आयु: Difference between revisions
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<p class="HindiText">= बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह वाले का भाव नरकायु का आस्रव है ॥15॥ शीलरहित और ब्रतरहित होना सब आयुओं का आस्रव है ॥19॥ | <p class="HindiText">= बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह वाले का भाव नरकायु का आस्रव है ॥15॥ शीलरहित और ब्रतरहित होना सब आयुओं का आस्रव है ॥19॥ | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/ अध्याय संख्या 6/15/333/6</span> <p class="SanskritText">हिंसादिक्रूरकर्माजस्रप्रवर्तनपरस्वहरणविषयातिगृद्धिकृष्णलेश्याभिजातरौद्रध्यानमरणकालतादिलक्षणो नारकस्यायुष आस्रवो भवति। | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/ अध्याय संख्या 6/15/333/6</span> <p class="SanskritText">हिंसादिक्रूरकर्माजस्रप्रवर्तनपरस्वहरणविषयातिगृद्धिकृष्णलेश्याभिजातरौद्रध्यानमरणकालतादिलक्षणो नारकस्यायुष आस्रवो भवति। | ||
<p class="HindiText">= हिंसादि क्रूर | <p class="HindiText">= हिंसादि क्रूर कार्यो में निरंतर प्रवृत्ति, दूसरे के धन का हरण, इंद्रियों के विषयो में अत्यंत आसक्ति, तथा मरने के समय कृष्ण लेश्या और रौद्रध्यान आदि नरकायु के आस्रव हैं।</p> | ||
<span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 2/293-294</span><p class="PrakritGatha"> आउस्स बंधसमए सिलोव्व सेलो वेणूमूले य। किमिरायकसायाणं उदयम्मि बंधेदि णिरयाउ ॥293॥ किण्हाय णीलकाऊणुदयादो बंधिऊण णिरयाऊ। मरिऊण ताहिं जुत्तो पावइ णिरयं महावीरं ॥294॥ | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 2/293-294</span><p class="PrakritGatha"> आउस्स बंधसमए सिलोव्व सेलो वेणूमूले य। किमिरायकसायाणं उदयम्मि बंधेदि णिरयाउ ॥293॥ किण्हाय णीलकाऊणुदयादो बंधिऊण णिरयाऊ। मरिऊण ताहिं जुत्तो पावइ णिरयं महावीरं ॥294॥ | ||
<p class="HindiText">= आयु बंध के समय सिल की रेखा के समान क्रोध, | <p class="HindiText">= आयु बंध के समय सिल की रेखा के समान क्रोध, शैल के समान मान, बाँस की जड़ के समान माया, और कृमिराग के समान लोभ कषाय का उदय होने पर नरक आयु का बंध होता है ॥293॥ कृष्ण, नील अथवा कापोत इन तीन लेश्याओं का उदय होने से नरकायु को बांधकर और मरकर उन्हीं लेश्याओं से युक्त होकर महाभयानक नरक को प्राप्त करता है ॥294॥</p> | ||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसार/ अधिकार संख्या 4/30-34</span> <p class="SanskritText">उत्कृष्टमानता शैलराजीसदृशरोषता। मिथ्यात्वं तीव्रलोभत्वं नित्यं निरनुकंपता ॥30॥ अजस्रं जीवघातित्वं सततानृतवादिता। परस्वहरणं नित्यं नित्यं मैथुनसेवनम् ॥31॥ कामभोगाभिलाषाणां नित्यं चातिप्रवृद्धता। जिनस्यासादनं साधुसमयस्य च भेदनम् ॥32॥ मार्जारताम्रचूड़ादिपापीयः प्राणिपोषणम्। नैः शील्यं च महारंभपरिग्रहतया सह ॥33॥ कृष्णलेश्यापरिणतं रौद्रध्यानं चतुर्विधम्। आयुषो नारकस्येति भवंत्यास्रवहेतवः ॥34॥ | <span class="GRef">तत्त्वार्थसार/ अधिकार संख्या 4/30-34</span> <p class="SanskritText">उत्कृष्टमानता शैलराजीसदृशरोषता। मिथ्यात्वं तीव्रलोभत्वं नित्यं निरनुकंपता ॥30॥ अजस्रं जीवघातित्वं सततानृतवादिता। परस्वहरणं नित्यं नित्यं मैथुनसेवनम् ॥31॥ कामभोगाभिलाषाणां नित्यं चातिप्रवृद्धता। जिनस्यासादनं साधुसमयस्य च भेदनम् ॥32॥ मार्जारताम्रचूड़ादिपापीयः प्राणिपोषणम्। नैः शील्यं च महारंभपरिग्रहतया सह ॥33॥ कृष्णलेश्यापरिणतं रौद्रध्यानं चतुर्विधम्। आयुषो नारकस्येति भवंत्यास्रवहेतवः ॥34॥ | ||
<p class="HindiText">= कठोर पत्थर के | <p class="HindiText">= कठोर पत्थर के समान तीव्र मान, पर्वतमालाओं के समान अभेद्य क्रोध रखना, मिथ्यादृष्टि होना, तीव्र लोभ होना सदा निर्दयी बने रहना, सदा मिथ्यादृष्टि होना, तीव्र लोभ होना, सदा जीवघात करना, सदा ही झूठ बोलने में प्रेम मानना, सदा परधन हरने में लगे रहना, नित्य मैथुन सेवन करना, काम भोगों की अभिलाषा सदा ही जाज्वल्यमान रखना, जिन भगवान की आसादना करना, साधु धर्म का उच्छेद करना, बिल्ली, कुत्ते, मुर्गे इत्यादि पापी प्राणियों को पालना, शीलव्रत रहित बने रहना और आरंभ परिग्रह को अति बढ़ाना, कृष्ण लेश्या रहना, चारों रौद्रध्यान में लगे रहना, इतने अशुभ कर्म नरकायु के आस्रव हेतु हैं। अर्थात् जिन कर्मों को क्रूरकर्म कहते हैं और जिन्हें व्यसन कहते हैं, वे सभी नरकायु के कारण हैं। | ||
(<span class="GRef">राजवार्तिक / अध्याय संख्या 6/15/3/525/31</span>) (<span class="GRef">महापुराण/ सर्ग संख्या 10/22-27</span>)</p> | (<span class="GRef">राजवार्तिक / अध्याय संख्या 6/15/3/525/31</span>) (<span class="GRef">महापुराण/ सर्ग संख्या 10/22-27</span>)</p> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 804/982</span><p class="PrakritGatha"> मिच्छी हु महारंभी णिस्सीलो तिव्वलोहसंजुत्तो। णिरयाउगं णिबंधइ पावमई रुद्दपरिणाम ॥804॥ | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 804/982</span><p class="PrakritGatha"> मिच्छी हु महारंभी णिस्सीलो तिव्वलोहसंजुत्तो। णिरयाउगं णिबंधइ पावमई रुद्दपरिणाम ॥804॥ | ||
<p class="HindiText">= जो जीव मिथ्यातरूप मिथ्यादृष्टि होइ, | <p class="HindiText">= जो जीव मिथ्यातरूप मिथ्यादृष्टि होइ, बहु आरंभी होइ, शील रहित होइ, तीव्र लोभ संयुक्त होइ, रौद्र परिणामी होइ, पाप कार्य विषैं जाकी बुद्धि होइ सो जीव नरकायु को बाँधे है। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">नरकायु | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">नरकायु विशेष के बंध योग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 2/296,298,301</span><p class="PrakritGatha"> धम्मदयापरिचत्तो अमुक्करो पयंडकलहयरो। बहुकोही किण्हाए जम्मदि धूमादि चरिमंते ॥296॥ ...बहुसण्णा णीलाए जम्मदि तं चेव धूमंतं ॥298॥ काऊए संजुत्तो जम्मदि घम्मादिमेघंतं ॥30॥ | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 2/296,298,301</span><p class="PrakritGatha"> धम्मदयापरिचत्तो अमुक्करो पयंडकलहयरो। बहुकोही किण्हाए जम्मदि धूमादि चरिमंते ॥296॥ ...बहुसण्णा णीलाए जम्मदि तं चेव धूमंतं ॥298॥ काऊए संजुत्तो जम्मदि घम्मादिमेघंतं ॥30॥ | ||
<p class="HindiText">= दया, धर्म से रहित, वैर को न छोड़ने वाला, प्रचंड कलह करने वाला और बहुत क्रोधी जीव कृष्ण लेश्या के साथ धूमप्रभा से लेकर अंतिम पृथ्वी तक जन्म लेता है ॥296॥...आहारादि चारों संज्ञाओं में आसक्त ऐसा जीव नील लेश्या के साथ धूमप्रभा पृथ्वी तक में जन्म लेता है ॥298॥ ....। कापोत लेश्या से संयुक्त होकर घर्मा से लेकर मेघा पृथ्वी तक में जन्म लेता है। | <p class="HindiText">= दया, धर्म से रहित, वैर को न छोड़ने वाला, प्रचंड कलह करने वाला और बहुत क्रोधी जीव कृष्ण लेश्या के साथ धूमप्रभा से लेकर अंतिम पृथ्वी तक जन्म लेता है ॥296॥...आहारादि चारों संज्ञाओं में आसक्त ऐसा जीव नील लेश्या के साथ धूमप्रभा पृथ्वी तक में जन्म लेता है ॥298॥ ....। कापोत लेश्या से संयुक्त होकर घर्मा से लेकर मेघा पृथ्वी तक में जन्म लेता है। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5">कर्मभूमिज तिर्यंच आयु के बंध योग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5">कर्मभूमिज तिर्यंच आयु के बंध योग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र/ अध्याय संख्या 6/16</span> <p class="SanskritText">माया तैर्यग्योनस्य ॥16॥ | <span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र/ अध्याय संख्या 6/16</span> <p class="SanskritText">माया तैर्यग्योनस्य ॥16॥ | ||
<p class="HindiText">= माया | <p class="HindiText">= माया तिर्यंचायु का आस्रव है।</p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/ अध्याय संख्या 6/16/334/3</span> <p class="SanskritText">तत्प्रपंचो मिथ्यात्वोपेतधर्मदेशना निःशीलतातिसंधानप्रियता नीलकापोतलेश्यार्तध्यानमरणकालतादिः। | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/ अध्याय संख्या 6/16/334/3</span> <p class="SanskritText">तत्प्रपंचो मिथ्यात्वोपेतधर्मदेशना निःशीलतातिसंधानप्रियता नीलकापोतलेश्यार्तध्यानमरणकालतादिः। | ||
<p class="HindiText">= | <p class="HindiText">= धर्मोपदेश में मिथ्या बातों को मिलाकर उनका प्रचार करना, शीलरहित जीवन बिताना, अति संधानप्रियता तथा मरण के समय नील व कापोत लेश्या और आर्त ध्यान का होना आदि तिर्यंचायु के आस्रव हैं।</p> | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक / अध्याय संख्या 6/16/526/8</span> <p class="SanskritText">प्रपंचस्त-मिथ्यात्वोपष्टंभा-धर्मदेशना-नल्पारंभपरिग्रहा-तिनिकृति-कूटकर्मा-वनिभेदसद्दश-रोषनिःशीलता-शब्दलिंगवंचना-तिसंधानप्रियता-भेदकरणा-नर्थोद्भावन-वर्णगंध-रसस्पर्शान्यत्वापादन-जातिकुलशीलसंदूषण-विसंवादनाभिसंधिमिथ्याजीवित्व-सद्गुणव्यपलोपा-सद्गुणख्यापन-नीलकापोतलेश्यापरिणाम-आर्तध्यानमरणकालतादिलक्षणः प्रत्येतव्यः। | <span class="GRef">राजवार्तिक / अध्याय संख्या 6/16/526/8</span> <p class="SanskritText">प्रपंचस्त-मिथ्यात्वोपष्टंभा-धर्मदेशना-नल्पारंभपरिग्रहा-तिनिकृति-कूटकर्मा-वनिभेदसद्दश-रोषनिःशीलता-शब्दलिंगवंचना-तिसंधानप्रियता-भेदकरणा-नर्थोद्भावन-वर्णगंध-रसस्पर्शान्यत्वापादन-जातिकुलशीलसंदूषण-विसंवादनाभिसंधिमिथ्याजीवित्व-सद्गुणव्यपलोपा-सद्गुणख्यापन-नीलकापोतलेश्यापरिणाम-आर्तध्यानमरणकालतादिलक्षणः प्रत्येतव्यः। | ||
<p class="HindiText">= मिथ्यात्वयुक्त अधर्म का उपदेश, बहु आरंभ, | <p class="HindiText">= मिथ्यात्वयुक्त अधर्म का उपदेश, बहु-आरंभ, बहु-परिग्रह, अतिवंचना, कूटकर्म, पृथ्वी की रेखा के समान रोषादि, निःशीलता, शब्द और संकेतादि से परिवंचना का षड्यंत्र, छल-प्रपंच की रुचि, भेद उत्पन्न करना, अनर्थोद्भावन, वर्ण, रस, गंध आदि को विकृत करने की अभिरुचि, जातिकुलशीलसंदूषण, विसंवाद रुचि, मिथ्याजीवित्व, सद्गुण लोप, असद्गुणख्यापन, नील-कापोत लेश्या रूप परिणाम, आर्तध्यान, मरण समय में आर्त-रौद्र परिणाम इत्यादि तिर्यंचायु के आस्रव के कारण हैं। | ||
(<span class="GRef">तत्त्वार्थसार/ अधिकार संख्या 4/35-39</span>) (और भी देखो आगे [[आयु#3.12| आयु - 3.12]]) </p> | (<span class="GRef">तत्त्वार्थसार/ अधिकार संख्या 4/35-39</span>) (और भी देखो आगे [[आयु#3.12| आयु - 3.12]]) </p> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड/ मूल गाथा संख्या 805/982 </span><p class="PrakritGatha">उम्मग्गदेसगो मग्गणासगो गूढहियमाइल्लो। सठसीलो य ससल्लो तिरियाउं बंधदे जीवो ॥805॥ | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड/ मूल गाथा संख्या 805/982 </span><p class="PrakritGatha">उम्मग्गदेसगो मग्गणासगो गूढहियमाइल्लो। सठसीलो य ससल्लो तिरियाउं बंधदे जीवो ॥805॥ | ||
<p class="HindiText">= जो जीव विपरीत | <p class="HindiText">= जो जीव विपरीत मार्ग का उपदेशक होई, भलामार्ग का नाशक होई, गूढ और जानने में न ऐवे ऐसा जाका हृदय परिणाम होइ, मायावी कष्टी होई अर शठ मूर्खता संयुक्त जाका सहज स्वभाव होई, शल्यकरि संयुक्त होइ सो जीव तिर्यंच आयु को बाँधै है। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6">भोग भूमिज तिर्यंच | <li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6">भोग भूमिज तिर्यंच आयु के बंधयोग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 4/372-374 </span><p class="PrakritGatha">दादूण केइ दाणं पत्तविसेसेसु के वि दाणाणं अणमोदणेण तिरिया भोगखिदीए वि जायंति ॥372॥ गहिदूण जिणलिंगं संजमसम्मत्तभावपरिचत्ता। मायाचारपयट्टा चारित्तं णसयंति जे पावा ॥373॥ दादूण कुलंगीणं णाणादाणाणि जे णरा मुद्धा। तव्वेसधरा केई भोगमहीए हुवंति ते तिरिया ॥374॥ | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 4/372-374 </span><p class="PrakritGatha">दादूण केइ दाणं पत्तविसेसेसु के वि दाणाणं अणमोदणेण तिरिया भोगखिदीए वि जायंति ॥372॥ गहिदूण जिणलिंगं संजमसम्मत्तभावपरिचत्ता। मायाचारपयट्टा चारित्तं णसयंति जे पावा ॥373॥ दादूण कुलंगीणं णाणादाणाणि जे णरा मुद्धा। तव्वेसधरा केई भोगमहीए हुवंति ते तिरिया ॥374॥ | ||
<p class="HindiText">= कोई पात्र विशेषों को दान देकर और कोई दानों की अनुमोदना करके तिर्यंच भी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं ॥372॥ जो पापी जिनलिंग को (मुनिव्रत) को ग्रहण करके संयम एवं सम्यक्त्व भाव को छोड़ देते हैं और पश्चात् मायाचार में प्रवृत्त होकर चारित्र को नष्ट कर देते हैं; तथा जो कोई मूर्ख मनुष्य कुलिंगियों को नाना प्रकार के दान देते हैं या उनके भेष को धारण करते हैं वे भोग-भूमि में तिर्यंच होते हैं। | <p class="HindiText">= कोई पात्र विशेषों को दान देकर और कोई दानों की अनुमोदना करके तिर्यंच भी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं ॥372॥ जो पापी जिनलिंग को (मुनिव्रत) को ग्रहण करके संयम एवं सम्यक्त्व भाव को छोड़ देते हैं और पश्चात् मायाचार में प्रवृत्त होकर चारित्र को नष्ट कर देते हैं; तथा जो कोई मूर्ख मनुष्य कुलिंगियों को नाना प्रकार के दान देते हैं या उनके भेष को धारण करते हैं वे भोग-भूमि में तिर्यंच होते हैं। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7">कर्मभूमिज मनुष्यायु के | <li><span class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7">कर्मभूमिज मनुष्यायु के बंध योग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र/ अध्याय संख्या 6/17-18</span> <p class="SanskritText">अल्पारंभपरिग्रहत्वं मानुषस्य ॥17॥ स्वभावमार्दव च ॥18॥ | <span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र/ अध्याय संख्या 6/17-18</span> <p class="SanskritText">अल्पारंभपरिग्रहत्वं मानुषस्य ॥17॥ स्वभावमार्दव च ॥18॥ | ||
<p class="HindiText">= अल्प आरंभ और अल्प परिग्रह वाले का भाव मनुष्यायु का आस्रव है ॥17॥ स्वभाव की मृदुता भी मनुष्यायु का आस्रव हैं।</p> | <p class="HindiText">= अल्प आरंभ और अल्प परिग्रह वाले का भाव मनुष्यायु का आस्रव है ॥17॥ स्वभाव की मृदुता भी मनुष्यायु का आस्रव हैं।</p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/6/17-18/334/8</span> <p class="SanskritText">नारकायुरास्रवो व्याख्यातः। तद्विपरीतो मानुषस्यायुष इति संक्षेपः। तद्व्यासः-विनीतस्वभावः प्रकृतिभद्रता प्रगुणव्याहारता तनुकषात्यवं मरणकालासंक्लेशतादिः ॥17॥...स्वभावेन मार्दवम्। उपदेशानपेक्षमित्यर्थः। एतदपि मानुषस्यायुष आस्रवः। | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/6/17-18/334/8</span> <p class="SanskritText">नारकायुरास्रवो व्याख्यातः। तद्विपरीतो मानुषस्यायुष इति संक्षेपः। तद्व्यासः-विनीतस्वभावः प्रकृतिभद्रता प्रगुणव्याहारता तनुकषात्यवं मरणकालासंक्लेशतादिः ॥17॥...स्वभावेन मार्दवम्। उपदेशानपेक्षमित्यर्थः। एतदपि मानुषस्यायुष आस्रवः। | ||
<p class="HindiText">= नरकायु का आस्रव पहले कह आये हैं। उससे विपरीत भाव मनुष्यायु का आस्रव है। संक्षेप में यह | <p class="HindiText">= नरकायु का आस्रव पहले कह आये हैं। उससे विपरीत भाव मनुष्यायु का आस्रव है। संक्षेप में यह सूत्र का अभिप्राय है। उसका विस्तार से खुलासा इस प्रकार है-स्वभाव का विनम्र होना, भद्र प्रकृति का होना, सरल व्यवहार करना, अल्प कषाय का होना तथा मरण के समय संक्लेश रूप परिणति का नहीं होना आदि मनुष्यायु के आस्रव हैं।...स्वभाव से मार्दव स्वभाव मार्दव है। आशय यह है की बिना किसी के समझाये बुझाये मृदुता अपने जीवन में उतरी हुई हो इसमें किसी के उपदेश की आवश्यकता न पड़े। यह भी मनुष्यायु का आस्रव है। | ||
(<span class="GRef">राजवार्तिक / अध्याय संख्या 6/18/1/525/23</span>)</p> | (<span class="GRef">राजवार्तिक / अध्याय संख्या 6/18/1/525/23</span>)</p> | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक /अध्याय संख्या 6/17/526/15</span> <p class="SanskritText">मिथ्यादर्शनालिंगितामति-विनीतस्वभावताप्रकृतिभद्रता-मार्दवार्जवसमाचारसुखप्रज्ञापनीयता-बालुकाराजिसदृशरोष-प्रगुणव्यवहारप्रायताऽल्पारंभपरिग्रह-संतोषाभिरति-प्राण्युपघातविरमणप्रदोषविकर्मनिवृत्ति-स्वागताभिभाषणामौखर्यप्रकृतिमधुरता-लोकयात्रानुग्रह-औदासीन्यानुसूयाल्पसंक्लेशता-गुरुदेवता-तिथिपूजासंविभागशीलता-कपोतपीललेश्योपश्लेष-धर्मध्यानमरणका-लतादिलक्षणः। | <span class="GRef">राजवार्तिक /अध्याय संख्या 6/17/526/15</span> <p class="SanskritText">मिथ्यादर्शनालिंगितामति-विनीतस्वभावताप्रकृतिभद्रता-मार्दवार्जवसमाचारसुखप्रज्ञापनीयता-बालुकाराजिसदृशरोष-प्रगुणव्यवहारप्रायताऽल्पारंभपरिग्रह-संतोषाभिरति-प्राण्युपघातविरमणप्रदोषविकर्मनिवृत्ति-स्वागताभिभाषणामौखर्यप्रकृतिमधुरता-लोकयात्रानुग्रह-औदासीन्यानुसूयाल्पसंक्लेशता-गुरुदेवता-तिथिपूजासंविभागशीलता-कपोतपीललेश्योपश्लेष-धर्मध्यानमरणका-लतादिलक्षणः। | ||
<p class="HindiText">= भद्रमिथ्यात्व विनीत स्वभाव, | <p class="HindiText">= भद्रमिथ्यात्व विनीत स्वभाव, प्रकृति भद्रता, मार्दव आर्जव परिणाम, सुख समाचार कहने की रुचि, रेत की रेखा के समान क्रोधादि, सरल व्यवहार, अल्पपरिग्रह, संतोष सुख, हिंसाविरक्ति, दुष्ट कार्यों से निवृत्ति, स्वागत तत्परता, कम बोलना, प्रकृति मधुरता, लोकयात्रानुग्रह, औदासीन्यवृत्ति, ईर्षारहित परिणाम, अल्पसंक्लेश, देव-देवता तथा अतिथि पूजा में रुचि दानशीलता, कापोत-पीत लेश्यारूप परिणाम, मरण काल में धर्मध्यान परिणति आदि मनुष्यायु के आस्रव कारण हैं।</p> | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक /अध्याय संख्या 6/20/1527/15</span> <p class="SanskritText">अव्यक्तसामायिक-विराधितसम्यग्दर्शनता भवनाद्यायुषः महर्द्धिकमानुषस्य वा। | <span class="GRef">राजवार्तिक /अध्याय संख्या 6/20/1527/15</span> <p class="SanskritText">अव्यक्तसामायिक-विराधितसम्यग्दर्शनता भवनाद्यायुषः महर्द्धिकमानुषस्य वा। | ||
<p class="HindiText">= अव्यक्त सामायिक और सम्यग्दर्शन की विराधना आदि....महर्द्धिक मनुष्य की आयु के आस्रव के कारण हैं। | <p class="HindiText">= अव्यक्त सामायिक और सम्यग्दर्शन की विराधना आदि....महर्द्धिक मनुष्य की आयु के आस्रव के कारण हैं। | ||
(और भी देखें [[आयु#3.12 | आयु - 3.12]])</p> | (और भी देखें [[आयु#3.12 | आयु - 3.12]])</p> | ||
<span class="GRef">भगवती आराधना/ विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या 446/652/13</span> <p class="SanskritText">तत्र ये हिंसादयः परिणामा मध्यमास्ते मनुजगतिनिर्वर्तकाः बालिकाराज्या, दारुणा, गोमूत्रिकया, कर्दमरागेण च समानाः यथासंख्येन क्रोधमानमायालोभाः परिणामाः। जीवघातं कृत्वा हा दुष्टं कृतं, यथा दुःखं मरणं वास्माकं अप्रियं तथा सर्वजीवानां। अहिंसा शोभना वर्यतु असमर्था हिंसादिकं परिहर्तुमिति च परिणामः। मृषापरदोषसूचकं परगुणानामसहनं वचनं वासज्जनाचारः। साधुनामयोग्यवचने दुर्व्यापारे च प्रवृत्तानां का नाम साधुतास्माकमिति परिणामः। तथा शस्त्रप्रहारादप्यर्थः परद्रव्यापहरणं, द्रव्यविनाशो हि सकलकुटुंबविनाशो, नेतरत् तस्माद्दुष्टकृतं परधनहरणमिति परिणामः। परदारादिलंघनमस्माभिः कृतं तदतीचाशोभनं। यथास्मद्दाराणं परैर्ग्रहणे दुःखमात्मसाक्षिकं तद्वत्तेषामिति परिणामः। यथा गंगादिमहानदीनां अनवतरप्रवेशेऽपि न तृप्तिः सागरस्यैवं द्रविणेनापि जीवस्य संतोषो नास्तीति परिणामः। एवमादि परिणामानां दुर्लभता अऩुभवसिद्धैव। | <span class="GRef">भगवती आराधना/ विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या 446/652/13</span> <p class="SanskritText">तत्र ये हिंसादयः परिणामा मध्यमास्ते मनुजगतिनिर्वर्तकाः बालिकाराज्या, दारुणा, गोमूत्रिकया, कर्दमरागेण च समानाः यथासंख्येन क्रोधमानमायालोभाः परिणामाः। जीवघातं कृत्वा हा दुष्टं कृतं, यथा दुःखं मरणं वास्माकं अप्रियं तथा सर्वजीवानां। अहिंसा शोभना वर्यतु असमर्था हिंसादिकं परिहर्तुमिति च परिणामः। मृषापरदोषसूचकं परगुणानामसहनं वचनं वासज्जनाचारः। साधुनामयोग्यवचने दुर्व्यापारे च प्रवृत्तानां का नाम साधुतास्माकमिति परिणामः। तथा शस्त्रप्रहारादप्यर्थः परद्रव्यापहरणं, द्रव्यविनाशो हि सकलकुटुंबविनाशो, नेतरत् तस्माद्दुष्टकृतं परधनहरणमिति परिणामः। परदारादिलंघनमस्माभिः कृतं तदतीचाशोभनं। यथास्मद्दाराणं परैर्ग्रहणे दुःखमात्मसाक्षिकं तद्वत्तेषामिति परिणामः। यथा गंगादिमहानदीनां अनवतरप्रवेशेऽपि न तृप्तिः सागरस्यैवं द्रविणेनापि जीवस्य संतोषो नास्तीति परिणामः। एवमादि परिणामानां दुर्लभता अऩुभवसिद्धैव। | ||
<p class="HindiText">= इन (तीव्र, मध्यम व मंद) | <p class="HindiText">= इन (तीव्र, मध्यम व मंद) परिणामों में जो मध्यम हिंसादि परिणाम हैं वे मनुष्यपना के उत्पादक हैं। (तहाँ उनका मध्यम विस्तार निम्न प्रकार जानना) | ||
1. चारोँ कषायों की अपेक्षा-बालुका में खिंची हुई रेखा के मान क्रोध परिणाम, लकड़ी के समान मान परिणाम, गोमूत्राकर के समान माया परिणाम, और | 1. चारोँ कषायों की अपेक्षा-बालुका में खिंची हुई रेखा के मान क्रोध परिणाम, लकड़ी के समान मान परिणाम, गोमूत्राकर के समान माया परिणाम, और कीचड़ के रंग के समान लोभ परिणाम ऐसे परिणामों से मनुष्यपना की प्राप्ति होती है। | ||
2. हिंसा की अपेक्षा-जीव घात | 2. हिंसा की अपेक्षा-जीव घात करने पर, हा! मैंने दुष्ट कार्य किया है, जैसे दुःख व मरण हमको अप्रिय हैं संपूर्ण प्राणियों को भी उसी प्रकार वह अप्रिय हैं, जगत् में अहिंसा ही श्रेष्ठ व कल्याणकारिणी हैं। परंतु हम हिंसादिकों का त्याग करनें में असमर्थ हैं। ऐसे परिणाम.... | ||
