वर्गणा: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #1 | भेद व लक्षण]]</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[ #1.1 | वर्गणा सामान्य का लक्षण । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.2 | प्रथम द्वितीय आदि वर्गणा के लक्षण ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.3 | द्रव्य क्षेत्र काल वर्गणा का निर्देश व लक्षण ।]] <br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.4 | वर्गणा के 23 भेद ।]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.5 | आहार आदि पाँच वर्गणाओं के लक्षण । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.6 | ग्राह्य अग्राह्य वर्गणाओं के लक्षण ।]] <br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.7 | ध्रुव, ध्रुव शून्य व सांतर निरंतर वर्गणाओं के लक्षण ।]] <br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.8 | प्रत्येक शरीर व अन्य वर्गणाओं के लक्षण ।]] <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> <strong> [[ #2 | वर्गणा निर्देश ]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[ #2.1 | वर्गणाओं में प्रदेश व रसादि का निर्देश । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[ #2.2 | प्रदेशों की क्रमिक वृद्धि द्वारा वर्गणाओं की उत्पत्ति । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[#2.3 | ऊपर व नीचे की वर्गणाओं के भेद व संघात से वर्गणाओं की उत्पत्ति । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[#2.4 | पाँच वर्गणाएँ ही व्यवहार योग्य हैं अन्य नहीं । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[ #2.5 | अव्यवहार्य भी अन्य वर्गणाओं का कथन क्यों । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[ #2.6 | शरीरों व उनकी वर्गणाओं में अंतर । ]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> [[ #2.7 | वर्गणाओं में जाति भेद संबंधी विचार । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[ #2.7.1 | वर्गणाओं में जाति भेद निर्देश ।]] <br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[ #2.7.2 | तीनों शरीरों की वर्गणाओं में कथंचित् भेदाभेद ।]] <br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[ #2.7.3 | आठों कर्मों की वर्गणाओं में कथंचित् भेदाभेद । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> कार्मण वर्गणा एक | <li class="HindiText"> कार्मण वर्गणा एक ही बार आठ कर्म क्यों नहीं हो जाती? - देखें [[ बंध#5.2 | बंध - 5.2 ]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[ #2.7.4 | प्रत्येक शरीर वर्गणा अपने से पहले व पीछे वाली वर्गणाओं से उत्पन्न नहीं होती । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[ #2.8 | ऊपर व नीचे की वर्गणाओं में परस्पर संक्रमण की संभावना व समन्वय । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[ #2.9 | भेद संघात व्यपदेश का स्पष्टीकरण । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> योग वर्गणा | <li class="HindiText"> योग वर्गणा - देखें [[ योग#6 | योग - 6 ]]। </li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1"> भेद व लक्षण <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> वर्गणा सामान्य का लक्षण </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/5/4/107/8 </span><span class="SanskritText"> तथैव समगुणाः पंक्तीकृताः वर्गा वर्गणा ।</span> = <span class="HindiText">इन सम गुण वाले समसंख्या तक वर्गों के समूह को (देखें [[ वर्ग ]]) वर्गणा कहते हैं । </span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/2/5/4/107/8 </span><span class="SanskritText"> तथैव समगुणाः पंक्तीकृताः वर्गा वर्गणा ।</span> = <span class="HindiText">इन सम गुण वाले समसंख्या तक वर्गों के समूह को (देखें [[ वर्ग ]]) वर्गणा कहते हैं । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 5/4-22/473/344/8 </span><span class="PrakritText"> एवमेगेगसरिसधणियपरमाणू घेत्तूण वण्णच्छेदणए करिय दाहिणपासे कंडुज्जुवपंतिरयणा कायव्वा जाव अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तखरिसधणियपरमाणू समत्त त्ति । एदेसिं सव्वेसिं पि वग्गणा त्ति सण्णा । </span>= <span class="HindiText">इस प्रकार (देखें [[ वर्ग ]]) समान धन वाले एक-एक परमाणु को लेकर बुद्धि के द्वारा छेद करके (छेद करने पर जो उतने-उतने ही अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं, उन सबको) दक्षिण पार्श्व में बाण के समान ॠजु पंक्ति में रचना करते जाओ और ऐसा तब तक करो जब तक अभव्य राशि से अनंत गुणे सिद्धराशि के अनंतवें भाग प्रमाण (वे सबके सब) समान धन वाले परमाणु समाप्त हों । उन सब वर्गों की वर्गणा संज्ञा है । | <span class="GRef"> कषायपाहुड़ 5/4-22/473/344/8 </span><span class="PrakritText"> एवमेगेगसरिसधणियपरमाणू घेत्तूण वण्णच्छेदणए करिय दाहिणपासे कंडुज्जुवपंतिरयणा कायव्वा जाव अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तखरिसधणियपरमाणू समत्त त्ति । एदेसिं सव्वेसिं पि वग्गणा त्ति सण्णा । </span>= <span class="HindiText">इस प्रकार (देखें [[ वर्ग ]]) समान धन वाले एक-एक परमाणु को लेकर बुद्धि के द्वारा छेद करके (छेद करने पर जो उतने-उतने ही अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं, उन सबको) दक्षिण पार्श्व में बाण के समान ॠजु पंक्ति में रचना करते जाओ और ऐसा तब तक करो जब तक अभव्य राशि से अनंत गुणे सिद्धराशि के अनंतवें भाग प्रमाण (वे सबके सब) समान धन वाले परमाणु समाप्त हों । उन सब वर्गों की वर्गणा संज्ञा है । <span class="GRef">( धवला 12/4, 2, 7, 199/93/8 )</span> । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/52 </span><span class="PrakritText">वर्गसमूहलक्षणा वर्गणा ।</span> = <span class="HindiText">वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/52 </span><span class="PrakritText">वर्गसमूहलक्षणा वर्गणा ।</span> = <span class="HindiText">वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/मं.प्र./59/153/14 </span> । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> प्रथम द्वि. आदि वर्गणा के लक्षण </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 12/4, 2, 7, 204/145/9 </span><span class="PrakritText">वग्गणंतरादो अविभागपडिच्छेदुत्तरभावो पढमफद्दयआदिवग्गणा होदि । तत्ते पहुडि णिरंतरं अविपडिच्छेदुत्तरकमेण वग्गणओ गंतूण पढमफद्दयस्स चरिमवग्गणा होदि । </span>= <span class="HindiText">वर्गणांतर से एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद से अधिक अनुभाग का नाम प्रथम स्पर्धक की आदि वर्गणा है । उससे लेकर निरंतर एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद अधिकता | <span class="GRef"> धवला 12/4, 2, 7, 204/145/9 </span><span class="PrakritText">वग्गणंतरादो अविभागपडिच्छेदुत्तरभावो पढमफद्दयआदिवग्गणा होदि । तत्ते पहुडि णिरंतरं अविपडिच्छेदुत्तरकमेण वग्गणओ गंतूण पढमफद्दयस्स चरिमवग्गणा होदि । </span>= <span class="HindiText">वर्गणांतर से एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद से अधिक अनुभाग का नाम प्रथम स्पर्धक की आदि वर्गणा है । उससे लेकर निरंतर एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद अधिकता के क्रम से वर्गणाएँ जाकर प्रथम स्पर्धक की अंतिम वर्गणा होती है (विशेष देखें [[ स्पर्धक ]]) । <br /> | ||
<span class="GRef"> लब्धिसार/भाषा/223/277/9 </span> ऐसी (जघन्य वर्गरूप) जेती परमाणू होंइ तिनि के समूह का नाम प्रथम | <span class="GRef"> लब्धिसार/भाषा/223/277/9 </span> ऐसी (जघन्य वर्गरूप) जेती परमाणू होंइ तिनि के समूह का नाम प्रथम वर्गणा है । बहुरि यातैं द्वितीयादि वर्गणानिधिपे एक-एक चय घटता क्रमकरि परमाणूनिका प्रमाण है (विशेष देखें [[ स्पर्धक ]]) । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> द्रव्य क्षेत्र काल वर्गणा निर्देश व लक्षण </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम/14/5, 6/सूत्र 71/51 </span> <span class="PrakritText">वग्गणणिक्खेवे त्ति छव्वि हे णिक्खवे-णामवग्गणाट्ठवणवग्गणा दव्वग्गणा खेत्तवग्गणा कालवग्गणा भाववग्गणा चेदि ।71। </span | <span class="GRef"> षट्खंडागम/14/5, 6/सूत्र 71/51 </span> <span class="PrakritText">वग्गणणिक्खेवे त्ति छव्वि हे णिक्खवे-णामवग्गणाट्ठवणवग्गणा दव्वग्गणा खेत्तवग्गणा कालवग्गणा भाववग्गणा चेदि ।71। </span> | ||
