मोहनीय: Difference between revisions
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<li class="HindiText"> [[#1.5 | सर्व कर्मों में मोहनीय की प्रधानता। ]]<br /> | <li class="HindiText"> [[#1.5 | सर्व कर्मों में मोहनीय की प्रधानता। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मोह प्रकृति में दशों करणों की संभावना − देखें [[ करण#2 | करण - 2]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> मोह प्रकृतियों की बंध उदय सत्त्वरूप प्ररूपणाएँ − देखें [[ वह वह नाम ]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[# | <li class="HindiText"> मोहोदय की उपेक्षा की जानी संभव है। - देखें [[ विभाव#4.2 | विभाव - 4.2]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> मोहनीय का उपशमन विधान। − देखें [[ उपशम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> मोहनीय का क्षपण विधान। − देखें [[ क्षय ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> मोह प्रकृतियों के सत्कर्मिकों संबंधी क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ। − देखें [[ वह वह नाम ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[#2.2 | दर्शनमोहनीय के भेद। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[#2.3 | दर्शनमोह की तीनों प्रकृतियों के लक्षण। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[#2.4| तीनों प्रकृतियों में अंतर। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मिथ्यात्व प्रकृति का त्रिधाकरण।−देखें [[ उपशम ]] | <li class="HindiText"> मिथ्यात्व प्रकृति का त्रिधाकरण।−देखें [[ उपशम#2 | उपशम - 2 ]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[#2.6 | मिथ्यात्व प्रकृति में से मिथ्यात्वकरण कैसा ?]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[#2.7 | सम्यक् प्रकृति को ‘सम्यक्’ व्यपदेश क्यों ?]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[#2.8 | सम्यक्त्व व मिथ्यात्व दोनों की युगपत् वृत्ति कैसे ?]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना | <li class="HindiText"> सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना संबंधी। − देखें [[ संक्रमण#4 | संक्रमण - 4]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> सम्यक्त्व प्रकृति देश घाती कैसे ? | <li class="HindiText"> सम्यक्त्व प्रकृति देश घाती कैसे ? – देखें [[ अनुभाग#4.6.3 | अनुभाग - 4.6.3]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व में से पहले मिथ्यात्व का क्षय होता | <li class="HindiText"> मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व में से पहले मिथ्यात्व का क्षय होता है। − देखें [[ क्षय#2 | क्षय - 2]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> मिथ्यात्व का क्षय करके सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय करने वाला जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। - देखें [[ मरण#3 | मरण - 3]]। <br /> | <li class="HindiText"> मिथ्यात्व का क्षय करके सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय करने वाला जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। - देखें [[ मरण#3 | मरण - 3]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> क्रोध आदि प्रकृतियों संबंधी।−देखें [[ कषाय ]]। <br /> | <li class="HindiText"> क्रोध आदि प्रकृतियों संबंधी।−देखें [[ कषाय ]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> हास्य आदि प्रकृतियों संबंधी।−देखें [[ | <li class="HindiText"> हास्य आदि प्रकृतियों संबंधी।−देखें [[हास्य]], [[रति]], [[अरति]], [[शोक]], [[भय]], [[जुगुप्सा]], [[स्त्रीवेद]], [[पुरुष#4|पुरुषवेद]], [[नपुंसक|नपुंसकवेद]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[#3.4 | चारित्रमोह की सामर्थ्य कषायोत्पादन में है स्वरूपाचरण के विच्छेद में नहीं। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[#3.5 | कषायवेदनीय के बंधयोग्य परिणाम। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[चारित्रमोहनीय निर्देश#3.6 | | <li class="HindiText"> [[#3.6 | अकषायवेदनीय के बंध योग्य परिणाम। ]] </li> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="1" id="1"> मोहनीय सामान्य निर्देश</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">मोहनीय कर्म सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/4/380/5 </span><span class="SanskritText">मोहयति मोह्यतेऽनेति वा मोहनीयम्।</span> = <span class="HindiText">जो मोहित करता है या जिसके द्वारा मोहा जाता है वह मोहनीय कर्म है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/8/4/2/568/1 )</span>, <span class="GRef">( धवला 6/1, 9-1, 8/11/5, 7 )</span>, <span class="GRef">( धवला 13/5, 5, 19/208/10 )</span>, <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/20/ 13/15 )</span> । </span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/33/92/11 </span><span class="SanskritText">मोहनीयस्य का प्रकृतिः। मद्यपानवद्धेयोपादेयविचारविकलता। </span>= <span class="HindiText">मद्यपान के समान हेय - उपादेय ज्ञान की रहितता, यह मोहनीयकर्म की प्रकृति है। (और भी−देखें [[ प्रकृति बंध#3.1 | प्रकृति बंध - 3.1]])। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> मोहनीय कर्म के भेद</strong> - | |||
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<li class="HindiText"><strong> दो या 28 भेद </strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">षट्खण्डागम 6/1, 9-1/सूत्र 19-20/37 </span><span class="PrakritText">मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीस पयडीओ।19। जं तं मोहणीयं कम्मं तं दुविहं, दंसणमोहणीयं चारित्तमोहणीयं चेव।20।</span> = | |||
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<li class="HindiText"> मोहनीय कर्म की 28 प्रकृतियाँ हैं।19। <span class="GRef">(षट्खण्डागम 12/4, 2, 14/सूत्र 10/482)</span>; <span class="GRef">(षट्खण्डागम 13/5, 5/सूत्र 90/357)</span>; <span class="GRef">( महाबंध 1/ 5/28/2 )</span>; (विशेष देखें आगे [[ #2.2 | दर्शनमोहनीय]] व [[#3.2 | चारित्रमोह की उत्तर प्रकृतियाँ ]])। </li> | |||
<li class="HindiText"> मोहनीयकर्म दो प्रकार का है−दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। <span class="GRef">(षट्खण्डागम 13/5, 5/सूत्र 91/357)</span>; <span class="GRef">(मू. आ./1226)</span>; <span class="GRef">( तत्त्वार्थसूत्र/8/9 )</span>; <span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/4 व उसकी मूल व्याख्या)</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/ </span>जीवतत्व प्रदीपिका/25/17/9)</span>; <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/985 )</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/18 </span><span class="SanskritText">दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं कषायवेदनीयं नोकषायवेदनीयं इति मोहनीयं चतुर्विधम्।</span> =<span class="HindiText"> दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, कषायवेदनीय और नोकषाय वेदनीय, इस प्रकार मोहनीय कर्म चार प्रकार का है। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong> असंख्यात भेद </strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 12/4, 2, 14, 10/482/6 </span><span class="PrakritText">पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे मोहणीयस्स असंखेज्जलोगमेत्तीयो होंति, असंखेज्जलोगमेत्त-उदयट्ठाणण्णहीणुववत्तीदो। </span>=<span class="HindiText"> पर्यायार्थिक नय का अवलंबन करने पर तो मोहनीय कर्म की असंख्यात लोकमात्र शक्तियाँ हैं, क्योंकि, अन्यथा उसके असंख्यातलोक मात्र उदयस्थान बन नहीं सकते। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> मोहनीय के लक्षण संबंधी शंका</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 6/1, 9-1, 8/11/5 </span><span class="PrakritText">मुह्यत इति मोहनीयम्। एवं संते जीवस्स मोहणीयत्तं पसज्जदि त्ति णासंकणिज्जं, जीवादो अभिणम्हि पोग्गलदव्वे कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तधाउत्तीदो। अथवा मोहयतीति मोहनीयम्। एवं संते धत्तूर-सुराकलत्तादीणं पि मोहणीयत्तं पसज्जदीदि चे ण, कम्मदव्वमोहणीये एत्थ अहियारादो। ण कम्माहियारे धत्तूर-सुरा-कलत्तादीणं संभवो अत्थि।