केवली: Difference between revisions
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< | <span class="HindiText">केवलज्ञान होने के पश्चात् वह साधक केवली कहलाता है। इसी का नाम अर्हंत या जीवन्मुक्त भी है। वह भी दो प्रकार के होते हैं–तीर्थंकर व सामान्य केवली। विशेष पुण्यशाली तथा साक्षात् उपदेशादि द्वारा धर्म की प्रभावना करने वाले तीर्थंकर होते हैं, और इनके अतिरिक्त अन्य सामान्य केवली होते हैं। वे भी दो प्रकार के होते हैं, कदाचित् उपदेश देने वाले और मूक केवली। मूक केवली बिलकुल भी उपदेश आदि नहीं देते। उपरोक्त सभी केवलियों की दो अवस्थाएँ होती हैं–सयोग और अयोग। जब तक विहार व उपदेश आदि क्रियाएँ करते हैं, तब तक सयोगी और आयु के अंतिम कुछ क्षणों में जब इन क्रियाओं को त्याग सर्वथा योग निरोध कर देते हैं तब अयोगी कहलाते हैं।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[केवली#1 | भेद व लक्षण ]]</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[केवली#2 | केवली निर्देश ]]</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[केवली#3 | शंका–समाधान ]]</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[केवली#4 | कवलाहार व परीषह संबंधी निर्देश व शंका–समाधान ]]</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[केवली#5 | इंद्रिय व मन योग संबंधी निर्देश व शंका-समाधान ]]</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1"> भेद व लक्षण</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> केवली सामान्य का लक्षण</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1">केवली निरावरण ज्ञानी होते हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> मूलाचार/566</span><span class="PrakritGatha"> सव्वं केवलिकप्पं लोगं जाणंति तह य पस्संति। केवलणाणचरित्ता तम्हा ते केवली होंति।564।</span>=<span class="HindiText">जिस कारण सब केवलज्ञान का विषय लोक अलोक को जानते हैं और उसी तरह देखते हैं। तथा जिनके केवलज्ञान ही आचरण है इसलिए वे भगवान् केवली हैं।</span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/6/13/331/11 | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/6/13/331/11</span><span class="SanskritText">निरावरणज्ञाना: केवलिन:।</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/9/38/453/9 <span class="SanskritText"> प्रक्षीणसकलज्ञानावरणस्य केवलिन: सयोगस्यायोगस्य च परे उत्तरे शुक्लध्याने भवत:।</span>=<span class="HindiText">जिनका ज्ञान आवरण रहित है वे केवली कहलाते हैं। जिसके समस्त ज्ञानावरण का नाश हो गया है ऐसे सयोग व अयोग केवली...। ( धवला/1/1,1,21/191/3 )।</span><br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/9/38/453/9</span> <span class="SanskritText"> प्रक्षीणसकलज्ञानावरणस्य केवलिन: सयोगस्यायोगस्य च परे उत्तरे शुक्लध्याने भवत:।</span>=<span class="HindiText">जिनका ज्ञान आवरण रहित है वे केवली कहलाते हैं। जिसके समस्त ज्ञानावरण का नाश हो गया है ऐसे सयोग व अयोग केवली...। <span class="GRef">(धवला/1/1,1,21/191/3)</span>।</span><br /> | ||
राजवार्तिक/6/13/1/523/26 <span class="SanskritText"> करणक्रमव्यवधानातिवर्तिज्ञानोपेता: केवलिन:।1। करणं चक्षुरादि, कालभेदेन वृत्ति: क्रम:, कुड्यादिनांतर्धानं व्यवधानम्, एतान्यतीत्य वर्तते, ज्ञानावरणस्यात्यंतसंक्षये आविभूतमात्मन: स्वाभाविकं ज्ञानम्, तद्वंतोऽर्हंतो भगवंत: केवलिन इति व्यपदिश्यंते।</span>=<span class="HindiText">ज्ञानावरण का अत्यंत क्षय हो जाने पर जिनके स्वाभाविक अनंतज्ञान प्रकट हो गया है, जिनका ज्ञान इंद्रिय कालक्रम और दूर देश आदि के व्यवधान से परे हैं और परिपूर्ण हैं वे केवली हैं ( राजवार्तिक/9/1/23/590 )। <br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/6/13/1/523/26</span> <span class="SanskritText"> करणक्रमव्यवधानातिवर्तिज्ञानोपेता: केवलिन:।1। करणं चक्षुरादि, कालभेदेन वृत्ति: क्रम:, कुड्यादिनांतर्धानं व्यवधानम्, एतान्यतीत्य वर्तते, ज्ञानावरणस्यात्यंतसंक्षये आविभूतमात्मन: स्वाभाविकं ज्ञानम्, तद्वंतोऽर्हंतो भगवंत: केवलिन इति व्यपदिश्यंते।</span>=<span class="HindiText">ज्ञानावरण का अत्यंत क्षय हो जाने पर जिनके स्वाभाविक अनंतज्ञान प्रकट हो गया है, जिनका ज्ञान इंद्रिय कालक्रम और दूर देश आदि के व्यवधान से परे हैं और परिपूर्ण हैं वे केवली हैं <span class="GRef">(राजवार्तिक/9/1/23/590)</span>। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> केवली आत्मज्ञानी होते हैं</strong></span><br /> | ||
समयसार/9 | <span class="GRef">समयसार/9 </span> <span class="PrakritText">जो हि सुएण हि गच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं। तं सुथकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पईवयवा।9।</span>=<span class="HindiText">जो जीव निश्चय से श्रुतज्ञान के द्वारा इस अनुभव गोचर केवल एक शुद्ध आत्मा को सम्मुख होकर जानता है, उसको लोक को प्रगट जानने वाले ऋषिवर श्रुतकेवली कहते हैं।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/33 <span class="SanskritText">भगवान्....केवलस्यात्मन आत्मनात्मनि संचेतनात् केवली।</span>=<span class="HindiText">भगवान्....आत्मा को आत्मा से आत्मा में अनुभव करने के कारण केवली हैं। (भावार्थ–भगवान् समस्त पदार्थों को जानते हैं, मात्र इसलिए ही वे ‘केवली’ नहीं कहलाते, किंतु केवल अर्थात् शुद्धात्मा को जानने—अनुभव करने से केवली कहलाते हैं)।</span><br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/33</span> <span class="SanskritText">भगवान्....केवलस्यात्मन आत्मनात्मनि संचेतनात् केवली।</span>=<span class="HindiText">भगवान्....आत्मा को आत्मा से आत्मा में अनुभव करने के कारण केवली हैं। (भावार्थ–भगवान् समस्त पदार्थों को जानते हैं, मात्र इसलिए ही वे ‘केवली’ नहीं कहलाते, किंतु केवल अर्थात् शुद्धात्मा को जानने—अनुभव करने से केवली कहलाते हैं)।</span><br /> | ||
मोक्षपाहुड़/ | <span class="GRef">मोक्षपाहुड़/ टीका/6/308/11</span> <span class="SanskritText">केवते सेवते निजात्मनि एकलोलीभावेन तिष्ठतीति केवल:।</span>=<span class="HindiText">जो निजात्मा में एकीभाव से केवते हैं, सेवते हैं या ठहरते हैं वे केवली कहलाते हैं।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> केवली के भेदों का निर्देश</strong> <br /> | ||
कषायपाहुड़/1/1,16/312/343/25 | <span class="GRef">कषायपाहुड़/1/1,16/312/343/25 विशेषार्थ</span><br> | ||
सत्ता स्वरूप/38 | <span class="HindiText">–तद्भवस्थकेवली और सिद्ध केवली के भेद से केवली दो प्रकार के होते हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef">सत्ता स्वरूप/38 </span><br> | |||
<span class="HindiText"> सात प्रकार के अर्हंत होते हैं। पाँच, तीन व दो कल्याणक युक्त, सातिशय केवली अर्थात् गंधकुटी युक्त केवली, सामान्य केवली अर्थात् मूककेवली, (दो प्रकार हैं—तीर्थंकर व सामान्य केवली) उपसर्ग केवली और अंत-कृत् केवली।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> तद्भवस्थ व सिद्ध केवली का लक्षण</strong> <br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/1,16/311/343/26 | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/1,16/311/343/26 विशेषार्थ</span><br> | ||
–जिस पर्याय में केवलज्ञान प्राप्त हुआ उसी पर्याय में स्थित केवली को तद्भवस्थ केवली कहते हैं और सिद्ध जीवों को सिद्ध केवली कहते हैं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> सयोग व अयोग केवली के लक्षण</strong></span><br> | ||
< | <span class="GRef">पंचसंग्रह/प्राकृत/1/27-30</span><span class="PrakritText"> केवलणाणदिवायरकिरणकलावप्पणासि अण्णाओ। णवकेवललद्धुग्गमपावियपरमप्पववएसो।27। असहयणाण—दंसणसहिओ वि हु केवली हु जोएण। जुत्तो त्ति सजोइजिणो अणाइणिहणारिसे वुत्तो।125। सेलेसिं संपत्तो णिरुद्धणिस्सेस आसओ जीवो। कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होई।30।</span>=<span class="HindiText">जिसका केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से अज्ञान विनष्ट हो गया है। जिसने केवललब्धि प्राप्त कर परमात्म संज्ञा प्राप्त की है, वह असहाय ज्ञान और दर्शन से युक्त होने के कारण केवली, तीनों योगों से युक्त होने के कारण सयोगी और घाति कर्मों से रहित होने के कारण जिन कहा जाता है, ऐसा अनादिनिधन आर्ष में कहा हैं। (27, 28) जो अठारह हजार शीलों के स्वामी हैं, जो आस्रवों से रहित हैं, जो नूतन बँधने वाले कर्मरज से रहित हैं और जो योग से रहित हैं, तथा केवलज्ञान से विभूषित हैं, उन्हें अयोगी परमात्मा कहते हैं।30। <span class="GRef">(धवला 1/1,1,21/124-126/192)</span> <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/63-65)</span> <span class="GRef">(पंचसंग्रह/संस्कृत/1/49-50)</span> </span><br> | ||
<span class="GRef">पंचसंग्रह/प्राकृत/1/100</span><span class="PrakritGatha"> जेसिं ण संति जोगा सुहासुहा पुण्णपापसंजणया। ते होंति अजोइजिणा अणोवमाणंतगुणकलिया।100।</span>=<span class="HindiText">जिनके पुण्य और पाप के संजनक अर्थात् उत्पन्न करने वाले शुभ और अशुभ योग नहीं होते हैं, वे अयोगि जिन कहलाते हैं, जो कि अनुपम और अनंत गुणों से सहित होते हैं। ( <span class="GRef">धवला 1/1,1,59/155/280)</span> ( <span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड/243)</span> <span class="GRef">(पंचसंग्रह/संस्कृत/1/180)</span></span><br> <span class="GRef"> धवला 7/2,1,15/18/2</span> <span class="PrakritText"> सट्ठिददेसमछंडिय छहित्ता वा जीवदव्वस्स। सावयवेहिं परिप्फंदो अजोगो णाम, तस्स कम्मक्खयत्तादो।</span>=<span class="HindiText">स्वस्थित प्रदेश को छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीव द्रव्य का अपने अवयवों द्वारा परिस्पंद होता है वह अयोग है, क्योंकि वह कर्मक्षय से उत्पन्न होता है।</span><br> | |||
ज.1/1,1,21/191/4 <span class="SanskritText">योगेन सह वर्तंत इति सयोगा:। सयोगाश्च ते केवलिनश्च सयोगकेवलिन:।</span> | <span class="GRef">ज.1/1,1,21/191/4</span> <span class="SanskritText">योगेन सह वर्तंत इति सयोगा:। सयोगाश्च ते केवलिनश्च सयोगकेवलिन:।</span> <span class="GRef"> धवला 1/1,1,22/192/7</span> <span class="SanskritText"> न विद्यते योगो यस्य स भवत्ययोग:। केवलमस्यास्तीति केवली। अयोगश्चासौ केवली च अयोगकेवली।</span>=<span class="HindiText">जो योग के साथ रहते हैं उन्हें सयोग कहते हैं, इस तरह जो सयोग होते हुए केवली हैं उन्हें सयोग केवली कहते हैं। जिसके योग विद्यमान नहीं हैं उसे अयोग कहते हैं। जिसके केवलज्ञान पाया जाता है उसे केवली कहते हैं, जो योगरहित होते हुए केवली होता है उसे अयोग केवली कहते हैं। <span class="GRef">(राजवार्तिक/9/1/24/59/23)</span></span><br> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/13/35</span> <span class="SanskritText">ज्ञानावरणदर्शनावरणांतरायत्रयं युगपदेकसमयेन निर्मूल्य मेघपंजरविनिर्गतदिनकर इव सकलविमलकेवलज्ञानज्ञानकिरणैर्लोकालोकप्रकाशकास्त्रयोदशगुणस्थानवर्तिनो जिनभास्करा भवंति। मनोवचनकायवर्गणालंबनकर्मादाननिमितात्मप्रदेशपरिस्पंदलक्षणयोगरहितश्चतुर्दशगुणस्थानवर्तिनोऽयोगिजिना भवंति।</span>=<span class="HindiText">समस्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन तीनों को एक साथ एक काल में सर्वथा निर्मूल करके मेघपटल से निकले हुए सूर्य के समान केवलज्ञान की किरणों से लोकालोक के प्रकाशक तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिनभास्कर (सयोगी जिन) होते हैं। और मन, वचन, काय वर्गणा के अवलंबन से कर्मों के ग्रहण करने में कारण जो आत्मा के प्रदेशों का परिस्पंदन रूप योग है, उससे रहित चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी जिन होते हैं। </span></li> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> केवली निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="2.1" id="2.1"> केवली चैतन्यमात्र नहीं बल्कि सर्वज्ञ होता है</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.1" id="2.1"> केवली चैतन्यमात्र नहीं बल्कि सर्वज्ञ होता है</span><br /> | ||
<span class="GRef">स्वयम्भू स्तोत्र/टीका/5/13</span><span class="SanskritText"> ननु. तत् (कर्म) प्रक्षये तु जडो भविष्यति...बुद्धिं आदि-विशेषगुणानामत्यंतोच्छेदात् इति यौगा:। चैतन्यमात्ररूपं इति सांख्या:। सकलविप्रमुक्त: सन्नात्मा समग्रविद्यात्मवपुर्भवति न जड़ो, नापि चैतन्यमात्ररूप:।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–1. कर्मों का क्षय हो जाने पर जीव जड़ हो जायेगा, क्योंकि उसके बुद्धि आदि गुणों का अत्यंत उच्छेद हो जायेगा। ऐसा योगमत वाले कहते हैं। 2. वह तो चैतन्य मात्र रूप है, ऐसा सांख्य कहते हैं?<strong> उत्तर–</strong>सकल कर्मों से मुक्त होने पर आत्मा संपूर्णत: ज्ञानशरीरी हो जाता है जड़ नहीं, और न ही चैतन्य मात्र रहता है।</span><br /> | |||
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<li name="2.2" id="2.2"><span class="HindiText"> सयोग व अयोग केवली में अंतर</span><br /> | <li name="2.2" id="2.2"><span class="HindiText"> सयोग व अयोग केवली में अंतर</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/13/36 <span class="SanskritText">चारित्रविनाशकचारित्रमोहोदयाभावेऽपि सयोगिकेवलिनां निष्क्रियशुद्धात्माचरणविलक्षणो योगत्रयव्यापारश्चारित्रमलं जनयति, योगत्रयगते पुनरयोगिजिने चरमसमयं विहाय शेषाघातिकर्मतीव्रोदयश्चारित्रमलं जनयति, चरमसमये तु मंदोदये सति चारित्रमलाभावात् मोक्षं गच्छति।</span>=<span class="HindiText">सयोग केवली के चारित्र के नाश करने वाले चारित्रमोह के उदय का अभाव है, तो भी निष्क्रिय आत्मा के आचरण से विलक्षण जो तीन योगों का व्यापार है वह चारित्र में दूषण उत्पन्न कहता है। तीनों योगों से रहित जो अयोगी जिन हैं उनके अंत समय को छोड़कर चार अघातिया कर्मों का तीव्र उदय चारित्र में दूषण उत्पन्न करता है और अंतिम समय में उन अघातिया कर्मों का मंद उदय होने पर चारित्र में दोष का अभाव हो जाने से अयोगी जिन मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।</span><br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/13/36</span> <span class="SanskritText">चारित्रविनाशकचारित्रमोहोदयाभावेऽपि सयोगिकेवलिनां निष्क्रियशुद्धात्माचरणविलक्षणो योगत्रयव्यापारश्चारित्रमलं जनयति, योगत्रयगते पुनरयोगिजिने चरमसमयं विहाय शेषाघातिकर्मतीव्रोदयश्चारित्रमलं जनयति, चरमसमये तु मंदोदये सति चारित्रमलाभावात् मोक्षं गच्छति।</span>=<span class="HindiText">सयोग केवली के चारित्र के नाश करने वाले चारित्रमोह के उदय का अभाव है, तो भी निष्क्रिय आत्मा के आचरण से विलक्षण जो तीन योगों का व्यापार है वह चारित्र में दूषण उत्पन्न कहता है। तीनों योगों से रहित जो अयोगी जिन हैं उनके अंत समय को छोड़कर चार अघातिया कर्मों का तीव्र उदय चारित्र में दूषण उत्पन्न करता है और अंतिम समय में उन अघातिया कर्मों का मंद उदय होने पर चारित्र में दोष का अभाव हो जाने से अयोगी जिन मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।</span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/1/1/1/4/484/26 <span class="SanskritText"> स्वपरिणामविशेष: शक्तिविशेष: सोऽंतरंग: सहकारी नि:श्रेयसोत्पत्तौ रत्नत्रयस्य तदभावे नामाद्यघातिकर्मत्रयस्य निर्जरानुपपत्तेर्नि:श्रेयसानुत्पत्ते:....तदपेक्षं क्षायिकरत्नत्रयं सयोगकेवलिन: प्रथमसमये मुक्तिं न संपादयत्येव, तदा तत्सहकारिणोऽसत्त्वात् ।</span>=<span class="HindiText">वे आत्मा की विशेष शक्तियाँ मोक्ष की उत्पत्ति में रत्नत्रय के अंतरंग सहकारी कारण हो जाती हैं। यदि आत्मा की उन सामर्थ्यों को सहकारी कारण न माना जावेगा तो नामादि तीन अघाती कर्मों की निर्जरा नहीं हो सकती थी। तिस कारण मोक्ष भी नहीं उत्पन्न हो सकेगा, क्योंकि उसका अभाव हो जायेगा। उन आत्मा के परिणाम विशेषों की अपेक्षा रखने वाला क्षायिक रत्नत्रय सयोग केवली गुणस्थान के पहले समय में मुक्ति को कथमपि प्राप्त नहीं करा सकता है। क्योंकि उस समय रत्नत्रय का सहकारी कारण वह आत्मा की शक्ति विशेष विद्यमान नहीं है।<br /> | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/1/1/1/4/484/26</span> <span class="SanskritText"> स्वपरिणामविशेष: शक्तिविशेष: सोऽंतरंग: सहकारी नि:श्रेयसोत्पत्तौ रत्नत्रयस्य तदभावे नामाद्यघातिकर्मत्रयस्य निर्जरानुपपत्तेर्नि:श्रेयसानुत्पत्ते:....तदपेक्षं क्षायिकरत्नत्रयं सयोगकेवलिन: प्रथमसमये मुक्तिं न संपादयत्येव, तदा तत्सहकारिणोऽसत्त्वात् ।</span>=<span class="HindiText">वे आत्मा की विशेष शक्तियाँ मोक्ष की उत्पत्ति में रत्नत्रय के अंतरंग सहकारी कारण हो जाती हैं। यदि आत्मा की उन सामर्थ्यों को सहकारी कारण न माना जावेगा तो नामादि तीन अघाती कर्मों की निर्जरा नहीं हो सकती थी। तिस कारण मोक्ष भी नहीं उत्पन्न हो सकेगा, क्योंकि उसका अभाव हो जायेगा। उन आत्मा के परिणाम विशेषों की अपेक्षा रखने वाला क्षायिक रत्नत्रय सयोग केवली गुणस्थान के पहले समय में मुक्ति को कथमपि प्राप्त नहीं करा सकता है। क्योंकि उस समय रत्नत्रय का सहकारी कारण वह आत्मा की शक्ति विशेष विद्यमान नहीं है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">सयोग व अयोग केवली में कर्मक्षय संबंधी विशेषताएँ</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,27/223/10 <span class="PrakritText">सयोगकेवली ण किंचि कम्मं खवेदि।</span>=<span class="HindiText">सयोगी जिन किसी भी कर्म का क्षय नहीं करते।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,27/223/10</span> <span class="PrakritText">सयोगकेवली ण किंचि कम्मं खवेदि।</span>=<span class="HindiText">सयोगी जिन किसी भी कर्म का क्षय नहीं करते।</span><br /> | ||
धवला 12/4,2,7,15/18/2 | <span class="GRef">धवला 12/4,2,7,15/18/2 </span> <span class="PrakritText">खीणकषाय-सजोगीसु ट्ठिदि-अणुभागघादेसु संतेसु वि सुहाणं पयडीणं अणुभागघादो णत्थि त्ति सिद्धे अजोगिम्हि ट्ठिदि-अणुभागवज्जिदे सुहाणं पयडीणमुक्कस्साणुभागो होदि त्ति अत्थावत्तिदिद्धं।</span>=<span class="HindiText">क्षीणकषाय और सयोगी जिन का ग्रहण प्रगट करता है कि शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योग निरोध से नहीं होता। क्षीण कषाय और सयोगी गुणस्थानों में स्थितिघात व अनुभागघात के होने पर भी शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात वहाँ नहीं होता, यह सिद्ध होने पर स्थिति व अनुभाग से रहित अयोगी गुणस्थान में शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग होता है, यह अर्थापत्ति से सिद्ध है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> केवली को एक क्षायिक भाव होता है</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,21/191/6 <span class="SanskritText">क्षायिताशेषघातिकर्मत्वान्नि:शक्तीकृतवेदनीयत्वान्नष्टाष्टकर्मावयवषष्टिकर्मत्वाद्वा क्षायिकगुण:।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,21/191/6</span> <span class="SanskritText">क्षायिताशेषघातिकर्मत्वान्नि:शक्तीकृतवेदनीयत्वान्नष्टाष्टकर्मावयवषष्टिकर्मत्वाद्वा क्षायिकगुण:।</span><br /> | ||
धवला 1/1,1,21/199/2 <span class="SanskritText"> पंचसु गुणेषु कोऽत्र गुण इति चेत्, क्षीणाशेषघातिकर्मत्वान्निरस्यमानाद्याप्तिकर्मत्वाच्च क्षायिको गुण:।</span>=<span class="HindiText">1.चारों घातिया कर्मों के क्षय कर देने से, वेदनीय कर्म के निशक्त कर देने से, अथवा आठों ही कर्मों के अवयव रूप साठ उत्तर प्रकृतियों के नष्ट कर देने से इस गुणस्थान में क्षायिक भाव होता है। 2.<strong> प्रश्न–</strong>पाँच प्रकार के भावों में इस (अयोगी) गुणस्थान में कौन-सा भाव होता है? <strong>उत्तर</strong>–संपूर्ण घातिया कर्मों के क्षीण हो जाने से और थोडे ही समय में अघातिया कर्मों के नाश को प्राप्त होने वाले होने से इस गुणस्थान में क्षायिक भाव होता है।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,21/199/2</span> <span class="SanskritText"> पंचसु गुणेषु कोऽत्र गुण इति चेत्, क्षीणाशेषघातिकर्मत्वान्निरस्यमानाद्याप्तिकर्मत्वाच्च क्षायिको गुण:।</span>=<span class="HindiText">1.चारों घातिया कर्मों के क्षय कर देने से, वेदनीय कर्म के निशक्त कर देने से, अथवा आठों ही कर्मों के अवयव रूप साठ उत्तर प्रकृतियों के नष्ट कर देने से इस गुणस्थान में क्षायिक भाव होता है। 2.<strong> प्रश्न–</strong>पाँच प्रकार के भावों में इस (अयोगी) गुणस्थान में कौन-सा भाव होता है? <strong>उत्तर</strong>–संपूर्ण घातिया कर्मों के क्षीण हो जाने से और थोडे ही समय में अघातिया कर्मों के नाश को प्राप्त होने वाले होने से इस गुणस्थान में क्षायिक भाव होता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/45</span> <span class="PrakritText">पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया। मोहादीहिं विरहिया तम्हा सा खाइग त्ति मदा।</span>=<span class="HindiText">अरहंत भगवान् पुण्य फलवाले हैं और उनकी क्रिया औदयिकी है, मोहादि से रहित है इसलिए वह क्षायिकी मानी गयी है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">केवलियों के शरीर की विशेषताएँ</strong> </span><br> <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/4/705</span> <span class="PrakritText">जादे केवलणाणे परमोरालं जिणाण सव्वाणं। गच्छदि उवरिं चावा पंच सहस्साणि वसुहाओ।705।</span>=<span class="HindiText">केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर समस्त तीर्थंकरों का परमौदारिक शरीर पृथिवी से पाँच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चला जाता है।705।</span> <span class="GRef">धवला 14/5,6,91/81/8</span> <span class="PrakritText">सजोगि-अजोगिकेवलिणो च पत्तेय-सरीरा वुच्चंति एदेसिं णिगोदजीवेहिं सह संबंधाभावादो। </span><br> <span class="GRef">धवला 14/5,6,116/138/4</span> <span class="PrakritText">खीणकसायम्मि बादरणिगोदवग्गणाए संतीए केवलणाणुप्पत्तिविरोहादो।</span>=<span class="HindiText">1. सयोगकेवली और अयोगकेवली ये जीव प्रत्येक शरीरवाले होते हैं, क्योंकि इनका निगोद जीवों के साथ संबंध नहीं होता। 2. क्षीण कषाय में बादर निगोद वर्गणा के रहते हुए केवलज्ञान की उत्पत्ति होने में विरोध है। (यहाँ बादरनिगोद वर्गणा से बादर निगोद जीव का ग्रहण नहीं है, बल्कि केवली के औदारिक व कार्माण शरीरों व विस्रसोपचयों में बँधे परमाणुओं का प्रमाण बताना अभीष्ट है।) निगोद से रहित होता है।</span></li></ol></li></ol> | ||
<ol start="3"> | <ol start="3"> | ||
<li><strong name="3" id="3"><span class="HindiText"> शंका-समाधान</span></strong> | <li><strong name="3" id="3"><span class="HindiText"> शंका-समाधान</span></strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> ईर्यापथ आस्रव सहित भी भगवान् कैसे हो सकते हैं</strong> | ||
</span><br> धवला 13/5,4,24/51/8 <span class="PrakritText">जलमज्झणिवदियतत्तलोहुंडओ त्व इरियावहकम्मजलं सगसव्वजीवपदेसेहि गेण्हमाणो केवली कधं परमप्पएण समाणत्तं पडिवज्जदि त्ति भणिदे तण्णिण्णयत्थमिदं वुच्चदे—इरियावहकम्मं गहिदं पि तण्ण गहिदं...अणंतरसंसारफलणिव्वत्तणसत्तिविरहादो... बद्धं पि तण्ण बद्धं चेव, विदियसमए चेव णिज्जरुवलंभादो पुणो...पुट्ठं पि तण्ण पुट्ठं चेव; इरियावहबंधस्स संतसहावेण ...अवट्ठणाभावादो।...उदिण्णमपि तण्ण उदिण्णं दद्धगोहूमरासिव्व पत्तणिब्बीयभावत्तादो।</span> <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—जल के बीच पड़े हुए तप्त लोह पिंड के समान ईर्यापथ कर्म जल को अपने सर्व जीव प्रदेशों द्वारा ग्रहण करते हुए केवली जिन परमात्मा के समान कैसे हो सकते हैं ? <strong>उत्तर</strong>—ईर्यापथ कर्मगृहीत होकर भी वह गृहीत नहीं है...क्योंकि वह संसारफल को उत्पन्न करने वाली शक्ति से रहित है। ...बद्ध होकर भी वह बद्ध नहीं है, क्योंकि दूसरे समय में ही उसकी निर्जरा देखी जाती है।....स्पृष्ट होकर भी वह स्पृष्ट नहीं है, कारण कि ईर्यापथ बंध का सत्त्व रूप से उनके अवस्थान नहीं पाया जाता...उदीर्ण होकर भी उदीर्ण नहीं है, क्योंकि वह दग्ध गेहूँ के समान निर्बीज भाव को प्राप्त हो गया है।</span></li></ol></li> | </span><br><span class="GRef"> धवला 13/5,4,24/51/8</span> <span class="PrakritText">जलमज्झणिवदियतत्तलोहुंडओ त्व इरियावहकम्मजलं सगसव्वजीवपदेसेहि गेण्हमाणो केवली कधं परमप्पएण समाणत्तं पडिवज्जदि त्ति भणिदे तण्णिण्णयत्थमिदं वुच्चदे—इरियावहकम्मं गहिदं पि तण्ण गहिदं...अणंतरसंसारफलणिव्वत्तणसत्तिविरहादो... बद्धं पि तण्ण बद्धं चेव, विदियसमए चेव णिज्जरुवलंभादो पुणो...पुट्ठं पि तण्ण पुट्ठं चेव; इरियावहबंधस्स संतसहावेण ...अवट्ठणाभावादो।...उदिण्णमपि तण्ण उदिण्णं दद्धगोहूमरासिव्व पत्तणिब्बीयभावत्तादो।</span> <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—जल के बीच पड़े हुए तप्त लोह पिंड के समान ईर्यापथ कर्म जल को अपने सर्व जीव प्रदेशों द्वारा ग्रहण करते हुए केवली जिन परमात्मा के समान कैसे हो सकते हैं ? <strong>उत्तर</strong>—ईर्यापथ कर्मगृहीत होकर भी वह गृहीत नहीं है...क्योंकि वह संसारफल को उत्पन्न करने वाली शक्ति से रहित है। ...बद्ध होकर भी वह बद्ध नहीं है, क्योंकि दूसरे समय में ही उसकी निर्जरा देखी जाती है।....स्पृष्ट होकर भी वह स्पृष्ट नहीं है, कारण कि ईर्यापथ बंध का सत्त्व रूप से उनके अवस्थान नहीं पाया जाता...उदीर्ण होकर भी उदीर्ण नहीं है, क्योंकि वह दग्ध गेहूँ के समान निर्बीज भाव को प्राप्त हो गया है।</span></li></ol></li> | ||
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<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4"> कवलाहार व परीषह संबंधी निर्देश व शंका—समाधान</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> केवली को नोकर्माहार होता है</strong></span><br /> | ||
क्षपणासार/618 <span class="PrakritGatha">पडिसमयं दिव्वतमं जोगी णोकम्मदेहपडिबद्धं। समयपबद्धं बंधदि गलिदवसेसाउमेत्तठिदी।618।</span>=<span class="HindiText">सयोगी जिन हैं सो समय समय प्रति नोकर्म जो औदारिक तीहि संबंधी जो समय प्रबद्ध ताकौ ग्रहण करै है। ताकी स्थिति आयु व्यतीत भए पीछे जेता अवशेष रहा तावन्मात्र जाननी। सो नोकर्म वर्गणा के ग्रहण ही का नाम आहार मार्गणा है ताका सद्भाव केवली कैं है।<br /> | <span class="GRef">क्षपणासार/618</span> <span class="PrakritGatha">पडिसमयं दिव्वतमं जोगी णोकम्मदेहपडिबद्धं। समयपबद्धं बंधदि गलिदवसेसाउमेत्तठिदी।618।</span>=<span class="HindiText">सयोगी जिन हैं सो समय समय प्रति नोकर्म जो औदारिक तीहि संबंधी जो समय प्रबद्ध ताकौ ग्रहण करै है। ताकी स्थिति आयु व्यतीत भए पीछे जेता अवशेष रहा तावन्मात्र जाननी। सो नोकर्म वर्गणा के ग्रहण ही का नाम आहार मार्गणा है ताका सद्भाव केवली कैं है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> समुद्घात अवस्था में नोकर्माहार भी नहीं होता</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">षट्खण्डागम 1/1,1/सूत्र 177/410</span> <span class="PrakritText">अणाहारा....केवलीणं वा समुग्घाद-गदाणं अजोगिकेवली....चेदि।177।</span><br /> | |||
धवला 2/1,1/669/5 <span class="PrakritText">कम्मग्गहणमत्थित्तं पडुच्च आहारित्तं किण्ण उच्चदि त्ति भणिदे ण उच्चदि; आहारस्स तिण्णिसमयविरहकालोवलद्धीदो।</span>=<span class="HindiText">1. समुद्घातगत केवलियों के सयोगकेवली और अयोगकेवली अनाहारक होते हैं। 2. <strong>प्रश्न</strong>–कार्माण काययोगी की अवस्था में भी कर्म वर्गणाओं के ग्रहण का अस्तित्व पाया जाता है, इस अपेक्षा कार्माण काययोगी जीवों को आहारक क्यों नहीं कहा जाता ? <strong>उत्तर</strong>–उन्हें आहारक नहीं कहा जाता है, क्योंकि कार्माण काययोग के समय नोकर्मणाओं के आहार का अधिक से अधिक तीन समय तक विरहकाल पाया जाता हैं।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 2/1,1/669/5</span> <span class="PrakritText">कम्मग्गहणमत्थित्तं पडुच्च आहारित्तं किण्ण उच्चदि त्ति भणिदे ण उच्चदि; आहारस्स तिण्णिसमयविरहकालोवलद्धीदो।</span>=<span class="HindiText">1. समुद्घातगत केवलियों के सयोगकेवली और अयोगकेवली अनाहारक होते हैं। 2. <strong>प्रश्न</strong>–कार्माण काययोगी की अवस्था में भी कर्म वर्गणाओं के ग्रहण का अस्तित्व पाया जाता है, इस अपेक्षा कार्माण काययोगी जीवों को आहारक क्यों नहीं कहा जाता ? <strong>उत्तर</strong>–उन्हें आहारक नहीं कहा जाता है, क्योंकि कार्माण काययोग के समय नोकर्मणाओं के आहार का अधिक से अधिक तीन समय तक विरहकाल पाया जाता हैं।</span><br /> | ||
क्षपणासार/619 <span class="PrakritText">णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे। णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ।</span>=<span class="HindiText">समुद्घात कौ प्राप्त केवली विषै दोय तौ प्रतर के समय अर एक लोक पूरण का समय इनि तीन समयानिविषै नोकर्म का आहार नियमतै नहीं है।<br /> | <span class="GRef">क्षपणासार/619</span> <span class="PrakritText">णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे। णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ।</span>=<span class="HindiText">समुद्घात कौ प्राप्त केवली विषै दोय तौ प्रतर के समय अर एक लोक पूरण का समय इनि तीन समयानिविषै नोकर्म का आहार नियमतै नहीं है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> केवली को कवलाहार नहीं होता</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/8/1/375 <span class="SanskritText">केवली कवलाहारी...विपर्यय।</span>=<span class="HindiText">केवली को कवलाहारी मानना विपरीत मिथ्या-दर्शन है।<br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/8/1/375</span> <span class="SanskritText">केवली कवलाहारी...विपर्यय।</span>=<span class="HindiText">केवली को कवलाहारी मानना विपरीत मिथ्या-दर्शन है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> मनुष्य होने के कारण केवली को भी कवलाहारी होना चाहिए</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्वयंभू स्तोत्र/ मूल/75</span><span class="SanskritText"> मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्, देवतास्वपि च देवता यत:। तेन नाथ ! परमासि देवता, श्रेयसे जिनवृष! प्रसीद न:।5।</span>=<span class="HindiText">हे नाथ ! चूँकि आप मानुषी प्रकृति को अतिक्रांत कर गये हैं और देवताओं में भी देवता हैं, इसलिए आप उत्कृष्ट देवता हैं, अत: हे धर्म जिन ! आप हमारे कल्याण के लिए प्रसन्न होवें।75। <span class="GRef">(बोधपाहुड़/ टीका/34/101)</span></span><br /> | |||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/29/12 <span class="SanskritText"> केवलिनो कवलाहारोऽस्ति मनुष्यत्वात् वर्तमानमनुष्यवत् । तदप्ययुक्तम् । तर्हि पूर्वकालपुरुषाणां सर्वज्ञत्वं नास्ति, रामरावणादिपुरुषाणां च विशेषसामर्थ्यं नास्ति वर्तमानमनुष्यवत् । न च तथा।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–केवली भगवान् के कवलाहार होता है, क्योंकि वह मनुष्य है, वर्तमान मनुष्य की भाँति? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा कहना युक्त नहीं है। क्योंकि अन्यथा पूर्वकाल के पुरुषों में सर्वज्ञता भी नहीं है। अथवा राम रावणादि पुरुषों में विशेष सामर्थ्य नहीं है, वर्तमान मनुष्य की भाँति। ऐसा मानना पड़ेगा। परंतु ऐसा है नहीं। (अत: केवली कवलाहारी नहीं है।)<br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/29/12</span> <span class="SanskritText"> केवलिनो कवलाहारोऽस्ति मनुष्यत्वात् वर्तमानमनुष्यवत् । तदप्ययुक्तम् । तर्हि पूर्वकालपुरुषाणां सर्वज्ञत्वं नास्ति, रामरावणादिपुरुषाणां च विशेषसामर्थ्यं नास्ति वर्तमानमनुष्यवत् । न च तथा।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–केवली भगवान् के कवलाहार होता है, क्योंकि वह मनुष्य है, वर्तमान मनुष्य की भाँति? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा कहना युक्त नहीं है। क्योंकि अन्यथा पूर्वकाल के पुरुषों में सर्वज्ञता भी नहीं है। अथवा राम रावणादि पुरुषों में विशेष सामर्थ्य नहीं है, वर्तमान मनुष्य की भाँति। ऐसा मानना पड़ेगा। परंतु ऐसा है नहीं। (अत: केवली कवलाहारी नहीं है।)<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> संयम की रक्षा के लिए भी केवली को कवलाहार की आवश्यकता थी</strong> </span><br /> | ||