<span class="GRef"> धवला 14/5, 6, 71/52/4 </span><span class="PrakritText">तव्वीदंरित्त दव्ववग्गणा दुविहा - कम्मवग्गणा णोकम्मवग्गणा चेदि । तत्थ कम्मवग्गणा णाम अट्ठकम्मक्खंधवियप्पा । सेसएक्कोणवीसवग्गणाओणेकम्मवग्गणओ । एगागासोगाहणप्पहुडिपदेमुत्तरादिकमेण जाव देसूणघणलोगे त्ति ताव एदाओ खेत्तवग्गणाओ । कम्मदव्वं पडुच्च समयाहियावलियप्हुडि जाव कम्मट्ठिदि त्ति णोकम्मदव्वं पहुच्च एगसमयादि जाव असंखेज्जा लोगा त्ति ताव एदाओ कालवग्गणओ ।.... ओदइयादि पंचण्णं भावाणं जे भेदा ते णोआगम भाववग्गणा । </span>= <span class="HindiText">वर्गणा निक्षेप का प्रकरण है । वर्गणा निक्षेप चार प्रकार का है - नाम वर्गणा, स्थापना वर्गणा, द्रव्य वर्गणा, क्षेत्र वर्गणा, काल वर्गणा और भाव वर्गणा [इनमें से अन्य सब वर्गणाओं के लक्षण निक्षेपों वत् जानें - (देखें [[ निक्षेप ]])] तद्व्यतिरिक्त द्रव्यवर्गणा दो प्रकार की है - कर्म वर्गणा और नोकर्म वर्गणा । उनमें से आठ प्रकार के कर्म स्कंधों के भेद कर्म वर्गणा हैं, तथा शेष उन्नीस प्रकार की वर्गणाएँ (देखें [[ अगला शीर्षक ]]) नोकर्म वर्गणाएँ हैं । एक आकाश प्रदेश प्रमाण अवगाहना से लेकर प्रदेशोत्तर आदि के क्रम से कुछ कम घनलोक तक ये सब क्षेत्र वर्गणाएँ हैं । कर्म द्रव्य की अपेक्षा एक समय अधिक एक आवली से लेकर उत्कृष्ट कर्मस्थिति तक और नोकर्म द्रव्य की अपेक्षा एक समय से लेकर असंख्यात लोक प्रमाण काल तक ये सब काल वर्गणाएँ हैं ।...... औदयिकादि पाँच भावों के जो भेद हैं वे सब नोआगमभाव वर्गणा हैं । <br /> | <span class="GRef"> धवला 14/5, 6, 71/52/4 </span><span class="PrakritText">तव्वीदंरित्त दव्ववग्गणा दुविहा - कम्मवग्गणा णोकम्मवग्गणा चेदि । तत्थ कम्मवग्गणा णाम अट्ठकम्मक्खंधवियप्पा । सेसएक्कोणवीसवग्गणाओणेकम्मवग्गणओ । एगागासोगाहणप्पहुडिपदेमुत्तरादिकमेण जाव देसूणघणलोगे त्ति ताव एदाओ खेत्तवग्गणाओ । कम्मदव्वं पडुच्च समयाहियावलियप्हुडि जाव कम्मट्ठिदि त्ति णोकम्मदव्वं पहुच्च एगसमयादि जाव असंखेज्जा लोगा त्ति ताव एदाओ कालवग्गणओ ।.... ओदइयादि पंचण्णं भावाणं जे भेदा ते णोआगम भाववग्गणा । </span>= <span class="HindiText">वर्गणा निक्षेप का प्रकरण है । वर्गणा निक्षेप चार प्रकार का है - नाम वर्गणा, स्थापना वर्गणा, द्रव्य वर्गणा, क्षेत्र वर्गणा, काल वर्गणा और भाव वर्गणा [इनमें से अन्य सब वर्गणाओं के लक्षण निक्षेपों वत् जानें - (देखें [[ निक्षेप ]])] तद्व्यतिरिक्त द्रव्यवर्गणा दो प्रकार की है - कर्म वर्गणा और नोकर्म वर्गणा । उनमें से आठ प्रकार के कर्म स्कंधों के भेद कर्म वर्गणा हैं, तथा शेष उन्नीस प्रकार की वर्गणाएँ (देखें [[#1.4|अगला शीर्षक ]]) नोकर्म वर्गणाएँ हैं । एक आकाश प्रदेश प्रमाण अवगाहना से लेकर प्रदेशोत्तर आदि के क्रम से कुछ कम घनलोक तक ये सब क्षेत्र वर्गणाएँ हैं । कर्म द्रव्य की अपेक्षा एक समय अधिक एक आवली से लेकर उत्कृष्ट कर्मस्थिति तक और नोकर्म द्रव्य की अपेक्षा एक समय से लेकर असंख्यात लोक प्रमाण काल तक ये सब काल वर्गणाएँ हैं ।...... औदयिकादि पाँच भावों के जो भेद हैं वे सब नोआगमभाव वर्गणा हैं । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> वर्गणा के 23 भेद </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 14/5, 6, 97/गाथा | <span class="GRef"> धवला 14/5, 6, 97/गाथा 7-8/117 </span><span class="PrakritText"> अणुसंखासंखेज्जा तधणता वग्गणा अगेज्झाओ । आहार-तेज-भासा-मण-कम्मइयध्रुयक्खंधा ।7 । सांतरणिरंतरेदरसुण्णा पत्तेयदेह ध्रुवसुण्णा । बादरणिगोदसुण्णा सुहुमा सुण्णा महाखंधो ।8।</span> = <span class="HindiText">अणु वर्गणा, संख्याताणु वर्गणा, असंख्याताणु वर्गणा, अनंताणु वर्गणा, आहार वर्गणा, अग्रहण वर्गणा, तेजस्वर्गणा, अग्रहण वर्गणा, भाषा वर्गणा, अग्रहण वर्गणा, मनो वर्गणा, अग्रहण वर्गणा, कार्मण शरीर वर्गणा, ध्रुवस्कंध वर्गणा, सांतरनिरंतर वर्गणा, ध्रुवशून्य वर्गणा, प्रत्येकशरीर वर्गणा, ध्रुवशून्य वर्गणा, बादरनिगोद वर्गणा, ध्रुवशून्य वर्गणा, सूक्ष्मनिगोद वर्गणा, ध्रुवशून्य वर्गणा और महास्कंध वर्गणा । ये तेईस वर्गणाएँ हैं ..... <span class="GRef">(षट्खण्डागम/14/5, 6 । सूत्र 76-97/54/117 तथा सूत्र 708-718/542-543)</span> । <span class="GRef">( धवला 13/5, 5, 82/351/11 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/594-595/1032 )</span> । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> आहारक आदि पाँच वर्गणाओं के लक्षण </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">षट्खण्डागम 14/5, 6/सूत्र पृष्ठ </span> <span class="PrakritText">ओरालिय-वेउव्विय-आहारसरीराणं जाणि दव्वाणि घेत्तूण ओरालियवेउव्विय-आहारसरीरत्तए परिणामेदूणं परिणमंति जीवा ताणि दव्वाणि आहारदव्ववग्गणा णाम (730/546) जाणि दव्वाणि घेत्तूण तेयासरीरत्तए पारणामेदूण परिणमति जीवा ताणि दव्वाणि तेजादव्ववग्गणा णाम । (737/549) । सच्चभासाए मोसभासाए सच्चमोसभासाए असच्चमोसभासाए जाणि दव्वाणि घेत्तूण सच्चभासत्तए मोसभासत्तए सच्चमोसभासत्तए असच्चमोसभासत्तए परिणामेदूण णिस्सारंति जीवा ताणि भासादव्ववग्गणा णाम । (744/550) । सच्चमणस्स मोसमणस्स सच्चमोसमणस्स असच्चमोसमणस्स जाणि दव्वाणि घेत्तूण सच्चमणत्तए मोसमणत्तए सच्चमोसमणत्तए जाणि दव्वाणि घेत्तूण सच्चमणत्तए मोसमणत्तए सच्चमोसमणत्तए असच्चमोसमणत्तए परिणामेदूण परिणमंति जीवा ताणि दत्तवाणि मणदव्ववग्गणा णाम । (751/552) । णाणावरणीयस्स दंसणावरणीयस्स वेयणीयस्स मोहणीयस्स आउअस्स णामस्स गोदस्स अंतराइयस्स जाणि दव्वाणि घेत्तूण णाणावरणीयत्तए दंसणावरणीयत्तए वेयणीयत्तए मोहणीयत्तए आउअत्तए णामत्तए गोदत्तए अंतराइयत्तए परिणामेदूण परिणामंति जीवा ताणि दव्वाणि कम्मइयदव्ववग्गणा णाम । (758/553) । </span>= <span class="HindiText">औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीरों के (योग्य) जिन द्रव्यों को ग्रहण कर औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर रूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, उन द्रव्यों की आहारद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (730/546) । जिन द्रव्यों को ग्रहणकर तैजस् शरीररूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, उन द्रव्यों की तैजस्द्रव्य वर्गणा संज्ञा है । (737/549) । सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोषभाषा और असत्यमोषभाषा के जिन द्रव्यों को ग्रहणकर सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोषभाषा और असत्यमोषभाषा रूप से परिणमाकर जीव उन्हें निकालते हैं उन द्रव्यों की भाषाद्रव्य वर्गणा संज्ञा है । (744/550) । सत्यमन, मोषमन, सत्यमोषमन और असत्यमोषमन के जिन द्रव्यों को ग्रहणकर सत्यमन, मोषमन, सत्यमोषमन और असत्यमोषमन रूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं उन द्रव्यों की मनोद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (751/552) । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय के जो द्रव्य हैं उन्हें ग्रहणकर ज्ञानावरण रूप से, दर्शनावरण रूप से, वेदनीय रूप से, मोहनीय रूप से, आयु रूप से, नाम रूप से, गोत्र रूप से और अंतराय रूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, अतः उन द्रव्यों की कार्मणद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (758/553) । </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 14/5, 6, 79-87/पृष्ठ/पंक्ति </span> <span class="PrakritText">ओरालियवेउव्वियआहारसरीर-पाओग्गपोग्गलक्खंधाणं आहारदव्ववग्गणा त्ति सण्णा । (59/10) । एसा सत्तमी वग्गणा । एदिस्से पोग्गलक्खंधा तेजइयसरीरपाओग्गा । (60/10) । भासादव्ववग्गणाए परमाणुपोग्गलक्खंधा चदुण्णं भासाणं पाओग्गा । पटह-भेरी-काहलब्भगज्जणादिसद्दाणं पि एसा चेव वग्गणा पाओग्गा । (61/10) । एसा एक्कारसमी वग्गणा । एदीए वग्गणाए दव्वमणणिव्वत्तणं करिदे । (62/14) । एसा तेरसमी वग्गणा । एदिस्स वग्गणाए पोग्गलक्खंधा अट्ठकम्मपाओग्गा । (63/14) । </span>= <span class="HindiText">औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर के योग्य पुद्गलस्कंधों की आहारद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (59/10) । यह सातवीं वर्गणा है । इसके पुद्गलस्कंध तैजस शरीर के योग्य होते हैं । (60/10) । भाषावर्गणा के परमाणु पुद्गलस्कंध चार भाषाओं के योग्य होते हैं । तथा ढोल, भेरो, नगारा और मेघ का गर्जन आदि शब्दों के भी योग्य ये ही वर्गणाएँ होती हैं । (61/10) । यह ग्यारहवीं वर्गणा है, इस वर्गणा से द्रव्यमन की रचना होती है । (62/14) । यह तेरहवीं वर्गणा है, इस वर्गणा के पुद्गलस्कंध आठ कर्मों के योग्य होते हैं । (63/14) । <br /> | <span class="GRef"> धवला 14/5, 6, 79-87/पृष्ठ/पंक्ति </span> <span class="PrakritText">ओरालियवेउव्वियआहारसरीर-पाओग्गपोग्गलक्खंधाणं आहारदव्ववग्गणा त्ति सण्णा । (59/10) । एसा सत्तमी वग्गणा । एदिस्से पोग्गलक्खंधा तेजइयसरीरपाओग्गा । (60/10) । भासादव्ववग्गणाए परमाणुपोग्गलक्खंधा चदुण्णं भासाणं पाओग्गा । पटह-भेरी-काहलब्भगज्जणादिसद्दाणं पि एसा चेव वग्गणा पाओग्गा । (61/10) । एसा एक्कारसमी वग्गणा । एदीए वग्गणाए दव्वमणणिव्वत्तणं करिदे । (62/14) । एसा तेरसमी वग्गणा । एदिस्स वग्गणाए पोग्गलक्खंधा अट्ठकम्मपाओग्गा । (63/14) । </span>= <span class="HindiText">औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर के योग्य पुद्गलस्कंधों की आहारद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (59/10) । यह सातवीं वर्गणा है । इसके पुद्गलस्कंध तैजस शरीर के योग्य होते हैं । (60/10) । भाषावर्गणा के परमाणु पुद्गलस्कंध चार भाषाओं के योग्य होते हैं । तथा ढोल, भेरो, नगारा और मेघ का गर्जन आदि शब्दों के भी योग्य ये ही वर्गणाएँ होती हैं । (61/10) । यह ग्यारहवीं वर्गणा है, इस वर्गणा से द्रव्यमन की रचना होती है । (62/14) । यह तेरहवीं वर्गणा है, इस वर्गणा के पुद्गलस्कंध आठ कर्मों के योग्य होते हैं । (63/14) । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> ग्राह्य अग्राह्य वर्गणाओं के लक्षण </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">षट्खण्डागम 14/5, 6/सूत्र/पृष्ठ </span> <span class="PrakritText">अग्गहणदव्ववग्गणा आहारदव्वमधिच्छिदा तेया दव्ववग्गणं ण पावदि ताणं दव्वाणमंतरे अगहण दव्ववग्गणा णाम । (733/548) । अगहणदव्ववग्गणा तेजादव्वमविच्छिदा भासादव्वं ण पावेदि ताणं दव्वाणमंतरे अगहणदव्ववग्गणा णाम । (740/549) । अग्गहणदव्ववग्गणा भासा दव्वमधिच्छिदा मणदव्वं ण पावेदि ताणं दव्वाणमंतरे अग्गहणदव्ववग्गणा णाम । (747/551) । अगहण दव्ववग्गणा (मण) दव्वमविच्छिदा कम्मइयदव्वं ण पावदि ताणं दव्वाणमंतरे अगहणदव्ववग्गणा णाम । (754/552) ।</span> =<span class="HindiText"> अग्रहण वर्गणा आहार द्रव्य से प्रारंभ होकर तैजसद्रव्य वर्गणा को नहीं प्राप्त होती है, अथवा तैजसद्रव्य वर्गणा से प्रारंभ होकर भाषा द्रव्य को नहीं प्राप्त होती है, अथवा भाषा द्रव्यवर्गणा से प्रारंभ होकर मनोद्रव्य को नहीं प्राप्त होती है, अथवा मनोद्रव्यवर्गणा से प्रारंभ होकर कार्मण द्रव्य को नहीं प्राप्त होती है । अतः उन दोनों द्रव्यों के मध्य में जो होती है उसकी अग्रहण द्रव्यवर्गणा संज्ञा है । <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> ध्रुव, ध्रुवशून्य व सांतर निरंतर वर्गणाओं के लक्षण </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 14/5, 6, 719/543/10 </span><span class="PrakritText">पंचण्णं सरीराणं जा गेज्झा सा गहणपाओग्गा णाम । जा पुण तासिमगेज्झा (सा) अगहण पाओग्गा णाम । </span>= <span class="HindiText">पाँच शरीरों के जो ग्रहण योग्य है वह ग्रहणप्रायोग्य कहलाती है । परंतु जो उनके ग्रहण योग्य नहीं है वह अग्रहणप्रायोग्य कहलाती है । | <span class="GRef"> धवला 14/5, 6, 719/543/10 </span><span class="PrakritText">पंचण्णं सरीराणं जा गेज्झा सा गहणपाओग्गा णाम । जा पुण तासिमगेज्झा (सा) अगहण पाओग्गा णाम । </span>= <span class="HindiText">पाँच शरीरों के जो ग्रहण योग्य है वह ग्रहणप्रायोग्य कहलाती है । परंतु जो उनके ग्रहण योग्य नहीं है वह अग्रहणप्रायोग्य कहलाती है । <span class="GRef">( धवला 14/5, 6, 82/61/3 )</span> । </span><br /> | ||