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong> ‘जिसके द्वारा मोहित होता है, वह मोहनीय कर्म है’ इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर जीव के मोहनीयत्व प्राप्त होता है ? <br><strong>उत्तर−</strong>ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जीव से अभिन्न और ‘कर्म’ ऐसी संज्ञा वाले पुद्गल द्रव्य में उपचार से कर्तृत्व का आरोपण करके उस प्रकार की व्युत्पत्ति की गयी है।<br> <strong>प्रश्न−</strong>अथवा ‘जो मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है’, ऐसी व्युत्पत्ति करने पर धतूरा, मदिरा और भार्या आदि के भी मोहनीयता प्रसक्त होती है ?<br> <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि यहाँ पर मोहनीय नामक द्रव्यकर्म का अधिकार है। अतएव कर्म के अधिकार में धतूरा, मदिरा और स्त्री आदि की संभावना नहीं है। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> मोहनीय व ज्ञानावरणी कर्मों में अंतर</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/4-5/568/13 </span><span class="SanskritText"> स्यादेतत्सति मोहे हिताहितपरीक्षणाभावात् ज्ञानावरणादविशेषो मोहस्येति; तन्न; किं कारणम्। अर्थांतरभावात्। याथात्म्यमर्थस्यावगम्यापि इदमेवेति सद्भूतार्थाश्रद्धानं यतः स मोहः। ज्ञानावरणेन ज्ञानं तथान्यथा वा न गृह्णाति।4। यथा भिन्नलक्षणांकुरदर्शनात् बीजकारणान्यत्वं तथैवाज्ञानचारित्रमोहकार्यांतरदर्शनात् ज्ञानावरणमोहनीयकारणभेदोऽवसीयते। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>मोह के होने पर भी हिताहित का विवेक नहीं होता, अतः मोह को ज्ञानावरण से भिन्न नहीं कहना चाहिए ?<br> <strong>उत्तर−</strong>पदार्थ का यथार्थ बोध करके भी ‘यह ऐसा ही है’ इस प्रकार सद्भूत अर्थ का अश्रद्धान (दर्शन) मोह है, पर ज्ञानावरण से ज्ञान तथा या अन्यथा ग्रहण ही नहीं करता, अतः दोनों में अंतर है।4। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/989-990 )</span>। <br>जैसे अंकुररूप कार्य के भेद से कारणभूत बीजों में भिन्नता है उसी तरह अज्ञान और चरित्रभूत इन दोनों में भिन्नता होनी ही चाहिए।5। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> सर्व कर्मों में मोहनीय की प्रधानता</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 1/43/1 </span><span class="SanskritText">अशेषदुःखप्राप्तिनिमित्तत्वादरिर्मोहः। तथा च शेषकर्मव्यापारो वैफल्यमुपादेयादिति चेन्न, शेषकर्मणां मोहतंत्रत्वात्। न हि मोहमंतरेण शेषकर्माणि स्वकार्यनिष्पत्तौ व्यापृतांयुपलभ्यंते येन तेषां स्वातंत्र्यं जायेत। मोहे विनष्टेऽपि कियंतमपि कालं शेषकर्मणां सत्त्वोपलंभान्न तेषां तत्तंत्रत्वमिति चेन्न, विनष्टेऽरौ जंममरणप्रबंधलक्षणसंसारोत्पादसामर्थ्यमंतरेण तत्सत्त्वस्यासत्त्व-समानत्वात् केवलज्ञानाद्यशेषात्मगुणाविर्भावप्रतिबंधनप्रत्ययासमर्थत्वाच्च।</span> =<span class="HindiText"> समस्त दुःखों की प्राप्ति का निमित्तकारण होने से मोह को ‘अरि’ अर्थात् शत्रु कहा है।<br> <strong>प्रश्न−</strong>केवल मोह को ही अरि मान लेने पर शेष कर्मों का व्यापार निष्फल हो जाता है।<br> <strong>उत्तर−</strong>ऐसा नहीं है, क्योंकि बाकी के समस्त कर्म मोह के ही अधीन हैं। मोह बिना शेष कर्म अपने-अपने कार्य की उत्पत्ति में व्यापार करते हुए नहीं पाये जाते हैं, जिससे कि वे स्वतंत्र समझे जायें। इसलिए सच्चा अरि मोह ही है और शेष कर्म उसके अधीन हैं।<br> <strong>प्रश्न−</strong>मोह के नष्ट हो जाने पर भी कितने ही काल तक शेष कर्मों की सत्ता रहती है, इसलिए उनको मोह के अधीन मानना उचित नहीं है।<br> <strong>उत्तर−</strong>ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि मोहरूप अरि के नष्ट हो जाने पर, जन्म मरण की परंपरा रूप संसार के उत्पादन की सामर्थ्य शेष कर्मों में नहीं रहने से उन कर्मों का सत्त्व असत्त्व के समान हो जाता है। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1064-1070 )</span>। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="2" id="2">दर्शन मोहनीय निर्देश</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> दर्शन मोह सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/3/379/1 </span><span class="SanskritText">दर्शनमोहस्य तत्त्वार्थाश्रद्धानम्।...तदेवं लक्षणं कार्यं− ‘प्रक्रियते प्रभवत्यस्या इति प्रकृतिः’।</span> = <span class="HindiText">तत्त्वार्थ श्रद्धान न होने देना दर्शनमोह की प्रकृति है। इस प्रकार का कार्य किया जाता है अर्थात् जिससे होता है वह प्रकृति है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/8/3/4/567/4 )</span>; (और भी देखें [[ मोह#1 | मोह - 1]])। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 6/1, 9-1, 21/38/3 </span><span class="PrakritText">दंसणं अत्तागम - पत्थेसु रुई पच्चओ सद्धा फोसणमिदि एयट्ठो तं मोहेदि विवरीयं कुणदि त्ति दंसणमोहणीयं। जस्स कम्मस्स उदएण अणत्ते अत्तबुद्धी, अणागमे आगमबुद्धी, अपयत्थे पयत्थबुद्धी, अत्तागमपयत्थेसु सद्धाए अत्थिरत्तं, दोसु वि सद्धा वा होदि तं दंसणमोहणीयमिदि उत्तं होदि। </span>= | |||
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<li> <span class="HindiText">दर्शन, रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा और स्पर्शन, ये सब एकार्थवाचनक नाम हैं। आप्त या आत्मा में, आगम और पदार्थों में रुचि या श्रद्धा को दर्शन कहते हैं। उस दर्शन को जो मोहित करता है अर्थात् विपरीत कर देता है, उसे दर्शन मोहनीय कर्म कहते हैं। <span class="GRef">( धवला 13/5, 5, 91/357/13 )</span>। </span></li> | |||
<li class="HindiText"> जिस कर्म के उदय से अनाप्त में आप्तबुद्धि और अपदार्थ में पदार्थ बुद्धि होती है; अथवा आप्त आगम और पदार्थों में श्रद्धान की अस्थिरता होती है; अथवा दोनों में भी अर्थात् आप्त-अनाप्त में, आगम-अनागम में और पदार्थ-अपदार्थ में श्रद्धा होती है, वह दर्शन मोहनीय कर्म है, यह अर्थ कहा गया है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1005 </span><span class="PrakritGatha">एवं च सति सम्यक्त्वे गुणे जीवस्य सर्वतः। तं मोहयति यत्कर्म दृङ्मोहाख्यं तदुच्यते।1005।</span> = <span class="HindiText">इसी तरह जीव के सम्यक्त्व नामक गुण के होते हुए जो कर्म उस सम्यक्त्व गुण को सर्वतः मूर्च्छित कर देता है, उसे दर्शन मोहनीय कर्म कहते हैं। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> दर्शन मोहनीय के भेद</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">षट्खण्डागम 6/1, 9-1/सूत्र 21/38</span><span class="PrakritText"> जं तं दंसणमोहणीयं कम्मं तं बंधादो एयविहं, तस्स संतकम्मंपुणतिविहं सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं चेदि।21।</span> =<span class="HindiText"> जो दर्शनमोहनीय कर्म है, वह बंध की अपेक्षा एक प्रकार का है, किंतु उसका सत्कर्म तीन प्रकार का है-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व।21। <span class="GRef">(षट्खण्डागम 13/5, 5/सूत्र 92-93/358)</span>; <span class="GRef">(मू. आ./1227)</span>; <span class="GRef">( तत्त्वार्थसूत्र/8/9 )</span>; <span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/4 गाथा व उसकी मूल व्याख्या)</span>; <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/2/3/152/8 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/3/1/104/16 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/25/17/9; 33/27/18 )</span>; <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/986 )</span>। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> दर्शनमोह की तीनों प्रकृतियों के लक्षण</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/9/385/5 </span><span class="SanskritText">यस्योदयात्सर्वज्ञप्रणीतमार्गपराङ्मुखस्तत्त्वार्थश्रद्धाननिरुत्सुको हिताहितविचारासमर्थो मिथ्यादृष्टिर्भवति तन्मिथ्यात्वम्। तदेव सम्यक्त्वं शुभपरिणामनिरुद्धस्वरसं यदौदासीन्येनावस्थितमात्मनः श्रद्धानं न निरुणद्धि, तद्वेद्यमानः पुरुषः सम्यग्दृष्टिरित्यभिधीयते। तदेव मिथ्यात्वं प्रक्षालनविशेषात्क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रववत्सामिशुद्धस्वरसं तदुभयमिथ्याख्यायते सम्यङ्मिथ्यात्वमिति यावत्। यस्योदयादात्मनोऽर्धशुद्धमदकोद्रवौदनोपयोगापादितमिश्रपरिणामवदुभयात्मको भवति परिणामः।</span> = | |||
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<li class="HindiText"> जिसके उदय से जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थों के श्रद्धान करने में निरुत्सुक, हिताहित का विचार करने में असमर्थ ऐसा मिथ्यादृष्टि होता है, वह मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय है। </li> | |||
