वनस्पति: Difference between revisions
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<li> प्रत्येक वनस्पति में जीव समासों का स्वामित्व ।< | <li> प्रत्येक वनस्पति में जीव समासों का स्वामित्व ।<strong> देखें [[ वनस्पति#1.1 | वनस्पति - 1.1 ]]। <br /> | ||
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<li> निर्वृत्त्यपर्याप्त दशा में प्रत्येक वनस्पति में सासादन गुणस्थान की संभावना ।<strong>−</strong>देखें [[ सासादन#1 | सासादन - 1 ]]। <br /> | <li> निर्वृत्त्यपर्याप्त दशा में प्रत्येक वनस्पति में सासादन गुणस्थान की संभावना ।<strong>−</strong>देखें [[ सासादन#1.9 | सासादन - 1.9 ]]। <br /> | ||
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<li> मार्गणा प्रकरण में भाव मार्गणा की इष्टता तथा वहाँ आय के अनुसार व्यय होने का नियम ।<strong>−</strong>देखें [[ मार्गणा ]]। <br /> | <li> मार्गणा प्रकरण में भाव मार्गणा की इष्टता तथा वहाँ आय के अनुसार व्यय होने का नियम ।<strong>−</strong>देखें [[ मार्गणा#6 | मार्गणा 6]]। <br /> | ||
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<li> जितने जीव मुक्त होते हैं, उतने ही नित्य निगोद से निकलते हैं ।−देखें [[ मोक्ष#2 | मोक्ष - 2 ]]। <br /> | <li> जितने जीव मुक्त होते हैं, उतने ही नित्य निगोद से निकलते हैं ।−देखें [[ मोक्ष#2.5 | मोक्ष - 2.5 ]]। <br /> | ||
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<li> नित्यमुक्त रहते भी निगोद राशि का अंत नहीं ।−देखें [[ मोक्ष#6 | मोक्ष - 6 ]]। <br /> | <li> नित्यमुक्त रहते भी निगोद राशि का अंत नहीं ।−देखें [[ मोक्ष#6.6 | मोक्ष - 6.6 ]]। <br /> | ||
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<li> क्षीणकषाय जीव के शरीर में जीवों का हानिक्रम ।−देखें [[ क्षीणकषाय ]]। <br /> | <li> क्षीणकषाय जीव के शरीर में जीवों का हानिक्रम ।−देखें [[ क्षीणकषाय#4 | क्षीणकषाय 4]]। <br /> | ||
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<li>[[प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित | <li>[[प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर परिचय #3.5 | कंद-मूल आदि सभी वनस्पतियाँ प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित दोनों प्रकार की होती हैं । ]]<br /> | ||
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<li>[[प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित | <li>[[प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर परिचय #3.6 | अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिस्कंध में भी संख्यात या असंख्यात जीव होते हैं । ]]<br /> | ||
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<li>[[प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित | <li>[[प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर परिचय #3.7 | प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिस्कंध में अनंत जीवों के शरीर की रचना विशेष । ]]<br /> | ||
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<li> साधारण नामकर्म की बंध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ ।−देखें [[ | <li> साधारण नामकर्म की बंध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ ।−देखें [[ बंध]] ; [[ उदय ]] ; [[ सत्त्व ]]। <br /> | ||