कषायपाहुड़/1/1,1/52/5 | <span class="GRef">कषायपाहुड़/1/1,1/52/5 </span> <span class="PrakritText">किंतु तिरयणट्ठमिदि ण वोत्तुं जुत्तं, तत्थ पत्तासेसरुवम्मि तदसंभवादो। तं जहा, ण ताव णाणट्ठं भुंजइ, पत्तकेवलणाणभावादो। ण च केवलणाणादो अहियमण्णं पत्थणिज्जं णाणमत्थि जेण तदट्ठं केवली भुंजेज्ज। ण संजमट्ठं, पत्तजहाक्खादसंजमादो। ण ज्झाणट्ठं; विसईकयासेसतिहुवणस्स ज्झेयाभावादो। ण भुंजइ केवली भुत्तिकारणाभावादो त्ति सिद्धं।</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/1,1/53/71/1 | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/1,1/53/71/1 </span> <span class="PrakritText">अह जइ सो भुंजइ तो बलाउ-सादुसरीरुवचयतेज-सुहट्ठं चेव भुंजइ संसारिजावो व्व, ण च एवं, समोहस्स केवलणाणाणुववत्तीदो। ण च अकेवलिवयणमागमो, रागदोसमोहकलंककिए ....सच्चाभावादो। आगमाभावे ण तिरयणपउत्ति त्ति तित्थवोच्छेदो तित्थस्स णिव्वाहवोहविसयीकयस्स उवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">1. <strong>प्रश्न</strong>–यदि कहा जाय कि केवली रत्नत्रय के लिए भोजन करते हैं? <strong>उत्तर</strong>–यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि केवली जिन पूर्णरूप से आत्मस्वभाव को प्राप्त कर चुके हैं। इसलिए वे ‘रत्नत्रय अर्थात् ज्ञान, संयम और ध्यान के लिए भोजन करते हैं, यह बात संभव नहीं है। इसी का स्पष्टीकरण करते हैं–केवली जिन ज्ञान की प्राप्ति के लिए तो भोजन करते नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया है। तथा केवलज्ञान से बड़ा और कोई दूसरा ज्ञान प्राप्त करने योग्य नहीं है, जिससे उस ज्ञान की प्राप्ति के लिए भोजन करें। न ही संयम के लिए भोजन करते हैं क्योंकि उन्हें यथाख्यात संयम की प्राप्ति हो चुकी है। तथा ध्यान के लिए भी भोजन नहीं करते क्योंकि उन्होंने त्रिभुवन को जान लिया है, इसलिए इनके ध्यान करने योग्य कोई पदार्थ ही नहीं रहा है। अतएव भोजन करने का कोई कारण न रहने से केवली जिन भोजन नहीं करते हैं, यह सिद्ध हो जाता है। 2. यदि केवली जिन भोजन करते हैं तो संसारी जीवों के समान बल, आयु, स्वादिष्ट भोजन, शरीर की वृद्धि, तेज और सुख के लिए ही भोजन करते हैं ऐसा मानना पड़ेगा, परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर वह मोहयुक्त हो जायेंगे और इसलिए उनके केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। यदि कहा जाये कि जिनदेव को केवलज्ञान नहीं होता तो केवलज्ञान से रहित जीव के वचन ही आगम हो जावें ? यह भी ठीक नहीं क्योंकि ऐसा मानने पर राग, द्वेष, और मोह से कलंकित...जीवों के सत्यता का अभाव होने से वचन आगम नहीं कहे जायेंगे। आगम का अभाव होने से रत्नत्रय की प्रवृत्ति न होगी और तीर्थ का व्युच्छेद हो जायेगा। परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि निर्बाध बोध के द्वारा ज्ञात तीर्थ की उपलब्धि बराबर होती है। <span class="GRef">न्यायकुमुद चंद्रिका/पृ.852</span>।</span><br /> | ||
प्रमेयकमलमार्तंड/ | <span class="GRef">प्रमेयकमलमार्तंड/पृष्ठ 300</span> <span class="SanskritText">कवलाहारित्वे चास्य सरागत्वप्रसंग:।</span> <span class="HindiText">=केवली भगवान् को कवलाहारी मानने पर सरागत्व का प्रसंग प्राप्त होता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> औदारिक शरीर होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए</strong> </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/7 <span class="SanskritText"> केवलिनां भुक्तिरस्ति, औदारिकशरीरसद्भावात् ।....अस्मदादिवत् । परिहारमाह—तद्भगवत: शरीरमौदारिकं न भवति किंतु परमौदारिकम्–शुद्धस्फटिकसकाशं तेजोमूर्तिमयं वपु:। जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–केवली भगवान् भोजन करते हैं, औदारिक शरीर का सद्भाव होने से; हमारी भाँति? <strong>उत्तर–</strong>भगवान् का शरीर औदारिक नहीं होता अपितु परमौदारिक है। कहा भी है कि–‘दोषों के विनाश हो जाने से शुद्ध स्फटिक के सदृश सात धातु से रहित तेज मूर्तिमय शरीर हो जाता है। <br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/7</span> <span class="SanskritText"> केवलिनां भुक्तिरस्ति, औदारिकशरीरसद्भावात् ।....अस्मदादिवत् । परिहारमाह—तद्भगवत: शरीरमौदारिकं न भवति किंतु परमौदारिकम्–शुद्धस्फटिकसकाशं तेजोमूर्तिमयं वपु:। जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–केवली भगवान् भोजन करते हैं, औदारिक शरीर का सद्भाव होने से; हमारी भाँति? <strong>उत्तर–</strong>भगवान् का शरीर औदारिक नहीं होता अपितु परमौदारिक है। कहा भी है कि–‘दोषों के विनाश हो जाने से शुद्ध स्फटिक के सदृश सात धातु से रहित तेज मूर्तिमय शरीर हो जाता है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> आहारक होने के कारण केवली का कवलाहार होना चाहिए</strong> </span><br /> | ||
धवला/1/1,1,173/409/10 <span class="SanskritText">अत्र कवललेपोष्ममन:कर्माहारान् परित्यज्यनोकर्माहारो ग्राह्य:, अन्यथाहारकालविरहाभ्यां सहविरोधात्</span>=<span class="HindiText">आहारक मार्गणा में आहार शब्द से कवलाहार, लेपाहार...आदि को छोड़कर नोकर्माहार का ही ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा आहारकाल और विरह के साथ विरोध आता है।</span><br /> | <span class="GRef">धवला/1/1,1,173/409/10</span> <span class="SanskritText">अत्र कवललेपोष्ममन:कर्माहारान् परित्यज्यनोकर्माहारो ग्राह्य:, अन्यथाहारकालविरहाभ्यां सहविरोधात्</span>=<span class="HindiText">आहारक मार्गणा में आहार शब्द से कवलाहार, लेपाहार...आदि को छोड़कर नोकर्माहार का ही ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा आहारकाल और विरह के साथ विरोध आता है।</span><br /> | ||
प्रवचनसार/20/28/21 <span class="SanskritText"> मिथ्यादृष्टयादिसयोगकेवलिपर्यंतास्त्रयोदशगुणस्थानवर्तिनो जीवा आहारका भवंतीत्याहारकमार्गणायामागमे भणितमास्ते, तत: कारणात् केवलिनामाहारोऽस्तीति। तदप्ययुक्तम् । परिहार...यद्यपि षट्प्रकार आहारो भवति तथापि नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वमवबोद्धव्यम् । न च कवलाहारापेक्षया। तथाहि–सूक्ष्मा: सुरसा: सुगंधा अन्यमनुजानामसंभविन: कवलाहारं विनापि किंचिदूनपूर्वकोटिपर्यंतं शरीरस्थितिहेतव: सप्तधातुरहितपरमौदारिकशरीरनोकर्माहारयोग्या लाभांतरायकर्मनिरवशेषक्षयात् प्रतिक्षणं पुद्गला आस्रवंतीति...ततो ज्ञायते नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वम् । अथ मतम्–भवदीयकल्पनया आहारानाहारकत्वं नोकर्माहारापेक्षया, न च कवलाहारापेक्षया चेति कथं ज्ञायते। नैवम् । ‘‘एकं द्वौ त्रीन् वानाहारक:’’ इति तत्त्वार्थे कथितमास्ते। अस्य सूत्रस्यार्थ: कथ्यते–भवांतरगमनकाले विग्रहगतौ शरीराभावे सति नूतनशरीरधारणार्थं त्रयाणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलपिंडग्रहणं नोकर्माहार उच्यते। स च विग्रहगतौ कर्माहारे विद्यमानेऽप्येकद्वित्रिसमयपर्यंतं नास्ति। ततो नोकर्माहारापेक्षयाहारानाहारकत्वमागमे ज्ञायते। यदि पुन: कवलाहारापेक्षया तर्हि भोजनकालं विहाय सर्वदैवानाहारक एव, समयत्रयनियमो न घटते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–मिथ्यादृष्टि आदि सयोग केवली पर्यंत तेरह गुणस्थानवर्ती जीव आहारक होते हैं ऐसा आहारक मार्गणा में आगम में कहा है। इसलिए केवली भगवान् के आहार होता है? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा कहना युक्त नहीं है। इसका परिहार करते हैं। यद्यपि छह प्रकार का आहार होता है परंतु नोकर्माहार की अपेक्षा केवली को आहारक जानना चाहिए कवलाहार की अपेक्षा नहीं। सो ऐसे हैं–लाभांतराय कर्म का निरवशेष विनाश हो जाने के कारण सप्तधातुरहित परमौदारिक शरीर के नोकर्माहार के योग्य शरीर की स्थिति के हेतुभूत अन्य मनुष्यों को जो असंभव हैं ऐसे पुद्गल किंचिदून पूर्वकोटि पर्यंत प्रतिक्षण आते रहते हैं, इसलिए जाना जाता है कि केवली भगवान् को नोकर्माहार की अपेक्षा आहारकत्व है। <strong>प्रश्न</strong>–यह आपकी अपनी कल्पना है कि आहारक व अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है कवलाहार की अपेक्षा नहीं। कैसे जाना जाता है? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है। एक दो अथवा तीन समय तक अनाहारक होता है’ ऐसा तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है। इस सूत्र का अर्थ कहते हैं–एक भव से दूसरे भव में गमन के समय विग्रहगति में शरीर का अभाव होने पर नवीन शरीर को धारण करने के लिए तीन शरीरों की पर्याप्ति के योग्य पुद्गल पिंड को ग्रहण करना नोकर्माहार कहलाता है। वह कर्माहार विग्रहगति में विद्यमान होने पर भी एक, दो, तीन समय पर्यंत नहीं होता है। इसलिए आगम में आहारक व अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है ऐसा जाना जाता है। यदि कवलाहार की अपेक्षा हो तो भोजनकाल को छोड़कर सर्वदा अनाहारक ही होवे, तीन समय का नियम घटित न होवे। ( बोधपाहुड़/ | <span class="GRef">प्रवचनसार/20/28/21 </span><span class="SanskritText"> मिथ्यादृष्टयादिसयोगकेवलिपर्यंतास्त्रयोदशगुणस्थानवर्तिनो जीवा आहारका भवंतीत्याहारकमार्गणायामागमे भणितमास्ते, तत: कारणात् केवलिनामाहारोऽस्तीति। तदप्ययुक्तम् । परिहार...यद्यपि षट्प्रकार आहारो भवति तथापि नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वमवबोद्धव्यम् । न च कवलाहारापेक्षया। तथाहि–सूक्ष्मा: सुरसा: सुगंधा अन्यमनुजानामसंभविन: कवलाहारं विनापि किंचिदूनपूर्वकोटिपर्यंतं शरीरस्थितिहेतव: सप्तधातुरहितपरमौदारिकशरीरनोकर्माहारयोग्या लाभांतरायकर्मनिरवशेषक्षयात् प्रतिक्षणं पुद्गला आस्रवंतीति...ततो ज्ञायते नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वम् । अथ मतम्–भवदीयकल्पनया आहारानाहारकत्वं नोकर्माहारापेक्षया, न च कवलाहारापेक्षया चेति कथं ज्ञायते। नैवम् । ‘‘एकं द्वौ त्रीन् वानाहारक:’’ इति तत्त्वार्थे कथितमास्ते। अस्य सूत्रस्यार्थ: कथ्यते–भवांतरगमनकाले विग्रहगतौ शरीराभावे सति नूतनशरीरधारणार्थं त्रयाणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलपिंडग्रहणं नोकर्माहार उच्यते। स च विग्रहगतौ कर्माहारे विद्यमानेऽप्येकद्वित्रिसमयपर्यंतं नास्ति। ततो नोकर्माहारापेक्षयाहारानाहारकत्वमागमे ज्ञायते। यदि पुन: कवलाहारापेक्षया तर्हि भोजनकालं विहाय सर्वदैवानाहारक एव, समयत्रयनियमो न घटते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–मिथ्यादृष्टि आदि सयोग केवली पर्यंत तेरह गुणस्थानवर्ती जीव आहारक होते हैं ऐसा आहारक मार्गणा में आगम में कहा है। इसलिए केवली भगवान् के आहार होता है? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा कहना युक्त नहीं है। इसका परिहार करते हैं। यद्यपि छह प्रकार का आहार होता है परंतु नोकर्माहार की अपेक्षा केवली को आहारक जानना चाहिए कवलाहार की अपेक्षा नहीं। सो ऐसे हैं–लाभांतराय कर्म का निरवशेष विनाश हो जाने के कारण सप्तधातुरहित परमौदारिक शरीर के नोकर्माहार के योग्य शरीर की स्थिति के हेतुभूत अन्य मनुष्यों को जो असंभव हैं ऐसे पुद्गल किंचिदून पूर्वकोटि पर्यंत प्रतिक्षण आते रहते हैं, इसलिए जाना जाता है कि केवली भगवान् को नोकर्माहार की अपेक्षा आहारकत्व है। <strong>प्रश्न</strong>–यह आपकी अपनी कल्पना है कि आहारक व अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है कवलाहार की अपेक्षा नहीं। कैसे जाना जाता है? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है। एक दो अथवा तीन समय तक अनाहारक होता है’ ऐसा तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है। इस सूत्र का अर्थ कहते हैं–एक भव से दूसरे भव में गमन के समय विग्रहगति में शरीर का अभाव होने पर नवीन शरीर को धारण करने के लिए तीन शरीरों की पर्याप्ति के योग्य पुद्गल पिंड को ग्रहण करना नोकर्माहार कहलाता है। वह कर्माहार विग्रहगति में विद्यमान होने पर भी एक, दो, तीन समय पर्यंत नहीं होता है। इसलिए आगम में आहारक व अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है ऐसा जाना जाता है। यदि कवलाहार की अपेक्षा हो तो भोजनकाल को छोड़कर सर्वदा अनाहारक ही होवे, तीन समय का नियम घटित न होवे। <span class="GRef">(बोधपाहुड़/ टीका/34/101/15)</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8"> परिषहों का सद्भाव होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 12/4,2,7,2/24/7</span> <span class="PrakritText">असादं वेदयमाणस्स सजोगिभयवंतस्स भुक्खातिसादीहि एक्कारसपरीसहेहि बाहिज्जमाणस्स कधं ण भुत्ती होज्ज। ण एस दोसो, पाणोयणेसु जादतण्हाए स समोहस्स मरणभएण भुंजंतस्स परीसहेहि पराजियस्स केवलित्तविरोहादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–असाता वेदनीय का वेदन करने वाले तथा क्षुधा तृषादि ग्यारह परिषहों द्वारा बाधा को प्राप्त हुए ऐसे सयोग केवली भगवान् के भोजन का ग्रहण कैसे नहीं होगा? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो भोजन पान में उत्पन्न हुई इच्छा से मोह युक्त है तथा मरण के भय से जो भोजन करता है, अतएव परीषहों से जो पराजित हुआ है ऐसे जीव के केवली होने में विरोध है।</span><br /> | |||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/12 <span class="SanskritText">यदि पुनर्मोहाभावेऽपि क्षुधादिपरिषहं जनयति तर्हि वधरोगादिपरिषहमपि जनयतु न च तथा। तदपि कस्मात् । ‘‘भुक्तयुपसर्गाभावात्’’ इति वचनात् अन्यदपि दूषणमस्ति। यदि क्षुधाबाधास्ति तर्हि क्षुधाक्षीणशक्तेरनंतवीर्यं नास्ति। तथैव दु:खितस्यानंतसुखमपि नास्ति। जिह्वेंद्रियपरिच्छित्तिरूपमतिज्ञानपरिणतस्य केवलज्ञानमपि न संभवति।</span>=<span class="HindiText">यदि केवली भगवान् को मोह का अभाव होने पर भी क्षुधादि परिषह होती हैं, तो वध तथा रोगादि परिषह भी होनी चाहिए। परंतु ये होती नहीं हैं, वह भी कैसे ‘‘भुक्ति और उपसर्ग का अभाव है’’ इस वचन से सिद्ध होता है। और भी दूषण लगता है। यदि केवली भगवान् को क्षुधा हो तो क्षुधा की बाधा से शक्ति क्षीण हो जाने से अनंत वीर्यपना न रहेगा, उसी से दुःखी होकर अनंत सुख भी नहीं बनेगा। तथा जिह्वा इंद्रिय की परिच्छित्तिरूप मतिज्ञान से परिणत उन केवली भगवान् को केवलज्ञान भी न बनेगा। ( बोधपाहुड़/ | <span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/12</span> <span class="SanskritText">यदि पुनर्मोहाभावेऽपि क्षुधादिपरिषहं जनयति तर्हि वधरोगादिपरिषहमपि जनयतु न च तथा। तदपि कस्मात् । ‘‘भुक्तयुपसर्गाभावात्’’ इति वचनात् अन्यदपि दूषणमस्ति। यदि क्षुधाबाधास्ति तर्हि क्षुधाक्षीणशक्तेरनंतवीर्यं नास्ति। तथैव दु:खितस्यानंतसुखमपि नास्ति। जिह्वेंद्रियपरिच्छित्तिरूपमतिज्ञानपरिणतस्य केवलज्ञानमपि न संभवति।</span>=<span class="HindiText">यदि केवली भगवान् को मोह का अभाव होने पर भी क्षुधादि परिषह होती हैं, तो वध तथा रोगादि परिषह भी होनी चाहिए। परंतु ये होती नहीं हैं, वह भी कैसे ‘‘भुक्ति और उपसर्ग का अभाव है’’ इस वचन से सिद्ध होता है। और भी दूषण लगता है। यदि केवली भगवान् को क्षुधा हो तो क्षुधा की बाधा से शक्ति क्षीण हो जाने से अनंत वीर्यपना न रहेगा, उसी से दुःखी होकर अनंत सुख भी नहीं बनेगा। तथा जिह्वा इंद्रिय की परिच्छित्तिरूप मतिज्ञान से परिणत उन केवली भगवान् को केवलज्ञान भी न बनेगा। <span class="GRef">( बोधपाहुड़/ टीका/34/101/22)</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.9" id="4.9"> केवली भगवान् को क्षुधादि परिषह नहीं होती</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/1/59 | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/1/59 </span> <span class="PrakritGatha">चउविहउवसग्गेहिं णिच्चविमुक्को कसायपरिहीणो। छुहपहुदिपरिसहेहिं परिचत्तो रायदोसेंहि।51।</span>=<span class="HindiText">देव,मनुष्य, तिर्यंच और अचेतनकृत चार प्रकार के उपसर्गों से सदा विमुक्त हैं, कषायों से रहित हैं, क्षुधादिक बाईस परीषहों व रागद्वेष से परित्यक्त हैं।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.10" id="4.10"> केवली को परिषह कहना उपचार है</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/9/11/429/8 <span class="SanskritText">मोहनीयोदयसहायाभावात्क्षुदादिवेदनाभावे परिषहव्यपदेशो न युक्त:। सत्यमेवमेतत्–वेदनाभावेऽपि द्रव्यकर्मसद्भावापेक्षया परिषहोपचार: क्रियते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–मोहनीय के उदय की सहायता न होने से क्षुधादि वेदना के न होने पर परिषह संज्ञायुक्त नहीं है? <strong>उत्तर</strong>–यह कथन सत्य ही है तथापि वेदना का अभाव होने पर द्रव्यकर्म के सद्भाव की अपेक्षा से यहाँ परीषहों का उपचार किया जाता है। ( राजवार्तिक/9/11/1/614/1 )। <br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/9/11/429/8</span> <span class="SanskritText">मोहनीयोदयसहायाभावात्क्षुदादिवेदनाभावे परिषहव्यपदेशो न युक्त:। सत्यमेवमेतत्–वेदनाभावेऽपि द्रव्यकर्मसद्भावापेक्षया परिषहोपचार: क्रियते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–मोहनीय के उदय की सहायता न होने से क्षुधादि वेदना के न होने पर परिषह संज्ञायुक्त नहीं है? <strong>उत्तर</strong>–यह कथन सत्य ही है तथापि वेदना का अभाव होने पर द्रव्यकर्म के सद्भाव की अपेक्षा से यहाँ परीषहों का उपचार किया जाता है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/11/1/614/1)</span>। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.11" id="4.11"> असाता वेदनीय कर्म के उदय के कारण केवली को क्षुधादि परिषह होनी चाहिए</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.11.1" id="4.11.1"> घाति व मोहनीय कर्म की सहायता न होने से असाता अपना कार्य करने को समर्थ नहीं है</strong></span><br> | ||
राजवार्तिक/9/11/1/613/27 <span class="SanskritText">स्यान्मतम्-घातिकर्मप्रक्षयान्निमित्तोपरमे सति नाग्न्यरतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनालाभसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानदर्शनानि मा भृवन्, अमी पुनर्वेदनीयाश्रया: खलु परीषहा: प्राप्नुवंति भगवति जिने इति; तन्न; किं कारणम् । घातिकर्मोदयसहायाभावात् तत्सामर्थ्यविरहात् । यथा विषद्रव्यं मंत्रौषधिबलादुपक्षीणमारणशक्तिकमुपयुज्यमानं न मरणाय कल्प्यते तथा ध्यानानलनिर्दग्धघातिकर्मेंधनस्यानंताप्रतिहतज्ञानादिचतुष्टयस्यांतरायाभावांनिरंतरमुपचीयमानशुभपुद्गलसंततेर्वेदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहायबलं स्वयोग्यप्रयोजनोत्पादनं प्रत्यसमर्थमिति क्षुधाद्यभाव: तत्सद्भावोपचाराद्ध्यानकल्पनवत् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–केवली में घातिया कर्म का नाश होने से निमित्त के हट जाने के कारण नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, | <span class="GRef">राजवार्तिक/9/11/1/613/27</span> <span class="SanskritText">स्यान्मतम्-घातिकर्मप्रक्षयान्निमित्तोपरमे सति नाग्न्यरतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनालाभसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानदर्शनानि मा भृवन्, अमी पुनर्वेदनीयाश्रया: खलु परीषहा: प्राप्नुवंति भगवति जिने इति; तन्न; किं कारणम् । घातिकर्मोदयसहायाभावात् तत्सामर्थ्यविरहात् । यथा विषद्रव्यं मंत्रौषधिबलादुपक्षीणमारणशक्तिकमुपयुज्यमानं न मरणाय कल्प्यते तथा ध्यानानलनिर्दग्धघातिकर्मेंधनस्यानंताप्रतिहतज्ञानादिचतुष्टयस्यांतरायाभावांनिरंतरमुपचीयमानशुभपुद्गलसंततेर्वेदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहायबलं स्वयोग्यप्रयोजनोत्पादनं प्रत्यसमर्थमिति क्षुधाद्यभाव: तत्सद्भावोपचाराद्ध्यानकल्पनवत् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–केवली में घातिया कर्म का नाश होने से निमित्त के हट जाने के कारण नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, अलाभ, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन परीषहें न हों, पर वेदनीय कर्म का उदय होने से तदाश्रित परीषहें तो होनी ही चाहिए? <strong>उत्तर</strong>–घातिया कर्मोदय रूपी सहायक के अभाव से अन्य कर्मों की सामर्थ्य नष्ट हो जाती है। जैसे मंत्र औषधि के प्रयोग से जिसकी मारण शक्ति उपक्षीण हो गयी है ऐसे विष को खाने पर भी मरण नहीं होता, उसी तरह ध्यानाग्नि के द्वारा घाति कर्मेंधन के जल जाने पर अनंतचतुष्टय के स्वामी केवली के अंतराय का अभाव हो जाने से प्रतिक्षण शुभकर्म के पुद्गलों का संचय होते रहने से प्रक्षीण सहाय वेदनीयकर्म विद्यमान रहकर भी अपना कार्य नहीं कर सकता। इसलिए केवली में क्षुधादि नहीं होते। <span class="GRef">(धवला 13/5,4,24/53/1)</span>; <span class="GRef">(धवला 12/4,2,7,2/24/11)</span>; <span class="GRef">( कषायपाहुड़/1/1,1/51/69/1)</span>; <span class="GRef">( चारित्रसार/131/2)</span>; <span class="GRef">( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/10)</span>।</span><br /> | ||
<strong> <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड व जीव तत्व प्रदीपिका/273</span></strong><span class="PrakritGatha"> णट्ठा य रायदोसा इंदियणाणं च केवलिम्हि जदो। तेण दु सादासादजसुहदुक्खं णत्थि इंदियजं।273।</span> <span class="SanskritText">सहकारिकारणमोहनीयाभावे विद्यमानोऽपि न स्वकार्यकारीत्यर्थ:।</span>=<span class="HindiText">जातैं सयोग केवलीकैं घातिकर्म का नाश भया है तातैं राग व द्वेष को कारणभूत क्रोधादि कषायों का निर्मूल नाश भया है। बहुरि युगपत् सकल प्रकाशी केवलज्ञान विषैं क्षयोपशमरूप परोक्ष मतिज्ञान और श्रुतज्ञान न संभवै तातैं इंद्रिय जनित ज्ञान नष्ट भया तिस कारण करि केवलिकैं साता असाता वेदनीय के उदयतैं सुख दुख नाहीं हैं जातैं सुख-दुख इंद्रिय जनित हैं बहुरि वेदनीय का सहकारी कारण मोहनीय का अभाव भया है तातैं वेदनीय का उदय होत संतै भी अपना सुख-दुख देने रूप कार्य करने कौं समर्थ नाहीं। <span class="GRef">( क्षपणासार/ मूल/616/728)</span></span><br /> | |||
<strong> गोम्मटसार कर्मकांड व | <strong><span class="GRef">प्रमेयकमलमार्तंड/पृष्ठ 303</span></strong> <span class="SanskritText">तथा असातादि वेदनीयं विद्यमानोदयमपि, असति मोहनीये, नि:सामर्थ्यत्वान्न क्षुद्दु:खकरणे प्रभु: सामग्रीत: कार्योत्पत्तिप्रसिद्ध:।</span> =<span class="HindiText">असातादि वेदनीय के विद्यमान होते हुए भी, मोहनीय के अभाव में असमर्थ होने से, वे केवली भगवान् को क्षुधा संबंधी दुःख को करने में असमर्थ हैं।<br /> | ||
<strong>प्रमेयकमलमार्तंड/ | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.11.2" id="4.11.2"> साता वेदनीय के सहवर्तीपने से असाता की शक्ति अनंतगुणी क्षीण हो जाती है</strong></span><br /> | ||
<strong> राजवार्तिक/9/11/1/613/31 </strong><span class="SanskritText"> निरंतरमुपचीयमानशुभपुद्गलसंततेर्वेदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहायबलं स्वयोग्यप्रयोजनं प्रत्यसमर्थमिति।</span>=<span class="HindiText">अंतरायकर्म का अभाव होने से प्रतिक्षण शुभकर्मपुद्गलों का संचय होते रहने से प्रक्षीण सहाय वेदनीयकर्म विद्यमान रहकर भी अपना कार्य नहीं कर सकता। ( चारित्रसार/131/3 )</span><br /> | <strong><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/11/1/613/31</span> </strong><span class="SanskritText"> निरंतरमुपचीयमानशुभपुद्गलसंततेर्वेदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहायबलं स्वयोग्यप्रयोजनं प्रत्यसमर्थमिति।</span>=<span class="HindiText">अंतरायकर्म का अभाव होने से प्रतिक्षण शुभकर्मपुद्गलों का संचय होते रहने से प्रक्षीण सहाय वेदनीयकर्म विद्यमान रहकर भी अपना कार्य नहीं कर सकता। <span class="GRef">(चारित्रसार/131/3)</span></span><br /> | ||
<strong> धवला 2/1,1/433/2 </strong> <span class="PrakritText">असादावेदणीयस्स उदीरणाभावादो आहारसण्णा अप्पमत्तसंजदस्स णत्थि। कारणभूत-कम्मोदय-संभवादो उवयारेण भयमेहुण-परिग्गहसण्णा अत्थि।</span>=<span class="HindiText">असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा का अभाव हो जाने से अप्रमत्त संयत के आहार संज्ञा नहीं होती है। किंतु भय आदि संज्ञाओं के कारणभूत कर्मों का उदय संभव है, इसलिए उपचार से भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञाएँ हैं।</span><br /> | <strong> <span class="GRef">धवला 2/1,1/433/2 </span></strong> <span class="PrakritText">असादावेदणीयस्स उदीरणाभावादो आहारसण्णा अप्पमत्तसंजदस्स णत्थि। कारणभूत-कम्मोदय-संभवादो उवयारेण भयमेहुण-परिग्गहसण्णा अत्थि।</span>=<span class="HindiText">असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा का अभाव हो जाने से अप्रमत्त संयत के आहार संज्ञा नहीं होती है। किंतु भय आदि संज्ञाओं के कारणभूत कर्मों का उदय संभव है, इसलिए उपचार से भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञाएँ हैं।</span><br /> | ||
<strong> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/16 </strong> <span class="SanskritText">असद्वेद्योदयापेक्षया सद्वेद्योदयोऽनंतगुणोऽस्ति। तत: कारणात् शर्कराराशिमध्ये निंबकणिकावदसद्वेद्योदयो विद्यमानोऽपि न ज्ञायते। तथैवान्यदपि बाधकमस्ति—यथा प्रमत्तसंयतादि तपोधनानां वेदोदये विद्यमानेऽपि मंदमोहोदयत्वादखंडबह्मचारीणां त्रिपरीषहबाधा नास्ति। यथैव च नवग्रेवेयकाद्यहमिंद्रदेवानां वेदोदये विद्यमानेऽपि मंदमोहोदयेन स्त्रीविषयबाधा नास्ति, तथा भगवत्यसद्वेद्योदये विद्यमानेऽपि निरवशेषमोहाभावात् क्षुधाबाधा नास्ति।</span>=<span class="HindiText">और भी कारण है, कि केवली (भगवान् के) असाता वेदनीय के उदय की अपेक्षा साता वेदनीय का उदय अनंतगुणा है। इस कारण खंड (चीनी) की बड़ी राशि के बीच में नीम की एक कणिका की भाँति असातावेदनीय का उदय होने पर भी नहीं जाना जाता है। और दूसरी एक और बाधा है—जैसे अप्रमत्तसंयत आदि तपोधनों के वेद का उदय होने पर भी मोह का मंद उदय होने से उन अखंड ब्रह्मचारियों के स्त्रीपरीषहरूप बाधा नहीं होती, और जिस प्रकार नवेग्रेवेयकादि में अहमिंद्रदेवों के वेद का उदय विद्यमान होने पर भी मोह के मंद उदय से स्त्री-विषयक बाधा नहीं होती, उसी प्रकार भगवान् के असातावेदनीय का उदय विद्यमान होने पर भी निरवशेष मोह का अभाव होने से क्षुधा की बाधा नहीं होती। (और भी–देखें [[ केवली#4.12 | केवली - 4.12]]) <br /> | <strong> <span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/16</span> </strong> <span class="SanskritText">असद्वेद्योदयापेक्षया सद्वेद्योदयोऽनंतगुणोऽस्ति। तत: कारणात् शर्कराराशिमध्ये निंबकणिकावदसद्वेद्योदयो विद्यमानोऽपि न ज्ञायते। तथैवान्यदपि बाधकमस्ति—यथा प्रमत्तसंयतादि तपोधनानां वेदोदये विद्यमानेऽपि मंदमोहोदयत्वादखंडबह्मचारीणां त्रिपरीषहबाधा नास्ति। यथैव च नवग्रेवेयकाद्यहमिंद्रदेवानां वेदोदये विद्यमानेऽपि मंदमोहोदयेन स्त्रीविषयबाधा नास्ति, तथा भगवत्यसद्वेद्योदये विद्यमानेऽपि निरवशेषमोहाभावात् क्षुधाबाधा नास्ति।</span>=<span class="HindiText">और भी कारण है, कि केवली (भगवान् के) असाता वेदनीय के उदय की अपेक्षा साता वेदनीय का उदय अनंतगुणा है। इस कारण खंड (चीनी) की बड़ी राशि के बीच में नीम की एक कणिका की भाँति असातावेदनीय का उदय होने पर भी नहीं जाना जाता है। और दूसरी एक और बाधा है—जैसे अप्रमत्तसंयत आदि तपोधनों के वेद का उदय होने पर भी मोह का मंद उदय होने से उन अखंड ब्रह्मचारियों के स्त्रीपरीषहरूप बाधा नहीं होती, और जिस प्रकार नवेग्रेवेयकादि में अहमिंद्रदेवों के वेद का उदय विद्यमान होने पर भी मोह के मंद उदय से स्त्री-विषयक बाधा नहीं होती, उसी प्रकार भगवान् के असातावेदनीय का उदय विद्यमान होने पर भी निरवशेष मोह का अभाव होने से क्षुधा की बाधा नहीं होती। (और भी–देखें [[ केवली#4.12 | केवली - 4.12]]) <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.11.3" id="4.11.3">असाता भी सातारूप परिणमन कर जाता है</strong> </span><br /> | ||
गोम्मटसार कर्मकांड व | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड व जीव तत्व प्रदीपिका/274/403</span> <span class="PrakritGatha">समयट्ठिदिगो बंधो सादस्सुदयप्पिगो जदो तस्स। तेण असादस्सुदओ सादसरूवेण परिणदि।274।</span> <span class="SanskritText">यतस्तस्य केवलिन: सातवेदनीयस्य बंध: समयस्थितिक: तत: उदयात्मक एव स्यात् तेन तत्रासातोदय: सातास्वरूपेण परिणमति कुत: विशिष्टशुद्धे तस्मिन् असातस्य अनंतगुणहीनशक्तित्वसहायरहितत्वाभ्यां अव्यक्तोदयत्वात् । बध्यमानसातस्य च अनंतगुणानुभागत्वात् तथात्वस्यावश्यंभावात् । न च तत्र सातोदयोऽसातस्वरूपेण परिणमतीति शक्यते वक्तुं द्विसमयस्थितिकत्वप्रसंगात् अन्यथा असातस्यैव बंध: प्रसज्यते।</span>=<span class="HindiText">जातैं तिस केवलीकैं साता वेदनीय का बंध एक समय स्थितिकौ लियें है तातैं उदय स्वरूप ही है तातैं केवलीकै असाता वेदनीय का उदय सातारूप होइकरि परिनमैं है। काहैं तै? केवली के विषैं विशुद्धता विशेष है तातैं असातावेदनीय की अनुभाग शक्ति अनंतगुणी हीन भई है अर मोह का सहाय था ताका अभाव भया है तातैं असातावेदनीय का अप्रगट सूक्ष्म उदय है। बहुरि जो सातावेदनीय बंधै है ताका अनुभाग अनंतगुणा है जातैं, साता वेदनीय की स्थिति की अधिकता तो संक्लेश तातैं हो है अनुभाग की अधिकता विशुद्धतातै हो है सो केवली के विशुद्धता विशेष है तातैं स्थिति का तौ अभाव है बंध है सो उदयरूप परिणमता ही हो है अर ताकैं सातावेदनीय का अनुभाग अनंतगुणा हो है ताहीतैं जो असाता का भी उदय है सो सातारूप होइकरि परिनमै है। कोऊ कहै कि साता असातारूप होइ परिनमै है ऐसे क्यों न कहों? ताका उत्तर–ताका स्थितिबंध दोय समय का न ठहरे वा अन्य प्रकार कहैं असाता ही का बंध होइ तातैं तैं कह्या कहना संभवे नाहीं।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.12" id="4.12"> निष्फल होने के कारण असाता का उदय ही नहीं कहना चाहिए</strong></span><br /> | ||
धवला 13/4,2,7,2/24/12 | <span class="GRef">धवला 13/4,2,7,2/24/12 </span> <span class="PrakritText">णिप्फलस्स परमाणुपुंजस्स समयं पडि परिसयंतस्स कधं उदयववएसो। ण, जीव-कम्मविवेगमेत्ताफलं दट्ठूण उदयस्स फलत्तब्भुवगमादो। जदि एवं तो असादवेदणीयोदयकाले सादावेदणीयस्स उदओ णत्थि, असादावेदणीयस्सेव उदओ अत्थि त्ति ण वत्तव्वं, सगफलाणुप्पायणेण दोण्णं पि सरिसत्तुवलंभादो। ण, असादपरमाणूणं व सादपरमाणूणं सगसरूवेण णिज्जराभावादो। सादपरमाणओ असादसरूवेण विणस्संतावत्थाए परिणमिदूण विणस्संते दट्ठूण सादावेदणीयस्स उदओ णत्थि त्ति वुच्चदे। ण च असादावेदणीयस्स एसो कमो अत्थि, (असाद)-परमाणूणं सगसरूवेणेव णिज्जरूवलंभादो। तम्हा दुक्खरूवफलाभावे वि असादावेदणीयस्स उदयभावो जुज्जदि त्ति सिद्धं।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—बिना फल दिये ही प्रतिसमय निर्जीर्ण होने वाले परमाणु समूह की उदय संज्ञा कैसे हो सकती है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, जीव व कर्म के विवेकमात्र फल को देखकर उदय को फलरूप से स्वीकार किया गया है। <strong>प्रश्न</strong>—यदि ऐसा है तो असातावेदनीय के उदय काल में साता वेदनीय का उदय नहीं होता, केवल असाता वेदनीय का ही उदय रहता है ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि अपने फल को नहीं उत्पन्न करने की अपेक्षा दोनों में ही समानता पायी जाती है। <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, तब असातावेदनीय के परमाणुओं के समान सातावेदनीय के परमाणुओं की अपने रूप से निर्जरा नहीं होती। किंतु विनाश होने की अवस्था में असाता रूप से परिणमकर उनका विनाश होता है यह देखकर सातावेदनीय का उदय नहीं हैं, ऐसा कहा जाता है। परंतु असाता वेदनीय का यह क्रम नहीं है, क्योंकि तब असाता के परमाणुओं की अपने रूप से निर्जरा पायी जाती है। इस कारण दुःखरूप फल के अभाव में भी असातावेदनीय का उदय मानना युक्तियुक्त है, यह सिद्ध होता है।</span><br /> | ||
धवला 13/5,4,24/53/5 <span class="PrakritText">जदि असादावेदणीयं णिप्फलं चेव, तो उदओ अत्थि त्ति किमिदि उच्चदे। ण, भूदपुव्वणयं पडुच्च तदुत्तीदो। किंच ण सहकारिकारणघादिकम्माभावेणेव सेसकम्माणिव्व पत्तणिव्वीयभावमसादावेदणीयं, किंतु सादावेदणीयबंधेण उदयसरूवेण उदयागदउक्कस्साणुभागसादावेदणीयसहकारिकारणेण पडिहयउदयत्तादो वि। ण च बंधे उदयसरूवे संते सादावेदणीयगोवुच्छा थिडक्कसंकमेण असादावेदणीयं गच्छदि, विरोहादो। थिउसंक्कमाभावे सादासादाणमजोगिचरिमसमए संतवोच्छेदो पसज्जदि त्ति भणिदे—ण, वोच्छिण्णसादबंधम्मि अजोगिम्हि सादोदयणियमाभावादो। सादावेदणीयस्स उदयकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो फिट्टिदूण देसूणपुव्वकोडिमेत्तो होदि चे—ण, | <span class="GRef">धवला 13/5,4,24/53/5</span> <span class="PrakritText">जदि असादावेदणीयं णिप्फलं चेव, तो उदओ अत्थि त्ति किमिदि उच्चदे। ण, भूदपुव्वणयं पडुच्च तदुत्तीदो। किंच ण सहकारिकारणघादिकम्माभावेणेव सेसकम्माणिव्व पत्तणिव्वीयभावमसादावेदणीयं, किंतु सादावेदणीयबंधेण उदयसरूवेण उदयागदउक्कस्साणुभागसादावेदणीयसहकारिकारणेण पडिहयउदयत्तादो वि। ण च बंधे उदयसरूवे संते सादावेदणीयगोवुच्छा थिडक्कसंकमेण असादावेदणीयं गच्छदि, विरोहादो। थिउसंक्कमाभावे सादासादाणमजोगिचरिमसमए संतवोच्छेदो पसज्जदि त्ति भणिदे—ण, वोच्छिण्णसादबंधम्मि अजोगिम्हि सादोदयणियमाभावादो। सादावेदणीयस्स उदयकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो फिट्टिदूण देसूणपुव्वकोडिमेत्तो होदि चे—ण, सजोगिकेवलिं मोत्तूण अण्णत्थ उदयकालस्स अंतोमुहुत्तणियमब्भुवगमादो।....सादावेदणीयस्स बंधो अत्थि त्ति चे ण, तस्स ट्ठिदि-अणुभागबंधाभावेण...बंधववएसविरोहादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—यदि असातावेदनीय कर्म निष्फल ही है तो वहाँ उसका उदय है, ऐसा क्यों कहा जाता है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, भूतपूर्व नय की अपेक्षा से वैसा कहा जाता है। दूसरे...वह न केवल निर्बीज भाव को प्राप्त हुआ है किंतु उदयस्वरूप सातावदेनीय का बंध होने से और उदयागत उत्कृष्ट अनुभाग युक्त सातावेदनीय रूप सहकारी कारण होने से उसका उदय भी प्रतिहत हो जाता है। <strong>प्रश्न</strong>—बंध के उदय स्वरूप रहते हुए साता वेदनीयकर्म की गोपुच्छा स्तिबुक संक्रमण के द्वारा असाता वेदनीय को प्राप्त होती होगी? <strong>उत्तर</strong>—ऐसा मानने में विरोध आता है। <strong>प्रश्न</strong>—यदि यहाँ स्तिबुक संक्रमण का अभाव मानते हैं, तो साता और असाता को सत्त्व व्युच्छित्ति अयोगी के अंतिमसमय में होने का प्रसंग आता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि साता के बंध की व्युच्छित्ति हो जाने पर अयोगी गुणस्थान में साता के उदय का कोई नियम नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>—इस तरह तो सातावेदनीय का उदयकाल अंतर्मुहूर्त विनष्ट होकर कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण प्राप्त होता है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि सयोगिकेवली गुणस्थान को छोड़कर अन्यत्र उदयकाल का अंतर्मुहूर्त प्रमाण नियम ही स्वीकार किया गया है।...। <strong>प्रश्न</strong>—वहाँ सातावेदनीय का बंध है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि स्थितिबंध और अनुभागबंध के बिना....सातावेदनीय कर्म को ‘बंध’ संज्ञा देने में विरोध आता है। </span></li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5" id="5"> इंद्रिय, मन व योग संबंधी निर्देश व शंका-समाधान</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1"> द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा पंचेंद्रियत्व है, भावेंद्रियों की अपेक्षा नहीं</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/30/9/92/14 <span class="SanskritText"> आर्षं हि सयोग्ययोगिकेवलिनो: पंचेंद्रियत्वं द्रव्येंद्रियं प्रति उक्तं न भावेंद्रियं प्रति। यदि हि भावेंद्रियमभविष्यत्, अपि तु तर्हि असंक्षीणसकलावरणत्वात् सर्वज्ञतैवास्य न्यवर्तिष्यम् ।</span>=<span class="HindiText">आगम में सयोगी और अयोगी केवली को पंचेंद्रियत्व कहा है वहाँ द्रव्येंद्रियों की विवक्षा है, ज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप भावेंद्रियों की नहीं। यदि भावेंद्रियों की विवक्षा होती तो ज्ञानावरण का सद्भाव होने से सर्वज्ञता ही नहीं हो सकती थी।</span><br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/30/9/92/14</span> <span class="SanskritText"> आर्षं हि सयोग्ययोगिकेवलिनो: पंचेंद्रियत्वं द्रव्येंद्रियं प्रति उक्तं न भावेंद्रियं प्रति। यदि हि भावेंद्रियमभविष्यत्, अपि तु तर्हि असंक्षीणसकलावरणत्वात् सर्वज्ञतैवास्य न्यवर्तिष्यम् ।</span>=<span class="HindiText">आगम में सयोगी और अयोगी केवली को पंचेंद्रियत्व कहा है वहाँ द्रव्येंद्रियों की विवक्षा है, ज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप भावेंद्रियों की नहीं। यदि भावेंद्रियों की विवक्षा होती तो ज्ञानावरण का सद्भाव होने से सर्वज्ञता ही नहीं हो सकती थी।</span><br /> | ||