<li class="HindiText"> वही मिथ्यात्व जब शुभ परिणामों के कारण अपने स्वरस (विपाक) को रोक देता है और उदासीन रूप से अवस्थित रहकर आत्मा के श्रद्धान को नहीं रोकता है, तब सम्यक्त्व (सम्यक्प्रकृति) है। इसका वेदन करने वाला पुरुष सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। </li> | |||
<li class="HindiText"> वही मिथ्यात्व प्रक्षालन विशेष के कारण क्षीणाक्षीण मदशक्ति वाले कोदों के समान अर्धशुद्ध स्वरसवाला होने पर तदुभय या सम्यग्मिथ्यात्व कहा जाता है। इसके उदय से अर्धशुद्ध मदशक्ति वाले कोदों और ओदन के उपयोग से प्राप्त हुए मिश्रपरिणाम के समान उभयात्मक परिणाम होता है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/8/9/2/574/3 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/19 )</span>; (और भी देखें [[ #2.4 | आगे शीर्षक नं - 2.4]])। <br /> | |||
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</li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> तीनों प्रकृतियों में अंतर</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 6/1, 9-1, 21/39/1 </span><span class="PrakritText">अत्तागम-पदत्थसद्धाए जस्सोदएण सिथिलत्तं होदि, तं सम्मत्तं।...जस्सोदएण अत्तागम-पयत्थेसु असद्धा होदि, तं मिच्छत्तं। जस्सोदएण अत्तगमपयत्थेसु तप्पडिवक्खेसु य अक्कमेण सद्धा उप्पज्जदि तं सम्मामिच्छत्तं। </span> | |||
<span class="GRef"> धवला 6/1, 9-8, 7/235/1 </span><span class="PrakritText"> मिच्छत्ताणुभागादो सम्मामिच्छत्ताणुभागो अणंतगुणहीणो, तत्ते सम्मत्ताणुभागो अणंतगुणहीणो त्ति पाहुड़सुत्ते णिद्दिट्ठादो।</span> = | |||
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<li class="HindiText"> जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम व पदार्थों की श्रद्धा में शिथिलता (व अस्थिरता) होती है वह सम्यक्त्व प्रकृति है। जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम और पदार्थों में अश्रद्धा होती है, वह मिथ्यात्व प्रकृति है। जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम और पदार्थों, तथा उनके प्रतिपक्षियों में अर्थात् कुदेव, कुशास्त्र और कुतत्त्वों में, युगपत् श्रद्धा उत्पन्न होती है वह सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति है। <span class="GRef">( धवला 13/5, 5, 93/358/10; 359/3 )</span>। </li> | |||
<li class="HindiText"> ‘मिथ्यात्व कर्म के अनुभाग से सम्यग्मिथ्यात्व कर्म का अनुभाग अनंतगुणा हीन होता है और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के अनुभाग से सम्यक्त्व प्रकृति का अनुभाग अनंतगुणा हीन होता है’, ऐसा प्राभृतसूत्र अर्थात् कषायप्राभृत के चूर्णिसूत्रों में निर्देश किया गया है। (देखें [[ अनुभाग#4.5.2 | अनुभाग - 4.5.2]])। (और भी देखें [[ अल्पबहुत्व#3.9 | अल्पबहुत्व - 3.9]])। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> एक दर्शनमोह का तीन प्रकार निर्देश क्यों ?</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5, 5, 93/358/7 </span><span class="PrakritText">कधं बंधकाले एगविहं मोहणीयं संतावत्थाए तिविहं पडिवज्जदे। ण एस दोसो, एक्कस्सेव कोद्दवस्स दलिज्जमाणस्स एगकाले एगक्रियाविसेसेण तंदुलद्धतंदुल-कोद्दवभावुवलंभादो। होदु तत्थ तथाभावो सकिरियजंतसंबंधेण। ण एत्थ वि अणियट्ठिकरणसहिजीवसंबंधेण एगविहस्स मोहणीयस्स तघाविहभाविरोधादो।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न</strong>- | |||
जो मोहनीयकर्म बंध काल में एक प्रकार का है, वह सत्त्वावस्था में तीन प्रकार का कैसे हो जाता है ? <br><strong>उत्तर−</strong>यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दला जाने वाला एक ही प्रकार का कोदों द्रव्य एक काल में एक क्रियाविशेष के द्वारा चावल, आधे चावल और कोदों, इन तीन अवस्थाओं को प्राप्त होता है। उसी प्रकार प्रकृत में भी जानना चाहिए। <span class="GRef">( धवला 6/1, 9-1, 21/38/7 )</span>। <br><strong>प्रश्न−</strong>वहाँ तो क्रिया युक्त जाँते (चक्की) के संबंध से उस प्रकार का परिणमन भले ही हो जाओ, किंतु यहाँ वैसा नहीं हो सकता। <br><strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि यहाँ पर भी अनिवृत्तिकरण सहित जीव के संबंध से एक प्रकार के मोहनीय का तीन प्रकार परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है। <br /></span> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> मिथ्यात्व प्रकृति में से भी मिथ्यात्वकरण कैसा ?</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/26/19/1 </span><span class="SanskritText">मिथ्यात्वस्य मिथ्यात्वकरणं तु अतिस्थापनावलिमात्रं पूर्वस्थितावूनितमित्यर्थः। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>मिथ्यात्व तो था ही, उसको मिथ्यात्वरूप क्या किया ? <br><strong>उत्तर−</strong>पहले जो स्थिति थी उसमें से अतिस्थापनावली प्रमाण घटा दिया। अर्थात् असंख्यातगुणा हीन अनुक्रम से सर्व द्रव्य के तीन खंड कर दिये। उनमें से जो पहले सबसे अधिक द्रव्यखंड है वह ‘मिथ्यात्व’ है ऐसा अभिप्राय है। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/704/1141/13 )</span>। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> सम्यक्प्रकृति को ‘सम्यक्’ व्यपदेश क्यों ?</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 6/1, 9-1, 21/39/2 </span><span class="SanskritText">कधं तस्स सम्मत्तववऐसो। सम्मत्तसहचरिदोदयत्तादो उवयारेण सम्मत्तमिदि उच्चदे। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>इस प्रकृति का ‘सम्यक्त्व’ ऐसा नाम कैसे हुआ ? <br><strong>उत्तर−</strong>सम्यग्दर्शन के सहचरित उदय होने के कारण उपचार से ‘सम्यक्त्व’ ऐसा नाम कहा जाता है। <span class="GRef">( धवला 1/1, 1, 146/398/2 )</span>; <span class="GRef">( धवला 13/5, 5, 93/358/11 )</span>। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> सम्यक्त्व व मिथ्यात्व दोनों की युगपत् वृत्ति कैसे ?</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5, 5, 93/359/2 </span><span class="PrakritText"> कधं दोण्णं विरुद्धाणं भावाणमक्कमेण एयजीवदव्वम्हि वुत्ती । ण, दोण्णं संजोगस्स कधंचि जच्चंतरस्स कम्मट्ठवणस्सेव ( ?) वुत्तिविरोहाभावादो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप इन दो विरुद्ध भावों की एक जीव द्रव्य में एक साथ वृत्ति कैसे हो सकती है ? <br><strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि...( ?) क्षीणाक्षीण मदशक्ति युक्त कोदों, के समान उक्त दोनों भावों के कथंचित् जात्यंतरभूत संयोग के होने में कोई विरोध नहीं है। (विशेष देखें [[ मिश्र#2.9 | मिश्र - 2.9]])। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9"> दर्शनमोहनीय के बंध योग्य परिणाम</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/6/13 </span><span class="SanskritText"> केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य। </span>= <span class="HindiText">केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव है। <span class="GRef">( तत्त्वसार/4/27 )</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> तत्त्वसार/4/28 </span><span class="SanskritText"> मार्गसंदूषणं चैव तथैवोन्मार्गदेशनम्। </span>= <span class="HindiText">उपरोक्त के अतिरिक्त सत्य मोक्षमार्ग को दूषित ठहराना और असत्य मोक्षमार्ग को सच्चा बताना ये भी दर्शनमोह के कारण हैं। <br /> | |||
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<ol start="3"> | |||