3. असत्य की अपेक्षा-झूठे पर दोषों को कहना, दूसरों के सद्गुण देखकर | 3. असत्य की अपेक्षा-झूठे पर दोषों को कहना, दूसरों के सद्गुण देखकर मन में द्वेष करना, असत्य भाषण करना यह दुर्जनों का आचार है। साधुओं के अयोग्य ऐसे निंद्य भाषण और खोटे कामों में हम हमेशा प्रवृत्त हैं, इसलिए हममें सज्जनपना कैसा रहेगा? ऐसा पश्चात्ताप करना रूप परिणाम। | ||
4. चोरी की अपेक्षा-दूसरों का धन हरण करना, यह शस्त्रप्रहार से भी अधिक दुःखदायक है, द्रव्य का विनाश होने से सर्वकुटुंब का ही विनाश होता है, इसलिए मैंने दूसरों का धन हरण किया है सो अयोग्य कार्य हम से हुआ है, ऐसे परिणाम। | 4. चोरी की अपेक्षा-दूसरों का धन हरण करना, यह शस्त्रप्रहार से भी अधिक दुःखदायक है, द्रव्य का विनाश होने से सर्वकुटुंब का ही विनाश होता है, इसलिए मैंने दूसरों का धन हरण किया है सो अयोग्य कार्य हम से हुआ है, ऐसे परिणाम। | ||
5. ब्रह्मचर्य की अपेक्षा-हमारी स्त्री का किसी ने हरण करने पर जैसा हमको अतिशय कष्ट दिया है वैसा उनको भी होता है यह अनुभव से प्रसिद्ध है। ऐसे परिणाम होना। | 5. ब्रह्मचर्य की अपेक्षा-हमारी स्त्री का किसी ने हरण करने पर जैसा हमको अतिशय कष्ट दिया है वैसा उनको भी होता है यह अनुभव से प्रसिद्ध है। ऐसे परिणाम होना। | ||
6. परिग्रह की अपेक्षा-गंगादि नदियाँ हमेशा अपना अनंत जल लेकर समुद्र में प्रवेश करती हैं तथापि समुद्र की तृप्ति होती ही नहीं। यह मनुष्य प्राणी भी धन मिलने से तृप्त नहीं होता है। इस तरह के परिणाम दुर्लभ हैं। ऐसे परिणामों से | 6. परिग्रह की अपेक्षा-गंगादि नदियाँ हमेशा अपना अनंत जल लेकर समुद्र में प्रवेश करती हैं तथापि समुद्र की तृप्ति होती ही नहीं। यह मनुष्य प्राणी भी धन मिलने से तृप्त नहीं होता है। इस तरह के परिणाम दुर्लभ हैं। ऐसे परिणामों से मनुष्यपना की प्राप्ति होती है।</p> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 806/983</span><p class="PrakritGatha"> पयडीए तणुकसाओ दाणरदीसीलसंजमविहीणो। मज्झिमगुणेहिं जुत्तोमणुवाउं बंधदे जीवो ॥806॥ | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 806/983</span><p class="PrakritGatha"> पयडीए तणुकसाओ दाणरदीसीलसंजमविहीणो। मज्झिमगुणेहिं जुत्तोमणुवाउं बंधदे जीवो ॥806॥ | ||
<p class="HindiText">= जो जीव विचार बिना प्रकृति स्वभाव ही करि मंद कषायी होइ, दानविषै प्रीतिसंयुक्त होइ, शील संयम कर रहित होइ, न उत्कृष्ट गुण न दोष ऐसे मध्यम गुणनिकरि संयुक्त होई सो जीव मनुष्यायु कौं बाँधै हैं। | <p class="HindiText">= जो जीव विचार बिना प्रकृति स्वभाव ही करि मंद कषायी होइ, दानविषै प्रीतिसंयुक्त होइ, शील संयम कर रहित होइ, न उत्कृष्ट गुण न दोष ऐसे मध्यम गुणनिकरि संयुक्त होई सो जीव मनुष्यायु कौं बाँधै हैं। | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.9" id="3.9">सुभोग भूमिज मनुष्यायु के बंधयोग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.9" id="3.9">सुभोग भूमिज मनुष्यायु के बंधयोग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 4/365-671</span><p class="PrakritGatha"> भोगमहीए सव्वे जायंते मिच्छभावसंजुता। मंदकसायामाणवा पेसुण्णासूयदव्वपरिहीणा ॥365॥ वज्जिद मंसाहारा मधुमज्जोदुंबरेहि परिचता। सच्चजुदा मदरहिदा वारियपरदारपरिहीणा ॥366॥ गुणधरगुणेसु रत्ता जिणपूजं जे कुणंति परवसतो। उववासतणुसरीरा अज्जवपहुदींहिं संपण्णा ॥367॥ आहारदाणणिरदा जदीसु वरविविहजोगजुत्तेसुं। विमलतरसंजमेसु य विमुक्कगंथेसु भत्तीए ॥368॥ पुव्वं बद्धणराऊ पच्छा तित्थयरपादमूलम्मि। पाविदखाइससम्मा जायंते केइ भोगभूमीए ॥369॥ एवं मिच्छाइठ्ठि णिग्गंथाणं जदीण दाणाइं। दादूण पुण्णपाके भोगमही केइ जायंति ॥370॥ आहाराभयदाणं विविहोसहपोथ्ययादिदाणं। सेसे णाणोयणं दादूणं भोगभूमि जायंते ॥371॥ | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 4/365-671</span><p class="PrakritGatha"> भोगमहीए सव्वे जायंते मिच्छभावसंजुता। मंदकसायामाणवा पेसुण्णासूयदव्वपरिहीणा ॥365॥ वज्जिद मंसाहारा मधुमज्जोदुंबरेहि परिचता। सच्चजुदा मदरहिदा वारियपरदारपरिहीणा ॥366॥ गुणधरगुणेसु रत्ता जिणपूजं जे कुणंति परवसतो। उववासतणुसरीरा अज्जवपहुदींहिं संपण्णा ॥367॥ आहारदाणणिरदा जदीसु वरविविहजोगजुत्तेसुं। विमलतरसंजमेसु य विमुक्कगंथेसु भत्तीए ॥368॥ पुव्वं बद्धणराऊ पच्छा तित्थयरपादमूलम्मि। पाविदखाइससम्मा जायंते केइ भोगभूमीए ॥369॥ एवं मिच्छाइठ्ठि णिग्गंथाणं जदीण दाणाइं। दादूण पुण्णपाके भोगमही केइ जायंति ॥370॥ आहाराभयदाणं विविहोसहपोथ्ययादिदाणं। सेसे णाणोयणं दादूणं भोगभूमि जायंते ॥371॥ | ||
<p class="HindiText">= भोग | <p class="HindiText">= भोग भूमि में वे सब जीव उत्पन्न होते हैं जो मिथ्यात्व भाव से युक्त होते हुए भी, मंदकषायी हैं, पैशुन्य एवं असूयादि द्रव्यों से रहित हैं, मांसाहार के त्यागी हैं, मधु मद्य और उदुंबर फलों के भी त्यागी हैं, सत्यवादी हैं, अभिमान से रहित हैं, वेश्या और परस्त्री के त्यागी हैं, गुणियों के गुणों में अनुरक्त हैं, पराधीन होकर जिनपूजा करते हैं, उपवास से शरीर को कृश करने वाले हैं, आर्जव आदि से उत्पन्न हैं, तथा उत्तम एवं विविध प्रकार के योगों से युक्त, अत्यंत निर्मल सम्यक्त्व के धारक और परिग्रह से रहित, ऐसे यतियों को भक्ति से आहार देने में तत्पर हैं ॥365-368॥ जिन्होंने पूर्व भव में मनुष्यायु को बाँध लिया है, पश्चात् तीर्थंकर के पादमूल में क्षायिक सम्यक्दर्शन प्राप्त किया हैं, ऐसे कितने ही सम्यक्दृष्टि पुरुष भी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं ॥369॥ इस प्रकार कितने ही मिथ्यादृष्टि मनुष्य निग्रंथ यतियों को दानादि देकर पुण्य का उदय आने पर भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं ॥370॥ शेष कितने ही मनुष्य आहार दान, अभयदान, विविध प्रकार की औषध तथा ज्ञान के उपकरण पुस्तकादि के दान को देकर भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.10" id="3.10">कुभोग भूमिज मनुष्यायु के बंधयोग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.10" id="3.10">कुभोग भूमिज मनुष्यायु के बंधयोग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 4/2500-2511</span><p class="PrakritGatha"> मिच्छत्तम्मि रत्ताणं मंदकसाया पियंवदा कुडिला धम्मफलं मग्गंता मिच्छादेवेसु भत्तिपरा ॥2500॥ सुद्धोदणसलिलोदणर्कजियअसणादिकट्ठसुकिलिट्ठा। पंचग्गितवं विसमं कायकिलेसंचकुव्वंता ॥2501॥ सम्मत्तरयणहीणा कुमाणुसा लवणजलधिदीवेसुं। उपज्जंति अधण्णा अण्णाणजलम्मिज्जंता ॥2502॥ अदिमाणगव्विदा जे साहूणकुणंति किंच अवमाणं। सम्मत्ततवजुदाणं जे णिग्गंथाणं दूसणा देंति ॥2503॥ जे मायाचाररदा संजमतवजोगवज्जिदा पावा। इड्ढिरससादगारवगरुवा जे मोहभावण्णा ॥2504॥ थूलसुहुमादिचारं जे णालोचंति गुरुजणसमीवे। सज्झाय वंदणाओ जेगुरुसहिदा ण कुव्वंति ॥2505॥ जे छंडिय मुणिसंघं वसंति एकाकिणो दुराचारा। जे कोहेण य कलहं सव्वेसिंतो पकुव्वंति ॥2506॥ आहारसण्ण सत्तालोहकसाएण जणिदमोहा जे। धरि ऊण जिणलिंगं पावं कुव्वंति जे घोरं ॥2507॥ जे कुव्वंति ण भत्तिं अरहंताणं तहेव साहूणं। जे वच्छलविहीणा पाउव्वण्णम्मि संघम्मि ॥2508॥ जे गेण्हंति सुवण्णप्पहुदिं जिणलिंगं धारिणो हिठ्ठा। कण्णाविवाहपहुंदि संजदरूवेण जे पकुव्वंति ॥2509॥ जे भुंजंति विहिणा मोणेणं धोर पावसंलग्गा। अण अण्णदरुदयादो सम्मत्तं जे विणासंति ॥2510॥ ते कालवसं पत्ता फलेण पावण विसमपाकाणं। उप्पज्जंति कुरूवा कुमाणुसा जलहिदिवेसुं ॥2511॥ | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 4/2500-2511</span><p class="PrakritGatha"> मिच्छत्तम्मि रत्ताणं मंदकसाया पियंवदा कुडिला धम्मफलं मग्गंता मिच्छादेवेसु भत्तिपरा ॥2500॥ सुद्धोदणसलिलोदणर्कजियअसणादिकट्ठसुकिलिट्ठा। पंचग्गितवं विसमं कायकिलेसंचकुव्वंता ॥2501॥ सम्मत्तरयणहीणा कुमाणुसा लवणजलधिदीवेसुं। उपज्जंति अधण्णा अण्णाणजलम्मिज्जंता ॥2502॥ अदिमाणगव्विदा जे साहूणकुणंति किंच अवमाणं। सम्मत्ततवजुदाणं जे णिग्गंथाणं दूसणा देंति ॥2503॥ जे मायाचाररदा संजमतवजोगवज्जिदा पावा। इड्ढिरससादगारवगरुवा जे मोहभावण्णा ॥2504॥ थूलसुहुमादिचारं जे णालोचंति गुरुजणसमीवे। सज्झाय वंदणाओ जेगुरुसहिदा ण कुव्वंति ॥2505॥ जे छंडिय मुणिसंघं वसंति एकाकिणो दुराचारा। जे कोहेण य कलहं सव्वेसिंतो पकुव्वंति ॥2506॥ आहारसण्ण सत्तालोहकसाएण जणिदमोहा जे। धरि ऊण जिणलिंगं पावं कुव्वंति जे घोरं ॥2507॥ जे कुव्वंति ण भत्तिं अरहंताणं तहेव साहूणं। जे वच्छलविहीणा पाउव्वण्णम्मि संघम्मि ॥2508॥ जे गेण्हंति सुवण्णप्पहुदिं जिणलिंगं धारिणो हिठ्ठा। कण्णाविवाहपहुंदि संजदरूवेण जे पकुव्वंति ॥2509॥ जे भुंजंति विहिणा मोणेणं धोर पावसंलग्गा। अण अण्णदरुदयादो सम्मत्तं जे विणासंति ॥2510॥ ते कालवसं पत्ता फलेण पावण विसमपाकाणं। उप्पज्जंति कुरूवा कुमाणुसा जलहिदिवेसुं ॥2511॥ | ||
<p class="HindiText">= | <p class="HindiText">= मिथ्यात्व में रत, मंद कषायी, प्रिय बोलने वाले, कुटिल, धर्म फल को खोजने वाले, मिथ्यादेवों की भक्ति में तत्पर, शुद्ध ओदन, सलिलोदन व कांजी खाने के कष्ट से संक्लेश को प्राप्त विषम पंचाग्रि तप, व कामक्लेश को करनेवाले, और सम्यक्त्वरूपी रत्न से रहित अधन्य जीव अज्ञानरूपी जल में डूबते हुए लवणसमुद्र के द्विपों में कुमानुष उत्पन्न होते हैं ॥2500-2502॥ इसके अतिरिक्त जो लोग तीव्र अभिमान से गर्वित होकर सम्यक्त्व व तप से युक्त साधुओं का किंचित् भी अपमान करते हैं, जो दिगंबर साधुओं की निंदा करते हैं, जो पापी संयम तप व प्रतिमायोग से रहित होकर मायाचार में रत रहते हैं, जो ऋद्वि रस और सात इन तीन गारवों से महान् होते हुए मोह को प्राप्त हैं जो स्थूल व सूक्ष्म दोषों की गुरुजनों के समीप में आलोचना नहीं करते हैं, जो गुरु के साथ स्वध्याय व वंदना कर्म को नहीं करते हैं, जो दुराचारी मुनि संघ को छोड़कर एकाकी रहते हैं, जो क्रोध से सबसे कलह करते हैं, जो आहार संज्ञा में आसक्त व लोभ कषाय में मोह को प्राप्त होते हैं, जो जिनलिंग को धारण कर घोर पाप को करते हैं, जो अरहंत तथा साधुओं की भक्ति करते हैं, जो चातुर्वर्ण्य संघ के विषय में वात्सल्य भाव से विहीन होते हैं, जो जिनलिंग के धारी होकर स्वर्णादिक को हर्ष से ग्रहण करते हैं, जो संयमी के वेष से कन्याविवाहादिक करते हैं, जो मौन के बिना भोजन करते हैं, जो घोर पाप में संलग्न रहते हैं, जो अनंतानुबंधी चतुष्टय में से किसी एक के उदित होने से सम्यक्त्व को नष्ट करते है, वे मृत्यु को प्राप्त होकर विषम परिपाक वाले पापकर्मों के फल से समुद्र के इन द्वीपों में कुत्सित रूप से कुमानुष उत्पन्न होते हैं ॥2503-2511॥ | ||
(<span class="GRef">जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो /अधिकार संख्या 10/59-79</span>) (<span class="GRef">त्रिलोकसार /गाथा संख्या 922-924</span>) | (<span class="GRef">जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो /अधिकार संख्या 10/59-79</span>) (<span class="GRef">त्रिलोकसार /गाथा संख्या 922-924</span>) | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.11" id="3.11">देवायु सामान्य के बंधयोग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.11" id="3.11">देवायु सामान्य के बंधयोग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र/अध्याय संख्या 6/20-21</span> <p class="SanskritText">सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसिदेवस्य ॥20॥ सम्यक्त्वं च ॥21॥ | <span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र/अध्याय संख्या 6/20-21</span> <p class="SanskritText">सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसिदेवस्य ॥20॥ सम्यक्त्वं च ॥21॥ | ||
<p class="HindiText">= सरागसंयम, संयमासंयम | <p class="HindiText">= सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा, और बालतप - ये देवायु के आस्रव के कारण हैं ॥20॥ सम्यक्त्व से भी देवायु का आस्रव होता है ॥21॥</p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/ अध्याय संख्या 6/18/334/12</span> <p class="SanskritText">स्वभावमार्दवं च ॥18॥ ...एतदपि मानुषस्यायुष आस्रवः। पृथग्योगकरणं किमर्थम्। उत्तरार्थम्, देवायुष आस्रवोऽयमपि यथा स्यात्। | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/ अध्याय संख्या 6/18/334/12</span> <p class="SanskritText">स्वभावमार्दवं च ॥18॥ ...एतदपि मानुषस्यायुष आस्रवः। पृथग्योगकरणं किमर्थम्। उत्तरार्थम्, देवायुष आस्रवोऽयमपि यथा स्यात्। | ||
<p class="HindiText">= स्वभाव की मृदुता से भी मनुष्यायु का आस्रव होता हैं। = प्रश्न-इस सूत्र को पृथक् क्यों बनाया? उत्तर-स्वभाव की मृदुता देवायु का भी आस्रव का निमित्त है इस बात को बतलाने के लिए इस सूत्र को अलग बनाया है। | <p class="HindiText">= स्वभाव की मृदुता से भी मनुष्यायु का आस्रव होता हैं। = प्रश्न-इस सूत्र को पृथक् क्यों बनाया? उत्तर-स्वभाव की मृदुता देवायु का भी आस्रव का निमित्त है इस बात को बतलाने के लिए इस सूत्र को अलग बनाया है। | ||
(<span class="GRef">राजवार्तिक / अध्याय संख्या 6/18/1-2/526/24</span>)</p> | (<span class="GRef">राजवार्तिक / अध्याय संख्या 6/18/1-2/526/24</span>)</p> | ||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसार/अधिकार संख्या 4/42-43</span> <p class="SanskritText">आकामनिर्जराबालतपो मंदकषायता। सुधर्मश्रवणं दानं तथायतनसेवनम् ॥42॥ सरागसंयमश्चैव सम्यक्त्वं देशसंयमः। इति देवायुषो ह्येते भवंत्यास्त्रवहेतवः ॥ | <span class="GRef">तत्त्वार्थसार/अधिकार संख्या 4/42-43</span> <p class="SanskritText">आकामनिर्जराबालतपो मंदकषायता। सुधर्मश्रवणं दानं तथायतनसेवनम् ॥42॥ सरागसंयमश्चैव सम्यक्त्वं देशसंयमः। इति देवायुषो ह्येते भवंत्यास्त्रवहेतवः ॥ | ||
<p class="HindiText">= बालतप व अकामनिर्जरा के होने से, कषाय मंद रखने से, श्रेष्ठ धर्म को सुनने से, दान देने, | <p class="HindiText">= बालतप व अकामनिर्जरा के होने से, कषाय मंद रखने से, श्रेष्ठ धर्म को सुनने से, दान देने, आयतन सेवी बनने से, सराग साधुओं का संयम धारण करने से, देशसंयम धारण करने से, सम्यग्दृष्टि होने से, देवायु का आस्रव होता है।</p> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड/ मूल गाथा संख्या 807/983</span><p class="PrakritGatha"> अणुव्वदमहव्वदेहिं य बालतवाकामणिज्जराए य। देवाउगं णिबंधइ सम्माइट्ठी य जो जीवो ॥ | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड/ मूल गाथा संख्या 807/983</span><p class="PrakritGatha"> अणुव्वदमहव्वदेहिं य बालतवाकामणिज्जराए य। देवाउगं णिबंधइ सम्माइट्ठी य जो जीवो ॥ | ||
<p class="HindiText">= जो जीव सम्यग्दृष्टि है, सो केवल सम्यक्त्व करि साक्षात् अणुव्रत | <p class="HindiText">= जो जीव सम्यग्दृष्टि है, सो केवल सम्यक्त्व करि साक्षात् अणुव्रत महाव्रत निकरि देवायुकौं बाँधै है बहुरि जो मिथ्यादृष्टि जीव है सो उपचाररूप अणुव्रत महाव्रत निकरि वा अज्ञानरूप बाल तपश्चरण करि वा बिना इच्छा बंधादिकतै भई ऐसी अकाम निर्जराकरि देवायुकौं बाँधे हैं। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.12" id="3.12">भवनत्रिकायु सामान्य के बंधयोग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.12" id="3.12">भवनत्रिकायु सामान्य के बंधयोग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/अध्याय संख्या 6/21/336/6</span> <p class="SanskritText">तेन सरागसंयमसंयमासंयमावपि भवनवास्याद्यायुष आस्रवौ प्राप्नुतः। नैष दोषः सम्यक्त्वभावे सति तद्व्यपदेशाभावात्तदुभयमप्यत्रांतर्भवति। | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/अध्याय संख्या 6/21/336/6</span> <p class="SanskritText">तेन सरागसंयमसंयमासंयमावपि भवनवास्याद्यायुष आस्रवौ प्राप्नुतः। नैष दोषः सम्यक्त्वभावे सति तद्व्यपदेशाभावात्तदुभयमप्यत्रांतर्भवति। | ||
<p class="HindiText">= प्रश्न-सरागसंयम और संयमासंयम ये भवनवासी आदि की आयु के आस्रव हैं यह प्राप्त होता है? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व के अभाव में सरागसंयम और संयमासंयम नहीं होते। इसलिए उन दोनों का यहीं अंतर्भाव होता है अर्थात् ये भी सौधर्मादि देवायु के आस्रव हैं, क्योंकि ये सम्यक्त्व के होने पर ही होते हैं।</p> | <p class="HindiText">= प्रश्न-सरागसंयम और संयमासंयम ये भवनवासी आदि की आयु के आस्रव हैं यह प्राप्त होता है? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व के अभाव में सरागसंयम और संयमासंयम नहीं होते। इसलिए उन दोनों का यहीं अंतर्भाव होता है अर्थात् ये भी सौधर्मादि देवायु के आस्रव हैं, क्योंकि ये सम्यक्त्व के होने पर ही होते हैं।</p> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/ अध्याय संख्या 6/20/1/527/15</span> <p class="SanskritText">अव्यक्तसामायिक-विराधितसम्यग्दर्शनता भवनाद्यायुषः महिर्द्धिकमानुषस्य वा पंचाणुव्रतधारिणोऽविराधितसम्यग्दर्शनाः तिर्यङ्मनुष्याः सौधर्मादिषु अच्युतावसानेसूत्यद्यंते, विनिपतितसम्यक्त्वा भवनादिषु। अनधिगतजीवा जीवा बालतपसः अनुपलब्धतत्त्वस्वभावा अज्ञानकृतसंयमाः, संक्लेषाभावविशषात् केचिद्भवनव्यंतरादिषु सहस्रारपर्यंतेषु मनुष्यतिर्यक्ष्वपि च। आकामनिर्जरा-क्षुत्तृष्णानिरोध-ब्रह्मचर्य-भूशय्या-मलधारण-परिता-पादिभिः परिखेदिमूर्तयः चाटकनिरोधबंधनबद्धा दीर्घकालरोगिणः असंक्लष्टाः तरुगिरिशिखरपातिनः अनशनज्जलनजसप्रवेशनविषभक्षण धर्म बुद्धयः व्यंतरमानुषतिर्यक्षु। निःशीलव्रताः सानुकंपहृदयाः जलराजितुल्यरोषभोगभूमिसमुत्पन्नाश्च व्यंतरादिषु जन्म प्रतिपद्यंते इति। | <span class="GRef"> राजवार्तिक/ अध्याय संख्या 6/20/1/527/15</span> <p class="SanskritText">अव्यक्तसामायिक-विराधितसम्यग्दर्शनता भवनाद्यायुषः महिर्द्धिकमानुषस्य वा पंचाणुव्रतधारिणोऽविराधितसम्यग्दर्शनाः तिर्यङ्मनुष्याः सौधर्मादिषु अच्युतावसानेसूत्यद्यंते, विनिपतितसम्यक्त्वा भवनादिषु। अनधिगतजीवा जीवा बालतपसः अनुपलब्धतत्त्वस्वभावा अज्ञानकृतसंयमाः, संक्लेषाभावविशषात् केचिद्भवनव्यंतरादिषु सहस्रारपर्यंतेषु मनुष्यतिर्यक्ष्वपि च। आकामनिर्जरा-क्षुत्तृष्णानिरोध-ब्रह्मचर्य-भूशय्या-मलधारण-परिता-पादिभिः परिखेदिमूर्तयः चाटकनिरोधबंधनबद्धा दीर्घकालरोगिणः असंक्लष्टाः तरुगिरिशिखरपातिनः अनशनज्जलनजसप्रवेशनविषभक्षण धर्म बुद्धयः व्यंतरमानुषतिर्यक्षु। निःशीलव्रताः सानुकंपहृदयाः जलराजितुल्यरोषभोगभूमिसमुत्पन्नाश्च व्यंतरादिषु जन्म प्रतिपद्यंते इति। | ||
<p class="HindiText">= अव्यक्त सामायिक, और सम्यग्दर्शन की विराधना आदि भवनवासी आदि की आयु के अथवा महिर्द्धिक मनुष्य की आयु के आस्रव के कारण हैं। पंच अणुव्रतों के धारक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच या मनुष्य सौधर्म आदि अच्युत पर्यंत स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं। यदि सम्यग्दर्शन विराधना हो जाये तो भवनवासी आदि में उत्पन्न होते हैं। तत्त्वज्ञान से रहित बालतप तपनेवाले अज्ञानी मंद कषाय के कारण कोई भवनवासी व्यंतर आदि सहस्रार स्वर्ग पर्यंत उत्पन्न होते हैं। कोई मरकर मनुष्य भी होते हैं, तथा तिर्यंच भी। | <p class="HindiText">= अव्यक्त सामायिक, और सम्यग्दर्शन की विराधना आदि भवनवासी आदि की आयु के अथवा महिर्द्धिक मनुष्य की आयु के आस्रव के कारण हैं। पंच अणुव्रतों के धारक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच या मनुष्य सौधर्म आदि अच्युत पर्यंत स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं। यदि सम्यग्दर्शन विराधना हो जाये तो भवनवासी आदि में उत्पन्न होते हैं। तत्त्वज्ञान से रहित बालतप तपनेवाले अज्ञानी मंद कषाय के कारण कोई भवनवासी व्यंतर आदि सहस्रार स्वर्ग पर्यंत उत्पन्न होते हैं। कोई मरकर मनुष्य भी होते हैं, तथा तिर्यंच भी। अकाम निर्जरा, भूख प्यास का सहना, ब्रह्मचर्य, पृथ्वी पर सोना, मल धारण आदि परिषहों से खेद खिन्न न होना, गूढ़ पुरुषों के बंधन में पड़ने पर भी नहीं घबड़ाना, दीर्घकालीन रोग होने पर भी असंक्लिष्ट रहना, या पर्वत के शिखर से झंपापात करना, अनशन, अग्नि प्रवेश, विषभक्षण आदि को धर्म मानने वाले कुतापस व्यंतर और मनुष्य तथा तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं। जिनके व्रत या शीलों को धारण नहीं किया किंतु सदय हृदय हैं, जल रेखा के समान मंद कषायी हैं, तथा भोग भूमि में उत्पन्न होनेवाले व्यंतर आदि में उत्पन्न होते हैं।</p> | ||
<span class="GRef">त्रिलोकसार/ गाथा संख्या 450</span> <p class="PrakritGatha">उम्मग्गचारि सणिदाणाणलादिमुदा अकामणिज्जरिणो। कुदवा सबलचरित्ता भवणतियं जंति ते जीवा ॥450॥ | <span class="GRef">त्रिलोकसार/ गाथा संख्या 450</span> <p class="PrakritGatha">उम्मग्गचारि सणिदाणाणलादिमुदा अकामणिज्जरिणो। कुदवा सबलचरित्ता भवणतियं जंति ते जीवा ॥450॥ | ||