धवला/1/1,1/37/263/5 <span class="SanskritText"> केवलिनां निर्मूलतो विनष्टांतरंगेंद्रियाणां प्रहतबाह्येंद्रियव्यापाराणां भावेंद्रियजनितद्रव्येंद्रियसत्त्वापेक्षया पंचेंद्रियत्वप्रतिपादनात् ।</span>=<span class="HindiText">केवलियों के यद्यपि भावेंद्रियाँ समूल नष्ट हो गयी है, और बाह्य इंद्रियों का व्यापार भी बंद हो गया है, तो भी (छद्मस्थ अवस्था में) भावेंद्रियों के निमित्त से उत्पन्न | <span class="GRef">धवला/1/1,1/37/263/5</span> <span class="SanskritText"> केवलिनां निर्मूलतो विनष्टांतरंगेंद्रियाणां प्रहतबाह्येंद्रियव्यापाराणां भावेंद्रियजनितद्रव्येंद्रियसत्त्वापेक्षया पंचेंद्रियत्वप्रतिपादनात् ।</span>=<span class="HindiText">केवलियों के यद्यपि भावेंद्रियाँ समूल नष्ट हो गयी है, और बाह्य इंद्रियों का व्यापार भी बंद हो गया है, तो भी (छद्मस्थ अवस्था में) भावेंद्रियों के निमित्त से उत्पन्न हुई द्रव्येंद्रियों के सद्भाव की अपेक्षा उन्हें पंचेंद्रिय कहा गया है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/701/1135/12 </span> <span class="SanskritText">सयोगिजिने भावेंद्रियं न, द्रव्येंद्रियापेक्षया षट्पर्याप्तय:।</span>=<span class="HindiText">सयोगी जिनविषैं भावेंद्रिय तौ है नाहीं, द्रव्येंद्रिय की अपेक्षा छह पर्याप्ति हैं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> जातिनाम कर्मोदय की अपेक्षा पंचेंद्रिय हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,39/264/2 </span> <span class="SanskritText">पंचेंद्रियजातिनामकर्मोदयात्पंचेंद्रिय:। समस्ति च केवलिनां....पंचेंद्रियजातिनामकर्मोदय:। निरवद्यत्वात् व्याख्यानमिदं समाश्रयणीयम् ।</span>=<span class="HindiText">पंचेंद्रिय नामकर्म के उदय से पंचेंद्रिय जीव होते हैं। व्याख्यान के अनुसार केवली के भी....पंचेंद्रिय जाति नामकर्म का उदय होता है। अत: यह व्याख्यान निर्दोष है। अतएव इसका आश्रय करना चाहिए। ( धवला 7/2,1,9/16/5 ) <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> पंचेंद्रिय कहना उपचार है</strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,37/263/5 <span class="SanskritText"> केवलिनां... पंचेंद्रियत्व...भूतपूर्वगतिन्यायसमाश्रयणाद्वा।</span> =<span class="HindiText">केवली को भूतपूर्व का ज्ञान कराने वाले न्याय के आश्रय से पंचेंद्रिय कहा है।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,37/263/5</span> <span class="SanskritText"> केवलिनां... पंचेंद्रियत्व...भूतपूर्वगतिन्यायसमाश्रयणाद्वा।</span> =<span class="HindiText">केवली को भूतपूर्व का ज्ञान कराने वाले न्याय के आश्रय से पंचेंद्रिय कहा है।</span><br /> | ||
धवला 7/2,1,15/67/3 | <span class="GRef">धवला 7/2,1,15/67/3 </span> <span class="PrakritText">एइंदियादीणमोदइयो भावो वत्तव्वो, एइंदियजादिआदिणामकम्मोदएण एइंदियादिभावोवलंभा। जदि एवं ण इच्छिज्जदि तो सजोगि-अजोगिजिणाणं पंचिंदियत्तं ण लब्भदे, खीणावरणे पंचण्हमिंदियाणं खओवसमा भावा। ण च तेसिं पंचिंदियत्ताभावो पंचिंदिएसु समुग्घादपदेण असंखेज्जेषु भागेसु सव्वलोगे वा त्ति सुत्तविरोहादो। एत्थ परिहारो वुच्चदे...सजोगिअजोगिजिणाणं पंचिंदियत्तजुज्जदि त्ति जीवट्ठाणे पि उववण्णं। किंतु खुद्दाबंधे सजोगि-अजोगिजिणाणं सुद्धणएणाणिंदियाणं पंचिंदियत्तं जदि इच्छिज्जदि तो ववहारणएण वत्तव्वं। तं जहा-पंचसु जाईसु जाणि पडिबद्धाणि पंच इंदियाणि ताणि खओवसमियाणि त्ति काऊण उवयारेण पंच वि जादीओ खओवसमियाओ त्ति कट्टु सजोगि-अजोगिजिणाणं खओवसमियं पंचिंदियत्तं जुज्जदे। अधवा खीणावरणे णट्ठे वि पंचिंदियखओवसमे खओवसमजणिद णं पंचण्ह वज्झिंदियाणमुवयारेण लद्धखओवसमण्णाणमत्थित्तदंसणादो सजोगि-अजोगिजिणाणं पंचिंदियत्तं साहेयव्वं।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—एकेंद्रियादि को औदयिक भाव कहना चाहिए, क्योंकि एकेंद्रिय जाति आदिक नामकर्म के उदय से एकेंद्रियादिक भाव पाये जाते हैं। यदि ऐसा न माना जायेगा तो सयोगी और अयोगी जिनों के पंचेंद्रिय भाव नहीं पाया जायेगा, क्योंकि, उनके आवरण के क्षीण हो जाने पर पाँचों इंद्रियों के क्षयोपशम का भी अभाव हो गया है। और सयोगी और अयोगी जिनों के पंचेंद्रियत्व का अभाव होता नहीं है, क्योंकि वैसा मानने पर ‘‘पंचेंद्रिय जीवों की अपेक्षा समुद्घातपदके द्वारा लोक के असंख्यात बहुभागों में अथवा सर्वलोक में जीवों का अस्तित्व है’’ इस सूत्र से विरोध आ जायेगा? <strong>उत्तर</strong>—यहाँ उक्त शंका का परिहार करते हैं...सयोगी और अयोगी जिनों का पंचेंद्रियत्व योग्य होता है, ऐसा जीवस्थान खंड में स्वीकार किया गया है। ( षट्खंडागम/1/1,1/ सू.37/262) किंतु इस क्षुद्रकबंध खंड में शुद्ध नय से अनिंद्रिय कहे जाने वाले सयोगी और अयोगी जिनों के यदि पंचेंद्रियत्व कहना है, तो वह केवल व्यवहार नय से ही कहा जा सकता है। वह इस प्रकार है—पाँच जातियों में जो क्रमश: पाँच इंदियाँ संबद्ध हैं वे क्षायोपशमिक हैं ऐसा मानकर और उपचार से पाँचों जातियों को भी क्षायोपशमिक स्वीकार करके सयोगी और अयोगी जिनों के क्षायोपशमिक पंचेंद्रियत्व सिद्ध हो जाता है। अथवा, आवरण के क्षीण होने से पंचेंद्रियों के क्षयोपशम के नष्ट हो जाने पर भी क्षयोपशम से उत्पन्न और उपचार से क्षायोपशमिक संज्ञा को प्राप्त पाँचों बाह्येंद्रियों का अस्तित्व पाये जाने से सयोगी और अयोगी जिनों के पंचेंद्रियत्व सिद्ध कर लेना चाहिए।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4">भावेंद्रिय के अभाव संबंधी शंका-समाधान</strong></span><br /> | ||
धवला 2/1,1/444/5 | <span class="GRef">धवला 2/1,1/444/5 </span> <span class="PrakritText">भाविंदायाभावादो। भाविंदियं णाम पंचण्हमिंदियाणं खओवसमो। ण सो खीणावरणे अत्थि।</span>=<span class="HindiText">सयोगी जिन के भावेंद्रियाँ नहीं पायी जाती हैं। पाँचों इंद्रियावरण कर्मों के क्षयोपशम को भावेंद्रियाँ कहते हैं। परंतु जिनका आवरण समूल नष्ट हो गया है उनके वह क्षयोपशम नहीं होता। <span class="GRef">( धवला/2/1,1/658/4)</span><br /> | ||
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<li name="5.5" id="5.5"><span class="HindiText"><strong> केवली के मन उपचार से होता है</strong></span><br /> | <li name="5.5" id="5.5"><span class="HindiText"><strong> केवली के मन उपचार से होता है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,52/285/3</span> <span class="SanskritText">उपचारतस्तयोस्तत: समुत्पत्तिविधानात् ।</span>=<span class="HindiText">उपचार से मन के द्वारा (केवली के) उन दोनों प्रकार के वचनों की उत्पत्ति का विधान किया गया है।</span><br /> | |||
गोम्मटसार जीवकांड/228 | <span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड/228 </span> <span class="PrakritGatha">मणसहियाणं वयणं दिट्ठं तप्पुव्वमिदि सजोगम्हि। उत्तो मणोवयारेणिंदियणाणेण हीणम्मि।228।</span>=<span class="HindiText">इंदिय ज्ञानियों के वचन मनोयोग पूर्वक देखा जाता है। इंद्रिय ज्ञान से रहित केवली भगवान् के मुख्यपनैं तो मनोयोग नहीं है, उपचार से कहा है।<br /> | ||
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<li name="5.6" id="5.6"><span class="HindiText"><strong> केवली के द्रव्यमन होता है भावमन नहीं</strong></span><br /> | <li name="5.6" id="5.6"><span class="HindiText"><strong> केवली के द्रव्यमन होता है भावमन नहीं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,50/284/4</span> <span class="SanskritText"> अतींद्रियज्ञानत्वांन केवलीनो मन इति चेन्न, द्रव्यमनस: सत्त्वात् ।</span> <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—केवली के अतींद्रिय ज्ञान होता है, इसलिए उनके मन नहीं पाया जाता है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, उनके द्रव्य मन का सद्भाव पाया जाता है।<br /> | |||
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<li name="5.7" id="5.7"><span class="HindiText"><strong> तहाँ मन का भावात्मक कार्य नहीं होता, पर परिस्पंदनरूप द्रव्यात्मक कार्य होता है</strong> </span><br /> | <li name="5.7" id="5.7"><span class="HindiText"><strong> तहाँ मन का भावात्मक कार्य नहीं होता, पर परिस्पंदनरूप द्रव्यात्मक कार्य होता है</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,50/284/5 <span class="SanskritText">भवतु द्रव्यमनस: सत्त्वं न तत्कार्यमिति चेद्भवतु तत्कार्यस्य क्षायोपशमिकज्ञानस्याभाव:, अपि तु तदुत्पादने प्रयत्नोऽस्त्येव तस्य प्रतिबंधकत्वाभावात् । तेनात्मनो योग: मनोयोग:। विद्यमानोऽपि तदुत्पादने प्रयत्न: किमिति स्वकार्यं न विदध्यादिति चेन्न, तत्सहकारिकारणक्षयोपशमाभावात् ।</span> <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—केवली के द्रव्यमन का सद्भाव रहा आवे, परंतु वहाँ पर उसका कार्य नहीं पाया जाता है? <strong>उत्तर</strong>—द्रव्यमन के कार्यरूप उपयोगात्मक क्षायोपशमिक ज्ञान का अभाव भले ही रहा आवे, परंतु द्रव्य मन के उत्पन्न करने में प्रयत्न तो पाया ही जाता है, क्योंकि, द्रव्य मन की वर्गणाओं को लाने के लिए होने वाले प्रयत्न में कोई प्रतिबंधक कारण नहीं पाया जाता है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि उस मन के निमित्त से जो आत्मा का परिस्पंदरूप प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं। <strong>प्रश्न</strong>—केवली के द्रव्यमन को उत्पन्न करने में प्रयत्न विद्यमान रहते हुए भी वह अपने कार्य को क्यों नहीं करता है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, केवली के मानसिक ज्ञान के सहकारी कारणरूप क्षयोपशम का अभाव है, इसलिए उनके मनोनिमित्तक ज्ञान नहीं होता है। ( धवला 1/1,1,22/367-368/7 ); ( गोम्मटसार जीवकांड व | <span class="GRef">धवला 1/1,1,50/284/5</span> <span class="SanskritText">भवतु द्रव्यमनस: सत्त्वं न तत्कार्यमिति चेद्भवतु तत्कार्यस्य क्षायोपशमिकज्ञानस्याभाव:, अपि तु तदुत्पादने प्रयत्नोऽस्त्येव तस्य प्रतिबंधकत्वाभावात् । तेनात्मनो योग: मनोयोग:। विद्यमानोऽपि तदुत्पादने प्रयत्न: किमिति स्वकार्यं न विदध्यादिति चेन्न, तत्सहकारिकारणक्षयोपशमाभावात् ।</span> <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—केवली के द्रव्यमन का सद्भाव रहा आवे, परंतु वहाँ पर उसका कार्य नहीं पाया जाता है? <strong>उत्तर</strong>—द्रव्यमन के कार्यरूप उपयोगात्मक क्षायोपशमिक ज्ञान का अभाव भले ही रहा आवे, परंतु द्रव्य मन के उत्पन्न करने में प्रयत्न तो पाया ही जाता है, क्योंकि, द्रव्य मन की वर्गणाओं को लाने के लिए होने वाले प्रयत्न में कोई प्रतिबंधक कारण नहीं पाया जाता है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि उस मन के निमित्त से जो आत्मा का परिस्पंदरूप प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं। <strong>प्रश्न</strong>—केवली के द्रव्यमन को उत्पन्न करने में प्रयत्न विद्यमान रहते हुए भी वह अपने कार्य को क्यों नहीं करता है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, केवली के मानसिक ज्ञान के सहकारी कारणरूप क्षयोपशम का अभाव है, इसलिए उनके मनोनिमित्तक ज्ञान नहीं होता है। <span class="GRef">(धवला 1/1,1,22/367-368/7)</span>; <span class="GRef">(गोम्मटसार जीवकांड व जीव तत्व प्रदीपिका/229)</span>।<br /> | ||
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<li name="5.8" id="5.8"><span class="HindiText"><strong> भावमन के अभाव में वचन की उत्पत्ति कैसे हो सकती है</strong> </span><br /> | <li name="5.8" id="5.8"><span class="HindiText"><strong> भावमन के अभाव में वचन की उत्पत्ति कैसे हो सकती है</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,123/368/3 <span class="SanskritText">तत्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य वचसोऽपि न सत्त्वमिति चेन्न, तस्य ज्ञानकार्यत्वात् । अक्रमज्ञानात्कथं क्रमवतां वचनानामुत्पत्तिरिति चेन्न, घटविषयाक्रमज्ञानसमवेतकुंभकाराद्घंटस्य क्रमेणोत्पत्त्युपलंभात् । मनोयोगाभावे सूत्रेण सह विरोध: स्यादिति चेन्न, मन:कार्यप्रथमचतुर्थवचसो: सत्त्वापेक्षयोपचारेण तत्सत्त्वोपदेशात् । जीवप्रदेशपरिस्पंदहेतुनोकर्मजनितशक्त्यस्तित्वापेक्षया वा तत्सत्त्वान्न विरोध:।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—अरहंत परमेष्ठी में मन का अभाव होने पर मन के कार्यरूप वचन का सद्भाव भी नहीं पाया जा सकता है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, वचन ज्ञान के कार्य हैं, मन के नहीं। <strong>प्रश्न</strong>—अक्रम ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, घट विषयक अक्रम ज्ञान से युक्त कुंभकार द्वारा क्रम से घट की उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिए अक्रमवर्ती ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। <strong>प्रश्न</strong>—सयोगि केवली के मनोयोग का अभाव मानने पर ‘‘सच्चमणजोगो असच्चमोसमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलित्ति। ( | <span class="GRef">धवला 1/1,1,123/368/3</span> <span class="SanskritText">तत्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य वचसोऽपि न सत्त्वमिति चेन्न, तस्य ज्ञानकार्यत्वात् । अक्रमज्ञानात्कथं क्रमवतां वचनानामुत्पत्तिरिति चेन्न, घटविषयाक्रमज्ञानसमवेतकुंभकाराद्घंटस्य क्रमेणोत्पत्त्युपलंभात् । मनोयोगाभावे सूत्रेण सह विरोध: स्यादिति चेन्न, मन:कार्यप्रथमचतुर्थवचसो: सत्त्वापेक्षयोपचारेण तत्सत्त्वोपदेशात् । जीवप्रदेशपरिस्पंदहेतुनोकर्मजनितशक्त्यस्तित्वापेक्षया वा तत्सत्त्वान्न विरोध:।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—अरहंत परमेष्ठी में मन का अभाव होने पर मन के कार्यरूप वचन का सद्भाव भी नहीं पाया जा सकता है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, वचन ज्ञान के कार्य हैं, मन के नहीं। <strong>प्रश्न</strong>—अक्रम ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, घट विषयक अक्रम ज्ञान से युक्त कुंभकार द्वारा क्रम से घट की उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिए अक्रमवर्ती ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। <strong>प्रश्न</strong>—सयोगि केवली के मनोयोग का अभाव मानने पर ‘‘सच्चमणजोगो असच्चमोसमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलित्ति। <span class="GRef">(षट्खण्डागम/1/1,1/50/282)</span> इस सूत्र के साथ विरोध आ जायेगा? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, मन के कार्यरूप प्रथम और चतुर्थ भाषा के सद्भाव की अपेक्षा उपचार से मन के सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। अथवा, जीवप्रदेशों के परिस्पंद के कारणरूप मनोवर्गणारूप नोकर्म से उत्पन्न हुई शक्ति के अस्तित्व की अपेक्षा सयोगि केवली के मन का सद्भाव पाया जाता है ऐसा मान लेने में भी कोई विरोध नहीं आता है। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,50/285/2)</span> <span class="GRef">( धवला 1/1,1,122/368/2)</span>। <br /> | ||
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<li name="5.9" id="5.9"><span class="HindiText"><strong> मन सहित होते हुए भी केवली को संज्ञी क्यों नहीं कहते</strong> </span><br /> | <li name="5.9" id="5.9"><span class="HindiText"><strong> मन सहित होते हुए भी केवली को संज्ञी क्यों नहीं कहते</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,172/408/10 <span class="SanskritText">समनस्कत्वात्सयोगिकेवलिनोऽपि संज्ञिन इति चेन्न, तेषां क्षीणावरणानां मनोऽवष्टंभबलेन बाह्यार्थ ग्रहणाभावतस्तदसत्त्वात् । तर्हि भवंतु केवलिनोऽसंज्ञिन इति चेन्न, साक्षात्कृतशेषपदार्थानामसंज्ञित्वविरोधात् । असंज्ञिन: केवलिनो मनोऽनपेक्ष्य बाह्यर्थ ग्रहणाद्विकलेंद्रियवदिति चेद्भवत्येवं यदि मनोऽनपेक्ष्य ज्ञानोत्पत्तिमात्रमाश्रित्यासंज्ञित्वस्य निबंधनमिति चेन्मनसोऽभावाद् बुद्धयतिशयाभाव:, ततो नानंतरोक्तदोष इति।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—मन सहित होने के कारण सयोगकेवली भी संज्ञी होते हैं? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि आवरण कर्म से रहित उनके मन के अवलंबन से बाह्य अर्थ का ग्रहण नहीं पाया जाता है, इसलिए उन्हें संज्ञी नहीं कह सकते। <strong>प्रश्न</strong>—तो केवली असंज्ञी रहे आवें? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि जिन्होंने समस्त पदार्थों को साक्षात् कर लिया है, उन्हें असंज्ञी मानने में विरोध आता है। <strong>प्रश्न</strong>—केवली असंज्ञी होते हैं, क्योंकि, वे मन की अपेक्षा के बिना ही विकलेंद्रिय जीवों की तरह बाह्य पदार्थों का ग्रहण करते हैं? <strong>उत्तर</strong>—यदि मन की अपेक्षा न करके ज्ञान की उत्पत्ति मात्र का आश्रय करके ज्ञानोत्पत्ति असंज्ञीपने की कारण होती तो ऐसा होता। परंतु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि कदाचित् मन के अभाव से विकलेंद्रिय जीवों की तरह केवली के बुद्धि के अतिशय का अभाव भी कहा जावेगा। इसलिए केवली के पूर्वोक्त दोष लागू नहीं होता।<br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,172/408/10</span> <span class="SanskritText">समनस्कत्वात्सयोगिकेवलिनोऽपि संज्ञिन इति चेन्न, तेषां क्षीणावरणानां मनोऽवष्टंभबलेन बाह्यार्थ ग्रहणाभावतस्तदसत्त्वात् । तर्हि भवंतु केवलिनोऽसंज्ञिन इति चेन्न, साक्षात्कृतशेषपदार्थानामसंज्ञित्वविरोधात् । असंज्ञिन: केवलिनो मनोऽनपेक्ष्य बाह्यर्थ ग्रहणाद्विकलेंद्रियवदिति चेद्भवत्येवं यदि मनोऽनपेक्ष्य ज्ञानोत्पत्तिमात्रमाश्रित्यासंज्ञित्वस्य निबंधनमिति चेन्मनसोऽभावाद् बुद्धयतिशयाभाव:, ततो नानंतरोक्तदोष इति।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—मन सहित होने के कारण सयोगकेवली भी संज्ञी होते हैं? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि आवरण कर्म से रहित उनके मन के अवलंबन से बाह्य अर्थ का ग्रहण नहीं पाया जाता है, इसलिए उन्हें संज्ञी नहीं कह सकते। <strong>प्रश्न</strong>—तो केवली असंज्ञी रहे आवें? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि जिन्होंने समस्त पदार्थों को साक्षात् कर लिया है, उन्हें असंज्ञी मानने में विरोध आता है। <strong>प्रश्न</strong>—केवली असंज्ञी होते हैं, क्योंकि, वे मन की अपेक्षा के बिना ही विकलेंद्रिय जीवों की तरह बाह्य पदार्थों का ग्रहण करते हैं? <strong>उत्तर</strong>—यदि मन की अपेक्षा न करके ज्ञान की उत्पत्ति मात्र का आश्रय करके ज्ञानोत्पत्ति असंज्ञीपने की कारण होती तो ऐसा होता। परंतु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि कदाचित् मन के अभाव से विकलेंद्रिय जीवों की तरह केवली के बुद्धि के अतिशय का अभाव भी कहा जावेगा। इसलिए केवली के पूर्वोक्त दोष लागू नहीं होता।<br /> | ||
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<li name="5.10" id="5.10"><span class="HindiText"><strong> योगों के सद्भाव संबंधी समाधान</strong></span><br /> | <li name="5.10" id="5.10"><span class="HindiText"><strong> योगों के सद्भाव संबंधी समाधान</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/6/1/319/1</span> <span class="SanskritText">क्षयेऽपि त्रिविधवर्गणापेक्ष: सयोगकेवलिन: आत्मप्रदेशपरिस्पंदो योगो वेदितव्य:।</span>=<span class="HindiText">वीर्यांतराय और ज्ञानवरण कर्म के क्षय हो जाने पर भी सयोगकेवली के जो तीन प्रकार की वर्गणाओं की अपेक्षा आत्मप्रदेश परिस्पंद होता है वह भी योग है ऐसा जानना चाहिए। <span class="GRef">(धवला 1/1,1,/123/368/1)</span></span><br /> | |||
<strong> धवला 1/1,1,27/220/59 )</strong><span class="PrakritText"> अत्थि लोगपूरणम्हि ट्ठियकेवलीणं।</span>=<span class="HindiText">लोकपूरण समुद्घात में स्थित केवलियों के भी योग प्रतिपादक आगम उपलब्ध है। <br /> | <strong><span class="GRef"> धवला 1/1,1,27/220/59)</span></strong><span class="PrakritText"> अत्थि लोगपूरणम्हि ट्ठियकेवलीणं।</span>=<span class="HindiText">लोकपूरण समुद्घात में स्थित केवलियों के भी योग प्रतिपादक आगम उपलब्ध है। <br /> | ||
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<li name="5.11" id="5.11"><span class="HindiText"><strong> केवली के पर्याप्ति, योग तथा प्राण विषयक प्ररूपणा—</strong> <br /> | <li name="5.11" id="5.11"><span class="HindiText"><strong> केवली के पर्याप्ति, योग तथा प्राण विषयक प्ररूपणा—</strong> <br /> | ||
( धवला 2/11/444 .3+446.4÷658.7+419.16); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/701/1135 .12;726/1162.1) </span></li> | <span class="GRef">(धवला 2/11/444 .3+446.4÷658.7+419.16)</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/701/1135 .12;726/1162.1)</span> </span></li> | ||
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<li name="5.12" id="5.12"><span class="HindiText"><strong> द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते</strong> </span><br /> | <li name="5.12" id="5.12"><span class="HindiText"><strong> द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते</strong> </span><br /> | ||
धवला 2/1,1/444/6 <span class="PrakritText">अध दव्विंदियस्स जदि गहणं कीरदि तो सण्णीणमपज्जतकाले सत्त पाणा पिंडिदूण दो चेव पाणा भवंति। पंचण्ह दव्वेंदियाणमभावादो। तम्हा सजोगिकेवलिस्स चत्तारि पाणा दो पाणा वा।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते? <strong>उत्तर</strong>—यदि प्राणों में द्रव्येंद्रियों का ही ग्रहण किया जावे तो संज्ञी जीवों के अपर्याप्त काल में सात प्राणों के स्थान पर कुल दो ही प्राण कहे जायेंगे, क्योंकि, उनके द्रव्येंद्रियों का अभाव होता है। अत: यह सिद्ध हुआ कि सयोगी जिन के चार अथवा दो ही प्राण होते हैं। ( धवला 2/1,1/658/5 )। </span></li> | <span class="GRef">धवला 2/1,1/444/6</span> <span class="PrakritText">अध दव्विंदियस्स जदि गहणं कीरदि तो सण्णीणमपज्जतकाले सत्त पाणा पिंडिदूण दो चेव पाणा भवंति। पंचण्ह दव्वेंदियाणमभावादो। तम्हा सजोगिकेवलिस्स चत्तारि पाणा दो पाणा वा।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते? <strong>उत्तर</strong>—यदि प्राणों में द्रव्येंद्रियों का ही ग्रहण किया जावे तो संज्ञी जीवों के अपर्याप्त काल में सात प्राणों के स्थान पर कुल दो ही प्राण कहे जायेंगे, क्योंकि, उनके द्रव्येंद्रियों का अभाव होता है। अत: यह सिद्ध हुआ कि सयोगी जिन के चार अथवा दो ही प्राण होते हैं। <span class="GRef">( धवला 2/1,1/658/5)</span>। </span></li> | ||
<li name="5.13" id="5.13"><span class="HindiText"><strong> समुद्घातगत केवली को चार प्राण कैसे कहते हो</strong></span><strong><br></strong> धवला 2/1,1/659/1 | <li name="5.13" id="5.13"><span class="HindiText"><strong> समुद्घातगत केवली को चार प्राण कैसे कहते हो</strong></span><strong><br></strong><span class="GRef"> धवला 2/1,1/659/1</span> </span> <span class="PrakritText">तेसिं कारणभूद-पज्जत्तीओ अत्थि त्ति पुणो उवरिमछट्ठसमयप्पहुडिं वचि-उस्सासपाणाणं समणा भवदि चत्तारि वि पाणा हवंति।</span>=<span class="HindiText">समुद्घातगत केवली के वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणों की कारणभूत वचन और आनपान पर्याप्तियाँ पायी जाती हैं, इसलिए लोकपूरण समुद्घात के अनंतर होने वाले प्रतर समुद्घात के पश्चात् उपरिम छठे समय से लेकर आगे वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणों का सद्भाव हो जाता है, इसलिए सयोगिकेवली के औदारिकमिश्र काययोग में चार प्राण भी होते हैं।</span></li> | ||
<li name="5.14" id="5.14"><span class="HindiText"><strong> अयोगी के एक आयु प्राण होने का क्या कारण है</strong></span><strong><br> | <li name="5.14" id="5.14"><span class="HindiText"><strong> अयोगी के एक आयु प्राण होने का क्या कारण है</strong></span><strong><br> | ||
</strong> धवला 2/1,1/445/10 <span class="PrakritText"> आउस-पाणो एक्को चेव। केण कारणेण। ण ताव णाणावरण-खओवसम-लक्खण-पचिंदियपाणा तत्थ संति, खीणावरणे खओवसमाभावादो। आणापाणभासा-मणपाणा वि णत्थि, पज्जत्ति-जणिद-पाण-सण्णिद-सत्ति-अभावादो। ण सरीर-बलपाणो वि अत्थि, सरीरो-दय-जणिद-कम्म-णोकम्मागमाभावादो तदो एक्को चेव प्राणो।</span>=<span class="HindiText">(अयोग केवली के) एक आयु नामक प्राण होता है। <strong>प्रश्न</strong>—एक आयु प्राण के होने का क्या कारण है? <strong>उत्तर</strong>—ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमस्वरूप पाँच इंद्रिय प्राण तो अयोगकेवली के हैं नहीं, क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय हो जाने पर क्षयोपशम का अभाव पाया जाता है। इसी प्रकार आनपान, भाषा और मन:प्राण भी उनके नहीं हैं, क्योंकि पर्याप्ति जनित प्राण संज्ञावाली शक्ति का उनके अभाव है। उसी प्रकार उनके कायबल नाम का भी प्राण नहीं है, क्योंकि उनके शरीर नामकर्म के उदय जनितकर्म और नोकर्मों के आगमन का अभाव है। इसलिए अयोगकेवली के एक आयु ही प्राण होता है। ऐसा समझना चाहिए।</span></li> | </strong> <span class="GRef">धवला 2/1,1/445/10</span> <span class="PrakritText"> आउस-पाणो एक्को चेव। केण कारणेण। ण ताव णाणावरण-खओवसम-लक्खण-पचिंदियपाणा तत्थ संति, खीणावरणे खओवसमाभावादो। आणापाणभासा-मणपाणा वि णत्थि, पज्जत्ति-जणिद-पाण-सण्णिद-सत्ति-अभावादो। ण सरीर-बलपाणो वि अत्थि, सरीरो-दय-जणिद-कम्म-णोकम्मागमाभावादो तदो एक्को चेव प्राणो।</span>=<span class="HindiText">(अयोग केवली के) एक आयु नामक प्राण होता है। <strong>प्रश्न</strong>—एक आयु प्राण के होने का क्या कारण है? <strong>उत्तर</strong>—ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमस्वरूप पाँच इंद्रिय प्राण तो अयोगकेवली के हैं नहीं, क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय हो जाने पर क्षयोपशम का अभाव पाया जाता है। इसी प्रकार आनपान, भाषा और मन:प्राण भी उनके नहीं हैं, क्योंकि पर्याप्ति जनित प्राण संज्ञावाली शक्ति का उनके अभाव है। उसी प्रकार उनके कायबल नाम का भी प्राण नहीं है, क्योंकि उनके शरीर नामकर्म के उदय जनितकर्म और नोकर्मों के आगमन का अभाव है। इसलिए अयोगकेवली के एक आयु ही प्राण होता है। ऐसा समझना चाहिए।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText" name="6.1" id="6.1"><strong> केवली के लेश्या कहना उपचार है तथा उसका कारण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6.1" id="6.1"><strong> केवली के लेश्या कहना उपचार है तथा उसका कारण</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/2/6/160/1 <span class="SanskritText">ननु च उपशांतकषाये क्षीणकषाये सयोगकेवलिनि च शुक्ललेश्यास्तीत्यागम:। तत्र कषायानुरंजनाभावादौदयिकत्वं नोपपद्यते। नैष दोष:; पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया यासौ योगप्रवृत्ति: कषायानुरंजिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते। तदभावादयोगकेवल्यकेवल्यलेश्य इति निश्चीयते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—उपशांत कषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली गुणस्थान में शुक्ल लेश्या है ऐसा आगम है, परंतु वहाँ पर कषाय का उदय नहीं है इसलिए औदयिकपना नहीं बन सकता? <strong>उत्तर</strong>—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो योग प्रवृत्ति कषाय के उदय से अनुरंजित है वही यह है इस प्रकार पूर्व भावप्रज्ञापन नय की अपेक्षा उपशांत कषाय आदि गुणस्थानों में भी लेश्या को औदयिक कहा गया है। ( राजवार्तिक/2/6/8/109/29 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/533 )।</span><br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/2/6/160/1</span> <span class="SanskritText">ननु च उपशांतकषाये क्षीणकषाये सयोगकेवलिनि च शुक्ललेश्यास्तीत्यागम:। तत्र कषायानुरंजनाभावादौदयिकत्वं नोपपद्यते। नैष दोष:; पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया यासौ योगप्रवृत्ति: कषायानुरंजिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते। तदभावादयोगकेवल्यकेवल्यलेश्य इति निश्चीयते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—उपशांत कषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली गुणस्थान में शुक्ल लेश्या है ऐसा आगम है, परंतु वहाँ पर कषाय का उदय नहीं है इसलिए औदयिकपना नहीं बन सकता? <strong>उत्तर</strong>—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो योग प्रवृत्ति कषाय के उदय से अनुरंजित है वही यह है इस प्रकार पूर्व भावप्रज्ञापन नय की अपेक्षा उपशांत कषाय आदि गुणस्थानों में भी लेश्या को औदयिक कहा गया है। <span class="GRef">(राजवार्तिक/2/6/8/109/29)</span>; <span class="GRef">(गोम्मटसार जीवकांड/533 )</span>।</span><br /> | ||
धवला 7/1,1,61/104/12 | <span class="GRef">धवला 7/1,1,61/104/12 </span> <span class="SanskritText">जदि कसाओदएण लेस्साओ उच्चंति तो खीणकसायाणं लेस्साभावो पसज्जदे। सच्चमेदं जदि कसाओदयादो चेव लेस्सुप्पत्तो इच्छिज्जदि। किंतु सरीरणामकम्मोदयजणिदजोगो वि लेस्सा त्ति इच्छिज्जदि, कम्मबंधणिमित्तत्तादो। तेण कसाये फिट्टे वि जोगो अत्थि त्ति खीणकसायाणं लेस्सत्तं ण विरुज्झदे।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—यदि कषायों के उदय से लेश्याओं का उत्पन्न होना कहा जाता है तो बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के लेश्या के अभाव का प्रसंग आता है। <strong>उत्तर</strong>—सचमुच ही क्षीण कषाय जीवों में लेश्या के अभाव का प्रसंग आता यदि केवल कषायोदय से ही लेश्या की उत्पत्ति मानी जाती। किंतु शरीर नामकर्मोदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योंकि वह भी कर्म के बंध में निमित्त होता है। इस कारण कषाय के नष्ट हो जाने पर भी चूँकि योग रहता है, इसलिए क्षीणकषाय जीवों के लेश्या मानने में कोई विरोध नहीं आता। ( गोम्मटसार जीवकांड/533 )।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="6.2" id="6.2"><strong> केवली के संयम कहना उपचार है तथा उसका कारण </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6.2" id="6.2"><strong> केवली के संयम कहना उपचार है तथा उसका कारण </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,124/374/3</span> <span class="SanskritText">अथ स्यात् बुद्धिपूर्विका सावद्यविरति: संयम:, अन्यथा काष्ठादिष्वपि संयमप्रसंगात् । न च केवलीषु तथाभूता निवृत्तिरस्ति ततस्तत्र संयमो दुर्घट इति नैष दोष:, अघातिचतुष्टयबिनाज्ञापेक्षया समयं प्रत्यसंख्यातगुणश्रेणिकर्मनिर्जरापेक्षया च सकलपापक्रियानिरोधत्तक्षणपारिणामिकगुणाविर्भावापेक्षया वा, तत्र संयमोपचारात् । अथवा प्रवृत्त्यभावापेक्षया मुख्यसंयमोऽस्ति (न काष्ठेन व्यभिचारस्तत्र प्रवृत्त्यभावतस्तन्निवृत्त्यनुपपत्ते:।</span><span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>—बुद्धिपूर्वक सावद्ययोग के त्याग को संयम कहना तो ठीक है। यदि ऐसा न माना जाये तो काष्ठ आदि में भी संयम का प्रसंग आ जायेगा। किंतु केवली में बुद्धिपूर्वक सावद्ययोग की निवृत्ति तो पायी नहीं जाती है इसलिए उनमें संयम का होना दुर्घट ही है? <strong>उत्तर—</strong>यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, चार अघातिया कर्मों के विनाश करने की अपेक्षा और समय-समय में असंख्यात गुणी श्रेणीरूप से कर्म निर्जरा करने की अपेक्षा संपूर्ण पापक्रिया के निरोधस्वरूप पारिणामिक गुण प्रगट हो जाता है, इसलिए इस अपेक्षा से वहाँ संयम का उपचार किया जाता है। अत: वहाँ पर संयम का होना दुर्घट नहीं है। अथवा प्रवृत्ति के अभाव की अपेक्षा वहाँ पर मुख्य संयम है। इस प्रकार जिनेंद्र में प्रवृत्यभाव से मुख्य संयम की सिद्धि करने पर काष्ठ से व्यभिचार दोष भी नहीं आता है, क्योंकि, काष्ठ में प्रवृत्ति नहीं पायी जाती है, तब उसकी निवृत्ति भी नहीं बन सकती है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="6.3" id="6.3"><strong> केवली के ध्यान कहना उपचार है तथा उसका कारण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6.3" id="6.3"><strong> केवली के ध्यान कहना उपचार है तथा उसका कारण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/10/5/125/8</span> <span class="SanskritText"> यथा एकाग्रचिंतानिरोधो ध्यानमिति छद्मस्थे ध्यानशब्दार्थो मुख्यश्चिंताविक्षेपवत: तन्निरोधोपपत्ते:; तदभावात् केवलिन्युपचरित: फलदर्शनात् ।</span>=<span class="HindiText">एकाग्रचिंतानिरोधरूप ध्यान छद्मस्थों में मुख्य है, केवली में तो उसका फल कर्मध्वंस देखकर उपचार से ही वह माना जाता है।</span><br /> | |||