<span class="GRef">षट्खण्डागम 14/5, 6/सूत्र/पृष्ठ</span> <span class="PrakritText"> कम्मइयदव्ववग्गणाणमुवरि धुवक्खंधदव्ववग्गणा णाम । (88/63) । धुवक्खंधदव्व-वग्गणाणमुवरि सांतरणिरं तरदव्ववग्गणा णाम । (89/64) । सांतरणिरंतरदव्ववग्गणाणमुवरि धुवसुण्णवग्गणा णाम । (90/65) ।</span> = <span class="HindiText">कार्मण द्रव्यवर्गणाओं के ऊपर ध्रुवस्कंध द्रव्यवर्गणा है । (88/63) । ध्रुवस्कंध द्रव्यवर्गणाओं के ऊपर सांतरनिरंतर द्रव्यवर्गणा है । (89/64) । सांतर निरंतर द्रव्यवर्गणाओं के ऊपर ध्रुवशून्य वर्गणा है । (90/65) । </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 14/5, 6, 89-90/पृष्ठ/पंक्ति </span><span class="PrakritText"> धुवक्खंधणिद्देसो अंतदीवओ । तेण हेट्ठिम सव्ववग्गणओ धुवाओ चेव अंतरविरहिदाओ त्ति घेत्तव्वं । एत्तेप्पहुडि उवरि भण्णमाणसव्ववग्गणासु अगहणभावो णिरंतर मणुवट्टावेदव्वो । (64/1) । अंतरेण सह णिरंतरं गच्छदि त्ति सांतरणिरंतरदव्ववग्गणासण्णा एदिस्से अत्थाणुगया । (64/12) । एसा वि अगहणवग्गणा चेव, आहारतेजा-भासा-मण-कम्माणजोगत्तदो । (65/2) । अदीदाणागद वट्टमाणकालेसु एदेण सरूवेण परमाणुपोग्ग-लसंचयाभावादो धुवसुण्णदव्ववग्गणा त्ति अत्थाणुगया सण्णा । संपहि उक्कस्ससांतरणिरंतरदव्ववग्गणाए उवरि परमाणुत्तरो परमाणुपोग्गलक्खंधो तिसु वि कालेसु णत्थि । दुपदेसुत्तरो वि णत्थि । एवं तिपदेसुत्तरादिकमेण सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तमद्धाणं गंतूण पढमधुवसुण्णवग्गणाए उक्कस्सवग्गणा होदि ।... एसा सोलसमी वग्गणा । सव्वकालं सुण्णभावेण अवट्ठिदा । </span>= <span class="HindiText">यह ध्रुवस्कंध पद का निर्देश अंतर्दीपक है । इससे पिछली सब वर्गणाएँ ध्रुव ही हैं अर्थात् अंतर से रहित हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । यहाँ से लेकर आगे कही जाने वाली सब वर्गणाओं में अग्रहणपने की निरंतर अनुवृत्ति करनी चाहिए । (64/1) । जो वर्गणा अंतर के साथ निरंतर जाती है, उसकी सांतर-निरंतर द्रव्यवर्गणा संज्ञा है । यह सार्थक संज्ञा है । (64/12) । यह भी अग्रहण वर्गणा ही है; क्योंकि यह आहार, तैजस्, भाषा, मन और कर्म के अयोग्य है । (65/2) । अतीत, अनागत और वर्तमान काल में इस रूप से परमाणु पुद्गलों का संचय नहीं होता, इसलिए इसकी ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा यह सार्थक संज्ञा है । उत्कृष्ट सांतरनिरंतर द्रव्य वर्गणा के ऊपर एक परमाणु अधिक परमाणु पुद्गलस्कंध तीनों ही कालों में नहीं होता, दो प्रदेश अधिक भी नहीं होता, इस प्रकार तीन प्रदेश आदि के क्रम से सब जीवों से अनंतगुणे स्थान जाकर प्रथम ध्रुवशून्य द्रव्य वर्गणा संबंधी उत्कृष्ट वर्गणा होती है । यह सोलहवीं वर्गणा है जो सर्वदा शून्य रूप से अवस्थित है । </span><br /> | <span class="GRef"> धवला 14/5, 6, 89-90/पृष्ठ/पंक्ति </span><span class="PrakritText"> धुवक्खंधणिद्देसो अंतदीवओ । तेण हेट्ठिम सव्ववग्गणओ धुवाओ चेव अंतरविरहिदाओ त्ति घेत्तव्वं । एत्तेप्पहुडि उवरि भण्णमाणसव्ववग्गणासु अगहणभावो णिरंतर मणुवट्टावेदव्वो । (64/1) । अंतरेण सह णिरंतरं गच्छदि त्ति सांतरणिरंतरदव्ववग्गणासण्णा एदिस्से अत्थाणुगया । (64/12) । एसा वि अगहणवग्गणा चेव, आहारतेजा-भासा-मण-कम्माणजोगत्तदो । (65/2) । अदीदाणागद वट्टमाणकालेसु एदेण सरूवेण परमाणुपोग्ग-लसंचयाभावादो धुवसुण्णदव्ववग्गणा त्ति अत्थाणुगया सण्णा । संपहि उक्कस्ससांतरणिरंतरदव्ववग्गणाए उवरि परमाणुत्तरो परमाणुपोग्गलक्खंधो तिसु वि कालेसु णत्थि । दुपदेसुत्तरो वि णत्थि । एवं तिपदेसुत्तरादिकमेण सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तमद्धाणं गंतूण पढमधुवसुण्णवग्गणाए उक्कस्सवग्गणा होदि ।... एसा सोलसमी वग्गणा । सव्वकालं सुण्णभावेण अवट्ठिदा । </span>= <span class="HindiText">यह ध्रुवस्कंध पद का निर्देश अंतर्दीपक है । इससे पिछली सब वर्गणाएँ ध्रुव ही हैं अर्थात् अंतर से रहित हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । यहाँ से लेकर आगे कही जाने वाली सब वर्गणाओं में अग्रहणपने की निरंतर अनुवृत्ति करनी चाहिए । (64/1) । जो वर्गणा अंतर के साथ निरंतर जाती है, उसकी सांतर-निरंतर द्रव्यवर्गणा संज्ञा है । यह सार्थक संज्ञा है । (64/12) । यह भी अग्रहण वर्गणा ही है; क्योंकि यह आहार, तैजस्, भाषा, मन और कर्म के अयोग्य है । (65/2) । अतीत, अनागत और वर्तमान काल में इस रूप से परमाणु पुद्गलों का संचय नहीं होता, इसलिए इसकी ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा यह सार्थक संज्ञा है । उत्कृष्ट सांतरनिरंतर द्रव्य वर्गणा के ऊपर एक परमाणु अधिक परमाणु पुद्गलस्कंध तीनों ही कालों में नहीं होता, दो प्रदेश अधिक भी नहीं होता, इस प्रकार तीन प्रदेश आदि के क्रम से सब जीवों से अनंतगुणे स्थान जाकर प्रथम ध्रुवशून्य द्रव्य वर्गणा संबंधी उत्कृष्ट वर्गणा होती है । यह सोलहवीं वर्गणा है जो सर्वदा शून्य रूप से अवस्थित है । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5, 5, 82/351/16 </span><span class="PrakritText">एत्थ तेबीस वग्गणासु चदुसु धुवसुण्णवग्गणासु अवणिदासु एगूणवीसदिविधा पोग्गला होंति । पादेक्कमणंतभेदा । </span>=<span class="HindiText"> तेईस वर्गणाओं में से चार ध्रुवशून्य वर्गणाओं के निकाल देने पर उन्नीस प्रकार के पुद्गल होते हैं । और वे प्रत्येक अनंत भेदों को लिये हुए हैं । विशेषार्थ (शीर्षक सं. 1 के अनुसार जब तक वर्गणाओं में एक प्रदेश या परमाणु की वृद्धि का अटूट क्रम पाया जाता है, तब तक उनकी एक प्रदेशी व आहारक वर्गणा आदि विशेष संज्ञाएँ कही जाती हैं । ध्रुवस्कंध वर्गणा तक यह अटूट क्रम चलता रहता है । तत्पश्चात् एक वृद्धिक्रम भंग हो जाता है । एक प्रदेश वृद्धि के कुछ स्थान जाने के पश्चात् एकदम संख्यात या असंख्यात प्रदेश अधिक वाली ही वर्गणा प्राप्त होती है, उससे कम की नहीं । पुनः एक प्रदेश अधिक वाली और पुनः संख्यात आदि प्रदेश अधिक वाली वर्गणाएँ जबतक प्राप्त होती रहती हैं, तब तक उनकी सांतरनिरंतर वर्गणा संज्ञा है, क्योंकि वे कुछ-कुछ अंतराल छोड़कर प्राप्त होती हैं । तत्पश्चात् एक साथ अनंत प्रदेश अधिक वाली वर्गणा ही उपलब्ध होती हैं । उससे कम प्रदेशों वाली वर्गणा तीन काल में भी उपलब्ध नहीं होती । इसलिए यह स्थान वर्गणाओं से सर्वथा शून्य रहता है । जहाँ-जहाँ भी प्रदेश वृद्धिकाल में ऐसा शून्य स्थान प्राप्त होता है, वहाँ-वहाँ ही ध्रुव शून्य वर्गणा का निर्देश किया गया है । यही कारण है कि इन 4 ध्रुव शून्य वर्गणाओं को पुद्गलरूप नहीं गिना है । ये सत् रूप नहीं हैं । शेष 19 वर्गणाएँ सत् रूप होने से पुद्गल संज्ञा को प्राप्त हैं ) । <br /> | <span class="GRef"> धवला 13/5, 5, 82/351/16 </span><span class="PrakritText">एत्थ तेबीस वग्गणासु चदुसु धुवसुण्णवग्गणासु अवणिदासु एगूणवीसदिविधा पोग्गला होंति । पादेक्कमणंतभेदा । </span>=<span class="HindiText"> तेईस वर्गणाओं में से चार ध्रुवशून्य वर्गणाओं के निकाल देने पर उन्नीस प्रकार के पुद्गल होते हैं । और वे प्रत्येक अनंत भेदों को लिये हुए हैं । विशेषार्थ (शीर्षक सं. 1 के अनुसार जब तक वर्गणाओं में एक प्रदेश या परमाणु की वृद्धि का अटूट क्रम पाया जाता है, तब तक उनकी एक प्रदेशी व आहारक वर्गणा आदि विशेष संज्ञाएँ कही जाती हैं । ध्रुवस्कंध वर्गणा तक यह अटूट क्रम चलता रहता है । तत्पश्चात् एक वृद्धिक्रम भंग हो जाता है । एक प्रदेश वृद्धि के कुछ स्थान जाने के पश्चात् एकदम संख्यात या असंख्यात प्रदेश अधिक वाली ही वर्गणा प्राप्त होती है, उससे कम की नहीं । पुनः एक प्रदेश अधिक वाली और पुनः संख्यात आदि प्रदेश अधिक वाली वर्गणाएँ जबतक प्राप्त होती रहती हैं, तब तक उनकी सांतरनिरंतर वर्गणा संज्ञा है, क्योंकि वे कुछ-कुछ अंतराल छोड़कर प्राप्त होती हैं । तत्पश्चात् एक साथ अनंत प्रदेश अधिक वाली वर्गणा ही उपलब्ध होती हैं । उससे कम प्रदेशों वाली वर्गणा तीन काल में भी उपलब्ध नहीं होती । इसलिए यह स्थान वर्गणाओं से सर्वथा शून्य रहता है । जहाँ-जहाँ भी प्रदेश वृद्धिकाल में ऐसा शून्य स्थान प्राप्त होता है, वहाँ-वहाँ ही ध्रुव शून्य वर्गणा का निर्देश किया गया है । यही कारण है कि इन 4 ध्रुव शून्य वर्गणाओं को पुद्गलरूप नहीं गिना है । ये सत् रूप नहीं हैं । शेष 19 वर्गणाएँ सत् रूप होने से पुद्गल संज्ञा को प्राप्त हैं ) । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> प्रत्येक शरीर व अन्य वर्गणाओं के लक्षण </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 14/5, 6/ | <span class="GRef"> धवला 14/5, 6/सूत्र/पृष्ठ/पंक्ति </span> <span class="PrakritText">एक्कस्स जीवस्स एक्कम्हि देहे उवचिदकम्म णोकम्मक्खंधो पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा णाम । (91/65/12) । बादरसुहुमणिगोदेहि असंबद्धजीवा पत्तेयसरीरवग्गणा त्ति घेत्तव्वा । (116/144/9) । पंचण्हं सरीरराणं बाहिरवग्गणा त्ति सिद्धा सण्णा । (117/224/4) ।</span> =<span class="HindiText"> एक-एक जीव के एक-एक शरीर में उपचित हुए कर्म और नोकर्म स्कंधों की प्रत्येक शरीर द्रव्यवर्गणा संज्ञा है । बादरनिगोद और सूक्ष्मनिगोद से असंबद्ध जीव प्रत्येक शरीर वर्गणा होते हैं । पाँच शरीरों की बाह्यवर्गणा यह संज्ञा सिद्ध होती है । (देखें [[ #2.6| वर्गणा - 2.6 ]]) । <br /> | ||
