से जो मरण होता है उसे कदलीघात कहते हैं) <span class="GRef"> (धवला 1/1,1,1/गाथा 12/23); (गोम्मटसार कर्मकांड/57/55) </span></span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="4.2" id="4.2"><strong> बद्धायुष्क की अकाल मृत्यु | <li><span class="HindiText" name="4.2" id="4.2"><strong> बद्धायुष्क की अकाल मृत्यु संभव नहीं </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 10/4,2,4,39/237/5 </span><span class="PrakritText">परभवि आउए बद्धे पच्छा भुंजमाणाउस्स कदलीघादो णत्थि जहासरूवेण चेव वेदेत्ति जाणावणट्ठं ‘कमेण कालगदो’ त्ति उत्तं। परभवियाउअं बंधिय भुंजमाणाउए घादिज्जमाणे को दोसो त्ति उत्ते ण, णिज्जिण्णभुंजमाणाउस्स अपत्तपरभवियाउअउदयस्स चउगइबाहिरस्स जीवस्स अभावप्पसंगादो।</span> = <span class="HindiText">परभव संबंधी आयु के बँधने के पश्चात् भुज्यमान आयु का कदलीघात नहीं होता, किंतु वह जितनी थी उतनी का ही वेदन करता है, इस बात का ज्ञान कराने के लिए ‘क्रम से काल को प्राप्त होकर’ यह कहा है। <strong>प्रश्न</strong>–परभविक आयु को बाँधकर भुज्यमान आयु का घात मानने में कौन सा दोष है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि जिसकी भुज्यमान आयु की निर्जरा हो गयी है, किंतु अभी तक जिसके परभविक आयु का उदय नहीं प्राप्त हुआ है, उस जीव का चतुर्गति से बाह्य हो जाने से अभाव प्राप्त होता है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="4.3" id="4.3"><strong> देव | <li><span class="HindiText" name="4.3" id="4.3"><strong> देव-नारकियों की अकालमृत्यु संभव नहीं </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/5/209/10 </span><span class="SanskritText">छेदनभेदनादिभि: शकलीकृतमूर्तोनामपि तेषां न मरणमकाले भवति। कुत: अनपवर्त्यायुष्कत्वात्।</span> =<span class="HindiText"> छेदन, भेदन आदि के द्वारा उनका (नारकियों का) शरीर खंड-खंड हो जाता है, तो भी उनका अकाल में मरण नहीं होता, क्योंकि, उनकी आयु घटती नहीं है। <span class="GRef"> (राजवार्तिक/3/5/8/166/11); (हरिवंशपुराण/4/364); (महापुराण/10/82); (त्रिलोकसार/194) </span>; (और भी देखें [[ नरक#3.6.7 | नरक - 3.6.7]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 14/5,3,101/360/9 </span><span class="PrakritText"> देवणेरइएसु आउअस्स कदलीघादाभावादो। </span>= <span class="HindiText">देव और नारकियों में आयु का कदलीघात नहीं होता। (और भी देखें [[ आयु#5.4 | आयु - 5.4]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,80/321/6 </span><span class="SanskritText"> तेषामपमृत्योरसत्त्वात्। भस्मसाद्भावमुपगतदेहानां तेषां कथं पुनर्मरणमिति चेन्न, देहविकारस्यायुर्विच्छित्त्यनिमित्तत्वात्। अन्यथा बालावस्थात: प्राप्तयौवनस्यापि मरणप्रसंगात्।</span> =<span class="HindiText"> नारकी जीवों के अपमृत्यु का सद्भाव नहीं पाया जाता है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि उनकी अपमृत्यु नहीं होती है, तो जिनका शरीर भस्मीभाव को प्राप्त हो गया है, ऐसे नारकियों का पुनर्मरण कैसे बनेगा ? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, देह का विकार आयुकर्म के विनाश का निमित्त नहीं है। अन्यथा जिसने बाल अवस्था के पश्चात् यौवन अवस्था को प्राप्त कर लिया है, ऐसे जीव को भी मरण का प्रसंग आ जायेगा।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="4.4" id="4.4"><strong> भोगभूमिजों की अकालमृत्यु संभव नहीं</strong> <br /> | <li><span class="HindiText" name="4.4" id="4.4"><strong> भोगभूमिजों की अकालमृत्यु संभव नहीं</strong> <br /> | ||
देखें [[ आयु#5.4. | आयु - 5.4.]](असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीव अर्थात् भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यंच अनपवर्त्य | देखें [[ आयु#5.4. | आयु - 5.4.]](असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीव अर्थात् भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यंच अनपवर्त्य आयु वाले होते हैं।)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/190 </span><span class="PrakritGatha">पढमे विदिये तदिये काले जे होंति माणुसा पवरा। ते अवमिच्चुविहूणा एयंतसुहेहिं संजुत्ता।190।</span> = <span class="HindiText">प्रथम, द्वितीय व तृतीय काल में जो श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं वे अपमृत्यु से रहित और एकांत सुखों से संयुक्त होते हैं।190।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="4.5" id="4.5"><strong> चरमशरीरियों व शलाका पुरुषों में अकालमृत्यु की संभावना व | <li><span class="HindiText" name="4.5" id="4.5"><strong> चरमशरीरियों व शलाका पुरुषों में अकालमृत्यु की संभावना व असंभावना</strong> <br /> | ||
देखें [[ प्रोषधोपवास#2.5 | प्रोषधोपवास - 2.5 ]](अघातायुष्क मुनियों का अकाल में मरण नहीं होता)।<br /> | देखें [[ प्रोषधोपवास#2.5 | प्रोषधोपवास - 2.5 ]](अघातायुष्क मुनियों का अकाल में मरण नहीं होता)।<br /> | ||
देखें [[ आयु#5.4 | आयु - 5.4]](चरमोत्तम देहधारी अनपवर्त्त्य आयुवाले होते हैं)।</span><br /> | देखें [[ आयु#5.4 | आयु - 5.4]](चरमोत्तम देहधारी अनपवर्त्त्य आयुवाले होते हैं)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/53/6/157/25 </span><span class="SanskritText">अंत्यचक्रधरवासुदेवादीनामायुषोऽपवर्तदर्शनादव्याप्तिः।6। न वा; चरमशब्दस्योत्तमविशेषणात्वात्।7। उत्तमग्रहणमेवेति चेत; न; तदनिवृत्ते:।8। चरमग्रहणमेवेति चेत्; न; तस्योत्तमत्वप्रतिपादनार्थत्वात्।9। ...चरमदेह। इति वा केषांचित् पाठ:। एतेषां नियमेनायुरनपवर्त्यमितरेषामनियम:। </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न</strong>–उत्तम देहवाले भी अंतिम चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त और कृष्ण वासुदेव तथा और भी ऐसे लोगों की अकाल मृत्यु सुनी जाती है, अत: यह लक्षण ही अव्यापी है। <strong>उत्तर</strong>–चरम शब्द उत्तम का विशेषण है, अर्थात् अंतिम उत्तम देह वालों की अकाल मृत्यु नहीं होती। यदि केवल उत्तम पद देते तो पूर्वोक्त दोष बना रहता है। यद्यपि केवल ‘चरमदेहे’ पद देने से कार्य चल जाता है, फिर भी उस चरम देह की सर्वोत्कृष्टता बताने के लिए उत्तम विशेषण दिया है। कहीं ‘चरमदेहाः’ यह पाठ भी देखा जाता है। इनकी अकालमृत्यु कभी नहीं होती, परंतु इनके अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के लिए यह नियम नहीं है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थवृत्ति/2/53/110/5 </span><span class="SanskritText">चरमोऽंत्य उत्तमदेह: शरीरं येषां ते चरमोत्तमदेहा: तज्जन्मनिर्वाणयोग्यास्तीर्थंकरपरमदेवा ज्ञातव्या:। गुरुदत्तपांडवादीनामुपसर्गेण मुक्तत्वदर्शनान्नास्त्यनपवर्त्त्यायुर्नियम इति न्यायकुमुदचंद्रोदये प्रभाचंद्रेणोक्तमस्ति। तथा चोत्तमदेवत्वेऽपि सुभौमब्रह्मदत्तापवर्त्त्यायुर्दर्शनात्, कृष्णस्य च जरत्कुमारबाणेनापमृत्युदर्शनात् सकलार्ध चक्रवर्तिनामप्यनपवर्त्त्यायुर्नियमो नास्ति इति राजवार्तिकालंकारे प्रोक्तमस्ति।</span> = <span class="HindiText">चरम का अर्थ है अंतिम और उत्तम का अर्थ है उत्कृष्ट। ऐसा है शरीर जिनका वे, उसी भव से मोक्ष प्राप्त करने योग्य तीर्थंकर परमदेव जानने चाहिए, अन्य नहीं; क्योंकि, चरम देही होते हुए भी गुरुदत्त, पांडव आदि का मोक्ष उपसर्ग के समय हुआ है–ऐसा श्री प्रभाचंद्र आचार्य ने न्याय-कुमुदचंद्रोदय नामक ग्रंथ में कहा है; और उत्तम देही होते हुए भी सुभौम, ब्रह्मदत्त आदि की आयु का अपवर्तन हुआ है। और कृष्ण की जरत्कुमार के बाण से अपमृत्यु हुई है। इसलिए उनकी आयु के अनपवर्त्त्यपने का नियम नहीं है, ऐसा राजवार्तिकालंकार में कहा है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="4.6" id="4.6"><strong> जघन्य | <li><span class="HindiText" name="4.6" id="4.6"><strong> जघन्य आयु में अकालमृत्यु की संभावना व असंभावना </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 14/5,6,290/ </span>पृष्ठ <span class="PrakritText">पंक्ति एत्थ कदलीघादम्मि वे उवदेसा, के वि आइरिया जहण्णाउअम्मि आवलियाए असंखे. भागमेत्ताणि जीवणियट्ठाणाणि लब्भंति त्ति भणंति। तं जहा–पुव्वभणिदसुहुमेइंदियपज्जत्तसव्वजहण्णाउअणिव्वत्तिट्ठाणस्स कदलीघादो णत्थि। एवं समउत्तरदुसमउत्तरादिणिव्वत्तीणं पि घादो णत्थि। पुणो एदम्हादो जहण्णणिव्वत्तिट्ठाणादो संखेज्जगुणमाउअं बंधिदूण सुहुमपज्जत्तेसुवण्णस्स अत्थि कदलीघादो (354/7)। के वि आइरिया एवं भणंतिजहण्णणिव्वत्तिट्ठाणमुवरिमआउअवियप्पेहि वि घादं गच्छदि। केवलं पि घादं गच्छदि। णवरि उवरिमआउवियप्पेहि जहण्णणिव्वत्तिट्ठाणं घादिज्जमाणं समऊणदुसमऊणादिकमेण हीयमाणं ताव गच्छदि जाव जहण्णणिव्वत्तिट्ठाणस्स संखेज्जे भागे ओदारिय संखेभागो सेसो त्ति। जदि पुण केवलं जहण्णणिव्वत्तिट्ठाणं चेव घादेदि तो तत्थ दुविहो कदलीघादो होदि–जहण्णओउक्कस्सओ चेदि (355/1)। सुट्ठु जदि थोवं घादेदि तो जहण्णियणिव्वत्तिट्ठाणस्स संखेज्जे भागे जीविदूण संससंखे. भागस्स संखेज्जे भागे संखेज्जदिभागं वा घादेदि। जदि पुण बहुअं घादेदि तो जहण्णणिवत्तिट्ठाण संखे. भागं जीविदूण संखेज्जे भागे कदलीघादेण घादेदि।(356/1)। एत्थ पढमवक्खाणं ण भद्दयं, खुद्दाभवग्गहणादो (357/1)।</span> = <span class="HindiText">यहाँ कदलीघात के विषय में दो उपदेश पाये जाते हैं। कितने ही आचार्य जघन्य आयु में आवलि के असंख्यातवें भाग-प्रमाण जीवनीय स्थान लब्ध होते हैं ऐसा कहते हैं। यथा – पहले कहे गये सूक्ष्म एकेंद्रिय पर्याप्त की सबसे जघन्य आयु के निर्वृत्तिस्थान का कदलीघात नहीं होता। इसी प्रकार एक समय अधिक और दो समय अधिक आदि निर्वृत्तियों का भी घात नहीं होता। पुन: इस जघन्य निर्वृत्तिस्थान से असंख्यातगुणी आयु का बंध करके सूक्ष्म पर्याप्तकों में उत्पन्न हुए जीव का कदलीघात होता है।(354/7)। कितने ही आचार्य इस प्रकार कथन करते हैं–जघन्य निर्वृत्तिस्थान उपरिम आयुविकल्पों के साथ भी घात को प्राप्त होता है और केवल भी घात को प्राप्त होता है। इतनी विशेषता है, कि उपरिम आयुविकल्पों के साथ घात को प्राप्त होता हुआ जघन्य निर्वृत्तिस्थान एक समय और दो समय आदि के क्रम से कम होता हुआ वह तब तक जाता है जब तक जघन्य निर्वृत्तिस्थान का संख्यात बहुभाग उतरकर संख्यातवें भाग प्रमाण शेष रहता है। यदि पुन: केवल जघन्य निर्वृत्तिस्थान को घातता है तो वहाँ पर दो प्रकार का कदलीघात होता है–जघन्य और उत्कृष्ट यदि अति स्तोक का घात करता है, तो जघन्य निर्वृतिस्थान के संख्यात बहुभाग तक जीवित रहकर शेष संख्यातवें भाग के संख्यात बहुभाग या संख्यातवें भाग का घात करता है। यदि पुन: बहुत का घात करता है तो जघन्य निर्वृत्तिस्थान के संख्यातवें भागप्रमाण काल तक जीवित रहकर संख्यात बहुभाग का कदलीघात द्वारा घात करता है।(355/1)। यहाँ पर प्रथम व्याख्यान ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें क्षुल्लक भव का ग्रहण किया है।(357/1)।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="4.7" id="4.7"><strong> पर्याप्त | <li><span class="HindiText" name="4.7" id="4.7"><strong> पर्याप्त होने के अंतर्मुहूर्त काल तक अकाल मृत्यु संभव नहीं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 10/4,2,4,41/240/7 </span><span class="PrakritText">पज्जत्तिसमाणिदसमयप्पहुडि जाव अंतोमुहुत्तं ण गदं ताव कदलीघादं ण करेदि त्ति जाणावणट्ठमंतोमुहुत्तणिद्देसो कदो।</span> = <span class="HindiText">पर्याप्तियों को पूर्ण कर चुकने के समय से लेकर जब तक अंतर्मुहुर्त नहीं बीतता है, तब तक कदलीघात नहीं करता, इस बात का ज्ञान कराने के लिए (सूत्र में) ‘अंतर्मुहूर्त’ पद का निर्देश किया है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="4.8" id="4.8"><strong> कदलीघात द्वारा आयु का अपवर्तन हो जाता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4.8" id="4.8"><strong> कदलीघात द्वारा आयु का अपवर्तन हो जाता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला/10/4,2,4,41/240/9 </span><span class="PrakritText">कदलीघादेण विणा अंतोमुहूत्तकालेण परभवियमाआउअं किण्ण बज्झदे। ण, जीविदूणागदस्स आउअस्स अद्धादो अहियआवाहाए परभवियआउअस्स बंधाभावादो।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 10/4,2,4,46/244/3 </span><span class="PrakritText">जीविदूणागदअंतोमुहुत्तद्धपमाणेण उवरिममंतोमुहुत्तूणपुव्वकोडाउअं सव्वमेगसमएण सरिसखंडं कदलीघादेण घादिदूण घादिदसमए चेव पुणो...।</span> = <span class="HindiText"> <strong>प्रश्न</strong>–कदलीघात के बिना अंतर्मुहूर्त काल द्वारा परभविक आयु क्यों नहीं बाँधी जाती। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, जीवित रहकर जो आयु व्यतीत हुई है उसकी आधी से अधिक आबाधा के रहते हुए परभविक आयु का बंध नहीं होता। ... जीवित रहते हुए अंतर्मुहूर्त काल गया है उससे अर्धमात्र आगे का अंतर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि प्रमाण उपरिम सब आयु को एक समय में सदृश खंडपूर्वक कदलीघात से घात करने के समय में ही पुन: (परभविक आयु का बंध कर लेता है)। (और भी देखो आगे शीर्षक 9)।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="4.9" id="4.9"><strong> अकाल मृत्यु का अस्तित्व अवश्य है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4.9" id="4.9"><strong> अकाल मृत्यु का अस्तित्व अवश्य है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/53/10/158/8 </span><span class="SanskritText">अप्राप्तकालस्य मरणानुपलब्धेरपवर्त्याभाव इति चेत्; न; द्रष्टत्वादाम्रफलादिवत्।10। यथा अवधारितपाककालात् प्राक् सोपायोपक्रमे सत्याम्रफलादीनां दृष्ट: पाकस्तथा परिच्छिन्नमरणकालात् प्रागुदीरणाप्रत्यय आयुषो भवत्यपवर्त:।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अप्राप्तकाल में मरण की अनुपलब्धि होने से आयु के अपवर्तन का अभाव है। <strong>उत्तर</strong>–जैसे पयाल आदि के द्वारा आम आदि को समय से पहले ही पका दिया जाता है उसी तरह निश्चित मरण काल से पहले भी उदीरणा के कारणों से आयु का अपवर्तन हो जाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/5/2/53/2/261/16 </span><span class="SanskritText"> न हि अप्राप्तकालस्य मरणाभाव: खड्गप्रहारादिभि: मरणस्य दर्शनात्।</span> = <span class="HindiText">अप्राप्तकाल मरण का अभाव नहीं है, क्योंकि, खड्ग-प्रहारादि द्वारा मरण देखा जाता है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,5,63/334/1 </span><span class="PrakritText">कदलीघादेण मरंताणमाउट्ठिदचरिमसमए मरणाभावेण मरणाउट्ठिदिचरिमसमयाणं समाणाहियरणाभावादो च। </span>= <span class="HindiText">कदलीघात से मरने वाले जीवों का आयुस्थिति के अंतिम समय में मरण नहीं हो सकने से मरण और आयु के अंतिम समय का सामानाधिकरण नहीं है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/824/964/12 </span><span class="SanskritText">अकालमरणाभावोऽयुक्त: केषुचित्कर्मभूमिजेषु तस्य सतो निषेधादित्यभिप्राय:।</span> = <span class="HindiText">अकाल मरण का अभाव कहना युक्त नहीं है, क्योंकि, कितने ही कर्मभूमिज मनुष्यों में अकाल मृत्यु है। उसका अभाव कहना असत्य वचन है; क्योंकि, यहाँ सत्य पदार्थ का निषेध किया गया है। (देखें [[ असत्य#1.3 | असत्य - 1.3]])।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="4.10" id="4.10"><strong> अकाल मृत्यु की सिद्धि में हेतु</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4.10" id="4.10"><strong> अकाल मृत्यु की सिद्धि में हेतु</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/53/11/158/12 </span><span class="SanskritText">अकालमृत्युव्युदासार्थं रसायनं चोपदिशति, अन्यथा रसायनोपदेशस्य वैयर्थ्यम्। न चादोऽस्ति। अत आयुर्वेदसामर्थ्यादस्त्यकालमृत्यु:। दु:खप्रतीकारार्थं इति चेत; न; उभयथा दर्शनात्।12। कृतप्रणाशप्रसंग इति चेत्; न; दत्वैव फलं निवृत्ते:।13। ... विततार्द्रपटशीषवत् अयथाकालनिर्वृत्तः पाक इत्ययं विशेष:।</span> = | |||