धवला 13/5,4,26/86/4 <span class="PrakritText"> एदम्हि जोगणिरोहकाले सुहुमकिरियमप्पडिवादि ज्झाणं ज्झायदि त्ति जं भणिदं तण्ण घडदे; केवलिस्स विसईकयासेसदव्वपज्जायस्स सगसव्वद्घाए एगरूवस्स अणिंदियस्स एगवत्थुम्हि मणणिरोहाभावादो। ण च मणणिरोहेण विणा ज्झाणं संभवदि। ण एस दोसो; एगवत्थुम्हि चिंताणिरोहो ज्झाणमिदि जदि घेप्पदि तो होदि दोसो। ण च एवमेत्थ घेप्पदि।...जोगा उवयारेण चिंता; तिस्से एयग्गेण णिरोहो विणासो जम्मि तं ज्झाणमिदि एत्थ घेत्तव्वं।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 13/5,4,26/86/4</span> <span class="PrakritText"> एदम्हि जोगणिरोहकाले सुहुमकिरियमप्पडिवादि ज्झाणं ज्झायदि त्ति जं भणिदं तण्ण घडदे; केवलिस्स विसईकयासेसदव्वपज्जायस्स सगसव्वद्घाए एगरूवस्स अणिंदियस्स एगवत्थुम्हि मणणिरोहाभावादो। ण च मणणिरोहेण विणा ज्झाणं संभवदि। ण एस दोसो; एगवत्थुम्हि चिंताणिरोहो ज्झाणमिदि जदि घेप्पदि तो होदि दोसो। ण च एवमेत्थ घेप्पदि।...जोगा उवयारेण चिंता; तिस्से एयग्गेण णिरोहो विणासो जम्मि तं ज्झाणमिदि एत्थ घेत्तव्वं।</span><br /> | ||
धवला 13/5,4,26/87/13 <span class="PrakritText">कधमेत्थ ज्झाणववएसो? एयग्गेण चिंताए जीवस्स णिरोहो परिप्फंदाभावो ज्झाणं णाम।</span>=<span class="HindiText">1. <strong>प्रश्न</strong>—इस योग निरोध के काल में केवली जिन सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती ध्यान को ध्याते हैं, यह जो कथन किया है वह नहीं बनता, क्योंकि केवली जिन अशेष द्रव्य पर्यायों को विषय करते हैं, अपने सब काल में एक रूप रहते हैं और इंद्रिय ज्ञान से रहित हैं; अतएव उनका एक वस्तु में मन का निरोध करना उपलब्ध नहीं होता। और मन का निरोध किये बिना ध्यान का होना संभव नहीं है। <strong>उत्तर</strong>—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि प्रकृत में एक वस्तु में चिंता का निरोध करना ध्यान है, ऐसा ग्रहण किया जाता है तो उक्त दोष आता है। परंतु यहाँ ऐसा ग्रहण नहीं करते हैं।...यहाँ उपचार से योग का अर्थ चिंता है। उसका एकाग्र रूप से निरोध अर्थात् विनाश जिस ध्यान में किया जाता है, वह ध्यान है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। 2. <strong>प्रश्न</strong>—यहाँ ध्यान संज्ञा किस कारण से दी गयी है? <strong>उत्तर</strong>—एकाग्ररूप से जीव के चिंता का निरोध अर्थात् परिस्पंद का अभाव होना ही ध्यान है, इस दृष्टि से यहाँ ध्यान संज्ञा दी गयी है।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 13/5,4,26/87/13</span> <span class="PrakritText">कधमेत्थ ज्झाणववएसो? एयग्गेण चिंताए जीवस्स णिरोहो परिप्फंदाभावो ज्झाणं णाम।</span>=<span class="HindiText">1. <strong>प्रश्न</strong>—इस योग निरोध के काल में केवली जिन सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती ध्यान को ध्याते हैं, यह जो कथन किया है वह नहीं बनता, क्योंकि केवली जिन अशेष द्रव्य पर्यायों को विषय करते हैं, अपने सब काल में एक रूप रहते हैं और इंद्रिय ज्ञान से रहित हैं; अतएव उनका एक वस्तु में मन का निरोध करना उपलब्ध नहीं होता। और मन का निरोध किये बिना ध्यान का होना संभव नहीं है। <strong>उत्तर</strong>—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि प्रकृत में एक वस्तु में चिंता का निरोध करना ध्यान है, ऐसा ग्रहण किया जाता है तो उक्त दोष आता है। परंतु यहाँ ऐसा ग्रहण नहीं करते हैं।...यहाँ उपचार से योग का अर्थ चिंता है। उसका एकाग्र रूप से निरोध अर्थात् विनाश जिस ध्यान में किया जाता है, वह ध्यान है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। 2. <strong>प्रश्न</strong>—यहाँ ध्यान संज्ञा किस कारण से दी गयी है? <strong>उत्तर</strong>—एकाग्ररूप से जीव के चिंता का निरोध अर्थात् परिस्पंद का अभाव होना ही ध्यान है, इस दृष्टि से यहाँ ध्यान संज्ञा दी गयी है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/152/219/10</span> <span class="SanskritText"> भावमुक्तस्य केवलिनो...स्वरूपनिश्चलत्वाद...पूर्वसंचितकर्मणां ध्यानकार्यभूतं स्थितिविनाशं गलनं च दृष्ट्वा निर्जरारूपध्यानस्य कार्यकारणमुपचर्योपचारेण ध्यानं भण्यत इत्यभिप्राय:।</span>=<span class="HindiText">स्वरूप निश्चल होने से भावमुक्त केवली के ध्यान का कार्यभूत पूर्वसंचित कर्मों की स्थिति का विनाश अर्थात् गलन देखा जाता है। निर्जरारूप इस ध्यान के कार्य-कारण में उपचार करने से केवली को ध्यान कहा जाता है ऐसा समझना चाहिए। (चा.सा/131/2)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="6.4" id="6.4"><strong> केवली के एकत्व विर्तक ध्यान क्यों नहीं कहते</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6.4" id="6.4"><strong> केवली के एकत्व विर्तक ध्यान क्यों नहीं कहते</strong> </span><br /> | ||
धवला 13/5,4,26/75/7 <span class="PrakritText"> आवरणाभावेण असेसदव्वपज्जएसु उवजुत्तस्स केवलोपजोगस्स एगदव्वम्हि पज्जाए वा अवट्ठाणाभावदट्ठूणं तज्झाणाभावस्स परूवित्तादो।</span>=<span class="HindiText">आवरण का अभाव होने से केवली जिन का उपयोग अशेष-द्रव्य पर्यायों में उपयुक्त होने लगता है। इसलिए एक द्रव्य में या पर्याय में अवस्थान का अभाव देखकर उस ध्यान का (एकत्वविर्तक अविचार) अभाव कहा है।<br /> | <span class="GRef">धवला 13/5,4,26/75/7</span> <span class="PrakritText"> आवरणाभावेण असेसदव्वपज्जएसु उवजुत्तस्स केवलोपजोगस्स एगदव्वम्हि पज्जाए वा अवट्ठाणाभावदट्ठूणं तज्झाणाभावस्स परूवित्तादो।</span>=<span class="HindiText">आवरण का अभाव होने से केवली जिन का उपयोग अशेष-द्रव्य पर्यायों में उपयुक्त होने लगता है। इसलिए एक द्रव्य में या पर्याय में अवस्थान का अभाव देखकर उस ध्यान का (एकत्वविर्तक अविचार) अभाव कहा है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="6.5" id="6.5"><strong> तो फिर केवली क्या ध्याते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6.5" id="6.5"><strong> तो फिर केवली क्या ध्याते हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/197-198 </span> <span class="PrakritGatha">णिहदघणघादिकम्मो पच्चक्खं सव्वभावतच्चण्हू। णेयंतगदो समणो झादि कमट्ठं असंदेहो।197। सव्वबाधविजुत्तो समंतसव्वक्खसोक्खणाणड्ढो। भूदो अक्खातीदो झादि अणक्खो परं सोक्खं।198।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—जिसने घनघाति कर्म का नाश किया है, जो सर्व पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं, और ज्ञेयों के पार को प्राप्त हैं, ऐसे संदेह रहित श्रमण क्या ध्याते हैं? <strong>उत्तर</strong>—अनिंद्रिय और इंद्रियातीत हुआ आत्मा सर्व बाधा रहित और संपूर्ण आत्मा में समंत (सर्व प्रकार के, परिपूर्ण) सौख्य तथा ज्ञान से समृद्ध रहता हुआ परम सौख्य का ध्यान करता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="6.6" id="6.6"><strong> केवली को इच्छा का अभाव तथा उसका कारण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6.6" id="6.6"><strong> केवली को इच्छा का अभाव तथा उसका कारण</strong> </span><br /> | ||
नियमसार/172 <span class="PrakritGatha"> जाणंतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो।<br /> | <span class="GRef">नियमसार/172 </span><span class="PrakritGatha"> जाणंतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो।<br /> | ||
केवलिणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो।172।</span>=<span class="HindiText">जानते और देखते हुए भी, केवली को इच्छापूर्वक (वर्तन) नहीं होता; इसलिए उन्हें ‘केवलज्ञानी’ कहा है। और इसलिए अबंधक कहा है। ( नियमसार/175 ) </span><br><strong>अष्टसहस्री./ | केवलिणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो।172।</span>=<span class="HindiText">जानते और देखते हुए भी, केवली को इच्छापूर्वक (वर्तन) नहीं होता; इसलिए उन्हें ‘केवलज्ञानी’ कहा है। और इसलिए अबंधक कहा है। <span class="GRef">(नियमसार/175)</span> </span><br><strong><span class="GRef">अष्टसहस्री./पृष्ठ 72</strong> (निर्णयसागर बंबई)</span> <span class="SanskritText">वस्तुतस्तु भगवतो वीतमोहत्वान्मोहपरिणामरूपाया इच्छाया तत्रासंभवात् । तथाहि—नेच्छा सर्वविद: शासनप्रकाशननिमित्तं प्रणष्टमोहत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">वास्तव में केवली भगवान् के वीतमोह होने के कारण, मोह परिणामरूप जो इच्छा है वह उनके असंभव है। जैसे कि—सर्वज्ञ भगवान् को शासन के प्रकाशन की भी कोई इच्छा नहीं है, मोह का विनाश हो जाने के कारण। </span><br><strong> <span class="GRef">नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/173-174</span> </strong> <span class="SanskritText">परिणामपूर्वकं वचनं केवलिनो न भवति...केवलीमुखारविंदविनिर्गतो दिव्यध्वनिरनीहात्मक:।</span>=<span class="HindiText">परिणाम पूर्वक वचन तो केवली को होता नहीं है।...केवली के मुखारविंद से निकली दिव्यध्वनि समस्तजनों के हृदय को आल्हाद के कारणभूत अनिच्छात्मक होती है।</span><br> | ||
<strong> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/44 </strong> <span class="SanskritText">यथा हि महिलानां प्रयत्नमंतरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्वभावभूत एव मायोपगुंठनागुंठितो व्यवहार: प्रवर्तते, तथा हि केवलिनां प्रयत्नमंतरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्थानासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवर्तंते। अपि चाविरुद्धमेतदंभोधरदृष्टांतात् । यथा खल्वंभोधराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमंबुवर्षं च पुरुषप्रयत्नमंतरेणापि दृश्यंते, तथा केवलिनां स्थानादयोऽबुद्धिपूर्वका एव दृश्यंते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—(बिना इच्छा के भगवान् को विहार स्थानादि क्रियाएँ कैसे संभव हैं)। <strong>उत्तर</strong>—जैसे स्त्रियों के प्रयत्न के बिना भी, उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से स्वभावभूत ही माया के ढक्कन से ढका हुआ व्यवहार प्रवर्तता है, उसी प्रकार केवली भगवान् के, बिना ही प्रयत्न के उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मदेशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं। और यह (प्रयत्न के बिना ही विहारादि का होना) बादल के दृष्टांत से अविरुद्ध है। जैसे बादल के आकाररूप परिणमित पुद्गलों का गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुषप्रयत्न के बिना भी देखी जाती हैं, उसी प्रकार केवली भगवान् के खड़े रहना इत्यादि अबुद्धि पूर्वक ही (इच्छा के बिना ही) देखा जाता है।</span></li> | <strong><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/44</span> </strong> <span class="SanskritText">यथा हि महिलानां प्रयत्नमंतरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्वभावभूत एव मायोपगुंठनागुंठितो व्यवहार: प्रवर्तते, तथा हि केवलिनां प्रयत्नमंतरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्थानासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवर्तंते। अपि चाविरुद्धमेतदंभोधरदृष्टांतात् । यथा खल्वंभोधराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमंबुवर्षं च पुरुषप्रयत्नमंतरेणापि दृश्यंते, तथा केवलिनां स्थानादयोऽबुद्धिपूर्वका एव दृश्यंते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—(बिना इच्छा के भगवान् को विहार स्थानादि क्रियाएँ कैसे संभव हैं)। <strong>उत्तर</strong>—जैसे स्त्रियों के प्रयत्न के बिना भी, उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से स्वभावभूत ही माया के ढक्कन से ढका हुआ व्यवहार प्रवर्तता है, उसी प्रकार केवली भगवान् के, बिना ही प्रयत्न के उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मदेशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं। और यह (प्रयत्न के बिना ही विहारादि का होना) बादल के दृष्टांत से अविरुद्ध है। जैसे बादल के आकाररूप परिणमित पुद्गलों का गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुषप्रयत्न के बिना भी देखी जाती हैं, उसी प्रकार केवली भगवान् के खड़े रहना इत्यादि अबुद्धि पूर्वक ही (इच्छा के बिना ही) देखा जाता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="6.7" id="6.7"><strong> केवली के उपयोग कहना उपचार है</strong></span><strong><br></strong> राजवार्तिक/2/10/5/125/10 <span class="SanskritText"> तथा उपयोगशब्दार्थोऽपि संसारिषु मुख्य: परिणामांतरसंक्रमात्, मुक्तेषु तदभावाद् गौण: कल्प्यते उपलब्धिसामान्यात् ।</span>=<span class="HindiText">संसारी जीवों में उपयोग मुख्य है, क्योंकि बदलता रहता है। मुक्त जीवों में सतत एकसी धारा रहने से उपयोग गौण है वहाँ तो उपलब्धि सामान्य होती है।</span></li></ol></li> | <li><span class="HindiText" name="6.7" id="6.7"><strong> केवली के उपयोग कहना उपचार है</strong></span><strong><br></strong><span class="GRef"> राजवार्तिक/2/10/5/125/10</span> <span class="SanskritText"> तथा उपयोगशब्दार्थोऽपि संसारिषु मुख्य: परिणामांतरसंक्रमात्, मुक्तेषु तदभावाद् गौण: कल्प्यते उपलब्धिसामान्यात् ।</span>=<span class="HindiText">संसारी जीवों में उपयोग मुख्य है, क्योंकि बदलता रहता है। मुक्त जीवों में सतत एकसी धारा रहने से उपयोग गौण है वहाँ तो उपलब्धि सामान्य होती है।</span></li></ol></li> | ||
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<li name = 7.1 id = 7.1><span class="HindiText"><strong> केवली समुद्घात सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li name = 7.1 id = 7.1><span class="HindiText"><strong> केवली समुद्घात सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/9/44/457/3 <span class="SanskritText">लघुकर्मपरिपाचनस्याशेषकर्मरेणुपरिशातनशक्तिस्वाभाव्याद्दंडकपाटप्रतरलोकपूरणानि स्वात्मप्रदेशविसर्पणत:...। समुपहृतप्रदेशविसरण:।</span>=<span class="HindiText">जिनके स्वल्पमात्र में कर्मों का परिपाचन हो रहा है ऐसे वे अपने (केवली अपने) आत्मप्रदेशों के फैलने से कर्म रज को परिशातन करने की शक्तिवाले दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात को...करके अनंतर के विसर्पण का संकोच करके...।</span><br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/9/44/457/3</span> <span class="SanskritText">लघुकर्मपरिपाचनस्याशेषकर्मरेणुपरिशातनशक्तिस्वाभाव्याद्दंडकपाटप्रतरलोकपूरणानि स्वात्मप्रदेशविसर्पणत:...। समुपहृतप्रदेशविसरण:।</span>=<span class="HindiText">जिनके स्वल्पमात्र में कर्मों का परिपाचन हो रहा है ऐसे वे अपने (केवली अपने) आत्मप्रदेशों के फैलने से कर्म रज को परिशातन करने की शक्तिवाले दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात को...करके अनंतर के विसर्पण का संकोच करके...।</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/20/12/77/19 <span class="SanskritText">द्रव्यस्वभावत्वात् सुराद्रव्यस्य फेनवेगबुद्बुदाविर्भावोपशमनवद् देहस्थात्मप्रदेशानां बहि:समुद्घातनं केवलिसमुद्घात:।</span>=<span class="HindiText">जैसे मदिरा में फेन आकर शांत हो जाता है उसी तरह समुद्घात में देहस्थ आत्मप्रदेश बाहर निकलकर फिर शरीर में समा जाते हैं, ऐसा समुद्घात केवली करते हैं।</span><br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/20/12/77/19</span> <span class="SanskritText">द्रव्यस्वभावत्वात् सुराद्रव्यस्य फेनवेगबुद्बुदाविर्भावोपशमनवद् देहस्थात्मप्रदेशानां बहि:समुद्घातनं केवलिसमुद्घात:।</span>=<span class="HindiText">जैसे मदिरा में फेन आकर शांत हो जाता है उसी तरह समुद्घात में देहस्थ आत्मप्रदेश बाहर निकलकर फिर शरीर में समा जाते हैं, ऐसा समुद्घात केवली करते हैं।</span><br /> | ||
धवला 13/2/61/300/9 <span class="PrakritText"> दंड-कवाड-पदर-लोगपूरणाणि केवलिसमुग्घादो णाम।</span>=<span class="HindiText">दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणरूप जीव प्रदेशों की अवस्था को केवलिसमुद्घात कहते हैं। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/153/221 )।<br /> | <span class="GRef">धवला 13/2/61/300/9 </span><span class="PrakritText"> दंड-कवाड-पदर-लोगपूरणाणि केवलिसमुग्घादो णाम।</span>=<span class="HindiText">दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणरूप जीव प्रदेशों की अवस्था को केवलिसमुद्घात कहते हैं। <span class="GRef">(पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/153/221)</span>।<br /> | ||
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<li name = 7.2 id = 7.2><span class="HindiText"><strong> भेद-प्रभेद</strong> </span><br /> | <li name = 7.2 id = 7.2><span class="HindiText"><strong> भेद-प्रभेद</strong> </span><br /> | ||
धवला 4/,1,3,2/28/8 <span class="PrakritText"> दंडकवाड-पदर-लोकपूरणभेएण चउव्विहो।</span> =<span class="HindiText">दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण के भेद से केवलीसमुद्घात चार प्रकार का है।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 4/,1,3,2/28/8</span> <span class="PrakritText"> दंडकवाड-पदर-लोकपूरणभेएण चउव्विहो।</span> =<span class="HindiText">दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण के भेद से केवलीसमुद्घात चार प्रकार का है।</span><br /> | ||
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/544/953/14 <span class="SanskritText">केवलिसमुद्घात: दंडकवाटप्रतरलोकपूरणभेदाच्चतुर्धा। दंडसमुद्घात: स्थितोपविष्टभेदाद् द्वेधा। कवाटसमुद्घातोऽपि पूर्वाभिमुखोत्तराभिमुखभेदाभ्यां स्थित: उपविष्टश्चेति चतुर्धा। प्रतरलोकपूरणसमुद्घातावेवैककावेव।</span>=<span class="HindiText">केवली समुद्घात च्यारि प्रकार दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण। तहाँ दंड दोय प्रकार एक स्थिति दंड, अर एक उपविष्ट दंड। बहुरि कपाट चारि प्रकार पूर्वाभिमुखस्थितकपाट, उत्तराभिमुखस्थितकपाट, पूर्वाभिमुख उपविष्टकपाट, उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट। बहुरि प्रतर अर लोकपूरण एक एक ही प्रकार हैं।<br /> | <span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/544/953/14</span> <span class="SanskritText">केवलिसमुद्घात: दंडकवाटप्रतरलोकपूरणभेदाच्चतुर्धा। दंडसमुद्घात: स्थितोपविष्टभेदाद् द्वेधा। कवाटसमुद्घातोऽपि पूर्वाभिमुखोत्तराभिमुखभेदाभ्यां स्थित: उपविष्टश्चेति चतुर्धा। प्रतरलोकपूरणसमुद्घातावेवैककावेव।</span>=<span class="HindiText">केवली समुद्घात च्यारि प्रकार दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण। तहाँ दंड दोय प्रकार एक स्थिति दंड, अर एक उपविष्ट दंड। बहुरि कपाट चारि प्रकार पूर्वाभिमुखस्थितकपाट, उत्तराभिमुखस्थितकपाट, पूर्वाभिमुख उपविष्टकपाट, उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट। बहुरि प्रतर अर लोकपूरण एक एक ही प्रकार हैं।<br /> | ||
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<li name = 7.3 id = 7.3><span class="HindiText"><strong> दंडादि भेदों के लक्षण</strong></span><br /> | <li name = 7.3 id = 7.3><span class="HindiText"><strong> दंडादि भेदों के लक्षण</strong></span><br /> | ||
धवला 4/1,3,2/28/8 | <span class="GRef">धवला 4/1,3,2/28/8 </span> <span class="PrakritText">तत्थ दंडसमुग्घादो णाम पुव्वसरीरबाहल्लेण वा तत्तिगुणबाहल्लेण वा सविक्खंभादो सादिरेयतिगुणपरिट्ठएण केवलिजीवपदेसाणं दंडागारेण देसूणचोद्दसरज्जुविसप्पणं। कवाडसमुग्घादो णाम पुव्विल्लबाहल्लायामेण वादवलयवदिरितसव्वखेत्तावूरणं। पदरसमुग्घादो णाम केवलिजीवपदेसाणं वादवलयरुद्धलोगखेत्तं मोत्तूण सव्वलोगावूरणं। लोगपूरणसमुग्घादो णाम केवलिजीवपदेसाणं घणलोगमेत्ताण सव्वलोगवूरणं।</span>=<span class="HindiText">जिसकी अपने विष्कंभ से कुछ अधिक तिगुनी परिधि है ऐसे पूर्व शरीर के बाहल्यरूप अथवा पूर्व शरीर से तिगुने बाहल्यरूप दंडाकार से केवली के जीव प्रदेशों का कुछ कम चौदह राजू उत्सेधरूप फैलने का नाम दंड समुद्घात है। दंड समुद्घात में बताये गये बाहल्य और आयाम के द्वारा पूर्व पश्चिम में वातवलय से रहित संपूर्ण क्षेत्र के व्याप्त करने का नाम कपाट समुद्घात है। केवली भगवान् के जीवप्रदेशों का वातवलय से रुके हुए क्षेत्र को छोड़कर संपूर्ण लोक में व्याप्त होने का नाम प्रतर समुद्घात है। घन लोकप्रमाण केवली भगवान् के जीवप्रदेशों का सर्वलोक के व्याप्त करने को लोकपूरण समुद्घात कहते हैं। <span class="GRef">(धवला/13/5/4/26/2)</span> <br /> | ||
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<li name = 7.4 id = 7.4><span class="HindiText"><strong> सभी केवलियों को होने न होने विषयक दो मत</strong></span><br /> | <li name = 7.4 id = 7.4><span class="HindiText"><strong> सभी केवलियों को होने न होने विषयक दो मत</strong></span><br /> | ||
भगवती आराधना/2109 | <span class="GRef">भगवती आराधना/2109 </span> <span class="PrakritGatha">उक्कस्सएण छम्मासाउगसेसम्मिकेवली जादा। वच्चंति समुग्घादं सेसा भज्जा समुग्घादे।2109।</span>=<span class="HindiText">उत्कर्ष से जिनका आयु छह महीने का अवशिष्ट रहा है ऐसे समय में जिनको केवलज्ञान हुआ है वे केवली नियम से समुद्घात को प्राप्त होते हैं। बाकी के केवलियों को आयुष्य अधिक होने पर समुद्घात होगा अथवा नहीं भी होगा, नियम नहीं है। <span class="GRef">(पंचसंग्रह/प्राकृत 1/200)</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1,1,30/167)</span>; <span class="GRef">(ज्ञानार्णव/42/42)</span>; <span class="GRef">( वसुनंदी श्रावकाचार/530)</span></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,60/302/2 <span class="SanskritText"> यतिवृषभोपदेशात्सर्वघातिकर्मणां क्षीणकषायचरमसमये स्थिते: साम्याभावात्सर्वेऽपि कृतसमुद्घाता: संतो निर्वृत्तिमुपढौकंते। येषामाचार्याणां लोकव्यापिकेवलिषु विंशतिसंख्यानियमस्तेषां मतेन केचित्समुद्घातयंति। के न समुद्घातयंति।</span>=<span class="HindiText">यतिवृषभाचार्य के उपदेशानुसार क्षीणकषाय गुणस्थान के चरमसमय में संपूर्ण अघातिया कर्मों की स्थिति समान नहीं होने से सभी केवली समुद्घात करके ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं। परंतु जिन आचार्यों के मतानुसार लोकपूरण समुद्घात करने वाले केवलियों की बीस संख्या का नियम है, उनके मतानुसार कितने ही केवली समुद्घात करते और कितने नहीं करते हैं।</span><BR> धवला 13/5,4,31/151/13 <span class="PrakritText">सव्वेसिं णिव्वुइमुवगमंताणं केवलिसमुग्घादाभावादो।</span>=<span class="HindiText">मोक्ष जाने वाले सभी जीवों के केवलि समुद्घात नहीं होता। <br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,60/302/2</span> <span class="SanskritText"> यतिवृषभोपदेशात्सर्वघातिकर्मणां क्षीणकषायचरमसमये स्थिते: साम्याभावात्सर्वेऽपि कृतसमुद्घाता: संतो निर्वृत्तिमुपढौकंते। येषामाचार्याणां लोकव्यापिकेवलिषु विंशतिसंख्यानियमस्तेषां मतेन केचित्समुद्घातयंति। के न समुद्घातयंति।</span>=<span class="HindiText">यतिवृषभाचार्य के उपदेशानुसार क्षीणकषाय गुणस्थान के चरमसमय में संपूर्ण अघातिया कर्मों की स्थिति समान नहीं होने से सभी केवली समुद्घात करके ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं। परंतु जिन आचार्यों के मतानुसार लोकपूरण समुद्घात करने वाले केवलियों की बीस संख्या का नियम है, उनके मतानुसार कितने ही केवली समुद्घात करते और कितने नहीं करते हैं।</span><BR><span class="GRef"> धवला 13/5,4,31/151/13</span> <span class="PrakritText">सव्वेसिं णिव्वुइमुवगमंताणं केवलिसमुग्घादाभावादो।</span>=<span class="HindiText">मोक्ष जाने वाले सभी जीवों के केवलि समुद्घात नहीं होता। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li name = 7.5 id = 7.5><span class="HindiText"><strong> आयु के छह माह शेष रहने पर होने न होने संबंधी दो मत </strong> </span><br /> | <li name = 7.5 id = 7.5><span class="HindiText"><strong> आयु के छह माह शेष रहने पर होने न होने संबंधी दो मत </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,60/167/303</span> <span class="PrakritText">छम्मासाउवसेसे उप्पण्णं जस्स केवलणाणं। स-समुग्घाओ सिज्झइ सेसा भज्जा समुग्घाए।167। एदिस्से गाहाए उवएसे किण्ण गहिओ। ण, भज्जत्ते कारणाणुवलंभादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—छह माह प्रमाण आयु के शेष रहने पर जिस जीव को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है वह समुद्घात को करके ही मुक्त होता है। शेष जीव समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते हैं।167। <span class="GRef">(भगवती आराधना/2109)</span> इस पूर्वोक्त गाथा का अर्थ क्यों नहीं ग्रहण किया है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि इस प्रकार विकल्प के मानने में कोई कारण नहीं पाया जाता है, इसलिए पूर्वोक्त गाथा का उपदेश नहीं ग्रहण किया है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li name = 7.6 id = 7.6><span class="HindiText"><strong> कदाचित् आयु के अंतर्मुहूर्त शेष रहने पर होता है</strong></span><br /> | <li name = 7.6 id = 7.6><span class="HindiText"><strong> कदाचित् आयु के अंतर्मुहूर्त शेष रहने पर होता है</strong></span><br /> | ||
भगवती आराधना/2112 <span class="PrakritText">अंतोमुहुत्तसेसे जंति समुग्घादमाउम्मि।2112।</span>=<span class="HindiText">आयुकर्म जब अंतर्मुहूर्त मात्र शेष रहता है तब केवली समुद्घात करते हैं। ( सर्वार्थसिद्धि/9/44/457/1 ); ( धवला 13/5,4,26/84/1 ); ( क्षपणासार/620 ); ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/153/131 )।<br /> | <span class="GRef">भगवती आराधना/2112</span> <span class="PrakritText">अंतोमुहुत्तसेसे जंति समुग्घादमाउम्मि।2112।</span>=<span class="HindiText">आयुकर्म जब अंतर्मुहूर्त मात्र शेष रहता है तब केवली समुद्घात करते हैं। <span class="GRef">(सर्वार्थसिद्धि/9/44/457/1)</span>; <span class="GRef">( धवला 13/5,4,26/84/1)</span>; <span class="GRef">(क्षपणासार/620)</span>; <span class="GRef">( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/153/131 )</span>।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li name = 7.7 id = 7.7><span class="HindiText"><strong> आत्मप्रदेशों का विस्तार प्रमाण</strong></span><br /> | <li name = 7.7 id = 7.7><span class="HindiText"><strong> आत्मप्रदेशों का विस्तार प्रमाण</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/5/8/274/11 <span class="SanskritText">यदा तु लोकपूरणं भवति तदा मंदरस्याधश्चित्रवज्रपटलमध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशा व्यवतिष्ठंते। इतने ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते।</span> =<span class="HindiText">केवलिसमुद्घात के समय जब यह (जीव) लोक को व्यापता है उस समय जीव के मध्य के आठ प्रदेश मेरु पर्वत के नीचे चित्रा पृथिवी के वज्रमय पटल के मध्य में स्थित हो जाते हैं और शेष प्रदेश ऊपर नीचे और तिरछे समस्त लोक को व्याप्त कर लेते हैं। ( राजवार्तिक/5/8/4/450/1 )</span><br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/5/8/274/11</span> <span class="SanskritText">यदा तु लोकपूरणं भवति तदा मंदरस्याधश्चित्रवज्रपटलमध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशा व्यवतिष्ठंते। इतने ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते।</span> =<span class="HindiText">केवलिसमुद्घात के समय जब यह (जीव) लोक को व्यापता है उस समय जीव के मध्य के आठ प्रदेश मेरु पर्वत के नीचे चित्रा पृथिवी के वज्रमय पटल के मध्य में स्थित हो जाते हैं और शेष प्रदेश ऊपर नीचे और तिरछे समस्त लोक को व्याप्त कर लेते हैं। <span class="GRef">(राजवार्तिक/5/8/4/450/1)</span></span><br /> | ||
धवला 11/4,2,5,17/31/11 <span class="PrakritText">केवली दंड करेमाणो सव्वोसरीरत्तिगुणबाहल्लेण (ण) कुणदि, वेयणाभावादो। को पुण सरीरतिगुणबाहल्लेण दंडं कुणइ। पलियंकेण णिसण्णकेवली।</span>=<span class="HindiText">दंड समुद्घात को करने वाले सभी केवली शरीर से तिगुणे बाहल्य से उक्त समुद्घात को नहीं करते, क्योंकि उनके वेदना का अभाव है। <strong>प्रश्न—</strong>तो फिर कौन से केवली शरीर से तिगुणे बाहल्य से दंड समुद्घात को करते हैं? <strong>उत्तर</strong>—पल्यंक आसन से स्थित केवली उक्त प्रकार से दंड समुद्घात को करते हैं।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 11/4,2,5,17/31/11</span> <span class="PrakritText">केवली दंड करेमाणो सव्वोसरीरत्तिगुणबाहल्लेण (ण) कुणदि, वेयणाभावादो। को पुण सरीरतिगुणबाहल्लेण दंडं कुणइ। पलियंकेण णिसण्णकेवली।</span>=<span class="HindiText">दंड समुद्घात को करने वाले सभी केवली शरीर से तिगुणे बाहल्य से उक्त समुद्घात को नहीं करते, क्योंकि उनके वेदना का अभाव है। <strong>प्रश्न—</strong>तो फिर कौन से केवली शरीर से तिगुणे बाहल्य से दंड समुद्घात को करते हैं? <strong>उत्तर</strong>—पल्यंक आसन से स्थित केवली उक्त प्रकार से दंड समुद्घात को करते हैं।</span><br /> | ||
<strong> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/544/953 </strong><span class="HindiText"> | <strong><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/544/953 केवल भाषार्थ</span></strong><br> | ||
<span class="HindiText">—दंड—स्थितिदंड समुद्घात विषै एक जीव के प्रदेश वातवलय के बिना लोक की ऊँचाई किंचित् ऊन चौदह राजू प्रमाण है सो इस प्रमाणतैं लंबै बहुरि बारह अंगुल प्रमाण चौड़े गोल आकार प्रदेश हैं। स्थितिदंड के क्षेत्र को नवगुणा कीजिए तब उपविष्टदंड विषै क्षेत्र हो है। सो यहाँ 36 अंगुल चौड़ाई है। कपाट पूर्वाभिमुख स्थित कपाट समुद्घातविषै एक जीव के प्रदेश वातवलय बिना लोकप्रमाण तो लंबे हो हैं सो किंचित् ऊन चौदह राजू प्रमाण तो लंबे हो है, बहुरि उत्तर-दक्षिण दिशाविषैं लोक की चौड़ाई प्रमाण चौड़े हो हैं सो उत्तर-दक्षिण दिशाविषैं लोक सर्वत्र सात राजू चौड़ा है तातैं सात राजू प्रमाण चौड़े हो है। बहुरि बारह अंगुल प्रमाण पूर्व पश्चिम विषै ऊँचे हो हैं।<br /> | |||
पूर्वाभिमुख स्थित कपाट के क्षेत्र तै तिगुना पूर्वाभिमुख उपविष्ट कपाट विषै क्षेत्र जानना। उत्तराभिमुख स्थित कपाट के चौदह राजू प्रमाण तो लंबे पूर्व-पश्चिम दिशा विषैं लोक की चौड़ाई के प्रमाण चौड़े हैं। उत्तर-दक्षिण विषै क्रम से सात, एक, पाँच और एक राजू प्रमाण चौड़े हैं। उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट विषैं तातैं तिगुनी छत्तीस अंगुल की ऊँचाई है। प्रतर—बहुरि प्रतर समुद्घात विषैं तीन वलय बिना सर्व लोक विषैं प्रदेश व्याप्त हैं तातैं तीन वातवलय का क्षेत्रफल लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। लोकपूरण—बहुरि लोकपूरण विषैं सर्व लोकाकाश विषैं प्रदेश व्याप्त हो है तातैं लोकप्रमाण एक जीव संबंधी लोकपूरण विषैं क्षेत्र जानना।<br /> | पूर्वाभिमुख स्थित कपाट के क्षेत्र तै तिगुना पूर्वाभिमुख उपविष्ट कपाट विषै क्षेत्र जानना। उत्तराभिमुख स्थित कपाट के चौदह राजू प्रमाण तो लंबे पूर्व-पश्चिम दिशा विषैं लोक की चौड़ाई के प्रमाण चौड़े हैं। उत्तर-दक्षिण विषै क्रम से सात, एक, पाँच और एक राजू प्रमाण चौड़े हैं। उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट विषैं तातैं तिगुनी छत्तीस अंगुल की ऊँचाई है। प्रतर—बहुरि प्रतर समुद्घात विषैं तीन वलय बिना सर्व लोक विषैं प्रदेश व्याप्त हैं तातैं तीन वातवलय का क्षेत्रफल लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। लोकपूरण—बहुरि लोकपूरण विषैं सर्व लोकाकाश विषैं प्रदेश व्याप्त हो है तातैं लोकप्रमाण एक जीव संबंधी लोकपूरण विषैं क्षेत्र जानना।<br /> | ||