देखें [[ वनस्पति#1.7 | वनस्पति - 1.7 ]](प्रत्येक शरीरवर्गणा असंख्यात लोक प्रमाण है) । <br /> | देखें [[ वनस्पति#1.7 | वनस्पति - 1.7 ]](प्रत्येक शरीरवर्गणा असंख्यात लोक प्रमाण है) । <br /> | ||
देखें [[ वनस्पति#2.10 | वनस्पति - 2.10 ]](बादर व सूक्ष्म निगोद वर्गणा आवलि के असंख्यात भाग प्रमाण है) । </span><br /> | देखें [[ वनस्पति#2.10 | वनस्पति - 2.10 ]](बादर व सूक्ष्म निगोद वर्गणा आवलि के असंख्यात भाग प्रमाण है) । </span><br /> | ||
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Latest revision as of 21:35, 8 January 2024
समान गुण वाले परमाणुपिंड को वर्गणा कहते हैं, जो 5 प्रधान जाति वाले सूक्ष्म स्कंधों के रूप में लोक के सर्व प्रदेशों पर अवस्थित रहते हुए, जीव के सर्व प्रकार के शरीरों व लोक के सर्व स्थूल भौतिक पदार्थों के उपादान कारण होती है । यद्यपि वर्गणा की व्यवहार्य जाति 5 ही हैं, परंतु समूर्तीक व अमूर्तीक भौतिक पदार्थों में प्रदेशों की क्रमिक वृद्धि दर्शाने के लिए उसके 23 भेद करके बताये गये हैं । उस-उस जाति की वर्गणा से उस-उस जाति के ही पदार्थ का निर्माण होता है, अन्य जाति का नहीं । परंतु परमाणुओं की हानि या वृद्धि हो जाने से वह वर्गणा स्वयं अपनी जाति बदल दूसरी जाति की वर्गणा में परिणत हो सकती है ।
- भेद व लक्षण
- महास्कंध - देखें स्कंध ।
- वर्गणा निर्देश
- वर्गणाओं में प्रदेश व रसादि का निर्देश ।
- प्रदेशों की क्रमिक वृद्धि द्वारा वर्गणाओं की उत्पत्ति ।
- ऊपर व नीचे की वर्गणाओं के भेद व संघात से वर्गणाओं की उत्पत्ति ।
- पाँच वर्गणाएँ ही व्यवहार योग्य हैं अन्य नहीं ।
- अव्यवहार्य भी अन्य वर्गणाओं का कथन क्यों ।
- शरीरों व उनकी वर्गणाओं में अंतर ।
- वर्गणाओं में जाति भेद संबंधी विचार ।
- वर्गणाओं में जाति भेद निर्देश ।
- तीनों शरीरों की वर्गणाओं में कथंचित् भेदाभेद ।
- आठों कर्मों की वर्गणाओं में कथंचित् भेदाभेद ।
- कार्मण वर्गणा एक ही बार आठ कर्म क्यों नहीं हो जाती? - देखें बंध - 5.2 ।
- वर्गणाओं में जाति भेद निर्देश ।
- ऊपर व नीचे की वर्गणाओं में परस्पर संक्रमण की संभावना व समन्वय ।
- भेद संघात व्यपदेश का स्पष्टीकरण ।
- योग वर्गणा - देखें योग - 6 ।
- वर्गणाओं में प्रदेश व रसादि का निर्देश ।
- भेद व लक्षण
- वर्गणा सामान्य का लक्षण
राजवार्तिक/2/5/4/107/8 तथैव समगुणाः पंक्तीकृताः वर्गा वर्गणा । = इन सम गुण वाले समसंख्या तक वर्गों के समूह को (देखें वर्ग ) वर्गणा कहते हैं ।
कषायपाहुड़ 5/4-22/473/344/8 एवमेगेगसरिसधणियपरमाणू घेत्तूण वण्णच्छेदणए करिय दाहिणपासे कंडुज्जुवपंतिरयणा कायव्वा जाव अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तखरिसधणियपरमाणू समत्त त्ति । एदेसिं सव्वेसिं पि वग्गणा त्ति सण्णा । = इस प्रकार (देखें वर्ग ) समान धन वाले एक-एक परमाणु को लेकर बुद्धि के द्वारा छेद करके (छेद करने पर जो उतने-उतने ही अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं, उन सबको) दक्षिण पार्श्व में बाण के समान ॠजु पंक्ति में रचना करते जाओ और ऐसा तब तक करो जब तक अभव्य राशि से अनंत गुणे सिद्धराशि के अनंतवें भाग प्रमाण (वे सबके सब) समान धन वाले परमाणु समाप्त हों । उन सब वर्गों की वर्गणा संज्ञा है । ( धवला 12/4, 2, 7, 199/93/8 ) ।
समयसार / आत्मख्याति/52 वर्गसमूहलक्षणा वर्गणा । = वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं ( गोम्मटसार जीवकांड/मं.प्र./59/153/14 ।
- प्रथम द्वि. आदि वर्गणा के लक्षण
धवला 12/4, 2, 7, 204/145/9 वग्गणंतरादो अविभागपडिच्छेदुत्तरभावो पढमफद्दयआदिवग्गणा होदि । तत्ते पहुडि णिरंतरं अविपडिच्छेदुत्तरकमेण वग्गणओ गंतूण पढमफद्दयस्स चरिमवग्गणा होदि । = वर्गणांतर से एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद से अधिक अनुभाग का नाम प्रथम स्पर्धक की आदि वर्गणा है । उससे लेकर निरंतर एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद अधिकता के क्रम से वर्गणाएँ जाकर प्रथम स्पर्धक की अंतिम वर्गणा होती है (विशेष देखें स्पर्धक ) ।
लब्धिसार/भाषा/223/277/9 ऐसी (जघन्य वर्गरूप) जेती परमाणू होंइ तिनि के समूह का नाम प्रथम वर्गणा है । बहुरि यातैं द्वितीयादि वर्गणानिधिपे एक-एक चय घटता क्रमकरि परमाणूनिका प्रमाण है (विशेष देखें स्पर्धक ) ।
- द्रव्य क्षेत्र काल वर्गणा निर्देश व लक्षण
षट्खंडागम/14/5, 6/सूत्र 71/51 वग्गणणिक्खेवे त्ति छव्वि हे णिक्खवे-णामवग्गणाट्ठवणवग्गणा दव्वग्गणा खेत्तवग्गणा कालवग्गणा भाववग्गणा चेदि ।71। धवला 14/5, 6, 71/52/4 तव्वीदंरित्त दव्ववग्गणा दुविहा - कम्मवग्गणा णोकम्मवग्गणा चेदि । तत्थ कम्मवग्गणा णाम अट्ठकम्मक्खंधवियप्पा । सेसएक्कोणवीसवग्गणाओणेकम्मवग्गणओ । एगागासोगाहणप्पहुडिपदेमुत्तरादिकमेण जाव देसूणघणलोगे त्ति ताव एदाओ खेत्तवग्गणाओ । कम्मदव्वं पडुच्च समयाहियावलियप्हुडि जाव कम्मट्ठिदि त्ति णोकम्मदव्वं पहुच्च एगसमयादि जाव असंखेज्जा लोगा त्ति ताव एदाओ कालवग्गणओ ।.... ओदइयादि पंचण्णं भावाणं जे भेदा ते णोआगम भाववग्गणा । = वर्गणा निक्षेप का प्रकरण है । वर्गणा निक्षेप चार प्रकार का है - नाम वर्गणा, स्थापना वर्गणा, द्रव्य वर्गणा, क्षेत्र वर्गणा, काल वर्गणा और भाव वर्गणा [इनमें से अन्य सब वर्गणाओं के लक्षण निक्षेपों वत् जानें - (देखें निक्षेप )] तद्व्यतिरिक्त द्रव्यवर्गणा दो प्रकार की है - कर्म वर्गणा और नोकर्म वर्गणा । उनमें से आठ प्रकार के कर्म स्कंधों के भेद कर्म वर्गणा हैं, तथा शेष उन्नीस प्रकार की वर्गणाएँ (देखें अगला शीर्षक ) नोकर्म वर्गणाएँ हैं । एक आकाश प्रदेश प्रमाण अवगाहना से लेकर प्रदेशोत्तर आदि के क्रम से कुछ कम घनलोक तक ये सब क्षेत्र वर्गणाएँ हैं । कर्म द्रव्य की अपेक्षा एक समय अधिक एक आवली से लेकर उत्कृष्ट कर्मस्थिति तक और नोकर्म द्रव्य की अपेक्षा एक समय से लेकर असंख्यात लोक प्रमाण काल तक ये सब काल वर्गणाएँ हैं ।...... औदयिकादि पाँच भावों के जो भेद हैं वे सब नोआगमभाव वर्गणा हैं ।
- वर्गणा के 23 भेद
धवला 14/5, 6, 97/गाथा 7-8/117 अणुसंखासंखेज्जा तधणता वग्गणा अगेज्झाओ । आहार-तेज-भासा-मण-कम्मइयध्रुयक्खंधा ।7 । सांतरणिरंतरेदरसुण्णा पत्तेयदेह ध्रुवसुण्णा । बादरणिगोदसुण्णा सुहुमा सुण्णा महाखंधो ।8। = अणु वर्गणा, संख्याताणु वर्गणा, असंख्याताणु वर्गणा, अनंताणु वर्गणा, आहार वर्गणा, अग्रहण वर्गणा, तेजस्वर्गणा, अग्रहण वर्गणा, भाषा वर्गणा, अग्रहण वर्गणा, मनो वर्गणा, अग्रहण वर्गणा, कार्मण शरीर वर्गणा, ध्रुवस्कंध वर्गणा, सांतरनिरंतर वर्गणा, ध्रुवशून्य वर्गणा, प्रत्येकशरीर वर्गणा, ध्रुवशून्य वर्गणा, बादरनिगोद वर्गणा, ध्रुवशून्य वर्गणा, सूक्ष्मनिगोद वर्गणा, ध्रुवशून्य वर्गणा और महास्कंध वर्गणा । ये तेईस वर्गणाएँ हैं ..... (षट्खण्डागम/14/5, 6 । सूत्र 76-97/54/117 तथा सूत्र 708-718/542-543) । ( धवला 13/5, 5, 82/351/11 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/594-595/1032 ) ।
- आहारक आदि पाँच वर्गणाओं के लक्षण
षट्खण्डागम 14/5, 6/सूत्र पृष्ठ ओरालिय-वेउव्विय-आहारसरीराणं जाणि दव्वाणि घेत्तूण ओरालियवेउव्विय-आहारसरीरत्तए परिणामेदूणं परिणमंति जीवा ताणि दव्वाणि आहारदव्ववग्गणा णाम (730/546) जाणि दव्वाणि घेत्तूण तेयासरीरत्तए पारणामेदूण परिणमति जीवा ताणि दव्वाणि तेजादव्ववग्गणा णाम । (737/549) । सच्चभासाए मोसभासाए सच्चमोसभासाए असच्चमोसभासाए जाणि दव्वाणि घेत्तूण सच्चभासत्तए मोसभासत्तए सच्चमोसभासत्तए असच्चमोसभासत्तए परिणामेदूण णिस्सारंति जीवा ताणि भासादव्ववग्गणा णाम । (744/550) । सच्चमणस्स मोसमणस्स सच्चमोसमणस्स असच्चमोसमणस्स जाणि दव्वाणि घेत्तूण सच्चमणत्तए मोसमणत्तए सच्चमोसमणत्तए जाणि दव्वाणि घेत्तूण सच्चमणत्तए मोसमणत्तए सच्चमोसमणत्तए असच्चमोसमणत्तए परिणामेदूण परिणमंति जीवा ताणि दत्तवाणि मणदव्ववग्गणा णाम । (751/552) । णाणावरणीयस्स दंसणावरणीयस्स वेयणीयस्स मोहणीयस्स आउअस्स णामस्स गोदस्स अंतराइयस्स जाणि दव्वाणि घेत्तूण णाणावरणीयत्तए दंसणावरणीयत्तए वेयणीयत्तए मोहणीयत्तए आउअत्तए णामत्तए गोदत्तए अंतराइयत्तए परिणामेदूण परिणामंति जीवा ताणि दव्वाणि कम्मइयदव्ववग्गणा णाम । (758/553) । = औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीरों के (योग्य) जिन द्रव्यों को ग्रहण कर औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर रूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, उन द्रव्यों की आहारद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (730/546) । जिन द्रव्यों को ग्रहणकर तैजस् शरीररूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, उन द्रव्यों की तैजस्द्रव्य वर्गणा संज्ञा है । (737/549) । सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोषभाषा और असत्यमोषभाषा के जिन द्रव्यों को ग्रहणकर सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोषभाषा और असत्यमोषभाषा रूप से परिणमाकर जीव उन्हें निकालते हैं उन द्रव्यों की भाषाद्रव्य वर्गणा संज्ञा है । (744/550) । सत्यमन, मोषमन, सत्यमोषमन और असत्यमोषमन के जिन द्रव्यों को ग्रहणकर सत्यमन, मोषमन, सत्यमोषमन और असत्यमोषमन रूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं उन द्रव्यों की मनोद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (751/552) । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय के जो द्रव्य हैं उन्हें ग्रहणकर ज्ञानावरण रूप से, दर्शनावरण रूप से, वेदनीय रूप से, मोहनीय रूप से, आयु रूप से, नाम रूप से, गोत्र रूप से और अंतराय रूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, अतः उन द्रव्यों की कार्मणद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (758/553) ।