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<li> <span class="HindiText"> | <li> <span class="HindiText">आयुर्वेदशास्त्र में अकाल मृत्यु के वारण के लिए औषधिप्रयोग बताये गये हैं। क्योंकि, दवाओं के द्वारा श्लेष्मादि दोषों को बलात् निकाल दिया जाता है। अत: यदि अकाल मृत्यु न मानी जाय तो रसायनादि का उपदेश व्यर्थ हो जायेगा। उसे केवल दु:खनिवृत्ति का हेतु कहना भी युक्त नहीं है; क्योंकि, उसके दोनों ही फल देखे जाते हैं। <span class="GRef"> (श्लोकवार्तिक 5/2/53/श्लोक 2/259 व वृत्ति/262/26) </span> </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> यहाँ कृतप्रणाश की आशंका करना भी योग्य नहीं है, क्योंकि, उदीरणा में भी कर्म अपना फल देकर ही झड़ते हैं। इतना विशेष है, कि जैसे गीला कपड़ा फैला देने पर जल्दी सूख जाता है, वही यदि इकट्टा रखा रहे तो सूखने में बहुत समय लगता है, उसी तरह उदीरणा के निमित्तों के द्वारा समय के पहले ही आयु झड़ जाती है। <span class="GRef"> (श्लोकवार्तिक/5/2/53/2/266/14) </span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/5/2/53/2/261/16 </span><span class="SanskritText">प्राप्तकालस्यैव तस्य तथा दर्शनमिति चेत् क: पुनरसौ कालं प्राप्तोऽपमृत्युकालं वा; द्वितीयपक्षे सिद्धसाध्यता, प्रथमपक्षे खड्गप्रहारादिनिरपेक्षत्वप्रसंग:।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–</span></li> | |||
<li class="HindiText"> प्राप्तकाल ही खड्ग आदि के द्वारा मरण होता है। <strong>उत्तर</strong>–यहाँ कालप्राप्ति से आपका क्या तात्पर्य है–मृत्यु के काल की प्राप्ति या अपमृत्यु के काल की प्राप्ति ? यहाँ दूसरा पक्ष तो माना नहीं जा सकता क्योंकि वह तो हमारा साध्य ही है और पहला पक्ष | <li class="HindiText"> प्राप्तकाल ही खड्ग आदि के द्वारा मरण होता है। <strong>उत्तर</strong>–यहाँ कालप्राप्ति से आपका क्या तात्पर्य है–मृत्यु के काल की प्राप्ति या अपमृत्यु के काल की प्राप्ति ? यहाँ दूसरा पक्ष तो माना नहीं जा सकता क्योंकि वह तो हमारा साध्य ही है और पहला पक्ष मानने पर खड्ग आदि के प्रहार से निरपेक्ष मृत्यु का प्रसंग आता है।</li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="4.11" id="4.11"><strong> स्वकाल व अकाल मृत्यु का समन्वय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4.11" id="4.11"><strong> स्वकाल व अकाल मृत्यु का समन्वय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक 5/2/53/2/261/18 </span><span class="SanskritText">सकलबहि:कारणविशेषनिरपेक्षस्य मृत्युकारणस्य मृत्युकालव्यवस्थितेः। शस्त्रसंपातादिबहिरंगकारणान्वयव्यतिरेकानुविधायिनस्तस्यापमृत्युकालत्वोपपत्ते:।</span> = <span class="HindiText">असि-प्रहार आदि समस्त बाह्य कारणों से निरपेक्ष मृत्यु होने में जो कारण है वह मृत्यु का स्वकाल व्यवस्थापित किया गया है और शस्त्र-संपात आदि बाह्य कारणों के अन्वय और व्यतिरेक का अनुसरण करने वाला अपमृत्युकाल माना जाता है। </span><br /> | |||
पं.वि./3/18 <span class="SanskritText">यैव स्वकर्मकृतकालकलात्र | पं.वि./3/18 <span class="SanskritText">यैव स्वकर्मकृतकालकलात्र जंतुस्तत्रैव याति मरणं न पुरो न पश्चात्। मूढास्तथापि हि मृते स्वजने विधाय शोकं परं प्रचुरदु:खभुजो भवंति।18। </span>=<span class="HindiText"> इस संसार में अपने कर्म के द्वारा जो मरण का समय नियमित किया गया है उसी समय में ही प्राणी मरण को प्राप्त होता है, वह उससे न तो पहले ही मरता है और न पीछे ही। फिर भी मूर्खजन अपने किसी संबंधी के मरण को प्राप्त होने पर अतिशय शोक करके बहुत दु:ख के भोगने वाले होते हैं <strong>नोट</strong>–(बाह्य कारणों से निरपेक्ष और सापेक्ष होने से ही काल व अकाल मृत्यु में भेद है, वास्तव में इनमें कोई जातिभेद नहीं है। काल की अपेक्षा भी मृत्यु के नियत काल से पहले मरण हो जाने को जो अकाल मृत्यु कहा जाता है वह केवल अल्पज्ञता के कारण ही समझना चाहिए, वास्तव में कोई भी मृत्यु नियतकाल से पहले नहीं होती; क्योंकि, प्रत्यक्षरूप से भविष्य को जानने वाले तो बाह्य निमित्तों तथा आयुकर्म के अपवर्तन को भी नियत रूप में ही देखते हैं।)</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> | <li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> मारणांतिक समुद्घात निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5.1" id="5.1"><strong> | <li><span class="HindiText" name="5.1" id="5.1"><strong> मारणांतिक समुद्घात का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/20/12/77/15 </span><span class="SanskritText">औपक्रमिकानुपक्रमायु:क्षयाविर्भूतमरणांतप्रयोजनो मारणांतिकसमुद्घात।</span> = <span class="HindiText">औपक्रमिक व अनुपक्रमिक रूप से आयु का क्षय होने से उत्पन्न हुए कालमरण या अकालमरण के निमित्त से मारणांतिक समुद्घात होता है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 4/1,3,2/26/10 </span><span class="PrakritText">मारणांतियसमुग्घादो णाम अप्पणो वट्टमाणसरीरमछड्डिय रिजुगईए विग्गहगईए वा जावुप्पज्जमाणखेत्तं ताव गंतूण ... अंतोमुहुत्तमच्छणं।</span> = <span class="HindiText">अपने वर्तमान शरीर को नहीं छोड़कर ऋजुगति द्वारा अथवा विग्रहगति द्वारा आगे जिसमें उत्पन्न होना है ऐसे क्षेत्र तक जाकर अंतर्मुहूर्त तक रहने का नाम मारणांतिक समुद्घात है। <span class="GRef"> (द्रव्यसंग्रह टीका/10/25/उद्धृत श्लोक नं.4) </span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/199/444/2 </span><span class="SanskritText">मरणांते भव: मारणांतिक: समुद्घात: उत्तरभवोत्पत्तिस्थानपर्यंतजीवप्रदेशप्रसर्पणलक्षण:। </span>= <span class="HindiText">मरण के अंत में होने वाला तथा उत्तर भव की उत्पत्ति के स्थान पर्यंत जीव के प्रदेशों का फैलना है लक्षण जिसका, वह मारणांतिक समुद्घात है। <span class="GRef"> (कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/176/116/2) </span></span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="5.2" id="5.2"><strong> सभी | <li><span class="HindiText" name="5.2" id="5.2"><strong> सभी जीव मारणांतिक समुद्घात नहीं करते </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/544/950/1 </span><span class="SanskritText">सौधर्मद्वयजीवराशौघनांगुलतृतीयमूलगुणितजगच्छ्रेणिप्रमिते ... पल्यासंख्यातेन भक्ते एकभाग: प्रतिसमयं म्रियमाणराशिर्भवति। ... तस्मिन् पल्यासंख्यातेन भक्ते बहुभागो विग्रहगतौ भवति। तस्मिन् पल्यासंख्यातेन भक्ते बहुभागो मारणांतिक समुद्घाते भवति। ...अस्य पल्यासंख्यातैकभागो दूरमारणांतिके जीवा भवंति। </span>= <span class="HindiText">सौधर्म ईशान स्वर्गवासी देव ([[File:1559595546JSKHtmlSample_clip_image002_0033.gif ]] × जगत्श्रेणी) इतने प्रमाण हैं। इसके पल्य/असं. एकभागप्रमाण प्रतिसमय मरने वाले जीवों का प्रमाण है। इसका पल्य/असं. बहुभाग प्रमाण विग्रहगति करने वालों का प्रमाण है। इसका पल्य/असं. बहुभाग प्रमाण मारणांतिक समुद्घात करने वालों का प्रमाण है। इसका पल्य/असं एकभागप्रमाण दूरमारणांतिक समुद्घात वाले जीवों का प्रमाण है। (और भी देखें <span class="GRef"> धवला 7/2,6,227,14/306,312 )</span>।</span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> ऋजु व वक्र दोनों प्रकार की विग्रहगति में होता है </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/176/116/3 </span><span class="SanskritText">स च संसारी जीवानां विग्रहगतौ स्यात्।</span> = <span class="HindiText">मारणांतिक समुद्घात संसारी जीवों को विग्रहगति में होता है। <br /> | |||
देखें [[ | देखें [[ #5.1 | मारणांतिक समुद्घात का लक्षण ]]<span class="GRef"> धवला 4</span> (ऋजुगति व विग्रहगति दोनों प्रकार से होता है)। <span class="GRef">(धवला 7/2,6,1/3) </span></span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="5.4" id="5.4"><strong> | <li><span class="HindiText" name="5.4" id="5.4"><strong> मारणांतिक समुद्घात का स्वामित्व</strong> <br /> | ||
देखें [[ समुद्घात ]] | देखें [[ समुद्घात#5 |समुद्घात - 5 ]] – (मिश्र गुणस्थान तथा क्षपकश्रेणी के अतिरिक्त सभी गुणस्थानों में संभव है। विकलेंद्रियों के अतिरिक्त सभी जीवों में संभव है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 4/1,4,25/204/7 </span><span class="PrakritText">जदि सासणसम्मादिट्ठिणो हेट्ठाण मारणंतियं मेलंति, तो तेसिं भवणवासियदेवेसु मेरुतलादो हेट्ठा ट्ठिदेसु उप्पत्ती ण पावदि त्ति वुत्ते, ण एस दोसो, मेरुतलादो हेट्ठा सासणसम्मादिट्ठीणं मारणंतियं णत्थि त्ति एदं सामण्णवयणं। विसेसादो पुण भण्णमाणे णेरइएसु हेट्ठिम एइंदिएसु वा ण मारणांतियं मेलंति त्ति एस परमत्थो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मेरुतल से नीचे मारणांतिक समुद्घात नहीं करते हैं तो मेरुतल से नीचे स्थित भवनवासी देवों में उनकी उत्पत्ति भी नहीं प्राप्त होती है। <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ‘मेरुतल से नीचे सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों का मारणांतिक समुद्घात नहीं होता है’ यह सामान्य वचन है। किंतु विशेष विवक्षा से कथन करने पर तो वे नारकियों में अथवा मेरुतल से अधोभागवर्ती एकेंद्रिय जीवों में मारणांतिक समुद्घात नहीं करते हैं, यह परमार्थ है। (क्योंकि उन गतियों में उनके उपपाद नहीं होता है।–देखें [[ जन्म#4.1 | जन्म - 4.1]])।<br /> | |||
देखें [[ सासादन ]] | देखें [[ सासादन#1.10 | सासादन - 1.10 ]] – (लोकनाली के बाहर सासादन सम्यग्दृष्टि समुद्घात नहीं करते।)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 4/1,4,173/305/10 </span><span class="PrakritText">मणुसगदीए चेव मारणंतिय दंसणादो।</span> = <span class="HindiText">मनुष्य गति में ही (उपशम सम्यग्दृष्टि जीवों के) मारणांतिक समुद्घात देखा जाता है।<br /> | |||
देखें [[ क्षेत्र#3 | देखें [[ क्षेत्र#3 | क्षेत्र - 3]]–(गुणस्थान व मार्गणास्थानों में मारणांतिक समुद्घात का यथासंभव अस्तित्व)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="5.5" id="5.5"><strong> प्रदेशों का पूर्ण संकोच होना आवश्यक नहीं </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.5" id="5.5"><strong> प्रदेशों का पूर्ण संकोच होना आवश्यक नहीं </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 4/1,3,2/30/4 </span><span class="PrakritText">विग्गहगदीए मारणंतियं कादूणुप्पण्णाणं पढमसमए असंखेज्जजोयणमेत्ता ओगाहणा होदि, पुव्वं पसारिदएग-दो-तिदंडाणं पढमसमए उवसंघाराभावादो। </span>=<span class="HindiText"> मारणांतिक समुद्घात करके विग्रहगति से उत्पन्न हुए जीवों के पहले समय में असंख्यात योजनप्रमाण अवगाहना होती है, क्योंकि, पहले फैलाये गये एक, दो और तीन दंडों का प्रथम समय में संकोच नहीं होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 4/1,4,4/165/4 </span><span class="PrakritText">के वि आइरिया ‘देवा णियमेण मूल सरीरं पविसिय मरंति’ त्ति भणंति, ... विरुद्धं ति ण घेत्तव्वं। </span>= <span class="HindiText">कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि देव नियम से मूल शरीर में प्रवेश करके ही मरते हैं। ... परंतु यह विरोध को प्राप्त होता है, इसलिए उसे नहीं ग्रहण करना चाहिए।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 7/2,7,164/429/11 </span><span class="PrakritText"> हेट्ठा दोरज्जुमेत्तद्धाणं गंतूण ट्ठिदावत्थाए छिण्णाउआणं मणुस्सेसुप्पज्जमाणाणं देवाणं उववादखेत्तं किण्ण घेप्पदे। ण, तस्स पढमदंडेणूणस्स छचोद्दसभागेसु चेव अंतब्भावादो, तेसिं मूलसरीरपवेसमंतरेण तदवत्थाए मरणाभावादो च।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न</strong>–नीचे दो राजुमात्र जाकर स्थित अवस्था में आयु के क्षीण होने पर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले देवों का उपपादक्षेत्र क्यों नहीं ग्रहण किया। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, प्रथम दंड से कम उसका 6/14 भाग में ही अंतर्भाव हो जाता है (देखें [[ क्षेत्र#4 | क्षेत्र - 4]]) तथा मूल शरीर में जीव-प्रदेशों के प्रवेश बिना उस अवस्था में उनके मरण का अभाव भी है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 11/4,2,5,12/22/6 </span><span class="PrakritText">णेरइएसुप्पण्णपढमसमए उवसंहरिदपढमदंडस्स य उक्कस्सखेत्ताणुववत्तीदो।</span> =<span class="HindiText"> नारकियों में उत्पन्न होने के प्रथम समय में (महामत्स्य के प्रदेशों में) प्रथम दंड का उपसंहार हो जाने से उसका उत्कृष्ट क्षेत्र नहीं बन सकता।