<li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> चारित्रमोहनीय निर्देश</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> चारित्र मोहनीय सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/3/379/2 </span><span class="SanskritText">चारित्रमोहस्यासंयमः।</span> =<span class="HindiText"> असंयमभाव चारित्रमोह की प्रकृति है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/8/3/4/597/4 )</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 6/1, 9-1, 22/22/40/5 </span><span class="PrakritText"> पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रम्। घादिकम्माणि पावं। तेसिं किरिया मिच्छत्तसंजमकसाया। तेसिमभावो चारित्तं। तं मोहेइ आवारेदि त्ति चारित्तमोहणीयं।</span> = <span class="HindiText">पापरूप क्रियाओं की निवृत्ति को चारित्र कहते हैं। घातिया कर्मों को पाप कहते हैं। मिथ्यात्व असंयम और कषाय, ये पाप की क्रियाएँ हैं। इन पाप क्रियाओं के अभाव को चारित्र कहते हैं। उस चारित्र को जो मोहित करता है अर्थात् आच्छादित करता है, उसे चारित्रमोहनीय कहते हैं। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1009 )</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5, 5, 92/358/1 </span><span class="PrakritText">रागभावो चरित्तं, तस्स मोहयं तप्पडिवक्खभावुप्याययं चारित्तमोहणीयं।</span> = <span class="HindiText">राग का न होना चारित्र है। उसे मोहित करने वाला अर्थात् उससे विपरीत भाव को उत्पन्न करने वाला कर्म चारित्रमोहनीय कहलाता है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/23 </span><span class="PrakritText">चरति चर्यतेऽनेनेति चरणमात्रं वा चारित्रं, तन्मोहयति मुह्यतेऽनेनेति चारित्रमोहनीयं।</span> = <span class="HindiText">जो आचरण करता अथवा जिसके द्वारा आचरण किया जाता है अथवा आचरणमात्र चारित्र है। उसको जो मोहित करता है अथवा जिसके द्वारा मोहित किया जाता है सो चारित्रमोहनीय है। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> चारित्रमोहनीय के भेद-प्रभेद</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> षट्खण्डागम 6/1, 9-1/सूत्र 22-24/40-45</span> <span class="PrakritText">जं तं चारित्तमोहणीयं कम्मं तं दुविहं, कषायवेदणीयं चेव णोकसायवेदणीयं चेव।22। जं तं कसायवेदणीयं कम्मं तं सोडसविहं, अणंताणुबंधिकोहमाणमायालोहं, अपच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोहं, पच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोहं, कोहसंजलणं, माणसंजलणं, मायासंजलणं, लोहसंजलणं चेदि।23। जं तं णोकसायवेदणीयं कम्मं तं णवविहं, इत्थिवेदं, पुरिसवेदं, णवुंसयवेदं, हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा चेदि।24। </span>= <span class="HindiText">जो चारित्रमोहनीय कर्म है वह दो प्रकार का है−कषायवेदनीय ओर नोकषायवेदनीय।22। = जो कषायवेदनीय कर्म है वह 16 प्रकार का है−अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, माना, माया, लोभ; क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और लोभसंज्वलन।23। = जो नोकषाय वेदनीय कर्म है वह नौ प्रकार का है−स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा।24। <span class="GRef">( षट्खंडागम 13/5, 5/ सूत्र 94-96/359-361)</span>; <span class="GRef">(मू. आ./1226-1229)</span>; <span class="GRef">( तत्त्वार्थसूत्र/8/9 )</span>; <span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/4 व उसकी व्याख्या)</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/26/19/3; 33/27/23 )</span>; <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1076-1077 )</span>। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> कषाय व अकषायवेदनीय के लक्षण</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5, 5, 94/359/7 </span><span class="PrakritText"> जस्स कम्मस्स उदएण जीवो कसायं वेदयदि तं कम्मं कसायवेदणीयं णाम। जस्स कम्मस्स उदएण जीवो णोकसायं वेदयदि तं णोकसायवेदणीयं णाम। </span>=<span class="HindiText"> जिस कर्म के उदय से जीव कषाय का वेदन करता है वह कषायवेदनीय कर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव नोकषाय का वेदन करता है, वह नोकषाय-वेदनीय कर्म है। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> चारित्रमोह की सामर्थ्य कषायोत्पादन में है स्वरूपाचरण विच्छेद में नहीं</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/श्लोक </span><span class="SanskritGatha"> नं कार्यं चारित्रमोहस्य चारित्राच्च्युतिरात्मनः। नात्मदृष्टेस्तु दृष्टित्वान्न्यायादितरदृष्टिवत्।690। कषायाणामनुद्रेकश्चारित्रं तावदेव हि। नानुद्रेकः कषायाणां चारित्राच्युतिरात्मनः।692। अस्ति चारित्रमोहेऽपि शक्तिद्वैतं निसर्गतः। एकं चासंयतत्वं स्यात् कषायत्वमथापरम्।1131। यौगपद्य द्वयोरेव कषायासंयतत्वयोः। समं शक्तिद्वयस्योच्चैः कर्मणोऽस्य तथोदयात्।1137। </span>= <span class="HindiText">न्यायानुसार आत्मा को चारित्र से च्युत करना ही चारित्रमोह का कार्य है, किंतु इतर की दृष्टि के समान दृष्टि होने से शुद्धात्मानुभव से च्युत करना चारित्रमोह का कार्य नहीं है।690। निश्चय से जितना कषायों का अभाव है, उतना ही चारित्र है और जो कषायों का उदय है वही आत्मा का चारित्र से च्युत होना है।692। चारित्र मोह में स्वभाव से दो प्रकार की शक्तियाँ हैं−एक असंयतत्वरूप और दूसरी कषायत्वरूप।1131। इन दोनों कषाय व असंयतपने में युगपतता है, क्योंकि वास्तव में युगपत् उक्त दोनों ही शक्ति वाले इस कर्म का ही उस रूप से उदय होता है।1137। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5">कषायवेदनीय के बंधयोग्य परिणाम</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/6/14/332/8 </span><span class="SanskritText">स्वपरकषायोत्पादनं तपस्विजनवृत्तदूषणं संक्लिष्टलिंगव्रतधारणादिः कषायवेदनीयस्यास्रवः। </span>= <span class="HindiText">स्वयं कषाय करना, दूसरों में कषाय उत्पन्न करना, तपस्वीजनों के चारित्र में दूषण लगाना, संक्लेश को पैदा करने वाले लिंग (वेष) और व्रत को धारण करना आदि कषायवेदनीय के आस्रव हैं। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/14/3/525/5 </span><span class="SanskritText"> जगदनुग्रहतंत्रशीलव्रतभावितात्मतपस्विजनगर्हण-धर्मावध्वंसन-तदंतरायकरणशीलगुणदेशसंयतविरति-प्रच्यावनमधुमद्यमांसविरतचित्तविभ्रमापादन-वृत्तसंदूषण-संक्लिष्टलिंगव्रत-धारणस्वपरकषायोत्पादनादिलक्षणः कषायवेदनीयस्यास्रवः।</span> = <span class="HindiText">जगदुपकारी शीलव्रती तपस्वियों की निंदा, धर्मध्वंस, धर्म में अंतराय करना, किसी को शीलगुण देशसंयम और सकलसंयम से च्युत करना, मद्य-मांस आदि से विरक्त जीवों को उससे बिचकाना, चरित्रदूषण, संक्लेशोत्पादक व्रत और वेषों का धारण, स्व और पर में कषायों का उत्पादन आदि कषायवेदनीय के आस्रव के कारण हैं। </span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> अकषायवेदनीय के बंधयोग्य परिणाम</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/14/3/525/8 </span><span class="SanskritText">उत्प्रहासादीनाभिहासित्व-कंदर्पोपहसन-बहुग्रलापोपहासशीलता हास्यवेदनीयस्य। विचित्रपरक्रीडनपरसौ-चित्यावर्जन-बहुविधपीडाभाव-देशाद्यनौत्सुक्यप्रीतिसंजननादिः रति-वेदनीयस्य। परारतिप्रादुर्भावनरतिविनाशनपापशीलसंसर्गताकुशल-क्रियाप्रोत्साहनादिः अरतिवेदनीयस्य। स्वशोकामोदशोचन-परदुःखाविष्करण-शोकप्लुताभिनंदनादिः शोकवेदनीयस्य। स्वयंभयपरिणाम-परभयोत्पादन-निर्दयत्व-त्रासनादिर्भयवेदनीयस्य। सद्धर्मापन्नचतुर्वर्णविशिष्टवर्गकुलक्रियाचारप्रवणजुगुप्सा-परिवाद-शीलत्वादिर्जुगुप्सावेदनीयस्य। प्रकृष्टक्रोधपरिणामातिमानितेर्ष्याव्यापारालीकाभिधायिता-तिसंधानपरत्व-प्रवृद्धराग-परांगनागमनादर-वामलोचनाभावाभिष्-वंगतादिः स्त्रीवेदस्य। स्तोकक्रोधजैह्य-निवृत्त्यनुत्सिक्तत्वा-लोभभावरंगनासमवायाल्परागत्व-स्वदार-संतोषेर्ष्याविशेषोपरमस्नानगंध-माल्याभरणानादरादिः पुंवेदनीयस्य। प्रचुरक्रोधमानमायालोभपरिणाम-गुह्येंद्रियव्यपरोपणस्त्रीपुंसानंगव्यसनित्व शीलव्रतगुणधारिप्रव्रज्या-श्रितप्रम(मै)थुन-परांग-नावस्कंदनरागतीव्रानाचारादिर्नपुंसकवेदनीयस्य।</span> = <span class="HindiText">उत्प्रहास, दीनतापूर्वक हँसी, कामविकार पूर्वक हँसी, बहु-प्रलाप तथा हर एक की हँसी मजाक करना <strong>हास्यवेदनीय</strong> के आस्रव के कारण हैं। विचित्र क्रीड़ा, दूसरे के चित्त को आकर्षण करना, बहुपीड़ा, देशादि के प्रति अनुत्सुकता, प्रीति उत्पन्न करना <strong>रतिवेदनीय</strong> के आस्रव के कारण हैं। रतिविनाश, पापशील व्यक्तियों की संगति, अकुशल क्रिया को प्रोत्साहन देना आदि <strong>अरतिवेदनीय</strong> के आस्रव के कारण हैं। स्वशोक, प्रीति के लिए पर का शोक करना, दूसरों को दुःख उत्पन्न करना, शोक से व्याप्त का अभिनंदन आदि <strong>शोकवेदनीय</strong> के आस्रव के कारण हैं। स्वयं भयभीत रहना, दूसरों को भय उत्पन्न करना, निर्दयता, त्रास, आदि<strong> भयवेदनीय</strong> के आस्रव के कारण हैं। धर्मात्मा चतुर्वर्ण विशिष्ट वर्ग कुल आदि की क्रिया और आचार में तत्पर पुरुषों से ग्लानि करना, दूसरे की बदनामी करने का स्वभाव आदि <strong>जुगुप्सावेदनीय</strong> के आस्रव के कारण हैं। अत्यंत क्रोध के परिणाम, अतिमान, अत्यंत ईर्ष्या, मिथ्याभाषण, छल कपट, तीव्रराग, परांगनागमन, स्त्रीभावों में रुचि आदि <strong>स्त्रीवेद</strong> के आस्रव के कारण हैं। मंदक्रोध, कुटिलता न होना, अभिमान न होना, निर्लोभ भाव, अल्पराग, स्वदारसंतोष, ईर्ष्या-रहित भाव, स्नान, गंध, माला, आभरण आदि के प्रति आदर न होना आदि <strong>पुंवेद</strong> के आस्रव के कारण हैं। प्रचुर क्रोध मान माया लोभ, गुप्त इंद्रियों का विनाश, स्त्री पुरुषों में अनंगक्रीड़ा का व्यसन, शीलव्रत गुणधारी और दीक्षाधारी पुरुषों को