<p class="HindiText">= उन्मार्गचारि, निदान करने वाले अग्नि, जल आदि से झंपापात करने वाले, बिना अभिलाष बंधादिक कै निमित्त तैं परिषह सहनादि करि जिनकै निर्जरा भई, पंचाग्नि आदि खोटे | <p class="HindiText">= उन्मार्गचारि, निदान करने वाले अग्नि, जल आदि से झंपापात करने वाले, बिना अभिलाष बंधादिक कै निमित्त तैं परिषह सहनादि करि जिनकै निर्जरा भई, पंचाग्नि आदि खोटे तप के करने वाले, बहुरि सदोष चारित्र के धरन हारे जे जीव हैं ते भवनत्रिक विषै जाय ऊपजै हैं। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.13" id="3.13">भवनवासी देवायु के बंध योग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.13" id="3.13">भवनवासी देवायु के बंध योग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 3/198,199,206</span><p class="PrakritGatha"> अवमिदसंका केई णाणचरित्ते किलिट्टभावजुदा। भवणामरेसु आउं बंधंति हु मिच्छभाव जुदा ॥198॥ अविणयसत्ता केई कामिणिविरहज्जरेण जज्जरिदा कलहपिया पाविट्टा जायंते भवणदेवेसु ॥199॥ जे कोहमाणमायालोहासत्ताकिविट्ठचारित्ता। वइराणुबद्वरुचिरा ते उपज्जंति असुरेसु ॥206॥ | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 3/198,199,206</span><p class="PrakritGatha"> अवमिदसंका केई णाणचरित्ते किलिट्टभावजुदा। भवणामरेसु आउं बंधंति हु मिच्छभाव जुदा ॥198॥ अविणयसत्ता केई कामिणिविरहज्जरेण जज्जरिदा कलहपिया पाविट्टा जायंते भवणदेवेसु ॥199॥ जे कोहमाणमायालोहासत्ताकिविट्ठचारित्ता। वइराणुबद्वरुचिरा ते उपज्जंति असुरेसु ॥206॥ | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.14" id="3.14">व्यंतर तथा नीच देवों की आयु के बंधयोग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.14" id="3.14">व्यंतर तथा नीच देवों की आयु के बंधयोग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">भगवती आराधना/ मूल या टीका गाथा संख्या 181-182/398</span><p class="PrakritGatha"> णाणस्स केवलीणं धम्मस्साइरिय सव्वसाहुणं। माइय अवण्णवादी खिब्भिसिय भावणं कुणइ ॥181॥ मंताभिओगकोदुगभूदीयम्मं पउंजदे जोहु। इढ्ढिरससादहेदुं अभिओगं भावणं कुणइ ॥182॥ | <span class="GRef">भगवती आराधना/ मूल या टीका गाथा संख्या 181-182/398</span><p class="PrakritGatha"> णाणस्स केवलीणं धम्मस्साइरिय सव्वसाहुणं। माइय अवण्णवादी खिब्भिसिय भावणं कुणइ ॥181॥ मंताभिओगकोदुगभूदीयम्मं पउंजदे जोहु। इढ्ढिरससादहेदुं अभिओगं भावणं कुणइ ॥182॥ | ||
<p class="HindiText">= श्रुतज्ञान, केवली व धर्म, इन तीनों के प्रति मायावी अर्थात् ऊपर से इनके प्रति प्रेम व भक्ति दिखाते हुए, परंतु अंदर से इनके प्रति बहुमान या आचरण से रहित जीव, आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेष्ठी में दोषों का आरोपण करने वाले, और अवर्णवादी जन ऐसे अशुभ विचारों से मुनि किल्विष जाति के देवों में जन्म लेते हैं ॥181॥ | <p class="HindiText">= श्रुतज्ञान, केवली व धर्म, इन तीनों के प्रति मायावी अर्थात् ऊपर से इनके प्रति प्रेम व भक्ति दिखाते हुए, परंतु अंदर से इनके प्रति बहुमान या आचरण से रहित जीव, आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेष्ठी में दोषों का आरोपण करने वाले, और अवर्णवादी जन ऐसे अशुभ विचारों से मुनि किल्विष जाति के देवों में जन्म लेते हैं ॥181॥ मन्त्राभियोग्य अर्थात् कुमारी वगैरह में भूत का प्रवेश उत्पन्न करना, कौतुहलोपदर्शन क्रिया अर्थात् अकाल में जलवृष्टि आदि कर के दिखाना, आदि चमत्कार, भूतों की क्रिड़ा दिखाना-ये सब क्रियाएँ ऋद्धि गौरव या रस गौरव, या सात गौरव दिखाने के लिए जो करता है सो आभियोग्य जाति के वाहन देवों में उत्पन्न होता हैं।</p> | ||
<span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/अधिकार संख्या 3/201-205</span><p class="PrakritGatha"> मरणे विराधिदम्मि य केई कंदप्पकिव्विसा देवा। अभियोगा संमोहप्पहुदीसुरदुग्गदीसु जायंते ॥201॥ जे सच्चवयणहोणा हस्सं कुव्वंति बहुजणे णियमा। कंदप्परत्तहिदया ते कंदप्पैसु जायंति ॥202॥ जे भूदिकम्मतंताभियोगकोदूहलाइसंजुत्ता। जणवण्णे य पअट्टा वाहणदेवेसु ते होंति ॥203॥ तित्थयरसंघमहिमाआगमगंथादिएसु पडिकूला। दुव्वणया णिगदिल्ला जायंते किव्विंससुरेसु ॥204॥ उप्पहउवएसयरा विप्पडिवण्णा जिणिंदमग्गमि। मोहेणं संमोघा संमोहसुरेसु जायंते ॥205॥</p> | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/अधिकार संख्या 3/201-205</span><p class="PrakritGatha"> मरणे विराधिदम्मि य केई कंदप्पकिव्विसा देवा। अभियोगा संमोहप्पहुदीसुरदुग्गदीसु जायंते ॥201॥ जे सच्चवयणहोणा हस्सं कुव्वंति बहुजणे णियमा। कंदप्परत्तहिदया ते कंदप्पैसु जायंति ॥202॥ जे भूदिकम्मतंताभियोगकोदूहलाइसंजुत्ता। जणवण्णे य पअट्टा वाहणदेवेसु ते होंति ॥203॥ तित्थयरसंघमहिमाआगमगंथादिएसु पडिकूला। दुव्वणया णिगदिल्ला जायंते किव्विंससुरेसु ॥204॥ उप्पहउवएसयरा विप्पडिवण्णा जिणिंदमग्गमि। मोहेणं संमोघा संमोहसुरेसु जायंते ॥205॥</p> | ||
<span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या 8/556,566</span><p class="PrakritGatha"> सबल चरित्ता कूरा उम्ग्गट्ठा णिदाणकदभावा। मंदकसायाणुरदा बंधंते अप्पइद्धिअसुराउं ॥556॥ ईसाणलंतवच्चुदकप्पंतं जाव होंति कंदप्पा। किव्विसिया अभियोगा णियकप्पजहण्णठिदिसहिया ॥566॥ | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या 8/556,566</span><p class="PrakritGatha"> सबल चरित्ता कूरा उम्ग्गट्ठा णिदाणकदभावा। मंदकसायाणुरदा बंधंते अप्पइद्धिअसुराउं ॥556॥ ईसाणलंतवच्चुदकप्पंतं जाव होंति कंदप्पा। किव्विसिया अभियोगा णियकप्पजहण्णठिदिसहिया ॥566॥ | ||
<p class="HindiText">= मरण के विराधित करने पर अर्थात् समाधि मरण के बिना, कितने ही जीव दुर्गतियो में कंदर्प, किल्विष आभियोग्य और सम्मोह इत्यादि देव उत्पन्न होते हैं। जो प्राणी सत्य वचन से रहित हैं, नित्य ही | <p class="HindiText">= मरण के विराधित करने पर अर्थात् समाधि मरण के बिना, कितने ही जीव दुर्गतियो में कंदर्प, किल्विष आभियोग्य और सम्मोह इत्यादि देव में उत्पन्न होते हैं। जो प्राणी सत्य वचन से रहित हैं, नित्य ही बहुजन में हास्य करते हैं, और जिनका हृदय कामासक्त रहता है, वे कंदर्प देवो में उत्पन्न होते हैं ॥202॥ जो भूतिकर्म, मंत्राभियोग और कौतूहलादि आदि से संयुक्त हैं तथा लोगों के गुणगान (खुशामद) में प्रवृत्त कहते हैं, वे वाहन देवो में उत्पन्न होते हैं ॥203॥ जो लोग तीर्थंकर व संघ की महिमा एवं आगमग्रंथादि के विषय में प्रतिकूल हैं, दुर्विनयी, और मायाचारी हैं, वे किल्विष देवों में उत्पन्न होते हैं ॥204॥ उत्पथ अर्थात् कुमार्ग का उपदेश करनेवाले, जिनेंद्रोपदिष्ट मार्ग में विरोधी और मोह से संमुग्ध जीव सम्मोह जाति के देवो में उत्पन्न होते हैं ॥205॥ दूषित चारित्रवाले, क्रूर, उन्मार्ग में स्थित, निदान भाव से सहित और मंद कषायो में अनुरक्त जीव अल्पर्द्धिक देवों की आयु को बाँधते हैं ॥556॥ कंदर्प, किल्विषिक और आभियोग्य देव अपने-अपने कल्प की जघन्य स्थिति सहित क्रमशः ईशान, लांतव और अच्युत कल्पपर्यंत होते हैं ॥566॥ | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.15" id="3.15"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.15" id="3.15">ज्योतिष देवायु के बंध योग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/अधिकार संख्या 7/617</span> <p class="PrakritGatha">आयुबंधणभावं दंसणगहणस्य कारणं विवहं। गुणठाणादि पवण्णण भावण लोएव्व त्ववत्तव्वं ॥617॥ | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/अधिकार संख्या 7/617</span> <p class="PrakritGatha">आयुबंधणभावं दंसणगहणस्य कारणं विवहं। गुणठाणादि पवण्णण भावण लोएव्व त्ववत्तव्वं ॥617॥ | ||
<p class="HindiText">= आयु के बंधक भाव, सम्यग्दर्शन | <p class="HindiText">= आयु के बंधक भाव, सम्यग्दर्शन ग्रहण के विविध कारण और गुणस्थानादि का वर्णन, भावनलोक के समान कहना चाहिए ॥617॥ | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.16" id="3.16">कल्पवासी देवायु | <li><span class="HindiText"><strong name="3.16" id="3.16">कल्पवासी देवायु सामान्य के बंधयोग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/ अध्याय संख्या 6/21/336/5</span> <p class="SanskritText">सम्यक्त्वं च ॥21॥ किम्। दैवस्यायुष आस्रवइत्यनुवर्तते। अविशेषाभिधानेऽपि सौधर्मादिविशेषगतिः। | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/ अध्याय संख्या 6/21/336/5</span> <p class="SanskritText">सम्यक्त्वं च ॥21॥ किम्। दैवस्यायुष आस्रवइत्यनुवर्तते। अविशेषाभिधानेऽपि सौधर्मादिविशेषगतिः। | ||
<p class="HindiText">= सम्यक्त्व भी देवायु का आस्रव है। प्रश्न-सम्यक्त्व क्या है? उत्तर-`देवायु का आस्रव है', इस | <p class="HindiText">= सम्यक्त्व भी देवायु का आस्रव है। प्रश्न-सम्यक्त्व क्या है? उत्तर-`देवायु का आस्रव है', इस पद की पूर्व सूत्र से अनुवृत्ति होती है। यद्यपि सम्यक्त्व को सामान्य से देवायु का आस्रव कहा है, तो भी इससे सौधर्मादि विशेष का ज्ञान होता है। | ||
(<span class="GRef">राजवार्तिक/ अध्याय संख्या 6/21/527/27</span>)।</p> | (<span class="GRef">राजवार्तिक/ अध्याय संख्या 6/21/527/27</span>)।</p> | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक /अध्याय संख्या 6/20/1/527/13</span> <p class="SanskritText">कल्याणमित्रसंबंध आयतनोपसेवासद्धर्मश्रवणगौरवदर्शना-ऽनवद्योप्रोषधोपवास-तपोभावना-बहुश्रुतागमपरत्व-कषायनिग्रह-पात्रदान-पीतपद्मलेश्यापरिणाम-धर्मध्यानमरणादिलक्षणः सौधर्माद्यायुषः आस्रवः। | <span class="GRef">राजवार्तिक /अध्याय संख्या 6/20/1/527/13</span> <p class="SanskritText">कल्याणमित्रसंबंध आयतनोपसेवासद्धर्मश्रवणगौरवदर्शना-ऽनवद्योप्रोषधोपवास-तपोभावना-बहुश्रुतागमपरत्व-कषायनिग्रह-पात्रदान-पीतपद्मलेश्यापरिणाम-धर्मध्यानमरणादिलक्षणः सौधर्माद्यायुषः आस्रवः। | ||
<p class="HindiText">= कल्याणमित्र संसर्ग, आयतन सेवा, | <p class="HindiText">= कल्याणमित्र संसर्ग, आयतन सेवा, सद्धर्म श्रवण, स्वगौरवदर्शन, प्रोषधोपवास, तप की भावना, बहुश्रुतत्व आगमपरता कषायनिग्रह, पात्रदान, पीत-पद्म लेश्या परिणाम, मरण काल में धर्मध्यान रूप परिणति आदि सौधर्म आदि आयु के आस्रव हैं। (और भी देखें [[ आयु#3.12 | आयु - 3.12]]) बंधयोग्य परिणाम। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.17" id="3.17">कल्पवासी देवायु विशेष के बंध योग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.17" id="3.17">कल्पवासी देवायु विशेष के बंध योग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">सि.प. 8/556-566</span><p class="PrakritGatha"> सबलचरित्ता कूरा उम्मग्गठ्ठा णिदाणकदभावा। मंदकसायाणुरदा बंधंते अप्पइद्धि असुराउं ॥556॥ दसपुव्वधरा सोहम्मप्पहुदि सव्वट्टसिद्विपरियंतं। चोद्दसपुव्वधरा तट्ट लंतवकप्पादि वच्चंते ॥557॥ सोहम्मादि अच्चुदपरियंतं जंति देवसदजुत्ता। चउविहदाणपणट्ठा अकसाया पंचगुरुभत्ता ॥558॥ सम्मत्तणाणअज्जवलज्जासीलादिएहि परिपुण्णा। जायंते इत्थीओ जा अच्चुदकप्पपरियंतं ॥559॥ गिगलिंगधारिणो जे उक्किट्ठतवस्समेण संपुण्णा। ते जायंति अभव्वा उवरिमगेवज्जपरियंतं ॥560॥ परदो अच्चणवदतवदंसणणाणचरण संपण्णा णिग्गंथा जायंते भव्वा सव्वट्ठसिद्धि परियंतं ॥561॥ चरयापरिवज्जधरा मंदकसाया पियंवदा केई। कमसो भावणपहुदि जम्मंते बम्हकप्पंतं ॥562॥ जे पंचेंदियतिरिया सण्णी हु अकामणिज्जरेण जुदा। मंदकसाया केई जंति सहस्सारपरियंतं ॥563॥ तणदंडणादिसहिया जीवा जे अमंदकोहजुदा। कमसो भावणपहुदो केई जम्मंति अच्चुदं जाव ॥564॥ आ ईसाणं कप्पं उप्पत्ती हादि देवदेवीणं। तप्परदो उब्भूदी देवाणं केवलाणं पि ॥565॥ ईसाणलंतवच्चुदकप्पंतं जाव होंति कंदप्पा। किव्विसिया अभियोगा णियकप्पजहण्णट्ठिदिसहिया ॥566॥ | <span class="GRef">सि.प. 8/556-566</span><p class="PrakritGatha"> सबलचरित्ता कूरा उम्मग्गठ्ठा णिदाणकदभावा। मंदकसायाणुरदा बंधंते अप्पइद्धि असुराउं ॥556॥ दसपुव्वधरा सोहम्मप्पहुदि सव्वट्टसिद्विपरियंतं। चोद्दसपुव्वधरा तट्ट लंतवकप्पादि वच्चंते ॥557॥ सोहम्मादि अच्चुदपरियंतं जंति देवसदजुत्ता। चउविहदाणपणट्ठा अकसाया पंचगुरुभत्ता ॥558॥ सम्मत्तणाणअज्जवलज्जासीलादिएहि परिपुण्णा। जायंते इत्थीओ जा अच्चुदकप्पपरियंतं ॥559॥ गिगलिंगधारिणो जे उक्किट्ठतवस्समेण संपुण्णा। ते जायंति अभव्वा उवरिमगेवज्जपरियंतं ॥560॥ परदो अच्चणवदतवदंसणणाणचरण संपण्णा णिग्गंथा जायंते भव्वा सव्वट्ठसिद्धि परियंतं ॥561॥ चरयापरिवज्जधरा मंदकसाया पियंवदा केई। कमसो भावणपहुदि जम्मंते बम्हकप्पंतं ॥562॥ जे पंचेंदियतिरिया सण्णी हु अकामणिज्जरेण जुदा। मंदकसाया केई जंति सहस्सारपरियंतं ॥563॥ तणदंडणादिसहिया जीवा जे अमंदकोहजुदा। कमसो भावणपहुदो केई जम्मंति अच्चुदं जाव ॥564॥ आ ईसाणं कप्पं उप्पत्ती हादि देवदेवीणं। तप्परदो उब्भूदी देवाणं केवलाणं पि ॥565॥ ईसाणलंतवच्चुदकप्पंतं जाव होंति कंदप्पा। किव्विसिया अभियोगा णियकप्पजहण्णट्ठिदिसहिया ॥566॥ | ||
<p class="HindiText">= दूषित चरित्रवाले, क्रूर, उन्मार्ग में स्थित, निदान भाव से सहित, कषायो में अनुरक्त जीव अल्पर्द्धिक देवों की आयु बाँधते हैं ॥556॥ दशपूर्व के धारी जीव सौधर्मादि सर्वार्थसिद्धि पर्यंत जाते हैं ॥557॥ चार प्रकार के दान में प्रवृत्त, कषायों से रहित व | <p class="HindiText">= दूषित चरित्रवाले, क्रूर, उन्मार्ग में स्थित, निदान भाव से सहित, कषायो में अनुरक्त जीव अल्पर्द्धिक देवों की आयु बाँधते हैं ॥556॥ दशपूर्व के धारी जीव सौधर्मादि सर्वार्थसिद्धि पर्यंत जाते हैं ॥557॥ चार प्रकार के दान में प्रवृत्त, कषायों से रहित व पंचगुरुओं की भक्ति से युक्त ऐसे देशव्रत संयुक्त जीव सौधर्म स्वर्ग को आदि लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यंत जाते हैं ॥558॥ सम्यक्त्व, ज्ञान, आर्जव, लज्जा एवं शीलादि से परिपूर्ण स्त्रियां अच्युत कल्प पर्यंत जाती हैं ॥559॥ जो जघन्य जिनलिंग को धारण करनेवाले और उत्कृष्ट तप के श्रम से परिपूर्ण वे उपरिम ग्रैवेयक पर्यंत उत्पन्न होते हैं ॥560॥ पूजा, व्रत, तप, दर्शन ज्ञान और चारित्र से संपन्न निर्ग्रंथ भव्य इससे आगे सर्वार्थसिद्धि पर्यंत उत्पन्न होते हैं ॥561॥ मंद कषायी व प्रिय बोलनेवाले कितने ही चरक (साधुविशेष) और परिव्राजक क्रम से भवनवासियों को आदि लेकर ब्रह्मकल्प तक उत्पन्न होते हैं ॥562॥ जो कोई पंचेंद्रिय तिर्यंच संज्ञी अकाम निर्जरा से युक्त हैं और मंदकषायी हैं वे सहस्रार कल्प तक उत्पन्न होते हैं ॥563॥ जो तनुदंडन अर्थात् कायक्लेश आदि से सहित और तीव्र क्रोध से युक्त हैं ऐसे कितने ही आजीवक साधु क्रमशः भवनवासियों से लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यंत जन्म लेते हैं ॥564॥ देव और देवियों को उत्पत्ति ईशान कल्प तक होता है। इससे आगे केवल देवों की उत्पत्ति ही है ॥565॥ कंदर्प, किल्विषिक और अभियोग्य देव अपने अपने कल्प की जघन्य स्थिति सहित क्रमशः ईशान, लांतव और अच्युत कल्प पर्यंत होते हैं। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.18" id="3.18">लौकांतिक देवायु के बंध योग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.18" id="3.18">लौकांतिक देवायु के बंध योग्य परिणाम</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 8/646-651</span><p class="PrakritGatha"> इह खेत्ते वेरग्गं बहुभेयं भाविदूण बहुकालं। संजम भावेहि मुणी देवा लोयंतिया होंति ॥646॥ थुइणिंदासु समाणो सुहदुक्खेसु सबधुरिउवग्गे। जो समणो सम्मत्तो सो च्चिय लोयंतियो होदि ॥647॥ जे णिरवेक्खा देहे णिछंदा णिम्ममा णिरारंभा। णिरवज्जा समणवरा ते च्चिय लोयंतिया होंति ॥648॥ संयगविप्पयोगे लाहालाहम्मि जीविदे मरणे। जो समदिठ्ठी समणो सो च्चिय लोयंतियो होदि ॥649॥ अणवरदसमं पत्ता संजमसमिदीसु झाणजोगेसुं तिव्वतवचरणजुत्ता समणा लोयंतिया होंति ॥650॥ पंचमहव्वय सहिया पंचसु समिदीसु चिरम्मि चेट्ठंति। पंचक्खविसयविरदा रिसिणो लोयंतिया होंति ॥651॥ | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 8/646-651</span><p class="PrakritGatha"> इह खेत्ते वेरग्गं बहुभेयं भाविदूण बहुकालं। संजम भावेहि मुणी देवा लोयंतिया होंति ॥646॥ थुइणिंदासु समाणो सुहदुक्खेसु सबधुरिउवग्गे। जो समणो सम्मत्तो सो च्चिय लोयंतियो होदि ॥647॥ जे णिरवेक्खा देहे णिछंदा णिम्ममा णिरारंभा। णिरवज्जा समणवरा ते च्चिय लोयंतिया होंति ॥648॥ संयगविप्पयोगे लाहालाहम्मि जीविदे मरणे। जो समदिठ्ठी समणो सो च्चिय लोयंतियो होदि ॥649॥ अणवरदसमं पत्ता संजमसमिदीसु झाणजोगेसुं तिव्वतवचरणजुत्ता समणा लोयंतिया होंति ॥650॥ पंचमहव्वय सहिया पंचसु समिदीसु चिरम्मि चेट्ठंति। पंचक्खविसयविरदा रिसिणो लोयंतिया होंति ॥651॥ | ||
<p class="HindiText">= इस क्षेत्र में बहुत काल तक बहुत प्रकार के वैराग्य को भाकर संयम से युक्त मुनि लौकांतिक देव होते हैं ॥646॥ जो सम्यग्दृष्टि श्रमण (मुनि) स्तुति और निंदा में, सुख और दुःख में तथा बंधु और रिपु में समान हैं वही लोकांतिक होता है ॥647॥ जो देह के विषय में निरपेक्ष, निर्द्वंद्व, निर्मम, निरारंभ और | <p class="HindiText">= इस क्षेत्र में बहुत काल तक बहुत प्रकार के वैराग्य को भाकर संयम से युक्त मुनि लौकांतिक देव होते हैं ॥646॥ जो सम्यग्दृष्टि श्रमण (मुनि) स्तुति और निंदा में, सुख और दुःख में तथा बंधु और रिपु में समान हैं वही लोकांतिक होता है ॥647॥ जो देह के विषय में निरपेक्ष, निर्द्वंद्व, निर्मम, निरारंभ और निरवंद्य हैं वे ही श्रेष्ठ श्रमण लौकांतिक देव होते हैं ॥648॥ जो श्रमण संयोग और वियोग में, लाभ और अलाभ में, तथा जीवित और मरण में, समदृष्टि होते हैं वे लौकांतिक होते हैं ॥649॥ संयम, समिति, ध्यान एवं समाधि के विषय में जो निरंतर श्रम को प्राप्त हैं अर्थात् समाधान हैं, तथा तीव्र तपश्चरण से संयुक्त हैं वे श्रमण लौकांतिक होते हैं ॥650॥ पाँच महाव्रतों से सहित, पाँच समितियों का चिरकाल तक आचरण करने वाले, और पाँचों इंद्रिय विषयों से विरक्त ऋषि लौकांतिक होते हैं ॥651॥ | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.19" id="3.19">कषाय व लेश्या की अपेक्षा आयु बंध के 20 स्थान</strong><br /></span></li></ol> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.19" id="3.19">कषाय व लेश्या की अपेक्षा आयु बंध के 20 स्थान</strong><br /></span></li></ol> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड / मूल गाथा संख्या 295-639</span> (विशेष देखो [[जन्म#6.7 | जन्म - 6.7]]) | <span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड / मूल गाथा संख्या 295-639</span> (विशेष देखो [[जन्म#6.7 | जन्म - 6.7]]) | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1">कर्मभूमिजों की अपेक्षा 8 अपकर्ष</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1">कर्मभूमिजों की अपेक्षा 8 अपकर्ष</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 10/4,2,4,36/233/4</span><p class="PrakritGatha"> जे सोवक्कमाउआ ते सग-सग भंजमाणाउट्ठिदीए बे तिभागे अदिक्कंते परभवियाउअबंधपाओग्गा होंति जाव असंखेयद्धात्ति। तत्थ बंधपाओग्गकालब्भंतरे आउबंधपाओग्गपरिणामेहिं के वि जीवा अट्ठवारं के वि सत्तवारं के वि छव्वारंके वि पंचवारं के वि चत्तारिवारं, के वि तिण्णिवारं के वि दोवारं के वि एक्कवारं परिणंति। कुदो। साभावियादो। तत्थ तदियत्तिभागपढमसमए जेहि परभवियाउअबंधो पारद्धोते अंतोमुहेत्तेण बंधं समाणिय पुणो सयलाउट्ठीदीए णवमभागे सेसे पुणो वि बंधपाओग्गा होंति। सयलाउट्ठिदीए सत्तावीसभागावसेसे पुणो वि बंधपाओग्गा होंति। एवं सेसतिभाग तिभागावसेसे बंधपाओग्गा होंति त्ति णेदव्वं जा अट्ठमी आगरिसा त्ति। ण च तिभागावसेसे आउअं णियमेण बज्झदि त्ति एयंतो। किंतु तत्थ आउअबंधपाओग्गा होंति त्ति उत्त होदि। | <span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 10/4,2,4,36/233/4</span><p class="PrakritGatha"> जे सोवक्कमाउआ ते सग-सग भंजमाणाउट्ठिदीए बे तिभागे अदिक्कंते परभवियाउअबंधपाओग्गा होंति जाव असंखेयद्धात्ति। तत्थ बंधपाओग्गकालब्भंतरे आउबंधपाओग्गपरिणामेहिं के वि जीवा अट्ठवारं के वि सत्तवारं के वि छव्वारंके वि पंचवारं के वि चत्तारिवारं, के वि तिण्णिवारं के वि दोवारं के वि एक्कवारं परिणंति। कुदो। साभावियादो। तत्थ तदियत्तिभागपढमसमए जेहि परभवियाउअबंधो पारद्धोते अंतोमुहेत्तेण बंधं समाणिय पुणो सयलाउट्ठीदीए णवमभागे सेसे पुणो वि बंधपाओग्गा होंति। सयलाउट्ठिदीए सत्तावीसभागावसेसे पुणो वि बंधपाओग्गा होंति। एवं सेसतिभाग तिभागावसेसे बंधपाओग्गा होंति त्ति णेदव्वं जा अट्ठमी आगरिसा त्ति। ण च तिभागावसेसे आउअं णियमेण बज्झदि त्ति एयंतो। किंतु तत्थ आउअबंधपाओग्गा होंति त्ति उत्त होदि। | ||
<p class="HindiText">= जो जीव सोपक्रम आयुष्य हैं वे अपनी-अपनी भुज्यमान आयु | <p class="HindiText">= जो जीव सोपक्रम आयुष्य हैं वे अपनी-अपनी भुज्यमान आयु स्थिति के दो त्रिभाग बीत जानेपर वहाँ से लेकर असंखेयाद्धा काल तक परभव संबंधी आयु को बाँधने के योग्य होते हैं। उनमें आयु बंध के योग्य काल के भीतर कितने ही जीव आठ बार; कितने ही सात बार; कितने ही छह बार; कितने ही पाँच बार; कितने ही चार बार; कितने ही तीन बार; कितने ही दो बार; कितने ही एक बार आयु बंध के योग्य परिणामों में-से परिणत होते हैं। क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। उसमें जिन जीवों ने तृतीय त्रिभाग के प्रथम समय में परभव संबंधी आयु का बंध आरंभ किया है वे अंतर्मुहूर्त में आयु बंध को समाप्त कर फिर समस्त आयु स्थिति के नौंवे भाग के शेष रहने पर फिर से भी आयु बंध के योग्य होते हैं। तथा समस्त आयु स्थिति का सत्ताईसवाँ भाग शेष रहने पर पुनरपि बंध के योग्य होते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर जो त्रिभाग शेष रहता जाता है उसका त्रिभाग शेष रहने पर यहाँ आठवें अपकर्ष के प्राप्त होने तक आयु बंध के योग्य होते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। परंतु त्रिभाग शेष रहने पर आयु नियम से बँधती है ऐसा एकांत नहीं है। किंतु उस समय जीव आयु बंध के योग्य होते हैं। यह उक्त कथन का तात्पर्य है। | ||
<span class="GRef">(गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 629-643/836</span>) </span> | <span class="GRef">(गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 629-643/836</span>) </span> | ||