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="5.6" id="5.6"><strong> प्रदेशों | <li><span class="HindiText" name="5.6" id="5.6"><strong> प्रदेशों का विस्तार व आकार</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 7/2,6,1/299/11 </span><span class="PrakritText">अप्पप्पणो अच्छिदपदेसादो जाव उप्पज्जमाणखेत्तं ति आयामेण एगपदेसमादिं कादूण जावुक्कस्सेण सरीरतिगुणबाहल्लेण कंडेक्कखंभट्ठियत्तोरण हल-गोमुत्तायारेण अंतोमुहुत्तावट्ठाणं मारणंतियसमुग्घादो णाम।</span> = <span class="HindiText">आयाम की अपेक्षा अपने-अपने अधिष्ठित प्रदेश से लेकर उत्पन्न होने के क्षेत्र तक (और भी देखें [[ #5.7 | अगला शीर्षक नं - 7]]), तथा बाहल्य से एक प्रदेश को आदि करके उत्कर्षत: शरीर से तिगुने प्रमाण जीव प्रदेशों के कांड, एक खंभ स्थित तोरण, हल व गोमूत्र के आकार से अंतर्मुहूर्त तक रहने को मारणांतिक समुद्घात कहते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 11/4,2,5,12/21/7 </span><span class="PrakritText">सुहुमणिगोदेसु उप्पज्जमाणस्स महामच्छस्स विक्खंभुस्सेहा तिगुणा ण होंति, दुगुणा विसेसाहिया वा होंति त्ति कधं णव्वदे। अधोसत्तमाए पुढवीए णेरइएसु से काले उप्पज्जिहिदि त्ति सुत्तादो णव्वदे। संतकम्मपाहुडे पुण णिगोदेसु उप्पाइदो, णेरइएसु उप्पज्जमाणमहामच्छो व्व सुहुमणिगोदेसु उप्पज्जमाणमहामच्छो वि तिगुणशरीरबाहल्लेण मारणंतियसमुग्घादं गच्छदि त्ति। ण च एदं जुज्जदे, सत्तमपुढवीणेरइएसु असादबहुलेसु उप्पज्जमाणमहामच्छवेयणा-कसाएहिंतो सुहुमणिगोदेसु उप्पज्जमाणमहामच्छवेयण-कसायाणं सरिसत्ताणुववत्तीदो। तदो एसो चेव अत्थो वहाणो त्ति घेत्तव्वो।</span> = <strong>प्र<span class="HindiText">श्न</span></strong><span class="HindiText">–सूक्ष्म निगोद जीवों में उत्पन्न होने वाले महामत्स्य का विष्कंभ और उत्सेध तिगुना नहीं होता, किंतु दुगुना अथवा विशेष अधिक होता है; यह कैसे जाना जाता है। <strong>उत्तर</strong>–‘‘नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में वह अनंतर काल में उत्पन्न होगा’’ इस सूत्र से जाना जाता है।–सत्कर्मप्राभृत में उसे निगोद जीवों में उत्पन्न कराया है, क्योंकि, नारकियों में उत्पन्न होने वाले महामत्स्य के समान सूक्ष्म निगोद जीवों में उत्पन्न होने वाला महामत्स्य भी विवक्षित शरीर की अपेक्षा तिगुने बाहल्य से मारणांतिक समुद्घात को प्राप्त होता है। परंतु यह योग्य नहीं है, क्योंकि, अत्यधिक असाता का अनुभव करने वाले सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न होने वाले महामत्स्य की वेदना और कषाय की अपेक्षा सूक्ष्म निगोद जीवों में उत्पन्न होने वाले महामत्स्य की वेदना और कषाय सदृश नहीं हो सकती है। इस कारण यही अर्थ प्रधान है, ऐसा ही ग्रहण करना चाहिए।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/543/942/13 </span><span class="SanskritText">अस्मिन् रज्जुसंख्यातैकभागायामसूच्यंगुलसंख्यातैकभागविष्कंभोत्सेधक्षेत्रस्य घनफलेन प्रतरांगुलसंख्यातैकभागगुणितजगच्छेणिसंख्यातैकभागेन गुणिते दूरमारणांतिकसमुद्घातस्य क्षेत्रं भवति।</span> = <span class="HindiText">एक जीव के दूरमारणांतिक समुद्धात विषै शरीर से बाहर यदि प्रदेश फैलें तो मुख्यपने राजू के संख्यातभागप्रमाण लंबे और सूच्यंगले के संख्यातवें भागप्रमाण चौड़े व ऊँचे क्षेत्र को रोकते हैं। इसका घनफल जगत्श्रेणी × प्रतरांगुल होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/584/1025/10 </span><span class="SanskritText">तदुपरि प्रदेशोत्तरेषु स्वयंभूरमणसमुद्रबाह्यस्थंडिलक्षेत्रस्थितमहामत्स्येन सप्तमपृथिवीमहारौरवनामश्रेणीबद्धं प्रति मुक्तमारणांतिकसमुद्घातस्य पंचशतयोजनतदर्धविष्कंभोत्सेधैकार्धषड्रज्ज्वायतप्रथमद्वितीयतृतीयवक्रोत्कृष्टपर्यंतेषु।</span> = <span class="HindiText">वेदना समुद्घात जीव के उत्कृष्ट क्षेत्र से ऊपर एक-एक प्रदेश बढ़ता-बढ़ता मारणांतिक समुद्घात वाले जीव का उत्कृष्ट क्षेत्र होता है। वह स्वयंभूरमण समुद्र के बाह्य स्थंडिलक्षेत्र में स्थित जो महामत्स्य वह जब सप्तमनरक के महारौरव नामक श्रेणीबद्ध बिल के प्रति मारणांतिक समुद्घात करता है तब होता है। वह 500 यो. चौड़ा, 250 यो. ऊँचा और प्रथम मोड़े में 1 राजू लंबा, दूसरे मोड़े में 1/2 राजू और तृतीय मोड़े में 6 राजू लंबा होता है। मारणांतिक समुद्घातगत जीव का इतना उत्कृष्ट क्षेत्र होता है।</span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"><strong name="5.7" id="5.7"> वेदना कषाय और मारणांतिक समुद्घात में अंतर</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 4/1,3,2/27/2 </span><span class="PrakritText">वेदणकसायसमुग्घादा मारणंतियसमुग्घादे किण्ण पदंति त्ति वुत्ते ण पदंति। मारणंतिय समुग्घादो णाण बद्धपरभवियाउआणं चेव होदि। वेदणकसायसमुग्घादा पुण बद्धाउआणमबद्धाउआणं च होंति। मारणंतियसमुघादो णिच्छएण उप्पज्जमाण दिसाहिमुहो होदि, ण चे अराणमेगदिसाए गमणणियमो, दससु वि दिसासु गमणे पडिबद्धत्तादो। मारणंतियसमुग्घादस्स आयामो उक्कस्सेण अप्पणो उप्पज्जमाणखेत्तपज्जवसाणो, ण चेअराणमेस णियमो त्ति </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात ये दोनों मारणांतिकसमुद्घात में अंतर्भूत क्यों नहीं होते हैं ? <strong>उत्तर</strong>– | |||
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<li class="HindiText"> नहीं होते, क्योंकि, जिन्होंने पर भव की आयु बाँध ली है, ऐसे जीवों के ही | <li class="HindiText"> नहीं होते, क्योंकि, जिन्होंने पर भव की आयु बाँध ली है, ऐसे जीवों के ही मारणांतिक समुद्घात होता है (अबद्धायुष्क और वर्तमान में आयु को बाँधने वालों के नहीं होता–<span class="GRef"> (धवला 7/4,2,1386/410/7) </span>, किंतु वेदना और कषाय समुद्घात बद्धायुष्क और अबद्धायुष्क दोनों जीवों के होते हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> मारणांतिक समुद्घात निश्चय से आगे जहाँ उत्पन्न होता है ऐसे क्षेत्र की दिशा के अभिमुख होता है किंतु अन्य समुद्घातों में इस प्रकार एक दिशा में गमन का नियम नहीं है, क्योंकि, उनका दशों दिशाओं में भी गमन पाया जाता है (देखें [[ समुद्घात#3 | समुद्घात - 3 ]])। </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> मारणांतिक समुद्घात की लंबाई उत्कृष्टत: अपने उत्पद्यमान क्षेत्र के अंत तक हैं, किंतु इतर समुद्घातों का यह नियम नहीं है। (देखें [[#5.6 | पिछला शीर्षक नं - 6]])।</li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="5.8" id="5.8"><strong> | <li><span class="HindiText" name="5.8" id="5.8"><strong> मारणांतिक समुद्घात में कौन कर्म निमित्त है </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,28/57/2 </span><span class="PrakritText">अचत्तसरीरस्स विग्गहगईए उजुगईए वा जं गमणं तं करस फलं। ण, तस्स पुव्वखेत्तपरिच्चायाभावेण गमणाभावा। जीवपदेसाणं जो पसरो सो ण णिक्कारणो, तस्स आउअसंतफलत्तादो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–पूर्व शरीर को न छोड़ते हुए जीव के विग्रहगति में अथवा ऋजुगति में गमन होता है, वह किस कर्म का फल है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, पूर्व शरीर को नहीं छोड़ने वाले उस जीव के पूर्व क्षेत्र के परित्याग के अभाव से गमन का अभाव है (अत: वहाँ आनुपूर्वी नामकर्म कारण नहीं हो सकता)। पूर्व शरीर को नहीं छोड़ने पर भी जीव-प्रदेशों का जो प्रसार होता है, वह निष्कारण नहीं है, क्योंकि, वह आगामी भवसंबंधी आयुकर्म के सत्त्व का फल है।</span></li> | |||
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Latest revision as of 22:22, 26 November 2024
लोक प्रसिद्ध मरण तद्भवमरण कहलाता है और प्रतिक्षण आयु का क्षीण होना नित्य मरण कहलाता है। यद्यपि संसार में सभी जीव मरणधर्मा हैं, परंतु अज्ञानियों की मृत्यु बालमरण और ज्ञानियों की मृत्यु पंडितमरण हैं, क्योंकि, शरीर द्वारा जीव का त्याग किया जाने से अज्ञानियों की मृत्यु होती है और जीव द्वारा शरीर का त्याग किया जाने से ज्ञानियों की मृत्यु होती है, और इसीलिए इसे समाधिमरण कहते हैं। अतिवृद्ध या रोगग्रस्त हो जाने पर जब शरीर उपयोगी नहीं रह जाता तो ज्ञानीजन धीरे-धीरे भोजन का त्याग करके इसे कृष करते हुए इसका भी त्याग कर देते हैं। अज्ञानीजन इसे अपमृत्यु समझते हैं, पर वास्तव में कषायों के क्षीण हो जाने पर सम्यग्दृष्टि जागृत हो जाने के कारण यह अपमृत्यु नहीं बल्कि सल्लेखनामरण है जो उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य के भेद से तीन विधियों द्वारा किया जाता है। यद्यपि साधारणत: देखने पर अपमृत्यु या यह पंडितमरण अकालमरण सरीखा प्रतीत होता है, पर ज्ञाता-द्रष्टा रहकर देखने पर वह अकाल होने पर भी अकाल नहीं है।
- भेद व लक्षण
- मरण सामान्य का लक्षण।
- मरण के भेद।
- नित्य व तद्भव मरण के लक्षण।
- बाल व पंडितमरण सामान्य व उनके भेदों के लक्षण।
- भक्त प्रत्याख्यान, इंगनी व प्रायोपगमन मरण के लक्षण।–देखें सल्लेखना - 3।
- च्युत, च्यावित व त्यक्त शरीर के लक्षण।–देखें निक्षेप - 5।
- मरण सामान्य का लक्षण।
- मरण निर्देश
- आयु का क्षय ही वास्तव में मरण है।
- चारों गतियों में मरण के लिए विभिन्न शब्द।
- पंडित व बाल आदि मरणों की इष्टता-अनिष्टता।
- सल्लेखनागत क्षपक के मृत शरीर संबंधी।–देखें सल्लेखना - 6।
- मुक्त जीव के मृत शरीर संबंधी–देखें मोक्ष - 5।
- सभी गुणस्थानों व मार्गणास्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें मार्गणा ।
- आयु का क्षय ही वास्तव में मरण है।
- गुणस्थान आदि में मरण संबंधी नियम
- आयुबंध व मरण में परस्पर गुणस्थान संबंधी।
- निम्न स्थानों में मरण संभव नहीं।
- सासादन गुणस्थान में मरण संबंधी।
- मिश्र गुणस्थान में मरण के अभाव संबंधी।
- प्रथमोपशम सम्यक्त्व में मरण के अभाव संबंधी।
- अनंतानुबंधी विसंयोजक के मरणाभाव संबंधी।
- उपशम श्रेणी में मरण संबंधी।
- कृतकृत्यवेदक में मरण संबंधी।
- नरकगति में मरणसमय की लेश्या व गुणस्थान।
- देवगति में मरणसमय की लेश्या।
- आहारकमिश्र काययोगी के मरण संबंधी।
- आयुबंध व मरण में परस्पर गुणस्थान संबंधी।
- अकालमृत्यु निर्देश
- कदलीघात का लक्षण।
- बद्धायुष्क की अकालमृत्यु संभव नहीं।
- देव-नारकियों की अकालमृत्यु संभव नहीं।
- भोगभूमिजों की अकालमृत्यु संभव नहीं।
- चरमशरीरियों व शलाकापुरुषों में अकालमृत्यु की संभावना व असंभावना।
- जघन्य आयु में अकालमृत्यु की संभावना व असंभावना।
- पर्याप्त होने के अंतर्मुहूर्त काल तक अकालमृत्यु संभव नहीं।
- आत्महत्या का कथंचित् विधि-निषेध।–देखें सल्लेखना - 1।
- कदलीघात का लक्षण।
- मारणांतिक समुद्घात निर्देश
- मारणांतिक समुद्घात का लक्षण।
- सभी जीव मारणांतिक समुद्घात नहीं करते।
- ऋजु व वक्र दोनों प्रकार की विग्रहगति में होता है।
- मारणांतिक समुद्घात का स्वामित्व।
- बद्धायुष्क को ही होता है अबद्धायुष्क को नहीं।–देखें मरण - 5.7।
- इसकी स्थिति असंख्यात समय है।–देखें समुद्घात - 4।
- इसका विसर्पण एक दिशात्मक होता है–देखें समुद्घात - 3।
- मारणांतिक समुद्घात में मोड़े लेने संबंधी दृष्टिभेद।–देखें क्षेत्र - 3.4।
- इसमें तीनों योगों की संभावना कैसे।–देखें योग - 4।
- इसमें उत्कृष्ट योग संभव नहीं–देखें विशुद्धि - 8.4।
- इसमें उत्कृष्ट संक्लेश व विशुद्ध परिणाम संभव नहीं।–देखें विशुद्धि - 8.4।
- मारणांतिक समुद्घात में महामत्स्य के विस्तार संबंधी दृष्टिभेद–देखें मरण - 5.6।
- मारणांतिक समुद्घात का लक्षण।
- भेद व लक्षण
- मरण सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/7/22/362/12 स्वपरिणामोपात्तस्यायुष इंद्रियाणां बलानां च कारणवशात्संक्षयो मरणम्। = अपने परिणामों से प्राप्त हुई आयु का, इंद्रियों का और मन, वचन, काय इन तीन बलों का कारण विशेष के मिलने पर नाश होना मरण है। ( सर्वार्थसिद्धि/5/20/289/2 ); ( राजवार्तिक/5/20/4/474/29; 7/22/1/550/17 ); ( चारित्रसार/47/3 ); ( गोम्मटसार जीवकांड प्र./606/1062/16)।
धवला 1/1,1,33/234/2 आयुष: क्षयस्य मरणहेतुत्वात्। = आयुकर्म के क्षय को मरण का कारण माना है। ( धवला 13/5,5,63/333/11 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/85,86/ पंक्ति मरणं विगमो विनाशः विपरिणाम इत्येकोऽर्थ:।9। अथवा प्राणपरित्यागो मरणम्।13। अण्णाउगोदये वा मरदि य पुव्वाउणासे वा। (उद्धृत गाथा 1 पृष्ठ 86)। अथवा अनुभूयमानायु:संज्ञकपुद्गलगलनं मरणम्। = मरण, विगम, विनाश, विपरिणाम ये एकार्थवाचक हैं। अथवा प्राणों के परित्याग का नाम मरण है। अथवा प्रस्तुत आयु से भिन्न अन्य आयु का उदय आने पर पूर्व आयु का विनाश होना मरण है। अथवा अनुभूयमान आयु नामक पुद्गल का आत्मा के साथ से विनष्ट होना मरण है। - मरण के भेद
भगवती आराधना/ गा. पंडिदपंडिदमरणं पंडिदमरणं पंडिदयं बालपंडिदं चेव। बालमरणं चउत्थं पंचमयं बालबालं च।26। पायोपगमणमरणं भत्तपइण्णा य इंगिणी चेव। तिविहं पंडियमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस्स।28। दुविहं तु भत्तपच्चक्खाणं सविचारमध अविचारं।...।65। तत्थ पढमं णिरुद्धं णिरुद्धतरयं तहा हवे विदियं। तदियं परमणिरुद्ध एवं तिविधं अवीचारं।2012। दुविधं तं पि अणीहारिमं पगासं च अप्पगासं च। ...।2016। = मरण पाँच प्रकार का है–पंडितपंडित, पंडित, बालपंडित, बाल, बालबाल।26। तहाँ पंडितमरण तीन प्रकार का है–प्रायोपगमन, भक्तप्रत्याख्यान व इंगिनी।29। इनमें से भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकार का है–सविचार और अविचार।65। उनमें से अविचार तीन प्रकार का है–निरुद्ध, निरुद्धतर व परम निरुद्ध।2012। इनमें भी निरुद्धाविचार दो प्रकार है–प्रकाशरूप और अप्रकाशरूप।2016। (मूलाचार/59) ; (देखें निक्षेप - 5.2)।
राजवार्तिक/7/22/2/550/19 मरणं द्विविधम्–नित्यमरणं तद्भवमरणं चेति। = मरण दो प्रकार का है–नित्यमरण और तद्भवमरण। ( चारित्रसार/47/3 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/86/10,13 मरणानि सप्तदश कथितानि।(86/10)।–- अवीचिमरणं,
- तद्भवमरणं,
- अवधिमरणं,
- आदिअंतायं,
- बालमरणं,
- पंडितमरणं,
- आसण्णमरणं,
- बालपंडिदं,
- ससल्लमरणं,
- बलायमरणं,
- वोसट्टमरणं,
- विप्पाणसमरणं,
- गिद्धपुट्ठमरणं,
- भत्तपच्चक्खाणं,
- पाउवगमणमरणं,
- इंगिणामरणं,
- केवलिमरणं चेति।(86/13)। = मरण 17 प्रकार के बताये गये हैं–
- अवीचिमरण
- तद्भवमरण
- अवधिमरण
- आदिअंतिममरण,
- बालमरण,
- पंडितमरण,
- ओसण्णमरण,
- बालपडिण्तमरण,
- सशल्यमरण.