क्षपणासार/623/735/8-11 | <span class="GRef">क्षपणासार/623/735/8-11 भाषार्थ</span><br> | ||
<span class="HindiText">—कायोत्सर्ग स्थित केवली के दंड समुद्घात उत्कृष्ट 108 प्रमाण अंगुल ऊँचा, 12 प्रामाणांगुल चौड़ा और सूक्ष्म परिधि 37<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0034.gif" alt="" width="18" height="30" /> प्रमाणांगुल युक्त है। पद्मासन स्थित (उपविष्ट) दंड समुद्घात विषैं ऊँचाई 36 प्रमाणांगुल, और सूक्ष्म परिधि 113 <img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0001.gif" alt="" width="18" height="30" /> प्रमाणांगुल युक्त है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li name = 7.8 id = 7.8><span class="HindiText"><strong> कुल आठ समय पर्यंत रहता है</strong> </span><br /> | <li name = 7.8 id = 7.8><span class="HindiText"><strong> कुल आठ समय पर्यंत रहता है</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/20/12/77/27 <span class="SanskritText"> केवलिसमुद्घात: अष्टसामयिक: दंडकवाटप्रतरलोकपूरणानि चतर्षु समयेषु पुन:प्रतरकपाटदंडस्वशरीरानुप्रवेशाश्चतुर्षु इति।</span><span class="HindiText"> केवलि समुद्घात का काल आठ समय है। दंड, कवाट, प्रतर, लोकपूरण, फिर प्रतर, कपाट, दंड और स्व शरीर प्रवेश इस तरह आठ समय होते हैं।<br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/20/12/77/27</span> <span class="SanskritText"> केवलिसमुद्घात: अष्टसामयिक: दंडकवाटप्रतरलोकपूरणानि चतर्षु समयेषु पुन:प्रतरकपाटदंडस्वशरीरानुप्रवेशाश्चतुर्षु इति।</span><span class="HindiText"> केवलि समुद्घात का काल आठ समय है। दंड, कवाट, प्रतर, लोकपूरण, फिर प्रतर, कपाट, दंड और स्व शरीर प्रवेश इस तरह आठ समय होते हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li name = 7.9 id = 7.9><span class="HindiText"><strong> प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधिक्रम</strong></span><br /> | <li name = 7.9 id = 7.9><span class="HindiText"><strong> प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधिक्रम</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">पंचसंग्रह/प्राकृत/197-198</span> <span class="PrakritGatha">पढमे दंडं कुणइ य विदिए य कवाडयं तहा समए। तइए पयरं चेव य चउत्थए लोयपूणयं।197। विवरं पंच समए जोई मंथाणयं तदो छट्ठे। सत्तमए य कवाडं संवरइ तदोऽट्ठमे दंडं।198।</span>= <span class="HindiText">समुद्घातगत केवली भगवान् प्रथम समय में दंडरूप समुद्घात करते हैं। द्वितीय समय में कपाटरूप समुद्घात करते हैं। तृतीय समय में प्रतररूप और चौथे समय में लोक-पूरण समुद्घात करते हैं। पाँचवें समय में वे सयोगिजिन लोक के विवरगत आत्मप्रदेशों का संवरण (संकोच) करते हैं। पुन: छट्ठे समय में मंथान (प्रतर) गत आत्म-प्रदेशों का संवरण करते हैं। सातवें समय में कपाट-गत आत्म-प्रदेशों का संवरण करते हैं और आठवें समय में दंडसमुद्घातगत आत्म–प्रदेशों का संवरण करते हैं। <span class="GRef">( भगवती आराधना/2115)</span>; <span class="GRef">( क्षपणासार/ मूल/627)</span>; <span class="GRef">( क्षपणासार/ भाषा/623)</span>।</span><br /> | |||
क्षपणासार/ | <span class="GRef">क्षपणासार/ मूल/621 <span class="PrakritGatha">हेट्ठा दंडस्संतोमुहुत्तमावज्जिदं हवे करणं। तं च समुग्घादस्स य अहिमुहभावो जिणिंदस्स।621।</span>=<span class="HindiText">दंड समुद्घात करने का काल के अंतर्मुहूर्त काल आधा कहिए पहलैं आवर्जित नामा करण हो है सो जिनेंद्र देवकैं जो समुद्घात क्रिया कौं सन्मुखपना सोई आवर्जितकरण कहिए।<br /> | ||
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<li name = 7.10 id = 7.10><span class="HindiText"><strong> दंड समुद्घात में औदारिक काययोग होता है शेष में नहीं</strong> </span><br /> | <li name = 7.10 id = 7.10><span class="HindiText"><strong> दंड समुद्घात में औदारिक काययोग होता है शेष में नहीं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">पंचसंग्रह/प्राकृत/199 </span><span class="PrakritText">दंडदुगे ओरालं...।...।199।</span>=<span class="HindiText">केवलि समुद्घात के उक्त आठ समयों में से दंड द्विक अर्थात् पहले और सातवें समय के दोनों समुद्घातों में औदारिक काययोग होता है। <span class="GRef">(धवला 4/1,4,88/263/1 )</span><br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li name = 7.11 id = 7.11><span class="HindiText"><strong> प्रतर व लोकपूरण में अनाहारक शेष में आहारक होता है</strong></span><br /> | <li name = 7.11 id = 7.11><span class="HindiText"><strong> प्रतर व लोकपूरण में अनाहारक शेष में आहारक होता है</strong></span><br /> | ||
क्षपणासार/619 <span class="PrakritGatha">णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे। णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ।619।</span>=<span class="HindiText">केवल समुद्घातकौं प्राप्त केवलिविषैं दोय तौं प्रतर के समय अर एक लोकपूरण का समय इन तीन समयनि विषैं नोकर्म का आहार नियमतैं नाहीं है अन्य सर्व सयोगी जिन का कालविषैं नोकर्म का आहार है।<br /> | <span class="GRef">क्षपणासार/619</span> <span class="PrakritGatha">णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे। णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ।619।</span>=<span class="HindiText">केवल समुद्घातकौं प्राप्त केवलिविषैं दोय तौं प्रतर के समय अर एक लोकपूरण का समय इन तीन समयनि विषैं नोकर्म का आहार नियमतैं नाहीं है अन्य सर्व सयोगी जिन का कालविषैं नोकर्म का आहार है।<br /> | ||
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<li name = 7.12 id = 7.12><span class="HindiText"><strong> केवली समुद्घात में पर्याप्तापर्याप्त संबंधी नियम</strong></span><br /> | <li name = 7.12 id = 7.12><span class="HindiText"><strong> केवली समुद्घात में पर्याप्तापर्याप्त संबंधी नियम</strong></span><br /> | ||
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/703/1137/13 | <span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/703/1137/13 </span> <span class="SanskritText">सयोगे पर्याप्त:। समुद्धाते तूभय: अयोगे पर्याप्त एव।</span> =<span class="HindiText">सयोगी विषैं पर्याप्त है, समुद्घात सहित दोऊ (पर्याप्त व अपर्याप्त) है। अयोगी विषैं पर्याप्त ही है।</span><br /> | ||
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/587/791/12 <span class="SanskritText">दंडद्वये काल: औदारिकशरीरपर्याप्ति:, कवाटयुगले तन्मिश्र: प्रतरयोर्लोकपूरणे च कार्मण इति ज्ञातव्य:। मूलशरीरप्रथमसमयात्संज्ञिवत्पर्याप्तय: पूर्यंते।</span>=<span class="HindiText">दंड का करनैं वा समेटने रूप युगलविषैं औदारिक शरीर पर्याप्ति काल है। कपाट का करने समेटनेरूप युगलविषैं औदारिकमिश्रशरीर काल है अर्थात् अपर्याप्त काल है। प्रतर का करना वा समेटनाविषैं अर लोकपूरणविषैं कार्माणकाल है। मूलशरीरविषैं प्रवेश करने का प्रथम समय तैं लगाय संज्ञी पंचेंद्रियवत्, अनुक्रमतैं पर्याप्त पूर्ण करै है।<br /> | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/587/791/12</span> <span class="SanskritText">दंडद्वये काल: औदारिकशरीरपर्याप्ति:, कवाटयुगले तन्मिश्र: प्रतरयोर्लोकपूरणे च कार्मण इति ज्ञातव्य:। मूलशरीरप्रथमसमयात्संज्ञिवत्पर्याप्तय: पूर्यंते।</span>=<span class="HindiText">दंड का करनैं वा समेटने रूप युगलविषैं औदारिक शरीर पर्याप्ति काल है। कपाट का करने समेटनेरूप युगलविषैं औदारिकमिश्रशरीर काल है अर्थात् अपर्याप्त काल है। प्रतर का करना वा समेटनाविषैं अर लोकपूरणविषैं कार्माणकाल है। मूलशरीरविषैं प्रवेश करने का प्रथम समय तैं लगाय संज्ञी पंचेंद्रियवत्, अनुक्रमतैं पर्याप्त पूर्ण करै है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li name = 7.13 id = 7.13><span class="HindiText"><strong> पर्याप्तापर्याप्त संबंधी शंका-समाधान</strong> </span><br /> | <li name = 7.13 id = 7.13><span class="HindiText"><strong> पर्याप्तापर्याप्त संबंधी शंका-समाधान</strong> </span><br /> | ||
धवला 2/1,1/441-444/1 | <span class="GRef">धवला 2/1,1/441-444/1 </span> <span class="PrakritText">केवली कवाड-पदर-लोगपूरणगओ पज्जत्तो अपज्जत्तो वा। ण ताव पज्जत्तो, ‘ओरालियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं’ इच्चेदेण सुत्तेण तस्स अपज्जत्तसिद्धीदो। सजोगिं मोत्तण अण्णे ओरालियमिस्सकायजोगिणो अपज्जत्ता ‘सम्मामिच्छाइट्ठि संजदा-संजद-संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता त्ति सुत्तणिद्देसादो। ण अहारमिस्सकायजोगपमत्तसंजदाणं पि पज्जत्तयत्त-प्पसंगादो। ण च एवं ‘आहारमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं’ त्ति सुत्तेण तस्स अपज्जत्तभाव-सिद्धादो। अणवगासत्तादो एदेण सुत्तेण ‘संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता’ त्ति एदं सुत्तं बाहिज्जदि....त्ति अणेयंतियादो।...किमेदेण जाणाविज्जदि।...त्ति एदं सुत्तमणिच्चमिदि...ण च सजोगम्मि सरीरपट्ठवणमत्थि, तदो ण तस्स अपज्जत्तमिदि ण, छ-पज्जत्ति-सत्ति-वज्जियस्स अपज्जत्त-ववएसादो। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—कपाट, प्रतर, और लोकपूरण समुद्घात को प्राप्त केवली पर्याप्त हैं या अपर्याप्त? <strong>उत्तर</strong>—उन्हें पर्याप्त तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि, ‘औदारिक मिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है’ इस सूत्र से उनके अपर्याप्तपना सिद्ध है, इसलिए वे अपर्याप्तक ही हैं। <strong>प्रश्न</strong>—‘‘सम्यग्मिथ्यादृष्टि संयतासंयत और संयतों के स्थान में जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं’’ इस प्रकार सूत्र निर्देश होने के कारण यही सिद्ध होता है कि सयोगी को छोड़कर अन्य औदारिकमिश्रकाययोगवाले जीव अपर्याप्तक हैं। <strong>उत्तर</strong>—ऐसा नहीं है, क्योंकि (यदि ऐसा मान लें)...तो आहारक मिश्रकाययोगवाले प्रमत्तसंयतों को भी अपर्याप्तक ही मानना पड़ेगा, क्योंकि वे भी संयत हैं। किंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि, ‘आहारकमिश्र काययोग अपर्याप्तकों के होता है’ इस सूत्र से वे अपर्याप्तक ही सिद्ध होते हैं। <strong>प्रश्न</strong>—यह सूत्र अनवकाश है, (क्योंकि) इस सूत्र से संयतों के स्थान में जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं, यह सूत्र बाधा जाता है। <strong>उत्तर</strong>—...इस कथन में अनेकांतदोष आ जाता है। (क्योंकि अन्य सूत्रों से यह भी बाधा जाता है। <strong>प्रश्न</strong>—...(सूत्र में पड़े) इस नियम शब्द से क्या ज्ञापित होता है। <strong>उत्तर</strong>—इससे ज्ञापित होता है...कि यह सूत्र अनित्य है।...कहीं प्रवृत्त हो और कहीं न हो इसका नाम अनित्यता है। <strong>प्रश्न</strong>—सयोग अवस्था में (नये) शरीर का आरंभ तो होता नहीं; अत: सयोगी के अपर्याप्तपना नहीं बन सकता। <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, कपाटादि समुद्घात अवस्था में सयोगी छह पर्याप्ति रूप शक्ति से रहित होते हैं, अतएव उन्हें अपर्याप्त कहा है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li name = 7.14 id = 7.14><span class="HindiText"><strong> समुद्घात करने का प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li name = 7.14 id = 7.14><span class="HindiText"><strong> समुद्घात करने का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/2113-2116 <span class="PrakritText">ओल्लं संतं विरल्लिदं जध लहु विणिव्वादि। संवेदियं तुण तधा तधेव कम्मं पि णादव्वं।2113। ढिदिबंधस्स सिणेहो हेदू खीयदि य सो समुहदस्स। सउदि य खीणसिणेहं सेसं अप्पट्ठिदी होदि।2114।...सेलेसिमब्भुवेंतो जोगणिरोधं तदो कुणदि।2116।</span>=<span class="HindiText">गीला वस्त्र पसारने से जल्दी शुष्क होता है, परंतु वेष्टित वस्त्र जल्दी सूखता नहीं उसी प्रकार बहुत काल में होने योग्य स्थिति अनुभागघात केवली समुद्घात-द्वारा शीघ्र हो जाता है।2113। स्थिति बंध का कारण जो स्नेहगुण वह इस समुद्घात से नष्ट होता है, और स्नेहगुण कम होने से उसकी अल्प स्थिति होती हैं।2114। अंत में योग निरोध वह धीर मुक्ति को प्राप्त करते हैं।2116।</span><br /> | <span class="GRef">भगवती आराधना/2113-2116</span> <span class="PrakritText">ओल्लं संतं विरल्लिदं जध लहु विणिव्वादि। संवेदियं तुण तधा तधेव कम्मं पि णादव्वं।2113। ढिदिबंधस्स सिणेहो हेदू खीयदि य सो समुहदस्स। सउदि य खीणसिणेहं सेसं अप्पट्ठिदी होदि।2114।...सेलेसिमब्भुवेंतो जोगणिरोधं तदो कुणदि।2116।</span>=<span class="HindiText">गीला वस्त्र पसारने से जल्दी शुष्क होता है, परंतु वेष्टित वस्त्र जल्दी सूखता नहीं उसी प्रकार बहुत काल में होने योग्य स्थिति अनुभागघात केवली समुद्घात-द्वारा शीघ्र हो जाता है।2113। स्थिति बंध का कारण जो स्नेहगुण वह इस समुद्घात से नष्ट होता है, और स्नेहगुण कम होने से उसकी अल्प स्थिति होती हैं।2114। अंत में योग निरोध वह धीर मुक्ति को प्राप्त करते हैं।2116।</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/153/221/8 <span class="PrakritText"> संसारस्थितिविनाशार्थं...केवलिसमुद्धातं।</span>=<span class="HindiText">संसार की स्थिति का विनाश करने के लिए केवली समुद्घात करते हैं।<br /> | <span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/153/221/8</span> <span class="PrakritText"> संसारस्थितिविनाशार्थं...केवलिसमुद्धातं।</span>=<span class="HindiText">संसार की स्थिति का विनाश करने के लिए केवली समुद्घात करते हैं।<br /> | ||
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<li name = 7.15 id = 7.15><span class="HindiText"><strong> इसके द्वारा शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात नहीं होता</strong></span><br /> | <li name = 7.15 id = 7.15><span class="HindiText"><strong> इसके द्वारा शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात नहीं होता</strong></span><br /> | ||
धवला 12/4,2,7,14/18/2 <span class="PrakritText">सुहाणं पयडीणं विसोहीदो केवलिसमुग्घादेण जोगणिरोहेण वा अणुभागघादो णत्थि त्ति जाणावेदि</span>।=<span class="HindiText">शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योगनिरोध से नहीं होता है।<br /> | <span class="GRef">धवला 12/4,2,7,14/18/2</span> <span class="PrakritText">सुहाणं पयडीणं विसोहीदो केवलिसमुग्घादेण जोगणिरोहेण वा अणुभागघादो णत्थि त्ति जाणावेदि</span>।=<span class="HindiText">शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योगनिरोध से नहीं होता है।<br /> | ||
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<li name = 7.16 id = 7.16><span class="HindiText"><strong> जब शेष कर्मों की स्थिति आयु के समान न हो तब उनका समीकरण करने के लिए किया जाता है</strong></span><br /> | <li name = 7.16 id = 7.16><span class="HindiText"><strong> जब शेष कर्मों की स्थिति आयु के समान न हो तब उनका समीकरण करने के लिए किया जाता है</strong></span><br /> | ||
भगवती आराधना/2110-2111 | <span class="GRef">भगवती आराधना/2110-2111 </span> <span class="PrakritGatha">जेसिं अउसमाइं णामगोदाइं वेदणीयं च। ते अकदसमुग्घादा जिणा उवणमंति सेलेसिं।2110। जेसिं हवंति विसमाणि णामगोदाउवेदणीयाणि। ते दु कदसमुग्घादा जिणा उवणमंति सेलेसिं।2111।</span>=<span class="HindiText">आयु के समान ही अन्य कर्मों की स्थिति को धारण करने वाले केवली समुद्घात किये बिना संपूर्ण शीलों के धारक बनते हैं।2110। जिनके वेदनीय नाम व गोत्रकर्म की स्थिति अधिक रहती है वे केवली भगवान् समुद्घात के द्वारा आयुकर्म की बराबरी की स्थिति करते हैं, इस प्रकार वे संपूर्ण शीलों के धारक बनते हैं।2111। <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/9/44/457/1)</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1,1,60/168/304)</span>; <span class="GRef">( ज्ञानार्णव/42/42)</span>; <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/153/7)</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,60/302/6</span> <span class="SanskritText"> के न समुद्घातयंति। येषां संसृतिव्यक्ति: कर्मस्थित्या समाना ते न समुद्घातयंति, शेषा: समुद्घातयंति।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—कौन से केवली समुद्घात नहीं करते हैं? <strong>उत्तर</strong>—जिनकी संसार-व्यक्ति अर्थात् संसार में रहने का काल वेदनीय आदि तीन कर्मों की स्थिति के समान है वे समुद्घात नहीं करते हैं, शेष केवली करते हैं।<br /> | |||
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<li name = 7.17 id = 7.17><span class="HindiText"><strong> कर्मों की स्थिति बराबर करने का विधिक्रम</strong></span><br /> | <li name = 7.17 id = 7.17><span class="HindiText"><strong> कर्मों की स्थिति बराबर करने का विधिक्रम</strong></span><br /> | ||
धवला 6/1,9-8,16/412-417/4 <span class="SanskritText">पढमसमए...ट्ठिदिए असंखेज्जे भागे हणदि। सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंते भागे हणदि (412/4)। विदियसमए...तम्हि सेसिगाए ट्ठिदीए असंखेज्जे भागे हणदि। सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंते भागे हणदि। तदो तदियसमए मंथं करेदि। ट्ठिदि-अणुभागे तहेव णिज्जरयदि। तदो चउत्थसमए...लोगे पूण्णे एक्का वग्गणा जोगस्स समजोगजादसमए। ट्ठिदिअणुभागे तहेव णिज्जरयदि। लोगे पुण्णे, अंतोमुहुत्तट्ठिदिं (413/1) ठवेदि संखेज्जगुणमाउआदो।...एत्तो सेसियाए ट्ठिदीए संखेज्जे भागे हणदि।...एत्तो अंत्तोमुहुत्तं गंतूण कायजोग...वचिजोगं...सुहुमउस्सासं णिरुं भदि (414/1)। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण...इमाणि करणाणि करेदि—पढमसमय अपूव्वफद्दयाणि करेदि पुव्वफद्दयाण हेट्ठादो (415/1) एत्तो अंतोमुहुत्तं किट्टीओ करेदि (416/1)। जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउसमाणि कम्माणि भवंति (417/1)।</span>=<span class="HindiText">प्रथम समये में...आयु को छोड़कर शेष तीन अघातिया कर्मों की स्थिति के असंख्यात बहुभाग को नष्ट करते हैं इसके अतिरिक्त क्षीणकषाय के अंतिम समय में घातने से शेष रहे अप्रशस्त प्रकृति संबंधी अनुभाग के अनंत बहुभाग को भी नष्ट करते हैं। द्वितीय समय में शेष स्थिति के असंख्यात बहुभाग को नष्ट करते हैं तथा अप्रशस्त प्रकृतियों के शेष अनुभाग के भी अनंत बहुभाग को नष्ट करते हैं। पश्चात् तृतीय समय में प्रतर संज्ञित मंथसमुद्घात को करते हैं। इस समुद्घात में भी स्थिति व अनुभाग को पूर्व के समान ही नष्ट करते हैं। तत्पश्चात् चतुर्थ समय में...लोकपूरण समुद्घात में समयोग हो जाने पर योग की एक वर्गणा हो जाती है। इस अवस्था में भी स्थिति और अनुभाग को पूर्व के ही समान नष्ट करते हैं। लोकपूरण समुद्घात में आयु से संख्यातगुणी अंतर्मुहूर्त मात्र स्थिति को स्थापित करता है।...उतरने के प्रथम समय से लेकर शेष स्थिति के संख्यात बहुभाग को, तथा शेष अनुभाग के अनंत बहुभाग को भी नष्ट करता है।...यहाँ अंतर्मुहूर्त जाकर तीनों योग...उच्छ्वास का निरोध करता है...पश्चात् अपूर्व स्पर्धककरण करता है...पश्चात्...अंतर्मुहूर्तकाल तक कृष्टियों को करता है।...फिर अपूर्व स्पर्धकों को करता है।...योग का निरोध हो जाने पर तीन अघातिया कर्म आयु के सदृश हो जाते हैं। ( धवला 11/4,2,6,20/133-134 ); ( क्षपणासार/623-644 )।<br /> | <span class="GRef">धवला 6/1,9-8,16/412-417/4</span> <span class="SanskritText">पढमसमए...ट्ठिदिए असंखेज्जे भागे हणदि। सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंते भागे हणदि (412/4)। विदियसमए...तम्हि सेसिगाए ट्ठिदीए असंखेज्जे भागे हणदि। सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंते भागे हणदि। तदो तदियसमए मंथं करेदि। ट्ठिदि-अणुभागे तहेव णिज्जरयदि। तदो चउत्थसमए...लोगे पूण्णे एक्का वग्गणा जोगस्स समजोगजादसमए। ट्ठिदिअणुभागे तहेव णिज्जरयदि। लोगे पुण्णे, अंतोमुहुत्तट्ठिदिं (413/1) ठवेदि संखेज्जगुणमाउआदो।...एत्तो सेसियाए ट्ठिदीए संखेज्जे भागे हणदि।...एत्तो अंत्तोमुहुत्तं गंतूण कायजोग...वचिजोगं...सुहुमउस्सासं णिरुं भदि (414/1)। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण...इमाणि करणाणि करेदि—पढमसमय अपूव्वफद्दयाणि करेदि पुव्वफद्दयाण हेट्ठादो (415/1) एत्तो अंतोमुहुत्तं किट्टीओ करेदि (416/1)। जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउसमाणि कम्माणि भवंति (417/1)।</span>=<span class="HindiText">प्रथम समये में...आयु को छोड़कर शेष तीन अघातिया कर्मों की स्थिति के असंख्यात बहुभाग को नष्ट करते हैं इसके अतिरिक्त क्षीणकषाय के अंतिम समय में घातने से शेष रहे अप्रशस्त प्रकृति संबंधी अनुभाग के अनंत बहुभाग को भी नष्ट करते हैं। द्वितीय समय में शेष स्थिति के असंख्यात बहुभाग को नष्ट करते हैं तथा अप्रशस्त प्रकृतियों के शेष अनुभाग के भी अनंत बहुभाग को नष्ट करते हैं। पश्चात् तृतीय समय में प्रतर संज्ञित मंथसमुद्घात को करते हैं। इस समुद्घात में भी स्थिति व अनुभाग को पूर्व के समान ही नष्ट करते हैं। तत्पश्चात् चतुर्थ समय में...लोकपूरण समुद्घात में समयोग हो जाने पर योग की एक वर्गणा हो जाती है। इस अवस्था में भी स्थिति और अनुभाग को पूर्व के ही समान नष्ट करते हैं। लोकपूरण समुद्घात में आयु से संख्यातगुणी अंतर्मुहूर्त मात्र स्थिति को स्थापित करता है।...उतरने के प्रथम समय से लेकर शेष स्थिति के संख्यात बहुभाग को, तथा शेष अनुभाग के अनंत बहुभाग को भी नष्ट करता है।...यहाँ अंतर्मुहूर्त जाकर तीनों योग...उच्छ्वास का निरोध करता है...पश्चात् अपूर्व स्पर्धककरण करता है...पश्चात्...अंतर्मुहूर्तकाल तक कृष्टियों को करता है।...फिर अपूर्व स्पर्धकों को करता है।...योग का निरोध हो जाने पर तीन अघातिया कर्म आयु के सदृश हो जाते हैं। <span class="GRef">(धवला 11/4,2,6,20/133-134)</span>; <span class="GRef">(क्षपणासार/623-644)</span>।<br /> | ||
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<li name = 7.18 id = 7.18><span class="HindiText"><strong> स्थिति बराबर करने के लिए इसकी आवश्यकता क्यों</strong> </span><br /> | <li name = 7.18 id = 7.18><span class="HindiText"><strong> स्थिति बराबर करने के लिए इसकी आवश्यकता क्यों</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,60/302/9 <span class="SanskritText">संसारविच्छित्ते: किं कारणम् । द्वादशांगावगम: तत्तीव्रभक्ति: केवलिसमुद्घातोऽनिवृत्तिपरिणामाश्च। न चैते सर्वेषु संभवंति दशनवपूर्वधारिणामपि क्षपकश्रेण्यारोहणदर्शनात् । न तत्र संसारसमानकर्मस्थितय: समुद्घातेन बिना स्थितिकांडकानि अंतर्मुहूर्तेन निपतनस्वभावानि पल्योपमस्यासंख्येयाभागायतानि संख्येयावलिकायतानि च निपातयंत: आयु:समानि कर्माणि कुर्वंति। अपरे समुद्घातेन समानयंति। न चैष संसारघात: केवलिनि प्राक् संभवति स्थितिकांडघातवत्समानपरिणामत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–संसार के विच्छेद का क्या कारण है? <strong>उत्तर</strong>—द्वादशांग का ज्ञान, उनमें तीव्र भक्ति, केवलिसमुद्घात और अनिवृत्तिरूप परिणाम ये सब संसार के विच्छेद के कारण हैं। परंतु ये सब कारण समस्त जीवों में संभव नहीं हैं, क्योंकि, दशपूर्व और नौपूर्व के धारी जीवों का भी क्षपक श्रेणी पर चढ़ना देखा जाता है। अत: वहाँ पर संसार-व्यक्ति के समान कर्म स्थिति पायी नहीं जाती है। इस प्रकार अंतर्मुहूर्त में नियम से नाश को प्राप्त होने वाले पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण या संख्यात आवली प्रमाण स्थिति कांडकों का विनाश करते हुए कितने ही जीव समुद्घात के बिना ही आयु के समान शेष तीन कर्मों को कर लेते हैं। तथा कितने ही जीव समुद्घात के द्वारा शेष कर्मों को आयु के समान करते हैं। परंतु यह संसार का घात केवली से पहले संभव नहीं है, क्योंकि, पहले स्थिति कांडक के घात के समान सभी जीवों के समान परिणाम पाये जाते हैं।<br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,60/302/9</span> <span class="SanskritText">संसारविच्छित्ते: किं कारणम् । द्वादशांगावगम: तत्तीव्रभक्ति: केवलिसमुद्घातोऽनिवृत्तिपरिणामाश्च। न चैते सर्वेषु संभवंति दशनवपूर्वधारिणामपि क्षपकश्रेण्यारोहणदर्शनात् । न तत्र संसारसमानकर्मस्थितय: समुद्घातेन बिना स्थितिकांडकानि अंतर्मुहूर्तेन निपतनस्वभावानि पल्योपमस्यासंख्येयाभागायतानि संख्येयावलिकायतानि च निपातयंत: आयु:समानि कर्माणि कुर्वंति। अपरे समुद्घातेन समानयंति। न चैष संसारघात: केवलिनि प्राक् संभवति स्थितिकांडघातवत्समानपरिणामत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–संसार के विच्छेद का क्या कारण है? <strong>उत्तर</strong>—द्वादशांग का ज्ञान, उनमें तीव्र भक्ति, केवलिसमुद्घात और अनिवृत्तिरूप परिणाम ये सब संसार के विच्छेद के कारण हैं। परंतु ये सब कारण समस्त जीवों में संभव नहीं हैं, क्योंकि, दशपूर्व और नौपूर्व के धारी जीवों का भी क्षपक श्रेणी पर चढ़ना देखा जाता है। अत: वहाँ पर संसार-व्यक्ति के समान कर्म स्थिति पायी नहीं जाती है। इस प्रकार अंतर्मुहूर्त में नियम से नाश को प्राप्त होने वाले पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण या संख्यात आवली प्रमाण स्थिति कांडकों का विनाश करते हुए कितने ही जीव समुद्घात के बिना ही आयु के समान शेष तीन कर्मों को कर लेते हैं। तथा कितने ही जीव समुद्घात के द्वारा शेष कर्मों को आयु के समान करते हैं। परंतु यह संसार का घात केवली से पहले संभव नहीं है, क्योंकि, पहले स्थिति कांडक के घात के समान सभी जीवों के समान परिणाम पाये जाते हैं।<br /> | ||
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<li name = 7.19 id = 7.19><span class="HindiText"><strong> समुद्घात रहित जीव की स्थिति समान कैसे होती है</strong> </span><br /> | <li name = 7.19 id = 7.19><span class="HindiText"><strong> समुद्घात रहित जीव की स्थिति समान कैसे होती है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5,4,31/152/1</span> <span class="PrakritText"> केवलिसमुग्घादेण विणा कधं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तट्ठिदीए घादो जायदे। ण ट्ठिदिखंडयघादेण तग्घादुववत्तीदो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—जिन जीवों के केवलिसमुद्घात नहीं होता उनके केवलिसमुद्घात हुए बिना पल्य के असंख्यातवें भागमात्र स्थिति का घात कैसे होता है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि स्थितिकांडक घात के द्वारा उक्त स्थिति का घात बन जाता है।<br /> | |||
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<li name = 7.20 id = 7.20><span class="HindiText"><strong> 9वें गुणस्थान में ही परिणामों की समानता होने पर स्थिति की असमानता क्यों?</strong></span><strong><BR></strong> धवला/1/1,1,60/302/7 <span class="SanskritText">अनिवृत्त्यादिपरिणामेषु समानेषु सत्सु किमिति स्थित्योर्वैषम्यम् । न, व्यक्तिस्थितिघातहेतुष्वनिवृत्तपरिणामेषु समानेषु सत्सु संसृतेस्तत्समानत्वविरोधात् ।</span> <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—अनिवृत्ति आदि परिणामों के समान रहने पर संसार—व्यक्ति स्थिति और शेष तीन कर्मों की स्थिति में विषमता क्यों रहती है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि संसार की व्यक्ति और कर्मस्थिति के घात के कारणभूत परिणामों के समान रहने पर संसार को उसके अर्थात् तीन कर्मों की स्थिति के समान मान लेने में विरोध आता है। | <li name = 7.20 id = 7.20><span class="HindiText"><strong> 9वें गुणस्थान में ही परिणामों की समानता होने पर स्थिति की असमानता क्यों?</strong></span><strong><BR></strong> <span class="GRef">धवला/1/1,1,60/302/7</span> <span class="SanskritText">अनिवृत्त्यादिपरिणामेषु समानेषु सत्सु किमिति स्थित्योर्वैषम्यम् । न, व्यक्तिस्थितिघातहेतुष्वनिवृत्तपरिणामेषु समानेषु सत्सु संसृतेस्तत्समानत्वविरोधात् ।</span> <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—अनिवृत्ति आदि परिणामों के समान रहने पर संसार—व्यक्ति स्थिति और शेष तीन कर्मों की स्थिति में विषमता क्यों रहती है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि संसार की व्यक्ति और कर्मस्थिति के घात के कारणभूत परिणामों के समान रहने पर संसार को उसके अर्थात् तीन कर्मों की स्थिति के समान मान लेने में विरोध आता है। | ||
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<span class="HindiText"> (1) केवलज्ञान धारी मुनि-अर्हंतदेव । पंचमकाल में भगवान् महावीर के बाद ऐसे तीन केवली मुनि हुए है― इंद्रभूति (गौतम), सुधर्माचार्य और जंबू ये त्रिकाल संबंधी समस्त पदार्थों के ज्ञाता और द्रष्टा होते हैं । सिद्धौ के दर्शन ज्ञान और सुख को संपूर्ण रूप से ये ही जानते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 2.61, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_105#197|पद्मपुराण - 105.197-199]] </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_1#58|हरिवंशपुराण - 1.58-60]] </span></p><span class="HindiText"> (2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.112 </span></p> | |||
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Latest revision as of 14:41, 27 November 2023
केवलज्ञान होने के पश्चात् वह साधक केवली कहलाता है। इसी का नाम अर्हंत या जीवन्मुक्त भी है। वह भी दो प्रकार के होते हैं–तीर्थंकर व सामान्य केवली। विशेष पुण्यशाली तथा साक्षात् उपदेशादि द्वारा धर्म की प्रभावना करने वाले तीर्थंकर होते हैं, और इनके अतिरिक्त अन्य सामान्य केवली होते हैं। वे भी दो प्रकार के होते हैं, कदाचित् उपदेश देने वाले और मूक केवली। मूक केवली बिलकुल भी उपदेश आदि नहीं देते। उपरोक्त सभी केवलियों की दो अवस्थाएँ होती हैं–सयोग और अयोग। जब तक विहार व उपदेश आदि क्रियाएँ करते हैं, तब तक सयोगी और आयु के अंतिम कुछ क्षणों में जब इन क्रियाओं को त्याग सर्वथा योग निरोध कर देते हैं तब अयोगी कहलाते हैं।
- भेद व लक्षण
- सयोग व अयोगी दोनों अर्हंत हैं—देखें अर्हंत - 2।
- अर्हंत, सिद्ध व तीर्थंकर अंतकृत् व श्रुतकेवली—देखें वह वह नाम ।
- सयोग व अयोगी दोनों अर्हंत हैं—देखें अर्हंत - 2।
- केवली निर्देश
- सर्वज्ञ व सर्वज्ञता तथा केवली का ज्ञान—देखें केवलज्ञान - 4 ,केवलज्ञान - 5।
- सयोगी के चारित्र में कथंचित् मल का सद्भाव—देखें केवली - 2.2।
- तीर्थंकरों के शरीर की विशेषताएँ—देखें तीर्थंकर - 1।
- केवलज्ञान के अतिशय—देखें अर्हंत - 6।
- केवलीमरण—देखें मरण - 1।
- तीसरे व चौथे काल में ही केवली होने संभव है।—देखें मोक्ष - 4.3।
- प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में केवलियों का प्रमाण—देखें तीर्थंकर - 5।
- सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार ही व्यय होने संबंधी नियम—देखें मार्गणा ।
- सर्वज्ञ व सर्वज्ञता तथा केवली का ज्ञान—देखें केवलज्ञान - 4 ,केवलज्ञान - 5।
- शंका–समाधान
- कवलाहार व परीषह संबंधी निर्देश व शंका–समाधान
- केवली को नोकर्माहार होता है।
- समुद्घात अवस्था में नोकर्माहार भी नहीं होता।
- केवली को कवलाहार नहीं होता।
- मनुष्य होने के कारण केवली को भी कवलाहारी होना चाहिए।
- संयम की रक्षा के लिए भी केवली को कवलाहार की आवश्यकता थी।
- औदारिक शरीर होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए।
- आहारक होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए।
- परिषहों का सद्भाव होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए।
- केवली भगवान् को क्षुधादि परिषह नहीं होती।
- केवली को परीषह कहना उपचार है।
- असाता के उदय के कारण केवली को क्षुधादि परीषह होनी चाहिए।
- घाति व मोहनीय कर्म की सहायता के न होने से असाता अपना कार्य करने को समर्थ नहीं है।
- साता वेदनीय के सहवर्तीपने से असाता की शक्ति अनंतगुणी क्षीण हो जाती है।
- असाता भी सातारूप परिणमन कर जाता है।
- निष्फल होने के कारण असाता का उदय ही नहीं कहना चाहिए।
- केवली को नोकर्माहार होता है।
- इंद्रिय व मन योग संबंधी निर्देश व शंका-समाधान
- द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा पंचेंद्रिय है, भावेंद्रियों की अपेक्षा नहीं।
- जाति नामकर्मोदय की अपेक्षा पंचेंद्रियत्व है।
- पंचेंद्रिय कहना उपचार है।
- इंद्रियों के अभाव में ज्ञान की संभावना संबंधी शंका-समाधान–देखें प्रत्यक्ष - 2।
- भावेंद्रियों के अभाव संबंधी शंका-समाधान।
- केवली के मन उपचार से होता है।
- केवली के द्रव्यमन होता है, भाव मन नहीं।
- तहाँ मन का भावात्मक कार्य नहीं होता, पर परिस्पंद रूप कार्य होता है।
- भावमन के अभाव में वचन की उत्पत्ति कैसे हो सकती है?
- मन सहित होते हुए भी केवली को संज्ञी क्यों नहीं कहते।
- योगों के सद्भाव संबंधी समाधान।
- केवली के पर्याप्ति योग तथा प्राण विषयक प्ररुपणा।
- द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते ?
- समुद्घातगत केवली को चार प्राण कैसे कहते हो?
- अयोगी के एक आयु प्राण होने का क्या कारण है?