धवला 14/5, 6, 79-87/पृष्ठ/पंक्ति ओरालियवेउव्वियआहारसरीर-पाओग्गपोग्गलक्खंधाणं आहारदव्ववग्गणा त्ति सण्णा । (59/10) । एसा सत्तमी वग्गणा । एदिस्से पोग्गलक्खंधा तेजइयसरीरपाओग्गा । (60/10) । भासादव्ववग्गणाए परमाणुपोग्गलक्खंधा चदुण्णं भासाणं पाओग्गा । पटह-भेरी-काहलब्भगज्जणादिसद्दाणं पि एसा चेव वग्गणा पाओग्गा । (61/10) । एसा एक्कारसमी वग्गणा । एदीए वग्गणाए दव्वमणणिव्वत्तणं करिदे । (62/14) । एसा तेरसमी वग्गणा । एदिस्स वग्गणाए पोग्गलक्खंधा अट्ठकम्मपाओग्गा । (63/14) । = औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर के योग्य पुद्गलस्कंधों की आहारद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (59/10) । यह सातवीं वर्गणा है । इसके पुद्गलस्कंध तैजस शरीर के योग्य होते हैं । (60/10) । भाषावर्गणा के परमाणु पुद्गलस्कंध चार भाषाओं के योग्य होते हैं । तथा ढोल, भेरो, नगारा और मेघ का गर्जन आदि शब्दों के भी योग्य ये ही वर्गणाएँ होती हैं । (61/10) । यह ग्यारहवीं वर्गणा है, इस वर्गणा से द्रव्यमन की रचना होती है । (62/14) । यह तेरहवीं वर्गणा है, इस वर्गणा के पुद्गलस्कंध आठ कर्मों के योग्य होते हैं । (63/14) ।
- ग्राह्य अग्राह्य वर्गणाओं के लक्षण
षट्खण्डागम 14/5, 6/सूत्र/पृष्ठ अग्गहणदव्ववग्गणा आहारदव्वमधिच्छिदा तेया दव्ववग्गणं ण पावदि ताणं दव्वाणमंतरे अगहण दव्ववग्गणा णाम । (733/548) । अगहणदव्ववग्गणा तेजादव्वमविच्छिदा भासादव्वं ण पावेदि ताणं दव्वाणमंतरे अगहणदव्ववग्गणा णाम । (740/549) । अग्गहणदव्ववग्गणा भासा दव्वमधिच्छिदा मणदव्वं ण पावेदि ताणं दव्वाणमंतरे अग्गहणदव्ववग्गणा णाम । (747/551) । अगहण दव्ववग्गणा (मण) दव्वमविच्छिदा कम्मइयदव्वं ण पावदि ताणं दव्वाणमंतरे अगहणदव्ववग्गणा णाम । (754/552) । = अग्रहण वर्गणा आहार द्रव्य से प्रारंभ होकर तैजसद्रव्य वर्गणा को नहीं प्राप्त होती है, अथवा तैजसद्रव्य वर्गणा से प्रारंभ होकर भाषा द्रव्य को नहीं प्राप्त होती है, अथवा भाषा द्रव्यवर्गणा से प्रारंभ होकर मनोद्रव्य को नहीं प्राप्त होती है, अथवा मनोद्रव्यवर्गणा से प्रारंभ होकर कार्मण द्रव्य को नहीं प्राप्त होती है । अतः उन दोनों द्रव्यों के मध्य में जो होती है उसकी अग्रहण द्रव्यवर्गणा संज्ञा है ।
- ध्रुव, ध्रुवशून्य व सांतर निरंतर वर्गणाओं के लक्षण
धवला 14/5, 6, 719/543/10 पंचण्णं सरीराणं जा गेज्झा सा गहणपाओग्गा णाम । जा पुण तासिमगेज्झा (सा) अगहण पाओग्गा णाम । = पाँच शरीरों के जो ग्रहण योग्य है वह ग्रहणप्रायोग्य कहलाती है । परंतु जो उनके ग्रहण योग्य नहीं है वह अग्रहणप्रायोग्य कहलाती है । ( धवला 14/5, 6, 82/61/3 ) ।
षट्खण्डागम 14/5, 6/सूत्र/पृष्ठ कम्मइयदव्ववग्गणाणमुवरि धुवक्खंधदव्ववग्गणा णाम । (88/63) । धुवक्खंधदव्व-वग्गणाणमुवरि सांतरणिरं तरदव्ववग्गणा णाम । (89/64) । सांतरणिरंतरदव्ववग्गणाणमुवरि धुवसुण्णवग्गणा णाम । (90/65) । = कार्मण द्रव्यवर्गणाओं के ऊपर ध्रुवस्कंध द्रव्यवर्गणा है । (88/63) । ध्रुवस्कंध द्रव्यवर्गणाओं के ऊपर सांतरनिरंतर द्रव्यवर्गणा है । (89/64) । सांतर निरंतर द्रव्यवर्गणाओं के ऊपर ध्रुवशून्य वर्गणा है । (90/65) ।
धवला 14/5, 6, 89-90/पृष्ठ/पंक्ति धुवक्खंधणिद्देसो अंतदीवओ । तेण हेट्ठिम सव्ववग्गणओ धुवाओ चेव अंतरविरहिदाओ त्ति घेत्तव्वं । एत्तेप्पहुडि उवरि भण्णमाणसव्ववग्गणासु अगहणभावो णिरंतर मणुवट्टावेदव्वो । (64/1) । अंतरेण सह णिरंतरं गच्छदि त्ति सांतरणिरंतरदव्ववग्गणासण्णा एदिस्से अत्थाणुगया । (64/12) । एसा वि अगहणवग्गणा चेव, आहारतेजा-भासा-मण-कम्माणजोगत्तदो । (65/2) । अदीदाणागद वट्टमाणकालेसु एदेण सरूवेण परमाणुपोग्ग-लसंचयाभावादो धुवसुण्णदव्ववग्गणा त्ति अत्थाणुगया सण्णा । संपहि उक्कस्ससांतरणिरंतरदव्ववग्गणाए उवरि परमाणुत्तरो परमाणुपोग्गलक्खंधो तिसु वि कालेसु णत्थि । दुपदेसुत्तरो वि णत्थि । एवं तिपदेसुत्तरादिकमेण सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तमद्धाणं गंतूण पढमधुवसुण्णवग्गणाए उक्कस्सवग्गणा होदि ।... एसा सोलसमी वग्गणा । सव्वकालं सुण्णभावेण अवट्ठिदा । = यह ध्रुवस्कंध पद का निर्देश अंतर्दीपक है । इससे पिछली सब वर्गणाएँ ध्रुव ही हैं अर्थात् अंतर से रहित हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । यहाँ से लेकर आगे कही जाने वाली सब वर्गणाओं में अग्रहणपने की निरंतर अनुवृत्ति करनी चाहिए । (64/1) । जो वर्गणा अंतर के साथ निरंतर जाती है, उसकी सांतर-निरंतर द्रव्यवर्गणा संज्ञा है । यह सार्थक संज्ञा है । (64/12) । यह भी अग्रहण वर्गणा ही है; क्योंकि यह आहार, तैजस्, भाषा, मन और कर्म के अयोग्य है । (65/2) । अतीत, अनागत और वर्तमान काल में इस रूप से परमाणु पुद्गलों का संचय नहीं होता, इसलिए इसकी ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा यह सार्थक संज्ञा है । उत्कृष्ट सांतरनिरंतर द्रव्य वर्गणा के ऊपर एक परमाणु अधिक परमाणु पुद्गलस्कंध तीनों ही कालों में नहीं होता, दो प्रदेश अधिक भी नहीं होता, इस प्रकार तीन प्रदेश आदि के क्रम से सब जीवों से अनंतगुणे स्थान जाकर प्रथम ध्रुवशून्य द्रव्य वर्गणा संबंधी उत्कृष्ट वर्गणा होती है । यह सोलहवीं वर्गणा है जो सर्वदा शून्य रूप से अवस्थित है ।
धवला 13/5, 5, 82/351/16 एत्थ तेबीस वग्गणासु चदुसु धुवसुण्णवग्गणासु अवणिदासु एगूणवीसदिविधा पोग्गला होंति । पादेक्कमणंतभेदा । = तेईस वर्गणाओं में से चार ध्रुवशून्य वर्गणाओं के निकाल देने पर उन्नीस प्रकार के पुद्गल होते हैं । और वे प्रत्येक अनंत भेदों को लिये हुए हैं । विशेषार्थ (शीर्षक सं. 1 के अनुसार जब तक वर्गणाओं में एक प्रदेश या परमाणु की वृद्धि का अटूट क्रम पाया जाता है, तब तक उनकी एक प्रदेशी व आहारक वर्गणा आदि विशेष संज्ञाएँ कही जाती हैं । ध्रुवस्कंध वर्गणा तक यह अटूट क्रम चलता रहता है । तत्पश्चात् एक वृद्धिक्रम भंग हो जाता है । एक प्रदेश वृद्धि के कुछ स्थान जाने के पश्चात् एकदम संख्यात या असंख्यात प्रदेश अधिक वाली ही वर्गणा प्राप्त होती है, उससे कम की नहीं । पुनः एक प्रदेश अधिक वाली और पुनः संख्यात आदि प्रदेश अधिक वाली वर्गणाएँ जबतक प्राप्त होती रहती हैं, तब तक उनकी सांतरनिरंतर वर्गणा संज्ञा है, क्योंकि वे कुछ-कुछ अंतराल छोड़कर प्राप्त होती हैं । तत्पश्चात् एक साथ अनंत प्रदेश अधिक वाली वर्गणा ही उपलब्ध होती हैं । उससे कम प्रदेशों वाली वर्गणा तीन काल में भी उपलब्ध नहीं होती । इसलिए यह स्थान वर्गणाओं से सर्वथा शून्य रहता है । जहाँ-जहाँ भी प्रदेश वृद्धिकाल में ऐसा शून्य स्थान प्राप्त होता है, वहाँ-वहाँ ही ध्रुव शून्य वर्गणा का निर्देश किया गया है । यही कारण है कि इन 4 ध्रुव शून्य वर्गणाओं को पुद्गलरूप नहीं गिना है । ये सत् रूप नहीं हैं । शेष 19 वर्गणाएँ सत् रूप होने से पुद्गल संज्ञा को प्राप्त हैं ) ।
- प्रत्येक शरीर व अन्य वर्गणाओं के लक्षण
धवला 14/5, 6/सूत्र/पृष्ठ/पंक्ति एक्कस्स जीवस्स एक्कम्हि देहे उवचिदकम्म णोकम्मक्खंधो पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा णाम । (91/65/12) । बादरसुहुमणिगोदेहि असंबद्धजीवा पत्तेयसरीरवग्गणा त्ति घेत्तव्वा । (116/144/9) । पंचण्हं सरीरराणं बाहिरवग्गणा त्ति सिद्धा सण्णा । (117/224/4) । = एक-एक जीव के एक-एक शरीर में उपचित हुए कर्म और नोकर्म स्कंधों की प्रत्येक शरीर द्रव्यवर्गणा संज्ञा है । बादरनिगोद और सूक्ष्मनिगोद से असंबद्ध जीव प्रत्येक शरीर वर्गणा होते हैं । पाँच शरीरों की बाह्यवर्गणा यह संज्ञा सिद्ध होती है । (देखें वर्गणा - 2.6 ) ।
देखें वनस्पति - 1.7 (प्रत्येक शरीरवर्गणा असंख्यात लोक प्रमाण है) ।
देखें वनस्पति - 2.10 (बादर व सूक्ष्म निगोद वर्गणा आवलि के असंख्यात भाग प्रमाण है) ।
धवला 14/5, 6, 78/58/9 परित्त-अपरित्तवग्गणाओ सुत्तुद्दिट्ठाओ अणंतपदेसियवग्गणासु चेव णिवदंति । अणंत अणंताणंतेहिंतो वदिरित्तपरित्तअपरित्तणमभावादो । = परीत और अपरीत वर्गणाएँ अनंतप्रदेशी वर्गणाओं में ही सम्मिलित हैं, क्योंकि अनंत व अनंतानंत से अतिरिक्त वे उपलब्ध नहीं होतीं ।
- वर्गणा सामान्य का लक्षण
- वर्गणा निर्देश
- वर्गणाओं में प्रदेश व रसादि का निर्देश
षट्खण्डागम 14/5, 6/सूत्र 759-783/554-559 पदेसट्ठाओरालियसरीरदव्ववग्गणओ पदेसट्ठा अणंताणंत पदेसि-याओ ।759। पंचवण्णाओ ।760। पंचरसाओ ।761। दुगंधाओ ।762। अट्ठफासाओ ।763। वेउव्वियसरीरदव्ववग्ग-णाओ पदेसट्ठदाए अणंताणंतपदेसियाओ ।764। पंचवण्णाओ ।765। पंचरसाओ ।766। दुगंधाओ ।767। अट्ठफांसाओ ।768। आहारसरीरव्ववग्गणाओ पदेसट्ठदाए अणंताणंतपदेसियाओ ।769। पंचवण्णाओ ।770। पंचरसाओ ।771। दुगंधाओ ।772। अट्ठफासाओ ।773। तेजासरीरदव्ववग्गणाओ पदेसट्ठदाए अणंताणंतपदेसि-याओ ।774। पंचवण्णाओ ।775। पंचरसाओ ।776। दोगंधाओ ।777। चदुपासाओ ।778। भासामणकम्मइयसरीरदव्व-वग्गणाओ पदेसट्ठदाए अणंताणंत पदेसियाओ ।779। पंचवण्णाओ ।780। पंचरसाओ ।781। दुगंधाओ ।782। चदुपासाओ ।783। = (आहारकवर्गणा के अंतर्गत) औदारिक, वैक्रियक व आहारक शरीरों की वर्गणा अनंतानंत प्रदेशवाली हैं । पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध व आठ स्पर्शवाली हैं ।759-773 । तैजस्, भाषा, मनो व कार्मण ये चारों वर्गणाएँ अनंतानंत प्रदेश वाली हैं । पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध और चार स्पर्शवाली हैं ।774-783 ।