- बालाकामरण,
- वोसट्टमरण,
- विप्पाणसमरण,
- गिद्धपुट्ठमरण
- भक्तप्रत्याख्यानमरण,
- प्रायोपगमनमरण,
- इंगिनीमरण.
- केवलिमरण। (तहाँ इनके भी उत्तर भेद निम्न प्रकार हैं)। ( भावपाहुड़ टीका/32/147-149 ); (विशेष देखें उस उस मरण के लक्षण)।
चार्ट
- नित्य व तद्भव मरण के लक्षण
राजवार्तिक/7/22/2/550/20 तत्र नित्यमरणं समयसमये स्वायुरादीनां निवृत्ति:। तद्भवमरणं भवांतरप्राप्त्यनंतरोपश्लिष्टं पूर्वभवविगमनम्। = प्रतिक्षण आयु आदि प्राणों का बराबर क्षय होते रहना नित्यमरण है (इसको ही भगवती आराधना व भावपाहुड़ में अवीचिमरण के नाम से कहा गया है)। और नूतन शरीर पर्याय को धारण करने के लिए पूर्व पर्याय का नष्ट होना तद्भवमरण है। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/86/17 ); ( चारित्रसार/47/4 ); ( भावपाहुड़ टीका/32/147/6 )। - बाल व पंडितमरण सामान्य व उनके भेदों के लक्षण
भगवती आराधना/गाथा पंडिदपंडिदमरणे खीणकसाया मरंति केवलिणो। विरदाविरदा जीवा मरंति तदियेण मरणेण।27। पायोपगमणमरणं भत्तपइण्णा य इंगिणी चेव। तिविहं पंडियमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस्स।29। अविरदसम्मादिट्ठी मरंति बालमरणे चउत्थम्मि। मिच्छादिट्ठी य पुणो पंचमए बालबालम्मि।30। इह जे विराधयित्ता मरणे असमाधिणा मरेज्जण्ह। तं तेसिं बालमरणं होइ फलं तस्स पुव्वुत्तं।1962। = क्षीणकषाय केवली भगवान् पंडितपंडित मरण से मरते हैं। (भगवती आराधना/2159) विरताविरत जीव के मरण को बालपंडितमरण कहते हैं। (विशेष देखें अगला संदर्भ)।27। (भगवती आराधना/2078); (भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/88/21>) चारित्रवान् मुनियों को पंडितमरण होता है। वह तीन प्रकार का है–भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन (इन तीनों के लक्षण देखें सल्लेखना - 3 )।29। अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के मरण को बालमरण कहते हैं और मिथ्यादृष्टि जीव के मरण को बालबालमरण कहते हैं।30। अथवा रत्नत्रय का नाश करके समाधिमरण के बिना मरना बालमरण है।1962।
भगवती आराधना/2083-2084/1800 आसुक्कारे मरणे अव्वोच्छिण्णाए जीविदासाए। णादीहि या अमुक्को पच्छिमसल्लेहणपकासी।2083। आलोचिदणिस्सल्लो सघरे चेवारुहिंतु संथारं। जदि मरदि देसविरदो तं वुत्तं बालपंडिदयं।2084।–इन 12 व्रतों को पालने वाले गृहस्थ को सहसा मरण आने पर, जीवित की आशा रहने पर अथवा बंधुओं ने जिसको दीक्षा लेने की अनुमति नहीं दी है, ऐसे प्रसंग में शरीर सल्लेखना और कषाय सल्लेखना न करके भी आलोचना कर, नि:शल्य होकर घर में संस्तर पर आरोहण करता है। ऐसे गृहस्थ की मृत्यु को बालपंडितमरण कहते हैं।2083-2084।
मूलाचार/गाथा जे पुण पणट्ठमदिया पचलियसण्णाय वक्कभावा य। असमाहिणा मरंते णहु ते आराहिया भणिया।60। सत्थग्गहणं विसभक्खणं च जलणं जलप्पवेसो य। अणयारभंडसेवी जम्मणमरणाणुबंधीणी।74। णिमम्मो णिरहंकारो णिक्कासाओ जिदिंदिओ धीरो। अणिदाणो दिट्ठिसंपण्णो मरंतो आराहओ होई।103। = जो नष्टबुद्धि वाले अज्ञानी आहारादि की वांछारूप संज्ञा वाले मन वचन काय की कुटिलतारूप परिणाम वाले जीव आर्तरौद्र ध्यानरूप असमाधिमरण कर परलोक में जाते हैं, वे आराधक नहीं हैं।60। शस्त्र से, विषयभक्षण से, अग्नि द्वारा जलने से, जल में डूबने से, अनाचाररूप वस्तु के सेवन से अपघात करना जन्ममरणरूप दीर्घ संसार को बढ़ाने वाले हैं अर्थात् बालमरण हैं।74। निर्मम, निरहंकार, निष्कषाय, जितेंद्रिय, धीर, निदानरहित, सम्यग्दर्शन-संपन्न जीव मरते समय आराधक होता है, अर्थात् पंडितमरण से मरता है।103।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/87/21 बालमरणमुच्यते–बालस्य मरणं, स च बाल: पंचप्रकार:–अव्यक्तबाल:, व्यवहारबाल:, ज्ञानबाल:, दर्शनबाल:, चारित्रबाल: इति। अव्यक्त: शिशु, धर्मार्थकामकार्याणि यो न वेत्ति न च तदाचरणसमर्थशरीर: सोऽव्यक्तबाल:। लोकवेदसमयव्यवहारान्यो न वेत्ति शिशुर्वासौ व्यवहारबाल:। मिथ्यादृष्टि: सर्वथा तत्त्वश्रद्धानरहिता: दर्शनबाला:। वस्तुयाथात्म्यग्राहिज्ञानन्यूना ज्ञानबाला:। अचारित्रा: प्राणभृतश्चारित्रबाला:। ... दर्शनबालस्य पुन: संक्षेपतो द्विविधं मरणमिष्यते। इच्छया प्रवृत्तमनिच्छयेति च। तयोराद्यमग्निना धूमेन, शस्त्रेण, विषेण, उदकेन, मरुत्प्रपातेन, ... विरुद्धाहारसेवनया बाला मृतिं ढौकंते, कुतश्चिन्निमित्ताज्जीवितपरित्यागैषिण:; काले अकाले वा अध्यवसानादिना यन्मरणं जिजीविषो तद्द्वितीयम्। ... पंडितमरणमुच्यते–व्यवहारपंडित:, सम्यक्त्वपंडित:, ज्ञानपंडितश्चारित्रपंडित: इति चत्वारो विकल्पा:। लोकवेदसमयव्यवहारनिपुणो व्यवहारपपंडित:, अथवानेकशास्त्रज्ञ: शुश्रूषादिबुद्धिगुणसमन्वित: व्यवहारपंडित:, क्षायिकेण क्षायोपशमिकेनौपशमिकेन वा सम्यग्दर्शनेन परिणत: दर्शनपंडित:। मत्यादिपंचप्रकारसम्यग्ज्ञानेषु परिणत: ज्ञानपंडित:। सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातचारित्रेषु कस्मिंश्चित्प्रवृत्तश्चारित्रपंडित:। = अज्ञानी जीव के मरण को बालमरण कहते हैं। वह पाँच प्रकार का है–अव्यक्त, व्यवहार, ज्ञान, दर्शन व चारित्रबालमरण। धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को जानता नहीं तथा उनका आचरण करने में जिसका शरीर असमर्थ है वह अव्यक्तबाल है। लोकव्यवहार, वेद का ज्ञान, शास्त्रज्ञान, जिसको नहीं है वह व्यवहारबाल है। तत्त्वार्थश्रद्धान रहित मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनबाल है। जीवादि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान जिनको नहीं है वे ज्ञानबाल हैं। चारित्रहीन प्राणी को चारित्रबाल कहते हैं। दर्शनबालमरण दो प्रकार का है–इच्छाप्रवृत्त और अनिच्छाप्रवृत्त। अग्नि, धूम, विष, पानी, गिरिप्रपात, विरुद्धाहारसेवन इत्यादि द्वारा इच्छापूर्वक जीवन का त्याग इच्छा प्रवृत्त दर्शनबाल मरण है। और योग्य काल में या अकाल में ही मरने के अभिप्राय से रहित या जीने की इच्छासहित दर्शनबालों का जो मरण होता है वह अनिच्छाप्रवृत्त दर्शनबालमरण है। पंडितमरण चार प्रकार का है–व्यवहार, सम्यक्त्व, ज्ञान व चारित्रपंडित मरण। लोक, वेद, समय इनके व्यवहार में जो निपुण हैं वे व्यवहारपंडित हैं, अथवा जो अनेक शास्त्रों के जानकार तथा शुश्रूषा, श्रवण, धारणादि बुद्धि के गुणों से युक्त हैं, उनको व्यवहारपंडित कहते हैं। क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दर्शन से जीव दर्शनपंडित होता है। मति आदि पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान से जो परिणत हैं उनको ज्ञानपंडित कहते हैं। सामायिक, छेदोपस्थापना आदि पाँच प्रकार चारित्र के धारक चारित्रपंडित हैं। (भावपाहुड़ टीका/32/147/20) - अन्य भेदों के लक्षण
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/87/13 यो यादृशं मरणं सांप्रतमुपैति तादृगेव मरणं यदि भविष्यति तदवधिमरणम्। तद्द्विविधं देशावधिमरणं सर्वावधिमरणम् इति। ... यदायुर्यथाभूतमुदेति सांप्रतं प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशैस्तथानुभूतमेवायुः प्रकृत्यादिविशिष्टं पुनर्बध्नाति उदेष्यति च यदि तत्सर्वावधिमरणम्। यत्सांप्रतमुदेत्यायुर्यथाभूतं तथाभूतमेव बध्नाति देशतो यदि तद्देशावधिमरणम्। ... सांप्रतेन मरणेनासादृश्यभावि यदि मरणमाद्यंतमरणं उच्यते, आदिशब्देन सांप्रतं प्राथमिकं मरणमुच्यते तस्य अंतो विनाशभावो यस्मिन्नुत्तरमरणे तदेतदाद्यंतमरणम् अभिधीयते। प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशैर्यथाभूतै: सांप्रतमुपेति मृतिं यथाभूतां यदि सर्वतो देशतो वा नोपैति तदाद्यंतमरणम्।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/88/12 निर्वाणमार्गप्रस्थितात्संयतसार्थाद्योहीन: प्रच्युत: सोऽभिधीयते ओसण्ण इति। तस्य मरणमोसण्णमरणमिति। ओसण्णग्रहणेन पार्श्वस्था:, स्वच्छंदा:, कुशीला:, संसक्ताश्च गृह्यंते। ... सशल्यमरणं द्विविधं यतो द्विविधं शल्यं द्रव्यशल्यं भावशल्यमिति। ... द्रव्यशल्येन सह मरणं पंचानां स्थावराणां भवति असंज्ञिनां त्रसानां च। ... भावशल्यविनिर्मुक्तं द्रव्यशल्यमपेक्षते। ... एतच्च संयते, संयतासंयते, अविरतसम्यग्दृष्टावपि भवति। ... विनयवैयावृत्त्यादावकृतादर: ... ध्याननमस्कारादेः पलायते अनुपयुक्ततया, एतस्य मरणं बलायमरणं। सम्यक्त्वपंडिते, ज्ञानपपंडिते, चरणपपंडिते च बलायमरणमपि संभवति। ओसण्णमरणं ससल्लमरणं च यदभिहितं तत्र नियमेन बलायमरणम्। तद्वयतिरिक्तमपि बलायमरणं भवति। ... वसट्टमरणं नाम – आर्ते रौद्रे च प्रवर्तमानस्य मरणं। तत्पुनर्चतुर्विधंइंदियवसट्टमरणं, वेदणावसट्टमरणं, कसायवसट्टमरणं, नोकसायवसट्टमरणम् इति। इंदियवसट्टमरणं यत्पंचविधं इंद्रियविषयापेक्षया ... मनोज्ञेषु रक्तोऽमनोज्ञेषु द्विष्टो मृतमेति।... इति इंद्रियानिंद्रियवशार्तमरणविकल्पा:। वेदणावसट्टमरणं द्विभेदं समासत:। सातवेदनावशार्तमरणं असातवेदनावशार्तमरणं। शारीरे मानसे वा दु:खे उपयुक्तस्य मरणं दु:खवशार्तमरणमुच्यते ... तथा शारीरे मानसे व सुखे उपयुक्तस्य मरणं सातवशार्तमरणम्। कषायभेदात्कषायवशार्तमरणं चतुर्विधं भवति। अनुबंधरोषो य आत्मनि परत्र उभयत्र वा मरणवशोऽपि मरणवश: भवति। तस्य क्रोधवशार्तमरणं भवति। ... हास्यरत्यरति ... मूढमतेर्मरणं नोकषायवशार्तमरणं। ... मिथ्यादृष्टेरेतद्बालमरणं भवति। दर्शनपंडितोऽपि अविरतसम्यग्दृष्टि: संयतासंयतोऽपि वशार्तमरणमुपैति तस्य तद्बालपंडितं भवति दर्शनपंडितं वा। अप्रतिषिद्धे अनुज्ञाते च द्वे मरणे। विप्पाणसं गिद्धपुट्ठमितिसंज्ञिते। दुर्भिक्षे, कांतारे ... दुष्टनृपभये ... तिर्यगुपसर्गे एकाकिन: सोढुमशक्ये ब्रह्मव्रतनाशादिचारित्रदूषणे च जाते संविग्नः पापभीरु: कर्मणामुदयमुपस्थितं ज्ञात्वा तं सोढुमशक्त: तन्निस्तरणस्यासत्युपाये ... न वेदनामसंक्लिष्टः सोढुं उत्सहेत् ततो रत्नत्रयाराधनाच्युतिर्ममेति निश्चितमतिर्निर्मायश्चरणदर्शनविशुद्ध: ... ज्ञानसहायोऽनिदान: अर्हदंतिके, आलोचनामासाद्य कृतशुद्धिः, ... सुलेश्य: प्राणापाननिरोधं करोति यत्तद्विप्पाणसं मरणमुच्यते। शस्त्रग्रहणेन यद्भवति तद्गिद्धपुट्ठमिति। = जो प्राणी जिस तरह का मरण वर्तमान काल में प्राप्त करता है, वैसा ही मरण यदि आगे भी उसको प्राप्त होगा तो ऐसे मरण को अवधिमरण कहते हैं। यह दो प्रकार का है–सर्वावधि व देशावधि। प्रकृति, स्थिति अनुभव व प्रदेशों सहित जो आयु वर्तमान समय में जैसी उदय में आती है वैसी ही आयु फिर प्रकृत्यादि विशिष्ट बँधकर उदय में आवेगी तो उसको सर्वावधिमरण कहते हैं। यदि वही आयु आंशिकरूप से सदृश होकर बँधे व उदय में आवेगी तो उसको देशावधि मरण कहते हैं। यदि वर्तमानकाल के मरण या प्रकृत्यादि के सदृश उदय पुन: आगामी काल में नहीं आवेगा, तो उसे आद्यंतमरण कहते हैं। मोक्षमार्ग में स्थित मुनियों का संघ जिसने छोड़ दिया है ऐसे पार्श्वस्थ, स्वच्छंद, कुशील व संसक्त साधु अवसन्न कहलाते हैं। उनका मरण अवसन्नमरण है। सशल्य मरण के दो भेद हैं–द्रव्यशल्य व भावशल्य। तहाँ माया मिथ्या आदि भावों को भावशल्य और उनके कारणभूत कर्मों को द्रव्यशल्य कहते हैं। भावशल्य की जिनमें संभावना नहीं है, ऐसे पाँचों स्थावरों व असंज्ञी त्रसों के मरण को द्रव्यशल्यमरण कहते हैं। भावशल्यमरण