बिचकाना, परस्त्री पर आक्रमण, तीव्र राग, अनाचार आदि <strong>नपुंसकवेद</strong> के आस्रव के कारण हैं। <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/6/24/332/9 )</span>। </span></li> | |||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p class="HindiText">आठ कर्मों में चौथा कर्म । इसकी अट्ठाईस प्रकृतियों होती हैं । मूलत: इसके दो भेद हैं― दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । इसमें दर्शनमोहनीय की तीन उत्तर प्रकृतियां है― मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व । चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं― नोकषाय और कषाय । इसमें हास्य रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये नौ नोकषाय हैं । अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से कषाय के मूल में चार भेद है । अनंतानुबंधी कषाय सम्यग्दर्शन तथा स्वरूपाचरण चारित्र का घात करती है । अप्रत्याख्यानावरण हिंसा आदि रूप परिणतियों का एक देश त्याग नहीं होने देती । प्रत्याख्यानावरण से जीव सकल संयमी नहीं हो पाता तथा संज्वलन यथाख्यातचारित्र का उद्भव नहीं होने देनी इसकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर तथा जघन्य स्थित अंतर्मुहूर्त प्रमाण होती है</big> <big></big>। <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 58.216-221, 231-241, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.157, 160 </span></p> | <p class="HindiText">आठ कर्मों में चौथा कर्म । इसकी अट्ठाईस प्रकृतियों होती हैं । मूलत: इसके दो भेद हैं― दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । इसमें दर्शनमोहनीय की तीन उत्तर प्रकृतियां है― मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व । चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं― नोकषाय और कषाय । इसमें हास्य रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये नौ नोकषाय हैं । अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से कषाय के मूल में चार भेद है । अनंतानुबंधी कषाय सम्यग्दर्शन तथा स्वरूपाचरण चारित्र का घात करती है । अप्रत्याख्यानावरण हिंसा आदि रूप परिणतियों का एक देश त्याग नहीं होने देती । प्रत्याख्यानावरण से जीव सकल संयमी नहीं हो पाता तथा संज्वलन यथाख्यातचारित्र का उद्भव नहीं होने देनी इसकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर तथा जघन्य स्थित अंतर्मुहूर्त प्रमाण होती है</big> <big></big>। <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_58#216|हरिवंशपुराण - 58.216-221]], 231-241, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.157, 160 </span></p> | ||
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Latest revision as of 19:37, 30 November 2024
सिद्धांतकोष से
आठों कर्मों में मोहनीय ही सर्व प्रधान है, क्योंकि जीव के संसार का यही मूल कारण है। यह दो प्रकार का है−दर्शन मोह व चारित्र मोह। दर्शनमोह सम्यक्त्व को और चारित्रमोह साम्यता रूप स्वाभाविक चारित्र को घातता है। इन दोनों के उदय से जीव मिथ्यादृष्टि व रागी - द्वेषी हो जाता है। दर्शनमोह के 3 भेद हैं - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति। चारित्रमोह के दो भेद हैं−कषायवेदनीय और अकषाय वेदनीय। क्रोधादि चार कषाय हैं और हास्यादि 9 अकषाय हैं।
- मोहनीय सामान्य निर्देश
- मोहनीय कर्म सामान्य का लक्षण।
- मोहनीय कर्म के भेद।
- मोहनीय के लक्षण संबंधी शंका।
- मोहनीय व ज्ञानावरणीय कर्मों में अंतर।
- दर्शन व चारित्र मोहनीय में कथंचित् जातिभेद।−देखें संक्रमण - 3।
- मोह प्रकृति में दशों करणों की संभावना − देखें करण - 2।
- मोह प्रकृतियों की बंध उदय सत्त्वरूप प्ररूपणाएँ − देखें वह वह नाम ।
- मोहोदय की उपेक्षा की जानी संभव है। - देखें विभाव - 4.2।
- मोहनीय का उपशमन विधान। − देखें उपशम ।
- मोहनीय का क्षपण विधान। − देखें क्षय ।
- मोह प्रकृतियों के सत्कर्मिकों संबंधी क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ। − देखें वह वह नाम
- मोहनीय कर्म सामान्य का लक्षण।
- दर्शनमोहनीय निर्देश
- दर्शनमोह सामान्य का लक्षण।
- दर्शनमोहनीय के भेद।
- दर्शनमोह की तीनों प्रकृतियों के लक्षण।
- तीनों प्रकृतियों में अंतर।
- एक दर्शनमोह का तीन प्रकार निर्देश क्यों ?
- मिथ्यात्व प्रकृति का त्रिधाकरण।−देखें उपशम - 2 ।
- मिथ्यात्व प्रकृति में से मिथ्यात्वकरण कैसा ?
- सम्यक् प्रकृति को ‘सम्यक्’ व्यपदेश क्यों ?
- सम्यक्त्व व मिथ्यात्व दोनों की युगपत् वृत्ति कैसे ?
- सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना संबंधी। − देखें संक्रमण - 4।
- सम्यक्त्व प्रकृति देश घाती कैसे ? – देखें अनुभाग - 4.6.3।
- मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व में से पहले मिथ्यात्व का क्षय होता है। − देखें क्षय - 2।
- मिथ्यात्व का क्षय करके सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय करने वाला जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। - देखें मरण - 3।
- दर्शनमोह सामान्य का लक्षण।
- दर्शनमोह के उपशमादि के निमित्त।−देखें सम्यग्दर्शन - III.1.2 ।
- चारित्रमोहनीय निर्देश
- हास्यादि की भाँति करुणा अकरुणा आदि प्रकृतियों का निर्देश क्यों नहीं है ? −देखें करुणा - 2।
- हास्यादि की भाँति करुणा अकरुणा आदि प्रकृतियों का निर्देश क्यों नहीं है ? −देखें करुणा - 2।
- मोहनीय सामान्य निर्देश
- मोहनीय कर्म सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/4/380/5 मोहयति मोह्यतेऽनेति वा मोहनीयम्। = जो मोहित करता है या जिसके द्वारा मोहा जाता है वह मोहनीय कर्म है। ( राजवार्तिक/8/4/2/568/1 ), ( धवला 6/1, 9-1, 8/11/5, 7 ), ( धवला 13/5, 5, 19/208/10 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/20/ 13/15 ) ।
द्रव्यसंग्रह टीका/33/92/11 मोहनीयस्य का प्रकृतिः। मद्यपानवद्धेयोपादेयविचारविकलता। = मद्यपान के समान हेय - उपादेय ज्ञान की रहितता, यह मोहनीयकर्म की प्रकृति है। (और भी−देखें प्रकृति बंध - 3.1)।
- मोहनीय कर्म के भेद -
- दो या 28 भेद
षट्खण्डागम 6/1, 9-1/सूत्र 19-20/37 मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीस पयडीओ।19। जं तं मोहणीयं कम्मं तं दुविहं, दंसणमोहणीयं चारित्तमोहणीयं चेव।20। =- मोहनीय कर्म की 28 प्रकृतियाँ हैं।19। (षट्खण्डागम 12/4, 2, 14/सूत्र 10/482); (षट्खण्डागम 13/5, 5/सूत्र 90/357); ( महाबंध 1/ 5/28/2 ); (विशेष देखें आगे दर्शनमोहनीय व चारित्रमोह की उत्तर प्रकृतियाँ )।
- मोहनीयकर्म दो प्रकार का है−दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। (षट्खण्डागम 13/5, 5/सूत्र 91/357); (मू. आ./1226); ( तत्त्वार्थसूत्र/8/9 ); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/4 व उसकी मूल व्याख्या); ( गोम्मटसार कर्मकांड/ जीवतत्व प्रदीपिका/25/17/9); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/985 )।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/18 दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं कषायवेदनीयं नोकषायवेदनीयं इति मोहनीयं चतुर्विधम्। = दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, कषायवेदनीय और नोकषाय वेदनीय, इस प्रकार मोहनीय कर्म चार प्रकार का है।
- असंख्यात भेद
धवला 12/4, 2, 14, 10/482/6 पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे मोहणीयस्स असंखेज्जलोगमेत्तीयो होंति, असंखेज्जलोगमेत्त-उदयट्ठाणण्णहीणुववत्तीदो। = पर्यायार्थिक नय का अवलंबन करने पर तो मोहनीय कर्म की असंख्यात लोकमात्र शक्तियाँ हैं, क्योंकि, अन्यथा उसके असंख्यातलोक मात्र उदयस्थान बन नहीं सकते।
- दो या 28 भेद
- मोहनीय के लक्षण संबंधी शंका
धवला 6/1, 9-1, 8/11/5 मुह्यत इति मोहनीयम्। एवं संते जीवस्स मोहणीयत्तं पसज्जदि त्ति णासंकणिज्जं, जीवादो अभिणम्हि पोग्गलदव्वे कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तधाउत्तीदो। अथवा मोहयतीति मोहनीयम्। एवं संते धत्तूर-सुराकलत्तादीणं पि मोहणीयत्तं पसज्जदीदि चे ण, कम्मदव्वमोहणीये एत्थ अहियारादो। ण कम्माहियारे धत्तूर-सुरा-कलत्तादीणं संभवो अत्थि। = प्रश्न− ‘जिसके द्वारा मोहित होता है, वह मोहनीय कर्म है’ इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर जीव के मोहनीयत्व प्राप्त होता है ?
उत्तर−ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जीव से अभिन्न और ‘कर्म’ ऐसी संज्ञा वाले पुद्गल द्रव्य में उपचार से कर्तृत्व का आरोपण करके उस प्रकार की व्युत्पत्ति की गयी है।
प्रश्न−अथवा ‘जो मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है’, ऐसी व्युत्पत्ति करने पर धतूरा, मदिरा और भार्या आदि के भी मोहनीयता प्रसक्त होती है ?