धवला/ पुस्तक 14/5, 6, 726/545/10 आहारवग्गणाए जहण्णवग्गणप्पहुडि जाव महाक्खंधदव्ववग्गणे त्ति ताव एदाओ अणंताणंतपदेसियवग्गणाओ त्ति एत्थ सुत्ते घेत्तव्वाओ । = आहार वर्गणा की जघन्य वर्गणा से लेकर महास्कंध द्रव्यवर्गणा तक ये सब अनंतानंतप्रदेशी वर्गणाएँ हैं, इस प्रकार यहाँ सूत्र में ग्रहण करना चाहिए ।
देखें अल्पबहुत्व - 3.4 - (औदारिक आदि तीन शरीरों की वर्गणाएँ प्रदेशार्थता की अपेक्षा उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी हैं तथा इससे आगे तैजस्, भाषा, मन व कार्मण शरीर वर्गणाएँ उत्तरोत्तर अनंतगुणी हैं । अवगाहना की अपेक्षा कार्मण, मनो, भाषा, तैजस्, आहारक, वैक्रियक व औदारिक की वर्गणाएँ क्रम से उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी हैं । औदारिक आदि शरीरों में विस्रसोपचयों का प्रमाण क्रम से उनके जघन्य से उत्कृष्ट पर्यंत उत्तरोत्तर अनंतगुणा है ।)
- प्रदेशों की क्रमिक वृद्धि द्वारा वर्गणाओं की उत्पत्ति
षट्खण्डागम 14/5, 6/सूत्र/पृष्ठ-वग्ग्णपरूवणदाए इमा एयपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम । (76/54) । इमा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम । (77/55) । एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पंचपदेसिय-छप्पदेसियसत्तपदेसिय-अट्ठपदेसिय, णवपदेसिय-दसपदेसिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसिय-परित्तपदेसिय-अपरित्तपदेसियअणंतपदेसिय-अणंताणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम । (78/57) । अणंताणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्ग-णाणमुवरि आहारदव्ववग्गणा णाम । (79/59) । आहारदव्ववग्गणाणमुवरि अगहणदव्ववग्गणा णाम । (80/59) । अग्गहण दव्ववग्गणाणमुवरि तेयादव्ववग्गणा णाम । (81/60) । तेयादव्ववग्गणाणमुवरि अगहणदव्ववग्गणा णाम । (82/60) । अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि भासादव्ववग्गणा णाम । (83/61) । भासादव्ववग्गणाणमुवरि अगहण दव्ववग्गणा णाम । (84/62) । अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि मणदव्ववग्गणा णाम । (85/62) । मणदव्ववग्गणाणमुवरि अगहणदव्ववग्गणा णाम । (86/63) । अगहण दव्ववग्गणाणमुवरि कम्मइयदव्ववग्गणा णाम । (87/63) । कम्मइयदव्ववग्गणाणमुवरि धुवक्खंधदव्ववग्गणा णाम । (88/63) । धुवक्खंधदव्ववग्गणाणमुवरि सांतरणिरंतरदव्ववग्गणा णाम । (89/64) । सांतरणिरंतरदव्ववग्गणाणमुवरि धुवसुण्णदव्ववग्गणा णाम । (90/65) । धुवसुण्णदव्ववग्गणाणमुवरि पत्तेयसरीररदव्व-वग्गणा णाम । (91/65) । पत्तेयसरीरदव्ववग्गणाणमुवरि धुवसुण्णदव्ववग्गणा णाम । (92/83) । धुवसुण्णवग्गणाण-मुवरि बादरणिगोददव्ववग्गणा णाम । (93/84) । बादरणिगोददव्ववग्गणाणमुवरि धुवसुण्णदव्ववग्गणा णाम ।(94/112) । धुवसुण्णदव्ववग्गणाणमुवरि सुहुमणिगोददव्ववग्गणा णाम । (95/113) । सुहुमणिगोददव्ववग्ग-णाणमुवरि धुवसुण्णदव्ववग्गणा णाम । (96/116) । धुवसुण्णदव्ववग्गणाणमुवरि महाखंध दव्वग्गणा णाम ।(96/117) । धवला 14/5, 6, 69/49/4 तत्थ वग्गणपरूवणा किमट्ठं कीरदे । एगपरमाणुवग्गणप्पहुडि एगपरमाणुत्तरकमेण जाव महाक्खंधो त्ति ताव सव्व वग्गणाणमेगसेडिवरूवणट्ठं करीदे । = प्रश्न - यहाँ वर्गणा अनुयोग द्वार की प्ररूपणा किस लिए की गयी है । (धवला) उत्तर - एक परमाणुरूप वर्गणा से लेकर एक-एक परमाणु की वृद्धि क्रम से महास्कंध तक सब वर्गणाओं की एक श्रेणी है, इस बात का कथन करने के लिए की है । (धवला) । अर्थात् (षट्खण्डागम ) - वर्गणा की प्ररूपणा करने पर सर्वप्रथम यह एकप्रदेशी परमाणुपुद्गल द्रव्यवर्गणा है ।76। उसके ऊपर क्रम से एक-एक प्रदेश की वृद्धि करते हुए द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, परीत व अपरीत पप्रदेश्शी तथा अनंत व अनंतानंत प्रदेशी वर्गणा होती हैं । (77-78 ) । इस अनंतानंतप्रदेशी वर्गणा के ऊपर [उसी एक प्रदेश वृद्धि के क्रम से अपने-अपने जघन्य से उत्कृष्ट पर्यंत और पूर्व की उत्कृष्ट वर्गणा से उत्तरवर्ती जघन्यवर्गणा पर्यंत क्रम से] आहार, अग्रहण, तैजस्, अग्रहण, भाषा, अग्रहण, मनो, अग्रहण, कार्मण, ध्रुवस्कंध, सांतरनिरंतर, ध्रुवशून्य, प्रत्येक शरीर, ध्रुवशून्य, बादरनिगोद, ध्रुवशून्य, सूक्ष्मनिगोद, ध्रुवशून्य और महास्कंध नाम वाली वर्गणाएँ होती हैं । (79-97) । (इन वर्गणाओं का स्वस्थान व परस्थान प्रदेश वृद्धि का क्रम निम्न प्रकार जानना) -
धवला 14/5, 6, 79-80/59/6 - उक्कस्स अणंतपदेसियदव्ववग्गणाए उवरि एकरूवे पक्खित्ते जहण्णिया आहारदव्ववग्गणा होदि । तदो रूवुत्तरकमेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुण सिद्धाणमणंतभागमेत्तवियप्पे गंतूण संपप्पदि । जहण्णादो उक्कस्सिया विसेसाहिया । विसेसो पुण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणतभागमेत्ते होंतो वि आहारउक्कस्सदव्ववग्गणाए अणंतिमभागो । उक्कस्स आहारदव्ववग्गणाए उवरि एकरूवे पक्विते पढमअगहण दव्ववग्गणाएसव्वजहण्णवग्गणा होदि । तदो रूवुतरकमेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धाणमणंतभागमेतद्धांण गंतूण उक्किस्सया अपहणदव्ववग्गणा होदि । जहण्णादो उक्कस्सिया अणंतगुणा । को गुणगारो । अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो । धवला 14/5, 6, 97/ गाथा 9-14/117 अणु संखा संखगुणा परित्तवग्गणमसंखलोगगुणं । गुणगारो पंचण्णं अग्गहणाणं अभव्वणंतगुणो ।9 । आहारतेजभासा मणेण कम्मेण वग्गणाण भवे । उक्कस्स विसेसो अभव्वजीवेहि जधियो दु ।10 । धुवखंधसांतराणं धुवसुण्णस्स य हव्वेज्ज गुणगारो । जीवेहि अणंतगुणो जहण्णियादो दु उक्कस्से ।11 । पल्लासंखेज्जदि भागो पत्तेयदेहगुणगारो । सुण्णे अणंतलोगा थूलणिगोदपुणो वोच्छं ।12। सेडिअसंखेज्जदिमो भागो सुण्णस्स अंगुलस्सेव । पलिदोवमस्स सुहुमे पदरस्स गुणो दु सुण्णस्स ।13। एदेसिं गुणगारो जहण्णियादो दु जाण उक्कस्से । साहिअम्हि महखंधे असंखेज्जदियो दु पल्लस्स ।14। = उत्कृष्ट अनंतप्रदेशी द्रव्यवर्गणा में एक अंक के मिलाने पर जघन्य आहार द्रव्यवर्गणा होती है । फिर एक अधिक के क्रम से अभव्यों से अनंतगुणे और सिद्धों के अनंतवें भाग प्रमाण भेदों के जानने पर अंतिम (उत्कृष्ट) आहार द्रव्यवर्गणा होती है । यह जघन्य से उत्कृष्ट विशेष अधिक है विशेष का प्रमाण अभव्यों से अनंतगुणा और सिद्धों के अनंतवें भाग प्रमाण होता हुआ भी उत्कृष्ट आहार द्रव्यवर्गणा के अनंतवें भाग प्रमाण है । उत्कृष्ट आहार द्रव्यवर्गणा में एक अंक मिलाने पर प्रथम अग्रहण द्रव्यवर्गणा संबंधी सर्वजघन्यवर्गणा होती है । फिर एक-एक बढ़ाते हुए अभव्यों से अनंतगुणे और सिद्धों के अनंतवें भाग प्रमाण स्थान जाकर उत्कृष्ट अग्रहण द्रव्यवर्गणा होती है । यह जघन्य से उत्कृष्ट अनंतगुणी होती है । गुणकार अभव्यों से अनंतगुणा और सिद्धों के अनंतवें भाग प्रमाण है । (इसी प्रकार पूर्व की उत्कृष्ट वर्गणा में एक प्रदेश अधिक करने पर उत्तरवर्ती जघन्य वर्गणा तथा अपनी ही जघन्य में क्रम से एक-एक प्रदेश अधिक करते जाने पर, अनंतस्थान आगे जाकर उस ही की उत्कृष्ट वर्गणा प्राप्त होती है । यहाँ अनंत का प्रमाण सर्वत्र अभव्यों का अनंतगुणा तथा सिद्धों का अनंतवाँ भाग जानना । प्रत्येक वर्गणा के उत्कृष्ट प्रदेश अपने ही जघन्य प्रदेशों से कितने अधिक होते हैं, इसका संकेत निम्न प्रकार है) -
संख्या वर्गणा का नाम जघन्य व उत्कृष्ट वर्गणाओं का अल्प बहुत्व कितना अधिक गुणकार व विशेष का प्रमाण 1 अणुवर्गणा एक X 2 संख्याताणुवर्गणा संख्यातगुणा संख्यात 3 असंख्याताणुवर्गणा असंख्यगुणा असंख्यात 4 अनंताणुवर्गणा अनंतगुणा (अभव्यxअनंत) तथा (सिद्ध/अनंत) 5 आहारवर्गणा विशेषाधिक (अभव्यxअनंत) तथा (सिद्ध/अनंत) 6 प्रथम अग्राह्य अनंतगुणा (अभव्यxअनंत) तथा (सिद्ध/अनंत) 7 तैजस् वर्गणा विशेषाधिक (अभव्यxअनंत) तथा (सिद्ध/अनंत) 8 द्वितीय अग्राह्य अनंतगुणा (अभव्यxअनंत) तथा (सिद्ध/अनंत) 9 भाषा वर्गणा विशेषाधिक (अभव्यxअनंत) तथा (सिद्ध/अनंत) 10 तृतीय अग्राह्य अनंतगुणा (अभव्यxअनंत) तथा (सिद्ध/अनंत) 11 मनो वर्गणा विशेषाधिक (अभव्यxअनंत) तथा (सिद्ध/अनंत) 12 चतुर्थ अग्राह्य अनंतगुणा (अभव्यxअनंत) तथा (सिद्ध/अनंत) 13 कार्मण वर्गणा विशेषाधिक अभव्यxअनंत; सिद्ध/अनंत 14 ध्रुवस्कंध वर्गणा अनंतगुणा सर्वजीवxअनंत 15 सांतरनिरंतर वर्गणा अनंतगुणा सर्वजीवxअनंत 16 प्रथम ध्रुवशून्य अनंतगुणा सर्वजीवxअनंत 17 प्रत्येक शरीर असंख्य गुणा पल्यxअसंख्यात 18 द्वितीय ध्रुवशून्य अनंतगुणा अनंतलोक प्रदेश 19 बादर निगोद असंख्य गुणा जगतश्रेणीxअसंख्यात 20 तृतीय ध्रुवशून्य असंख्य गुणा अंगुल x असंख्यात 21 सूक्ष्म निगोद असंख्य गुणा पल्यxअसंख्यात 22 चतुर्थ ध्रुवशून्य असंख्य गुणा जगत्प्रतरxअसंख्यात 23 महास्कंध विशेषाधिक पल्यxअसंख्यात
- ऊपर व नीचे की वर्गणाओं के भेद व संघात से वर्गणाओं की उत्पत्ति
प्रमाण - षट्खण्डागम 14/5, 6/सूत्र 98-116/120-123 ।
संकेत - भेद = ऊपर के द्रव्य के भेद द्वारा उत्पत्ति ।
संघात = नीचे के द्रव्य के संघात द्वारा उत्पत्ति ।
भेदसंघात = स्वस्थान में भेद व संघात द्वारा ।