संयत, संयतासंयत व अविरत सम्यग्दृष्टि को होता है। विनय वैयावृत्त्य आदि कार्यों में आदर न रखने वाले तथा इसी प्रकार सर्व कृतिकर्म, व्रत, समिति आदि, धर्मध्यान व नमस्कारादि से दूर भागने वाले मुनि के मरण को पलायमरण या बलाकामरण कहते हैं। सम्यक्त्वपंडित, ज्ञानपंडित व चारित्रपंडित ऐसे लोक इस मरण से मरते हैं। अन्य के सिवाय अन्य भी इस मरण से मरते हैं। आर्त रौद्र भावों युक्त मरना वशार्तमरण है। यह चार प्रकार है–इंद्रियवशार्त, वेदनावशार्त, कषायवशार्त और नोकषायवशार्त। पाँच इंद्रियों के पाँच विषयों की अपेक्षा इंद्रियवशार्त पाँच प्रकार का है। मनोहर विषयों में आसक्त होकर और अमनोहर विषयों में द्विष्ट (घृणायुक्त) होकर जो मरण होता है वह श्रोत्र आदि इंद्रियों व मन संबंधी वशार्तमरण है। शारीरिक व मानसिक सुखों में अथवा दु:खों में अनुरक्त होकर मरने से वेदनावशार्त सात व असात के भेद से दो प्रकार का है। कषायों के क्रोधादि भेदों की अपेक्षा कषायवशार्त चार प्रकार का है। स्वत: में, दूसरे में अथवा दोनों में उत्पन्न हुए क्रोध के वश मरना क्रोधकषायवशार्त है। (इसी प्रकार आठ मदों के वश मरना मानवशार्त है, पाँच प्रकार की माया से मरना मायावशार्त और परपदार्थों में ममत्व के वश मरना लोभवशार्त है)। हास्य, रति, अरिति आदि से जिसकी बुद्धि मूढ हो गयी है ऐसे व्यक्ति का मरण नोकषायवशार्त मरण है। इस मरण को बालमरण में अंतर्भूत कर सकते हैं। दर्शनपंडित, अविरतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीव भी वशार्तमरण को प्राप्त हो सकते हैं। उनका यह मरण बालपंडित मरण अथवा दर्शनपंडितमरण समझना चाहिए। विप्राणस व गृद्धपृष्ठ नाम के दोनों मरणों का न तो आगम में निषेध है और न अनुज्ञा। दुष्काल में अथवा दुर्लंघ्य जंगल में, दुष्ट राजा के भय से, तिर्यंचादि के उपसर्ग में, एकाकी स्वयं सहन करने को समर्थ न होने से, ब्रह्मव्रत के नाश से चारित्र में दोष लगने का प्रसंग आया हो तो संसारभीरु व्यक्ति कर्मों का उदय उपस्थित हुआ जानकर जब उसको सहन करने में अपने को समर्थ नहीं पाता है, और न ही उसको पार करने का कोई उपाय सोच पाता है, तब ‘वेदना को सहने से परिणामों में संक्लेश होगा और उसके कारण रत्नत्रय की आराधना से निश्चय ही मैं च्युत हो जाऊंगा' - ऐसी निश्चल मति को धारते हुए, निष्कपट होकर चारित्र और दर्शन में निष्कपटता धारण कर धैर्ययुक्त होता हुआ, ज्ञान का सहाय लेकर निदानरहित होता हुआ अर्हंत भगवान् के समीप आलोचना करके विशुद्ध होता है। निर्मल लेश्याधारी वह व्यक्ति अपने श्वासोच्छ्वास का निरोध करता हुआ प्राणत्याग करता है। ऐसे मरण को विप्राणस मरण कहते हैं। उपर्युक्त कारण उपस्थित होने पर शस्त्र ग्रहण करके जो प्राणत्याग किया जाता है वह गृद्धपृष्ठ मरण है। (भावपाहुड़ टीका/32/147/11 )।
- मरण सामान्य का लक्षण
- मरण निर्देश
- आयु का क्षय ही वास्तविक मरण है
धवला 1/1,1,56/292/10 न तावज्जीवशरीरयोर्वियोगमरणम्। = आगम में जीव और शरीर के वियोग को मरण नहीं कहा गया है। (अथवा पूर्णरूपेण वियोग ही मरण है एकदेश वियोग नहीं। और इस प्रकार समुद्घात आदि को मरण नहीं कह सकते।–देखें आहारक - 3.5। अथवा नारकियों के शरीर का भस्मीभूत हो जाना मात्र उनका मरण नहीं है, बल्कि उनके आयु कर्म का क्षय ही वास्तव में मरण है–देखें मरण - 4.3)।
- चारों गतियों में मरण के लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग
धवला 6/1,9-1,76-243/477/22 विशेषार्थ–सूत्रकार भूतबलि आचार्य ने भिन्न-भिन्न गतियों से छूटने के अर्थ में संभवत: गतियों की हीनता व उत्तमता के अनुसार भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया है (देखें मूल सूत्र - 73-243)। नरकगति, व भवनत्रिक देवगति हीन हैं, अतएव उनसे निकलने के लिए उद्वर्तन अर्थात् उद्धार होना कहा है। तिर्यंच और मनुष्य गतियाँ सामान्य हैं, अतएव उनसे निकलने के लिए काल करना शब्द का प्रयोग किया है और सौधर्मादिक विमानवासियों की गति उत्तम है, अतएव वहाँ से निकलने के लिए च्युत होना शब्द का प्रयोग किया गया है। जहाँ देवगति सामान्य से निकलने का उल्लेख किया गया है वहाँ भवनत्रिक व सौधर्मादिक दोनों की अपेक्षा करके ‘उद्वर्तित और च्युत’ इन दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है। - पंडित व बाल आदि मरणों की इष्टता-अनिष्टता
भगवती आराधना/28/112 पंडिदपंडिदमरणं च पंडिदं बालपंडिदं चेव। एदाणि तिण्णि मरणाणि जिला णिच्चं पसंसंति।28। = पंडित-पंडित, पंडित व बालपंडित इन तीन मरणों की जिनेंद्र देव प्रशंसा करते हैं।
मू.आ./61 मरणे विराधिदं देवदुग्गई दुल्लहा य किर वोही। संसारो य अणंतो होइ पुणो आगमे काल।61।=मरणसमय सम्यक्त्व आदि गुणों की विराधना करने वाले दुर्गतियों को प्राप्त होते हुए अनंत संसार में भ्रमण करते हैं, क्योंकि रत्नत्रय की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है।
देखें मरण - 1.5 (विप्राणस व गृद्धपृच्छमरण का आगम में न निषेध है और न अनुज्ञा।)
- आयु का क्षय ही वास्तविक मरण है
- गुणस्थानों आदि में मरण संबंधी नियम
- आयुबंध व मरण में परस्पर गुणस्थान संबंधी
धवला 8/3,84/145/4 जेण गुणेणाउबंधो संभवदि तेणेव गुणेण मरदि, ण अण्णगुणेणेत्ति परमगुरूवदेसादी। ण उवसामगेहिं अणेयंतो, सम्मत्तगुणेण आउबंधाविरोहिणा णिस्सरणे विरोहाभावादो। =- जिस गुणस्थान के साथ आयुबंध संभव है उसी गुणस्थान के साथ जीव मरता है। ( धवला 4/1,5,46/363/3 )।
- अन्य गुणस्थान के साथ नहीं (अर्थात् जिस गति में जिस गुणस्थान में आयुकर्म का बंध नहीं होता, उस गुणस्थानसहित उस गति से निर्गमन भी नहीं होता–( धवला 6/463/8 ) इस नियम में उपशामकों के साथ अनैकांतिक दोष भी संभव नहीं है, क्योंकि, आयुबंध के अविरोधी सम्यक्त्व गुण के साथ निकलने में कोई विरोध नहीं है। ( धवला 6/1,9-1,130/463/8 )।
- निम्न स्थानों में मरण संभव नहीं
गोम्मटसार कर्मकांड/560-561/762 मिस्साहारस्सयया खवगणा चड्यमाडपढमपुव्वा य। पढमुवसमया तमतमगुडपडिवण्णा य ण मरंति।560। अणसंजोजिदमिच्छे मुहुत्तअंतं तु णत्थि मरणं तु। किद करणिज्जं जाव दु सव्वपरट्ठाण अट्ठपदा।561। = आहारकमिश्र काययोगी, चारित्रमोह क्षपक, उपशमश्रेणी आरोहण में अपूर्वकरण के प्रथम भागवाले प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि, सप्तमपृथिवी का नारकी सम्यग्दृष्टि, अनंतानुबंधी विसंयोजन के अंतमुहूर्त कालपर्यंत तथा कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि इन जीवों का मरण नहीं होता है। - सासादन गुणस्थान में मरण संबंधी
धवला 1/1,1,83/324/1 नापि बद्धनरकायुष्क: सासादनं प्रतिपद्य नारकेषूत्पद्यते तस्य तस्मिन्गुणे मरणाभावात्। = नरक आयु का जिसने पहले बंध कर लिया है, ऐसा जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर नारकियों में उत्पन्न नहीं होता (विशेष देखें जन्म - 4.1) क्योंकि ऐसे जीव का सासादनसहित मरण ही नहीं होता।
धवला 6/1,9-8,14/331/5 आसाणं पुण गदो जदि मरदि, ण सक्को णिरयगदिं तिरिक्खगदिं मणुसगदिं वा गंतुं, णियमा देवगदिं गच्छदि। ... हंदि तिसु आउएसु एक्केण वि बद्धेण ण सक्को कसाए उवसामेंदुं, तेण कारणेण णिरयतिरिक्ख–मणुसगदीओ ण गच्छदि। = (द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव) सासादन को प्राप्त होकर यदि मरता है तो नरक, तिर्यंच व मनुष्य इन तीन गतियों को प्राप्त करने के लिए समर्थ नहीं होता है। नियम से देवगति को ही प्राप्त करता है क्योंकि इन तीन आयुओं में से एक भी आयु का बंध हो जाने के पश्चात् जीव कषायों को उपशमाने के लिए समर्थ नहीं होता है। इसी कारण वह इन तीनों गतियों को प्राप्त नहीं करता है। (दूसरी मान्यता के अनुसार ऐसे जीव सासादन गुणस्थान को ही प्राप्त नहीं होते (देखें सासादन )। ( लब्धिसार/349-350/438 )।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/548/718/18 सासादना भूत्वा प्राग्बद्धदेवायुष्का मृत्वा अबद्धायुष्का: केचिद्देवायुर्बध्वा च देवनिर्वृत्त्यपर्याप्तसासादना: स्यु:। = (पूर्वोक्त द्वितीयोपशम सम्यक्त्व से सासादन को प्राप्त होने वाला जीव) सासदन को प्राप्त होकर यदि पहले ही देवायु का बंध कर चुका है तो मरकर अन्यथा कोई-कोई जिन्होंने पहले कोई आयु नहीं बाँधी है, अब देवायु को बाँधकर देवगति में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार निर्वृत्त्यपर्याप्त देवों में सासादन गुणस्थान होता है। - मिश्र गुणस्थान में मरण के अभाव संबंधी
धवला 4/1,5,17/गाथा 33/349 णय मरइ णेव संजमुवेइ तह देससंजमं वावि। सम्मामिच्छादिट्ठी ण उ मरणंतं समुग्घादो।33। = सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव न तो मरता है और न मारणांतिक समुद्घात ही करता है। ( गोम्मटसार जीवकांड/24/49 )।
धवला 5/1,6,34/31/2 जो जीवो सम्मादिट्ठी होदूण आउअं बंधिय सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जदि, सो सम्मत्तेणेब णिप्फददि। अह मिच्छदिट्ठी होदूण आउअं बंधिय सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जदि, सो मिच्छत्तेणेव णिप्फददि। = जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर और आयु को बाँधकर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, वह सम्यक्त्व के साथ ही उस गति से निकलता है। अथवा जो मिथ्यादृष्टि होकर और आयु को बाँधकर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, वह मिथ्यात्व के साथ ही निकलता है। ( गोम्मटसार जीवकांड/23-24/48 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/456/605/3 )।
धवला 8/3,84/145/2 सम्मामिच्छत्तगुणेण जीवा किण्ण मरंति। तत्थाउस्स बंधाभावादो। = सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में क्योंकि आयु का बंध नहीं होता है, इसलिए वहाँ मरण भी नहीं होता है। (और भी देखें मरण - 3.1)।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/24/49/13 अन्येषामाचार्याणामभिप्रायेण नियमो नास्ति। = अन्य किन्हीं आचार्यों के अभिप्राय से यह नियम नहीं है, कि वह जीव आयुबंध के समय वाले गुणस्थान में ही आकर मरे। अर्थात् सम्यक्त्व व मिथ्यात्व किसी भी गुणस्थान को प्राप्त होकर मर सकता है। - प्रथमोपशम सम्यक्त्व में मरण के अभाव संबंधी
कषायपाहुड़ सुत्त/10/गाथा 97/611 उवसामगो च सव्वो णिव्वाघादो। = दर्शनमोह के उपशामक सर्व ही जीव निर्व्याघात होते हैं, अर्थात् उपसर्गादि के आने पर भी विच्छेद या मरण से रहित होते हैं। (धवला 6/1,9-8,9/गाथा 4/239); (लब्धिसार/मूल/99/136) ; (देखें मरण - 3.2)।
धवला 1/1,1,171/407/8 मिथ्यादृष्टय उपात्तौपशमिकसम्यग्दर्शना: ... संत:... तेषां तेन सह मरणाभावात्। = मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यग्दर्शन को ग्रहण करके (वहाँ देवगति में उत्पन्न नहीं होते) क्योंकि उनका उस सम्यग्दर्शन सहित मरण नहीं होता। (धवला 2/1,1/430/7); (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/695/1131/15) - अनंतानुबंधी विसंयोजन के मरणाभाव संबंधी