<p><span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड/ जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 518/913/17</span><span class="SanskritText"> कर्मभूमितिर्यग्मनुष्याणां भुज्यमानायुर्जघन्यमध्यमोत्कृष्टं विवक्षितमिदं 6561। अत्र भागद्वयेऽतिक्रांते तृतीयभागस्य 2187 प्रथमांतर्मुहूर्तः परभवायुर्बंधयोग्यः, तत्र न बद्धं तदा तदेकभागतृतीयभागस्य 729 प्रथमांतर्मुहूर्त्त। तत्रापि न बद्ध तदा तदेकभागतृतीयभागस्य243 प्रथमांतर्मुहूर्तः। एवमग्रेऽग्रे नेतव्यमष्टवारं यावत्। इत्यष्टैवापकर्षाः। ...स्वभावादेव तद्बंध प्रायोग्यपरिणमनं जीवानां कारणांतर निरपेक्षमित्यर्थः।</span></p> | <p><span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड/ जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 518/913/17</span><span class="SanskritText"> कर्मभूमितिर्यग्मनुष्याणां भुज्यमानायुर्जघन्यमध्यमोत्कृष्टं विवक्षितमिदं 6561। अत्र भागद्वयेऽतिक्रांते तृतीयभागस्य 2187 प्रथमांतर्मुहूर्तः परभवायुर्बंधयोग्यः, तत्र न बद्धं तदा तदेकभागतृतीयभागस्य 729 प्रथमांतर्मुहूर्त्त। तत्रापि न बद्ध तदा तदेकभागतृतीयभागस्य243 प्रथमांतर्मुहूर्तः। एवमग्रेऽग्रे नेतव्यमष्टवारं यावत्। इत्यष्टैवापकर्षाः। ...स्वभावादेव तद्बंध प्रायोग्यपरिणमनं जीवानां कारणांतर निरपेक्षमित्यर्थः।</span></p> | ||
<p class="HindiText">= किसी कर्मभूमि या मनुष्य या तिर्यंच की आयु 6561 वर्ष हैं। तहाँ तिस आयु का दो भाग गए 2187 वर्ष रहै तहाँ तीसरा भाग कौ | <p class="HindiText">= किसी कर्मभूमि या मनुष्य या तिर्यंच की आयु 6561 वर्ष हैं। तहाँ तिस आयु का दो भाग गए 2187 वर्ष रहै तहाँ तीसरा भाग कौ लागते ही प्रथम समयास्यों लगाई अंतर्मुहूर्त पर्यंत काल मात्र प्रथम अपकर्ष है तहाँ परभव संबंधी आयु का बंध होइ। बहुरि जो तहाँ न बंधे तौ तिस तीसरा भाग का दोय भाग गये 729 वर्ष आयु के अवशेष रहै तहाँ अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत दूसरा अपकर्ष है तहाँ पर भव का आयु बाँधे। बहुरि तहाँ भी न बंधै तो तिसका भी दोय भाग गये 243 वर्ष आयु के अवशेष रहैं अंतर्मुहूर्त काल मात्र तीसरा अपकर्ष विषैं परभव का आयु बाँधै। बहुरि तहाँ भी बंधै तौ जिसका भी दोय भाग गयें 81 वर्ष रहैं अंतर्मुहूर्त्त पर्यंत चौथा अपकर्ष विषैं परभव का आयु बाँधै ऐसे ही दोय दोय भाग गयें 27 वर्ष वा 9 वर्ष रहैं वा तीन वर्ष रहैं अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत पाँचवाँ, छठा, सातवाँ वा आठवाँ अपकर्ष विषैं परभव का आयु कौं बंधनेकौ योग्य जानना। ऐसें ही जो भुज्यमान आयु का प्रमाण होई ताकै त्रिभाग-त्रिभाग विषैं आयु के बंध योग्य परिणाम अपकर्षनि विषैं ही होई सो ऐसा कोई स्वभाव सहज ही है अन्य कोई कारण नहीं। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2">भोगभूमिजों तथा देव नारकियों की अपेक्षा आठ अपकर्ष</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2">भोगभूमिजों तथा देव नारकियों की अपेक्षा आठ अपकर्ष</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 6/1,9,26/170/1</span><p class="PrakritGatha"> देव णेरइएसु...छम्मासावसेसे भुंजमाणाउए असंखेयाद्धापज्जवसाणे संते परभवियमाउअं बंधमाणाणं तदसंभवा।...असंखेज्ज तिरिक्खमणुसा...देव णेरइयाणं व भुंजमाणाउए छम्मासादो अहिए संते परभविआउअस्स वंधाभावा। | <span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 6/1,9,26/170/1</span><p class="PrakritGatha"> देव णेरइएसु...छम्मासावसेसे भुंजमाणाउए असंखेयाद्धापज्जवसाणे संते परभवियमाउअं बंधमाणाणं तदसंभवा।...असंखेज्ज तिरिक्खमणुसा...देव णेरइयाणं व भुंजमाणाउए छम्मासादो अहिए संते परभविआउअस्स वंधाभावा। | ||
<p class="HindiText">= भुज्यमान | <p class="HindiText">= भुज्यमान आयु के (अधिक से अधिक) छह मास अवशेष रहने पर और (कम से कम) असंखेयाद्धा काल के अवशेष रहने पर आगामी भव संबंधी आयु को बाँधने वाले देव और नारकियों के पूर्व कोटि के त्रिभाग से अधिक आबाधा होना असंभव है। (वहाँ तो अधिक से अधिक छह मास ही आबाधा होती है) असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोग-भूमिज तिर्यंच व मनुष्यों के भी देव और नारकियों के समान भुज्यमान आयु के छह मास से अधिक होने पर परभव संबंधी आयु के बंध का अभाव है।</p> | ||
<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 10/4,2,4,36/234/2</span><p class="PrakritGatha"> णिरुवक्कमाउआ पुण छम्मासावसेसे आउअबंधपाओग्गा होंति। तत्थ वि एवं चेव अट्ठगरिसाओ वत्तव्वाओ। | <span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 10/4,2,4,36/234/2</span><p class="PrakritGatha"> णिरुवक्कमाउआ पुण छम्मासावसेसे आउअबंधपाओग्गा होंति। तत्थ वि एवं चेव अट्ठगरिसाओ वत्तव्वाओ। | ||
<p class="HindiText">= जो निरूपक्रमायुष्क हैं वे भुज्यमान | <p class="HindiText">= जो निरूपक्रमायुष्क हैं वे भुज्यमान आयु में छह मास शेष रहने पर आयु बंध के योग्य होते हैं। यहाँ भी इसी प्रकार आठ अपकर्ष को कहना चाहिए।</p> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका / टीका गाथा संख्या 158/192/1 </span><p class="SanskritText">देवनारकाणां स्वस्थितौ षण्मासेषु भोगभूमिजानां नवमासेषु च अवशिष्टेषु त्रिभागेन आयुर्बंधसंभवात्। | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका / टीका गाथा संख्या 158/192/1 </span><p class="SanskritText">देवनारकाणां स्वस्थितौ षण्मासेषु भोगभूमिजानां नवमासेषु च अवशिष्टेषु त्रिभागेन आयुर्बंधसंभवात्। | ||
<p class="HindiText">= देव नारकी तिनिकैं तो छह महीना | <p class="HindiText">= देव नारकी तिनिकैं तो छह महीना आयु का अवशेष रहै अर भोगभूमियां कै नव महीना आयु का अवशेष रहै तब त्रिभाग करि आयु बंधै है।</p> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका/518/914/24</span> <p class="SanskritText">निरुपक्रमायुष्काः अनपवर्तितायुष्का देवनारका भुज्यमानायुषिषड्मासावशेष परभावायुर्बंधप्रायोग्या भवंति। अत्राप्यष्टाकर्षाः स्युः। समयाधिकपूर्वकोटिप्रभृतित्रिपलितोपम पर्यंत संख्यातासंख्यातवर्षायुष्कभोगभूमितिर्यग्मनुष्याऽपि निरुपक्रमायुष्का इति ग्राह्यं। | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका/518/914/24</span> <p class="SanskritText">निरुपक्रमायुष्काः अनपवर्तितायुष्का देवनारका भुज्यमानायुषिषड्मासावशेष परभावायुर्बंधप्रायोग्या भवंति। अत्राप्यष्टाकर्षाः स्युः। समयाधिकपूर्वकोटिप्रभृतित्रिपलितोपम पर्यंत संख्यातासंख्यातवर्षायुष्कभोगभूमितिर्यग्मनुष्याऽपि निरुपक्रमायुष्का इति ग्राह्यं। | ||
<p class="HindiText">= निरुपक्रमायुष्क अर्थात् अनपवर्तित आयुष्क | <p class="HindiText">= निरुपक्रमायुष्क अर्थात् अनपवर्तित आयुष्क देव-नारकी अपनी भुज्जमान आयु में (अधिक से अधिक) छह मास अवशेष रहने पर परभव संबंधी आयु के बंध योग्य होते हैं। यहाँ भी (कर्मभूमिजोंवत्) आठ अपकर्ष होते हैं। समयाधिक पूर्व कोटि से लेकर तीन पल्य की आयु तक संख्यात व असंख्यात वर्षायुष्क जो भोगभूमिज तिर्यंच या मनुष्य हैं वे भी निरूपक्रमायुष्क ही हैं, ऐसा जानना चाहिए। | ||
(<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड | जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 639-643/836-837</span>) | (<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड | जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 639-643/836-837</span>) | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3">आठ अपकर्ष कालों में न बँधें तो अंत समय में बँधती है</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3">आठ अपकर्ष कालों में न बँधें तो अंत समय में बँधती है</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका/518/913/20</span> <p class="SanskritText">नाष्टमापकर्षेऽप्यायुर्बंधनियमः, नाप्यन्योऽपकर्षस्तर्हि आयुर्बंधः कथं। असंखेयाद्धा भुज्यमानायुषोऽंत्याबल्यसंख्येयभागः तस्मिन्नवशिष्टे प्रागेव अंतर्महूर्त मात्रसमयप्रबद्धान् परभवायुर्नियमेन बद्ध्वा समाप्नोतीति नियमो ज्ञातव्यः। | <span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका/518/913/20</span> <p class="SanskritText">नाष्टमापकर्षेऽप्यायुर्बंधनियमः, नाप्यन्योऽपकर्षस्तर्हि आयुर्बंधः कथं। असंखेयाद्धा भुज्यमानायुषोऽंत्याबल्यसंख्येयभागः तस्मिन्नवशिष्टे प्रागेव अंतर्महूर्त मात्रसमयप्रबद्धान् परभवायुर्नियमेन बद्ध्वा समाप्नोतीति नियमो ज्ञातव्यः। | ||
<p class="HindiText">= प्रश्न - आठ | <p class="HindiText">= प्रश्न - आठ अपकर्षो में भी आयु न बंधै है, तो आयु का बंध कैसे होई? उत्तर-सौ कहैं है - `असंखेयाद्धा' जो आवली का असंख्यातवाँ भाग भुज्यमान आयु का अवशेष रहै ताकै पहिले पर-भविक आयु का बंध करै है।</p> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड /जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका/ गाथा संख्या 158/192/2</span> <p class="SanskritText">यद्यष्टापकर्षेषु क्वचिन्नायुर्बद्धं तदावल्यसंख्येयभागमात्राया समयोनमुहूर्तमात्राया वा असंक्षेपाद्धायाः प्रागेवोत्तरभवायुरंतर्मुहूर्तमात्रसमयप्रबद्धां बद्ध्वा निष्ठापयति। एतौ द्वावपि पक्षो प्रवाह्योपदेशत्वात् अंगीकृतौं। | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड /जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका/ गाथा संख्या 158/192/2</span> <p class="SanskritText">यद्यष्टापकर्षेषु क्वचिन्नायुर्बद्धं तदावल्यसंख्येयभागमात्राया समयोनमुहूर्तमात्राया वा असंक्षेपाद्धायाः प्रागेवोत्तरभवायुरंतर्मुहूर्तमात्रसमयप्रबद्धां बद्ध्वा निष्ठापयति। एतौ द्वावपि पक्षो प्रवाह्योपदेशत्वात् अंगीकृतौं। | ||
<p class="HindiText">= यदि कदाचित् किसी | <p class="HindiText">= यदि कदाचित् किसी की अपकर्ष में आयु न बंधै तो कौई आचार्य के मत से तौ आवली का असंख्यातवाँ भागप्रमाण और कोई आचार्य के मत से एक समय घाटि मुहूर्तप्रमाण आयु का अवशेष रहै तींहि के पहले उत्तर-भव की आयुकर्म को...बाँधे है। ए दोऊ पक्ष आचार्यनिका परंपरा उपदेश करि अंगीकार किये हैं। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4">आयु के त्रिभाग शेष रहने पर ही अपकर्ष काल आने संबंधी दृष्टिभेद</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 10/4,2,4,39/237/10</span><p class="PrakritGatha"> गोदम! जीवा दुविहा पण्णत्ता संखेज्जवस्साउआ चेव असंखेज्जवस्साउआ चेव। तत्थ जे ते असंखेज्जवस्साउआ ते छम्मासावसेसियंसि याउगंसि परभवियं आयुगं णिबंधंता बंधंति। तत्थ जे ते संखेज्जवस्साउआ ते दुविहा पण्णत्ता सोमक्कमाउआ णिरुवक्कम्माउआ ते त्रिभागावसेससियंसि याउगंसि परभवियं आयुगं कम्मं णिबंधंता बंधति। तत्थ जे ते सोवक्कमाउआ ते सिआ तिभागतिभागावसेसयंति यायुगंसि परभवियं आउगं कम्मं णिबंधंता बंधंति। एदेण विहायपण्णत्तिसुत्तेण सह कधं ण विरोहो। ण एदम्हादो तस्स पुधसूदस्स आइरियभेएण भेदभावण्णस्स एयत्ताभावादो। | <span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 10/4,2,4,39/237/10</span><p class="PrakritGatha"> गोदम! जीवा दुविहा पण्णत्ता संखेज्जवस्साउआ चेव असंखेज्जवस्साउआ चेव। तत्थ जे ते असंखेज्जवस्साउआ ते छम्मासावसेसियंसि याउगंसि परभवियं आयुगं णिबंधंता बंधंति। तत्थ जे ते संखेज्जवस्साउआ ते दुविहा पण्णत्ता सोमक्कमाउआ णिरुवक्कम्माउआ ते त्रिभागावसेससियंसि याउगंसि परभवियं आयुगं कम्मं णिबंधंता बंधति। तत्थ जे ते सोवक्कमाउआ ते सिआ तिभागतिभागावसेसयंति यायुगंसि परभवियं आउगं कम्मं णिबंधंता बंधंति। एदेण विहायपण्णत्तिसुत्तेण सह कधं ण विरोहो। ण एदम्हादो तस्स पुधसूदस्स आइरियभेएण भेदभावण्णस्स एयत्ताभावादो। | ||
<p class="HindiText">= प्रश्न - “हे गौतम! जीव दो | <p class="HindiText">= प्रश्न - “हे गौतम! जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-संख्यात वर्षायुष्क और असंख्यात वर्षायुक्त। उनमें जो असंख्यात वर्षायुष्क है वे आयु के छह मास शेष रहने पर पर-भविक आयु को बाँधते हुए बाँधते हैं। और जो संख्यात वर्षायुष्क जीव हैं वे दो प्रकार के कहे गये हैं। सोपक्रमायुष्क और निरुपक्रमायुष्क। उनमें जो निरुपक्रमायुष्क हैं वे आयु में त्रिभाग शेष रहने पर पर-भविक आयुकर्म को बाँधते हुए बाँधते हैं। और जो सोपक्रमायुष्क जीव हैं वे कथंचित् त्रिभाग (कथंचित् त्रिभाग का त्रिभाग और कथंचित् त्रिभाग-त्रिभाग का त्रिभाग) शेष रहने पर पर-भव संबंधी आयुकर्म को बाँधते हैं।'' इस व्याख्या-प्रज्ञप्ति सूत्र के साथ कैसे विरोध न होगा! उत्तर - नहीं, क्योंकि, इस सूत्र से उक्त सूत्र भिन्न आचार्य के द्वारा बनाया हुआ होने के कारण पृथक् है। अतः उससे इसका मिलान नहीं हो सकता। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5">अंतिम | <li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5">अंतिम समय में केवल अंतर्मुहूर्त प्रमाण ही आयु बँधती है।</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड/ जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 518/913/20</span><p class="SanskritText"> असंक्षेपाद्धाभुज्यमानायुषोंत्यवाल्येसंख्येयभागः तस्मिन्नवशिष्टे प्रागेव अंतर्मुहूर्तमात्रसमयप्रबद्धां परभावायुर्नियमेन बद्धध्वा समाप्नोतीति नियमो ज्ञातव्यः। | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड/ जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 518/913/20</span><p class="SanskritText"> असंक्षेपाद्धाभुज्यमानायुषोंत्यवाल्येसंख्येयभागः तस्मिन्नवशिष्टे प्रागेव अंतर्मुहूर्तमात्रसमयप्रबद्धां परभावायुर्नियमेन बद्धध्वा समाप्नोतीति नियमो ज्ञातव्यः। | ||
<p class="HindiText">= भुज्यमान | <p class="HindiText">= भुज्यमान आयु के काल में अंतिम आवली का असंख्यातवाँ भाग शेष रहने पर अंतर्मुहूर्त कालमात्र समय प्रबद्धों के द्वारा परभव की आयुकौ बाँधकर पूरी करे है ऐसा नियम है अर्थात् अंतिम समय केवल अंतर्मुहूर्त मात्र स्थितिवाली परभव संबंधी आयु को बाँध कर निष्ठापन करै है। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6">आठ अपकर्ष | <li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6">आठ अपकर्ष कालों में बँधी आयु का समीकरण</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 643/837/16 </span><p class="SanskritText">अपकर्षेषु मध्येप्रथमवारं वर्जित्वा द्वितीयादिवारे बध्यमानस्यायुषो वृद्धिर्हानिरवस्थितिर्वा भवति। यदि वृद्धिस्तदा द्वितीयादिवारे बद्धाधिकस्थितेरेव प्राधान्यं। अथ हानिस्तदा पूर्वबद्धाधिकस्थितेरेव प्राधान्यं। | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 643/837/16 </span><p class="SanskritText">अपकर्षेषु मध्येप्रथमवारं वर्जित्वा द्वितीयादिवारे बध्यमानस्यायुषो वृद्धिर्हानिरवस्थितिर्वा भवति। यदि वृद्धिस्तदा द्वितीयादिवारे बद्धाधिकस्थितेरेव प्राधान्यं। अथ हानिस्तदा पूर्वबद्धाधिकस्थितेरेव प्राधान्यं। | ||
<p class="HindiText">= आठ अपकर्षनि विषैं पहली बार बिना द्वितीयादित | <p class="HindiText">= आठ अपकर्षनि विषैं पहली बार बिना द्वितीयादित बार विषैं पूर्वे जो आयु बाँध्या था, तिसकी स्थिति की वृद्धि वा हानि वा अवस्थिति हो है। तहाँ जो वृद्धि होय तौ पीछैं जो अधिक स्थिति बंधी तिसकी प्रधानता जाननी। बहुरि जो हानि होय तौ पहिली अधिक स्थिति बंधी थी ताकी प्रधानता जाननी। (अर्थात् आठ अपकर्षो में बँधी हीनाधिक सर्व स्थितियो में से जो अधिक है वह ही उस आयु की बँधी हुई स्थिति समझनी चाहिए)। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7">अन्य अपकर्षो में आयु बंध के प्रमाण में चार वृद्धि व हानि संभव है</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7">अन्य अपकर्षो में आयु बंध के प्रमाण में चार वृद्धि व हानि संभव है</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">धवला/पुस्तक संख्या 16/पृष्ठ 370/11</span> <p class="PrakritGatha">चदुण्णमाउआणमवट्ठिद-भुजगारसंकमाणं कालो जहण्णमुक्कस्सेण एगसमओ। पुव्वबंधादो समउत्तरं पबद्धस्स जट्ठिदिं पडुच्च जट्ठिदिसंकयो त्ति एत्थ घेत्तव्वं। देव-णिरयाउ-आणं अप्पदरसंकमस्स जट्ट0 अंतोमुहुत्तं, उक्क, तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि। तिरिक्खमणुसाउआणं जह, अंतोमुहुत्तं, उक्क, तिण्णिपलिदोवमाणि सादिरेयाणि। | <span class="GRef">धवला/पुस्तक संख्या 16/पृष्ठ 370/11</span> <p class="PrakritGatha">चदुण्णमाउआणमवट्ठिद-भुजगारसंकमाणं कालो जहण्णमुक्कस्सेण एगसमओ। पुव्वबंधादो समउत्तरं पबद्धस्स जट्ठिदिं पडुच्च जट्ठिदिसंकयो त्ति एत्थ घेत्तव्वं। देव-णिरयाउ-आणं अप्पदरसंकमस्स जट्ट0 अंतोमुहुत्तं, उक्क, तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि। तिरिक्खमणुसाउआणं जह, अंतोमुहुत्तं, उक्क, तिण्णिपलिदोवमाणि सादिरेयाणि। | ||
<p class="HindiText">= चार आयु | <p class="HindiText">= चार आयु कर्मों के अवस्थित और भुजाकार संक्रमों का काल जघन्य व उत्कर्ष से एक समय मात्र हैं। पूर्व बंध से एक समय अधिक बाँधे गये आयुकर्म का जघन्य , स्थिति की अपेक्षा यहाँ जघन्य स्थितिसंक्रम ग्रहण करना चाहिए। देवायु और नरकायु के अल्पतर संक्रम का काल जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है। तिर्यंचायु और मनुष्यायु के अल्पतर संक्रम का काल जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक तीन-तीन पल्योपम मात्र हैं।</p> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 441/593</span> <p class="PrakritGatha">संकमणाकरणूणा णवकरणा होंति सव्व आऊणं...॥ | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 441/593</span> <p class="PrakritGatha">संकमणाकरणूणा णवकरणा होंति सव्व आऊणं...॥</p> | ||
<p class="HindiText">= च्यारि आयु तिनकै संक्रमणकरण बिना नवकरण पाइए है। | <p class="HindiText">= च्यारि आयु तिनकै संक्रमणकरण बिना नवकरण पाइए है।</p> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8">उसी अपकर्ष काल के सर्व समयो में उत्तरोत्तर हीन बंध होता है</strong><br /></span></li></ol> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8">उसी अपकर्ष काल के सर्व समयो में उत्तरोत्तर हीन बंध होता है</strong><br /></span></li></ol> | ||
<span class="GRef">महाबंध/ पुस्तक संख्या 2/$271/145/12 </span><p class="PrakritGatha">आयुगस्स अत्थि अव्वत्तबंधगा अप्पतरबंधगा य। | <span class="GRef">महाबंध/ पुस्तक संख्या 2/$271/145/12 </span><p class="PrakritGatha">आयुगस्स अत्थि अव्वत्तबंधगा अप्पतरबंधगा य।</p> | ||
<span class="GRef">महाबंध/ पुस्तक संख्या 2/$359/182/6</span><p class="PrakritGatha"> आयु. अत्थि अवत्तव्वबंधगा य असंखेज्जभागहाणिबंधगा य। | <span class="GRef">महाबंध/ पुस्तक संख्या 2/$359/182/6</span><p class="PrakritGatha"> आयु. अत्थि अवत्तव्वबंधगा य असंखेज्जभागहाणिबंधगा य। | ||
<p class="HindiText">= 1. आयु | <p class="HindiText">= 1. आयु कर्म का अवक्तव्य बंध करनेवाले जीव हैं, और अल्पतर बंध करने वाले जीव हैं। विशेषार्थ - आयु कर्म का प्रथम समय में जो स्थितिबंध होता है उससे द्वितीयादि समयों में उत्तरोत्तर वह हीन हीनतर ही होता है ऐसा नियम है।</p> | ||
2. आयु | <p class="HindiText">2. आयु कर्म के अवक्तव्यपद का बंध करनेवाले और असंख्यात भागहानि पद का बंध करनेवाले जीव हैं। विशेषार्थ-...आयु कर्म का अवक्तव्य बंध होने के बाद अल्पतर ही बंध होता है।...आयुकर्म...का जब बंध प्रारंभ होता है तब प्रथम समय में एक मात्र अवक्तव्य पद ही होता है और अनंतर अल्पतरपद होता है। फिर भी उस अल्पतर पद में कौन-सी हानि होती है, यही बतलाने के लिये यहाँ वह असंख्यात भागहानि ही होती है यह स्पष्ट निर्देश किया है।</p> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5">आयु के उत्कर्षण अपवर्तन संबंधी नियम</strong><br /></span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1">बद्ध्यमान व भुज्यमान दोनों | <li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1">बद्ध्यमान व भुज्यमान दोनों आयुओं को अपवर्तन संभव है</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड /जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 643/837/16</span> <p class="SanskritText">आयुर्बंधं कुर्ततां जीवानां परिणामवशेन बद्ध्यमानस्यायुषोऽपर्वतनमपि भवति। तदेवापर्वतनद्यात इत्युच्यते उदीयमानायुरपवर्तनस्यैव कदलीघाताभिघानात्। | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड /जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 643/837/16</span> <p class="SanskritText">आयुर्बंधं कुर्ततां जीवानां परिणामवशेन बद्ध्यमानस्यायुषोऽपर्वतनमपि भवति। तदेवापर्वतनद्यात इत्युच्यते उदीयमानायुरपवर्तनस्यैव कदलीघाताभिघानात्। | ||
<p class="HindiText">= बहुरि | <p class="HindiText">= बहुरि आयु के बंध को करते जीव तिनके परिणामनिके वश र्तें (बद्ध्यमान आयु का) अपर्वतन भी हो है। अपवर्तन नाम घटने का है। सौ या कौं अपवर्तन घात कहिए जातै उदय आया आयु के (अर्थात भुज्यमान आयु के) अपरवर्तन का नाम कदलीघात है। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2">परंतु बद्ध्यमान | <li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2">परंतु बद्ध्यमान आयु की उदीरणा नहीं होती</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 918/1103</span><p class="PrakritGatha">....। परभविय आउगस्सय उदीरणा णत्थि णियमेण ॥918॥ | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 918/1103</span><p class="PrakritGatha">....। परभविय आउगस्सय उदीरणा णत्थि णियमेण ॥918॥ | ||
<p class="HindiText">= बहुरि | <p class="HindiText">= बहुरि परभव का बद्ध्यमान आयु ताकी उदीरणा नियम करि नाहीं है। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3">उत्कृष्ट आयु के अनुभाग का अपवर्तन संभव है।</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3">उत्कृष्ट आयु के अनुभाग का अपवर्तन संभव है।</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 12/4,2,7,20/21/3</span><p class="PrakritGatha"> उक्कस्साणुभागे बंधे ओवट्टणाघादो णत्थि त्ति के वि भणंति। तण्ण घडदे, उक्कस्साउअं बंधिय पुणो तं घादिय मिच्छत्तं गंतूणअग्गिदेवेसु उप्पण्णदीवायणेण वियहिचारादो महाबंधे आउअउक्कस्साणुभागंतरस्स उवड्ढपोग्गलमेत्तकालपरूवणण्णहाणुववत्तीदो वा। | <span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 12/4,2,7,20/21/3</span><p class="PrakritGatha"> उक्कस्साणुभागे बंधे ओवट्टणाघादो णत्थि त्ति के वि भणंति। तण्ण घडदे, उक्कस्साउअं बंधिय पुणो तं घादिय मिच्छत्तं गंतूणअग्गिदेवेसु उप्पण्णदीवायणेण वियहिचारादो महाबंधे आउअउक्कस्साणुभागंतरस्स उवड्ढपोग्गलमेत्तकालपरूवणण्णहाणुववत्तीदो वा। | ||