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<li> साधारण वनस्पति जीवसमासों का स्वामित्व ।−देखें [[ वनस्पति#1.1 | वनस्पति - 1.1 ]]। <br /> | <li> साधारण वनस्पति जीवसमासों का स्वामित्व ।−देखें [[ वनस्पति#1.1 | वनस्पति - 1.1 ]]। <br /> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
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<li> जैन दर्शन में वनस्पति को भी एकेंद्रिय जीव का शरीर माना गया है । वह दो प्रकार का है<strong>−</strong>प्रत्येक व साधारण । एक जीव के शरीर को प्रत्येक और अनंतों जीवों के साझले शरीर को साधारण कहते हैं, क्योंकि उस शरीर में उन अनंतों जीवों का जन्म-मरण,श्वासोच्छ्वास आदि साधारण रूप से अर्थात् एक साथ समान रूप से होता है । एक ही शरीर में अनंतों | <li> जैन दर्शन में वनस्पति को भी एकेंद्रिय जीव का शरीर माना गया है । वह दो प्रकार का है<strong>−</strong>प्रत्येक व साधारण । एक जीव के शरीर को प्रत्येक और अनंतों जीवों के साझले शरीर को साधारण कहते हैं, क्योंकि उस शरीर में उन अनंतों जीवों का जन्म-मरण,श्वासोच्छ्वास आदि साधारण रूप से अर्थात् एक साथ समान रूप से होता है । एक ही शरीर में अनंतों जीव बसते हैं, इसलिए इस शरीर को निगोद कहते हैं, उपचार से उसमें बसने वाले जीवों को भी निगोद कहते हैं । वह निगोद भी दो प्रकार का है नित्य व इतर निगोद । जो अनादि काल से आज तक निगोद पर्याय से निकला ही नहीं, वह नित्य निगोद है और त्रसस्थावर आदि अन्य पर्यायों में घूमकर पापोदयवश पुनः-पुनः निगोद को प्राप्त होने वाले इतर निगोद हैं । प्रत्येक शरीर बादर या स्थूल ही होता है पर साधारण शरीर बादर व सूक्ष्म दोनों प्रकार का ।</li> | ||
<li> नित्य खाने-पीने के काम में आने वाली वनस्पति प्रत्येक शरीर है । वह दो प्रकार है<strong>−</strong>अप्रतिष्ठित और सप्रतिष्ठित । एक ही जीव के शरीर वाली वनस्पति अप्रतिष्ठित है और असंख्यात साधारण शरीरों के समवाय से निष्पन्न वनस्पति सप्रतिष्ठित है । तहाँ एक-एक वनस्पति के स्कंध में एक रस होकर असंख्यात साधारण शरीर होते हैं और एक-एक उस साधारण शरीर में अनंतानंत निगोद जीव वास करते हैं । सूक्ष्म साधारण शरीर या निगोद जीव लोक में सर्वत्र ठसाठस भरे हुए हैं, पर सूक्ष्म होने से हमारे ज्ञान के विषय नहीं हैं । संतरा, | <li> नित्य खाने-पीने के काम में आने वाली वनस्पति प्रत्येक शरीर है । वह दो प्रकार है<strong>−</strong>अप्रतिष्ठित और सप्रतिष्ठित । एक ही जीव के शरीर वाली वनस्पति अप्रतिष्ठित है और असंख्यात साधारण शरीरों के समवाय से निष्पन्न वनस्पति सप्रतिष्ठित है । तहाँ एक-एक वनस्पति के स्कंध में एक रस होकर असंख्यात साधारण शरीर होते हैं और एक-एक उस साधारण शरीर में अनंतानंत निगोद जीव वास करते हैं । सूक्ष्म साधारण शरीर या निगोद जीव लोक में सर्वत्र ठसाठस भरे हुए हैं, पर सूक्ष्म होने से हमारे ज्ञान के विषय नहीं हैं । संतरा, आम आदि अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति हैं और आलू, गाजर, मूली आदि सप्रतिष्ठित प्रत्येक । अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति पत्ते, फल, फूल आदि भी अत्यंत कचिया अवस्था में सप्रतिष्ठित प्रत्येक होते हैं<strong>−</strong>जैसे कौंपल । पीछे पक जाने पर अप्रतिष्ठित हो जाते हैं । अनंत जीवों की साझली काय होने से सप्रतिष्ठित प्रत्येक को अनंतकायिक भी कहते हैं । इस जाति की सर्व वनस्पति को यहाँ अभक्ष्य स्वीकार किया गया है ।</li> | ||