पंचसंग्रह / प्राकृत/4/103 आवलियमेत्तकालं अणंतबंधीण होइ णो उदओ। अंतोमुहुत्तमरणं मिच्छत्तं दंसणापत्ते।103। = जो अनंतानुबंधी का विसंयोजक सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होता है, उसको एक आवलीमात्र काल तक अनंतानुबंधी कषायों का उदय नहीं होता है । ऐसा मिथ्यादृष्टि का अर्थात् सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व को प्राप्त होने वाले जीव का अंतर्मुहूर्त काल तक मरण नहीं होता है।
कषायपाहुड़ 2-22/119/101/6 अंतोमुहुत्तेण विणा संजुत्त विदियसमए चेव मरणाभावादो। = अनंतानुबंधी का पुन: संयोजन होने पर अंतर्मुहूर्त काल हुए बिना दूसरे समय में ही मरण नहीं होता है। (कषायपाहुड़ 2/2-22/125/108/3); (गोम्मटसार कर्मकांड/561/763) - उपशम श्रेणी में मरण संबंधी
राजवार्तिक/10/1/3/640/7 सर्वमोहप्रकृत्युपशमात् उपशांतकषायव्यपदेशभाग्भवति। आयुष: क्षयात् म्रियते। = मोह की सर्व प्रकृतियों का उपशम हो जाने पर उपशांतकषाय संज्ञावाला होता है। आयु का क्षय होने पर वह मरण को भी प्राप्त हो जाता है।
धवला 2/1,1/430/8 चारित्तमोहउवसामगा मदा देवेसु उववज्जंति। = चारित्रमोह का उपशम करने वाले जीव मरते हैं तो देवों में उत्पन्न होते हैं। (लब्धिसार/मूल/308/390)
धवला 4/1,5,22/352/7 अपुव्वकरणपढमसमयादो जाव णिद्दापयलाणं बंधो ण वोच्छिज्जदि ताव अपुव्वकरणाणं मरणाभावा। = अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम समय से लेकर जब-तक निद्रा और प्रचला, इन दोनों प्रकृतियों का बंध व्युच्छिन्न नहीं हो जाता है (अर्थात् अपूर्वकरण के प्रथम भाग में) तब-तक अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती संयतों का मरण नहीं होता है। (और भी देखें [[मरण#3.2 | मरण - 3.2); (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/55/148/13) ।
धवला 13/5,4,31/130/8 उवसमसेडीदो ओदिण्णस्स उवसमसम्माइट्ठस्स मरणे संते वि उवसमसमत्तेण अंतोमुहुत्तमच्छिदूण चेव वेदगसम्मत्तस्स गमणुवलंभादो। = उपशम श्रेणी से उतरे हुए उपशम सम्यग्दृष्टि का यद्यपि मरण होता है, तो भी यह जीव उपशम सम्यक्त्व के साथ अंतर्मुहूर्तकाल तक रहकर ही वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त होता है। (देखें सम्यग्दर्शन - IV.3.4)।
गोम्मटसार जीवकांड व जी.प्र./730/1325 विदियुवसमसम्मत्तं सेढीदोदिण्णि अविरदादिसु सगसगलेस्सामरिदे देवअपज्जत्तगेव हवे।731। बद्धदेवायुष्कादन्यस्य उपशमश्रेण्यां मरणाभावात्। = उपशम श्रेणी से नीचे उतरकर असंयतादिक गुणस्थानों में अपनी-अपनी लेश्या सहित मरैं तो अपर्याप्त असंयत देव ही होता है, क्योंकि, देवायु के बंध से अन्य किसी भी ऐसे जीव का उपशमश्रेणी में मरण नहीं होता है। - कृतकृत्यदेव में मरण संबंधी
धवला 6/1,9-8,12/263/1 कदकरणिज्जकालब्भंतरे तस्स मरणं पि होज्ज। = कृतकृत्यवेदककाल के भीतर उसका मरण भी होता है।
कषायपाहुड़ 2/2-22/242/215/6 जइ वसहाइरियस्स वे उवएसा। तत्थ कदकरणिज्जो ण मरदि त्ति उवदेसमस्सिदूण एदं मुत्तं कदं। ... ‘पढमसमयकदकरणिज्जो जदि मरदि णियमा देवेसु उववज्जदि। जदि णेरइएसु तिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा उववज्जदि तो णियमा अंतोमुहुत्तकदकरणिज्जो’ त्ति जइवसहाइरियपरूविदपुण्णिसुत्तादो। णवरि, उच्चारणाइरियउवएसेण पुण कदकरणिज्जो ण मरइ चेवेति णियमो णत्थि।
कषायपाहुड़/पु.2/2-22/244/217/8 मिच्छत्तं खविय सम्मामिच्छत्तं खवेंतो ण मरदि त्ति कुदो णव्वदे। एदम्हादो चेव सुत्तादो। = यतिवृषाभाचार्य के दो उपदेश हैं। उनमें से कृतकृत्यवेदक जीव मरण नहीं करता है इस सूत्र का आश्रय लेकर यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है। ... ‘कृतकृत्यवेदक जीव यदि कृतकृत्य होने के प्रथम समय में मरण करता है तो नियम से देवों में उत्पन्न होता है किंतु जो कृतकृत्यवेदक जीव नारकी, तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होता है, वह नियम से अंतर्मुहूर्त काल तक कृतकृत्यवेदक रहकर ही मरता है।’ यतिवृषभ के इस सूत्र से जाना जाता है कि कृतकृत्यवेदक जीव मरता है। किंतु इतनी विशेषता है कि उच्चारणाचार्य के उपदेशानुसार कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं ही मरता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। = प्रश्न–‘मिथ्यात्व का क्षय करके सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय करने वाला जीव नहीं मरता यह कैसे जाना जाता है ? उत्तर–इसी सूत्र से जाना जाता है।
देखें मरण - 3.2 (दर्शनमोह का क्षय करने वाला यावत् कृतकृत्यवेदक रहता है तावत् मरण नहीं करता।) - नरकगति में मरण समय के लेश्या व गुणस्थान
तिलोयपण्णत्ति/2/294 किण्हाय णीलकाऊणुदयादो बंधिऊण णिरयाऊ। मरिऊण ताहिं जुत्तो पावइ णिरयं महाघोरं।294। = कृष्ण, नील अथवा कापोत इन तीन लेश्याओं का उदय होने से नरकायु को बाँधकर और मरकर उन्हीं लेश्याओं से युक्त होकर महा भयानक नरक को प्राप्त करता है।
गोम्मटसार कर्मकांड/539/698 तत्थतणविरदसम्मो मिस्सो मणुवदुगमुच्चयं णियमा। बंधदि गुणपडिवण्णा मरंति मिच्छेव तत्थ भवा। = तत्रतन अर्थात् सातवीं नरक पृथिवी में सासादन, मिश्र व असंयतगुणस्थानवर्ती जीव मरण के समय मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को प्राप्त होकर ही मरते हैं। (विशेष देखें जन्म - 6)। - देवगति में मरण समय की लेश्या
धवला 8/3,258/323/1 सव्वे देवा मुदयक्खणेण चेव अणियमेण असुहतिलेस्सासु णिवदंति ... अण्णे पुण आइरिया ... मुददेवाणं सव्वेसिं वि काउलेस्साए चेव परिणामब्भुवगमादो। = सब देव मरणक्षण में ही नियम रहित अशुभ तीन लेश्याओं में गिरते हैं, और अन्य आचार्यों के मत से सब ही मृत देवों का कापोत लेश्या में ही परिणमन स्वीकार किया गया है। - आहारकमिश्र काययोगी के मरण संबंधी
धवला 15/64/1 आहारसरीरमुट्ठावेंतस्स अपज्जत्तद्धाए मरणाभावादो। = आहारक शरीर को उत्पन्न करने वाले जीव का अपर्याप्तकाल में मरण संभव नहीं है। (और भी देखें मरण - 3.2)।
गोम्मटसार जीवकांड/238/501 अव्वाघादी अंतोमुहुत्तकालट्ठिदी जहण्णिदरे। पज्जत्तीसंपुण्णो मरणं पि कदाचि संभवई। = आहारक शरीर अव्याघाती है, अंतर्मुहूर्त कालस्थायी है, और पर्याप्तिपूर्ण हो जाने पर उस आहारक शरीरधारी मुनि का कदाचित् मरण भी संभव है।
- आयुबंध व मरण में परस्पर गुणस्थान संबंधी
- अकाल मृत्यु निर्देश
- कदलीघात का लक्षण
भावपाहुड़/मूल/25 विसवेयणरत्तक्खय-भयसत्थग्गहणसंकिलिस्साणं। आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिणए आऊ।12। = विष खा लेने से, वेदना से, रक्त का क्षय होने से, तीव्र भय से, शस्त्रघात से, संक्लेशकी अधिकता से, आहार और श्वासोच्छ्वास के रुक जाने से आयु क्षीण हो जाती है। (इस प्रकार से जो मरण होता है उसे कदलीघात कहते हैं) (धवला 1/1,1,1/गाथा 12/23); (गोम्मटसार कर्मकांड/57/55) - बद्धायुष्क की अकाल मृत्यु संभव नहीं
धवला 10/4,2,4,39/237/5 परभवि आउए बद्धे पच्छा भुंजमाणाउस्स कदलीघादो णत्थि जहासरूवेण चेव वेदेत्ति जाणावणट्ठं ‘कमेण कालगदो’ त्ति उत्तं। परभवियाउअं बंधिय भुंजमाणाउए घादिज्जमाणे को दोसो त्ति उत्ते ण, णिज्जिण्णभुंजमाणाउस्स अपत्तपरभवियाउअउदयस्स चउगइबाहिरस्स जीवस्स अभावप्पसंगादो। = परभव संबंधी आयु के बँधने के पश्चात् भुज्यमान आयु का कदलीघात नहीं होता, किंतु वह जितनी थी उतनी का ही वेदन करता है, इस बात का ज्ञान कराने के लिए ‘क्रम से काल को प्राप्त होकर’ यह कहा है। प्रश्न–परभविक आयु को बाँधकर भुज्यमान आयु का घात मानने में कौन सा दोष है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि जिसकी भुज्यमान आयु की निर्जरा हो गयी है, किंतु अभी तक जिसके परभविक आयु का उदय नहीं प्राप्त हुआ है, उस जीव का चतुर्गति से बाह्य हो जाने से अभाव प्राप्त होता है। - देव-नारकियों की अकालमृत्यु संभव नहीं
सर्वार्थसिद्धि/3/5/209/10 छेदनभेदनादिभि: शकलीकृतमूर्तोनामपि तेषां न मरणमकाले भवति। कुत: अनपवर्त्यायुष्कत्वात्। = छेदन, भेदन आदि के द्वारा उनका (नारकियों का) शरीर खंड-खंड हो जाता है, तो भी उनका अकाल में मरण नहीं होता, क्योंकि, उनकी आयु घटती नहीं है। (राजवार्तिक/3/5/8/166/11); (हरिवंशपुराण/4/364); (महापुराण/10/82); (त्रिलोकसार/194) ; (और भी देखें नरक - 3.6.7)।
धवला 14/5,3,101/360/9 देवणेरइएसु आउअस्स कदलीघादाभावादो। = देव और नारकियों में आयु का कदलीघात नहीं होता। (और भी देखें आयु - 5.4)।
धवला 1/1,1,80/321/6 तेषामपमृत्योरसत्त्वात्। भस्मसाद्भावमुपगतदेहानां तेषां कथं पुनर्मरणमिति चेन्न, देहविकारस्यायुर्विच्छित्त्यनिमित्तत्वात्। अन्यथा बालावस्थात: प्राप्तयौवनस्यापि मरणप्रसंगात्। = नारकी जीवों के अपमृत्यु का सद्भाव नहीं पाया जाता है। प्रश्न–यदि उनकी अपमृत्यु नहीं होती है, तो जिनका शरीर भस्मीभाव को प्राप्त हो गया है, ऐसे नारकियों का पुनर्मरण कैसे बनेगा ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, देह का विकार आयुकर्म के विनाश का निमित्त नहीं है। अन्यथा जिसने बाल अवस्था के पश्चात् यौवन अवस्था को प्राप्त कर लिया है, ऐसे जीव को भी मरण का प्रसंग आ जायेगा। - भोगभूमिजों की अकालमृत्यु संभव नहीं
देखें आयु - 5.4.(असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीव अर्थात् भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यंच अनपवर्त्य आयु वाले होते हैं।)
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/190 पढमे विदिये तदिये काले जे होंति माणुसा पवरा। ते अवमिच्चुविहूणा एयंतसुहेहिं संजुत्ता।190। = प्रथम, द्वितीय व तृतीय काल में जो श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं वे अपमृत्यु से रहित और एकांत सुखों से संयुक्त होते हैं।190। - चरमशरीरियों व शलाका पुरुषों में अकालमृत्यु की संभावना व असंभावना
देखें प्रोषधोपवास - 2.5 (अघातायुष्क मुनियों का अकाल में मरण नहीं होता)।
देखें आयु - 5.4(चरमोत्तम देहधारी अनपवर्त्त्य आयुवाले होते हैं)।
राजवार्तिक/2/53/6/157/25 अंत्यचक्रधरवासुदेवादीनामायुषोऽपवर्तदर्शनादव्याप्तिः।6। न वा; चरमशब्दस्योत्तमविशेषणात्वात्।7। उत्तमग्रहणमेवेति चेत; न; तदनिवृत्ते:।8। चरमग्रहणमेवेति चेत्; न; तस्योत्तमत्वप्रतिपादनार्थत्वात्।9। ...चरमदेह। इति वा केषांचित् पाठ:। एतेषां नियमेनायुरनपवर्त्यमितरेषामनियम:। = प्रश्न–उत्तम देहवाले भी अंतिम चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त और कृष्ण वासुदेव तथा और भी ऐसे लोगों की अकाल मृत्यु सुनी जाती है, अत: यह लक्षण ही अव्यापी है। उत्तर–चरम शब्द उत्तम का विशेषण है, अर्थात् अंतिम उत्तम देह वालों की अकाल मृत्यु नहीं होती। यदि केवल उत्तम पद देते तो पूर्वोक्त दोष बना रहता है। यद्यपि केवल ‘चरमदेहे’ पद देने से कार्य चल जाता है, फिर भी उस चरम देह की सर्वोत्कृष्टता बताने के लिए उत्तम विशेषण दिया है। कहीं ‘चरमदेहाः’ यह पाठ भी देखा जाता है। इनकी अकालमृत्यु कभी नहीं होती, परंतु इनके अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के लिए यह नियम नहीं है।