<p class="HindiText">= प्रश्न- | <p class="HindiText">= प्रश्न-उत्कृष्ट आयु को बाँधकर उसे अपवर्तनघात के द्वारा घातकर पश्चात् अधस्तन गुणस्थानों को प्राप्त होने पर उत्कृष्ट अनुभाग का स्वामी क्यों नहीं होता? उत्तर-(नहीं क्योंकि घातित अनुभाग के उत्कृष्ट होने का विरोध है)। उत्कृष्ट अनुभाग को बाँधनेपर हैं। उसका अपवर्तनघात नहीं होता, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किंतु वह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा माननेपर एक तो उत्कृष्ट आयु को बाँधकर पश्चात् उसका घात करके मिथ्यात्व को प्राप्त हो अग्निकुमार देवो में उत्पन्न हुए द्विपायन मुनि के साथ व्यभिचार आता है, दूसरे इसका घात माने बिना महाबंध में प्ररूपित उत्कृष्ट अनुभाग का उपार्ध पुद्गल प्रमाण अंतर भी नहीं बन सकता। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4">असंख्यात वर्षायुष्कों तथा चरम | <li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4">असंख्यात वर्षायुष्कों तथा चरम शरीरियों की आयु का अपवर्तन नहीं होता</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र/2/53</span> <p class="SanskritText">औपपादिकाचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ॥53॥ | <span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र/2/53</span> <p class="SanskritText">औपपादिकाचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ॥53॥ | ||
<p class="HindiText">= औपपादिक देहवाले देव व नारकी, चरमोत्तम देहवाले अर्थात् वर्तमान | <p class="HindiText">= औपपादिक देहवाले देव व नारकी, चरमोत्तम देहवाले अर्थात् वर्तमान भव से मोक्ष जानेवाले, भोग भूमियाँ तिर्यंच व मनुष्य अनपवर्ती आयु वाले होते हैं। अर्थात् उनकी अपमृत्यु नहीं होती। | ||
(<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि 2/53/201/4</span>) (<span class="GRef">राजवार्तिक/ अध्याय संख्या 2/53/1-10/157</span>) (<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 9/4,1,66/306/6</span>) (<span class="GRef">तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या 2/135</span>)। | (<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि 2/53/201/4</span>) (<span class="GRef">राजवार्तिक/ अध्याय संख्या 2/53/1-10/157</span>) (<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 9/4,1,66/306/6</span>) (<span class="GRef">तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या 2/135</span>)। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5">भुज्यमान आयु पर्यंत बद्ध्यमान आयुमें बाधा असंभव है।</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5">भुज्यमान आयु पर्यंत बद्ध्यमान आयुमें बाधा असंभव है।</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">धवला/पुस्तक संख्या 6/1,9-6,24/168/5</span><p class="PrakritGatha"> जधा णाणावरणादिसमयपबद्धाणं बंधावलियवदिक्कंताणं ओकड्डण-परपयडि-संकमेहि बाधा अत्थि, तधा आउअस्स ओकड्डण-परपयडिसंकमादीहि बाधाभाव परूवणट्ठं विदियवारमाबाधाणिद्देसादो। | <span class="GRef">धवला/पुस्तक संख्या 6/1,9-6,24/168/5</span><p class="PrakritGatha"> जधा णाणावरणादिसमयपबद्धाणं बंधावलियवदिक्कंताणं ओकड्डण-परपयडि-संकमेहि बाधा अत्थि, तधा आउअस्स ओकड्डण-परपयडिसंकमादीहि बाधाभाव परूवणट्ठं विदियवारमाबाधाणिद्देसादो। | ||
<p class="HindiText">= (जैसे) ज्ञानावरणादि | <p class="HindiText">= (जैसे) ज्ञानावरणादि कर्मों के समयप्रबद्धों के अपकर्षण और पर-प्रकृति संक्रमण के द्वारा बाधा होती है, उस प्रकार आयुकर्म के आबाधा काल के पूर्ण होने तक अपरकर्षण और पर प्रकृति संक्रमण के द्वारा बाधा का अभाव है। अर्थात् आगामी भव संबंधी आयुकर्म की निषेक स्थिति में कोई व्याघात नहीं होता है, इस बात के प्ररूपण के लिए दूसरी बार `आबाधा' इस सूत्र को निर्देश किया है। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6">चारों | <li><span class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6">चारों आयुओं का परस्पर में संक्रमण नहीं होता</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 410/573</span><p class="PrakritGatha"> बंधे...। ...आउचउक्के ण संकमणं ॥410॥ | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 410/573</span><p class="PrakritGatha"> बंधे...। ...आउचउक्के ण संकमणं ॥410॥ | ||
<p class="HindiText">= बहुरि च्यारि आयु तिनकैं परस्पर संक्रमण नाहीं, देवायु, मनुष्यायु आदि रूप होई न परिणमैं इत्यादि ऐसा जानना। | <p class="HindiText">= बहुरि च्यारि आयु तिनकैं परस्पर संक्रमण नाहीं, देवायु, मनुष्यायु आदि रूप होई न परिणमैं इत्यादि ऐसा जानना। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.7" id="5.7">संयम | <li><span class="HindiText"><strong name="5.7" id="5.7">संयम की विराधना से आयु का अपर्वतन हो जाता है</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 4/1,5,96/383/3</span><p class="PrakritGatha"> एक्को विराहियसंजदो वेमाणियदेवेसु आउअं बंधिदूण तमोवट्टणाघादेण घादिय भवणवासियदेवेसु उववण्णो। | <span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 4/1,5,96/383/3</span><p class="PrakritGatha"> एक्को विराहियसंजदो वेमाणियदेवेसु आउअं बंधिदूण तमोवट्टणाघादेण घादिय भवणवासियदेवेसु उववण्णो। | ||
<p class="HindiText">= विराधना की है | <p class="HindiText">= विराधना की है संयम की जिसने ऐसा कोई संयत मनुष्य वैमानिक देवों में आयु को बाँध करके अपवर्तनाघात से घात करके भवनवासी देवो में उत्पन्न हुआ। | ||
(<span class="GRef">धवला पुस्तक संख्या 4/1,5,97/385/8 विशेषार्थ</span>)</p> | (<span class="GRef">धवला पुस्तक संख्या 4/1,5,97/385/8 विशेषार्थ</span>)</p> | ||
<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 12/4,2,7,20/21/3</span><p class="PrakritGatha"> उक्किस्साउअं बंधिय पुणो तं घादियमिच्छत्तं गंतूण अग्गिदेवेसु उप्पण्णदीवायण...। | <span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 12/4,2,7,20/21/3</span><p class="PrakritGatha"> उक्किस्साउअं बंधिय पुणो तं घादियमिच्छत्तं गंतूण अग्गिदेवेसु उप्पण्णदीवायण...। | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.8" id="5.8">आयु के अनुभाग व स्थितिघात साथ-साथ होते हैं</strong><br /></span></li></ol> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.8" id="5.8">आयु के अनुभाग व स्थितिघात साथ-साथ होते हैं</strong><br /></span></li></ol> | ||
<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 12/4,2,13,41/1-2/395 पर उद्धृत</span><p class="PrakritGatha"> “ट्ठिदिघादे हंमंते अणुभागा आऊआण सव्वेसिं। अणुभागेण विणा वि हु आउववज्जण ट्ठिदिघादो ॥1॥ अणुभागे हंमंते ट्ठिदिघादो आउआण सव्वेसिं। ठिदिघादेण विणा वि हु आउववज्जामणुभागो ॥2॥ | <span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 12/4,2,13,41/1-2/395 पर उद्धृत</span><p class="PrakritGatha"> “ट्ठिदिघादे हंमंते अणुभागा आऊआण सव्वेसिं। अणुभागेण विणा वि हु आउववज्जण ट्ठिदिघादो ॥1॥ अणुभागे हंमंते ट्ठिदिघादो आउआण सव्वेसिं। ठिदिघादेण विणा वि हु आउववज्जामणुभागो ॥2॥ | ||
<p class="HindiText">= स्थितिघात के | <p class="HindiText">= स्थितिघात के अनुभागों का नाश होता है। आयु को छोड़कर शेष कर्मों का अनुभाग के बिना भी स्थितिघात होता है ॥1॥ अनुभाग का घात होने पर सब आयुओं का स्थितिघात होता है। स्थिति घात के बिना भी आयु को छोड़कर शेष कर्मों के अनुभाग का घात होता है।</p> | ||
<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 12/4,2,7,20/21/8</span> <p class="PrakritGatha">उक्कस्साणुभागेण सह तेत्तीसाउअं बंधिय अणुभागं मोत्तूण ट्ठिदीए चेत्र ओवट्टणाघादं कादूण सोधम्मादिसु उप्पण्णाणं उक्कस्सभावसामित्तं किण्ण लब्भदे। ण विणा आउअस्स उक्कस्सट्ठिदिघादाभावादो।</p> | <span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 12/4,2,7,20/21/8</span> <p class="PrakritGatha">उक्कस्साणुभागेण सह तेत्तीसाउअं बंधिय अणुभागं मोत्तूण ट्ठिदीए चेत्र ओवट्टणाघादं कादूण सोधम्मादिसु उप्पण्णाणं उक्कस्सभावसामित्तं किण्ण लब्भदे। ण विणा आउअस्स उक्कस्सट्ठिदिघादाभावादो।</p> | ||
<p class="HindiText">= प्रश्न-उत्कृष्ट | <p class="HindiText">= प्रश्न-उत्कृष्ट अनुभाग के साथ तैंतीस सागरोपम प्रमाण आयु को बाँधकर अनुभाग को छोड़ केवल स्थिति के अपवर्तन घात को करके सौधर्मादि देवो में उत्पन्न हुए जीवों के उत्कृष्ट अनुभाग का स्वामित्व क्यों नहीं पाया जाता। उत्तर-नहीं, क्योंकि (अनुभाग घात के) बिना आयु को उत्कृष्ट स्थिति का घात संभव नहीं।</p> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6.1" id="6.1">तिर्यचों की उत्कृष्ट आयु भोगभूमि, स्वयंभूरमण द्वीप, व कर्मभूमि के प्रथम चार कालों में ही संभव है</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.1" id="6.1">तिर्यचों की उत्कृष्ट आयु भोगभूमि, स्वयंभूरमण द्वीप, व कर्मभूमि के प्रथम चार कालों में ही संभव है</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 5/285-286</span><p class="PrakritGatha"> एदे उक्कस्साऊ पुव्वावरविदेहजादतिरियाणं। कम्मावणिपडिबद्धे बाहिरभागे सयंपहगिरीदो ॥284॥ तत्थेय सव्वकालं केई जीवाण भरहे एरवदे। तुरियस्स पढमभागे एदेणं होदि उक्कस्सं ॥285॥ | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 5/285-286</span><p class="PrakritGatha"> एदे उक्कस्साऊ पुव्वावरविदेहजादतिरियाणं। कम्मावणिपडिबद्धे बाहिरभागे सयंपहगिरीदो ॥284॥ तत्थेय सव्वकालं केई जीवाण भरहे एरवदे। तुरियस्स पढमभागे एदेणं होदि उक्कस्सं ॥285॥ | ||
<p class="HindiText">= उपर्युक्त उत्कृष्ट आयु | <p class="HindiText">= उपर्युक्त उत्कृष्ट आयु पूर्वापर विदेहों में उत्पन्न हुए तिर्यंचों के तथा स्वयंप्रभ पर्वत के बाह्य कर्मभूमि-भाग में उत्पन्न हुए तिर्यंचों के ही सर्वकाल पायी जाती है। भरत और ऐरावत क्षेत्र के भीतर चतुर्थ काल के प्रथम भाग में भी किन्हीं तिर्यंचों के उक्त उत्कृष्ट आयु पायी जाती है। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.2" id="6.2">भोग | <li><span class="HindiText"><strong name="6.2" id="6.2">भोग भूमिजों में भी आयु हीनाधिक हो सकती है</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 14/4,2,6,8/89/13</span><p class="PrakritGatha"> असंखेज्जवासाउअस्स वा त्ति उत्ते देवणेरइयाणं गहणं, ण समयाहियपुव्वकोडिप्पहुडिउवरिमआउअतिरिक्खमणुस्साणं गहणं। | <span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 14/4,2,6,8/89/13</span><p class="PrakritGatha"> असंखेज्जवासाउअस्स वा त्ति उत्ते देवणेरइयाणं गहणं, ण समयाहियपुव्वकोडिप्पहुडिउवरिमआउअतिरिक्खमणुस्साणं गहणं। | ||
<p class="HindiText">= `असंख्यातवर्षायुष्क' से देव | <p class="HindiText">= `असंख्यातवर्षायुष्क' से देव नारकियों का ग्रहण किया गया है, इस पद से एक अधिक पूर्व कोटि आदि उपरिम आयु विकल्पों से तिर्यंचो व मनुष्यों का ग्रहण नहीं करना चाहिए। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.3" id="6.3">बद्धायुष्क व घातायुष्क देवों की आयु संबंधी स्पष्टीकरण</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.3" id="6.3">बद्धायुष्क व घातायुष्क देवों की आयु संबंधी स्पष्टीकरण</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 4/1,5,97/385 पर विशेषार्थ </span><p class="HindiText">“यहाँ पर जो | <span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 4/1,5,97/385 पर विशेषार्थ </span><p class="HindiText">“यहाँ पर जो बद्धायुघात की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देवों के दो प्रकार के काल की प्ररूपणा की है, उसका अभिप्राय यह है कि, किसी मनुष्य ने अपनी संयम अवस्था में देवायु बंध किया। पीछे उसने संक्लेश परिणामों के निमित्त से संयम की विराधना कर दी और इसलिए अपवर्तन घात के द्वारा आयु का घात भी कर दिया। संयम की विराधना कर देने पर भी यदि वह सम्यग्दृष्टि है, तो मर कर जिसे कल्प में उत्पन्न होगा, वहाँ की साधाणतः निश्चित आयु से अंतर्मुहूर्त कम अर्ध सागरोपम प्रमाण अधिक आयु का धारक होगा। कल्पना कीजिए किसी मनुष्य ने संयम अवस्था में अच्युत कल्प में संभव बाईस सागर प्रमाण आयु बंध किया। पीछे संयम की विराधना और बाँधी हुई आयु की अपवर्तना कर असंयत सम्यग्दृष्टि हो गया। पीछे मर कर यदि सहस्रार कल्प में उत्पन्न हुआ, तो वहाँ की साधारण आयु जो अठारह सागर की है, उससे धातायुष्क सम्यग्दृष्टि देव की आयु अंतर्मूहूर्त कम आधा सागर अधिक होगी। यदि वही पुरुष संयम की विराधना के साथ ही सम्यक्त्व की विराधना कर मिथ्यादृष्टि हो जाता है, और पीछे मरण कर उसी सहस्रार कल्प में उत्पन्न होता है, तो उसकी वहाँ की निश्चित अठारह सागर की आयुसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग से अधिक होगी। ऐसे जीव को घातायुष्क मिथ्यादृष्टि कहते हैं।</p> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.4" id="6.4">चारों गतियों में परस्पर आयुबंध संबंधी</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.4" id="6.4">चारों गतियों में परस्पर आयुबंध संबंधी</strong><br /></span></li> | ||
<p class="HindiText">1. नरक व | <p class="HindiText">1. नरक व देवगति के जीवो में</p> | ||
<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 12/4,2,7,32/27/5</span><p class="PrakritGatha"> अपज्जत्ततिरिक्खाउअं देव-णेरइया ण बंधंति। | <span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 12/4,2,7,32/27/5</span><p class="PrakritGatha"> अपज्जत्ततिरिक्खाउअं देव-णेरइया ण बंधंति। | ||
<p class="HindiText">= अपर्याप्त तिर्यंच संबंधी | <p class="HindiText">= अपर्याप्त तिर्यंच संबंधी आयु को देव व नारकी जीव नहीं बाँधते।</p> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड /जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 439-440/836/6</span><p class="SanskritText"> परभवायुः स्वभुज्यामानायुष्युत्कृष्टेन षण्मासेऽवशिष्टे देवनारका नारं नैरश्चं बध्नंति तद्बंधे योग्याः स्युरित्यर्थः।... सप्तमपृथ्वीजाश्च तैरश्चमेव। | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड /जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 439-440/836/6</span><p class="SanskritText"> परभवायुः स्वभुज्यामानायुष्युत्कृष्टेन षण्मासेऽवशिष्टे देवनारका नारं नैरश्चं बध्नंति तद्बंधे योग्याः स्युरित्यर्थः।... सप्तमपृथ्वीजाश्च तैरश्चमेव। | ||
<p class="HindiText">= भुज्यमान | <p class="HindiText">= भुज्यमान आयु के उत्कृष्ट छह मास अवशेष रहैं देव नारकी हैं ते मनुष्यायु वा तिर्यंचायु को बाँधै है अर्थात् तिस काल में बंध योग्य हों हैं।....सप्तम पृथ्वी के नारकी तिर्यंचायु ही को बाँधे हैं।</p> | ||
<p class="HindiText">2. कर्म भूमिज तिर्यंच मनुष्य गति के जीवों में</p> | <p class="HindiText">2. कर्म भूमिज तिर्यंच मनुष्य गति के जीवों में</p> | ||
<p class="HindiText">नोट-सम्यग्दृष्टि मनुष्य व तिर्यंच केवल देवायु न मनुष्यायु का ही बंध करते हैं-देखें [[ बंधव्युच्छित्ति चार्ट ]]।</p> | <p class="HindiText">नोट-सम्यग्दृष्टि मनुष्य व तिर्यंच केवल देवायु न मनुष्यायु का ही बंध करते हैं-देखें [[ बंधव्युच्छित्ति चार्ट ]]।</p> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/अध्याय संख्या 2/49/8/155/9</span> <p class="SanskritText">देवेषूत्पद्य च्युतः मनुष्येषु तिर्यक्षु चोत्पद्य अपर्याप्तकालमनु भूय पुनिर्देवायुर्बद्ध्वा उत्पद्यते लब्धमंतरम्। | <span class="GRef"> राजवार्तिक/अध्याय संख्या 2/49/8/155/9</span> <p class="SanskritText">देवेषूत्पद्य च्युतः मनुष्येषु तिर्यक्षु चोत्पद्य अपर्याप्तकालमनु भूय पुनिर्देवायुर्बद्ध्वा उत्पद्यते लब्धमंतरम्। | ||
<p class="HindiText">= | <p class="HindiText">= देवों में उत्पन्न होकर वहाँ से च्युत हो मनुष्य वा तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ। अपर्याप्त काल मात्र का अनुभव कर पुनः देवायु को बाँधकर वहाँ ही उत्पन्न हो गया। इस प्रकार देव गति का अंतर अंतर्मुहूर्त मात्र ही प्राप्त होता है। अर्थात् अपर्याप्त मनुष्य वा तिर्यंच भी देवायु बंध कर सकते हैं। | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड| जीव तत्त्व प्रदीपिका/टीका गाथा संख्या 439-440/836/7</span><p class="SanskritText"> नरतिर्यंचस्त्रिभागेऽवशिष्टे चत्वारि।... एक विकलेंद्रिया नारं तैरंचं च। तेजो वायवः... | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड| जीव तत्त्व प्रदीपिका/टीका गाथा संख्या 439-440/836/7</span><p class="SanskritText"> नरतिर्यंचस्त्रिभागेऽवशिष्टे चत्वारि।... एक विकलेंद्रिया नारं तैरंचं च। तेजो वायवः... | ||
<p class="HindiText">= तैरंचमेव बहुरि मनुष्य तिर्यंच भुज्यमान आयु का तीसरा भाग अवशेष रहैं च्यास्यों आयु कौ बाँधै है....एकेंद्रिय व विकलेंद्रिय नारक और तिर्यंच आयु कौ बाँधै है। तेजकायिक वा वातकायिक.... तिर्यचायु ही बांधै हैं।</p> | <p class="HindiText">= तैरंचमेव बहुरि मनुष्य तिर्यंच भुज्यमान आयु का तीसरा भाग अवशेष रहैं च्यास्यों आयु कौ बाँधै है....एकेंद्रिय व विकलेंद्रिय नारक और तिर्यंच आयु कौ बाँधै है। तेजकायिक वा वातकायिक.... तिर्यचायु ही बांधै हैं।</p> | ||
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<p class="HindiText">3. भोगभूमि मनुष्य व तिर्यंच गति के जीवो में</p> | <p class="HindiText">3. भोगभूमि मनुष्य व तिर्यंच गति के जीवो में</p> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका/ गाथा संख्या 639-640/836/8</span><p class="SanskritText"> भोगभूमिजाः षण्मासेऽवशिष्टे दैवं। | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका/ गाथा संख्या 639-640/836/8</span><p class="SanskritText"> भोगभूमिजाः षण्मासेऽवशिष्टे दैवं। | ||
<p class="HindiText">= बहुरि | <p class="HindiText">= बहुरि भोगभूमिया छह मास अवशेष रहैं देवायु ही को बाँधै।</p> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.5" id="6.5">आयु के साथ वही गति प्रकृति बँधती है</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.5" id="6.5">आयु के साथ वही गति प्रकृति बँधती है</strong><br /></span></li> | ||
<p class="HindiText">नोट- | <p class="HindiText">नोट-आयु के साथ गति का जो बंध होता है वह नियम से आयु के समान ही होता है। क्योंकि गति नामकर्म व आयुकर्म की व्युच्छित्ति एक साथ ही होती है-देखें [[बंध व्युच्छित्ति चार्ट ]]।</p> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.6" id="6.6">एक भव में एक ही आयु का बंध संभव है</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.6" id="6.6">एक भव में एक ही आयु का बंध संभव है</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड/ मूल गाथा संख्या 642/837</span><p class="PrakritGatha"> एक्के एक्कं आऊं एक्कभवे बंधमेदि जोग्गपदे। अडवारं वा तत्थवि तिभागसेसे व सव्वत्थ ॥642॥ | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड/ मूल गाथा संख्या 642/837</span><p class="PrakritGatha"> एक्के एक्कं आऊं एक्कभवे बंधमेदि जोग्गपदे। अडवारं वा तत्थवि तिभागसेसे व सव्वत्थ ॥642॥ | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6.7" id="6.7">बद्धायुष्कों में सम्यक्त्व व गुणस्थान प्राप्ति संबंधी</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.7" id="6.7">बद्धायुष्कों में सम्यक्त्व व गुणस्थान प्राप्ति संबंधी</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">पंचसंग्रह / प्राकृत /अधिकार संख्या 1/201 </span><p class="PrakritGatha">चत्तारि वि छेत्ताइं आउयबंधेण होइ सम्मत्तं। अणुवय-महव्वाइं ण लहइ देवउअं मोत्तुं ॥201॥ | <span class="GRef">पंचसंग्रह / प्राकृत /अधिकार संख्या 1/201 </span><p class="PrakritGatha">चत्तारि वि छेत्ताइं आउयबंधेण होइ सम्मत्तं। अणुवय-महव्वाइं ण लहइ देवउअं मोत्तुं ॥201॥ | ||
<p class="HindiText">= जीव चारों ही क्षेत्रों की (गतियों की) आयु का बंध होने पर सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है। किंतु अणुव्रत और महाव्रत | <p class="HindiText">= जीव चारों ही क्षेत्रों की (गतियों की) आयु का बंध होने पर सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है। किंतु अणुव्रत और महाव्रत देवायु को छोड़कर शेष आयु का बंध होने पर प्राप्त नहीं कर सकता।</p> | ||
(<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 1/1,1,85/169/326</span>), (<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 334</span>), (<span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड / मूल गाथा संख्या 653/1101</span>) | (<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 1/1,1,85/169/326</span>), (<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 334</span>), (<span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड / मूल गाथा संख्या 653/1101</span>) | ||