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Latest revision as of 13:05, 15 October 2022
सिद्धांतकोष से
- वनस्पति व प्रत्येक वनस्पति सामान्य निर्देश
- वनस्पति सामान्य के भेद ।
- प्रत्येक वनस्पति सामान्य का लक्षण ।
- प्रत्येक वनस्पति के भेद ।
- वनस्पति के लिए ही प्रत्येक शब्द का प्रयोग है ।
- मूलबीज, अग्रबीजादि के लक्षण ।
- प्रत्येक शरीर नामकर्म का लक्षण ।
- प्रत्येक शरीर वर्गणा का प्रमाण ।
- प्रत्येक शरीर नामकर्म के असंख्यात भेद हैं।>देखें नामकर्म ।
- वनस्पतिकायिक जीवों के गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान के स्वामित्व संबंधी 20 प्ररूपणाएँ।
सत् ।
- वनस्पतिकायिक जीवों की सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ ।।
- वनस्पतिकायिक जीवों में कर्मों का बंध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ ।−देखें बंध ; उदय ; सत्त्व ।
- प्रत्येक नामकर्म की बंध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ ।।
- प्रत्येक वनस्पति में जीव समासों का स्वामित्व । देखें वनस्पति - 1.1 ।
- निर्वृत्त्यपर्याप्त दशा में प्रत्येक वनस्पति में सासादन गुणस्थान की संभावना ।−देखें सासादन - 1.9 ।
- मार्गणा प्रकरण में भाव मार्गणा की इष्टता तथा वहाँ आय के अनुसार व्यय होने का नियम ।−देखें मार्गणा 6।
- उदंबर फल ।−देखें उदंबर ।
- वनस्पति में भक्ष्याभक्ष्य विचार−देखें भक्ष्याभक्ष्य - 4 ।
- वनस्पतिकायिकों का लोक में अवस्थान ।−देखें स्थावर 9 ।
- वनस्पति सामान्य के भेद ।
- निगोद निर्देश
- निगोद सामान्य का लक्षण ।
- निगोद जीवों के भेद ।
- नित्य व अनित्य निगोद के लक्षण ।
- सूक्ष्म वनस्पति तो निगोद ही है पर सूक्ष्म निगोद वनस्पतिकायिक ही नहीं है ।
- प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति को उपचार से सूक्ष्म निगोद भी कह देते हैं ।
- प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति को उपचार से बादर निगोद भी कह देते हैं ।
- साधारण जीवों को ही निगोद जीव कहते हैं ।
- विग्रहगति में निगोदिया जीव साधारण ही होते हैं प्रत्येक नहीं ।
- निगोदिया जीव का आकार ।
- सूक्ष्म व बादर निगोद वर्गणाएँ व उनका लोक में अवस्थान ।
- निगोद से निकलकर सीधी मुक्ति प्राप्त करने संबंधी ।−देखें जन्म - 5.5 ।
- जितने जीव मुक्त होते हैं, उतने ही नित्य निगोद से निकलते हैं ।−देखें मोक्ष - 2.5 ।
- नित्यमुक्त रहते भी निगोद राशि का अंत नहीं ।−देखें मोक्ष - 6.6 ।
- निगोद सामान्य का लक्षण ।
- प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर परिचय
- प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित प्रत्येक के लक्षण ।
- प्रत्येक वनस्पति बादर ही होती है ।
- वनस्पति में ही साधारण जीव होते हैं पृथिवी आदि में नहीं ।
- पृथिवी आदि देव, नारकी, तीर्थंकर आदि प्रत्येक शरीरी ही होते हैं ।
- क्षीणकषाय जीव के शरीर में जीवों का हानिक्रम ।−देखें क्षीणकषाय 4।
- प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित प्रत्येक के लक्षण ।
- साधारण वनस्पति परिचय