तत्त्वार्थवृत्ति/2/53/110/5 चरमोऽंत्य उत्तमदेह: शरीरं येषां ते चरमोत्तमदेहा: तज्जन्मनिर्वाणयोग्यास्तीर्थंकरपरमदेवा ज्ञातव्या:। गुरुदत्तपांडवादीनामुपसर्गेण मुक्तत्वदर्शनान्नास्त्यनपवर्त्त्यायुर्नियम इति न्यायकुमुदचंद्रोदये प्रभाचंद्रेणोक्तमस्ति। तथा चोत्तमदेवत्वेऽपि सुभौमब्रह्मदत्तापवर्त्त्यायुर्दर्शनात्, कृष्णस्य च जरत्कुमारबाणेनापमृत्युदर्शनात् सकलार्ध चक्रवर्तिनामप्यनपवर्त्त्यायुर्नियमो नास्ति इति राजवार्तिकालंकारे प्रोक्तमस्ति। = चरम का अर्थ है अंतिम और उत्तम का अर्थ है उत्कृष्ट। ऐसा है शरीर जिनका वे, उसी भव से मोक्ष प्राप्त करने योग्य तीर्थंकर परमदेव जानने चाहिए, अन्य नहीं; क्योंकि, चरम देही होते हुए भी गुरुदत्त, पांडव आदि का मोक्ष उपसर्ग के समय हुआ है–ऐसा श्री प्रभाचंद्र आचार्य ने न्याय-कुमुदचंद्रोदय नामक ग्रंथ में कहा है; और उत्तम देही होते हुए भी सुभौम, ब्रह्मदत्त आदि की आयु का अपवर्तन हुआ है। और कृष्ण की जरत्कुमार के बाण से अपमृत्यु हुई है। इसलिए उनकी आयु के अनपवर्त्त्यपने का नियम नहीं है, ऐसा राजवार्तिकालंकार में कहा है। - जघन्य आयु में अकालमृत्यु की संभावना व असंभावना
धवला 14/5,6,290/ पृष्ठ पंक्ति एत्थ कदलीघादम्मि वे उवदेसा, के वि आइरिया जहण्णाउअम्मि आवलियाए असंखे. भागमेत्ताणि जीवणियट्ठाणाणि लब्भंति त्ति भणंति। तं जहा–पुव्वभणिदसुहुमेइंदियपज्जत्तसव्वजहण्णाउअणिव्वत्तिट्ठाणस्स कदलीघादो णत्थि। एवं समउत्तरदुसमउत्तरादिणिव्वत्तीणं पि घादो णत्थि। पुणो एदम्हादो जहण्णणिव्वत्तिट्ठाणादो संखेज्जगुणमाउअं बंधिदूण सुहुमपज्जत्तेसुवण्णस्स अत्थि कदलीघादो (354/7)। के वि आइरिया एवं भणंतिजहण्णणिव्वत्तिट्ठाणमुवरिमआउअवियप्पेहि वि घादं गच्छदि। केवलं पि घादं गच्छदि। णवरि उवरिमआउवियप्पेहि जहण्णणिव्वत्तिट्ठाणं घादिज्जमाणं समऊणदुसमऊणादिकमेण हीयमाणं ताव गच्छदि जाव जहण्णणिव्वत्तिट्ठाणस्स संखेज्जे भागे ओदारिय संखेभागो सेसो त्ति। जदि पुण केवलं जहण्णणिव्वत्तिट्ठाणं चेव घादेदि तो तत्थ दुविहो कदलीघादो होदि–जहण्णओउक्कस्सओ चेदि (355/1)। सुट्ठु जदि थोवं घादेदि तो जहण्णियणिव्वत्तिट्ठाणस्स संखेज्जे भागे जीविदूण संससंखे. भागस्स संखेज्जे भागे संखेज्जदिभागं वा घादेदि। जदि पुण बहुअं घादेदि तो जहण्णणिवत्तिट्ठाण संखे. भागं जीविदूण संखेज्जे भागे कदलीघादेण घादेदि।(356/1)। एत्थ पढमवक्खाणं ण भद्दयं, खुद्दाभवग्गहणादो (357/1)। = यहाँ कदलीघात के विषय में दो उपदेश पाये जाते हैं। कितने ही आचार्य जघन्य आयु में आवलि के असंख्यातवें भाग-प्रमाण जीवनीय स्थान लब्ध होते हैं ऐसा कहते हैं। यथा – पहले कहे गये सूक्ष्म एकेंद्रिय पर्याप्त की सबसे जघन्य आयु के निर्वृत्तिस्थान का कदलीघात नहीं होता। इसी प्रकार एक समय अधिक और दो समय अधिक आदि निर्वृत्तियों का भी घात नहीं होता। पुन: इस जघन्य निर्वृत्तिस्थान से असंख्यातगुणी आयु का बंध करके सूक्ष्म पर्याप्तकों में उत्पन्न हुए जीव का कदलीघात होता है।(354/7)। कितने ही आचार्य इस प्रकार कथन करते हैं–जघन्य निर्वृत्तिस्थान उपरिम आयुविकल्पों के साथ भी घात को प्राप्त होता है और केवल भी घात को प्राप्त होता है। इतनी विशेषता है, कि उपरिम आयुविकल्पों के साथ घात को प्राप्त होता हुआ जघन्य निर्वृत्तिस्थान एक समय और दो समय आदि के क्रम से कम होता हुआ वह तब तक जाता है जब तक जघन्य निर्वृत्तिस्थान का संख्यात बहुभाग उतरकर संख्यातवें भाग प्रमाण शेष रहता है। यदि पुन: केवल जघन्य निर्वृत्तिस्थान को घातता है तो वहाँ पर दो प्रकार का कदलीघात होता है–जघन्य और उत्कृष्ट यदि अति स्तोक का घात करता है, तो जघन्य निर्वृतिस्थान के संख्यात बहुभाग तक जीवित रहकर शेष संख्यातवें भाग के संख्यात बहुभाग या संख्यातवें भाग का घात करता है। यदि पुन: बहुत का घात करता है तो जघन्य निर्वृत्तिस्थान के संख्यातवें भागप्रमाण काल तक जीवित रहकर संख्यात बहुभाग का कदलीघात द्वारा घात करता है।(355/1)। यहाँ पर प्रथम व्याख्यान ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें क्षुल्लक भव का ग्रहण किया है।(357/1)। - पर्याप्त होने के अंतर्मुहूर्त काल तक अकाल मृत्यु संभव नहीं
धवला 10/4,2,4,41/240/7 पज्जत्तिसमाणिदसमयप्पहुडि जाव अंतोमुहुत्तं ण गदं ताव कदलीघादं ण करेदि त्ति जाणावणट्ठमंतोमुहुत्तणिद्देसो कदो। = पर्याप्तियों को पूर्ण कर चुकने के समय से लेकर जब तक अंतर्मुहुर्त नहीं बीतता है, तब तक कदलीघात नहीं करता, इस बात का ज्ञान कराने के लिए (सूत्र में) ‘अंतर्मुहूर्त’ पद का निर्देश किया है। - कदलीघात द्वारा आयु का अपवर्तन हो जाता है
धवला/10/4,2,4,41/240/9 कदलीघादेण विणा अंतोमुहूत्तकालेण परभवियमाआउअं किण्ण बज्झदे। ण, जीविदूणागदस्स आउअस्स अद्धादो अहियआवाहाए परभवियआउअस्स बंधाभावादो।
धवला 10/4,2,4,46/244/3 जीविदूणागदअंतोमुहुत्तद्धपमाणेण उवरिममंतोमुहुत्तूणपुव्वकोडाउअं सव्वमेगसमएण सरिसखंडं कदलीघादेण घादिदूण घादिदसमए चेव पुणो...। = प्रश्न–कदलीघात के बिना अंतर्मुहूर्त काल द्वारा परभविक आयु क्यों नहीं बाँधी जाती। उत्तर–नहीं, क्योंकि, जीवित रहकर जो आयु व्यतीत हुई है उसकी आधी से अधिक आबाधा के रहते हुए परभविक आयु का बंध नहीं होता। ... जीवित रहते हुए अंतर्मुहूर्त काल गया है उससे अर्धमात्र आगे का अंतर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि प्रमाण उपरिम सब आयु को एक समय में सदृश खंडपूर्वक कदलीघात से घात करने के समय में ही पुन: (परभविक आयु का बंध कर लेता है)। (और भी देखो आगे शीर्षक 9)। - अकाल मृत्यु का अस्तित्व अवश्य है
राजवार्तिक/2/53/10/158/8 अप्राप्तकालस्य मरणानुपलब्धेरपवर्त्याभाव इति चेत्; न; द्रष्टत्वादाम्रफलादिवत्।10। यथा अवधारितपाककालात् प्राक् सोपायोपक्रमे सत्याम्रफलादीनां दृष्ट: पाकस्तथा परिच्छिन्नमरणकालात् प्रागुदीरणाप्रत्यय आयुषो भवत्यपवर्त:। = प्रश्न–अप्राप्तकाल में मरण की अनुपलब्धि होने से आयु के अपवर्तन का अभाव है। उत्तर–जैसे पयाल आदि के द्वारा आम आदि को समय से पहले ही पका दिया जाता है उसी तरह निश्चित मरण काल से पहले भी उदीरणा के कारणों से आयु का अपवर्तन हो जाता है।
श्लोकवार्तिक/5/2/53/2/261/16 न हि अप्राप्तकालस्य मरणाभाव: खड्गप्रहारादिभि: मरणस्य दर्शनात्। = अप्राप्तकाल मरण का अभाव नहीं है, क्योंकि, खड्ग-प्रहारादि द्वारा मरण देखा जाता है।
धवला 13/5,5,63/334/1 कदलीघादेण मरंताणमाउट्ठिदचरिमसमए मरणाभावेण मरणाउट्ठिदिचरिमसमयाणं समाणाहियरणाभावादो च। = कदलीघात से मरने वाले जीवों का आयुस्थिति के अंतिम समय में मरण नहीं हो सकने से मरण और आयु के अंतिम समय का सामानाधिकरण नहीं है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/824/964/12 अकालमरणाभावोऽयुक्त: केषुचित्कर्मभूमिजेषु तस्य सतो निषेधादित्यभिप्राय:। = अकाल मरण का अभाव कहना युक्त नहीं है, क्योंकि, कितने ही कर्मभूमिज मनुष्यों में अकाल मृत्यु है। उसका अभाव कहना असत्य वचन है; क्योंकि, यहाँ सत्य पदार्थ का निषेध किया गया है। (देखें असत्य - 1.3)। - अकाल मृत्यु की सिद्धि में हेतु
राजवार्तिक/2/53/11/158/12 अकालमृत्युव्युदासार्थं रसायनं चोपदिशति, अन्यथा रसायनोपदेशस्य वैयर्थ्यम्। न चादोऽस्ति। अत आयुर्वेदसामर्थ्यादस्त्यकालमृत्यु:। दु:खप्रतीकारार्थं इति चेत; न; उभयथा दर्शनात्।12। कृतप्रणाशप्रसंग इति चेत्; न; दत्वैव फलं निवृत्ते:।13। ... विततार्द्रपटशीषवत् अयथाकालनिर्वृत्तः पाक इत्ययं विशेष:। =- आयुर्वेदशास्त्र में अकाल मृत्यु के वारण के लिए औषधिप्रयोग बताये गये हैं। क्योंकि, दवाओं के द्वारा श्लेष्मादि दोषों को बलात् निकाल दिया जाता है। अत: यदि अकाल मृत्यु न मानी जाय तो रसायनादि का उपदेश व्यर्थ हो जायेगा। उसे केवल दु:खनिवृत्ति का हेतु कहना भी युक्त नहीं है; क्योंकि, उसके दोनों ही फल देखे जाते हैं। (श्लोकवार्तिक 5/2/53/श्लोक 2/259 व वृत्ति/262/26)
- यहाँ कृतप्रणाश की आशंका करना भी योग्य नहीं है, क्योंकि, उदीरणा में भी कर्म अपना फल देकर ही झड़ते हैं। इतना विशेष है, कि जैसे गीला कपड़ा फैला देने पर जल्दी सूख जाता है, वही यदि इकट्टा रखा रहे तो सूखने में बहुत समय लगता है, उसी तरह उदीरणा के निमित्तों के द्वारा समय के पहले ही आयु झड़ जाती है। (श्लोकवार्तिक/5/2/53/2/266/14)
श्लोकवार्तिक/5/2/53/2/261/16 प्राप्तकालस्यैव तस्य तथा दर्शनमिति चेत् क: पुनरसौ कालं प्राप्तोऽपमृत्युकालं वा; द्वितीयपक्षे सिद्धसाध्यता, प्रथमपक्षे खड्गप्रहारादिनिरपेक्षत्वप्रसंग:। = प्रश्न– - प्राप्तकाल ही खड्ग आदि के द्वारा मरण होता है। उत्तर–यहाँ कालप्राप्ति से आपका क्या तात्पर्य है–मृत्यु के काल की प्राप्ति या अपमृत्यु के काल की प्राप्ति ? यहाँ दूसरा पक्ष तो माना नहीं जा सकता क्योंकि वह तो हमारा साध्य ही है और पहला पक्ष मानने पर खड्ग आदि के प्रहार से निरपेक्ष मृत्यु का प्रसंग आता है।
- स्वकाल व अकाल मृत्यु का समन्वय
श्लोकवार्तिक 5/2/53/2/261/18 सकलबहि:कारणविशेषनिरपेक्षस्य मृत्युकारणस्य मृत्युकालव्यवस्थितेः। शस्त्रसंपातादिबहिरंगकारणान्वयव्यतिरेकानुविधायिनस्तस्यापमृत्युकालत्वोपपत्ते:। = असि-प्रहार आदि समस्त बाह्य कारणों से निरपेक्ष मृत्यु होने में जो कारण है वह मृत्यु का स्वकाल व्यवस्थापित किया गया है और शस्त्र-संपात आदि बाह्य कारणों के अन्वय और व्यतिरेक का अनुसरण करने वाला अपमृत्युकाल माना जाता है।
पं.वि./3/18 यैव स्वकर्मकृतकालकलात्र जंतुस्तत्रैव याति मरणं न पुरो न पश्चात्। मूढास्तथापि हि मृते स्वजने विधाय शोकं परं प्रचुरदु:खभुजो भवंति।18। = इस संसार में अपने कर्म के द्वारा जो मरण का समय नियमित किया गया है उसी समय में ही प्राणी मरण को प्राप्त होता है, वह उससे न तो पहले ही मरता है और न पीछे ही। फिर भी मूर्खजन अपने किसी संबंधी के मरण को प्राप्त होने पर अतिशय शोक करके बहुत दु:ख के भोगने वाले होते हैं नोट–(बाह्य कारणों से निरपेक्ष और सापेक्ष होने से ही काल व अकाल मृत्यु में भेद है, वास्तव में इनमें कोई जातिभेद नहीं है। काल की अपेक्षा भी मृत्यु के नियत काल से पहले मरण हो जाने को जो अकाल मृत्यु कहा जाता है वह केवल अल्पज्ञता के कारण ही समझना चाहिए, वास्तव में कोई भी मृत्यु नियतकाल से पहले नहीं होती; क्योंकि, प्रत्यक्षरूप से भविष्य को जानने वाले तो बाह्य निमित्तों तथा आयुकर्म के अपवर्तन को भी नियत रूप में ही देखते हैं।)
- कदलीघात का लक्षण
- मारणांतिक समुद्घात निर्देश
- मारणांतिक समुद्घात का लक्षण
राजवार्तिक/1/20/12/77/15 औपक्रमिकानुपक्रमायु:क्षयाविर्भूतमरणांतप्रयोजनो मारणांतिकसमुद्घात। = औपक्रमिक व अनुपक्रमिक रूप से आयु का क्षय होने से उत्पन्न हुए कालमरण या अकालमरण के निमित्त से मारणांतिक समुद्घात होता है।
धवला 4/1,3,2/26/10 मारणांतियसमुग्घादो णाम अप्पणो वट्टमाणसरीरमछड्डिय रिजुगईए विग्गहगईए वा जावुप्पज्जमाणखेत्तं ताव गंतूण ... अंतोमुहुत्तमच्छणं। = अपने वर्तमान शरीर को नहीं छोड़कर ऋजुगति द्वारा अथवा विग्रहगति द्वारा आगे जिसमें उत्पन्न होना है ऐसे क्षेत्र तक जाकर अंतर्मुहूर्त तक रहने का नाम मारणांतिक समुद्घात है। (द्रव्यसंग्रह टीका/10/25/उद्धृत श्लोक नं.4)