संख्या सूत्र संख्या वर्गणा का नाम उत्पत्ति विधि भेद संघात भेदसंघात 1 98-99 एक प्रदेशी हाँ x x 2 100-103 संख्यात प्रदेशी हाँ हाँ हाँ 3 100-103 असंख्यात प्रदेशी हाँ हाँ हाँ 4 100-103 अनंत प्रदेशी हाँ हाँ हाँ 5 104-105 आहार वर्गणा हाँ हाँ हाँ 6 104-105 प्रथम अग्राह्य हाँ हाँ हाँ 7 104-105 तैजस् वर्गणा हाँ हाँ हाँ 8 104-105 द्वितीय अग्राह्य वर्गणा हाँ हाँ हाँ 9 104-105 भाषा वर्गणा हाँ हाँ हाँ 10 104-105 तृतीय अग्राह्य वर्गणा हाँ हाँ हाँ 11 104-105 मनो वर्गणा हाँ हाँ हाँ 12 104-105 चतुर्थ अग्राह्य वर्गणा हाँ हाँ हाँ 13 104-105 कार्मण वर्गणा हाँ हाँ हाँ 14 106-108 ध्रुवस्कंध वर्गणा हाँ हाँ हाँ 15 106-108 सांतरनिरंतर वर्गणा हाँ हाँ हाँ 16 X प्रथम ध्रुवशून्य वर्गणा X X X 17 109-110 प्रत्येक शरीर वर्गणा X X हाँ 18 X द्वितीय ध्रुवशून्य वर्गणा X X X 19 111-112 बादर निगोद वर्गणा X X हाँ 20 X तृतीय ध्रुवशून्य वर्गणा X X X 21 113-114 सूक्ष्म निगोद वर्गणा X X हाँ 22 X चतुर्थ ध्रुवशून्य वर्गणा X X X 23 115-116 महास्कंध वर्गणा X X हाँ
देखें स्कंध (सूक्ष्मस्कंध तो भेद, संघात व भेदसंघात तीनों प्रकार से होते हैं, पर स्थूलस्कंध भेदसंघात से होते हैं) ।
देखें वर्गणा - 2.8 (ध्रुवशून्य तथा बादर व सूक्ष्म निगोद वर्गणाएँ भी ऊपरी द्रव्य के भेद व नीचे के द्रव्य के संघात द्वारा उत्पन्न होने संभव हैं ।)
- पाँच वर्गणाएँ ही व्यवहार योग्य हैं अन्य नहीं
षट्खण्डागम 14/5, 6/सूत्र 720-726/544 अगहणपाओग्गाओ इमाओ एयपदेसियसव्वपरमाणुपोग्गलदव्ववग्ग-णाओ ।720। इमा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम किं गहणपाओग्गाओ किमगहणपाओग्गाओ ।721। अगहणपाओग्गाओ ।722। एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पंचपदेसिय-छप्पदेसिय-सत्तपदेसिय-अट्ठपदेसिय-णवपदेसिय-दसपदेसिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसिय-अणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णामकिं गहणपाओग्गाओ किमगहणपाओग्गाओ ।723। अगहणपाओग्गाओ ।724। अणंताणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम किं गहणपाओग्गाओ किमगहणपोओग्गाओ ।725। काओ चि गहणपाओग्गाओ काओ चि अगहणपाओग्गाओ ।726। धवला 14/5, 6, 726/545/11 तत्थ आहार-तेज-भासा-मणकम्मइयवग्गणाओ गहणपाओग्गाओ अवसेसाओ अगहणपोओग्गाओ त्ति घेत्तव्वं । = एक प्रदेशी, द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनंतप्रदेशी वर्गणाएँ तो नियम से ग्रहण के अयोग्य हैं । परंतु अनंतानंतप्रदेशी वर्गणाओं में कुछ ग्रहण योग्य हैं और कुछ ग्रहण के अयोग्य । सूत्र 720-726 । उनमें से आहारवर्गणा, तैजस्वर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणा ये (तो) ग्रहणप्रायोग्य हैं, अवशेष (सर्व) अग्रहणप्रायोग्य हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए । (और भी देखें अगला शीर्षक ) ।
- अव्यवहार्य भी अन्य वर्गणाओं का कथन क्यों किया
धवला 14/5, 6, 88/64/7 ‘आहार-तेजा-भासा-मणकम्मइयवग्गणओ चेव एत्थ परूवेदव्वाओ, बंधणिज्जत्तदो, ण सेसाओ, तासिं बंधणिज्जत्तभावादो । ण, सेसवग्गणपरूवणाए विणा बंधणिज्जवग्गणाणं परूवणोवायाभावादो वदिरेगावगमणेण विणा णिच्छिदण्णयपच्चयउत्तीए अभावादो वा । = प्रश्न - यहाँ पर आहार, तैजस्, भाषा, मनो और कार्मण ये पाँच वर्गणा ही कहनी चाहिए, क्योंकि वे बंधनीय हैं । शेष वर्गणाएँ नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि वे बंधनीय नहीं हैं? उतर - नहीं, क्योंकि शेष वर्गणाओं का कथन किये बिना बंधनीय वर्गणाओं के कथन करने का कोई मार्ग नहीं है । अथवा व्यतिरेक का ज्ञान हुए बिना निश्चित अन्वय के ज्ञान में वृत्ति नहीं हो सकती, इसलिए यहाँ बंधनीय व अबंधनीय सब वर्गणाओं का निर्देश किया है ।
- शरीरों व उनकी वर्गणाओं में अंतर
धवला 14/5, 6, 117/224/1 पुव्वुत्ततेवीसवग्गणाहिंतो पंचसरीराणि पुधभूदाणि त्ति तेसिं बाहिरववएसो । तं जहा-ण ताव पंचसरीराणि अचितवग्गणासु णिवदंति, सचित्तणमचित्तभावविरोहादो । ण च सचित्तवग्गणासु णिवदंति, विस्सासुवचएहि विणा पंचण्हं सरीराणं परमाणूणं चेत्र गहणादो । तम्हा पंचण्हं सरीराणं बाहिरवग्गणा ति सिद्धा सण्णा । = तेईस वर्गणाओं में से पाँच शरीर पृथग्भूत हैं, इसलिए इनकी बाह्य संज्ञा है । यथा-पाँच शरीर अचित्त वर्गणाओं में तो सम्मिलित किये नहीं जा सकते, क्योंकि सचित्तें को अचित्त मानने में विरोध आता है । उनका सचित्त वर्गणाओं में भी अंतर्भाव नहीं होता, क्योंकि विस्रसोपचयों के बिना पाँच शरीरों के परमाणुओं का ही सचित्त वर्गणाओं में ग्रहण किया है । इसलिए पाँच शरीरों की बाह्य वर्गणा यह संज्ञा सिद्ध होती है ।
- वर्गणाओं में जाति भेद संबंधी विचार
- वर्गणाओं में जाति भेद का निर्देश
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/594-595/1033 पर उद्धृत श्लोक-मूर्तिमत्सु पदार्थेषु संसारिण्यपि पुद्गलः ।अकर्मकर्मनोकर्म-जातिभेदेषु वर्गणाः ।1 । = मूर्तिमान् पदार्थों व संसारी जीवों में पुद्गल शब्द वर्तता है और कर्म, अकर्म व नोकर्म की जाति भेद वाले पुद्गलों में वर्गणा शब्द की प्रवृत्ति होती है ।
- तीनों शरीरों की वर्गणाओं में कथंचित् भेदाभेद
धवला 14/5, 6, 731/547/8 जदि एदेसिं तिण्णं सरीराणं वग्गणाओ ओग्गाहणभेदेण संखाभेदेण च भिण्णाओ ता आहारदव्ववग्गणा एक्को चेवे त्ति किमट्ठं उच्चदे । ण, अगहणवग्गणाहि अंतराभावं पडुच्च तासिमेगत्तुवएसादो । ण च संखाभेदो असिद्धो, अवरिभण्णमाणअप्पाबहुएणेव तस्स सिद्धोदो । = प्रश्न - यदि (औदारिक, वैक्रियक व आहारक) इन तीन शरीरों की वर्गणाएँ अवगाहना के भेद से और संख्या के भेद से अलग-अलग हैं, तो आहार द्रव्यवर्गणा एक ही है, ऐसा किस लिए कहते हैं? उत्तर - नहीं, क्योंकि अग्रहण वर्गणाओं के द्वारा अंतर के अभाव की अपेक्षा इन वर्गणाओं के एकत्व का उपदेश दिया गया है । संख्याभेद असिद्ध नहीं है, क्योंकि आगे कहे जाने वाले अल्पबहुत्व से ही उसकी सिद्धि होती है । भावार्थ - (वास्तव में जाति की अपेक्षा यद्यपि तीनों शरीरों की वर्गणाएँ भिन्न हैं, परंतु एक प्रदेश वृद्धिक्रम में अंतर पड़े बिना इनकी उपलब्धि होने के कारण इन तीनों को एक आहार वर्गणा में गर्भित कर दिया गया । अथवा यों कहिए कि जिस प्रकार अन्य सर्व वर्गणाओं के बीच में अग्रहण वर्गणा या ध्रुवशून्य वर्गणा का अंतराल पड़ता है उस प्रकार इन तीनों में नहीं पड़ता, इस कारण इनमें एकत्व है ।)
- आठों कर्मों की वर्गणाओं में कथंचित् भेदाभेद
धवला 14/5, 6, 758/553/9 णाणावरणीयस्स जाणि पाओग्गाणि दव्वाणि ताणि चेव मिच्छत्तदिपच्चएहि पंचणाणाव-रणीयसरूवेण परिणमंति ण अण्णेसिं सरूवेण । कुदो । अप्पाओग्गत्तदो । एवं सव्वेसिं कम्माणं वत्तव्वं ।... जदि एवं तो कम्मइयवग्गणाओ अट्ठे त्ति किण्ण परूविदाओ । ण अंतराभावेण तथोवदेसाभावादो । एदाओ अट्ठ वि वग्गणाओ किं पुध-पुध अच्छंति आहो करंबियाओ त्ति । पुध-पुध ण अच्छति किंतु करंबियाओ । कुदो एदं णव्वदे । ‘आउभागो थोवो णाण-गोदे समो तदो अहिओ’ एदीए गाहाए णव्वदे । सेसं जाणिदूण वत्तव्वं । = ज्ञानावरणीय के योग्य जो द्रव्य हैं वे ही मिथ्यात्व आदि प्रत्ययों के कारण पाँच ज्ञानावरणीय रूप से परिणमन करते हैं, अन्य रूप से वे परिणमन नहीं करते, क्योंकि वे अन्य के अयोग्य होते हैं । इसी प्रकार सब कर्मों के विषय में कहना चाहिए । प्रश्न - यदि ऐसा है तो कार्मण वर्गणाएँ आठ हैं, ऐसा कथन क्यों नहीं किया (उसे एक कार्मण वर्गणा के नाम से क्यों कहा गया) । उत्तर - नहीं, क्योंकि अंतर का अभाव होने से उस प्रकार का उपदेश नहीं पाया जाता (विशेष देखो ऊपर वाला उपशीर्षक) । प्रश्न - ये आठ ही वर्गणाएँ क्या पृथक्-पृथक् रहती हैं या मिश्रित होकर रहती हैं? उत्तर - पृथक्-पृथक् नहीं रहती हैं; किंतु मिश्रित होकर ही रहती हैं । प्रश्न - यह किस प्रमाण से जाता है? उत्तर - (एक समय प्रबद्ध कार्मण द्रव्य में) आयु कर्म का भाग स्तोक है । नामकर्म और गोत्रकर्म का भाग उससे अधिक है । इस गाथा से जाना जाता है । शेष का कथन जानकर करना चाहिए ।
धवला 15/8/31/1 ण च एयादो अणेयाणं कम्माणं वुत्पत्ती विरुद्धा कम्मइमवग्गणाए अणंताणंतसंखए अट्ठकम्मपा-ओग्गभावेण अट्ठविहत्तमावण्णाए एयत्तविरोहादो । णत्थि एत्थ एयंतो, एयादो घडादो अणेयाणं खप्पराणमुप्पत्तिदंसणादो । वुत्तं च - ‘कम्मं ण होदि एयं अणेयविहमेय बंधसमकाले । मूलुत्तरपयडीणं परिणामवसेण जीवाणं ।17। जीव परिणामाणं भेदेण परिणामिज्जमाणकम्मइयवग्गणाणं भेदेण च कम्माणं बंधसमकाले चेव अणेयविहत्तं होदि त्ति घेत्तव्वं । = एक से अनेक कर्मों की उत्पत्ति विरुद्ध है, ऐसा कहना भी अयुक्त है; क्योंकि आठ कर्मों की योग्यतानुसार आठ भेद को प्राप्त हुई अनंतानंत संख्या रूप कार्मण वर्गणा की एक मानने का विरोध है । दूसरे, एक से अनेक कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती; ऐसा एकांत भी नहीं है, क्योंकि एक घट से अनेक खप्परों की उत्पत्ति देखी जाती है । कहा भी है - ‘कर्म एक नहीं है, वह जीवों के परिणामानुसार मूल व उत्तर प्रकृतियों के बंध के समान काल में ही अनेक प्रकार का है ।17।’ जीवपरिणामों के भेद से और परिणायी जानेवाली कार्मण वर्गणाओं के भेद से बंध के समकाल में ही कर्म अनेक प्रकार का होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।
- प्रत्येक शरीर वर्गणा अपने से पहले या पीछे वाली वर्गणाओं से उत्पन्न नहीं होती
धवला 14/5, 6, 110/128/3 परमाणुवग्गणमादिं कादूण जाव सांतरणिरंतरउक्कस्सवग्गणे त्ति ताव एदासि वग्गणाणं समुदयसमागमेण पत्तेयसरीरवग्गणा ण समुप्पज्जदि । कुदो । उक्कस्ससांतरणिरंतरवग्गणाणसरूवं मोत्तूण रूवाहियादिउवरिम-वग्गणसरूवेण परिणमणसत्तीए अभावादो ।... पत्तेयसरीर समागमेण विणा हेट्ठिमवग्गणाणं चेव समुदयसमागमेण समुप्पज्जमाणपत्तेयसरीरवग्गणाणुवलंभादो । किंच जोगवसेण एगबंधणबद्धओरालिय-तेजाकम्मइयपरमाणुपोग्गलक्खंधा अणंताणंतविस्सासुवचएहि उपचिदा । ण ते सव्वे सांतरणिरंतरादिहेट्ठिमवग्गणासु कत्थ वि सरिसधणिया होंति; पत्तेयवग्गणाए असंखेज्जदिभागत्तदो ।... उवरिल्लीणं दव्वाणं भेदेण विणा पत्तेयसरीरवग्गणा उप्पज्जदि, बादर-सुहुमणिगोदवग्गणाणमोरालिय-तेजा-कम्मइयवग्गणक्खंधेसु अधट्ठिदिगलणाए गलिदेसु पत्तेयसरीरवग्गणं वोलेदूण हेट्ठा सांतरणिरंतरादिवग्गणसरूवेण सरिसधणियभावेण अवट्ठाणुवलंभादो ।... उवरिमवग्गणादो आगदपरमाणु-पोग्गलेहि चेव पत्तेयसरीरवग्गणाणिप्पत्तीए अभावादो ।.. उवरिल्लीणं वग्गणाणं भेदो णाम विणासो । ण च बादरसुहुमणिगोदवग्गणाणं मज्झे एया वग्गणा णट्ठा संतो पत्तेयसरीरवग्गणासरूवेण परिणमदि; पत्तेयवग्गणाए आणंत्तियप्पसंगादो । =- परमाणु वर्गणा से लेकर सांतरनिरंतर उत्कृष्ट वर्गणा तक इन (15) वर्गणाओं के समुदय समागम से प्रत्येक शरीर वर्गणा (17वीं वर्गणा) नहीं उत्पन्न होती है, क्योंकि उत्कृष्ट सांतरनिरंतर वर्गणाओं का अपने स्वरूप को छोड़कर एक अधिक आदि उपरिम वर्गणा रूप से परिणमन करने की शक्ति का अभाव है ।.... प्रत्येकशरीर वर्गणा के समागम के बिना केवल नीचे की (1 से 15 तक की) वर्गणाओं के समुदय समागम से उत्पन्न होने वाली प्रत्येक शरीरवर्गणाएँ नहीं उपलब्ध होतीं । दूसरे योग के वश से एक बंधनबद्ध औदारिक तैजस और कार्मण परमाणुपुद्गलस्कंध अनंतानंत विस्रसोपचयों से उपचित होते हैं । परंतु वे सब सांतरनिरंतर आदि नीचे की वर्गणाओं में कहीं भी सदृश धन वाले नहीं होते, क्योंकि वे प्रत्येक वर्गणा के असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं ।