उत्तर−नहीं, क्योंकि यहाँ पर मोहनीय नामक द्रव्यकर्म का अधिकार है। अतएव कर्म के अधिकार में धतूरा, मदिरा और स्त्री आदि की संभावना नहीं है।
- मोहनीय व ज्ञानावरणी कर्मों में अंतर
राजवार्तिक/8/4-5/568/13 स्यादेतत्सति मोहे हिताहितपरीक्षणाभावात् ज्ञानावरणादविशेषो मोहस्येति; तन्न; किं कारणम्। अर्थांतरभावात्। याथात्म्यमर्थस्यावगम्यापि इदमेवेति सद्भूतार्थाश्रद्धानं यतः स मोहः। ज्ञानावरणेन ज्ञानं तथान्यथा वा न गृह्णाति।4। यथा भिन्नलक्षणांकुरदर्शनात् बीजकारणान्यत्वं तथैवाज्ञानचारित्रमोहकार्यांतरदर्शनात् ज्ञानावरणमोहनीयकारणभेदोऽवसीयते। = प्रश्न−मोह के होने पर भी हिताहित का विवेक नहीं होता, अतः मोह को ज्ञानावरण से भिन्न नहीं कहना चाहिए ?
उत्तर−पदार्थ का यथार्थ बोध करके भी ‘यह ऐसा ही है’ इस प्रकार सद्भूत अर्थ का अश्रद्धान (दर्शन) मोह है, पर ज्ञानावरण से ज्ञान तथा या अन्यथा ग्रहण ही नहीं करता, अतः दोनों में अंतर है।4। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/989-990 )।
जैसे अंकुररूप कार्य के भेद से कारणभूत बीजों में भिन्नता है उसी तरह अज्ञान और चरित्रभूत इन दोनों में भिन्नता होनी ही चाहिए।5।
- सर्व कर्मों में मोहनीय की प्रधानता
धवला 1/1, 1, 1/43/1 अशेषदुःखप्राप्तिनिमित्तत्वादरिर्मोहः। तथा च शेषकर्मव्यापारो वैफल्यमुपादेयादिति चेन्न, शेषकर्मणां मोहतंत्रत्वात्। न हि मोहमंतरेण शेषकर्माणि स्वकार्यनिष्पत्तौ व्यापृतांयुपलभ्यंते येन तेषां स्वातंत्र्यं जायेत। मोहे विनष्टेऽपि कियंतमपि कालं शेषकर्मणां सत्त्वोपलंभान्न तेषां तत्तंत्रत्वमिति चेन्न, विनष्टेऽरौ जंममरणप्रबंधलक्षणसंसारोत्पादसामर्थ्यमंतरेण तत्सत्त्वस्यासत्त्व-समानत्वात् केवलज्ञानाद्यशेषात्मगुणाविर्भावप्रतिबंधनप्रत्ययासमर्थत्वाच्च। = समस्त दुःखों की प्राप्ति का निमित्तकारण होने से मोह को ‘अरि’ अर्थात् शत्रु कहा है।
प्रश्न−केवल मोह को ही अरि मान लेने पर शेष कर्मों का व्यापार निष्फल हो जाता है।
उत्तर−ऐसा नहीं है, क्योंकि बाकी के समस्त कर्म मोह के ही अधीन हैं। मोह बिना शेष कर्म अपने-अपने कार्य की उत्पत्ति में व्यापार करते हुए नहीं पाये जाते हैं, जिससे कि वे स्वतंत्र समझे जायें। इसलिए सच्चा अरि मोह ही है और शेष कर्म उसके अधीन हैं।
प्रश्न−मोह के नष्ट हो जाने पर भी कितने ही काल तक शेष कर्मों की सत्ता रहती है, इसलिए उनको मोह के अधीन मानना उचित नहीं है।
उत्तर−ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि मोहरूप अरि के नष्ट हो जाने पर, जन्म मरण की परंपरा रूप संसार के उत्पादन की सामर्थ्य शेष कर्मों में नहीं रहने से उन कर्मों का सत्त्व असत्त्व के समान हो जाता है। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1064-1070 )।
- मोहनीय कर्म सामान्य का लक्षण
- दर्शन मोहनीय निर्देश
- दर्शन मोह सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/3/379/1 दर्शनमोहस्य तत्त्वार्थाश्रद्धानम्।...तदेवं लक्षणं कार्यं− ‘प्रक्रियते प्रभवत्यस्या इति प्रकृतिः’। = तत्त्वार्थ श्रद्धान न होने देना दर्शनमोह की प्रकृति है। इस प्रकार का कार्य किया जाता है अर्थात् जिससे होता है वह प्रकृति है। ( राजवार्तिक/8/3/4/567/4 ); (और भी देखें मोह - 1)।
धवला 6/1, 9-1, 21/38/3 दंसणं अत्तागम - पत्थेसु रुई पच्चओ सद्धा फोसणमिदि एयट्ठो तं मोहेदि विवरीयं कुणदि त्ति दंसणमोहणीयं। जस्स कम्मस्स उदएण अणत्ते अत्तबुद्धी, अणागमे आगमबुद्धी, अपयत्थे पयत्थबुद्धी, अत्तागमपयत्थेसु सद्धाए अत्थिरत्तं, दोसु वि सद्धा वा होदि तं दंसणमोहणीयमिदि उत्तं होदि। =- दर्शन, रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा और स्पर्शन, ये सब एकार्थवाचनक नाम हैं। आप्त या आत्मा में, आगम और पदार्थों में रुचि या श्रद्धा को दर्शन कहते हैं। उस दर्शन को जो मोहित करता है अर्थात् विपरीत कर देता है, उसे दर्शन मोहनीय कर्म कहते हैं। ( धवला 13/5, 5, 91/357/13 )।
- जिस कर्म के उदय से अनाप्त में आप्तबुद्धि और अपदार्थ में पदार्थ बुद्धि होती है; अथवा आप्त आगम और पदार्थों में श्रद्धान की अस्थिरता होती है; अथवा दोनों में भी अर्थात् आप्त-अनाप्त में, आगम-अनागम में और पदार्थ-अपदार्थ में श्रद्धा होती है, वह दर्शन मोहनीय कर्म है, यह अर्थ कहा गया है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1005 एवं च सति सम्यक्त्वे गुणे जीवस्य सर्वतः। तं मोहयति यत्कर्म दृङ्मोहाख्यं तदुच्यते।1005। = इसी तरह जीव के सम्यक्त्व नामक गुण के होते हुए जो कर्म उस सम्यक्त्व गुण को सर्वतः मूर्च्छित कर देता है, उसे दर्शन मोहनीय कर्म कहते हैं।
- दर्शन मोहनीय के भेद
षट्खण्डागम 6/1, 9-1/सूत्र 21/38 जं तं दंसणमोहणीयं कम्मं तं बंधादो एयविहं, तस्स संतकम्मंपुणतिविहं सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं चेदि।21। = जो दर्शनमोहनीय कर्म है, वह बंध की अपेक्षा एक प्रकार का है, किंतु उसका सत्कर्म तीन प्रकार का है-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व।21। (षट्खण्डागम 13/5, 5/सूत्र 92-93/358); (मू. आ./1227); ( तत्त्वार्थसूत्र/8/9 ); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/4 गाथा व उसकी मूल व्याख्या); ( सर्वार्थसिद्धि/2/3/152/8 ); ( राजवार्तिक/2/3/1/104/16 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/25/17/9; 33/27/18 ); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/986 )।
- दर्शनमोह की तीनों प्रकृतियों के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/9/385/5 यस्योदयात्सर्वज्ञप्रणीतमार्गपराङ्मुखस्तत्त्वार्थश्रद्धाननिरुत्सुको हिताहितविचारासमर्थो मिथ्यादृष्टिर्भवति तन्मिथ्यात्वम्। तदेव सम्यक्त्वं शुभपरिणामनिरुद्धस्वरसं यदौदासीन्येनावस्थितमात्मनः श्रद्धानं न निरुणद्धि, तद्वेद्यमानः पुरुषः सम्यग्दृष्टिरित्यभिधीयते। तदेव मिथ्यात्वं प्रक्षालनविशेषात्क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रववत्सामिशुद्धस्वरसं तदुभयमिथ्याख्यायते सम्यङ्मिथ्यात्वमिति यावत्। यस्योदयादात्मनोऽर्धशुद्धमदकोद्रवौदनोपयोगापादितमिश्रपरिणामवदुभयात्मको भवति परिणामः। =- जिसके उदय से जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थों के श्रद्धान करने में निरुत्सुक, हिताहित का विचार करने में असमर्थ ऐसा मिथ्यादृष्टि होता है, वह मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय है।
- वही मिथ्यात्व जब शुभ परिणामों के कारण अपने स्वरस (विपाक) को रोक देता है और उदासीन रूप से अवस्थित रहकर आत्मा के श्रद्धान को नहीं रोकता है, तब सम्यक्त्व (सम्यक्प्रकृति) है। इसका वेदन करने वाला पुरुष सम्यग्दृष्टि कहा जाता है।
- वही मिथ्यात्व प्रक्षालन विशेष के कारण क्षीणाक्षीण मदशक्ति वाले कोदों के समान अर्धशुद्ध स्वरसवाला होने पर तदुभय या सम्यग्मिथ्यात्व कहा जाता है। इसके उदय से अर्धशुद्ध मदशक्ति वाले कोदों और ओदन के उपयोग से प्राप्त हुए मिश्रपरिणाम के समान उभयात्मक परिणाम होता है। ( राजवार्तिक/8/9/2/574/3 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/19 ); (और भी देखें आगे शीर्षक नं - 2.4)।
- तीनों प्रकृतियों में अंतर
धवला 6/1, 9-1, 21/39/1 अत्तागम-पदत्थसद्धाए जस्सोदएण सिथिलत्तं होदि, तं सम्मत्तं।...जस्सोदएण अत्तागम-पयत्थेसु असद्धा होदि, तं मिच्छत्तं। जस्सोदएण अत्तगमपयत्थेसु तप्पडिवक्खेसु य अक्कमेण सद्धा उप्पज्जदि तं सम्मामिच्छत्तं। धवला 6/1, 9-8, 7/235/1 मिच्छत्ताणुभागादो सम्मामिच्छत्ताणुभागो अणंतगुणहीणो, तत्ते सम्मत्ताणुभागो अणंतगुणहीणो त्ति पाहुड़सुत्ते णिद्दिट्ठादो। =- जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम व पदार्थों की श्रद्धा में शिथिलता (व अस्थिरता) होती है वह सम्यक्त्व प्रकृति है। जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम और पदार्थों में अश्रद्धा होती है, वह मिथ्यात्व प्रकृति है। जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम और पदार्थों, तथा उनके प्रतिपक्षियों में अर्थात् कुदेव, कुशास्त्र और कुतत्त्वों में, युगपत् श्रद्धा उत्पन्न होती है वह सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति है। ( धवला 13/5, 5, 93/358/10; 359/3 )।
- ‘मिथ्यात्व कर्म के अनुभाग से सम्यग्मिथ्यात्व कर्म का अनुभाग अनंतगुणा हीन होता है और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के अनुभाग से सम्यक्त्व प्रकृति का अनुभाग अनंतगुणा हीन होता है’, ऐसा प्राभृतसूत्र अर्थात् कषायप्राभृत के चूर्णिसूत्रों में निर्देश किया गया है। (देखें अनुभाग - 4.5.2)। (और भी देखें अल्पबहुत्व - 3.9)।
- एक दर्शनमोह का तीन प्रकार निर्देश क्यों ?