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/199/444/2 मरणांते भव: मारणांतिक: समुद्घात: उत्तरभवोत्पत्तिस्थानपर्यंतजीवप्रदेशप्रसर्पणलक्षण:। = मरण के अंत में होने वाला तथा उत्तर भव की उत्पत्ति के स्थान पर्यंत जीव के प्रदेशों का फैलना है लक्षण जिसका, वह मारणांतिक समुद्घात है। (कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/176/116/2) - सभी जीव मारणांतिक समुद्घात नहीं करते
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/544/950/1 सौधर्मद्वयजीवराशौघनांगुलतृतीयमूलगुणितजगच्छ्रेणिप्रमिते ... पल्यासंख्यातेन भक्ते एकभाग: प्रतिसमयं म्रियमाणराशिर्भवति। ... तस्मिन् पल्यासंख्यातेन भक्ते बहुभागो विग्रहगतौ भवति। तस्मिन् पल्यासंख्यातेन भक्ते बहुभागो मारणांतिक समुद्घाते भवति। ...अस्य पल्यासंख्यातैकभागो दूरमारणांतिके जीवा भवंति। = सौधर्म ईशान स्वर्गवासी देव ( × जगत्श्रेणी) इतने प्रमाण हैं। इसके पल्य/असं. एकभागप्रमाण प्रतिसमय मरने वाले जीवों का प्रमाण है। इसका पल्य/असं. बहुभाग प्रमाण विग्रहगति करने वालों का प्रमाण है। इसका पल्य/असं. बहुभाग प्रमाण मारणांतिक समुद्घात करने वालों का प्रमाण है। इसका पल्य/असं एकभागप्रमाण दूरमारणांतिक समुद्घात वाले जीवों का प्रमाण है। (और भी देखें धवला 7/2,6,227,14/306,312 )। - ऋजु व वक्र दोनों प्रकार की विग्रहगति में होता है
कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/176/116/3 स च संसारी जीवानां विग्रहगतौ स्यात्। = मारणांतिक समुद्घात संसारी जीवों को विग्रहगति में होता है।
देखें मारणांतिक समुद्घात का लक्षण धवला 4 (ऋजुगति व विग्रहगति दोनों प्रकार से होता है)। (धवला 7/2,6,1/3) - मारणांतिक समुद्घात का स्वामित्व
देखें समुद्घात - 5 – (मिश्र गुणस्थान तथा क्षपकश्रेणी के अतिरिक्त सभी गुणस्थानों में संभव है। विकलेंद्रियों के अतिरिक्त सभी जीवों में संभव है।
धवला 4/1,4,25/204/7 जदि सासणसम्मादिट्ठिणो हेट्ठाण मारणंतियं मेलंति, तो तेसिं भवणवासियदेवेसु मेरुतलादो हेट्ठा ट्ठिदेसु उप्पत्ती ण पावदि त्ति वुत्ते, ण एस दोसो, मेरुतलादो हेट्ठा सासणसम्मादिट्ठीणं मारणंतियं णत्थि त्ति एदं सामण्णवयणं। विसेसादो पुण भण्णमाणे णेरइएसु हेट्ठिम एइंदिएसु वा ण मारणांतियं मेलंति त्ति एस परमत्थो। = प्रश्न–यदि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मेरुतल से नीचे मारणांतिक समुद्घात नहीं करते हैं तो मेरुतल से नीचे स्थित भवनवासी देवों में उनकी उत्पत्ति भी नहीं प्राप्त होती है। उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ‘मेरुतल से नीचे सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों का मारणांतिक समुद्घात नहीं होता है’ यह सामान्य वचन है। किंतु विशेष विवक्षा से कथन करने पर तो वे नारकियों में अथवा मेरुतल से अधोभागवर्ती एकेंद्रिय जीवों में मारणांतिक समुद्घात नहीं करते हैं, यह परमार्थ है। (क्योंकि उन गतियों में उनके उपपाद नहीं होता है।–देखें जन्म - 4.1)।
देखें सासादन - 1.10 – (लोकनाली के बाहर सासादन सम्यग्दृष्टि समुद्घात नहीं करते।)
धवला 4/1,4,173/305/10 मणुसगदीए चेव मारणंतिय दंसणादो। = मनुष्य गति में ही (उपशम सम्यग्दृष्टि जीवों के) मारणांतिक समुद्घात देखा जाता है।
देखें क्षेत्र - 3–(गुणस्थान व मार्गणास्थानों में मारणांतिक समुद्घात का यथासंभव अस्तित्व)। - प्रदेशों का पूर्ण संकोच होना आवश्यक नहीं
धवला 4/1,3,2/30/4 विग्गहगदीए मारणंतियं कादूणुप्पण्णाणं पढमसमए असंखेज्जजोयणमेत्ता ओगाहणा होदि, पुव्वं पसारिदएग-दो-तिदंडाणं पढमसमए उवसंघाराभावादो। = मारणांतिक समुद्घात करके विग्रहगति से उत्पन्न हुए जीवों के पहले समय में असंख्यात योजनप्रमाण अवगाहना होती है, क्योंकि, पहले फैलाये गये एक, दो और तीन दंडों का प्रथम समय में संकोच नहीं होता है।
धवला 4/1,4,4/165/4 के वि आइरिया ‘देवा णियमेण मूल सरीरं पविसिय मरंति’ त्ति भणंति, ... विरुद्धं ति ण घेत्तव्वं। = कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि देव नियम से मूल शरीर में प्रवेश करके ही मरते हैं। ... परंतु यह विरोध को प्राप्त होता है, इसलिए उसे नहीं ग्रहण करना चाहिए।
धवला 7/2,7,164/429/11 हेट्ठा दोरज्जुमेत्तद्धाणं गंतूण ट्ठिदावत्थाए छिण्णाउआणं मणुस्सेसुप्पज्जमाणाणं देवाणं उववादखेत्तं किण्ण घेप्पदे। ण, तस्स पढमदंडेणूणस्स छचोद्दसभागेसु चेव अंतब्भावादो, तेसिं मूलसरीरपवेसमंतरेण तदवत्थाए मरणाभावादो च। = प्रश्न–नीचे दो राजुमात्र जाकर स्थित अवस्था में आयु के क्षीण होने पर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले देवों का उपपादक्षेत्र क्यों नहीं ग्रहण किया। उत्तर–नहीं, क्योंकि, प्रथम दंड से कम उसका 6/14 भाग में ही अंतर्भाव हो जाता है (देखें क्षेत्र - 4) तथा मूल शरीर में जीव-प्रदेशों के प्रवेश बिना उस अवस्था में उनके मरण का अभाव भी है।
धवला 11/4,2,5,12/22/6 णेरइएसुप्पण्णपढमसमए उवसंहरिदपढमदंडस्स य उक्कस्सखेत्ताणुववत्तीदो। = नारकियों में उत्पन्न होने के प्रथम समय में (महामत्स्य के प्रदेशों में) प्रथम दंड का उपसंहार हो जाने से उसका उत्कृष्ट क्षेत्र नहीं बन सकता। - प्रदेशों का विस्तार व आकार
धवला 7/2,6,1/299/11 अप्पप्पणो अच्छिदपदेसादो जाव उप्पज्जमाणखेत्तं ति आयामेण एगपदेसमादिं कादूण जावुक्कस्सेण सरीरतिगुणबाहल्लेण कंडेक्कखंभट्ठियत्तोरण हल-गोमुत्तायारेण अंतोमुहुत्तावट्ठाणं मारणंतियसमुग्घादो णाम। = आयाम की अपेक्षा अपने-अपने अधिष्ठित प्रदेश से लेकर उत्पन्न होने के क्षेत्र तक (और भी देखें अगला शीर्षक नं - 7), तथा बाहल्य से एक प्रदेश को आदि करके उत्कर्षत: शरीर से तिगुने प्रमाण जीव प्रदेशों के कांड, एक खंभ स्थित तोरण, हल व गोमूत्र के आकार से अंतर्मुहूर्त तक रहने को मारणांतिक समुद्घात कहते हैं।
धवला 11/4,2,5,12/21/7 सुहुमणिगोदेसु उप्पज्जमाणस्स महामच्छस्स विक्खंभुस्सेहा तिगुणा ण होंति, दुगुणा विसेसाहिया वा होंति त्ति कधं णव्वदे। अधोसत्तमाए पुढवीए णेरइएसु से काले उप्पज्जिहिदि त्ति सुत्तादो णव्वदे। संतकम्मपाहुडे पुण णिगोदेसु उप्पाइदो, णेरइएसु उप्पज्जमाणमहामच्छो व्व सुहुमणिगोदेसु उप्पज्जमाणमहामच्छो वि तिगुणशरीरबाहल्लेण मारणंतियसमुग्घादं गच्छदि त्ति। ण च एदं जुज्जदे, सत्तमपुढवीणेरइएसु असादबहुलेसु उप्पज्जमाणमहामच्छवेयणा-कसाएहिंतो सुहुमणिगोदेसु उप्पज्जमाणमहामच्छवेयण-कसायाणं सरिसत्ताणुववत्तीदो। तदो एसो चेव अत्थो वहाणो त्ति घेत्तव्वो। = प्रश्न–सूक्ष्म निगोद जीवों में उत्पन्न होने वाले महामत्स्य का विष्कंभ और उत्सेध तिगुना नहीं होता, किंतु दुगुना अथवा विशेष अधिक होता है; यह कैसे जाना जाता है। उत्तर–‘‘नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में वह अनंतर काल में उत्पन्न होगा’’ इस सूत्र से जाना जाता है।–सत्कर्मप्राभृत में उसे निगोद जीवों में उत्पन्न कराया है, क्योंकि, नारकियों में उत्पन्न होने वाले महामत्स्य के समान सूक्ष्म निगोद जीवों में उत्पन्न होने वाला महामत्स्य भी विवक्षित शरीर की अपेक्षा तिगुने बाहल्य से मारणांतिक समुद्घात को प्राप्त होता है। परंतु यह योग्य नहीं है, क्योंकि, अत्यधिक असाता का अनुभव करने वाले सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न होने वाले महामत्स्य की वेदना और कषाय की अपेक्षा सूक्ष्म निगोद जीवों में उत्पन्न होने वाले महामत्स्य की वेदना और कषाय सदृश नहीं हो सकती है। इस कारण यही अर्थ प्रधान है, ऐसा ही ग्रहण करना चाहिए।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/543/942/13 अस्मिन् रज्जुसंख्यातैकभागायामसूच्यंगुलसंख्यातैकभागविष्कंभोत्सेधक्षेत्रस्य घनफलेन प्रतरांगुलसंख्यातैकभागगुणितजगच्छेणिसंख्यातैकभागेन गुणिते दूरमारणांतिकसमुद्घातस्य क्षेत्रं भवति। = एक जीव के दूरमारणांतिक समुद्धात विषै शरीर से बाहर यदि प्रदेश फैलें तो मुख्यपने राजू के संख्यातभागप्रमाण लंबे और सूच्यंगले के संख्यातवें भागप्रमाण चौड़े व ऊँचे क्षेत्र को रोकते हैं। इसका घनफल जगत्श्रेणी × प्रतरांगुल होता है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/584/1025/10 तदुपरि प्रदेशोत्तरेषु स्वयंभूरमणसमुद्रबाह्यस्थंडिलक्षेत्रस्थितमहामत्स्येन सप्तमपृथिवीमहारौरवनामश्रेणीबद्धं प्रति मुक्तमारणांतिकसमुद्घातस्य पंचशतयोजनतदर्धविष्कंभोत्सेधैकार्धषड्रज्ज्वायतप्रथमद्वितीयतृतीयवक्रोत्कृष्टपर्यंतेषु। = वेदना समुद्घात जीव के उत्कृष्ट क्षेत्र से ऊपर एक-एक प्रदेश बढ़ता-बढ़ता मारणांतिक समुद्घात वाले जीव का उत्कृष्ट क्षेत्र होता है। वह स्वयंभूरमण समुद्र के बाह्य स्थंडिलक्षेत्र में स्थित जो महामत्स्य वह जब सप्तमनरक के महारौरव नामक श्रेणीबद्ध बिल के प्रति मारणांतिक समुद्घात करता है तब होता है। वह 500 यो. चौड़ा, 250 यो. ऊँचा और प्रथम मोड़े में 1 राजू लंबा, दूसरे मोड़े में 1/2 राजू और तृतीय मोड़े में 6 राजू लंबा होता है। मारणांतिक समुद्घातगत जीव का इतना उत्कृष्ट क्षेत्र होता है। - वेदना कषाय और मारणांतिक समुद्घात में अंतर
धवला 4/1,3,2/27/2 वेदणकसायसमुग्घादा मारणंतियसमुग्घादे किण्ण पदंति त्ति वुत्ते ण पदंति। मारणंतिय समुग्घादो णाण बद्धपरभवियाउआणं चेव होदि। वेदणकसायसमुग्घादा पुण बद्धाउआणमबद्धाउआणं च होंति। मारणंतियसमुघादो णिच्छएण उप्पज्जमाण दिसाहिमुहो होदि, ण चे अराणमेगदिसाए गमणणियमो, दससु वि दिसासु गमणे पडिबद्धत्तादो। मारणंतियसमुग्घादस्स आयामो उक्कस्सेण अप्पणो उप्पज्जमाणखेत्तपज्जवसाणो, ण चेअराणमेस णियमो त्ति = प्रश्न–वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात ये दोनों मारणांतिकसमुद्घात में अंतर्भूत क्यों नहीं होते हैं ? उत्तर–- नहीं होते, क्योंकि, जिन्होंने पर भव की आयु बाँध ली है, ऐसे जीवों के ही मारणांतिक समुद्घात होता है (अबद्धायुष्क और वर्तमान में आयु को बाँधने वालों के नहीं होता– (धवला 7/4,2,1386/410/7) , किंतु वेदना और कषाय समुद्घात बद्धायुष्क और अबद्धायुष्क दोनों जीवों के होते हैं।
- मारणांतिक समुद्घात निश्चय से आगे जहाँ उत्पन्न होता है ऐसे क्षेत्र की दिशा के अभिमुख होता है किंतु अन्य समुद्घातों में इस प्रकार एक दिशा में गमन का नियम नहीं है, क्योंकि, उनका दशों दिशाओं में भी गमन पाया जाता है (देखें समुद्घात - 3 )।
- मारणांतिक समुद्घात की लंबाई उत्कृष्टत: अपने उत्पद्यमान क्षेत्र के अंत तक हैं, किंतु इतर समुद्घातों का यह नियम नहीं है। (देखें पिछला शीर्षक नं - 6)।
- मारणांतिक समुद्घात में कौन कर्म निमित्त है
धवला 6/1,9-1,28/57/2 अचत्तसरीरस्स विग्गहगईए उजुगईए वा जं गमणं तं करस फलं। ण, तस्स पुव्वखेत्तपरिच्चायाभावेण गमणाभावा। जीवपदेसाणं जो पसरो सो ण णिक्कारणो, तस्स आउअसंतफलत्तादो। = प्रश्न–पूर्व शरीर को न छोड़ते हुए जीव के विग्रहगति में अथवा ऋजुगति में गमन होता है, वह किस कर्म का फल है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, पूर्व शरीर को नहीं छोड़ने वाले उस जीव के पूर्व क्षेत्र के परित्याग के अभाव से गमन का अभाव है (अत: वहाँ आनुपूर्वी नामकर्म कारण नहीं हो सकता)। पूर्व शरीर को नहीं छोड़ने पर भी जीव-प्रदेशों का जो प्रसार होता है, वह निष्कारण नहीं है, क्योंकि, वह आगामी भवसंबंधी आयुकर्म के सत्त्व का फल है।
- मारणांतिक समुद्घात का लक्षण