- ऊपर के द्रव्यों के भेद के बिना प्रत्येक शरीरवर्गणा उत्पन्न होती है, क्योंकि बादरनिगोदवर्गणा और सूक्ष्मनिगोदवर्गणा (19वीं व 21वीं वर्गणाएँ) के औदारिक, तैजस और कार्मणवर्गणास्कंधों के अधःस्थिति गलना के द्वारा गलित होने पर प्रत्येक शरीर वर्गणा को उल्लंघन कर उनका नीचे सदृशधनरूप सांतरनिरंतर आदि वर्गणारूप से अवस्थान उपलब्ध होता है ।..... उपरिम वर्गणा से आये हुए परमाणुपुद्गलों से ही प्रत्येक शरीर वर्गणा की निष्पत्ति का अभाव है । = प्रश्न - ऊपर के द्रव्यों के भेद से प्रत्येक शरीरद्रव्य वर्गणा की उत्पत्ति क्यों नहीं कहते? उत्तर - नहीं, क्योंकि ऊपर की वर्गणाओं के भेद का नाम ही विनाश है और बादरनिगोदवर्गणा तथा सूक्ष्मनिगोदवर्गणा में से एक वर्गणा नष्ट होती हुई प्रत्येक शरीर वर्गणारूप से नहीं परिणमती, क्योंकि ऐसा होने पर प्रत्येक शरीर वर्गणाएँ अनंत हो जायेंगी ।
- वर्गणाओं में जाति भेद का निर्देश
- ऊपर व नीचे की वर्गणाओं में परस्पर संक्रमण की संभावना व समन्वय
देखें वर्गणा - 2.3 (एक प्रदेशी वर्गणा अपने से ऊपर वाली वर्गणाओं के भेद द्वारा उत्पन्न होती है और संख्यातप्रदेशी को आदि लेकर सांतरनिरंतर पर्यंत सर्व वर्गणाएँ ऊपर वाली के भेद से नीचे वाली के संघात से तथा स्वस्थान में भेद व संघात दोनों से उत्पन्न होती हैं । इससे ऊपर ध्रुवशून्य से महास्कंध पर्यंत केवल स्वस्थान में भेदसंघात द्वारा ही उत्पन्न होती है ।)
धवला 14/5, 6, 116/139/4 सुण्णाओ सुण्णत्तेण अद्धुवाओ वि, उवरिमहेट्ठिमवग्गणाणं भेदसंघादेण सुण्णाणं पि कालंतरे असुण्णुत्तुवलंभादो । असुण्णाओ असुण्णत्तणेण अद्धुवाओ । कुदो । वग्गणाणमेगसरूवेण सवद्धमवट्ठाणाभावादो । वग्गणादेसेण पुण सव्वाओ धुवाओ; अणंताणंतवग्गणाणं सव्वद्धमुवलंभादो । सुहुमणिगोदवग्गणाओ सुण्णत्तेण अद्धुवाओ; सुण्णवग्गाहि सव्वकालं सुण्णत्तणेणेव अच्छिदव्वमिदि णियमाभावादो । एदं सभवं पडुच्चपरूविदं । वत्तिं पडुच्च पुणभण्णमाणे सुण्णाओ सुण्णत्तेण धुवाओ वि अत्थिः वट्टमाणकाले असंखेज्जलोगमेत्तसुहुमणिगोदवग्गणाहि अदीदकालेण वि सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तट्ठाणावूरणं पडिसमवाभावादो । कारणं बादरणिगोदाणं व वत्तव्वं । अद्धुवाओ वि; उवरिम-हेट्ठिमवग्गणाणं भेदसंघादेण सुण्णाणं पि कालंतरे असुण्णत्तुवलंभादो ।... = शून्य वर्गणाएँ शून्यरूप से अध्रुव भी हैं, क्योंकि उपरिम और अधस्तन वर्गणाओं के भेदसंघात से शून्य वर्गणाएँ भी कालांतर में अशून्यरूप होकर उपलब्ध होती हैं । अशून्य वर्गणाएँ अशून्यरूप से अध्रुव हैं, क्योंकि वर्गणाओं का एक रूप से सदा अवस्थान नहीं पाया जाता । वर्गणादेश की अपेक्षा तो सब वर्गणाएँ ध्रुव हैं, क्योंकि अनंतानंत वर्गणाएँ सर्वदा उपलब्ध होती हैं । सूक्ष्मनिगोदवर्गणाएँ शून्यरूप से अध्रुव हैं; क्योंकि शून्वर्गणाओं को सर्वदा शून्यरूप से ही रहना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है । यह संभव की अपेक्षा कहा है परंतु व्यक्ति की अपेक्षा कथन करने पर शून्य वर्गणाएँ शून्यरूप से ध्रुव भी है, क्योंकि वर्तमान काल में असंख्यात लोकप्रमाण सूक्ष्मनिगोद वर्गणाओं के द्वारा पूरे अतीतकाल में भी सब जीवों से अनंतगुणे स्थानों का पूरा करना संभव नहीं है । कारण बादरनिगोद जीवों के समान कहना चाहिए । वे अध्रुव भी हैं, क्योंकि उपरिम और अधस्तन वर्गणाओं के भेद संघात से शून्यवर्गणाएँ भी कालांतर में अशून्यरूप होकर उपलब्ध होती हैं । अशून्य सूक्ष्मनिगोद वर्गणाएँ अशून्यरूप से अध्रुव हैं, क्योंकि सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओं का अवस्थितरूप से अवस्थान नहीं पाया जाता ।
धवला 14/5, 6, 107/125/13 ण पत्तेयबादरसुहुमणिगोदवग्गणाभेदेण होदि; सचित्तवग्गणाणमचित्तवग्गणसरूवेण परिणामाभावादो । ण च सचित्तवग्गणाए कम्मणोकम्मक्खंधेसु तत्ते विप्फट्टिय सांतरणिरंतरवग्गणाणमायारेण परिणदेसु तव्भेदेणेवेदिस्से समुप्पत्ती; तत्ते विप्फट्टसमए चेव ताहिंतो पुदभूदखंधाणं सचित्तवग्गणभावविरोहादो । ण महाखंधभेदेणेदिस्से समुप्पत्ती; महाखंधादो विप्फट्टखंधाणं महाखंधभेदेहिंतो पुधभूदाणं महाखंधववएसाभावेण तेसिं तब्भेदत्तणुववत्तीदो । एदम्मि णए अवलंबिज्जमाणे उवरिल्लीणं वग्गणाणं भेदेण ण होदि त्ति परूविदं । दव्वट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे उपरिल्लीणं भेदेण वि होदि ।... पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे हेट्ठिल्लीणं संघादेण वि होदि; उक्कस्स धुवक्खंधवग्गणाए एगादिपरमाणुसमागमे सांतरणिरंतरवग्गणाए समुप्पत्ति पडि विरोहाभावादो ।.. ण सत्थाणं चेव परिणामो वि; जहण्णवग्गणादो परमाणुत्तरवग्गणाए उप्पत्तिविरोहादो सांतरणिरंतरवग्गणाए अभावप्पसंगादो च ।.. धुवखंधादिहेट्ठिमवग्गणाओ सत्थाणे चेव समागमंति उवरिमवग्गणाहि वा; साहावियादो । सांतरणिरंतरवग्गणा पुण सत्थाणे चेव भेदेण संघादेण तदुभयेण वा परिणमदि त्ति जाणावणट्ठं भेदसंघादेणे त्ति परूविदं । = प्रत्येक शरीर, बादरनिगोद और सूक्ष्म निगोद वर्गणाओं के भेद से यह (ध्रुवस्कंध व सांतरनिरंतर) वर्गणा नहीं होती क्योंकि सचित्त वर्गणाओं का अचित्त वर्गणा रूप से परिणमन होने में विरोध है । यदि कहा जाये कि सचित्तवर्गणा के कर्म और नोकर्मस्कंधों में उससे अलग होकर सांतरनिरंतर वर्गणारूप से परिणत होने पर उनके भेद से इस वर्गणा की उत्पत्ति होती है, सो कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उनसे अलग होने के समय ही उनसे अलग हुए स्कंधों को सचित्त वर्गणा होने में विरोध आता है । महास्कंध के भेद से इस वर्गणा की उत्पत्ति होती है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि महास्कंध से अलग हुए स्कंध यतः महास्कंध के भेद से अलग हुए हैं, अतः उनकी महास्कंध संज्ञा नहीं हो सकती और इसलिए उनका उससे भेद नहीं बन सकता । इस (पर्यायार्थिक) नय का अवलंबन करने पर ऊपर की वर्गणाओं के भेद से यह वर्गणा नहीं होती है, यह कहा गया है । परंतु द्रव्यार्थिक नय का अवलंबन करने पर ऊपर की वर्गणाओं के भेद से भी यह वर्गणा होती है । पर्यायार्थिक नय का अवलंबन कर लेने पर नीचे की वर्गणाओं के संघात से भी यह वर्गणा होती है, क्योंकि उत्कृष्ट ध्रुवस्कंधवर्गणा में एक आदि परमाणु का समागम होने पर सांतरनिरंतर वर्गणा की उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं है । केवल स्वस्थान में ही परिणमन होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जघन्य वर्गणा से एक परमाणु अधिक वर्गणा की उत्पत्ति होने में विरोध आता है, दूसरे सांतरनिरंतर वर्गणा का अभाव भी प्राप्त होता है । ध्रुवस्कंधादि नीचे की वर्गणाएँ स्वस्थान में ही समागम को प्राप्त होती हैं अथवा ऊपर की वर्गणाओं के साथ समागम को प्राप्त होती हैं, क्योंकि ऐसा स्वभाव है । परंतु सांतरनिरंतरवर्गणा स्वस्थान में ही भेद से, संघात से या तदुभय से परिणमन करती हैं, इस बात का ज्ञान कराने के लिए (सूत्र में)‘भेदसंघात से होना’ कहा है ।
- भेदसंघात व्यपदेश का स्पष्टीकरण
धवला 14/5, 6, 103/124/6 हेट्ठिल्लुवरिल्लवग्गणाणं भेदसंघादेण अप्पिदवग्गणाणमुप्पत्ती किण्ण वुच्चदे; भेदकाले विणासं मोत्तूण उप्पत्तीए अभावं पडिविसेसाभावादो । ण; तत्थ एवंविधणयाभावादो । अथवा भेदसंघादस्स एवमत्थो वत्तव्वो । तं जहाभेदसंघादाणं दोण्णं संजोगो सत्थाणं णाम; तम्हि णिरुद्धे उवरिल्लीणं हेट्ठिल्लीणं अप्पिदाणं च दव्वाणं भेदपुरंगमसंघादेण अप्पिदवग्गणुप्पत्तिदंसणादो । सत्थाणेण भेदसंघादेण उप्पत्ती वुच्चदे । सव्वो वि परमाणुसंघादो भेदपुरंगमो चेवेत्ति सव्वासिं वग्गणाणं भेदसंघादेणेव उप्पत्ती किण्ण वुच्चदे । ण एस दोसो; भेदाणंतरं जो संघादो सो भेदसंघादो णाम ण अंतरिदो, अव्ववत्थाप्पसंगादो । तम्हा ण सव्ववग्गणाणं भेदसंघादेणुप्पत्ती । = प्रश्न - नीचे की और ऊपर की वर्गणाओं के भेदसंघात से विवक्षित वर्गणाओं की उत्पत्ति क्यों नहीं कहते, क्योंकि भेद के समय विनाश को छोड़कर उत्पत्ति के अभाव के प्रति कोई विशेषता नहीं? उत्तर - नहीं; क्योंकि वहाँ पर इस प्रकार के नय का अभाव है । अथवा भेदसंघात का इस प्रकार का अर्थ करना चाहिए । यथा-भेद और संघात दोनों का संयोग स्वस्थान कहलाता है । उसके विवक्षित होने पर ऊपर के, नीचे के और विवक्षित द्रव्यों के भेदपूर्वक संघात से विवक्षित वर्गणा की उत्पत्ति देखी जाती है । इसे स्वस्थान की अपेक्षा भेद संघात से उत्पत्ति कहते हैं । प्रश्न - सभी परमाणुसंघात भेदपूर्वक ही होता है, इसलिए सभी वर्गणाओं की उत्पत्ति भेदसंघात से ही क्यों नहीं कहते हो? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भेद के अनंतर जो संघात होता है, उसे भेदसंघात कहते हैं । जो अंतर से होता है उसकी यह संज्ञा नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अव्यवस्था का प्रसंग आता है । इसलिए सर्व वर्गणाओं की उत्पत्ति भेदसंघात से नहीं होती ।
- वर्गणाओं में प्रदेश व रसादि का निर्देश