<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 1/1,1,26/208/1</span> <p class="SanskritText">बद्धायुरसंयतसम्यग्दष्टिसासादनानामिव न सम्यग्मिथ्यादृष्टिसंयतासंयतानां च तत्रापर्याप्तकाले संभव। समस्ति तत्र तेन तयोर्विरोधात्।</p> | <span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 1/1,1,26/208/1</span> <p class="SanskritText">बद्धायुरसंयतसम्यग्दष्टिसासादनानामिव न सम्यग्मिथ्यादृष्टिसंयतासंयतानां च तत्रापर्याप्तकाले संभव। समस्ति तत्र तेन तयोर्विरोधात्।</p> | ||
<p class="HindiText">= जिस प्रकार बद्धायुष्क असंयतसम्यग्दृष्टि और सासादन | <p class="HindiText">= जिस प्रकार बद्धायुष्क असंयतसम्यग्दृष्टि और सासादन गुणस्थान वालों का तिर्यंच गति के अपर्याप्त काल में संभव है, उस प्रकार सम्यग् मिथ्यादृष्टि और संयतासंयतों का तिर्यंचगति के अपर्याप्त काल में संभव नहीं हैं, क्योंकि, तिर्यंचगति में अपर्याप्तकाल के साथ सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयतों का विरोध है।</p> | ||
<span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 12/1,2,7,19/20/13</span><p class="PrakritGatha"> उक्कस्साणुभागेण सह आउवबंधे संजदासंजदादिहेट्ठिमगुणट्ठाणाणं गमणाभावादो।</p> | <span class="GRef">धवला/ पुस्तक संख्या 12/1,2,7,19/20/13</span><p class="PrakritGatha"> उक्कस्साणुभागेण सह आउवबंधे संजदासंजदादिहेट्ठिमगुणट्ठाणाणं गमणाभावादो।</p> | ||
<p class="HindiText">= उत्कृष्ट | <p class="HindiText">= उत्कृष्ट अनुभाग के साथ आयु को बाँधने पर संयतासंयतादि अधस्तन गुणस्थानों में गमन नहीं होता।</p> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका /गाथा संख्या 731/1325/14</span> <p class="SanskritText"> बद्धदेवायुष्कादन्यस्त उपशमश्रेण्यांमरणाभावत्। शेषत्रिकबद्धायुष्कानां च देशसकलसंयमयोरेवासंभवात्।</p> | <span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका /गाथा संख्या 731/1325/14</span> <p class="SanskritText"> बद्धदेवायुष्कादन्यस्त उपशमश्रेण्यांमरणाभावत्। शेषत्रिकबद्धायुष्कानां च देशसकलसंयमयोरेवासंभवात्।</p> | ||
<p class="HindiText">= | <p class="HindiText">= देवायु का जाकै बंध भया होइ तिहिं बिना अन्य जीव का उपशम श्रेणी विषैं मरण नाहीं। अन्य आयु जाकै बंधा होइ ताकै देशसंयम सकलसंयम भी न होइ।</p> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका/ गाथा संख्या 335/486/13</span> <p class="SanskritText">नरकतिर्यग्देवायुस्तु भुज्यमानबद्ध्यमानोभयप्रकारेण सत्त्वेसु सत्सु यथासंख्यंदेशव्रताः सकलव्रताः क्षपका नैव स्युः।</p> | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका/ गाथा संख्या 335/486/13</span> <p class="SanskritText">नरकतिर्यग्देवायुस्तु भुज्यमानबद्ध्यमानोभयप्रकारेण सत्त्वेसु सत्सु यथासंख्यंदेशव्रताः सकलव्रताः क्षपका नैव स्युः।</p> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड /जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका /गाथा संख्या 346/498/11</span> <p class="SanskritText">असंयते नारकमनुष्यायुषी व्युच्छित्तिः, तत्सत्त्वेऽणुव्रताघटनात्।</span> | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड /जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका /गाथा संख्या 346/498/11</span> <p class="SanskritText">असंयते नारकमनुष्यायुषी व्युच्छित्तिः, तत्सत्त्वेऽणुव्रताघटनात्।</span> | ||
<p class="HindiText">= 1. बद्ध्यमान और भुज्यमान दोउ प्रकार अपेक्षा करि | <p class="HindiText">= 1. बद्ध्यमान और भुज्यमान दोउ प्रकार अपेक्षा करि नरकायु का सत्त्व होतैं देशव्रत न होई, तिर्यंचायु का सत्त्व होतैं सकलव्रत न होई, नरक तिर्यंच व देवायु का सत्त्व होतैं क्षपक श्रेणी न होई। 2. असंयत सम्यग्दृष्टियों के नारक व मनुष्यायु की व्युच्छित्ति हो जाती है क्योंकि उनके सत्त्व में अणुव्रत नहीं होते।</p> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.8" id="6.8">बद्ध्यमान देवायुष्क का सम्यक्त्व विराधित नहीं होता</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.8" id="6.8">बद्ध्यमान देवायुष्क का सम्यक्त्व विराधित नहीं होता</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड //भाषा 366/526/3</span> <p class="HindiText">बहुरि बद्ध्यमान देवायु अर भुज्यमान मनुष्यायु युक्त असंयातादि च्यारि गुणस्थानवर्ती जीव सम्यक्त्व तै भ्रष्ट होइ मिथ्यादृष्टि विषैं होते नाहीं। | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड //भाषा 366/526/3</span> <p class="HindiText">बहुरि बद्ध्यमान देवायु अर भुज्यमान मनुष्यायु युक्त असंयातादि च्यारि गुणस्थानवर्ती जीव सम्यक्त्व तै भ्रष्ट होइ मिथ्यादृष्टि विषैं होते नाहीं। | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.9" id="6.9">बंध उदय सत्त्व संबंधी संयमी भंग</strong><br /></span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.9" id="6.9">बंध उदय सत्त्व संबंधी संयमी भंग</strong><br /></span></li> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / / मूल गाथा संख्या 641/836</span><p class="PrakritGatha"> सगसगगदीणमाउं उदेदि बंधे उदिण्णगेण समं। दो सत्ता हु अबंधे एक्कं उदयागदं सत्तं ॥64॥ | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / / मूल गाथा संख्या 641/836</span><p class="PrakritGatha"> सगसगगदीणमाउं उदेदि बंधे उदिण्णगेण समं। दो सत्ता हु अबंधे एक्कं उदयागदं सत्तं ॥64॥ | ||
<p class="HindiText">= नारकादिकनिकें अपनी-अपनी गति संबंधी ही एक आयु उदय हो हैं। बहुरि सत्त्व पर- | <p class="HindiText">= नारकादिकनिकें अपनी-अपनी गति संबंधी ही एक आयु उदय हो हैं। बहुरि सत्त्व पर-भव की आयु का बंध भयें उदयागत आयु सहित दोय आयु का है-एक बद्धयमान और एक भुज्यमान। बहुरि अबद्धायुकै एक उदय आया भुज्यमान आयु ही का सत्त्व है।</p> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 644/838</span><p class="PrakritGatha"> एवमबंधे बंधे उवरदबंधे वि होंति भंगा हु। एक्कस्सेक्कम्मि भवे एक्काउं पडि तये णियमा। | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 644/838</span><p class="PrakritGatha"> एवमबंधे बंधे उवरदबंधे वि होंति भंगा हु। एक्कस्सेक्कम्मि भवे एक्काउं पडि तये णियमा।</p> | ||
<p class="HindiText">= ऐसे पूर्वोक्त रीति करि बंध वा अबंध वा उपरत बंधकरि एक | <p class="HindiText">= ऐसे पूर्वोक्त रीति करि बंध वा अबंध वा उपरत बंधकरि एक जीव के एक पर्याय विषै एक आयु प्रति तीन भंग नियत तैं होय है।</p> | ||
बंधादि विषै बंध वर्तमान बंधक अबंध (अबद्धायुष्क) उपरत बंद (बद्धायुष्क) | {| class="wikitable" | ||
बंध 1 x x | |+ | ||
उदय 1 1 1 | |- | ||
सत्त्व 2 1 2 | ! बंधादि विषै !! बंध वर्तमान बंधक !! अबंध (अबद्धायुष्क) !! उपरत बंद (बद्धायुष्क) | ||
|- | |||
| बंध || 1|| x|| x | |||
|- | |||
| उदय || 1|| 1|| 1 | |||
|- | |||
| सत्त्व || 2|| 1|| 2|- | |||
|}<br> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.10" id="6.10">मिश्र योगों में आयु का बंध संभव नहीं</strong><br /></span></li></ol> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.10" id="6.10">मिश्र योगों में आयु का बंध संभव नहीं</strong><br /></span></li></ol> | ||
<span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड/भाषा 105/90/9</span><p class="HindiText"> जातैं मिश्र योग विषैं आयुबंध होय नाहीं। | <span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड/भाषा 105/90/9</span><p class="HindiText"> जातैं मिश्र योग विषैं आयुबंध होय नाहीं। | ||
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संकेत : | संकेत : | ||
असं. = असंख्यात; को. = क्रोड़; पू. = पूर्व (70560000000000 वर्ष) | असं. = असंख्यात; को. = क्रोड़; पू. = पूर्व (70560000000000 वर्ष) | ||
(आयु में जहां कोई इकाई नहीं दी हो, वहाँ 'सागर' ले लेना, | (आयु में जहां कोई इकाई नहीं दी हो, वहाँ '''सागर''' ले लेना, त्रिलोकसार 2-202) | ||
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Revision as of 17:03, 10 January 2023
जीव की किसी विवक्षित शरीर में टिके रहने की अवधि का नाम ही आयु है। इस आयु का निमित्त-कर्म आयुकर्म चार प्रकार का है, पर गति में और आयु में अंतर है । गति जीव को हर समय बँधती है, पर आयु बंध के योग्य सारे जीवन में केवल आठ अवसर आते हैं जिन्हें अपकर्ष कहते हैं । जिस आयु का उदय आता है उसी गति का उदय आता है, अन्य गति नामक कर्म भी उसी रूप से संक्रमण द्वारा अपना फल देते हैं । आयुकर्म दो प्रकार से जाना जाता है - भुज्यमान व बध्यमान । वर्तमान भव में जिसका उदय आ रहा है वह भुज्यमान है और इसी में जो अगले भव की आयु बँधी है सो बध्यमान है । भुज्यमान आयु का तो कदलीघात आदि के निमित्त से केवल अपकर्षण हो सकता है उत्कर्षण नहीं, पर बध्यमान आयु का परिणामों के निमित्त से उत्कर्षण व अपकर्षण दोनों संभव है । किंतु विवक्षित आयुकर्म का अन्य आयु रूप से संक्रमण होना कभी भी संभव नहीं है । अर्थात् जिस जाति की आयु बँधी है उसे अवश्य भोगना पड़ेगा ।
- भेद व लक्षण
- आयु सामान्य का लक्षण
- आयुष्य का लक्षण
- आयु सामान्य के दो भेद (भवायु व अद्धायु)
- आयु सत्त्व के दो भेद (भुज्यमान व बद्ध्यमान)
- भवायु व अद्धायु के लक्षण
- भुज्यमान व बद्ध्यमान आयु के लक्षण
- आयु कर्म सामान्य का लक्षण
- आयु कर्म के उदाहरण - देखे प्रकृतिबंध-3
- आयु कर्म के चार भेद (नरकादि)
- आयु कर्म के असंख्यात भेद
- आयु कर्म विशेष के लक्षण
- आयु निर्देश
- आयु के लक्षण संबंधी शंका
- गति बंध जन्म का कारण नहीं, आयुबंध है
- जिस भव की आयु बंधी नियम से वही उत्पन्न होता है
* विग्रह गति में अगली आयु का उदय - देखे उदय-4 - देव नारकियों को बहुलता की अपेक्षा असंख्यात वर्षायुष्क कहा है
- आयु कर्म के बंध योग्य परिणाम
- मध्यम परिणामों में ही आयु बँधती है
- अल्पायु बंध योग्य परिणाम
- नरकायु सामान्य के बंध योग्य परिणाम
- नरकायु विशेषक बंध परिणाम
- कर्म भूमिज तिर्यंच आयुके बंध योग्य परिणाम
- भोग भूमिज तिर्यंच आयुके बंध योग्य परिणाम
- कर्म भूमिज मनुष्यों के बंध योग्य परिणाम
- शलाका पुरुषों की आयु के बंध योग्य परिणाम
- सुभोग भूमिजों की आयु के योग्य परिणाम
- कुभोग भूमिज मनुष्यायु के बंध योग्य परिणाम
- देवायु सामान्य के बंध योग्य परिणाम
- भवनत्रिक आयु सामान्य के बंध योग्य परिणाम
- भवनवासी आयु सामान्य के बंध योग्य परिणाम
- व्यंतर तथा नीच देवों की आयु के बंध योग्य परिणाम
- ज्योतिष देवायु के बंध योग्य परिणाम
- कल्पवासी देवायु सामान्य के बंध योग परिणाम
- कल्पवासी देवायु विशेष के बंध योग परिणाम
- लौकांतिक देवायु के बंध योग परिणाम
- कषाय व लेश्या की अपेक्षा आयु बंधके 20 स्थान
*आयुके बंधमें संक्लेश व विशुद्ध परिणमोंका स्थान - देखें स्थिति - 4
- आठ अपकर्ष काल निर्देश
- कर्म भूमिजों की अपेक्षा आठ अपकर्ष
- भोग भूमिजों तथा देव नारकियों की अपेक्षा 8 अपकर्ष
- आठ अपकर्ष कालों में न बँधे तो अंत समय में बँधती है
- आयु के त्रिभाग शेष रहने पर ही अपकर्ष काल आने संबंधी दृष्टि भेद
- अंतिम समय में केवल अंतर्मुहूर्त प्रमाण ही आयु बंधती है।
- आठ अपकर्ष कालों में बँधी आयुका समीकरण
- अन्य अपकर्ष में आयु बंध के प्रमाण में चार वृद्धि व हानि संभव है
- उसी अपकर्ष काल के सर्व समयों में उत्तरोत्तर हीन बंध होता है
* आठ सात आदि अपकर्षों में आयु बाँधने वालों का अल्पबहुत्व - देखें अल्पबहुत्व - 3.9.15
- आयु के उत्कर्षण व अपवर्तन संबंधी नियम
- बध्यमान व भुज्यमान दोनों आयुओं का अपवर्तन संभ्व है
* भूज्यमान आयुके अपवर्तन संबंधी नियम - देखें मरण - 4 - परंतु बद्ध्यमान आयु की उदीरणा नहीं होती
- उत्कृष्ट आयु के अनुभाग का अपवर्तन संभव है
- असंख्यात वर्षायुष्कों तथा चरम शरीरियों की आयु का अपवर्तन नहीं होता
* आयुका स्थिति कांडयक घात नहीं होता - देखें अपकर्षण - 4 - भुज्यमान आयुपर्यंत बद्ध्यमान आयु में बाधा संभव है
- चारों आयु का परस्पर में संक्रमण नहीं होता
- संयम की विराधना से आयु का अपवर्तन हो जाता है
* अकाल मृत्यु में आयु का अपवर्तन - देखें मरण - 4 - आयु का अनुभाव व स्थिति घात साथ-साथ होते हैं
- बध्यमान व भुज्यमान दोनों आयुओं का अपवर्तन संभ्व है
- आयुबंध संबंधी नियम
- तिर्यंचों की उत्कृष्ट आयु भोगभूमि, स्वयंभूरमण द्वीप व कर्मभूमि के चार कालों में ही संभव है
- भोगभूमिजों में भी आयु हीनाधिक हो सकती है
- बद्धायुष्क व घातायुष्क देवों की आयु संबंधी स्पष्टीकरण
- चारों गतियों में परस्पर आयुबंध संबंधी
- आयु के साथ वही गति प्रकृति बँधती है
- एक भव में एक ही आयु का बंध संभव है
- बद्धायुष्कों में सम्यक्त्व व गुणस्थान प्राप्ति संबंधी
- बद्ध्यमान देवायुष्क का सम्यक्त्व विराधित नहीं होता
- बंध उदय सत्त्व संबंधी संयोगी भंग
- मिश्रयोगों में आयु का बंध संभव नहीं
* आयुकी आबाधा संबंधी - देखें आबाधा - 7.
- आयुविषयक प्ररूपणाएँ
- नरक गति संबंधी
- तिर्यंच गति संबंधी
- एक अंतर्मुहूर्त में ल. अप. के संभव निरंतर क्षुद्रभव
- मनुष्य गति संबंधी
- भोग भूमिजों व कर्म भूमिजों संबंधी
* तीर्थंकरों व शलाका पुरुषों की आयु - देखें वह वह नाम - 6. - देवगति में व्यंतर देवों संबंधी
- देवगति में भवनवासियों संबंधी
- देवगति में ज्योतिष देवों संबंधी
- देवगति में वैमानिक देव सामान्य संबंधी
- वैमानिक देवों में इंद्रों व उनके परिवार देवों संबंधी
- वैमानिक इंद्रों अथवा देवों की देवियों संबंधी
- देवों द्वारा बंध योग्य जघन्य आयु
- काय समंबंधी स्थिति - देखें काल - 5,6
- भव स्थिति व काय स्थिति में अंतर - देखें स्थित - 2
- गति अगति विषयक ओघ आदेश प्ररूपणा - देखें जन्म - 6
- आयु प्रकृतियों की बंध उदय व सत्त्व प्ररूपणा तथा तत्संबंधी नियम व शंका समाधान - देखें वह वह नाम
- आयु प्रकरण में ग्रहण किये गये पल्य सागर आदि का अर्थ - देखें गणित I/1/6
- भेद व लक्षण
- आयु सामान्य का लक्षण
राजवार्तिक अध्याय संख्या 3/27/3/191/24 आयुर्जीवितपरिणामम्।
राजवार्तिक अध्याय संख्या 8/10/2/575/12 यस्य भावात् आत्मानः जीवितं भवति यस्य चाभावात् मृत इत्युच्यते तद्भवधारणमायुरित्युच्यते।
= जीवन के परिणाम का नाम आयु है। अथवा जिसके सद्भाव से आत्मा का जीवितव्य होता है तथा जिसके अभाव से मृत्यु कही जाती है उसी प्रकार भवधारण को ही आयु कहते हैं। - आयुष्य का लक्षण
- आयु सामान्य के दो भेद (भवायु व श्रद्धायु)
- आयु सत्त्व के दो भेद (भुज्यमान व बद्ध्यमान)
- भवायु व अद्धायु के लक्षण
- भुज्यमान व बद्ध्यमान आयु के लक्षण
- आयुकर्म सामान्य का लक्षण
- आयुकर्म के चार भेद (नरकायु आदि)
- आयु कर्म के असंख्यात भेद
- आयुकर्म विशेष के लक्षण
- आयु निर्देश
- आयु के लक्षण संबंधी शंका
- गतिबंध जन्म का कारण नहीं आयुबंध है
- जिस भव की आयु बँधी नियम से वहीं उत्पन्न होता है
- देव व नारकियों की बहुलता की अपेक्षा असंख्यात वर्षायुष्क कहा गया है
- आयुकर्म के बंधायोग्य परिणाम
- मध्यम परिणामों में ही आयु बँधती है
- अल्पायु के बंध योग परिणाम
- नरकायु सामान्य के बंध योग परिणाम
- नरकायु विशेष के बंध योग्य परिणाम
- कर्मभूमिज तिर्यंच आयु के बंध योग्य परिणाम
- भोग भूमिज तिर्यंच आयु के बंधयोग्य परिणाम
- कर्मभूमिज मनुष्यायु के बंध योग्य परिणाम
- शलाका पुरुषों की आयु के बंध योग्य परिणाम
- सुभोग भूमिज मनुष्यायु के बंधयोग्य परिणाम
- कुभोग भूमिज मनुष्यायु के बंधयोग्य परिणाम
- देवायु सामान्य के बंधयोग्य परिणाम
- भवनत्रिकायु सामान्य के बंधयोग्य परिणाम
- भवनवासी देवायु के बंध योग्य परिणाम
- व्यंतर तथा नीच देवों की आयु के बंधयोग्य परिणाम
- ज्योतिष देवायु के बंध योग्य परिणाम
- कल्पवासी देवायु सामान्य के बंधयोग्य परिणाम
- कल्पवासी देवायु विशेष के बंध योग्य परिणाम
- लौकांतिक देवायु के बंध योग्य परिणाम
- कषाय व लेश्या की अपेक्षा आयु बंध के 20 स्थान
अइजहण्णा आउबंधस्स अप्पाओग्गं। अइमहल्ला पि अप्पाओग्गं चेव, सभावियादो तत्थ दोण्णं विच्चाले ट्ठिया परियत्तमाणमज्झिपरिणामा वुच्चति।
= अति जघन्य परिणाम आयु बंध के अयोग्य हैं। अत्यंत महान् परिणाम भी आयु बंध के अयोग्य ही हैं, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। किंतु उन दोनों के मध्य में अवस्थित परिणाम परिवर्तमान मध्यम परिणाम कहलाते हैं। (उनमें यथायोग्य परिणामों से आयु बंध होता है।)
गोम्मटसार कर्मकांड/ मूल गाथा संख्या 518/913लेस्साणां खलु अंसा छव्वीसा होंति तथ्यमज्झिमया। आउगबंधणजोग्गा अट्ठट्ठवगरिसकालभवा।
= लेश्यानिके छब्बीस अंश हैं तहाँ छहौ लेश्यानिकै जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदकरि अठारह अंश हैं, बहुरि कापोत लेश्या के उत्कृष्ट अंश तै आगैं अर तेजो लेश्या के उत्कृष्ट अंश तै पहिलैं कषायनिका उदय स्थानकनिविशैं आठ मध्यम अंश है ऐसैं छब्बीस अंश भए। तहाँ आयु कर्म के बंध योग्य आठ मध्यम अंश जानने। ( राजवार्तिकअध्याय संख्या 4/22/10/240/1)
गोम्मटसार कर्मकांड/जीवतत्त्व प्रदीपिका/ 549/736/21अशेषक्रोधकषायानुभागोदयस्थानान्यसंख्यातलोकमात्रषड्ढानिवृद्धिपतितासंख्यातलोकमात्राणि तेष्वसंख्यातलोकभक्तवबहुभागमात्राणि संक्लेशस्थानानि तदेकमात्रभागमात्राणि विशुद्धस्थानानि। तेषु लेश्यापदानि चतुर्दशलेश्यांशाः षड्विंशतिः। तत्र मध्यमा अष्टौ आयुर्बद्धनिबंधनाः।
= समस्त क्रोध कषाय के अनुभाग रूप उदयस्थान असंख्यात लोकमात्र षट्स्थानपतित हानि कौं लिये असंख्यात लोकप्रमाण है। तिनकौं यथायोग्य असंख्यात लोक का भाग दिए तहाँ एक भाग बिना बहुभाग प्रमाण तौ संक्लेश स्थान हैं। एक भाग प्रमाण विशुद्धि स्थान है। तिन विषै लेश्यापद चौदह हैं। लेश्यानिके अंश छब्बीस हैं। तिन विषैं मध्य के आठ अंश आयु के बंध को कारण हैं।
सदा परप्राणिघातोद्यतस्तदीययप्रियतमजीवितविनाशनात् प्रायेणाल्पायुरेव भवति।
= जो प्राणी हमेशा पर-जीवों का घात करके उनके प्रिय जीवित का नाश करता है वह प्रायः अल्पायुषी ही होता है।
बह्वारंभपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ॥15॥ निश्शीलव्रतित्वं च सर्वेषाम् ॥19॥
= बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह वाले का भाव नरकायु का आस्रव है ॥15॥ शीलरहित और ब्रतरहित होना सब आयुओं का आस्रव है ॥19॥ सर्वार्थसिद्धि/ अध्याय संख्या 6/15/333/6
हिंसादिक्रूरकर्माजस्रप्रवर्तनपरस्वहरणविषयातिगृद्धिकृष्णलेश्याभिजातरौद्रध्यानमरणकालतादिलक्षणो नारकस्यायुष आस्रवो भवति।
= हिंसादि क्रूर कार्यो में निरंतर प्रवृत्ति, दूसरे के धन का हरण, इंद्रियों के विषयो में अत्यंत आसक्ति, तथा मरने के समय कृष्ण लेश्या और रौद्रध्यान आदि नरकायु के आस्रव हैं।
तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 2/293-294आउस्स बंधसमए सिलोव्व सेलो वेणूमूले य। किमिरायकसायाणं उदयम्मि बंधेदि णिरयाउ ॥293॥ किण्हाय णीलकाऊणुदयादो बंधिऊण णिरयाऊ। मरिऊण ताहिं जुत्तो पावइ णिरयं महावीरं ॥294॥
= आयु बंध के समय सिल की रेखा के समान क्रोध, शैल के समान मान, बाँस की जड़ के समान माया, और कृमिराग के समान लोभ कषाय का उदय होने पर नरक आयु का बंध होता है ॥293॥ कृष्ण, नील अथवा कापोत इन तीन लेश्याओं का उदय होने से नरकायु को बांधकर और मरकर उन्हीं लेश्याओं से युक्त होकर महाभयानक नरक को प्राप्त करता है ॥294॥
तत्त्वार्थसार/ अधिकार संख्या 4/30-34उत्कृष्टमानता शैलराजीसदृशरोषता। मिथ्यात्वं तीव्रलोभत्वं नित्यं निरनुकंपता ॥30॥ अजस्रं जीवघातित्वं सततानृतवादिता। परस्वहरणं नित्यं नित्यं मैथुनसेवनम् ॥31॥ कामभोगाभिलाषाणां नित्यं चातिप्रवृद्धता। जिनस्यासादनं साधुसमयस्य च भेदनम् ॥32॥ मार्जारताम्रचूड़ादिपापीयः प्राणिपोषणम्। नैः शील्यं च महारंभपरिग्रहतया सह ॥33॥ कृष्णलेश्यापरिणतं रौद्रध्यानं चतुर्विधम्। आयुषो नारकस्येति भवंत्यास्रवहेतवः ॥34॥
= कठोर पत्थर के समान तीव्र मान, पर्वतमालाओं के समान अभेद्य क्रोध रखना, मिथ्यादृष्टि होना, तीव्र लोभ होना सदा निर्दयी बने रहना, सदा मिथ्यादृष्टि होना, तीव्र लोभ होना, सदा जीवघात करना, सदा ही झूठ बोलने में प्रेम मानना, सदा परधन हरने में लगे रहना, नित्य मैथुन सेवन करना, काम भोगों की अभिलाषा सदा ही जाज्वल्यमान रखना, जिन भगवान की आसादना करना, साधु धर्म का उच्छेद करना, बिल्ली, कुत्ते, मुर्गे इत्यादि पापी प्राणियों को पालना, शीलव्रत रहित बने रहना और आरंभ परिग्रह को अति बढ़ाना, कृष्ण लेश्या रहना, चारों रौद्रध्यान में लगे रहना, इतने अशुभ कर्म नरकायु के आस्रव हेतु हैं। अर्थात् जिन कर्मों को क्रूरकर्म कहते हैं और जिन्हें व्यसन कहते हैं, वे सभी नरकायु के कारण हैं। (राजवार्तिक / अध्याय संख्या 6/15/3/525/31) (महापुराण/ सर्ग संख्या 10/22-27)
गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 804/982मिच्छी हु महारंभी णिस्सीलो तिव्वलोहसंजुत्तो। णिरयाउगं णिबंधइ पावमई रुद्दपरिणाम ॥804॥
= जो जीव मिथ्यातरूप मिथ्यादृष्टि होइ, बहु आरंभी होइ, शील रहित होइ, तीव्र लोभ संयुक्त होइ, रौद्र परिणामी होइ, पाप कार्य विषैं जाकी बुद्धि होइ सो जीव नरकायु को बाँधे है।
धम्मदयापरिचत्तो अमुक्करो पयंडकलहयरो। बहुकोही किण्हाए जम्मदि धूमादि चरिमंते ॥296॥ ...बहुसण्णा णीलाए जम्मदि तं चेव धूमंतं ॥298॥ काऊए संजुत्तो जम्मदि घम्मादिमेघंतं ॥30॥
= दया, धर्म से रहित, वैर को न छोड़ने वाला, प्रचंड कलह करने वाला और बहुत क्रोधी जीव कृष्ण लेश्या के साथ धूमप्रभा से लेकर अंतिम पृथ्वी तक जन्म लेता है ॥296॥...आहारादि चारों संज्ञाओं में आसक्त ऐसा जीव नील लेश्या के साथ धूमप्रभा पृथ्वी तक में जन्म लेता है ॥298॥ ....। कापोत लेश्या से संयुक्त होकर घर्मा से लेकर मेघा पृथ्वी तक में जन्म लेता है।
माया तैर्यग्योनस्य ॥16॥