- द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा पंचेंद्रिय है, भावेंद्रियों की अपेक्षा नहीं।
- योग प्राण तथा पर्याप्ति की प्ररुपणा–देखें वह वह नाम ।
- ध्यान व लेश्या आदि संबंधी निर्देश व शंका-समाधान
- केवली के समुद्घात अवस्था में भी भाव से शुक्ललेश्या है; तथा द्रव्य से कापोत लेश्या होती है।—देखें लेश्या - 3।
- केवली के लेश्या कहना उपचार है तथा उसका कारण।
- केवली के संयम कहना उपचार है तथा उसका कारण।
- केवली के ध्यान कहना उपचार है तथा उसका कारण।
- केवली के एकत्व वितर्क विचार ध्यान क्यों नहीं कहते।
- तो फिर केवली क्या ध्याते हैं।
- केवली को इच्छा का अभाव तथा उसका कारण।
- केवली के उपयोग कहना उपचार है।
- केवली समुद्घात निर्देश
- केवली समुद्घात सामान्य का लक्षण।
- भेद-प्रभेद।
- दंडादि भेदों के लक्षण।
- सभी केवलियों के होने न होने विषयक दो मत।
- केवली समुद्घात के स्वामित्व की ओघादेश प्ररूपणा।–देखें समुद्घात ]]
- आयु के छ: माह शेष रहने पर होने न होने विषयक दो मत।
- कदाचित् आयु के अंतर्मुहूर्त शेष रहने पर होता है।
- आत्म प्रदेशों का विस्तार प्रमाण।
- कुल आठ समय पर्यंत रहता है।
- प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधिक्रम।
- दंड समुद्घात में औदारिक काययोग होता है शेष में नहीं।
- कपाट समुद्घात में औदारिक मिश्र काययोग होता है शेष में नहीं।–देखें औदारिक - 2।
- लोकपूरण समुद्घात में कार्माण काययोग होता है शेष में नहीं–देखें कार्माण - 2।
- केवली के पर्याप्तापर्याप्तपने संबंधी विषय।–देखें पर्याप्ति - 3।
- पर्याप्तापर्याप्त संबंधी शंका-समाधान।
- समुद्घात करने का प्रयोजन।
- इसके द्वारा शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात नहीं होता।
- जब शेष कर्मों की स्थिति आयु के समान न हो। तब उनका समीकरण करने के लिए होता है।
- कर्मों की स्थिति बराबर करने का विधि क्रम।
- स्थिति बराबर करने के लिए इसकी आवश्यकता क्यों?
- समुद्घात रहित जीव की स्थिति कैसे समान होती है?
- 9वें गुणस्थान में ही परिणामों की समानता होने पर स्थिति की असमानता क्यों?
- भेद व लक्षण
- केवली सामान्य का लक्षण
- केवली निरावरण ज्ञानी होते हैं
मूलाचार/566 सव्वं केवलिकप्पं लोगं जाणंति तह य पस्संति। केवलणाणचरित्ता तम्हा ते केवली होंति।564।=जिस कारण सब केवलज्ञान का विषय लोक अलोक को जानते हैं और उसी तरह देखते हैं। तथा जिनके केवलज्ञान ही आचरण है इसलिए वे भगवान् केवली हैं।
सर्वार्थसिद्धि/6/13/331/11निरावरणज्ञाना: केवलिन:।
सर्वार्थसिद्धि/9/38/453/9 प्रक्षीणसकलज्ञानावरणस्य केवलिन: सयोगस्यायोगस्य च परे उत्तरे शुक्लध्याने भवत:।=जिनका ज्ञान आवरण रहित है वे केवली कहलाते हैं। जिसके समस्त ज्ञानावरण का नाश हो गया है ऐसे सयोग व अयोग केवली...। (धवला/1/1,1,21/191/3)।
राजवार्तिक/6/13/1/523/26 करणक्रमव्यवधानातिवर्तिज्ञानोपेता: केवलिन:।1। करणं चक्षुरादि, कालभेदेन वृत्ति: क्रम:, कुड्यादिनांतर्धानं व्यवधानम्, एतान्यतीत्य वर्तते, ज्ञानावरणस्यात्यंतसंक्षये आविभूतमात्मन: स्वाभाविकं ज्ञानम्, तद्वंतोऽर्हंतो भगवंत: केवलिन इति व्यपदिश्यंते।=ज्ञानावरण का अत्यंत क्षय हो जाने पर जिनके स्वाभाविक अनंतज्ञान प्रकट हो गया है, जिनका ज्ञान इंद्रिय कालक्रम और दूर देश आदि के व्यवधान से परे हैं और परिपूर्ण हैं वे केवली हैं (राजवार्तिक/9/1/23/590)।
- केवली आत्मज्ञानी होते हैं
समयसार/9 जो हि सुएण हि गच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं। तं सुथकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पईवयवा।9।=जो जीव निश्चय से श्रुतज्ञान के द्वारा इस अनुभव गोचर केवल एक शुद्ध आत्मा को सम्मुख होकर जानता है, उसको लोक को प्रगट जानने वाले ऋषिवर श्रुतकेवली कहते हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/33 भगवान्....केवलस्यात्मन आत्मनात्मनि संचेतनात् केवली।=भगवान्....आत्मा को आत्मा से आत्मा में अनुभव करने के कारण केवली हैं। (भावार्थ–भगवान् समस्त पदार्थों को जानते हैं, मात्र इसलिए ही वे ‘केवली’ नहीं कहलाते, किंतु केवल अर्थात् शुद्धात्मा को जानने—अनुभव करने से केवली कहलाते हैं)।
मोक्षपाहुड़/ टीका/6/308/11 केवते सेवते निजात्मनि एकलोलीभावेन तिष्ठतीति केवल:।=जो निजात्मा में एकीभाव से केवते हैं, सेवते हैं या ठहरते हैं वे केवली कहलाते हैं।
- केवली निरावरण ज्ञानी होते हैं
- केवली सामान्य का लक्षण
- केवली के भेदों का निर्देश
कषायपाहुड़/1/1,16/312/343/25 विशेषार्थ
–तद्भवस्थकेवली और सिद्ध केवली के भेद से केवली दो प्रकार के होते हैं।
सत्ता स्वरूप/38
सात प्रकार के अर्हंत होते हैं। पाँच, तीन व दो कल्याणक युक्त, सातिशय केवली अर्थात् गंधकुटी युक्त केवली, सामान्य केवली अर्थात् मूककेवली, (दो प्रकार हैं—तीर्थंकर व सामान्य केवली) उपसर्ग केवली और अंत-कृत् केवली।
- तद्भवस्थ व सिद्ध केवली का लक्षण
कषायपाहुड़ 1/1,16/311/343/26 विशेषार्थ
–जिस पर्याय में केवलज्ञान प्राप्त हुआ उसी पर्याय में स्थित केवली को तद्भवस्थ केवली कहते हैं और सिद्ध जीवों को सिद्ध केवली कहते हैं।
- सयोग व अयोग केवली के लक्षण
पंचसंग्रह/प्राकृत/1/27-30 केवलणाणदिवायरकिरणकलावप्पणासि अण्णाओ। णवकेवललद्धुग्गमपावियपरमप्पववएसो।27। असहयणाण—दंसणसहिओ वि हु केवली हु जोएण। जुत्तो त्ति सजोइजिणो अणाइणिहणारिसे वुत्तो।125। सेलेसिं संपत्तो णिरुद्धणिस्सेस आसओ जीवो। कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होई।30।=जिसका केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से अज्ञान विनष्ट हो गया है। जिसने केवललब्धि प्राप्त कर परमात्म संज्ञा प्राप्त की है, वह असहाय ज्ञान और दर्शन से युक्त होने के कारण केवली, तीनों योगों से युक्त होने के कारण सयोगी और घाति कर्मों से रहित होने के कारण जिन कहा जाता है, ऐसा अनादिनिधन आर्ष में कहा हैं। (27, 28) जो अठारह हजार शीलों के स्वामी हैं, जो आस्रवों से रहित हैं, जो नूतन बँधने वाले कर्मरज से रहित हैं और जो योग से रहित हैं, तथा केवलज्ञान से विभूषित हैं, उन्हें अयोगी परमात्मा कहते हैं।30। (धवला 1/1,1,21/124-126/192) ( गोम्मटसार जीवकांड/63-65) (पंचसंग्रह/संस्कृत/1/49-50)
पंचसंग्रह/प्राकृत/1/100 जेसिं ण संति जोगा सुहासुहा पुण्णपापसंजणया। ते होंति अजोइजिणा अणोवमाणंतगुणकलिया।100।=जिनके पुण्य और पाप के संजनक अर्थात् उत्पन्न करने वाले शुभ और अशुभ योग नहीं होते हैं, वे अयोगि जिन कहलाते हैं, जो कि अनुपम और अनंत गुणों से सहित होते हैं। ( धवला 1/1,1,59/155/280) ( गोम्मटसार जीवकांड/243) (पंचसंग्रह/संस्कृत/1/180)
धवला 7/2,1,15/18/2 सट्ठिददेसमछंडिय छहित्ता वा जीवदव्वस्स। सावयवेहिं परिप्फंदो अजोगो णाम, तस्स कम्मक्खयत्तादो।=स्वस्थित प्रदेश को छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीव द्रव्य का अपने अवयवों द्वारा परिस्पंद होता है वह अयोग है, क्योंकि वह कर्मक्षय से उत्पन्न होता है।
ज.1/1,1,21/191/4 योगेन सह वर्तंत इति सयोगा:। सयोगाश्च ते केवलिनश्च सयोगकेवलिन:। धवला 1/1,1,22/192/7 न विद्यते योगो यस्य स भवत्ययोग:। केवलमस्यास्तीति केवली। अयोगश्चासौ केवली च अयोगकेवली।=जो योग के साथ रहते हैं उन्हें सयोग कहते हैं, इस तरह जो सयोग होते हुए केवली हैं उन्हें सयोग केवली कहते हैं। जिसके योग विद्यमान नहीं हैं उसे अयोग कहते हैं। जिसके केवलज्ञान पाया जाता है उसे केवली कहते हैं, जो योगरहित होते हुए केवली होता है उसे अयोग केवली कहते हैं। (राजवार्तिक/9/1/24/59/23)
द्रव्यसंग्रह टीका/13/35 ज्ञानावरणदर्शनावरणांतरायत्रयं युगपदेकसमयेन निर्मूल्य मेघपंजरविनिर्गतदिनकर इव सकलविमलकेवलज्ञानज्ञानकिरणैर्लोकालोकप्रकाशकास्त्रयोदशगुणस्थानवर्तिनो जिनभास्करा भवंति। मनोवचनकायवर्गणालंबनकर्मादाननिमितात्मप्रदेशपरिस्पंदलक्षणयोगरहितश्चतुर्दशगुणस्थानवर्तिनोऽयोगिजिना भवंति।=समस्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन तीनों को एक साथ एक काल में सर्वथा निर्मूल करके मेघपटल से निकले हुए सूर्य के समान केवलज्ञान की किरणों से लोकालोक के प्रकाशक तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिनभास्कर (सयोगी जिन) होते हैं। और मन, वचन, काय वर्गणा के अवलंबन से कर्मों के ग्रहण करने में कारण जो आत्मा के प्रदेशों का परिस्पंदन रूप योग है, उससे रहित चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी जिन होते हैं।
- केवली निर्देश
- केवली चैतन्यमात्र नहीं बल्कि सर्वज्ञ होता है
स्वयम्भू स्तोत्र/टीका/5/13 ननु. तत् (कर्म) प्रक्षये तु जडो भविष्यति...बुद्धिं आदि-विशेषगुणानामत्यंतोच्छेदात् इति यौगा:। चैतन्यमात्ररूपं इति सांख्या:। सकलविप्रमुक्त: सन्नात्मा समग्रविद्यात्मवपुर्भवति न जड़ो, नापि चैतन्यमात्ररूप:।=प्रश्न–1. कर्मों का क्षय हो जाने पर जीव जड़ हो जायेगा, क्योंकि उसके बुद्धि आदि गुणों का अत्यंत उच्छेद हो जायेगा। ऐसा योगमत वाले कहते हैं। 2. वह तो चैतन्य मात्र रूप है, ऐसा सांख्य कहते हैं? उत्तर–सकल कर्मों से मुक्त होने पर आत्मा संपूर्णत: ज्ञानशरीरी हो जाता है जड़ नहीं, और न ही चैतन्य मात्र रहता है।
- सयोग व अयोग केवली में अंतर
द्रव्यसंग्रह टीका/13/36 चारित्रविनाशकचारित्रमोहोदयाभावेऽपि सयोगिकेवलिनां निष्क्रियशुद्धात्माचरणविलक्षणो योगत्रयव्यापारश्चारित्रमलं जनयति, योगत्रयगते पुनरयोगिजिने चरमसमयं विहाय शेषाघातिकर्मतीव्रोदयश्चारित्रमलं जनयति, चरमसमये तु मंदोदये सति चारित्रमलाभावात् मोक्षं गच्छति।=सयोग केवली के चारित्र के नाश करने वाले चारित्रमोह के उदय का अभाव है, तो भी निष्क्रिय आत्मा के आचरण से विलक्षण जो तीन योगों का व्यापार है वह चारित्र में दूषण उत्पन्न कहता है। तीनों योगों से रहित जो अयोगी जिन हैं उनके अंत समय को छोड़कर चार अघातिया कर्मों का तीव्र उदय चारित्र में दूषण उत्पन्न करता है और अंतिम समय में उन अघातिया कर्मों का मंद उदय होने पर चारित्र में दोष का अभाव हो जाने से अयोगी जिन मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।
श्लोकवार्तिक/1/1/1/4/484/26 स्वपरिणामविशेष: शक्तिविशेष: सोऽंतरंग: सहकारी नि:श्रेयसोत्पत्तौ रत्नत्रयस्य तदभावे नामाद्यघातिकर्मत्रयस्य निर्जरानुपपत्तेर्नि:श्रेयसानुत्पत्ते:....तदपेक्षं क्षायिकरत्नत्रयं सयोगकेवलिन: प्रथमसमये मुक्तिं न संपादयत्येव, तदा तत्सहकारिणोऽसत्त्वात् ।=वे आत्मा की विशेष शक्तियाँ मोक्ष की उत्पत्ति में रत्नत्रय के अंतरंग सहकारी कारण हो जाती हैं। यदि आत्मा की उन सामर्थ्यों को सहकारी कारण न माना जावेगा तो नामादि तीन अघाती कर्मों की निर्जरा नहीं हो सकती थी। तिस कारण मोक्ष भी नहीं उत्पन्न हो सकेगा, क्योंकि उसका अभाव हो जायेगा। उन आत्मा के परिणाम विशेषों की अपेक्षा रखने वाला क्षायिक रत्नत्रय सयोग केवली गुणस्थान के पहले समय में मुक्ति को कथमपि प्राप्त नहीं करा सकता है। क्योंकि उस समय रत्नत्रय का सहकारी कारण वह आत्मा की शक्ति विशेष विद्यमान नहीं है।
- सयोग व अयोग केवली में कर्मक्षय संबंधी विशेषताएँ
धवला 1/1,1,27/223/10 सयोगकेवली ण किंचि कम्मं खवेदि।=सयोगी जिन किसी भी कर्म का क्षय नहीं करते।
धवला 12/4,2,7,15/18/2 खीणकषाय-सजोगीसु ट्ठिदि-अणुभागघादेसु संतेसु वि सुहाणं पयडीणं अणुभागघादो णत्थि त्ति सिद्धे अजोगिम्हि ट्ठिदि-अणुभागवज्जिदे सुहाणं पयडीणमुक्कस्साणुभागो होदि त्ति अत्थावत्तिदिद्धं।=क्षीणकषाय और सयोगी जिन का ग्रहण प्रगट करता है कि शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योग निरोध से नहीं होता। क्षीण कषाय और सयोगी गुणस्थानों में स्थितिघात व अनुभागघात के होने पर भी शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात वहाँ नहीं होता, यह सिद्ध होने पर स्थिति व अनुभाग से रहित अयोगी गुणस्थान में शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग होता है, यह अर्थापत्ति से सिद्ध है।
- केवली को एक क्षायिक भाव होता है
धवला 1/1,1,21/191/6 क्षायिताशेषघातिकर्मत्वान्नि:शक्तीकृतवेदनीयत्वान्नष्टाष्टकर्मावयवषष्टिकर्मत्वाद्वा क्षायिकगुण:।
धवला 1/1,1,21/199/2 पंचसु गुणेषु कोऽत्र गुण इति चेत्, क्षीणाशेषघातिकर्मत्वान्निरस्यमानाद्याप्तिकर्मत्वाच्च क्षायिको गुण:।=1.चारों घातिया कर्मों के क्षय कर देने से, वेदनीय कर्म के निशक्त कर देने से, अथवा आठों ही कर्मों के अवयव रूप साठ उत्तर प्रकृतियों के नष्ट कर देने से इस गुणस्थान में क्षायिक भाव होता है। 2. प्रश्न–पाँच प्रकार के भावों में इस (अयोगी) गुणस्थान में कौन-सा भाव होता है? उत्तर–संपूर्ण घातिया कर्मों के क्षीण हो जाने से और थोडे ही समय में अघातिया कर्मों के नाश को प्राप्त होने वाले होने से इस गुणस्थान में क्षायिक भाव होता है।
प्रवचनसार/45 पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया। मोहादीहिं विरहिया तम्हा सा खाइग त्ति मदा।=अरहंत भगवान् पुण्य फलवाले हैं और उनकी क्रिया औदयिकी है, मोहादि से रहित है इसलिए वह क्षायिकी मानी गयी है।
- केवलियों के शरीर की विशेषताएँ
तिलोयपण्णत्ति/4/705 जादे केवलणाणे परमोरालं जिणाण सव्वाणं। गच्छदि उवरिं चावा पंच सहस्साणि वसुहाओ।705।=केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर समस्त तीर्थंकरों का परमौदारिक शरीर पृथिवी से पाँच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चला जाता है।705। धवला 14/5,6,91/81/8 सजोगि-अजोगिकेवलिणो च पत्तेय-सरीरा वुच्चंति एदेसिं णिगोदजीवेहिं सह संबंधाभावादो।
धवला 14/5,6,116/138/4 खीणकसायम्मि बादरणिगोदवग्गणाए संतीए केवलणाणुप्पत्तिविरोहादो।=1. सयोगकेवली और अयोगकेवली ये जीव प्रत्येक शरीरवाले होते हैं, क्योंकि इनका निगोद जीवों के साथ संबंध नहीं होता। 2. क्षीण कषाय में बादर निगोद वर्गणा के रहते हुए केवलज्ञान की उत्पत्ति होने में विरोध है। (यहाँ बादरनिगोद वर्गणा से बादर निगोद जीव का ग्रहण नहीं है, बल्कि केवली के औदारिक व कार्माण शरीरों व विस्रसोपचयों में बँधे परमाणुओं का प्रमाण बताना अभीष्ट है।) निगोद से रहित होता है।
- केवली चैतन्यमात्र नहीं बल्कि सर्वज्ञ होता है
- शंका-समाधान
- ईर्यापथ आस्रव सहित भी भगवान् कैसे हो सकते हैं
धवला 13/5,4,24/51/8 जलमज्झणिवदियतत्तलोहुंडओ त्व इरियावहकम्मजलं सगसव्वजीवपदेसेहि गेण्हमाणो केवली कधं परमप्पएण समाणत्तं पडिवज्जदि त्ति भणिदे तण्णिण्णयत्थमिदं वुच्चदे—इरियावहकम्मं गहिदं पि तण्ण गहिदं...अणंतरसंसारफलणिव्वत्तणसत्तिविरहादो... बद्धं पि तण्ण बद्धं चेव, विदियसमए चेव णिज्जरुवलंभादो पुणो...पुट्ठं पि तण्ण पुट्ठं चेव; इरियावहबंधस्स संतसहावेण ...अवट्ठणाभावादो।...उदिण्णमपि तण्ण उदिण्णं दद्धगोहूमरासिव्व पत्तणिब्बीयभावत्तादो। प्रश्न—जल के बीच पड़े हुए तप्त लोह पिंड के समान ईर्यापथ कर्म जल को अपने सर्व जीव प्रदेशों द्वारा ग्रहण करते हुए केवली जिन परमात्मा के समान कैसे हो सकते हैं ? उत्तर—ईर्यापथ कर्मगृहीत होकर भी वह गृहीत नहीं है...क्योंकि वह संसारफल को उत्पन्न करने वाली शक्ति से रहित है। ...बद्ध होकर भी वह बद्ध नहीं है, क्योंकि दूसरे समय में ही उसकी निर्जरा देखी जाती है।....स्पृष्ट होकर भी वह स्पृष्ट नहीं है, कारण कि ईर्यापथ बंध का सत्त्व रूप से उनके अवस्थान नहीं पाया जाता...उदीर्ण होकर भी उदीर्ण नहीं है, क्योंकि वह दग्ध गेहूँ के समान निर्बीज भाव को प्राप्त हो गया है।
- ईर्यापथ आस्रव सहित भी भगवान् कैसे हो सकते हैं
- कवलाहार व परीषह संबंधी निर्देश व शंका—समाधान
- केवली को नोकर्माहार होता है
क्षपणासार/618 पडिसमयं दिव्वतमं जोगी णोकम्मदेहपडिबद्धं। समयपबद्धं बंधदि गलिदवसेसाउमेत्तठिदी।618।=सयोगी जिन हैं सो समय समय प्रति नोकर्म जो औदारिक तीहि संबंधी जो समय प्रबद्ध ताकौ ग्रहण करै है। ताकी स्थिति आयु व्यतीत भए पीछे जेता अवशेष रहा तावन्मात्र जाननी। सो नोकर्म वर्गणा के ग्रहण ही का नाम आहार मार्गणा है ताका सद्भाव केवली कैं है।
- समुद्घात अवस्था में नोकर्माहार भी नहीं होता
षट्खण्डागम 1/1,1/सूत्र 177/410 अणाहारा....केवलीणं वा समुग्घाद-गदाणं अजोगिकेवली....चेदि।177।
धवला 2/1,1/669/5 कम्मग्गहणमत्थित्तं पडुच्च आहारित्तं किण्ण उच्चदि त्ति भणिदे ण उच्चदि; आहारस्स तिण्णिसमयविरहकालोवलद्धीदो।=1. समुद्घातगत केवलियों के सयोगकेवली और अयोगकेवली अनाहारक होते हैं। 2. प्रश्न–कार्माण काययोगी की अवस्था में भी कर्म वर्गणाओं के ग्रहण का अस्तित्व पाया जाता है, इस अपेक्षा कार्माण काययोगी जीवों को आहारक क्यों नहीं कहा जाता ? उत्तर–उन्हें आहारक नहीं कहा जाता है, क्योंकि कार्माण काययोग के समय नोकर्मणाओं के आहार का अधिक से अधिक तीन समय तक विरहकाल पाया जाता हैं।
क्षपणासार/619 णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे। णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ।=समुद्घात कौ प्राप्त केवली विषै दोय तौ प्रतर के समय अर एक लोक पूरण का समय इनि तीन समयानिविषै नोकर्म का आहार नियमतै नहीं है।
- केवली को कवलाहार नहीं होता
सर्वार्थसिद्धि/8/1/375 केवली कवलाहारी...विपर्यय।=केवली को कवलाहारी मानना विपरीत मिथ्या-दर्शन है।
- मनुष्य होने के कारण केवली को भी कवलाहारी होना चाहिए
स्वयंभू स्तोत्र/ मूल/75 मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्, देवतास्वपि च देवता यत:। तेन नाथ ! परमासि देवता, श्रेयसे जिनवृष! प्रसीद न:।5।=हे नाथ ! चूँकि आप मानुषी प्रकृति को अतिक्रांत कर गये हैं और देवताओं में भी देवता हैं, इसलिए आप उत्कृष्ट देवता हैं, अत: हे धर्म जिन ! आप हमारे कल्याण के लिए प्रसन्न होवें।75। (बोधपाहुड़/ टीका/34/101)
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/29/12 केवलिनो कवलाहारोऽस्ति मनुष्यत्वात् वर्तमानमनुष्यवत् । तदप्ययुक्तम् । तर्हि पूर्वकालपुरुषाणां सर्वज्ञत्वं नास्ति, रामरावणादिपुरुषाणां च विशेषसामर्थ्यं नास्ति वर्तमानमनुष्यवत् । न च तथा।=प्रश्न–केवली भगवान् के कवलाहार होता है, क्योंकि वह मनुष्य है, वर्तमान मनुष्य की भाँति? उत्तर–ऐसा कहना युक्त नहीं है। क्योंकि अन्यथा पूर्वकाल के पुरुषों में सर्वज्ञता भी नहीं है। अथवा राम रावणादि पुरुषों में विशेष सामर्थ्य नहीं है, वर्तमान मनुष्य की भाँति। ऐसा मानना पड़ेगा। परंतु ऐसा है नहीं। (अत: केवली कवलाहारी नहीं है।)
- संयम की रक्षा के लिए भी केवली को कवलाहार की आवश्यकता थी
कषायपाहुड़/1/1,1/52/5 किंतु तिरयणट्ठमिदि ण वोत्तुं जुत्तं, तत्थ पत्तासेसरुवम्मि तदसंभवादो। तं जहा, ण ताव णाणट्ठं भुंजइ, पत्तकेवलणाणभावादो। ण च केवलणाणादो अहियमण्णं पत्थणिज्जं णाणमत्थि जेण तदट्ठं केवली भुंजेज्ज। ण संजमट्ठं, पत्तजहाक्खादसंजमादो। ण ज्झाणट्ठं; विसईकयासेसतिहुवणस्स ज्झेयाभावादो। ण भुंजइ केवली भुत्तिकारणाभावादो त्ति सिद्धं।
कषायपाहुड़ 1/1,1/53/71/1 अह जइ सो भुंजइ तो बलाउ-सादुसरीरुवचयतेज-सुहट्ठं चेव भुंजइ संसारिजावो व्व, ण च एवं, समोहस्स केवलणाणाणुववत्तीदो। ण च अकेवलिवयणमागमो, रागदोसमोहकलंककिए ....सच्चाभावादो। आगमाभावे ण तिरयणपउत्ति त्ति तित्थवोच्छेदो तित्थस्स णिव्वाहवोहविसयीकयस्स उवलंभादो।=1. प्रश्न–यदि कहा जाय कि केवली रत्नत्रय के लिए भोजन करते हैं? उत्तर–यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि केवली जिन पूर्णरूप से आत्मस्वभाव को प्राप्त कर चुके हैं। इसलिए वे ‘रत्नत्रय अर्थात् ज्ञान, संयम और ध्यान के लिए भोजन करते हैं, यह बात संभव नहीं है। इसी का स्पष्टीकरण करते हैं–केवली जिन ज्ञान की प्राप्ति के लिए तो भोजन करते नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया है। तथा केवलज्ञान से बड़ा और कोई दूसरा ज्ञान प्राप्त करने योग्य नहीं है, जिससे उस ज्ञान की प्राप्ति के लिए भोजन करें। न ही संयम के लिए भोजन करते हैं क्योंकि उन्हें यथाख्यात संयम की प्राप्ति हो चुकी है। तथा ध्यान के लिए भी भोजन नहीं करते क्योंकि उन्होंने त्रिभुवन को जान लिया है, इसलिए इनके ध्यान करने योग्य कोई पदार्थ ही नहीं रहा है। अतएव भोजन करने का कोई कारण न रहने से केवली जिन भोजन नहीं करते हैं, यह सिद्ध हो जाता है। 2. यदि केवली जिन भोजन करते हैं तो संसारी जीवों के समान बल, आयु, स्वादिष्ट भोजन, शरीर की वृद्धि, तेज और सुख के लिए ही भोजन करते हैं ऐसा मानना पड़ेगा, परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर वह मोहयुक्त हो जायेंगे और इसलिए उनके केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। यदि कहा जाये कि जिनदेव को केवलज्ञान नहीं होता तो केवलज्ञान से रहित जीव के वचन ही आगम हो जावें ? यह भी ठीक नहीं क्योंकि ऐसा मानने पर राग, द्वेष, और मोह से कलंकित...जीवों के सत्यता का अभाव होने से वचन आगम नहीं कहे जायेंगे। आगम का अभाव होने से रत्नत्रय की प्रवृत्ति न होगी और तीर्थ का व्युच्छेद हो जायेगा। परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि निर्बाध बोध के द्वारा ज्ञात तीर्थ की उपलब्धि बराबर होती है। न्यायकुमुद चंद्रिका/पृ.852।
प्रमेयकमलमार्तंड/पृष्ठ 300 कवलाहारित्वे चास्य सरागत्वप्रसंग:। =केवली भगवान् को कवलाहारी मानने पर सरागत्व का प्रसंग प्राप्त होता है।
- औदारिक शरीर होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/7 केवलिनां भुक्तिरस्ति, औदारिकशरीरसद्भावात् ।....अस्मदादिवत् । परिहारमाह—तद्भगवत: शरीरमौदारिकं न भवति किंतु परमौदारिकम्–शुद्धस्फटिकसकाशं तेजोमूर्तिमयं वपु:। जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम् । =प्रश्न–केवली भगवान् भोजन करते हैं, औदारिक शरीर का सद्भाव होने से; हमारी भाँति? उत्तर–भगवान् का शरीर औदारिक नहीं होता अपितु परमौदारिक है। कहा भी है कि–‘दोषों के विनाश हो जाने से शुद्ध स्फटिक के सदृश सात धातु से रहित तेज मूर्तिमय शरीर हो जाता है।
- आहारक होने के कारण केवली का कवलाहार होना चाहिए
धवला/1/1,1,173/409/10 अत्र कवललेपोष्ममन:कर्माहारान् परित्यज्यनोकर्माहारो ग्राह्य:, अन्यथाहारकालविरहाभ्यां सहविरोधात्=आहारक मार्गणा में आहार शब्द से कवलाहार, लेपाहार...आदि को छोड़कर नोकर्माहार का ही ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा आहारकाल और विरह के साथ विरोध आता है।
प्रवचनसार/20/28/21 मिथ्यादृष्टयादिसयोगकेवलिपर्यंतास्त्रयोदशगुणस्थानवर्तिनो जीवा आहारका भवंतीत्याहारकमार्गणायामागमे भणितमास्ते, तत: कारणात् केवलिनामाहारोऽस्तीति। तदप्ययुक्तम् । परिहार...यद्यपि षट्प्रकार आहारो भवति तथापि नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वमवबोद्धव्यम् । न च कवलाहारापेक्षया। तथाहि–सूक्ष्मा: सुरसा: सुगंधा अन्यमनुजानामसंभविन: कवलाहारं विनापि किंचिदूनपूर्वकोटिपर्यंतं शरीरस्थितिहेतव: सप्तधातुरहितपरमौदारिकशरीरनोकर्माहारयोग्या लाभांतरायकर्मनिरवशेषक्षयात् प्रतिक्षणं पुद्गला आस्रवंतीति...ततो ज्ञायते नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वम् । अथ मतम्–भवदीयकल्पनया आहारानाहारकत्वं नोकर्माहारापेक्षया, न च कवलाहारापेक्षया चेति कथं ज्ञायते। नैवम् । ‘‘एकं द्वौ त्रीन् वानाहारक:’’ इति तत्त्वार्थे कथितमास्ते। अस्य सूत्रस्यार्थ: कथ्यते–भवांतरगमनकाले विग्रहगतौ शरीराभावे सति नूतनशरीरधारणार्थं त्रयाणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलपिंडग्रहणं नोकर्माहार उच्यते। स च विग्रहगतौ कर्माहारे विद्यमानेऽप्येकद्वित्रिसमयपर्यंतं नास्ति। ततो नोकर्माहारापेक्षयाहारानाहारकत्वमागमे ज्ञायते। यदि पुन: कवलाहारापेक्षया तर्हि भोजनकालं विहाय सर्वदैवानाहारक एव, समयत्रयनियमो न घटते।=प्रश्न–मिथ्यादृष्टि आदि सयोग केवली पर्यंत तेरह गुणस्थानवर्ती जीव आहारक होते हैं ऐसा आहारक मार्गणा में आगम में कहा है। इसलिए केवली भगवान् के आहार होता है? उत्तर–ऐसा कहना युक्त नहीं है। इसका परिहार करते हैं। यद्यपि छह प्रकार का आहार होता है परंतु नोकर्माहार की अपेक्षा केवली को आहारक जानना चाहिए कवलाहार की अपेक्षा नहीं। सो ऐसे हैं–लाभांतराय कर्म का निरवशेष विनाश हो जाने के कारण सप्तधातुरहित परमौदारिक शरीर के नोकर्माहार के योग्य शरीर की स्थिति के हेतुभूत अन्य मनुष्यों को जो असंभव हैं ऐसे पुद्गल किंचिदून पूर्वकोटि पर्यंत प्रतिक्षण आते रहते हैं, इसलिए जाना जाता है कि केवली भगवान् को नोकर्माहार की अपेक्षा आहारकत्व है। प्रश्न–यह आपकी अपनी कल्पना है कि आहारक व अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है कवलाहार की अपेक्षा नहीं। कैसे जाना जाता है? उत्तर–ऐसा नहीं है। एक दो अथवा तीन समय तक अनाहारक होता है’ ऐसा तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है। इस सूत्र का अर्थ कहते हैं–एक भव से दूसरे भव में गमन के समय विग्रहगति में शरीर का अभाव होने पर नवीन शरीर को धारण करने के लिए तीन शरीरों की पर्याप्ति के योग्य पुद्गल पिंड को ग्रहण करना नोकर्माहार कहलाता है। वह कर्माहार विग्रहगति में विद्यमान होने पर भी एक, दो, तीन समय पर्यंत नहीं होता है। इसलिए आगम में आहारक व अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है ऐसा जाना जाता है। यदि कवलाहार की अपेक्षा हो तो भोजनकाल को छोड़कर सर्वदा अनाहारक ही होवे, तीन समय का नियम घटित न होवे। (बोधपाहुड़/ टीका/34/101/15)।
- परिषहों का सद्भाव होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए
धवला 12/4,2,7,2/24/7 असादं वेदयमाणस्स सजोगिभयवंतस्स भुक्खातिसादीहि एक्कारसपरीसहेहि बाहिज्जमाणस्स कधं ण भुत्ती होज्ज। ण एस दोसो, पाणोयणेसु जादतण्हाए स समोहस्स मरणभएण भुंजंतस्स परीसहेहि पराजियस्स केवलित्तविरोहादो। =प्रश्न–असाता वेदनीय का वेदन करने वाले तथा क्षुधा तृषादि ग्यारह परिषहों द्वारा बाधा को प्राप्त हुए ऐसे सयोग केवली भगवान् के भोजन का ग्रहण कैसे नहीं होगा? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो भोजन पान में उत्पन्न हुई इच्छा से मोह युक्त है तथा मरण के भय से जो भोजन करता है, अतएव परीषहों से जो पराजित हुआ है ऐसे जीव के केवली होने में विरोध है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/12 यदि पुनर्मोहाभावेऽपि क्षुधादिपरिषहं जनयति तर्हि वधरोगादिपरिषहमपि जनयतु न च तथा। तदपि कस्मात् । ‘‘भुक्तयुपसर्गाभावात्’’ इति वचनात् अन्यदपि दूषणमस्ति। यदि क्षुधाबाधास्ति तर्हि क्षुधाक्षीणशक्तेरनंतवीर्यं नास्ति। तथैव दु:खितस्यानंतसुखमपि नास्ति। जिह्वेंद्रियपरिच्छित्तिरूपमतिज्ञानपरिणतस्य केवलज्ञानमपि न संभवति।=यदि केवली भगवान् को मोह का अभाव होने पर भी क्षुधादि परिषह होती हैं, तो वध तथा रोगादि परिषह भी होनी चाहिए। परंतु ये होती नहीं हैं, वह भी कैसे ‘‘भुक्ति और उपसर्ग का अभाव है’’ इस वचन से सिद्ध होता है। और भी दूषण लगता है। यदि केवली भगवान् को क्षुधा हो तो क्षुधा की बाधा से शक्ति क्षीण हो जाने से अनंत वीर्यपना न रहेगा, उसी से दुःखी होकर अनंत सुख भी नहीं बनेगा। तथा जिह्वा इंद्रिय की परिच्छित्तिरूप मतिज्ञान से परिणत उन केवली भगवान् को केवलज्ञान भी न बनेगा। ( बोधपाहुड़/ टीका/34/101/22)।
- केवली भगवान् को क्षुधादि परिषह नहीं होती
तिलोयपण्णत्ति/1/59 चउविहउवसग्गेहिं णिच्चविमुक्को कसायपरिहीणो। छुहपहुदिपरिसहेहिं परिचत्तो रायदोसेंहि।51।=देव,मनुष्य, तिर्यंच और अचेतनकृत चार प्रकार के उपसर्गों से सदा विमुक्त हैं, कषायों से रहित हैं, क्षुधादिक बाईस परीषहों व रागद्वेष से परित्यक्त हैं।
- केवली को परिषह कहना उपचार है
सर्वार्थसिद्धि/9/11/429/8 मोहनीयोदयसहायाभावात्क्षुदादिवेदनाभावे परिषहव्यपदेशो न युक्त:। सत्यमेवमेतत्–वेदनाभावेऽपि द्रव्यकर्मसद्भावापेक्षया परिषहोपचार: क्रियते।=प्रश्न–मोहनीय के उदय की सहायता न होने से क्षुधादि वेदना के न होने पर परिषह संज्ञायुक्त नहीं है? उत्तर–यह कथन सत्य ही है तथापि वेदना का अभाव होने पर द्रव्यकर्म के सद्भाव की अपेक्षा से यहाँ परीषहों का उपचार किया जाता है। ( राजवार्तिक/9/11/1/614/1)।
- असाता वेदनीय कर्म के उदय के कारण केवली को क्षुधादि परिषह होनी चाहिए
- घाति व मोहनीय कर्म की सहायता न होने से असाता अपना कार्य करने को समर्थ नहीं है
राजवार्तिक/9/11/1/613/27 स्यान्मतम्-घातिकर्मप्रक्षयान्निमित्तोपरमे सति नाग्न्यरतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनालाभसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानदर्शनानि मा भृवन्, अमी पुनर्वेदनीयाश्रया: खलु परीषहा: प्राप्नुवंति भगवति जिने इति; तन्न; किं कारणम् । घातिकर्मोदयसहायाभावात् तत्सामर्थ्यविरहात् । यथा विषद्रव्यं मंत्रौषधिबलादुपक्षीणमारणशक्तिकमुपयुज्यमानं न मरणाय कल्प्यते तथा ध्यानानलनिर्दग्धघातिकर्मेंधनस्यानंताप्रतिहतज्ञानादिचतुष्टयस्यांतरायाभावांनिरंतरमुपचीयमानशुभपुद्गलसंततेर्वेदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहायबलं स्वयोग्यप्रयोजनोत्पादनं प्रत्यसमर्थमिति क्षुधाद्यभाव: तत्सद्भावोपचाराद्ध्यानकल्पनवत् ।=प्रश्न–केवली में घातिया कर्म का नाश होने से निमित्त के हट जाने के कारण नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, अलाभ, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन परीषहें न हों, पर वेदनीय कर्म का उदय होने से तदाश्रित परीषहें तो होनी ही चाहिए? उत्तर–घातिया कर्मोदय रूपी सहायक के अभाव से अन्य कर्मों की सामर्थ्य नष्ट हो जाती है। जैसे मंत्र औषधि के प्रयोग से जिसकी मारण शक्ति उपक्षीण हो गयी है ऐसे विष को खाने पर भी मरण नहीं होता, उसी तरह ध्यानाग्नि के द्वारा घाति कर्मेंधन के जल जाने पर अनंतचतुष्टय के स्वामी केवली के अंतराय का अभाव हो जाने से प्रतिक्षण शुभकर्म के पुद्गलों का संचय होते रहने से प्रक्षीण सहाय वेदनीयकर्म विद्यमान रहकर भी अपना कार्य नहीं कर सकता। इसलिए केवली में क्षुधादि नहीं होते। (धवला 13/5,4,24/53/1); (धवला 12/4,2,7,2/24/11); ( कषायपाहुड़/1/1,1/51/69/1); ( चारित्रसार/131/2); ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/10)।