धवला 13/5, 5, 93/358/7 कधं बंधकाले एगविहं मोहणीयं संतावत्थाए तिविहं पडिवज्जदे। ण एस दोसो, एक्कस्सेव कोद्दवस्स दलिज्जमाणस्स एगकाले एगक्रियाविसेसेण तंदुलद्धतंदुल-कोद्दवभावुवलंभादो। होदु तत्थ तथाभावो सकिरियजंतसंबंधेण। ण एत्थ वि अणियट्ठिकरणसहिजीवसंबंधेण एगविहस्स मोहणीयस्स तघाविहभाविरोधादो। = प्रश्न- जो मोहनीयकर्म बंध काल में एक प्रकार का है, वह सत्त्वावस्था में तीन प्रकार का कैसे हो जाता है ?
उत्तर−यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दला जाने वाला एक ही प्रकार का कोदों द्रव्य एक काल में एक क्रियाविशेष के द्वारा चावल, आधे चावल और कोदों, इन तीन अवस्थाओं को प्राप्त होता है। उसी प्रकार प्रकृत में भी जानना चाहिए। ( धवला 6/1, 9-1, 21/38/7 )।
प्रश्न−वहाँ तो क्रिया युक्त जाँते (चक्की) के संबंध से उस प्रकार का परिणमन भले ही हो जाओ, किंतु यहाँ वैसा नहीं हो सकता।
उत्तर−नहीं, क्योंकि यहाँ पर भी अनिवृत्तिकरण सहित जीव के संबंध से एक प्रकार के मोहनीय का तीन प्रकार परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है।
- मिथ्यात्व प्रकृति में से भी मिथ्यात्वकरण कैसा ?
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/26/19/1 मिथ्यात्वस्य मिथ्यात्वकरणं तु अतिस्थापनावलिमात्रं पूर्वस्थितावूनितमित्यर्थः। = प्रश्न−मिथ्यात्व तो था ही, उसको मिथ्यात्वरूप क्या किया ?
उत्तर−पहले जो स्थिति थी उसमें से अतिस्थापनावली प्रमाण घटा दिया। अर्थात् असंख्यातगुणा हीन अनुक्रम से सर्व द्रव्य के तीन खंड कर दिये। उनमें से जो पहले सबसे अधिक द्रव्यखंड है वह ‘मिथ्यात्व’ है ऐसा अभिप्राय है। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/704/1141/13 )।
- सम्यक्प्रकृति को ‘सम्यक्’ व्यपदेश क्यों ?
धवला 6/1, 9-1, 21/39/2 कधं तस्स सम्मत्तववऐसो। सम्मत्तसहचरिदोदयत्तादो उवयारेण सम्मत्तमिदि उच्चदे। = प्रश्न−इस प्रकृति का ‘सम्यक्त्व’ ऐसा नाम कैसे हुआ ?
उत्तर−सम्यग्दर्शन के सहचरित उदय होने के कारण उपचार से ‘सम्यक्त्व’ ऐसा नाम कहा जाता है। ( धवला 1/1, 1, 146/398/2 ); ( धवला 13/5, 5, 93/358/11 )।
- सम्यक्त्व व मिथ्यात्व दोनों की युगपत् वृत्ति कैसे ?
धवला 13/5, 5, 93/359/2 कधं दोण्णं विरुद्धाणं भावाणमक्कमेण एयजीवदव्वम्हि वुत्ती । ण, दोण्णं संजोगस्स कधंचि जच्चंतरस्स कम्मट्ठवणस्सेव ( ?) वुत्तिविरोहाभावादो। = प्रश्न−सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप इन दो विरुद्ध भावों की एक जीव द्रव्य में एक साथ वृत्ति कैसे हो सकती है ?
उत्तर−नहीं, क्योंकि...( ?) क्षीणाक्षीण मदशक्ति युक्त कोदों, के समान उक्त दोनों भावों के कथंचित् जात्यंतरभूत संयोग के होने में कोई विरोध नहीं है। (विशेष देखें मिश्र - 2.9)।
- दर्शनमोहनीय के बंध योग्य परिणाम
तत्त्वार्थसूत्र/6/13 केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य। = केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव है। ( तत्त्वसार/4/27 )।
तत्त्वसार/4/28 मार्गसंदूषणं चैव तथैवोन्मार्गदेशनम्। = उपरोक्त के अतिरिक्त सत्य मोक्षमार्ग को दूषित ठहराना और असत्य मोक्षमार्ग को सच्चा बताना ये भी दर्शनमोह के कारण हैं।
- दर्शन मोह सामान्य का लक्षण
- चारित्रमोहनीय निर्देश
- चारित्र मोहनीय सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/3/379/2 चारित्रमोहस्यासंयमः। = असंयमभाव चारित्रमोह की प्रकृति है। ( राजवार्तिक/8/3/4/597/4 )।
धवला 6/1, 9-1, 22/22/40/5 पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रम्। घादिकम्माणि पावं। तेसिं किरिया मिच्छत्तसंजमकसाया। तेसिमभावो चारित्तं। तं मोहेइ आवारेदि त्ति चारित्तमोहणीयं। = पापरूप क्रियाओं की निवृत्ति को चारित्र कहते हैं। घातिया कर्मों को पाप कहते हैं। मिथ्यात्व असंयम और कषाय, ये पाप की क्रियाएँ हैं। इन पाप क्रियाओं के अभाव को चारित्र कहते हैं। उस चारित्र को जो मोहित करता है अर्थात् आच्छादित करता है, उसे चारित्रमोहनीय कहते हैं। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1009 )।
धवला 13/5, 5, 92/358/1 रागभावो चरित्तं, तस्स मोहयं तप्पडिवक्खभावुप्याययं चारित्तमोहणीयं। = राग का न होना चारित्र है। उसे मोहित करने वाला अर्थात् उससे विपरीत भाव को उत्पन्न करने वाला कर्म चारित्रमोहनीय कहलाता है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/23 चरति चर्यतेऽनेनेति चरणमात्रं वा चारित्रं, तन्मोहयति मुह्यतेऽनेनेति चारित्रमोहनीयं। = जो आचरण करता अथवा जिसके द्वारा आचरण किया जाता है अथवा आचरणमात्र चारित्र है। उसको जो मोहित करता है अथवा जिसके द्वारा मोहित किया जाता है सो चारित्रमोहनीय है।
- चारित्रमोहनीय के भेद-प्रभेद
षट्खण्डागम 6/1, 9-1/सूत्र 22-24/40-45 जं तं चारित्तमोहणीयं कम्मं तं दुविहं, कषायवेदणीयं चेव णोकसायवेदणीयं चेव।22। जं तं कसायवेदणीयं कम्मं तं सोडसविहं, अणंताणुबंधिकोहमाणमायालोहं, अपच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोहं, पच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोहं, कोहसंजलणं, माणसंजलणं, मायासंजलणं, लोहसंजलणं चेदि।23। जं तं णोकसायवेदणीयं कम्मं तं णवविहं, इत्थिवेदं, पुरिसवेदं, णवुंसयवेदं, हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा चेदि।24। = जो चारित्रमोहनीय कर्म है वह दो प्रकार का है−कषायवेदनीय ओर नोकषायवेदनीय।22। = जो कषायवेदनीय कर्म है वह 16 प्रकार का है−अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, माना, माया, लोभ; क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और लोभसंज्वलन।23। = जो नोकषाय वेदनीय कर्म है वह नौ प्रकार का है−स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा।24। ( षट्खंडागम 13/5, 5/ सूत्र 94-96/359-361); (मू. आ./1226-1229); ( तत्त्वार्थसूत्र/8/9 ); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/4 व उसकी व्याख्या); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/26/19/3; 33/27/23 ); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1076-1077 )।
- कषाय व अकषायवेदनीय के लक्षण