= माया तिर्यंचायु का आस्रव है।
सर्वार्थसिद्धि/ अध्याय संख्या 6/16/334/3तत्प्रपंचो मिथ्यात्वोपेतधर्मदेशना निःशीलतातिसंधानप्रियता नीलकापोतलेश्यार्तध्यानमरणकालतादिः।
= धर्मोपदेश में मिथ्या बातों को मिलाकर उनका प्रचार करना, शीलरहित जीवन बिताना, अति संधानप्रियता तथा मरण के समय नील व कापोत लेश्या और आर्त ध्यान का होना आदि तिर्यंचायु के आस्रव हैं।
राजवार्तिक / अध्याय संख्या 6/16/526/8प्रपंचस्त-मिथ्यात्वोपष्टंभा-धर्मदेशना-नल्पारंभपरिग्रहा-तिनिकृति-कूटकर्मा-वनिभेदसद्दश-रोषनिःशीलता-शब्दलिंगवंचना-तिसंधानप्रियता-भेदकरणा-नर्थोद्भावन-वर्णगंध-रसस्पर्शान्यत्वापादन-जातिकुलशीलसंदूषण-विसंवादनाभिसंधिमिथ्याजीवित्व-सद्गुणव्यपलोपा-सद्गुणख्यापन-नीलकापोतलेश्यापरिणाम-आर्तध्यानमरणकालतादिलक्षणः प्रत्येतव्यः।
= मिथ्यात्वयुक्त अधर्म का उपदेश, बहु-आरंभ, बहु-परिग्रह, अतिवंचना, कूटकर्म, पृथ्वी की रेखा के समान रोषादि, निःशीलता, शब्द और संकेतादि से परिवंचना का षड्यंत्र, छल-प्रपंच की रुचि, भेद उत्पन्न करना, अनर्थोद्भावन, वर्ण, रस, गंध आदि को विकृत करने की अभिरुचि, जातिकुलशीलसंदूषण, विसंवाद रुचि, मिथ्याजीवित्व, सद्गुण लोप, असद्गुणख्यापन, नील-कापोत लेश्या रूप परिणाम, आर्तध्यान, मरण समय में आर्त-रौद्र परिणाम इत्यादि तिर्यंचायु के आस्रव के कारण हैं। (तत्त्वार्थसार/ अधिकार संख्या 4/35-39) (और भी देखो आगे आयु - 3.12)
गोम्मटसार कर्मकांड/ मूल गाथा संख्या 805/982उम्मग्गदेसगो मग्गणासगो गूढहियमाइल्लो। सठसीलो य ससल्लो तिरियाउं बंधदे जीवो ॥805॥
= जो जीव विपरीत मार्ग का उपदेशक होई, भलामार्ग का नाशक होई, गूढ और जानने में न ऐवे ऐसा जाका हृदय परिणाम होइ, मायावी कष्टी होई अर शठ मूर्खता संयुक्त जाका सहज स्वभाव होई, शल्यकरि संयुक्त होइ सो जीव तिर्यंच आयु को बाँधै है।
दादूण केइ दाणं पत्तविसेसेसु के वि दाणाणं अणमोदणेण तिरिया भोगखिदीए वि जायंति ॥372॥ गहिदूण जिणलिंगं संजमसम्मत्तभावपरिचत्ता। मायाचारपयट्टा चारित्तं णसयंति जे पावा ॥373॥ दादूण कुलंगीणं णाणादाणाणि जे णरा मुद्धा। तव्वेसधरा केई भोगमहीए हुवंति ते तिरिया ॥374॥
= कोई पात्र विशेषों को दान देकर और कोई दानों की अनुमोदना करके तिर्यंच भी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं ॥372॥ जो पापी जिनलिंग को (मुनिव्रत) को ग्रहण करके संयम एवं सम्यक्त्व भाव को छोड़ देते हैं और पश्चात् मायाचार में प्रवृत्त होकर चारित्र को नष्ट कर देते हैं; तथा जो कोई मूर्ख मनुष्य कुलिंगियों को नाना प्रकार के दान देते हैं या उनके भेष को धारण करते हैं वे भोग-भूमि में तिर्यंच होते हैं।
अल्पारंभपरिग्रहत्वं मानुषस्य ॥17॥ स्वभावमार्दव च ॥18॥
= अल्प आरंभ और अल्प परिग्रह वाले का भाव मनुष्यायु का आस्रव है ॥17॥ स्वभाव की मृदुता भी मनुष्यायु का आस्रव हैं।
सर्वार्थसिद्धि/6/17-18/334/8नारकायुरास्रवो व्याख्यातः। तद्विपरीतो मानुषस्यायुष इति संक्षेपः। तद्व्यासः-विनीतस्वभावः प्रकृतिभद्रता प्रगुणव्याहारता तनुकषात्यवं मरणकालासंक्लेशतादिः ॥17॥...स्वभावेन मार्दवम्। उपदेशानपेक्षमित्यर्थः। एतदपि मानुषस्यायुष आस्रवः।
= नरकायु का आस्रव पहले कह आये हैं। उससे विपरीत भाव मनुष्यायु का आस्रव है। संक्षेप में यह सूत्र का अभिप्राय है। उसका विस्तार से खुलासा इस प्रकार है-स्वभाव का विनम्र होना, भद्र प्रकृति का होना, सरल व्यवहार करना, अल्प कषाय का होना तथा मरण के समय संक्लेश रूप परिणति का नहीं होना आदि मनुष्यायु के आस्रव हैं।...स्वभाव से मार्दव स्वभाव मार्दव है। आशय यह है की बिना किसी के समझाये बुझाये मृदुता अपने जीवन में उतरी हुई हो इसमें किसी के उपदेश की आवश्यकता न पड़े। यह भी मनुष्यायु का आस्रव है। (राजवार्तिक / अध्याय संख्या 6/18/1/525/23)
राजवार्तिक /अध्याय संख्या 6/17/526/15मिथ्यादर्शनालिंगितामति-विनीतस्वभावताप्रकृतिभद्रता-मार्दवार्जवसमाचारसुखप्रज्ञापनीयता-बालुकाराजिसदृशरोष-प्रगुणव्यवहारप्रायताऽल्पारंभपरिग्रह-संतोषाभिरति-प्राण्युपघातविरमणप्रदोषविकर्मनिवृत्ति-स्वागताभिभाषणामौखर्यप्रकृतिमधुरता-लोकयात्रानुग्रह-औदासीन्यानुसूयाल्पसंक्लेशता-गुरुदेवता-तिथिपूजासंविभागशीलता-कपोतपीललेश्योपश्लेष-धर्मध्यानमरणका-लतादिलक्षणः।
= भद्रमिथ्यात्व विनीत स्वभाव, प्रकृति भद्रता, मार्दव आर्जव परिणाम, सुख समाचार कहने की रुचि, रेत की रेखा के समान क्रोधादि, सरल व्यवहार, अल्पपरिग्रह, संतोष सुख, हिंसाविरक्ति, दुष्ट कार्यों से निवृत्ति, स्वागत तत्परता, कम बोलना, प्रकृति मधुरता, लोकयात्रानुग्रह, औदासीन्यवृत्ति, ईर्षारहित परिणाम, अल्पसंक्लेश, देव-देवता तथा अतिथि पूजा में रुचि दानशीलता, कापोत-पीत लेश्यारूप परिणाम, मरण काल में धर्मध्यान परिणति आदि मनुष्यायु के आस्रव कारण हैं।
राजवार्तिक /अध्याय संख्या 6/20/1527/15अव्यक्तसामायिक-विराधितसम्यग्दर्शनता भवनाद्यायुषः महर्द्धिकमानुषस्य वा।
= अव्यक्त सामायिक और सम्यग्दर्शन की विराधना आदि....महर्द्धिक मनुष्य की आयु के आस्रव के कारण हैं। (और भी देखें आयु - 3.12)
भगवती आराधना/ विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या 446/652/13तत्र ये हिंसादयः परिणामा मध्यमास्ते मनुजगतिनिर्वर्तकाः बालिकाराज्या, दारुणा, गोमूत्रिकया, कर्दमरागेण च समानाः यथासंख्येन क्रोधमानमायालोभाः परिणामाः। जीवघातं कृत्वा हा दुष्टं कृतं, यथा दुःखं मरणं वास्माकं अप्रियं तथा सर्वजीवानां। अहिंसा शोभना वर्यतु असमर्था हिंसादिकं परिहर्तुमिति च परिणामः। मृषापरदोषसूचकं परगुणानामसहनं वचनं वासज्जनाचारः। साधुनामयोग्यवचने दुर्व्यापारे च प्रवृत्तानां का नाम साधुतास्माकमिति परिणामः। तथा शस्त्रप्रहारादप्यर्थः परद्रव्यापहरणं, द्रव्यविनाशो हि सकलकुटुंबविनाशो, नेतरत् तस्माद्दुष्टकृतं परधनहरणमिति परिणामः। परदारादिलंघनमस्माभिः कृतं तदतीचाशोभनं। यथास्मद्दाराणं परैर्ग्रहणे दुःखमात्मसाक्षिकं तद्वत्तेषामिति परिणामः। यथा गंगादिमहानदीनां अनवतरप्रवेशेऽपि न तृप्तिः सागरस्यैवं द्रविणेनापि जीवस्य संतोषो नास्तीति परिणामः। एवमादि परिणामानां दुर्लभता अऩुभवसिद्धैव।
= इन (तीव्र, मध्यम व मंद) परिणामों में जो मध्यम हिंसादि परिणाम हैं वे मनुष्यपना के उत्पादक हैं। (तहाँ उनका मध्यम विस्तार निम्न प्रकार जानना) 1. चारोँ कषायों की अपेक्षा-बालुका में खिंची हुई रेखा के मान क्रोध परिणाम, लकड़ी के समान मान परिणाम, गोमूत्राकर के समान माया परिणाम, और कीचड़ के रंग के समान लोभ परिणाम ऐसे परिणामों से मनुष्यपना की प्राप्ति होती है। 2. हिंसा की अपेक्षा-जीव घात करने पर, हा! मैंने दुष्ट कार्य किया है, जैसे दुःख व मरण हमको अप्रिय हैं संपूर्ण प्राणियों को भी उसी प्रकार वह अप्रिय हैं, जगत् में अहिंसा ही श्रेष्ठ व कल्याणकारिणी हैं। परंतु हम हिंसादिकों का त्याग करनें में असमर्थ हैं। ऐसे परिणाम.... 3. असत्य की अपेक्षा-झूठे पर दोषों को कहना, दूसरों के सद्गुण देखकर मन में द्वेष करना, असत्य भाषण करना यह दुर्जनों का आचार है। साधुओं के अयोग्य ऐसे निंद्य भाषण और खोटे कामों में हम हमेशा प्रवृत्त हैं, इसलिए हममें सज्जनपना कैसा रहेगा? ऐसा पश्चात्ताप करना रूप परिणाम। 4. चोरी की अपेक्षा-दूसरों का धन हरण करना, यह शस्त्रप्रहार से भी अधिक दुःखदायक है, द्रव्य का विनाश होने से सर्वकुटुंब का ही विनाश होता है, इसलिए मैंने दूसरों का धन हरण किया है सो अयोग्य कार्य हम से हुआ है, ऐसे परिणाम। 5. ब्रह्मचर्य की अपेक्षा-हमारी स्त्री का किसी ने हरण करने पर जैसा हमको अतिशय कष्ट दिया है वैसा उनको भी होता है यह अनुभव से प्रसिद्ध है। ऐसे परिणाम होना। 6. परिग्रह की अपेक्षा-गंगादि नदियाँ हमेशा अपना अनंत जल लेकर समुद्र में प्रवेश करती हैं तथापि समुद्र की तृप्ति होती ही नहीं। यह मनुष्य प्राणी भी धन मिलने से तृप्त नहीं होता है। इस तरह के परिणाम दुर्लभ हैं। ऐसे परिणामों से मनुष्यपना की प्राप्ति होती है।
गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 806/983पयडीए तणुकसाओ दाणरदीसीलसंजमविहीणो। मज्झिमगुणेहिं जुत्तोमणुवाउं बंधदे जीवो ॥806॥
= जो जीव विचार बिना प्रकृति स्वभाव ही करि मंद कषायी होइ, दानविषै प्रीतिसंयुक्त होइ, शील संयम कर रहित होइ, न उत्कृष्ट गुण न दोष ऐसे मध्यम गुणनिकरि संयुक्त होई सो जीव मनुष्यायु कौं बाँधै हैं।
एदे मणुओ पदिसुदिपहुदि हुणाहिरायंता। पुव्वभवम्मि विदेहे राजकुमारामहाकुले जादा ॥504॥ कुसला दाणादीसुं संजमतवणाणवंतपत्ताणं। णियजोग्गअणुठ्ठाणामद्दवअज्जवगुणेहिं सर्जुत्ता ॥505॥ मिच्छत्त भावणाए भोगाउं बंधिऊण ते सव्वे। पच्छा खाइयकम्मं गेण्हंति जिणिंदचरणमूलम्हि ॥506॥
= प्रतिश्रुति को आदि लेकर नाभिराय पर्यंत में चौदह मनु पूर्वभव में विदेह क्षेत्र के भीतर महाकुल में राजकुमार थे ॥504॥ वे सब संयम तप और ज्ञान से युक्त पात्रों के लिए दानादिक के देने में कुशल, अपने योग्य अनुष्ठान से संयुक्त, और मार्दव आर्जव गुणों से सहित होते हुए पूर्व में मिथ्यात्व भावना से भोगभूमि की आयु को बाँधकर पश्चात् जिनेंद्र भगवान के चरणों के समीप क्षायिक सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं ॥505-506॥
भोगमहीए सव्वे जायंते मिच्छभावसंजुता। मंदकसायामाणवा पेसुण्णासूयदव्वपरिहीणा ॥365॥ वज्जिद मंसाहारा मधुमज्जोदुंबरेहि परिचता। सच्चजुदा मदरहिदा वारियपरदारपरिहीणा ॥366॥ गुणधरगुणेसु रत्ता जिणपूजं जे कुणंति परवसतो। उववासतणुसरीरा अज्जवपहुदींहिं संपण्णा ॥367॥ आहारदाणणिरदा जदीसु वरविविहजोगजुत्तेसुं। विमलतरसंजमेसु य विमुक्कगंथेसु भत्तीए ॥368॥ पुव्वं बद्धणराऊ पच्छा तित्थयरपादमूलम्मि। पाविदखाइससम्मा जायंते केइ भोगभूमीए ॥369॥ एवं मिच्छाइठ्ठि णिग्गंथाणं जदीण दाणाइं। दादूण पुण्णपाके भोगमही केइ जायंति ॥370॥ आहाराभयदाणं विविहोसहपोथ्ययादिदाणं। सेसे णाणोयणं दादूणं भोगभूमि जायंते ॥371॥
= भोग भूमि में वे सब जीव उत्पन्न होते हैं जो मिथ्यात्व भाव से युक्त होते हुए भी, मंदकषायी हैं, पैशुन्य एवं असूयादि द्रव्यों से रहित हैं, मांसाहार के त्यागी हैं, मधु मद्य और उदुंबर फलों के भी त्यागी हैं, सत्यवादी हैं, अभिमान से रहित हैं, वेश्या और परस्त्री के त्यागी हैं, गुणियों के गुणों में अनुरक्त हैं, पराधीन होकर जिनपूजा करते हैं, उपवास से शरीर को कृश करने वाले हैं, आर्जव आदि से उत्पन्न हैं, तथा उत्तम एवं विविध प्रकार के योगों से युक्त, अत्यंत निर्मल सम्यक्त्व के धारक और परिग्रह से रहित, ऐसे यतियों को भक्ति से आहार देने में तत्पर हैं ॥365-368॥ जिन्होंने पूर्व भव में मनुष्यायु को बाँध लिया है, पश्चात् तीर्थंकर के पादमूल में क्षायिक सम्यक्दर्शन प्राप्त किया हैं, ऐसे कितने ही सम्यक्दृष्टि पुरुष भी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं ॥369॥ इस प्रकार कितने ही मिथ्यादृष्टि मनुष्य निग्रंथ यतियों को दानादि देकर पुण्य का उदय आने पर भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं ॥370॥ शेष कितने ही मनुष्य आहार दान, अभयदान, विविध प्रकार की औषध तथा ज्ञान के उपकरण पुस्तकादि के दान को देकर भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं।
मिच्छत्तम्मि रत्ताणं मंदकसाया पियंवदा कुडिला धम्मफलं मग्गंता मिच्छादेवेसु भत्तिपरा ॥2500॥ सुद्धोदणसलिलोदणर्कजियअसणादिकट्ठसुकिलिट्ठा। पंचग्गितवं विसमं कायकिलेसंचकुव्वंता ॥2501॥ सम्मत्तरयणहीणा कुमाणुसा लवणजलधिदीवेसुं। उपज्जंति अधण्णा अण्णाणजलम्मिज्जंता ॥2502॥ अदिमाणगव्विदा जे साहूणकुणंति किंच अवमाणं। सम्मत्ततवजुदाणं जे णिग्गंथाणं दूसणा देंति ॥2503॥ जे मायाचाररदा संजमतवजोगवज्जिदा पावा। इड्ढिरससादगारवगरुवा जे मोहभावण्णा ॥2504॥ थूलसुहुमादिचारं जे णालोचंति गुरुजणसमीवे। सज्झाय वंदणाओ जेगुरुसहिदा ण कुव्वंति ॥2505॥ जे छंडिय मुणिसंघं वसंति एकाकिणो दुराचारा। जे कोहेण य कलहं सव्वेसिंतो पकुव्वंति ॥2506॥ आहारसण्ण सत्तालोहकसाएण जणिदमोहा जे। धरि ऊण जिणलिंगं पावं कुव्वंति जे घोरं ॥2507॥ जे कुव्वंति ण भत्तिं अरहंताणं तहेव साहूणं। जे वच्छलविहीणा पाउव्वण्णम्मि संघम्मि ॥2508॥ जे गेण्हंति सुवण्णप्पहुदिं जिणलिंगं धारिणो हिठ्ठा। कण्णाविवाहपहुंदि संजदरूवेण जे पकुव्वंति ॥2509॥ जे भुंजंति विहिणा मोणेणं धोर पावसंलग्गा। अण अण्णदरुदयादो सम्मत्तं जे विणासंति ॥2510॥ ते कालवसं पत्ता फलेण पावण विसमपाकाणं। उप्पज्जंति कुरूवा कुमाणुसा जलहिदिवेसुं ॥2511॥
= मिथ्यात्व में रत, मंद कषायी, प्रिय बोलने वाले, कुटिल, धर्म फल को खोजने वाले, मिथ्यादेवों की भक्ति में तत्पर, शुद्ध ओदन, सलिलोदन व कांजी खाने के कष्ट से संक्लेश को प्राप्त विषम पंचाग्रि तप, व कामक्लेश को करनेवाले, और सम्यक्त्वरूपी रत्न से रहित अधन्य जीव अज्ञानरूपी जल में डूबते हुए लवणसमुद्र के द्विपों में कुमानुष उत्पन्न होते हैं ॥2500-2502॥ इसके अतिरिक्त जो लोग तीव्र अभिमान से गर्वित होकर सम्यक्त्व व तप से युक्त साधुओं का किंचित् भी अपमान करते हैं, जो दिगंबर साधुओं की निंदा करते हैं, जो पापी संयम तप व प्रतिमायोग से रहित होकर मायाचार में रत रहते हैं, जो ऋद्वि रस और सात इन तीन गारवों से महान् होते हुए मोह को प्राप्त हैं जो स्थूल व सूक्ष्म दोषों की गुरुजनों के समीप में आलोचना नहीं करते हैं, जो गुरु के साथ स्वध्याय व वंदना कर्म को नहीं करते हैं, जो दुराचारी मुनि संघ को छोड़कर एकाकी रहते हैं, जो क्रोध से सबसे कलह करते हैं, जो आहार संज्ञा में आसक्त व लोभ कषाय में मोह को प्राप्त होते हैं, जो जिनलिंग को धारण कर घोर पाप को करते हैं, जो अरहंत तथा साधुओं की भक्ति करते हैं, जो चातुर्वर्ण्य संघ के विषय में वात्सल्य भाव से विहीन होते हैं, जो जिनलिंग के धारी होकर स्वर्णादिक को हर्ष से ग्रहण करते हैं, जो संयमी के वेष से कन्याविवाहादिक करते हैं, जो मौन के बिना भोजन करते हैं, जो घोर पाप में संलग्न रहते हैं, जो अनंतानुबंधी चतुष्टय में से किसी एक के उदित होने से सम्यक्त्व को नष्ट करते है, वे मृत्यु को प्राप्त होकर विषम परिपाक वाले पापकर्मों के फल से समुद्र के इन द्वीपों में कुत्सित रूप से कुमानुष उत्पन्न होते हैं ॥2503-2511॥ (जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो /अधिकार संख्या 10/59-79) (त्रिलोकसार /गाथा संख्या 922-924)
सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसिदेवस्य ॥20॥ सम्यक्त्वं च ॥21॥
= सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा, और बालतप - ये देवायु के आस्रव के कारण हैं ॥20॥ सम्यक्त्व से भी देवायु का आस्रव होता है ॥21॥
सर्वार्थसिद्धि/ अध्याय संख्या 6/18/334/12स्वभावमार्दवं च ॥18॥ ...एतदपि मानुषस्यायुष आस्रवः। पृथग्योगकरणं किमर्थम्। उत्तरार्थम्, देवायुष आस्रवोऽयमपि यथा स्यात्।
= स्वभाव की मृदुता से भी मनुष्यायु का आस्रव होता हैं। = प्रश्न-इस सूत्र को पृथक् क्यों बनाया? उत्तर-स्वभाव की मृदुता देवायु का भी आस्रव का निमित्त है इस बात को बतलाने के लिए इस सूत्र को अलग बनाया है। (राजवार्तिक / अध्याय संख्या 6/18/1-2/526/24)
तत्त्वार्थसार/अधिकार संख्या 4/42-43आकामनिर्जराबालतपो मंदकषायता। सुधर्मश्रवणं दानं तथायतनसेवनम् ॥42॥ सरागसंयमश्चैव सम्यक्त्वं देशसंयमः। इति देवायुषो ह्येते भवंत्यास्त्रवहेतवः ॥
= बालतप व अकामनिर्जरा के होने से, कषाय मंद रखने से, श्रेष्ठ धर्म को सुनने से, दान देने, आयतन सेवी बनने से, सराग साधुओं का संयम धारण करने से, देशसंयम धारण करने से, सम्यग्दृष्टि होने से, देवायु का आस्रव होता है।
गोम्मटसार कर्मकांड/ मूल गाथा संख्या 807/983अणुव्वदमहव्वदेहिं य बालतवाकामणिज्जराए य। देवाउगं णिबंधइ सम्माइट्ठी य जो जीवो ॥
= जो जीव सम्यग्दृष्टि है, सो केवल सम्यक्त्व करि साक्षात् अणुव्रत महाव्रत निकरि देवायुकौं बाँधै है बहुरि जो मिथ्यादृष्टि जीव है सो उपचाररूप अणुव्रत महाव्रत निकरि वा अज्ञानरूप बाल तपश्चरण करि वा बिना इच्छा बंधादिकतै भई ऐसी अकाम निर्जराकरि देवायुकौं बाँधे हैं।
तेन सरागसंयमसंयमासंयमावपि भवनवास्याद्यायुष आस्रवौ प्राप्नुतः। नैष दोषः सम्यक्त्वभावे सति तद्व्यपदेशाभावात्तदुभयमप्यत्रांतर्भवति।
= प्रश्न-सरागसंयम और संयमासंयम ये भवनवासी आदि की आयु के आस्रव हैं यह प्राप्त होता है? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व के अभाव में सरागसंयम और संयमासंयम नहीं होते। इसलिए उन दोनों का यहीं अंतर्भाव होता है अर्थात् ये भी सौधर्मादि देवायु के आस्रव हैं, क्योंकि ये सम्यक्त्व के होने पर ही होते हैं।
राजवार्तिक/ अध्याय संख्या 6/20/1/527/15अव्यक्तसामायिक-विराधितसम्यग्दर्शनता भवनाद्यायुषः महिर्द्धिकमानुषस्य वा पंचाणुव्रतधारिणोऽविराधितसम्यग्दर्शनाः तिर्यङ्मनुष्याः सौधर्मादिषु अच्युतावसानेसूत्यद्यंते, विनिपतितसम्यक्त्वा भवनादिषु। अनधिगतजीवा जीवा बालतपसः अनुपलब्धतत्त्वस्वभावा अज्ञानकृतसंयमाः, संक्लेषाभावविशषात् केचिद्भवनव्यंतरादिषु सहस्रारपर्यंतेषु मनुष्यतिर्यक्ष्वपि च। आकामनिर्जरा-क्षुत्तृष्णानिरोध-ब्रह्मचर्य-भूशय्या-मलधारण-परिता-पादिभिः परिखेदिमूर्तयः चाटकनिरोधबंधनबद्धा दीर्घकालरोगिणः असंक्लष्टाः तरुगिरिशिखरपातिनः अनशनज्जलनजसप्रवेशनविषभक्षण धर्म बुद्धयः व्यंतरमानुषतिर्यक्षु। निःशीलव्रताः सानुकंपहृदयाः जलराजितुल्यरोषभोगभूमिसमुत्पन्नाश्च व्यंतरादिषु जन्म प्रतिपद्यंते इति।
= अव्यक्त सामायिक, और सम्यग्दर्शन की विराधना आदि भवनवासी आदि की आयु के अथवा महिर्द्धिक मनुष्य की आयु के आस्रव के कारण हैं। पंच अणुव्रतों के धारक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच या मनुष्य सौधर्म आदि अच्युत पर्यंत स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं। यदि सम्यग्दर्शन विराधना हो जाये तो भवनवासी आदि में उत्पन्न होते हैं। तत्त्वज्ञान से रहित बालतप तपनेवाले अज्ञानी मंद कषाय के कारण कोई भवनवासी व्यंतर आदि सहस्रार स्वर्ग पर्यंत उत्पन्न होते हैं। कोई मरकर मनुष्य भी होते हैं, तथा तिर्यंच भी। अकाम निर्जरा, भूख प्यास का सहना, ब्रह्मचर्य, पृथ्वी पर सोना, मल धारण आदि परिषहों से खेद खिन्न न होना, गूढ़ पुरुषों के बंधन में पड़ने पर भी नहीं घबड़ाना, दीर्घकालीन रोग होने पर भी असंक्लिष्ट रहना, या पर्वत के शिखर से झंपापात करना, अनशन, अग्नि प्रवेश, विषभक्षण आदि को धर्म मानने वाले कुतापस व्यंतर और मनुष्य तथा तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं। जिनके व्रत या शीलों को धारण नहीं किया किंतु सदय हृदय हैं, जल रेखा के समान मंद कषायी हैं, तथा भोग भूमि में उत्पन्न होनेवाले व्यंतर आदि में उत्पन्न होते हैं।
त्रिलोकसार/ गाथा संख्या 450उम्मग्गचारि सणिदाणाणलादिमुदा अकामणिज्जरिणो। कुदवा सबलचरित्ता भवणतियं जंति ते जीवा ॥450॥
= उन्मार्गचारि, निदान करने वाले अग्नि, जल आदि से झंपापात करने वाले, बिना अभिलाष बंधादिक कै निमित्त तैं परिषह सहनादि करि जिनकै निर्जरा भई, पंचाग्नि आदि खोटे तप के करने वाले, बहुरि सदोष चारित्र के धरन हारे जे जीव हैं ते भवनत्रिक विषै जाय ऊपजै हैं।
अवमिदसंका केई णाणचरित्ते किलिट्टभावजुदा। भवणामरेसु आउं बंधंति हु मिच्छभाव जुदा ॥198॥ अविणयसत्ता केई कामिणिविरहज्जरेण जज्जरिदा कलहपिया पाविट्टा जायंते भवणदेवेसु ॥199॥ जे कोहमाणमायालोहासत्ताकिविट्ठचारित्ता। वइराणुबद्वरुचिरा ते उपज्जंति असुरेसु ॥206॥
= ज्ञान और चारित्र के विषय में जिन्होंने शंका को अभी दूर नहीं किया है, तथा जो क्लिष्ट भाव से युक्त हैं, ऐसे जो मिथ्यात्व भाव से सहित होते हुए भवनवासी संबंधी देवों की आयु को बाँधते हैं ॥198॥ कामिनी के विरहरूपी ज्वर से जर्जरित, कलहप्रिय और पापिष्ठ कितने ही अविनयी जीव भवनवासी देवों में उत्पन्न होते हैं ॥199॥ जो जीव क्रोध, मान, माया में आसक्त हैं, अकृपिष्ठ चारित्र अर्थात् क्रूराचारी हैं, तथा वैर भाव में रूचि रखते हैं वे असुरों में उत्पन्न होते हैं।
णाणस्स केवलीणं धम्मस्साइरिय सव्वसाहुणं। माइय अवण्णवादी खिब्भिसिय भावणं कुणइ ॥181॥ मंताभिओगकोदुगभूदीयम्मं पउंजदे जोहु। इढ्ढिरससादहेदुं अभिओगं भावणं कुणइ ॥182॥
= श्रुतज्ञान, केवली व धर्म, इन तीनों के प्रति मायावी अर्थात् ऊपर से इनके प्रति प्रेम व भक्ति दिखाते हुए, परंतु अंदर से इनके प्रति बहुमान या आचरण से रहित जीव, आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेष्ठी में दोषों का आरोपण करने वाले, और अवर्णवादी जन ऐसे अशुभ विचारों से मुनि किल्विष जाति के देवों में जन्म लेते हैं ॥181॥ मन्त्राभियोग्य अर्थात् कुमारी वगैरह में भूत का प्रवेश उत्पन्न करना, कौतुहलोपदर्शन क्रिया अर्थात् अकाल में जलवृष्टि आदि कर के दिखाना, आदि चमत्कार, भूतों की क्रिड़ा दिखाना-ये सब क्रियाएँ ऋद्धि गौरव या रस गौरव, या सात गौरव दिखाने के लिए जो करता है सो आभियोग्य जाति के वाहन देवों में उत्पन्न होता हैं।
तिलोयपण्णत्ति/अधिकार संख्या 3/201-205मरणे विराधिदम्मि य केई कंदप्पकिव्विसा देवा। अभियोगा संमोहप्पहुदीसुरदुग्गदीसु जायंते ॥201॥ जे सच्चवयणहोणा हस्सं कुव्वंति बहुजणे णियमा। कंदप्परत्तहिदया ते कंदप्पैसु जायंति ॥202॥ जे भूदिकम्मतंताभियोगकोदूहलाइसंजुत्ता। जणवण्णे य पअट्टा वाहणदेवेसु ते होंति ॥203॥ तित्थयरसंघमहिमाआगमगंथादिएसु पडिकूला। दुव्वणया णिगदिल्ला जायंते किव्विंससुरेसु ॥204॥ उप्पहउवएसयरा विप्पडिवण्णा जिणिंदमग्गमि। मोहेणं संमोघा संमोहसुरेसु जायंते ॥205॥
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या 8/556,566सबल चरित्ता कूरा उम्ग्गट्ठा णिदाणकदभावा। मंदकसायाणुरदा बंधंते अप्पइद्धिअसुराउं ॥556॥ ईसाणलंतवच्चुदकप्पंतं जाव होंति कंदप्पा। किव्विसिया अभियोगा णियकप्पजहण्णठिदिसहिया ॥566॥