गोम्मटसार कर्मकांड व जीव तत्व प्रदीपिका/273 णट्ठा य रायदोसा इंदियणाणं च केवलिम्हि जदो। तेण दु सादासादजसुहदुक्खं णत्थि इंदियजं।273। सहकारिकारणमोहनीयाभावे विद्यमानोऽपि न स्वकार्यकारीत्यर्थ:।=जातैं सयोग केवलीकैं घातिकर्म का नाश भया है तातैं राग व द्वेष को कारणभूत क्रोधादि कषायों का निर्मूल नाश भया है। बहुरि युगपत् सकल प्रकाशी केवलज्ञान विषैं क्षयोपशमरूप परोक्ष मतिज्ञान और श्रुतज्ञान न संभवै तातैं इंद्रिय जनित ज्ञान नष्ट भया तिस कारण करि केवलिकैं साता असाता वेदनीय के उदयतैं सुख दुख नाहीं हैं जातैं सुख-दुख इंद्रिय जनित हैं बहुरि वेदनीय का सहकारी कारण मोहनीय का अभाव भया है तातैं वेदनीय का उदय होत संतै भी अपना सुख-दुख देने रूप कार्य करने कौं समर्थ नाहीं। ( क्षपणासार/ मूल/616/728)
प्रमेयकमलमार्तंड/पृष्ठ 303 तथा असातादि वेदनीयं विद्यमानोदयमपि, असति मोहनीये, नि:सामर्थ्यत्वान्न क्षुद्दु:खकरणे प्रभु: सामग्रीत: कार्योत्पत्तिप्रसिद्ध:। =असातादि वेदनीय के विद्यमान होते हुए भी, मोहनीय के अभाव में असमर्थ होने से, वे केवली भगवान् को क्षुधा संबंधी दुःख को करने में असमर्थ हैं।
- साता वेदनीय के सहवर्तीपने से असाता की शक्ति अनंतगुणी क्षीण हो जाती है
राजवार्तिक/9/11/1/613/31 निरंतरमुपचीयमानशुभपुद्गलसंततेर्वेदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहायबलं स्वयोग्यप्रयोजनं प्रत्यसमर्थमिति।=अंतरायकर्म का अभाव होने से प्रतिक्षण शुभकर्मपुद्गलों का संचय होते रहने से प्रक्षीण सहाय वेदनीयकर्म विद्यमान रहकर भी अपना कार्य नहीं कर सकता। (चारित्रसार/131/3)
धवला 2/1,1/433/2 असादावेदणीयस्स उदीरणाभावादो आहारसण्णा अप्पमत्तसंजदस्स णत्थि। कारणभूत-कम्मोदय-संभवादो उवयारेण भयमेहुण-परिग्गहसण्णा अत्थि।=असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा का अभाव हो जाने से अप्रमत्त संयत के आहार संज्ञा नहीं होती है। किंतु भय आदि संज्ञाओं के कारणभूत कर्मों का उदय संभव है, इसलिए उपचार से भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञाएँ हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/16 असद्वेद्योदयापेक्षया सद्वेद्योदयोऽनंतगुणोऽस्ति। तत: कारणात् शर्कराराशिमध्ये निंबकणिकावदसद्वेद्योदयो विद्यमानोऽपि न ज्ञायते। तथैवान्यदपि बाधकमस्ति—यथा प्रमत्तसंयतादि तपोधनानां वेदोदये विद्यमानेऽपि मंदमोहोदयत्वादखंडबह्मचारीणां त्रिपरीषहबाधा नास्ति। यथैव च नवग्रेवेयकाद्यहमिंद्रदेवानां वेदोदये विद्यमानेऽपि मंदमोहोदयेन स्त्रीविषयबाधा नास्ति, तथा भगवत्यसद्वेद्योदये विद्यमानेऽपि निरवशेषमोहाभावात् क्षुधाबाधा नास्ति।=और भी कारण है, कि केवली (भगवान् के) असाता वेदनीय के उदय की अपेक्षा साता वेदनीय का उदय अनंतगुणा है। इस कारण खंड (चीनी) की बड़ी राशि के बीच में नीम की एक कणिका की भाँति असातावेदनीय का उदय होने पर भी नहीं जाना जाता है। और दूसरी एक और बाधा है—जैसे अप्रमत्तसंयत आदि तपोधनों के वेद का उदय होने पर भी मोह का मंद उदय होने से उन अखंड ब्रह्मचारियों के स्त्रीपरीषहरूप बाधा नहीं होती, और जिस प्रकार नवेग्रेवेयकादि में अहमिंद्रदेवों के वेद का उदय विद्यमान होने पर भी मोह के मंद उदय से स्त्री-विषयक बाधा नहीं होती, उसी प्रकार भगवान् के असातावेदनीय का उदय विद्यमान होने पर भी निरवशेष मोह का अभाव होने से क्षुधा की बाधा नहीं होती। (और भी–देखें केवली - 4.12)
- असाता भी सातारूप परिणमन कर जाता है
गोम्मटसार कर्मकांड व जीव तत्व प्रदीपिका/274/403 समयट्ठिदिगो बंधो सादस्सुदयप्पिगो जदो तस्स। तेण असादस्सुदओ सादसरूवेण परिणदि।274। यतस्तस्य केवलिन: सातवेदनीयस्य बंध: समयस्थितिक: तत: उदयात्मक एव स्यात् तेन तत्रासातोदय: सातास्वरूपेण परिणमति कुत: विशिष्टशुद्धे तस्मिन् असातस्य अनंतगुणहीनशक्तित्वसहायरहितत्वाभ्यां अव्यक्तोदयत्वात् । बध्यमानसातस्य च अनंतगुणानुभागत्वात् तथात्वस्यावश्यंभावात् । न च तत्र सातोदयोऽसातस्वरूपेण परिणमतीति शक्यते वक्तुं द्विसमयस्थितिकत्वप्रसंगात् अन्यथा असातस्यैव बंध: प्रसज्यते।=जातैं तिस केवलीकैं साता वेदनीय का बंध एक समय स्थितिकौ लियें है तातैं उदय स्वरूप ही है तातैं केवलीकै असाता वेदनीय का उदय सातारूप होइकरि परिनमैं है। काहैं तै? केवली के विषैं विशुद्धता विशेष है तातैं असातावेदनीय की अनुभाग शक्ति अनंतगुणी हीन भई है अर मोह का सहाय था ताका अभाव भया है तातैं असातावेदनीय का अप्रगट सूक्ष्म उदय है। बहुरि जो सातावेदनीय बंधै है ताका अनुभाग अनंतगुणा है जातैं, साता वेदनीय की स्थिति की अधिकता तो संक्लेश तातैं हो है अनुभाग की अधिकता विशुद्धतातै हो है सो केवली के विशुद्धता विशेष है तातैं स्थिति का तौ अभाव है बंध है सो उदयरूप परिणमता ही हो है अर ताकैं सातावेदनीय का अनुभाग अनंतगुणा हो है ताहीतैं जो असाता का भी उदय है सो सातारूप होइकरि परिनमै है। कोऊ कहै कि साता असातारूप होइ परिनमै है ऐसे क्यों न कहों? ताका उत्तर–ताका स्थितिबंध दोय समय का न ठहरे वा अन्य प्रकार कहैं असाता ही का बंध होइ तातैं तैं कह्या कहना संभवे नाहीं।
- घाति व मोहनीय कर्म की सहायता न होने से असाता अपना कार्य करने को समर्थ नहीं है
- निष्फल होने के कारण असाता का उदय ही नहीं कहना चाहिए
धवला 13/4,2,7,2/24/12 णिप्फलस्स परमाणुपुंजस्स समयं पडि परिसयंतस्स कधं उदयववएसो। ण, जीव-कम्मविवेगमेत्ताफलं दट्ठूण उदयस्स फलत्तब्भुवगमादो। जदि एवं तो असादवेदणीयोदयकाले सादावेदणीयस्स उदओ णत्थि, असादावेदणीयस्सेव उदओ अत्थि त्ति ण वत्तव्वं, सगफलाणुप्पायणेण दोण्णं पि सरिसत्तुवलंभादो। ण, असादपरमाणूणं व सादपरमाणूणं सगसरूवेण णिज्जराभावादो। सादपरमाणओ असादसरूवेण विणस्संतावत्थाए परिणमिदूण विणस्संते दट्ठूण सादावेदणीयस्स उदओ णत्थि त्ति वुच्चदे। ण च असादावेदणीयस्स एसो कमो अत्थि, (असाद)-परमाणूणं सगसरूवेणेव णिज्जरूवलंभादो। तम्हा दुक्खरूवफलाभावे वि असादावेदणीयस्स उदयभावो जुज्जदि त्ति सिद्धं।=प्रश्न—बिना फल दिये ही प्रतिसमय निर्जीर्ण होने वाले परमाणु समूह की उदय संज्ञा कैसे हो सकती है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, जीव व कर्म के विवेकमात्र फल को देखकर उदय को फलरूप से स्वीकार किया गया है। प्रश्न—यदि ऐसा है तो असातावेदनीय के उदय काल में साता वेदनीय का उदय नहीं होता, केवल असाता वेदनीय का ही उदय रहता है ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि अपने फल को नहीं उत्पन्न करने की अपेक्षा दोनों में ही समानता पायी जाती है। उत्तर—नहीं, क्योंकि, तब असातावेदनीय के परमाणुओं के समान सातावेदनीय के परमाणुओं की अपने रूप से निर्जरा नहीं होती। किंतु विनाश होने की अवस्था में असाता रूप से परिणमकर उनका विनाश होता है यह देखकर सातावेदनीय का उदय नहीं हैं, ऐसा कहा जाता है। परंतु असाता वेदनीय का यह क्रम नहीं है, क्योंकि तब असाता के परमाणुओं की अपने रूप से निर्जरा पायी जाती है। इस कारण दुःखरूप फल के अभाव में भी असातावेदनीय का उदय मानना युक्तियुक्त है, यह सिद्ध होता है।
धवला 13/5,4,24/53/5 जदि असादावेदणीयं णिप्फलं चेव, तो उदओ अत्थि त्ति किमिदि उच्चदे। ण, भूदपुव्वणयं पडुच्च तदुत्तीदो। किंच ण सहकारिकारणघादिकम्माभावेणेव सेसकम्माणिव्व पत्तणिव्वीयभावमसादावेदणीयं, किंतु सादावेदणीयबंधेण उदयसरूवेण उदयागदउक्कस्साणुभागसादावेदणीयसहकारिकारणेण पडिहयउदयत्तादो वि। ण च बंधे उदयसरूवे संते सादावेदणीयगोवुच्छा थिडक्कसंकमेण असादावेदणीयं गच्छदि, विरोहादो। थिउसंक्कमाभावे सादासादाणमजोगिचरिमसमए संतवोच्छेदो पसज्जदि त्ति भणिदे—ण, वोच्छिण्णसादबंधम्मि अजोगिम्हि सादोदयणियमाभावादो। सादावेदणीयस्स उदयकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो फिट्टिदूण देसूणपुव्वकोडिमेत्तो होदि चे—ण, सजोगिकेवलिं मोत्तूण अण्णत्थ उदयकालस्स अंतोमुहुत्तणियमब्भुवगमादो।....सादावेदणीयस्स बंधो अत्थि त्ति चे ण, तस्स ट्ठिदि-अणुभागबंधाभावेण...बंधववएसविरोहादो।=प्रश्न—यदि असातावेदनीय कर्म निष्फल ही है तो वहाँ उसका उदय है, ऐसा क्यों कहा जाता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, भूतपूर्व नय की अपेक्षा से वैसा कहा जाता है। दूसरे...वह न केवल निर्बीज भाव को प्राप्त हुआ है किंतु उदयस्वरूप सातावदेनीय का बंध होने से और उदयागत उत्कृष्ट अनुभाग युक्त सातावेदनीय रूप सहकारी कारण होने से उसका उदय भी प्रतिहत हो जाता है। प्रश्न—बंध के उदय स्वरूप रहते हुए साता वेदनीयकर्म की गोपुच्छा स्तिबुक संक्रमण के द्वारा असाता वेदनीय को प्राप्त होती होगी? उत्तर—ऐसा मानने में विरोध आता है। प्रश्न—यदि यहाँ स्तिबुक संक्रमण का अभाव मानते हैं, तो साता और असाता को सत्त्व व्युच्छित्ति अयोगी के अंतिमसमय में होने का प्रसंग आता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि साता के बंध की व्युच्छित्ति हो जाने पर अयोगी गुणस्थान में साता के उदय का कोई नियम नहीं है। प्रश्न—इस तरह तो सातावेदनीय का उदयकाल अंतर्मुहूर्त विनष्ट होकर कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण प्राप्त होता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि सयोगिकेवली गुणस्थान को छोड़कर अन्यत्र उदयकाल का अंतर्मुहूर्त प्रमाण नियम ही स्वीकार किया गया है।...। प्रश्न—वहाँ सातावेदनीय का बंध है? उत्तर—नहीं, क्योंकि स्थितिबंध और अनुभागबंध के बिना....सातावेदनीय कर्म को ‘बंध’ संज्ञा देने में विरोध आता है।
- केवली को नोकर्माहार होता है
- इंद्रिय, मन व योग संबंधी निर्देश व शंका-समाधान
- द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा पंचेंद्रियत्व है, भावेंद्रियों की अपेक्षा नहीं
राजवार्तिक/1/30/9/92/14 आर्षं हि सयोग्ययोगिकेवलिनो: पंचेंद्रियत्वं द्रव्येंद्रियं प्रति उक्तं न भावेंद्रियं प्रति। यदि हि भावेंद्रियमभविष्यत्, अपि तु तर्हि असंक्षीणसकलावरणत्वात् सर्वज्ञतैवास्य न्यवर्तिष्यम् ।=आगम में सयोगी और अयोगी केवली को पंचेंद्रियत्व कहा है वहाँ द्रव्येंद्रियों की विवक्षा है, ज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप भावेंद्रियों की नहीं। यदि भावेंद्रियों की विवक्षा होती तो ज्ञानावरण का सद्भाव होने से सर्वज्ञता ही नहीं हो सकती थी।
धवला/1/1,1/37/263/5 केवलिनां निर्मूलतो विनष्टांतरंगेंद्रियाणां प्रहतबाह्येंद्रियव्यापाराणां भावेंद्रियजनितद्रव्येंद्रियसत्त्वापेक्षया पंचेंद्रियत्वप्रतिपादनात् ।=केवलियों के यद्यपि भावेंद्रियाँ समूल नष्ट हो गयी है, और बाह्य इंद्रियों का व्यापार भी बंद हो गया है, तो भी (छद्मस्थ अवस्था में) भावेंद्रियों के निमित्त से उत्पन्न हुई द्रव्येंद्रियों के सद्भाव की अपेक्षा उन्हें पंचेंद्रिय कहा गया है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/701/1135/12 सयोगिजिने भावेंद्रियं न, द्रव्येंद्रियापेक्षया षट्पर्याप्तय:।=सयोगी जिनविषैं भावेंद्रिय तौ है नाहीं, द्रव्येंद्रिय की अपेक्षा छह पर्याप्ति हैं।
- जातिनाम कर्मोदय की अपेक्षा पंचेंद्रिय हैं
धवला 1/1,1,39/264/2 पंचेंद्रियजातिनामकर्मोदयात्पंचेंद्रिय:। समस्ति च केवलिनां....पंचेंद्रियजातिनामकर्मोदय:। निरवद्यत्वात् व्याख्यानमिदं समाश्रयणीयम् ।=पंचेंद्रिय नामकर्म के उदय से पंचेंद्रिय जीव होते हैं। व्याख्यान के अनुसार केवली के भी....पंचेंद्रिय जाति नामकर्म का उदय होता है। अत: यह व्याख्यान निर्दोष है। अतएव इसका आश्रय करना चाहिए। ( धवला 7/2,1,9/16/5 )
- पंचेंद्रिय कहना उपचार है
धवला 1/1,1,37/263/5 केवलिनां... पंचेंद्रियत्व...भूतपूर्वगतिन्यायसमाश्रयणाद्वा। =केवली को भूतपूर्व का ज्ञान कराने वाले न्याय के आश्रय से पंचेंद्रिय कहा है।
धवला 7/2,1,15/67/3 एइंदियादीणमोदइयो भावो वत्तव्वो, एइंदियजादिआदिणामकम्मोदएण एइंदियादिभावोवलंभा। जदि एवं ण इच्छिज्जदि तो सजोगि-अजोगिजिणाणं पंचिंदियत्तं ण लब्भदे, खीणावरणे पंचण्हमिंदियाणं खओवसमा भावा। ण च तेसिं पंचिंदियत्ताभावो पंचिंदिएसु समुग्घादपदेण असंखेज्जेषु भागेसु सव्वलोगे वा त्ति सुत्तविरोहादो। एत्थ परिहारो वुच्चदे...सजोगिअजोगिजिणाणं पंचिंदियत्तजुज्जदि त्ति जीवट्ठाणे पि उववण्णं। किंतु खुद्दाबंधे सजोगि-अजोगिजिणाणं सुद्धणएणाणिंदियाणं पंचिंदियत्तं जदि इच्छिज्जदि तो ववहारणएण वत्तव्वं। तं जहा-पंचसु जाईसु जाणि पडिबद्धाणि पंच इंदियाणि ताणि खओवसमियाणि त्ति काऊण उवयारेण पंच वि जादीओ खओवसमियाओ त्ति कट्टु सजोगि-अजोगिजिणाणं खओवसमियं पंचिंदियत्तं जुज्जदे। अधवा खीणावरणे णट्ठे वि पंचिंदियखओवसमे खओवसमजणिद णं पंचण्ह वज्झिंदियाणमुवयारेण लद्धखओवसमण्णाणमत्थित्तदंसणादो सजोगि-अजोगिजिणाणं पंचिंदियत्तं साहेयव्वं।=प्रश्न—एकेंद्रियादि को औदयिक भाव कहना चाहिए, क्योंकि एकेंद्रिय जाति आदिक नामकर्म के उदय से एकेंद्रियादिक भाव पाये जाते हैं। यदि ऐसा न माना जायेगा तो सयोगी और अयोगी जिनों के पंचेंद्रिय भाव नहीं पाया जायेगा, क्योंकि, उनके आवरण के क्षीण हो जाने पर पाँचों इंद्रियों के क्षयोपशम का भी अभाव हो गया है। और सयोगी और अयोगी जिनों के पंचेंद्रियत्व का अभाव होता नहीं है, क्योंकि वैसा मानने पर ‘‘पंचेंद्रिय जीवों की अपेक्षा समुद्घातपदके द्वारा लोक के असंख्यात बहुभागों में अथवा सर्वलोक में जीवों का अस्तित्व है’’ इस सूत्र से विरोध आ जायेगा? उत्तर—यहाँ उक्त शंका का परिहार करते हैं...सयोगी और अयोगी जिनों का पंचेंद्रियत्व योग्य होता है, ऐसा जीवस्थान खंड में स्वीकार किया गया है। ( षट्खंडागम/1/1,1/ सू.37/262) किंतु इस क्षुद्रकबंध खंड में शुद्ध नय से अनिंद्रिय कहे जाने वाले सयोगी और अयोगी जिनों के यदि पंचेंद्रियत्व कहना है, तो वह केवल व्यवहार नय से ही कहा जा सकता है। वह इस प्रकार है—पाँच जातियों में जो क्रमश: पाँच इंदियाँ संबद्ध हैं वे क्षायोपशमिक हैं ऐसा मानकर और उपचार से पाँचों जातियों को भी क्षायोपशमिक स्वीकार करके सयोगी और अयोगी जिनों के क्षायोपशमिक पंचेंद्रियत्व सिद्ध हो जाता है। अथवा, आवरण के क्षीण होने से पंचेंद्रियों के क्षयोपशम के नष्ट हो जाने पर भी क्षयोपशम से उत्पन्न और उपचार से क्षायोपशमिक संज्ञा को प्राप्त पाँचों बाह्येंद्रियों का अस्तित्व पाये जाने से सयोगी और अयोगी जिनों के पंचेंद्रियत्व सिद्ध कर लेना चाहिए।
- भावेंद्रिय के अभाव संबंधी शंका-समाधान
धवला 2/1,1/444/5 भाविंदायाभावादो। भाविंदियं णाम पंचण्हमिंदियाणं खओवसमो। ण सो खीणावरणे अत्थि।=सयोगी जिन के भावेंद्रियाँ नहीं पायी जाती हैं। पाँचों इंद्रियावरण कर्मों के क्षयोपशम को भावेंद्रियाँ कहते हैं। परंतु जिनका आवरण समूल नष्ट हो गया है उनके वह क्षयोपशम नहीं होता। ( धवला/2/1,1/658/4)
- केवली के मन उपचार से होता है
धवला 1/1,1,52/285/3 उपचारतस्तयोस्तत: समुत्पत्तिविधानात् ।=उपचार से मन के द्वारा (केवली के) उन दोनों प्रकार के वचनों की उत्पत्ति का विधान किया गया है।
गोम्मटसार जीवकांड/228 मणसहियाणं वयणं दिट्ठं तप्पुव्वमिदि सजोगम्हि। उत्तो मणोवयारेणिंदियणाणेण हीणम्मि।228।=इंदिय ज्ञानियों के वचन मनोयोग पूर्वक देखा जाता है। इंद्रिय ज्ञान से रहित केवली भगवान् के मुख्यपनैं तो मनोयोग नहीं है, उपचार से कहा है।
- केवली के द्रव्यमन होता है भावमन नहीं
धवला 1/1,1,50/284/4 अतींद्रियज्ञानत्वांन केवलीनो मन इति चेन्न, द्रव्यमनस: सत्त्वात् । प्रश्न—केवली के अतींद्रिय ज्ञान होता है, इसलिए उनके मन नहीं पाया जाता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, उनके द्रव्य मन का सद्भाव पाया जाता है।
- तहाँ मन का भावात्मक कार्य नहीं होता, पर परिस्पंदनरूप द्रव्यात्मक कार्य होता है
धवला 1/1,1,50/284/5 भवतु द्रव्यमनस: सत्त्वं न तत्कार्यमिति चेद्भवतु तत्कार्यस्य क्षायोपशमिकज्ञानस्याभाव:, अपि तु तदुत्पादने प्रयत्नोऽस्त्येव तस्य प्रतिबंधकत्वाभावात् । तेनात्मनो योग: मनोयोग:। विद्यमानोऽपि तदुत्पादने प्रयत्न: किमिति स्वकार्यं न विदध्यादिति चेन्न, तत्सहकारिकारणक्षयोपशमाभावात् । प्रश्न—केवली के द्रव्यमन का सद्भाव रहा आवे, परंतु वहाँ पर उसका कार्य नहीं पाया जाता है? उत्तर—द्रव्यमन के कार्यरूप उपयोगात्मक क्षायोपशमिक ज्ञान का अभाव भले ही रहा आवे, परंतु द्रव्य मन के उत्पन्न करने में प्रयत्न तो पाया ही जाता है, क्योंकि, द्रव्य मन की वर्गणाओं को लाने के लिए होने वाले प्रयत्न में कोई प्रतिबंधक कारण नहीं पाया जाता है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि उस मन के निमित्त से जो आत्मा का परिस्पंदरूप प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं। प्रश्न—केवली के द्रव्यमन को उत्पन्न करने में प्रयत्न विद्यमान रहते हुए भी वह अपने कार्य को क्यों नहीं करता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, केवली के मानसिक ज्ञान के सहकारी कारणरूप क्षयोपशम का अभाव है, इसलिए उनके मनोनिमित्तक ज्ञान नहीं होता है। (धवला 1/1,1,22/367-368/7); (गोम्मटसार जीवकांड व जीव तत्व प्रदीपिका/229)।
- भावमन के अभाव में वचन की उत्पत्ति कैसे हो सकती है
धवला 1/1,1,123/368/3 तत्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य वचसोऽपि न सत्त्वमिति चेन्न, तस्य ज्ञानकार्यत्वात् । अक्रमज्ञानात्कथं क्रमवतां वचनानामुत्पत्तिरिति चेन्न, घटविषयाक्रमज्ञानसमवेतकुंभकाराद्घंटस्य क्रमेणोत्पत्त्युपलंभात् । मनोयोगाभावे सूत्रेण सह विरोध: स्यादिति चेन्न, मन:कार्यप्रथमचतुर्थवचसो: सत्त्वापेक्षयोपचारेण तत्सत्त्वोपदेशात् । जीवप्रदेशपरिस्पंदहेतुनोकर्मजनितशक्त्यस्तित्वापेक्षया वा तत्सत्त्वान्न विरोध:।=प्रश्न—अरहंत परमेष्ठी में मन का अभाव होने पर मन के कार्यरूप वचन का सद्भाव भी नहीं पाया जा सकता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, वचन ज्ञान के कार्य हैं, मन के नहीं। प्रश्न—अक्रम ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर—नहीं, क्योंकि, घट विषयक अक्रम ज्ञान से युक्त कुंभकार द्वारा क्रम से घट की उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिए अक्रमवर्ती ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। प्रश्न—सयोगि केवली के मनोयोग का अभाव मानने पर ‘‘सच्चमणजोगो असच्चमोसमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलित्ति। (षट्खण्डागम/1/1,1/50/282) इस सूत्र के साथ विरोध आ जायेगा? उत्तर—नहीं, क्योंकि, मन के कार्यरूप प्रथम और चतुर्थ भाषा के सद्भाव की अपेक्षा उपचार से मन के सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। अथवा, जीवप्रदेशों के परिस्पंद के कारणरूप मनोवर्गणारूप नोकर्म से उत्पन्न हुई शक्ति के अस्तित्व की अपेक्षा सयोगि केवली के मन का सद्भाव पाया जाता है ऐसा मान लेने में भी कोई विरोध नहीं आता है। ( धवला 1/1,1,50/285/2) ( धवला 1/1,1,122/368/2)।
- मन सहित होते हुए भी केवली को संज्ञी क्यों नहीं कहते
धवला 1/1,1,172/408/10 समनस्कत्वात्सयोगिकेवलिनोऽपि संज्ञिन इति चेन्न, तेषां क्षीणावरणानां मनोऽवष्टंभबलेन बाह्यार्थ ग्रहणाभावतस्तदसत्त्वात् । तर्हि भवंतु केवलिनोऽसंज्ञिन इति चेन्न, साक्षात्कृतशेषपदार्थानामसंज्ञित्वविरोधात् । असंज्ञिन: केवलिनो मनोऽनपेक्ष्य बाह्यर्थ ग्रहणाद्विकलेंद्रियवदिति चेद्भवत्येवं यदि मनोऽनपेक्ष्य ज्ञानोत्पत्तिमात्रमाश्रित्यासंज्ञित्वस्य निबंधनमिति चेन्मनसोऽभावाद् बुद्धयतिशयाभाव:, ततो नानंतरोक्तदोष इति।=प्रश्न—मन सहित होने के कारण सयोगकेवली भी संज्ञी होते हैं? उत्तर—नहीं, क्योंकि आवरण कर्म से रहित उनके मन के अवलंबन से बाह्य अर्थ का ग्रहण नहीं पाया जाता है, इसलिए उन्हें संज्ञी नहीं कह सकते। प्रश्न—तो केवली असंज्ञी रहे आवें? उत्तर—नहीं, क्योंकि जिन्होंने समस्त पदार्थों को साक्षात् कर लिया है, उन्हें असंज्ञी मानने में विरोध आता है। प्रश्न—केवली असंज्ञी होते हैं, क्योंकि, वे मन की अपेक्षा के बिना ही विकलेंद्रिय जीवों की तरह बाह्य पदार्थों का ग्रहण करते हैं? उत्तर—यदि मन की अपेक्षा न करके ज्ञान की उत्पत्ति मात्र का आश्रय करके ज्ञानोत्पत्ति असंज्ञीपने की कारण होती तो ऐसा होता। परंतु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि कदाचित् मन के अभाव से विकलेंद्रिय जीवों की तरह केवली के बुद्धि के अतिशय का अभाव भी कहा जावेगा। इसलिए केवली के पूर्वोक्त दोष लागू नहीं होता।
- योगों के सद्भाव संबंधी समाधान
सर्वार्थसिद्धि/6/1/319/1 क्षयेऽपि त्रिविधवर्गणापेक्ष: सयोगकेवलिन: आत्मप्रदेशपरिस्पंदो योगो वेदितव्य:।=वीर्यांतराय और ज्ञानवरण कर्म के क्षय हो जाने पर भी सयोगकेवली के जो तीन प्रकार की वर्गणाओं की अपेक्षा आत्मप्रदेश परिस्पंद होता है वह भी योग है ऐसा जानना चाहिए। (धवला 1/1,1,/123/368/1)
धवला 1/1,1,27/220/59) अत्थि लोगपूरणम्हि ट्ठियकेवलीणं।=लोकपूरण समुद्घात में स्थित केवलियों के भी योग प्रतिपादक आगम उपलब्ध है।
- केवली के पर्याप्ति, योग तथा प्राण विषयक प्ररूपणा—
(धवला 2/11/444 .3+446.4÷658.7+419.16); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/701/1135 .12;726/1162.1)
- द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा पंचेंद्रियत्व है, भावेंद्रियों की अपेक्षा नहीं
निर्देश |
पर्याप्तापर्याप्त विचार |
प्राण (देखें उपर्युक्त प्रमाण ) |
पर्याप्ति (देखें पर्याप्ति - 3 |
||||||
|
योग देखें योग - 4 |
आहारकत्व देखें आहारक |
पर्याप्तापर्याप्त देखें नीचे |
सं. |
विवरण |
सं. |
विवरण |
||
सयोग केवली— |
|
||||||||
सामान्य |
7* |
आहा.,अना |
पर्या., अप. |
4 |
वचन, काय, आयु, श्वास |
6 |
छहों पर्याप्ति,अप. |
||
पर्याप्त |
5* |
आहारक |
पर्याप्त |
4 |
" |
6 |
" पर्याप्ति |
||
अपर्याप्त |
2* |
अनाहारक |
अपर्याप्त |
2 |
आयु तथा श्वास |
6 |
" अपर्याप्ति |
||
समुद्घात केवली— |
(देखें केवली - 7.12,13) |
||||||||
प्र. समय दंड |
औदारिक |
आहारक |
पर्याप्त |
3 |
काय, आयु, श्वास |
6 |
छहों पर्याप्ति |
||
द्वि. " कपाट |
औदा.मिश्र |
आहारक |
अपर्याप्त |
2 |
काय तथा आयु |
1 |
आहार पर्याप्ति |
||
तृ॰ " प्रतर |
कार्मण |
अनाहारक |
" |
1 |
आयु |
6 |
छहों अपर्याप्ति |
||
चतु॰ " लोकपूरण |
कार्मण |
" |
" |
1 |
" |
6 |
" " |
||
पंचम " प्रतर |
" |
" |
" |
1 |
" |
6 |
" " |
||
षष्टम " कपाट |
औदा.मिश्र |
आहारक |
" |
2 |
काय, आयु, श्वास |
1 |
आहार पर्याप्ति |
||
सप्तम " दंड |
औदारिक |
" |
पर्याप्त |
3 |
काय, आयु, श्वास |
6 |
छहों पर्याप्ति |
||
अष्टम " शरीर प्रवेश |
" |
" |
" |
4 |
वचन, काय, आयु, श्वास |
6 |
" " |
||
अयोग केवली— |
(देखें प्राण तथा पर्याप्ति विषयक द्वि तृ. कोष्टक) |
||||||||
प्रथम समय |
3* |
आहारक |
पर्याप्त |
6 |
काय, आयु, श्वास(वचन निरोध) |
6 |
छहों पर्याप्ति |
||
अंतिम समय |
× |
अनाहारक |
" |
1 |
आयु, (श्वास निरोध) |
6 |
" " |
||
*—7 योग=सत्य तआ अनुभव मन तथा वचन, औदा. द्विक, कार्मण 5 योग=उक्त 2 मन, 2 वचन औदारिक काय 3 योग=उक्त 2 मन, औदारिक काय 2 योग=औदारिक मिश्र तथा कार्मण |
- द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते
धवला 2/1,1/444/6 अध दव्विंदियस्स जदि गहणं कीरदि तो सण्णीणमपज्जतकाले सत्त पाणा पिंडिदूण दो चेव पाणा भवंति। पंचण्ह दव्वेंदियाणमभावादो। तम्हा सजोगिकेवलिस्स चत्तारि पाणा दो पाणा वा।=प्रश्न—द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते? उत्तर—यदि प्राणों में द्रव्येंद्रियों का ही ग्रहण किया जावे तो संज्ञी जीवों के अपर्याप्त काल में सात प्राणों के स्थान पर कुल दो ही प्राण कहे जायेंगे, क्योंकि, उनके द्रव्येंद्रियों का अभाव होता है। अत: यह सिद्ध हुआ कि सयोगी जिन के चार अथवा दो ही प्राण होते हैं। ( धवला 2/1,1/658/5)। - समुद्घातगत केवली को चार प्राण कैसे कहते हो
धवला 2/1,1/659/1 तेसिं कारणभूद-पज्जत्तीओ अत्थि त्ति पुणो उवरिमछट्ठसमयप्पहुडिं वचि-उस्सासपाणाणं समणा भवदि चत्तारि वि पाणा हवंति।=समुद्घातगत केवली के वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणों की कारणभूत वचन और आनपान पर्याप्तियाँ पायी जाती हैं, इसलिए लोकपूरण समुद्घात के अनंतर होने वाले प्रतर समुद्घात के पश्चात् उपरिम छठे समय से लेकर आगे वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणों का सद्भाव हो जाता है, इसलिए सयोगिकेवली के औदारिकमिश्र काययोग में चार प्राण भी होते हैं। - अयोगी के एक आयु प्राण होने का क्या कारण है
धवला 2/1,1/445/10 आउस-पाणो एक्को चेव। केण कारणेण। ण ताव णाणावरण-खओवसम-लक्खण-पचिंदियपाणा तत्थ संति, खीणावरणे खओवसमाभावादो। आणापाणभासा-मणपाणा वि णत्थि, पज्जत्ति-जणिद-पाण-सण्णिद-सत्ति-अभावादो। ण सरीर-बलपाणो वि अत्थि, सरीरो-दय-जणिद-कम्म-णोकम्मागमाभावादो तदो एक्को चेव प्राणो।=(अयोग केवली के) एक आयु नामक प्राण होता है। प्रश्न—एक आयु प्राण के होने का क्या कारण है? उत्तर—ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमस्वरूप पाँच इंद्रिय प्राण तो अयोगकेवली के हैं नहीं, क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय हो जाने पर क्षयोपशम का अभाव पाया जाता है। इसी प्रकार आनपान, भाषा और मन:प्राण भी उनके नहीं हैं, क्योंकि पर्याप्ति जनित प्राण संज्ञावाली शक्ति का उनके अभाव है। उसी प्रकार उनके कायबल नाम का भी प्राण नहीं है, क्योंकि उनके शरीर नामकर्म के उदय जनितकर्म और नोकर्मों के आगमन का अभाव है। इसलिए अयोगकेवली के एक आयु ही प्राण होता है। ऐसा समझना चाहिए।
- ध्यानलेश्या आदि संबंधी निर्देश व शंका-समाधान
- केवली के लेश्या कहना उपचार है तथा उसका कारण
सर्वार्थसिद्धि/2/6/160/1 ननु च उपशांतकषाये क्षीणकषाये सयोगकेवलिनि च शुक्ललेश्यास्तीत्यागम:। तत्र कषायानुरंजनाभावादौदयिकत्वं नोपपद्यते। नैष दोष:; पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया यासौ योगप्रवृत्ति: कषायानुरंजिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते। तदभावादयोगकेवल्यकेवल्यलेश्य इति निश्चीयते।=प्रश्न—उपशांत कषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली गुणस्थान में शुक्ल लेश्या है ऐसा आगम है, परंतु वहाँ पर कषाय का उदय नहीं है इसलिए औदयिकपना नहीं बन सकता? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो योग प्रवृत्ति कषाय के उदय से अनुरंजित है वही यह है इस प्रकार पूर्व भावप्रज्ञापन नय की अपेक्षा उपशांत कषाय आदि गुणस्थानों में भी लेश्या को औदयिक कहा गया है। (राजवार्तिक/2/6/8/109/29); (गोम्मटसार जीवकांड/533 )।
धवला 7/1,1,61/104/12 जदि कसाओदएण लेस्साओ उच्चंति तो खीणकसायाणं लेस्साभावो पसज्जदे। सच्चमेदं जदि कसाओदयादो चेव लेस्सुप्पत्तो इच्छिज्जदि। किंतु सरीरणामकम्मोदयजणिदजोगो वि लेस्सा त्ति इच्छिज्जदि, कम्मबंधणिमित्तत्तादो। तेण कसाये फिट्टे वि जोगो अत्थि त्ति खीणकसायाणं लेस्सत्तं ण विरुज्झदे।=प्रश्न—यदि कषायों के उदय से लेश्याओं का उत्पन्न होना कहा जाता है तो बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के लेश्या के अभाव का प्रसंग आता है। उत्तर—सचमुच ही क्षीण कषाय जीवों में लेश्या के अभाव का प्रसंग आता यदि केवल कषायोदय से ही लेश्या की उत्पत्ति मानी जाती। किंतु शरीर नामकर्मोदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योंकि वह भी कर्म के बंध में निमित्त होता है। इस कारण कषाय के नष्ट हो जाने पर भी चूँकि योग रहता है, इसलिए क्षीणकषाय जीवों के लेश्या मानने में कोई विरोध नहीं आता। ( गोम्मटसार जीवकांड/533 )।
- केवली के संयम कहना उपचार है तथा उसका कारण
धवला 1/1,1,124/374/3 अथ स्यात् बुद्धिपूर्विका सावद्यविरति: संयम:, अन्यथा काष्ठादिष्वपि संयमप्रसंगात् । न च केवलीषु तथाभूता निवृत्तिरस्ति ततस्तत्र संयमो दुर्घट इति नैष दोष:, अघातिचतुष्टयबिनाज्ञापेक्षया समयं प्रत्यसंख्यातगुणश्रेणिकर्मनिर्जरापेक्षया च सकलपापक्रियानिरोधत्तक्षणपारिणामिकगुणाविर्भावापेक्षया वा, तत्र संयमोपचारात् । अथवा प्रवृत्त्यभावापेक्षया मुख्यसंयमोऽस्ति (न काष्ठेन व्यभिचारस्तत्र प्रवृत्त्यभावतस्तन्निवृत्त्यनुपपत्ते:।=प्रश्न—बुद्धिपूर्वक सावद्ययोग के त्याग को संयम कहना तो ठीक है। यदि ऐसा न माना जाये तो काष्ठ आदि में भी संयम का प्रसंग आ जायेगा। किंतु केवली में बुद्धिपूर्वक सावद्ययोग की निवृत्ति तो पायी नहीं जाती है इसलिए उनमें संयम का होना दुर्घट ही है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, चार अघातिया कर्मों के विनाश करने की अपेक्षा और समय-समय में असंख्यात गुणी श्रेणीरूप से कर्म निर्जरा करने की अपेक्षा संपूर्ण पापक्रिया के निरोधस्वरूप पारिणामिक गुण प्रगट हो जाता है, इसलिए इस अपेक्षा से वहाँ संयम का उपचार किया जाता है। अत: वहाँ पर संयम का होना दुर्घट नहीं है। अथवा प्रवृत्ति के अभाव की अपेक्षा वहाँ पर मुख्य संयम है। इस प्रकार जिनेंद्र में प्रवृत्यभाव से मुख्य संयम की सिद्धि करने पर काष्ठ से व्यभिचार दोष भी नहीं आता है, क्योंकि, काष्ठ में प्रवृत्ति नहीं पायी जाती है, तब उसकी निवृत्ति भी नहीं बन सकती है।
- केवली के ध्यान कहना उपचार है तथा उसका कारण
राजवार्तिक/2/10/5/125/8 यथा एकाग्रचिंतानिरोधो ध्यानमिति छद्मस्थे ध्यानशब्दार्थो मुख्यश्चिंताविक्षेपवत: तन्निरोधोपपत्ते:; तदभावात् केवलिन्युपचरित: फलदर्शनात् ।=एकाग्रचिंतानिरोधरूप ध्यान छद्मस्थों में मुख्य है, केवली में तो उसका फल कर्मध्वंस देखकर उपचार से ही वह माना जाता है।