धवला 13/5, 5, 94/359/7 जस्स कम्मस्स उदएण जीवो कसायं वेदयदि तं कम्मं कसायवेदणीयं णाम। जस्स कम्मस्स उदएण जीवो णोकसायं वेदयदि तं णोकसायवेदणीयं णाम। = जिस कर्म के उदय से जीव कषाय का वेदन करता है वह कषायवेदनीय कर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव नोकषाय का वेदन करता है, वह नोकषाय-वेदनीय कर्म है।
- चारित्रमोह की सामर्थ्य कषायोत्पादन में है स्वरूपाचरण विच्छेद में नहीं
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/श्लोक नं कार्यं चारित्रमोहस्य चारित्राच्च्युतिरात्मनः। नात्मदृष्टेस्तु दृष्टित्वान्न्यायादितरदृष्टिवत्।690। कषायाणामनुद्रेकश्चारित्रं तावदेव हि। नानुद्रेकः कषायाणां चारित्राच्युतिरात्मनः।692। अस्ति चारित्रमोहेऽपि शक्तिद्वैतं निसर्गतः। एकं चासंयतत्वं स्यात् कषायत्वमथापरम्।1131। यौगपद्य द्वयोरेव कषायासंयतत्वयोः। समं शक्तिद्वयस्योच्चैः कर्मणोऽस्य तथोदयात्।1137। = न्यायानुसार आत्मा को चारित्र से च्युत करना ही चारित्रमोह का कार्य है, किंतु इतर की दृष्टि के समान दृष्टि होने से शुद्धात्मानुभव से च्युत करना चारित्रमोह का कार्य नहीं है।690। निश्चय से जितना कषायों का अभाव है, उतना ही चारित्र है और जो कषायों का उदय है वही आत्मा का चारित्र से च्युत होना है।692। चारित्र मोह में स्वभाव से दो प्रकार की शक्तियाँ हैं−एक असंयतत्वरूप और दूसरी कषायत्वरूप।1131। इन दोनों कषाय व असंयतपने में युगपतता है, क्योंकि वास्तव में युगपत् उक्त दोनों ही शक्ति वाले इस कर्म का ही उस रूप से उदय होता है।1137।
- कषायवेदनीय के बंधयोग्य परिणाम
सर्वार्थसिद्धि/6/14/332/8 स्वपरकषायोत्पादनं तपस्विजनवृत्तदूषणं संक्लिष्टलिंगव्रतधारणादिः कषायवेदनीयस्यास्रवः। = स्वयं कषाय करना, दूसरों में कषाय उत्पन्न करना, तपस्वीजनों के चारित्र में दूषण लगाना, संक्लेश को पैदा करने वाले लिंग (वेष) और व्रत को धारण करना आदि कषायवेदनीय के आस्रव हैं।
राजवार्तिक/6/14/3/525/5 जगदनुग्रहतंत्रशीलव्रतभावितात्मतपस्विजनगर्हण-धर्मावध्वंसन-तदंतरायकरणशीलगुणदेशसंयतविरति-प्रच्यावनमधुमद्यमांसविरतचित्तविभ्रमापादन-वृत्तसंदूषण-संक्लिष्टलिंगव्रत-धारणस्वपरकषायोत्पादनादिलक्षणः कषायवेदनीयस्यास्रवः। = जगदुपकारी शीलव्रती तपस्वियों की निंदा, धर्मध्वंस, धर्म में अंतराय करना, किसी को शीलगुण देशसंयम और सकलसंयम से च्युत करना, मद्य-मांस आदि से विरक्त जीवों को उससे बिचकाना, चरित्रदूषण, संक्लेशोत्पादक व्रत और वेषों का धारण, स्व और पर में कषायों का उत्पादन आदि कषायवेदनीय के आस्रव के कारण हैं। - अकषायवेदनीय के बंधयोग्य परिणाम
राजवार्तिक/6/14/3/525/8 उत्प्रहासादीनाभिहासित्व-कंदर्पोपहसन-बहुग्रलापोपहासशीलता हास्यवेदनीयस्य। विचित्रपरक्रीडनपरसौ-चित्यावर्जन-बहुविधपीडाभाव-देशाद्यनौत्सुक्यप्रीतिसंजननादिः रति-वेदनीयस्य। परारतिप्रादुर्भावनरतिविनाशनपापशीलसंसर्गताकुशल-क्रियाप्रोत्साहनादिः अरतिवेदनीयस्य। स्वशोकामोदशोचन-परदुःखाविष्करण-शोकप्लुताभिनंदनादिः शोकवेदनीयस्य। स्वयंभयपरिणाम-परभयोत्पादन-निर्दयत्व-त्रासनादिर्भयवेदनीयस्य। सद्धर्मापन्नचतुर्वर्णविशिष्टवर्गकुलक्रियाचारप्रवणजुगुप्सा-परिवाद-शीलत्वादिर्जुगुप्सावेदनीयस्य। प्रकृष्टक्रोधपरिणामातिमानितेर्ष्याव्यापारालीकाभिधायिता-तिसंधानपरत्व-प्रवृद्धराग-परांगनागमनादर-वामलोचनाभावाभिष्-वंगतादिः स्त्रीवेदस्य। स्तोकक्रोधजैह्य-निवृत्त्यनुत्सिक्तत्वा-लोभभावरंगनासमवायाल्परागत्व-स्वदार-संतोषेर्ष्याविशेषोपरमस्नानगंध-माल्याभरणानादरादिः पुंवेदनीयस्य। प्रचुरक्रोधमानमायालोभपरिणाम-गुह्येंद्रियव्यपरोपणस्त्रीपुंसानंगव्यसनित्व शीलव्रतगुणधारिप्रव्रज्या-श्रितप्रम(मै)थुन-परांग-नावस्कंदनरागतीव्रानाचारादिर्नपुंसकवेदनीयस्य। = उत्प्रहास, दीनतापूर्वक हँसी, कामविकार पूर्वक हँसी, बहु-प्रलाप तथा हर एक की हँसी मजाक करना हास्यवेदनीय के आस्रव के कारण हैं। विचित्र क्रीड़ा, दूसरे के चित्त को आकर्षण करना, बहुपीड़ा, देशादि के प्रति अनुत्सुकता, प्रीति उत्पन्न करना रतिवेदनीय के आस्रव के कारण हैं। रतिविनाश, पापशील व्यक्तियों की संगति, अकुशल क्रिया को प्रोत्साहन देना आदि अरतिवेदनीय के आस्रव के कारण हैं। स्वशोक, प्रीति के लिए पर का शोक करना, दूसरों को दुःख उत्पन्न करना, शोक से व्याप्त का अभिनंदन आदि शोकवेदनीय के आस्रव के कारण हैं। स्वयं भयभीत रहना, दूसरों को भय उत्पन्न करना, निर्दयता, त्रास, आदि भयवेदनीय के आस्रव के कारण हैं। धर्मात्मा चतुर्वर्ण विशिष्ट वर्ग कुल आदि की क्रिया और आचार में तत्पर पुरुषों से ग्लानि करना, दूसरे की बदनामी करने का स्वभाव आदि जुगुप्सावेदनीय के आस्रव के कारण हैं। अत्यंत क्रोध के परिणाम, अतिमान, अत्यंत ईर्ष्या, मिथ्याभाषण, छल कपट, तीव्रराग, परांगनागमन, स्त्रीभावों में रुचि आदि स्त्रीवेद के आस्रव के कारण हैं। मंदक्रोध, कुटिलता न होना, अभिमान न होना, निर्लोभ भाव, अल्पराग, स्वदारसंतोष, ईर्ष्या-रहित भाव, स्नान, गंध, माला, आभरण आदि के प्रति आदर न होना आदि पुंवेद के आस्रव के कारण हैं। प्रचुर क्रोध मान माया लोभ, गुप्त इंद्रियों का विनाश, स्त्री पुरुषों में अनंगक्रीड़ा का व्यसन, शीलव्रत गुणधारी और दीक्षाधारी पुरुषों को बिचकाना, परस्त्री पर आक्रमण, तीव्र राग, अनाचार आदि नपुंसकवेद के आस्रव के कारण हैं। ( सर्वार्थसिद्धि/6/24/332/9 )।
- चारित्र मोहनीय सामान्य का लक्षण
पुराणकोष से
आठ कर्मों में चौथा कर्म । इसकी अट्ठाईस प्रकृतियों होती हैं । मूलत: इसके दो भेद हैं― दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । इसमें दर्शनमोहनीय की तीन उत्तर प्रकृतियां है― मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व । चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं― नोकषाय और कषाय । इसमें हास्य रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये नौ नोकषाय हैं । अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से कषाय के मूल में चार भेद है । अनंतानुबंधी कषाय सम्यग्दर्शन तथा स्वरूपाचरण चारित्र का घात करती है । अप्रत्याख्यानावरण हिंसा आदि रूप परिणतियों का एक देश त्याग नहीं होने देती । प्रत्याख्यानावरण से जीव सकल संयमी नहीं हो पाता तथा संज्वलन यथाख्यातचारित्र का उद्भव नहीं होने देनी इसकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर तथा जघन्य स्थित अंतर्मुहूर्त प्रमाण होती है । हरिवंशपुराण - 58.216-221, 231-241, वीरवर्द्धमान चरित्र 16.157, 160