ज्योतिष्क: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p> चतुर्विध देवों में एक प्रकार के देव । ये उज्ज्वल किरणों से युक्त हैं और पांच प्रकार के हैं― ग्रह, नक्षत्र चंद्र सूर्य और तारे । तीर्थंकरों का जन्म होते ही इन देवों के भवनों में अकस्मात् सिंह गर्जना होने लगती है । इनका निवास मध्यलोक के ऊपर होता है । ये मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देते हुए निरंतर गतिशील रहते हैं । इनके विमानों में जिनालय और जिनालयों में हेम-रत्नमयी जिन प्रतिमाएँ रहती है । इन देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक एक पल्य तथा जघन्य स्थिति पल्य के आठवें भाग प्रमाण होती है । <span class="GRef"> महापुराण 70.143, 72. 47, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#81|पद्मपुराण - 3.81-82]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#159|पद्मपुराण -3. 159]]-163, 105.165, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 3.140 38.19, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 11.101-102 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> चतुर्विध देवों में एक प्रकार के देव । ये उज्ज्वल किरणों से युक्त हैं और पांच प्रकार के हैं― ग्रह, नक्षत्र चंद्र सूर्य और तारे । तीर्थंकरों का जन्म होते ही इन देवों के भवनों में अकस्मात् सिंह गर्जना होने लगती है । इनका निवास मध्यलोक के ऊपर होता है । ये मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देते हुए निरंतर गतिशील रहते हैं । इनके विमानों में जिनालय और जिनालयों में हेम-रत्नमयी जिन प्रतिमाएँ रहती है । इन देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक एक पल्य तथा जघन्य स्थिति पल्य के आठवें भाग प्रमाण होती है । <span class="GRef"> महापुराण 70.143, 72. 47, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#81|पद्मपुराण - 3.81-82]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#159|पद्मपुराण -3. 159]]-163, 105.165, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#140|हरिवंशपुराण - 3.140]] 38.19, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 11.101-102 </span></p> | ||
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Latest revision as of 16:01, 16 February 2024
चतुर्विध देवों में एक प्रकार के देव । ये उज्ज्वल किरणों से युक्त हैं और पांच प्रकार के हैं― ग्रह, नक्षत्र चंद्र सूर्य और तारे । तीर्थंकरों का जन्म होते ही इन देवों के भवनों में अकस्मात् सिंह गर्जना होने लगती है । इनका निवास मध्यलोक के ऊपर होता है । ये मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देते हुए निरंतर गतिशील रहते हैं । इनके विमानों में जिनालय और जिनालयों में हेम-रत्नमयी जिन प्रतिमाएँ रहती है । इन देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक एक पल्य तथा जघन्य स्थिति पल्य के आठवें भाग प्रमाण होती है । महापुराण 70.143, 72. 47, पद्मपुराण - 3.81-82,पद्मपुराण -3. 159-163, 105.165, हरिवंशपुराण - 3.140 38.19, वीरवर्द्धमान चरित्र 11.101-102