धवला 13/5,4,26/86/4 एदम्हि जोगणिरोहकाले सुहुमकिरियमप्पडिवादि ज्झाणं ज्झायदि त्ति जं भणिदं तण्ण घडदे; केवलिस्स विसईकयासेसदव्वपज्जायस्स सगसव्वद्घाए एगरूवस्स अणिंदियस्स एगवत्थुम्हि मणणिरोहाभावादो। ण च मणणिरोहेण विणा ज्झाणं संभवदि। ण एस दोसो; एगवत्थुम्हि चिंताणिरोहो ज्झाणमिदि जदि घेप्पदि तो होदि दोसो। ण च एवमेत्थ घेप्पदि।...जोगा उवयारेण चिंता; तिस्से एयग्गेण णिरोहो विणासो जम्मि तं ज्झाणमिदि एत्थ घेत्तव्वं।
धवला 13/5,4,26/87/13 कधमेत्थ ज्झाणववएसो? एयग्गेण चिंताए जीवस्स णिरोहो परिप्फंदाभावो ज्झाणं णाम।=1. प्रश्न—इस योग निरोध के काल में केवली जिन सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती ध्यान को ध्याते हैं, यह जो कथन किया है वह नहीं बनता, क्योंकि केवली जिन अशेष द्रव्य पर्यायों को विषय करते हैं, अपने सब काल में एक रूप रहते हैं और इंद्रिय ज्ञान से रहित हैं; अतएव उनका एक वस्तु में मन का निरोध करना उपलब्ध नहीं होता। और मन का निरोध किये बिना ध्यान का होना संभव नहीं है। उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि प्रकृत में एक वस्तु में चिंता का निरोध करना ध्यान है, ऐसा ग्रहण किया जाता है तो उक्त दोष आता है। परंतु यहाँ ऐसा ग्रहण नहीं करते हैं।...यहाँ उपचार से योग का अर्थ चिंता है। उसका एकाग्र रूप से निरोध अर्थात् विनाश जिस ध्यान में किया जाता है, वह ध्यान है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। 2. प्रश्न—यहाँ ध्यान संज्ञा किस कारण से दी गयी है? उत्तर—एकाग्ररूप से जीव के चिंता का निरोध अर्थात् परिस्पंद का अभाव होना ही ध्यान है, इस दृष्टि से यहाँ ध्यान संज्ञा दी गयी है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/152/219/10 भावमुक्तस्य केवलिनो...स्वरूपनिश्चलत्वाद...पूर्वसंचितकर्मणां ध्यानकार्यभूतं स्थितिविनाशं गलनं च दृष्ट्वा निर्जरारूपध्यानस्य कार्यकारणमुपचर्योपचारेण ध्यानं भण्यत इत्यभिप्राय:।=स्वरूप निश्चल होने से भावमुक्त केवली के ध्यान का कार्यभूत पूर्वसंचित कर्मों की स्थिति का विनाश अर्थात् गलन देखा जाता है। निर्जरारूप इस ध्यान के कार्य-कारण में उपचार करने से केवली को ध्यान कहा जाता है ऐसा समझना चाहिए। (चा.सा/131/2)
- केवली के एकत्व विर्तक ध्यान क्यों नहीं कहते
धवला 13/5,4,26/75/7 आवरणाभावेण असेसदव्वपज्जएसु उवजुत्तस्स केवलोपजोगस्स एगदव्वम्हि पज्जाए वा अवट्ठाणाभावदट्ठूणं तज्झाणाभावस्स परूवित्तादो।=आवरण का अभाव होने से केवली जिन का उपयोग अशेष-द्रव्य पर्यायों में उपयुक्त होने लगता है। इसलिए एक द्रव्य में या पर्याय में अवस्थान का अभाव देखकर उस ध्यान का (एकत्वविर्तक अविचार) अभाव कहा है।
- तो फिर केवली क्या ध्याते हैं
प्रवचनसार/197-198 णिहदघणघादिकम्मो पच्चक्खं सव्वभावतच्चण्हू। णेयंतगदो समणो झादि कमट्ठं असंदेहो।197। सव्वबाधविजुत्तो समंतसव्वक्खसोक्खणाणड्ढो। भूदो अक्खातीदो झादि अणक्खो परं सोक्खं।198।=प्रश्न—जिसने घनघाति कर्म का नाश किया है, जो सर्व पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं, और ज्ञेयों के पार को प्राप्त हैं, ऐसे संदेह रहित श्रमण क्या ध्याते हैं? उत्तर—अनिंद्रिय और इंद्रियातीत हुआ आत्मा सर्व बाधा रहित और संपूर्ण आत्मा में समंत (सर्व प्रकार के, परिपूर्ण) सौख्य तथा ज्ञान से समृद्ध रहता हुआ परम सौख्य का ध्यान करता है।
- केवली को इच्छा का अभाव तथा उसका कारण
नियमसार/172 जाणंतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो।
केवलिणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो।172।=जानते और देखते हुए भी, केवली को इच्छापूर्वक (वर्तन) नहीं होता; इसलिए उन्हें ‘केवलज्ञानी’ कहा है। और इसलिए अबंधक कहा है। (नियमसार/175)
अष्टसहस्री./पृष्ठ 72 (निर्णयसागर बंबई) वस्तुतस्तु भगवतो वीतमोहत्वान्मोहपरिणामरूपाया इच्छाया तत्रासंभवात् । तथाहि—नेच्छा सर्वविद: शासनप्रकाशननिमित्तं प्रणष्टमोहत्वात् ।=वास्तव में केवली भगवान् के वीतमोह होने के कारण, मोह परिणामरूप जो इच्छा है वह उनके असंभव है। जैसे कि—सर्वज्ञ भगवान् को शासन के प्रकाशन की भी कोई इच्छा नहीं है, मोह का विनाश हो जाने के कारण।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/173-174 परिणामपूर्वकं वचनं केवलिनो न भवति...केवलीमुखारविंदविनिर्गतो दिव्यध्वनिरनीहात्मक:।=परिणाम पूर्वक वचन तो केवली को होता नहीं है।...केवली के मुखारविंद से निकली दिव्यध्वनि समस्तजनों के हृदय को आल्हाद के कारणभूत अनिच्छात्मक होती है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/44 यथा हि महिलानां प्रयत्नमंतरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्वभावभूत एव मायोपगुंठनागुंठितो व्यवहार: प्रवर्तते, तथा हि केवलिनां प्रयत्नमंतरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्थानासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवर्तंते। अपि चाविरुद्धमेतदंभोधरदृष्टांतात् । यथा खल्वंभोधराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमंबुवर्षं च पुरुषप्रयत्नमंतरेणापि दृश्यंते, तथा केवलिनां स्थानादयोऽबुद्धिपूर्वका एव दृश्यंते।=प्रश्न—(बिना इच्छा के भगवान् को विहार स्थानादि क्रियाएँ कैसे संभव हैं)। उत्तर—जैसे स्त्रियों के प्रयत्न के बिना भी, उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से स्वभावभूत ही माया के ढक्कन से ढका हुआ व्यवहार प्रवर्तता है, उसी प्रकार केवली भगवान् के, बिना ही प्रयत्न के उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मदेशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं। और यह (प्रयत्न के बिना ही विहारादि का होना) बादल के दृष्टांत से अविरुद्ध है। जैसे बादल के आकाररूप परिणमित पुद्गलों का गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुषप्रयत्न के बिना भी देखी जाती हैं, उसी प्रकार केवली भगवान् के खड़े रहना इत्यादि अबुद्धि पूर्वक ही (इच्छा के बिना ही) देखा जाता है। - केवली के उपयोग कहना उपचार है
राजवार्तिक/2/10/5/125/10 तथा उपयोगशब्दार्थोऽपि संसारिषु मुख्य: परिणामांतरसंक्रमात्, मुक्तेषु तदभावाद् गौण: कल्प्यते उपलब्धिसामान्यात् ।=संसारी जीवों में उपयोग मुख्य है, क्योंकि बदलता रहता है। मुक्त जीवों में सतत एकसी धारा रहने से उपयोग गौण है वहाँ तो उपलब्धि सामान्य होती है।
- केवली के लेश्या कहना उपचार है तथा उसका कारण
- केवली समुद्घात निर्देश
- केवली समुद्घात सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/9/44/457/3 लघुकर्मपरिपाचनस्याशेषकर्मरेणुपरिशातनशक्तिस्वाभाव्याद्दंडकपाटप्रतरलोकपूरणानि स्वात्मप्रदेशविसर्पणत:...। समुपहृतप्रदेशविसरण:।=जिनके स्वल्पमात्र में कर्मों का परिपाचन हो रहा है ऐसे वे अपने (केवली अपने) आत्मप्रदेशों के फैलने से कर्म रज को परिशातन करने की शक्तिवाले दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात को...करके अनंतर के विसर्पण का संकोच करके...।
राजवार्तिक/1/20/12/77/19 द्रव्यस्वभावत्वात् सुराद्रव्यस्य फेनवेगबुद्बुदाविर्भावोपशमनवद् देहस्थात्मप्रदेशानां बहि:समुद्घातनं केवलिसमुद्घात:।=जैसे मदिरा में फेन आकर शांत हो जाता है उसी तरह समुद्घात में देहस्थ आत्मप्रदेश बाहर निकलकर फिर शरीर में समा जाते हैं, ऐसा समुद्घात केवली करते हैं।
धवला 13/2/61/300/9 दंड-कवाड-पदर-लोगपूरणाणि केवलिसमुग्घादो णाम।=दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणरूप जीव प्रदेशों की अवस्था को केवलिसमुद्घात कहते हैं। (पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/153/221)।
- भेद-प्रभेद
धवला 4/,1,3,2/28/8 दंडकवाड-पदर-लोकपूरणभेएण चउव्विहो। =दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण के भेद से केवलीसमुद्घात चार प्रकार का है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/544/953/14 केवलिसमुद्घात: दंडकवाटप्रतरलोकपूरणभेदाच्चतुर्धा। दंडसमुद्घात: स्थितोपविष्टभेदाद् द्वेधा। कवाटसमुद्घातोऽपि पूर्वाभिमुखोत्तराभिमुखभेदाभ्यां स्थित: उपविष्टश्चेति चतुर्धा। प्रतरलोकपूरणसमुद्घातावेवैककावेव।=केवली समुद्घात च्यारि प्रकार दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण। तहाँ दंड दोय प्रकार एक स्थिति दंड, अर एक उपविष्ट दंड। बहुरि कपाट चारि प्रकार पूर्वाभिमुखस्थितकपाट, उत्तराभिमुखस्थितकपाट, पूर्वाभिमुख उपविष्टकपाट, उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट। बहुरि प्रतर अर लोकपूरण एक एक ही प्रकार हैं।
- दंडादि भेदों के लक्षण
धवला 4/1,3,2/28/8 तत्थ दंडसमुग्घादो णाम पुव्वसरीरबाहल्लेण वा तत्तिगुणबाहल्लेण वा सविक्खंभादो सादिरेयतिगुणपरिट्ठएण केवलिजीवपदेसाणं दंडागारेण देसूणचोद्दसरज्जुविसप्पणं। कवाडसमुग्घादो णाम पुव्विल्लबाहल्लायामेण वादवलयवदिरितसव्वखेत्तावूरणं। पदरसमुग्घादो णाम केवलिजीवपदेसाणं वादवलयरुद्धलोगखेत्तं मोत्तूण सव्वलोगावूरणं। लोगपूरणसमुग्घादो णाम केवलिजीवपदेसाणं घणलोगमेत्ताण सव्वलोगवूरणं।=जिसकी अपने विष्कंभ से कुछ अधिक तिगुनी परिधि है ऐसे पूर्व शरीर के बाहल्यरूप अथवा पूर्व शरीर से तिगुने बाहल्यरूप दंडाकार से केवली के जीव प्रदेशों का कुछ कम चौदह राजू उत्सेधरूप फैलने का नाम दंड समुद्घात है। दंड समुद्घात में बताये गये बाहल्य और आयाम के द्वारा पूर्व पश्चिम में वातवलय से रहित संपूर्ण क्षेत्र के व्याप्त करने का नाम कपाट समुद्घात है। केवली भगवान् के जीवप्रदेशों का वातवलय से रुके हुए क्षेत्र को छोड़कर संपूर्ण लोक में व्याप्त होने का नाम प्रतर समुद्घात है। घन लोकप्रमाण केवली भगवान् के जीवप्रदेशों का सर्वलोक के व्याप्त करने को लोकपूरण समुद्घात कहते हैं। (धवला/13/5/4/26/2)
- सभी केवलियों को होने न होने विषयक दो मत
भगवती आराधना/2109 उक्कस्सएण छम्मासाउगसेसम्मिकेवली जादा। वच्चंति समुग्घादं सेसा भज्जा समुग्घादे।2109।=उत्कर्ष से जिनका आयु छह महीने का अवशिष्ट रहा है ऐसे समय में जिनको केवलज्ञान हुआ है वे केवली नियम से समुद्घात को प्राप्त होते हैं। बाकी के केवलियों को आयुष्य अधिक होने पर समुद्घात होगा अथवा नहीं भी होगा, नियम नहीं है। (पंचसंग्रह/प्राकृत 1/200); ( धवला 1/1,1,30/167); (ज्ञानार्णव/42/42); ( वसुनंदी श्रावकाचार/530)
धवला 1/1,1,60/302/2 यतिवृषभोपदेशात्सर्वघातिकर्मणां क्षीणकषायचरमसमये स्थिते: साम्याभावात्सर्वेऽपि कृतसमुद्घाता: संतो निर्वृत्तिमुपढौकंते। येषामाचार्याणां लोकव्यापिकेवलिषु विंशतिसंख्यानियमस्तेषां मतेन केचित्समुद्घातयंति। के न समुद्घातयंति।=यतिवृषभाचार्य के उपदेशानुसार क्षीणकषाय गुणस्थान के चरमसमय में संपूर्ण अघातिया कर्मों की स्थिति समान नहीं होने से सभी केवली समुद्घात करके ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं। परंतु जिन आचार्यों के मतानुसार लोकपूरण समुद्घात करने वाले केवलियों की बीस संख्या का नियम है, उनके मतानुसार कितने ही केवली समुद्घात करते और कितने नहीं करते हैं।
धवला 13/5,4,31/151/13 सव्वेसिं णिव्वुइमुवगमंताणं केवलिसमुग्घादाभावादो।=मोक्ष जाने वाले सभी जीवों के केवलि समुद्घात नहीं होता।
- आयु के छह माह शेष रहने पर होने न होने संबंधी दो मत
धवला 1/1,1,60/167/303 छम्मासाउवसेसे उप्पण्णं जस्स केवलणाणं। स-समुग्घाओ सिज्झइ सेसा भज्जा समुग्घाए।167। एदिस्से गाहाए उवएसे किण्ण गहिओ। ण, भज्जत्ते कारणाणुवलंभादो। =प्रश्न—छह माह प्रमाण आयु के शेष रहने पर जिस जीव को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है वह समुद्घात को करके ही मुक्त होता है। शेष जीव समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते हैं।167। (भगवती आराधना/2109) इस पूर्वोक्त गाथा का अर्थ क्यों नहीं ग्रहण किया है? उत्तर—नहीं, क्योंकि इस प्रकार विकल्प के मानने में कोई कारण नहीं पाया जाता है, इसलिए पूर्वोक्त गाथा का उपदेश नहीं ग्रहण किया है।
- कदाचित् आयु के अंतर्मुहूर्त शेष रहने पर होता है
भगवती आराधना/2112 अंतोमुहुत्तसेसे जंति समुग्घादमाउम्मि।2112।=आयुकर्म जब अंतर्मुहूर्त मात्र शेष रहता है तब केवली समुद्घात करते हैं। (सर्वार्थसिद्धि/9/44/457/1); ( धवला 13/5,4,26/84/1); (क्षपणासार/620); ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/153/131 )।
- आत्मप्रदेशों का विस्तार प्रमाण
सर्वार्थसिद्धि/5/8/274/11 यदा तु लोकपूरणं भवति तदा मंदरस्याधश्चित्रवज्रपटलमध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशा व्यवतिष्ठंते। इतने ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते। =केवलिसमुद्घात के समय जब यह (जीव) लोक को व्यापता है उस समय जीव के मध्य के आठ प्रदेश मेरु पर्वत के नीचे चित्रा पृथिवी के वज्रमय पटल के मध्य में स्थित हो जाते हैं और शेष प्रदेश ऊपर नीचे और तिरछे समस्त लोक को व्याप्त कर लेते हैं। (राजवार्तिक/5/8/4/450/1)
धवला 11/4,2,5,17/31/11 केवली दंड करेमाणो सव्वोसरीरत्तिगुणबाहल्लेण (ण) कुणदि, वेयणाभावादो। को पुण सरीरतिगुणबाहल्लेण दंडं कुणइ। पलियंकेण णिसण्णकेवली।=दंड समुद्घात को करने वाले सभी केवली शरीर से तिगुणे बाहल्य से उक्त समुद्घात को नहीं करते, क्योंकि उनके वेदना का अभाव है। प्रश्न—तो फिर कौन से केवली शरीर से तिगुणे बाहल्य से दंड समुद्घात को करते हैं? उत्तर—पल्यंक आसन से स्थित केवली उक्त प्रकार से दंड समुद्घात को करते हैं।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/544/953 केवल भाषार्थ
—दंड—स्थितिदंड समुद्घात विषै एक जीव के प्रदेश वातवलय के बिना लोक की ऊँचाई किंचित् ऊन चौदह राजू प्रमाण है सो इस प्रमाणतैं लंबै बहुरि बारह अंगुल प्रमाण चौड़े गोल आकार प्रदेश हैं। स्थितिदंड के क्षेत्र को नवगुणा कीजिए तब उपविष्टदंड विषै क्षेत्र हो है। सो यहाँ 36 अंगुल चौड़ाई है। कपाट पूर्वाभिमुख स्थित कपाट समुद्घातविषै एक जीव के प्रदेश वातवलय बिना लोकप्रमाण तो लंबे हो हैं सो किंचित् ऊन चौदह राजू प्रमाण तो लंबे हो है, बहुरि उत्तर-दक्षिण दिशाविषैं लोक की चौड़ाई प्रमाण चौड़े हो हैं सो उत्तर-दक्षिण दिशाविषैं लोक सर्वत्र सात राजू चौड़ा है तातैं सात राजू प्रमाण चौड़े हो है। बहुरि बारह अंगुल प्रमाण पूर्व पश्चिम विषै ऊँचे हो हैं।
पूर्वाभिमुख स्थित कपाट के क्षेत्र तै तिगुना पूर्वाभिमुख उपविष्ट कपाट विषै क्षेत्र जानना। उत्तराभिमुख स्थित कपाट के चौदह राजू प्रमाण तो लंबे पूर्व-पश्चिम दिशा विषैं लोक की चौड़ाई के प्रमाण चौड़े हैं। उत्तर-दक्षिण विषै क्रम से सात, एक, पाँच और एक राजू प्रमाण चौड़े हैं। उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट विषैं तातैं तिगुनी छत्तीस अंगुल की ऊँचाई है। प्रतर—बहुरि प्रतर समुद्घात विषैं तीन वलय बिना सर्व लोक विषैं प्रदेश व्याप्त हैं तातैं तीन वातवलय का क्षेत्रफल लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। लोकपूरण—बहुरि लोकपूरण विषैं सर्व लोकाकाश विषैं प्रदेश व्याप्त हो है तातैं लोकप्रमाण एक जीव संबंधी लोकपूरण विषैं क्षेत्र जानना।
क्षपणासार/623/735/8-11 भाषार्थ
—कायोत्सर्ग स्थित केवली के दंड समुद्घात उत्कृष्ट 108 प्रमाण अंगुल ऊँचा, 12 प्रामाणांगुल चौड़ा और सूक्ष्म परिधि 37<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0034.gif" alt="" width="18" height="30" /> प्रमाणांगुल युक्त है। पद्मासन स्थित (उपविष्ट) दंड समुद्घात विषैं ऊँचाई 36 प्रमाणांगुल, और सूक्ष्म परिधि 113 <img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0001.gif" alt="" width="18" height="30" /> प्रमाणांगुल युक्त है।
- कुल आठ समय पर्यंत रहता है
राजवार्तिक/1/20/12/77/27 केवलिसमुद्घात: अष्टसामयिक: दंडकवाटप्रतरलोकपूरणानि चतर्षु समयेषु पुन:प्रतरकपाटदंडस्वशरीरानुप्रवेशाश्चतुर्षु इति। केवलि समुद्घात का काल आठ समय है। दंड, कवाट, प्रतर, लोकपूरण, फिर प्रतर, कपाट, दंड और स्व शरीर प्रवेश इस तरह आठ समय होते हैं।
- प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधिक्रम
पंचसंग्रह/प्राकृत/197-198 पढमे दंडं कुणइ य विदिए य कवाडयं तहा समए। तइए पयरं चेव य चउत्थए लोयपूणयं।197। विवरं पंच समए जोई मंथाणयं तदो छट्ठे। सत्तमए य कवाडं संवरइ तदोऽट्ठमे दंडं।198।= समुद्घातगत केवली भगवान् प्रथम समय में दंडरूप समुद्घात करते हैं। द्वितीय समय में कपाटरूप समुद्घात करते हैं। तृतीय समय में प्रतररूप और चौथे समय में लोक-पूरण समुद्घात करते हैं। पाँचवें समय में वे सयोगिजिन लोक के विवरगत आत्मप्रदेशों का संवरण (संकोच) करते हैं। पुन: छट्ठे समय में मंथान (प्रतर) गत आत्म-प्रदेशों का संवरण करते हैं। सातवें समय में कपाट-गत आत्म-प्रदेशों का संवरण करते हैं और आठवें समय में दंडसमुद्घातगत आत्म–प्रदेशों का संवरण करते हैं। ( भगवती आराधना/2115); ( क्षपणासार/ मूल/627); ( क्षपणासार/ भाषा/623)।
क्षपणासार/ मूल/621 हेट्ठा दंडस्संतोमुहुत्तमावज्जिदं हवे करणं। तं च समुग्घादस्स य अहिमुहभावो जिणिंदस्स।621।=दंड समुद्घात करने का काल के अंतर्मुहूर्त काल आधा कहिए पहलैं आवर्जित नामा करण हो है सो जिनेंद्र देवकैं जो समुद्घात क्रिया कौं सन्मुखपना सोई आवर्जितकरण कहिए।
- दंड समुद्घात में औदारिक काययोग होता है शेष में नहीं
पंचसंग्रह/प्राकृत/199 दंडदुगे ओरालं...।...।199।=केवलि समुद्घात के उक्त आठ समयों में से दंड द्विक अर्थात् पहले और सातवें समय के दोनों समुद्घातों में औदारिक काययोग होता है। (धवला 4/1,4,88/263/1 )
- प्रतर व लोकपूरण में अनाहारक शेष में आहारक होता है
क्षपणासार/619 णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे। णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ।619।=केवल समुद्घातकौं प्राप्त केवलिविषैं दोय तौं प्रतर के समय अर एक लोकपूरण का समय इन तीन समयनि विषैं नोकर्म का आहार नियमतैं नाहीं है अन्य सर्व सयोगी जिन का कालविषैं नोकर्म का आहार है।
- केवली समुद्घात में पर्याप्तापर्याप्त संबंधी नियम
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/703/1137/13 सयोगे पर्याप्त:। समुद्धाते तूभय: अयोगे पर्याप्त एव। =सयोगी विषैं पर्याप्त है, समुद्घात सहित दोऊ (पर्याप्त व अपर्याप्त) है। अयोगी विषैं पर्याप्त ही है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/587/791/12 दंडद्वये काल: औदारिकशरीरपर्याप्ति:, कवाटयुगले तन्मिश्र: प्रतरयोर्लोकपूरणे च कार्मण इति ज्ञातव्य:। मूलशरीरप्रथमसमयात्संज्ञिवत्पर्याप्तय: पूर्यंते।=दंड का करनैं वा समेटने रूप युगलविषैं औदारिक शरीर पर्याप्ति काल है। कपाट का करने समेटनेरूप युगलविषैं औदारिकमिश्रशरीर काल है अर्थात् अपर्याप्त काल है। प्रतर का करना वा समेटनाविषैं अर लोकपूरणविषैं कार्माणकाल है। मूलशरीरविषैं प्रवेश करने का प्रथम समय तैं लगाय संज्ञी पंचेंद्रियवत्, अनुक्रमतैं पर्याप्त पूर्ण करै है।
- पर्याप्तापर्याप्त संबंधी शंका-समाधान
धवला 2/1,1/441-444/1 केवली कवाड-पदर-लोगपूरणगओ पज्जत्तो अपज्जत्तो वा। ण ताव पज्जत्तो, ‘ओरालियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं’ इच्चेदेण सुत्तेण तस्स अपज्जत्तसिद्धीदो। सजोगिं मोत्तण अण्णे ओरालियमिस्सकायजोगिणो अपज्जत्ता ‘सम्मामिच्छाइट्ठि संजदा-संजद-संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता त्ति सुत्तणिद्देसादो। ण अहारमिस्सकायजोगपमत्तसंजदाणं पि पज्जत्तयत्त-प्पसंगादो। ण च एवं ‘आहारमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं’ त्ति सुत्तेण तस्स अपज्जत्तभाव-सिद्धादो। अणवगासत्तादो एदेण सुत्तेण ‘संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता’ त्ति एदं सुत्तं बाहिज्जदि....त्ति अणेयंतियादो।...किमेदेण जाणाविज्जदि।...त्ति एदं सुत्तमणिच्चमिदि...ण च सजोगम्मि सरीरपट्ठवणमत्थि, तदो ण तस्स अपज्जत्तमिदि ण, छ-पज्जत्ति-सत्ति-वज्जियस्स अपज्जत्त-ववएसादो। =प्रश्न—कपाट, प्रतर, और लोकपूरण समुद्घात को प्राप्त केवली पर्याप्त हैं या अपर्याप्त? उत्तर—उन्हें पर्याप्त तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि, ‘औदारिक मिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है’ इस सूत्र से उनके अपर्याप्तपना सिद्ध है, इसलिए वे अपर्याप्तक ही हैं। प्रश्न—‘‘सम्यग्मिथ्यादृष्टि संयतासंयत और संयतों के स्थान में जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं’’ इस प्रकार सूत्र निर्देश होने के कारण यही सिद्ध होता है कि सयोगी को छोड़कर अन्य औदारिकमिश्रकाययोगवाले जीव अपर्याप्तक हैं। उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि (यदि ऐसा मान लें)...तो आहारक मिश्रकाययोगवाले प्रमत्तसंयतों को भी अपर्याप्तक ही मानना पड़ेगा, क्योंकि वे भी संयत हैं। किंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि, ‘आहारकमिश्र काययोग अपर्याप्तकों के होता है’ इस सूत्र से वे अपर्याप्तक ही सिद्ध होते हैं। प्रश्न—यह सूत्र अनवकाश है, (क्योंकि) इस सूत्र से संयतों के स्थान में जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं, यह सूत्र बाधा जाता है। उत्तर—...इस कथन में अनेकांतदोष आ जाता है। (क्योंकि अन्य सूत्रों से यह भी बाधा जाता है। प्रश्न—...(सूत्र में पड़े) इस नियम शब्द से क्या ज्ञापित होता है। उत्तर—इससे ज्ञापित होता है...कि यह सूत्र अनित्य है।...कहीं प्रवृत्त हो और कहीं न हो इसका नाम अनित्यता है। प्रश्न—सयोग अवस्था में (नये) शरीर का आरंभ तो होता नहीं; अत: सयोगी के अपर्याप्तपना नहीं बन सकता। उत्तर—नहीं, क्योंकि, कपाटादि समुद्घात अवस्था में सयोगी छह पर्याप्ति रूप शक्ति से रहित होते हैं, अतएव उन्हें अपर्याप्त कहा है।
- समुद्घात करने का प्रयोजन
भगवती आराधना/2113-2116 ओल्लं संतं विरल्लिदं जध लहु विणिव्वादि। संवेदियं तुण तधा तधेव कम्मं पि णादव्वं।2113। ढिदिबंधस्स सिणेहो हेदू खीयदि य सो समुहदस्स। सउदि य खीणसिणेहं सेसं अप्पट्ठिदी होदि।2114।...सेलेसिमब्भुवेंतो जोगणिरोधं तदो कुणदि।2116।=गीला वस्त्र पसारने से जल्दी शुष्क होता है, परंतु वेष्टित वस्त्र जल्दी सूखता नहीं उसी प्रकार बहुत काल में होने योग्य स्थिति अनुभागघात केवली समुद्घात-द्वारा शीघ्र हो जाता है।2113। स्थिति बंध का कारण जो स्नेहगुण वह इस समुद्घात से नष्ट होता है, और स्नेहगुण कम होने से उसकी अल्प स्थिति होती हैं।2114। अंत में योग निरोध वह धीर मुक्ति को प्राप्त करते हैं।2116।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/153/221/8 संसारस्थितिविनाशार्थं...केवलिसमुद्धातं।=संसार की स्थिति का विनाश करने के लिए केवली समुद्घात करते हैं।
- इसके द्वारा शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात नहीं होता
धवला 12/4,2,7,14/18/2 सुहाणं पयडीणं विसोहीदो केवलिसमुग्घादेण जोगणिरोहेण वा अणुभागघादो णत्थि त्ति जाणावेदि।=शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योगनिरोध से नहीं होता है।
- जब शेष कर्मों की स्थिति आयु के समान न हो तब उनका समीकरण करने के लिए किया जाता है
भगवती आराधना/2110-2111 जेसिं अउसमाइं णामगोदाइं वेदणीयं च। ते अकदसमुग्घादा जिणा उवणमंति सेलेसिं।2110। जेसिं हवंति विसमाणि णामगोदाउवेदणीयाणि। ते दु कदसमुग्घादा जिणा उवणमंति सेलेसिं।2111।=आयु के समान ही अन्य कर्मों की स्थिति को धारण करने वाले केवली समुद्घात किये बिना संपूर्ण शीलों के धारक बनते हैं।2110। जिनके वेदनीय नाम व गोत्रकर्म की स्थिति अधिक रहती है वे केवली भगवान् समुद्घात के द्वारा आयुकर्म की बराबरी की स्थिति करते हैं, इस प्रकार वे संपूर्ण शीलों के धारक बनते हैं।2111। ( सर्वार्थसिद्धि/9/44/457/1); ( धवला 1/1,1,60/168/304); ( ज्ञानार्णव/42/42); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/153/7)
धवला 1/1,1,60/302/6 के न समुद्घातयंति। येषां संसृतिव्यक्ति: कर्मस्थित्या समाना ते न समुद्घातयंति, शेषा: समुद्घातयंति।=प्रश्न—कौन से केवली समुद्घात नहीं करते हैं? उत्तर—जिनकी संसार-व्यक्ति अर्थात् संसार में रहने का काल वेदनीय आदि तीन कर्मों की स्थिति के समान है वे समुद्घात नहीं करते हैं, शेष केवली करते हैं।
- कर्मों की स्थिति बराबर करने का विधिक्रम
धवला 6/1,9-8,16/412-417/4 पढमसमए...ट्ठिदिए असंखेज्जे भागे हणदि। सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंते भागे हणदि (412/4)। विदियसमए...तम्हि सेसिगाए ट्ठिदीए असंखेज्जे भागे हणदि। सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंते भागे हणदि। तदो तदियसमए मंथं करेदि। ट्ठिदि-अणुभागे तहेव णिज्जरयदि। तदो चउत्थसमए...लोगे पूण्णे एक्का वग्गणा जोगस्स समजोगजादसमए। ट्ठिदिअणुभागे तहेव णिज्जरयदि। लोगे पुण्णे, अंतोमुहुत्तट्ठिदिं (413/1) ठवेदि संखेज्जगुणमाउआदो।...एत्तो सेसियाए ट्ठिदीए संखेज्जे भागे हणदि।...एत्तो अंत्तोमुहुत्तं गंतूण कायजोग...वचिजोगं...सुहुमउस्सासं णिरुं भदि (414/1)। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण...इमाणि करणाणि करेदि—पढमसमय अपूव्वफद्दयाणि करेदि पुव्वफद्दयाण हेट्ठादो (415/1) एत्तो अंतोमुहुत्तं किट्टीओ करेदि (416/1)। जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउसमाणि कम्माणि भवंति (417/1)।=प्रथम समये में...आयु को छोड़कर शेष तीन अघातिया कर्मों की स्थिति के असंख्यात बहुभाग को नष्ट करते हैं इसके अतिरिक्त क्षीणकषाय के अंतिम समय में घातने से शेष रहे अप्रशस्त प्रकृति संबंधी अनुभाग के अनंत बहुभाग को भी नष्ट करते हैं। द्वितीय समय में शेष स्थिति के असंख्यात बहुभाग को नष्ट करते हैं तथा अप्रशस्त प्रकृतियों के शेष अनुभाग के भी अनंत बहुभाग को नष्ट करते हैं। पश्चात् तृतीय समय में प्रतर संज्ञित मंथसमुद्घात को करते हैं। इस समुद्घात में भी स्थिति व अनुभाग को पूर्व के समान ही नष्ट करते हैं। तत्पश्चात् चतुर्थ समय में...लोकपूरण समुद्घात में समयोग हो जाने पर योग की एक वर्गणा हो जाती है। इस अवस्था में भी स्थिति और अनुभाग को पूर्व के ही समान नष्ट करते हैं। लोकपूरण समुद्घात में आयु से संख्यातगुणी अंतर्मुहूर्त मात्र स्थिति को स्थापित करता है।...उतरने के प्रथम समय से लेकर शेष स्थिति के संख्यात बहुभाग को, तथा शेष अनुभाग के अनंत बहुभाग को भी नष्ट करता है।...यहाँ अंतर्मुहूर्त जाकर तीनों योग...उच्छ्वास का निरोध करता है...पश्चात् अपूर्व स्पर्धककरण करता है...पश्चात्...अंतर्मुहूर्तकाल तक कृष्टियों को करता है।...फिर अपूर्व स्पर्धकों को करता है।...योग का निरोध हो जाने पर तीन अघातिया कर्म आयु के सदृश हो जाते हैं। (धवला 11/4,2,6,20/133-134); (क्षपणासार/623-644)।
- स्थिति बराबर करने के लिए इसकी आवश्यकता क्यों
धवला 1/1,1,60/302/9 संसारविच्छित्ते: किं कारणम् । द्वादशांगावगम: तत्तीव्रभक्ति: केवलिसमुद्घातोऽनिवृत्तिपरिणामाश्च। न चैते सर्वेषु संभवंति दशनवपूर्वधारिणामपि क्षपकश्रेण्यारोहणदर्शनात् । न तत्र संसारसमानकर्मस्थितय: समुद्घातेन बिना स्थितिकांडकानि अंतर्मुहूर्तेन निपतनस्वभावानि पल्योपमस्यासंख्येयाभागायतानि संख्येयावलिकायतानि च निपातयंत: आयु:समानि कर्माणि कुर्वंति। अपरे समुद्घातेन समानयंति। न चैष संसारघात: केवलिनि प्राक् संभवति स्थितिकांडघातवत्समानपरिणामत्वात् ।=प्रश्न–संसार के विच्छेद का क्या कारण है? उत्तर—द्वादशांग का ज्ञान, उनमें तीव्र भक्ति, केवलिसमुद्घात और अनिवृत्तिरूप परिणाम ये सब संसार के विच्छेद के कारण हैं। परंतु ये सब कारण समस्त जीवों में संभव नहीं हैं, क्योंकि, दशपूर्व और नौपूर्व के धारी जीवों का भी क्षपक श्रेणी पर चढ़ना देखा जाता है। अत: वहाँ पर संसार-व्यक्ति के समान कर्म स्थिति पायी नहीं जाती है। इस प्रकार अंतर्मुहूर्त में नियम से नाश को प्राप्त होने वाले पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण या संख्यात आवली प्रमाण स्थिति कांडकों का विनाश करते हुए कितने ही जीव समुद्घात के बिना ही आयु के समान शेष तीन कर्मों को कर लेते हैं। तथा कितने ही जीव समुद्घात के द्वारा शेष कर्मों को आयु के समान करते हैं। परंतु यह संसार का घात केवली से पहले संभव नहीं है, क्योंकि, पहले स्थिति कांडक के घात के समान सभी जीवों के समान परिणाम पाये जाते हैं।
- समुद्घात रहित जीव की स्थिति समान कैसे होती है
धवला 13/5,4,31/152/1 केवलिसमुग्घादेण विणा कधं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तट्ठिदीए घादो जायदे। ण ट्ठिदिखंडयघादेण तग्घादुववत्तीदो।=प्रश्न—जिन जीवों के केवलिसमुद्घात नहीं होता उनके केवलिसमुद्घात हुए बिना पल्य के असंख्यातवें भागमात्र स्थिति का घात कैसे होता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि स्थितिकांडक घात के द्वारा उक्त स्थिति का घात बन जाता है।
- 9वें गुणस्थान में ही परिणामों की समानता होने पर स्थिति की असमानता क्यों?
धवला/1/1,1,60/302/7 अनिवृत्त्यादिपरिणामेषु समानेषु सत्सु किमिति स्थित्योर्वैषम्यम् । न, व्यक्तिस्थितिघातहेतुष्वनिवृत्तपरिणामेषु समानेषु सत्सु संसृतेस्तत्समानत्वविरोधात् । प्रश्न—अनिवृत्ति आदि परिणामों के समान रहने पर संसार—व्यक्ति स्थिति और शेष तीन कर्मों की स्थिति में विषमता क्यों रहती है? उत्तर—नहीं, क्योंकि संसार की व्यक्ति और कर्मस्थिति के घात के कारणभूत परिणामों के समान रहने पर संसार को उसके अर्थात् तीन कर्मों की स्थिति के समान मान लेने में विरोध आता है।
- केवली समुद्घात सामान्य का लक्षण
(1) केवलज्ञान धारी मुनि-अर्हंतदेव । पंचमकाल में भगवान् महावीर के बाद ऐसे तीन केवली मुनि हुए है― इंद्रभूति (गौतम), सुधर्माचार्य और जंबू ये त्रिकाल संबंधी समस्त पदार्थों के ज्ञाता और द्रष्टा होते हैं । सिद्धौ के दर्शन ज्ञान और सुख को संपूर्ण रूप से ये ही जानते हैं । महापुराण 2.61, पद्मपुराण - 105.197-199 हरिवंशपुराण - 1.58-60 (2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.112