- साधारण व प्रत्येक शरीर नामकर्म के असंख्यात भेद हैं−देखें नामकर्म ।
- साधारण वनस्पति के भेद ।−देखें वनस्पति - 2.2 ।
- बोने के अंतर्मुहूर्त पर्यंत सभी वनस्पति अप्रतिष्ठित प्रत्येक होती हैं ।
- कचिया अवस्था में सभी वनस्पतियाँ प्रतिष्ठित प्रत्येक होती हैं ।
- प्रत्येक व साधारण वनस्पति का सामान्य परिचय ।
- प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर बादर जीवों का योनि स्थान है, सूक्ष्म का नहीं ।−देखें वनस्पति - 2.10 ।
- साधारण नामकर्म की बंध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ ।−देखें बंध ; उदय ; सत्त्व ।
- साधारण वनस्पति जीवसमासों का स्वामित्व ।−देखें वनस्पति - 1.1 ।
- साधारण व प्रत्येक शरीर नामकर्म के असंख्यात भेद हैं−देखें नामकर्म ।
- साधारण शरीर में जीवों का उत्पत्ति क्रम
- निगोद शरीर में जीवों की उत्पत्ति क्रम से होती है ।
- निगोद शरीर में जीवों की उत्पत्ति क्रम व अक्रम दोनों प्रकार से होती है ।
- जन्म मरण के क्रम व अक्रम संबंधी समन्वय ।−देखें वनस्पति - 5.2 ।
- आगे पीछे उत्पन्न होकर भी उनकी पर्याप्ति युगपत् होती है ।
- एक ही निगोद शरीर में जीवों के आवागमन का प्रवाह चलता रहता है ।
- बीजवाला ही जीव या अन्य कोई भी जीव उस योनि स्थान में जन्म धारण कर सकता है ।
−देखें जन्म - 2 ।
- निगोद शरीर में जीवों की उत्पत्ति क्रम से होती है ।
पुराणकोष से
- जैन दर्शन में वनस्पति को भी एकेंद्रिय जीव का शरीर माना गया है । वह दो प्रकार का है−प्रत्येक व साधारण । एक जीव के शरीर को प्रत्येक और अनंतों जीवों के साझले शरीर को साधारण कहते हैं, क्योंकि उस शरीर में उन अनंतों जीवों का जन्म-मरण,श्वासोच्छ्वास आदि साधारण रूप से अर्थात् एक साथ समान रूप से होता है । एक ही शरीर में अनंतों जीव बसते हैं, इसलिए इस शरीर को निगोद कहते हैं, उपचार से उसमें बसने वाले जीवों को भी निगोद कहते हैं । वह निगोद भी दो प्रकार का है नित्य व इतर निगोद । जो अनादि काल से आज तक निगोद पर्याय से निकला ही नहीं, वह नित्य निगोद है और त्रसस्थावर आदि अन्य पर्यायों में घूमकर पापोदयवश पुनः-पुनः निगोद को प्राप्त होने वाले इतर निगोद हैं । प्रत्येक शरीर बादर या स्थूल ही होता है पर साधारण शरीर बादर व सूक्ष्म दोनों प्रकार का ।
- नित्य खाने-पीने के काम में आने वाली वनस्पति प्रत्येक शरीर है । वह दो प्रकार है−अप्रतिष्ठित और सप्रतिष्ठित । एक ही जीव के शरीर वाली वनस्पति अप्रतिष्ठित है और असंख्यात साधारण शरीरों के समवाय से निष्पन्न वनस्पति सप्रतिष्ठित है । तहाँ एक-एक वनस्पति के स्कंध में एक रस होकर असंख्यात साधारण शरीर होते हैं और एक-एक उस साधारण शरीर में अनंतानंत निगोद जीव वास करते हैं । सूक्ष्म साधारण शरीर या निगोद जीव लोक में सर्वत्र ठसाठस भरे हुए हैं, पर सूक्ष्म होने से हमारे ज्ञान के विषय नहीं हैं । संतरा, आम आदि अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति हैं और आलू, गाजर, मूली आदि सप्रतिष्ठित प्रत्येक । अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति पत्ते, फल, फूल आदि भी अत्यंत कचिया अवस्था में सप्रतिष्ठित प्रत्येक होते हैं−जैसे कौंपल । पीछे पक जाने पर अप्रतिष्ठित हो जाते हैं । अनंत जीवों की साझली काय होने से सप्रतिष्ठित प्रत्येक को अनंतकायिक भी कहते हैं । इस जाति की सर्व वनस्पति को यहाँ अभक्ष्य स्वीकार किया गया है ।