= मरण के विराधित करने पर अर्थात् समाधि मरण के बिना, कितने ही जीव दुर्गतियो में कंदर्प, किल्विष आभियोग्य और सम्मोह इत्यादि देव में उत्पन्न होते हैं। जो प्राणी सत्य वचन से रहित हैं, नित्य ही बहुजन में हास्य करते हैं, और जिनका हृदय कामासक्त रहता है, वे कंदर्प देवो में उत्पन्न होते हैं ॥202॥ जो भूतिकर्म, मंत्राभियोग और कौतूहलादि आदि से संयुक्त हैं तथा लोगों के गुणगान (खुशामद) में प्रवृत्त कहते हैं, वे वाहन देवो में उत्पन्न होते हैं ॥203॥ जो लोग तीर्थंकर व संघ की महिमा एवं आगमग्रंथादि के विषय में प्रतिकूल हैं, दुर्विनयी, और मायाचारी हैं, वे किल्विष देवों में उत्पन्न होते हैं ॥204॥ उत्पथ अर्थात् कुमार्ग का उपदेश करनेवाले, जिनेंद्रोपदिष्ट मार्ग में विरोधी और मोह से संमुग्ध जीव सम्मोह जाति के देवो में उत्पन्न होते हैं ॥205॥ दूषित चारित्रवाले, क्रूर, उन्मार्ग में स्थित, निदान भाव से सहित और मंद कषायो में अनुरक्त जीव अल्पर्द्धिक देवों की आयु को बाँधते हैं ॥556॥ कंदर्प, किल्विषिक और आभियोग्य देव अपने-अपने कल्प की जघन्य स्थिति सहित क्रमशः ईशान, लांतव और अच्युत कल्पपर्यंत होते हैं ॥566॥
आयुबंधणभावं दंसणगहणस्य कारणं विवहं। गुणठाणादि पवण्णण भावण लोएव्व त्ववत्तव्वं ॥617॥
= आयु के बंधक भाव, सम्यग्दर्शन ग्रहण के विविध कारण और गुणस्थानादि का वर्णन, भावनलोक के समान कहना चाहिए ॥617॥
सम्यक्त्वं च ॥21॥ किम्। दैवस्यायुष आस्रवइत्यनुवर्तते। अविशेषाभिधानेऽपि सौधर्मादिविशेषगतिः।
= सम्यक्त्व भी देवायु का आस्रव है। प्रश्न-सम्यक्त्व क्या है? उत्तर-`देवायु का आस्रव है', इस पद की पूर्व सूत्र से अनुवृत्ति होती है। यद्यपि सम्यक्त्व को सामान्य से देवायु का आस्रव कहा है, तो भी इससे सौधर्मादि विशेष का ज्ञान होता है। (राजवार्तिक/ अध्याय संख्या 6/21/527/27)।
राजवार्तिक /अध्याय संख्या 6/20/1/527/13कल्याणमित्रसंबंध आयतनोपसेवासद्धर्मश्रवणगौरवदर्शना-ऽनवद्योप्रोषधोपवास-तपोभावना-बहुश्रुतागमपरत्व-कषायनिग्रह-पात्रदान-पीतपद्मलेश्यापरिणाम-धर्मध्यानमरणादिलक्षणः सौधर्माद्यायुषः आस्रवः।
= कल्याणमित्र संसर्ग, आयतन सेवा, सद्धर्म श्रवण, स्वगौरवदर्शन, प्रोषधोपवास, तप की भावना, बहुश्रुतत्व आगमपरता कषायनिग्रह, पात्रदान, पीत-पद्म लेश्या परिणाम, मरण काल में धर्मध्यान रूप परिणति आदि सौधर्म आदि आयु के आस्रव हैं। (और भी देखें आयु - 3.12) बंधयोग्य परिणाम।
सबलचरित्ता कूरा उम्मग्गठ्ठा णिदाणकदभावा। मंदकसायाणुरदा बंधंते अप्पइद्धि असुराउं ॥556॥ दसपुव्वधरा सोहम्मप्पहुदि सव्वट्टसिद्विपरियंतं। चोद्दसपुव्वधरा तट्ट लंतवकप्पादि वच्चंते ॥557॥ सोहम्मादि अच्चुदपरियंतं जंति देवसदजुत्ता। चउविहदाणपणट्ठा अकसाया पंचगुरुभत्ता ॥558॥ सम्मत्तणाणअज्जवलज्जासीलादिएहि परिपुण्णा। जायंते इत्थीओ जा अच्चुदकप्पपरियंतं ॥559॥ गिगलिंगधारिणो जे उक्किट्ठतवस्समेण संपुण्णा। ते जायंति अभव्वा उवरिमगेवज्जपरियंतं ॥560॥ परदो अच्चणवदतवदंसणणाणचरण संपण्णा णिग्गंथा जायंते भव्वा सव्वट्ठसिद्धि परियंतं ॥561॥ चरयापरिवज्जधरा मंदकसाया पियंवदा केई। कमसो भावणपहुदि जम्मंते बम्हकप्पंतं ॥562॥ जे पंचेंदियतिरिया सण्णी हु अकामणिज्जरेण जुदा। मंदकसाया केई जंति सहस्सारपरियंतं ॥563॥ तणदंडणादिसहिया जीवा जे अमंदकोहजुदा। कमसो भावणपहुदो केई जम्मंति अच्चुदं जाव ॥564॥ आ ईसाणं कप्पं उप्पत्ती हादि देवदेवीणं। तप्परदो उब्भूदी देवाणं केवलाणं पि ॥565॥ ईसाणलंतवच्चुदकप्पंतं जाव होंति कंदप्पा। किव्विसिया अभियोगा णियकप्पजहण्णट्ठिदिसहिया ॥566॥
= दूषित चरित्रवाले, क्रूर, उन्मार्ग में स्थित, निदान भाव से सहित, कषायो में अनुरक्त जीव अल्पर्द्धिक देवों की आयु बाँधते हैं ॥556॥ दशपूर्व के धारी जीव सौधर्मादि सर्वार्थसिद्धि पर्यंत जाते हैं ॥557॥ चार प्रकार के दान में प्रवृत्त, कषायों से रहित व पंचगुरुओं की भक्ति से युक्त ऐसे देशव्रत संयुक्त जीव सौधर्म स्वर्ग को आदि लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यंत जाते हैं ॥558॥ सम्यक्त्व, ज्ञान, आर्जव, लज्जा एवं शीलादि से परिपूर्ण स्त्रियां अच्युत कल्प पर्यंत जाती हैं ॥559॥ जो जघन्य जिनलिंग को धारण करनेवाले और उत्कृष्ट तप के श्रम से परिपूर्ण वे उपरिम ग्रैवेयक पर्यंत उत्पन्न होते हैं ॥560॥ पूजा, व्रत, तप, दर्शन ज्ञान और चारित्र से संपन्न निर्ग्रंथ भव्य इससे आगे सर्वार्थसिद्धि पर्यंत उत्पन्न होते हैं ॥561॥ मंद कषायी व प्रिय बोलनेवाले कितने ही चरक (साधुविशेष) और परिव्राजक क्रम से भवनवासियों को आदि लेकर ब्रह्मकल्प तक उत्पन्न होते हैं ॥562॥ जो कोई पंचेंद्रिय तिर्यंच संज्ञी अकाम निर्जरा से युक्त हैं और मंदकषायी हैं वे सहस्रार कल्प तक उत्पन्न होते हैं ॥563॥ जो तनुदंडन अर्थात् कायक्लेश आदि से सहित और तीव्र क्रोध से युक्त हैं ऐसे कितने ही आजीवक साधु क्रमशः भवनवासियों से लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यंत जन्म लेते हैं ॥564॥ देव और देवियों को उत्पत्ति ईशान कल्प तक होता है। इससे आगे केवल देवों की उत्पत्ति ही है ॥565॥ कंदर्प, किल्विषिक और अभियोग्य देव अपने अपने कल्प की जघन्य स्थिति सहित क्रमशः ईशान, लांतव और अच्युत कल्प पर्यंत होते हैं।
इह खेत्ते वेरग्गं बहुभेयं भाविदूण बहुकालं। संजम भावेहि मुणी देवा लोयंतिया होंति ॥646॥ थुइणिंदासु समाणो सुहदुक्खेसु सबधुरिउवग्गे। जो समणो सम्मत्तो सो च्चिय लोयंतियो होदि ॥647॥ जे णिरवेक्खा देहे णिछंदा णिम्ममा णिरारंभा। णिरवज्जा समणवरा ते च्चिय लोयंतिया होंति ॥648॥ संयगविप्पयोगे लाहालाहम्मि जीविदे मरणे। जो समदिठ्ठी समणो सो च्चिय लोयंतियो होदि ॥649॥ अणवरदसमं पत्ता संजमसमिदीसु झाणजोगेसुं तिव्वतवचरणजुत्ता समणा लोयंतिया होंति ॥650॥ पंचमहव्वय सहिया पंचसु समिदीसु चिरम्मि चेट्ठंति। पंचक्खविसयविरदा रिसिणो लोयंतिया होंति ॥651॥
= इस क्षेत्र में बहुत काल तक बहुत प्रकार के वैराग्य को भाकर संयम से युक्त मुनि लौकांतिक देव होते हैं ॥646॥ जो सम्यग्दृष्टि श्रमण (मुनि) स्तुति और निंदा में, सुख और दुःख में तथा बंधु और रिपु में समान हैं वही लोकांतिक होता है ॥647॥ जो देह के विषय में निरपेक्ष, निर्द्वंद्व, निर्मम, निरारंभ और निरवंद्य हैं वे ही श्रेष्ठ श्रमण लौकांतिक देव होते हैं ॥648॥ जो श्रमण संयोग और वियोग में, लाभ और अलाभ में, तथा जीवित और मरण में, समदृष्टि होते हैं वे लौकांतिक होते हैं ॥649॥ संयम, समिति, ध्यान एवं समाधि के विषय में जो निरंतर श्रम को प्राप्त हैं अर्थात् समाधान हैं, तथा तीव्र तपश्चरण से संयुक्त हैं वे श्रमण लौकांतिक होते हैं ॥650॥ पाँच महाव्रतों से सहित, पाँच समितियों का चिरकाल तक आचरण करने वाले, और पाँचों इंद्रिय विषयों से विरक्त ऋषि लौकांतिक होते हैं ॥651॥
गोम्मटसार जीवकांड / मूल गाथा संख्या 295-639 (विशेष देखो जन्म - 6.7)
शक्ति स्थान 4 लेश्या स्थान 14 आयुबंध स्थान 20 1 शिला भेद समान 1 कृष्ण उत्कृष्ठ 0 अबंध 2 पृथ्वी भेद समान 1 कृष्ण मध्यम 1 नरकायु - - 2 कृष्णादि मध्यम , उत्कृष्ठ 1 नरकायु - - 3 कृष्णादि 2 मध्यम , 1 उत्कृष्ठ 1 नरकायु - - - - 2 नरक तिर्यंचायु - - - - 3 नरक, तिर्यंच, मनुष्यायु - - 4 कृष्णादि 3 मध्यम , 1 जघन्य 4 सर्व - - 5 कृष्णादि 4 मध्यम , 1 जघन्य 4 सर्व - - 6 कृष्णादि 5 मध्यम , 1 जघन्य 4 सर्व 3 धूलिरेखा समान 6 कृष्णादि 1 जघन्य, 5 मध्यम 4 सर्व,सर्व - - - - 3 मनुष्य, देव व तिर्यंचायु - - - - 2 मनुष्य देवायु - - 5 कृष्ण बिना 1 जघन्य, 4 मध्यम 1 देवायु - - 4 कृष्ण, नील बिना 1 जघन्य, 3 मध्यम 1 देवायु - - 3 पीतादि 1 उत्कृष्ठ, 2 मध्यम 1 देवायु - - - - 0 अबंध - - 2 पद्म, शुक्ल 1 जघन्य, 1 मध्यम 0 अबंध - - 1 शुक्ल 1 मध्यम 0 अबंध - - 1 शुक्ल 1 उत्कृष्ठ 0 अबंध
- मध्यम परिणामों में ही आयु बँधती है
- आठ अपकर्ष काल निर्देश
- कर्मभूमिजों की अपेक्षा 8 अपकर्ष
- भोगभूमिजों तथा देव नारकियों की अपेक्षा आठ अपकर्ष
- आठ अपकर्ष कालों में न बँधें तो अंत समय में बँधती है
- आयु के त्रिभाग शेष रहने पर ही अपकर्ष काल आने संबंधी दृष्टिभेद
- अंतिम समय में केवल अंतर्मुहूर्त प्रमाण ही आयु बँधती है।
- आठ अपकर्ष कालों में बँधी आयु का समीकरण
- अन्य अपकर्षो में आयु बंध के प्रमाण में चार वृद्धि व हानि संभव है
- उसी अपकर्ष काल के सर्व समयो में उत्तरोत्तर हीन बंध होता है
जे सोवक्कमाउआ ते सग-सग भंजमाणाउट्ठिदीए बे तिभागे अदिक्कंते परभवियाउअबंधपाओग्गा होंति जाव असंखेयद्धात्ति। तत्थ बंधपाओग्गकालब्भंतरे आउबंधपाओग्गपरिणामेहिं के वि जीवा अट्ठवारं के वि सत्तवारं के वि छव्वारंके वि पंचवारं के वि चत्तारिवारं, के वि तिण्णिवारं के वि दोवारं के वि एक्कवारं परिणंति। कुदो। साभावियादो। तत्थ तदियत्तिभागपढमसमए जेहि परभवियाउअबंधो पारद्धोते अंतोमुहेत्तेण बंधं समाणिय पुणो सयलाउट्ठीदीए णवमभागे सेसे पुणो वि बंधपाओग्गा होंति। सयलाउट्ठिदीए सत्तावीसभागावसेसे पुणो वि बंधपाओग्गा होंति। एवं सेसतिभाग तिभागावसेसे बंधपाओग्गा होंति त्ति णेदव्वं जा अट्ठमी आगरिसा त्ति। ण च तिभागावसेसे आउअं णियमेण बज्झदि त्ति एयंतो। किंतु तत्थ आउअबंधपाओग्गा होंति त्ति उत्त होदि।
= जो जीव सोपक्रम आयुष्य हैं वे अपनी-अपनी भुज्यमान आयु स्थिति के दो त्रिभाग बीत जानेपर वहाँ से लेकर असंखेयाद्धा काल तक परभव संबंधी आयु को बाँधने के योग्य होते हैं। उनमें आयु बंध के योग्य काल के भीतर कितने ही जीव आठ बार; कितने ही सात बार; कितने ही छह बार; कितने ही पाँच बार; कितने ही चार बार; कितने ही तीन बार; कितने ही दो बार; कितने ही एक बार आयु बंध के योग्य परिणामों में-से परिणत होते हैं। क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। उसमें जिन जीवों ने तृतीय त्रिभाग के प्रथम समय में परभव संबंधी आयु का बंध आरंभ किया है वे अंतर्मुहूर्त में आयु बंध को समाप्त कर फिर समस्त आयु स्थिति के नौंवे भाग के शेष रहने पर फिर से भी आयु बंध के योग्य होते हैं। तथा समस्त आयु स्थिति का सत्ताईसवाँ भाग शेष रहने पर पुनरपि बंध के योग्य होते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर जो त्रिभाग शेष रहता जाता है उसका त्रिभाग शेष रहने पर यहाँ आठवें अपकर्ष के प्राप्त होने तक आयु बंध के योग्य होते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। परंतु त्रिभाग शेष रहने पर आयु नियम से बँधती है ऐसा एकांत नहीं है। किंतु उस समय जीव आयु बंध के योग्य होते हैं। यह उक्त कथन का तात्पर्य है। (गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 629-643/836)
गोम्मटसार जीवकांड/ जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 518/913/17 कर्मभूमितिर्यग्मनुष्याणां भुज्यमानायुर्जघन्यमध्यमोत्कृष्टं विवक्षितमिदं 6561। अत्र भागद्वयेऽतिक्रांते तृतीयभागस्य 2187 प्रथमांतर्मुहूर्तः परभवायुर्बंधयोग्यः, तत्र न बद्धं तदा तदेकभागतृतीयभागस्य 729 प्रथमांतर्मुहूर्त्त। तत्रापि न बद्ध तदा तदेकभागतृतीयभागस्य243 प्रथमांतर्मुहूर्तः। एवमग्रेऽग्रे नेतव्यमष्टवारं यावत्। इत्यष्टैवापकर्षाः। ...स्वभावादेव तद्बंध प्रायोग्यपरिणमनं जीवानां कारणांतर निरपेक्षमित्यर्थः।
= किसी कर्मभूमि या मनुष्य या तिर्यंच की आयु 6561 वर्ष हैं। तहाँ तिस आयु का दो भाग गए 2187 वर्ष रहै तहाँ तीसरा भाग कौ लागते ही प्रथम समयास्यों लगाई अंतर्मुहूर्त पर्यंत काल मात्र प्रथम अपकर्ष है तहाँ परभव संबंधी आयु का बंध होइ। बहुरि जो तहाँ न बंधे तौ तिस तीसरा भाग का दोय भाग गये 729 वर्ष आयु के अवशेष रहै तहाँ अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत दूसरा अपकर्ष है तहाँ पर भव का आयु बाँधे। बहुरि तहाँ भी न बंधै तो तिसका भी दोय भाग गये 243 वर्ष आयु के अवशेष रहैं अंतर्मुहूर्त काल मात्र तीसरा अपकर्ष विषैं परभव का आयु बाँधै। बहुरि तहाँ भी बंधै तौ जिसका भी दोय भाग गयें 81 वर्ष रहैं अंतर्मुहूर्त्त पर्यंत चौथा अपकर्ष विषैं परभव का आयु बाँधै ऐसे ही दोय दोय भाग गयें 27 वर्ष वा 9 वर्ष रहैं वा तीन वर्ष रहैं अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत पाँचवाँ, छठा, सातवाँ वा आठवाँ अपकर्ष विषैं परभव का आयु कौं बंधनेकौ योग्य जानना। ऐसें ही जो भुज्यमान आयु का प्रमाण होई ताकै त्रिभाग-त्रिभाग विषैं आयु के बंध योग्य परिणाम अपकर्षनि विषैं ही होई सो ऐसा कोई स्वभाव सहज ही है अन्य कोई कारण नहीं।
देव णेरइएसु...छम्मासावसेसे भुंजमाणाउए असंखेयाद्धापज्जवसाणे संते परभवियमाउअं बंधमाणाणं तदसंभवा।...असंखेज्ज तिरिक्खमणुसा...देव णेरइयाणं व भुंजमाणाउए छम्मासादो अहिए संते परभविआउअस्स वंधाभावा।
= भुज्यमान आयु के (अधिक से अधिक) छह मास अवशेष रहने पर और (कम से कम) असंखेयाद्धा काल के अवशेष रहने पर आगामी भव संबंधी आयु को बाँधने वाले देव और नारकियों के पूर्व कोटि के त्रिभाग से अधिक आबाधा होना असंभव है। (वहाँ तो अधिक से अधिक छह मास ही आबाधा होती है) असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोग-भूमिज तिर्यंच व मनुष्यों के भी देव और नारकियों के समान भुज्यमान आयु के छह मास से अधिक होने पर परभव संबंधी आयु के बंध का अभाव है।
धवला/ पुस्तक संख्या 10/4,2,4,36/234/2णिरुवक्कमाउआ पुण छम्मासावसेसे आउअबंधपाओग्गा होंति। तत्थ वि एवं चेव अट्ठगरिसाओ वत्तव्वाओ।
= जो निरूपक्रमायुष्क हैं वे भुज्यमान आयु में छह मास शेष रहने पर आयु बंध के योग्य होते हैं। यहाँ भी इसी प्रकार आठ अपकर्ष को कहना चाहिए।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका / टीका गाथा संख्या 158/192/1देवनारकाणां स्वस्थितौ षण्मासेषु भोगभूमिजानां नवमासेषु च अवशिष्टेषु त्रिभागेन आयुर्बंधसंभवात्।
= देव नारकी तिनिकैं तो छह महीना आयु का अवशेष रहै अर भोगभूमियां कै नव महीना आयु का अवशेष रहै तब त्रिभाग करि आयु बंधै है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका/518/914/24निरुपक्रमायुष्काः अनपवर्तितायुष्का देवनारका भुज्यमानायुषिषड्मासावशेष परभावायुर्बंधप्रायोग्या भवंति। अत्राप्यष्टाकर्षाः स्युः। समयाधिकपूर्वकोटिप्रभृतित्रिपलितोपम पर्यंत संख्यातासंख्यातवर्षायुष्कभोगभूमितिर्यग्मनुष्याऽपि निरुपक्रमायुष्का इति ग्राह्यं।
= निरुपक्रमायुष्क अर्थात् अनपवर्तित आयुष्क देव-नारकी अपनी भुज्जमान आयु में (अधिक से अधिक) छह मास अवशेष रहने पर परभव संबंधी आयु के बंध योग्य होते हैं। यहाँ भी (कर्मभूमिजोंवत्) आठ अपकर्ष होते हैं। समयाधिक पूर्व कोटि से लेकर तीन पल्य की आयु तक संख्यात व असंख्यात वर्षायुष्क जो भोगभूमिज तिर्यंच या मनुष्य हैं वे भी निरूपक्रमायुष्क ही हैं, ऐसा जानना चाहिए। (गोम्मटसार कर्मकांड | जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 639-643/836-837)
नाष्टमापकर्षेऽप्यायुर्बंधनियमः, नाप्यन्योऽपकर्षस्तर्हि आयुर्बंधः कथं। असंखेयाद्धा भुज्यमानायुषोऽंत्याबल्यसंख्येयभागः तस्मिन्नवशिष्टे प्रागेव अंतर्महूर्त मात्रसमयप्रबद्धान् परभवायुर्नियमेन बद्ध्वा समाप्नोतीति नियमो ज्ञातव्यः।
= प्रश्न - आठ अपकर्षो में भी आयु न बंधै है, तो आयु का बंध कैसे होई? उत्तर-सौ कहैं है - `असंखेयाद्धा' जो आवली का असंख्यातवाँ भाग भुज्यमान आयु का अवशेष रहै ताकै पहिले पर-भविक आयु का बंध करै है।
गोम्मटसार कर्मकांड /जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका/ गाथा संख्या 158/192/2यद्यष्टापकर्षेषु क्वचिन्नायुर्बद्धं तदावल्यसंख्येयभागमात्राया समयोनमुहूर्तमात्राया वा असंक्षेपाद्धायाः प्रागेवोत्तरभवायुरंतर्मुहूर्तमात्रसमयप्रबद्धां बद्ध्वा निष्ठापयति। एतौ द्वावपि पक्षो प्रवाह्योपदेशत्वात् अंगीकृतौं।
= यदि कदाचित् किसी की अपकर्ष में आयु न बंधै तो कौई आचार्य के मत से तौ आवली का असंख्यातवाँ भागप्रमाण और कोई आचार्य के मत से एक समय घाटि मुहूर्तप्रमाण आयु का अवशेष रहै तींहि के पहले उत्तर-भव की आयुकर्म को...बाँधे है। ए दोऊ पक्ष आचार्यनिका परंपरा उपदेश करि अंगीकार किये हैं।
गोदम! जीवा दुविहा पण्णत्ता संखेज्जवस्साउआ चेव असंखेज्जवस्साउआ चेव। तत्थ जे ते असंखेज्जवस्साउआ ते छम्मासावसेसियंसि याउगंसि परभवियं आयुगं णिबंधंता बंधंति। तत्थ जे ते संखेज्जवस्साउआ ते दुविहा पण्णत्ता सोमक्कमाउआ णिरुवक्कम्माउआ ते त्रिभागावसेससियंसि याउगंसि परभवियं आयुगं कम्मं णिबंधंता बंधति। तत्थ जे ते सोवक्कमाउआ ते सिआ तिभागतिभागावसेसयंति यायुगंसि परभवियं आउगं कम्मं णिबंधंता बंधंति। एदेण विहायपण्णत्तिसुत्तेण सह कधं ण विरोहो। ण एदम्हादो तस्स पुधसूदस्स आइरियभेएण भेदभावण्णस्स एयत्ताभावादो।
= प्रश्न - “हे गौतम! जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-संख्यात वर्षायुष्क और असंख्यात वर्षायुक्त। उनमें जो असंख्यात वर्षायुष्क है वे आयु के छह मास शेष रहने पर पर-भविक आयु को बाँधते हुए बाँधते हैं। और जो संख्यात वर्षायुष्क जीव हैं वे दो प्रकार के कहे गये हैं। सोपक्रमायुष्क और निरुपक्रमायुष्क। उनमें जो निरुपक्रमायुष्क हैं वे आयु में त्रिभाग शेष रहने पर पर-भविक आयुकर्म को बाँधते हुए बाँधते हैं। और जो सोपक्रमायुष्क जीव हैं वे कथंचित् त्रिभाग (कथंचित् त्रिभाग का त्रिभाग और कथंचित् त्रिभाग-त्रिभाग का त्रिभाग) शेष रहने पर पर-भव संबंधी आयुकर्म को बाँधते हैं। इस व्याख्या-प्रज्ञप्ति सूत्र के साथ कैसे विरोध न होगा! उत्तर - नहीं, क्योंकि, इस सूत्र से उक्त सूत्र भिन्न आचार्य के द्वारा बनाया हुआ होने के कारण पृथक् है। अतः उससे इसका मिलान नहीं हो सकता।
असंक्षेपाद्धाभुज्यमानायुषोंत्यवाल्येसंख्येयभागः तस्मिन्नवशिष्टे प्रागेव अंतर्मुहूर्तमात्रसमयप्रबद्धां परभावायुर्नियमेन बद्धध्वा समाप्नोतीति नियमो ज्ञातव्यः।
= भुज्यमान आयु के काल में अंतिम आवली का असंख्यातवाँ भाग शेष रहने पर अंतर्मुहूर्त कालमात्र समय प्रबद्धों के द्वारा परभव की आयुकौ बाँधकर पूरी करे है ऐसा नियम है अर्थात् अंतिम समय केवल अंतर्मुहूर्त मात्र स्थितिवाली परभव संबंधी आयु को बाँध कर निष्ठापन करै है।
अपकर्षेषु मध्येप्रथमवारं वर्जित्वा द्वितीयादिवारे बध्यमानस्यायुषो वृद्धिर्हानिरवस्थितिर्वा भवति। यदि वृद्धिस्तदा द्वितीयादिवारे बद्धाधिकस्थितेरेव प्राधान्यं। अथ हानिस्तदा पूर्वबद्धाधिकस्थितेरेव प्राधान्यं।
= आठ अपकर्षनि विषैं पहली बार बिना द्वितीयादित बार विषैं पूर्वे जो आयु बाँध्या था, तिसकी स्थिति की वृद्धि वा हानि वा अवस्थिति हो है। तहाँ जो वृद्धि होय तौ पीछैं जो अधिक स्थिति बंधी तिसकी प्रधानता जाननी। बहुरि जो हानि होय तौ पहिली अधिक स्थिति बंधी थी ताकी प्रधानता जाननी। (अर्थात् आठ अपकर्षो में बँधी हीनाधिक सर्व स्थितियो में से जो अधिक है वह ही उस आयु की बँधी हुई स्थिति समझनी चाहिए)।
चदुण्णमाउआणमवट्ठिद-भुजगारसंकमाणं कालो जहण्णमुक्कस्सेण एगसमओ। पुव्वबंधादो समउत्तरं पबद्धस्स जट्ठिदिं पडुच्च जट्ठिदिसंकयो त्ति एत्थ घेत्तव्वं। देव-णिरयाउ-आणं अप्पदरसंकमस्स जट्ट0 अंतोमुहुत्तं, उक्क, तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि। तिरिक्खमणुसाउआणं जह, अंतोमुहुत्तं, उक्क, तिण्णिपलिदोवमाणि सादिरेयाणि।
= चार आयु कर्मों के अवस्थित और भुजाकार संक्रमों का काल जघन्य व उत्कर्ष से एक समय मात्र हैं। पूर्व बंध से एक समय अधिक बाँधे गये आयुकर्म का जघन्य , स्थिति की अपेक्षा यहाँ जघन्य स्थितिसंक्रम ग्रहण करना चाहिए। देवायु और नरकायु के अल्पतर संक्रम का काल जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है। तिर्यंचायु और मनुष्यायु के अल्पतर संक्रम का काल जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक तीन-तीन पल्योपम मात्र हैं।
गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 441/593संकमणाकरणूणा णवकरणा होंति सव्व आऊणं...॥
= च्यारि आयु तिनकै संक्रमणकरण बिना नवकरण पाइए है।
आयुगस्स अत्थि अव्वत्तबंधगा अप्पतरबंधगा य।
महाबंध/ पुस्तक संख्या 2/$359/182/6आयु. अत्थि अवत्तव्वबंधगा य असंखेज्जभागहाणिबंधगा य।
= 1. आयु कर्म का अवक्तव्य बंध करनेवाले जीव हैं, और अल्पतर बंध करने वाले जीव हैं। विशेषार्थ - आयु कर्म का प्रथम समय में जो स्थितिबंध होता है उससे द्वितीयादि समयों में उत्तरोत्तर वह हीन हीनतर ही होता है ऐसा नियम है।
2. आयु कर्म के अवक्तव्यपद का बंध करनेवाले और असंख्यात भागहानि पद का बंध करनेवाले जीव हैं। विशेषार्थ-...आयु कर्म का अवक्तव्य बंध होने के बाद अल्पतर ही बंध होता है।...आयुकर्म...का जब बंध प्रारंभ होता है तब प्रथम समय में एक मात्र अवक्तव्य पद ही होता है और अनंतर अल्पतरपद होता है। फिर भी उस अल्पतर पद में कौन-सी हानि होती है, यही बतलाने के लिये यहाँ वह असंख्यात भागहानि ही होती है यह स्पष्ट निर्देश किया है।
- कर्मभूमिजों की अपेक्षा 8 अपकर्ष
- आयु के उत्कर्षण अपवर्तन संबंधी नियम
- बद्ध्यमान व भुज्यमान दोनों आयुओं को अपवर्तन संभव है
- परंतु बद्ध्यमान आयु की उदीरणा नहीं होती
- उत्कृष्ट आयु के अनुभाग का अपवर्तन संभव है।
- असंख्यात वर्षायुष्कों तथा चरम शरीरियों की आयु का अपवर्तन नहीं होता
- भुज्यमान आयु पर्यंत बद्ध्यमान आयुमें बाधा असंभव है।
- चारों आयुओं का परस्पर में संक्रमण नहीं होता
- संयम की विराधना से आयु का अपर्वतन हो जाता है
- आयु के अनुभाग व स्थितिघात साथ-साथ होते हैं
आयुर्बंधं कुर्ततां जीवानां परिणामवशेन बद्ध्यमानस्यायुषोऽपर्वतनमपि भवति। तदेवापर्वतनद्यात इत्युच्यते उदीयमानायुरपवर्तनस्यैव कदलीघाताभिघानात्।
= बहुरि आयु के बंध को करते जीव तिनके परिणामनिके वश र्तें (बद्ध्यमान आयु का) अपर्वतन भी हो है। अपवर्तन नाम घटने का है। सौ या कौं अपवर्तन घात कहिए जातै उदय आया आयु के (अर्थात भुज्यमान आयु के) अपरवर्तन का नाम कदलीघात है।
....। परभविय आउगस्सय उदीरणा णत्थि णियमेण ॥918॥
= बहुरि परभव का बद्ध्यमान आयु ताकी उदीरणा नियम करि नाहीं है।
उक्कस्साणुभागे बंधे ओवट्टणाघादो णत्थि त्ति के वि भणंति। तण्ण घडदे, उक्कस्साउअं बंधिय पुणो तं घादिय मिच्छत्तं गंतूणअग्गिदेवेसु उप्पण्णदीवायणेण वियहिचारादो महाबंधे आउअउक्कस्साणुभागंतरस्स उवड्ढपोग्गलमेत्तकालपरूवणण्णहाणुववत्तीदो वा।
= प्रश्न-उत्कृष्ट आयु को बाँधकर उसे अपवर्तनघात के द्वारा घातकर पश्चात् अधस्तन गुणस्थानों को प्राप्त होने पर उत्कृष्ट अनुभाग का स्वामी क्यों नहीं होता? उत्तर-(नहीं क्योंकि घातित अनुभाग के उत्कृष्ट होने का विरोध है)। उत्कृष्ट अनुभाग को बाँधनेपर हैं। उसका अपवर्तनघात नहीं होता, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किंतु वह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा माननेपर एक तो उत्कृष्ट आयु को बाँधकर पश्चात् उसका घात करके मिथ्यात्व को प्राप्त हो अग्निकुमार देवो में उत्पन्न हुए द्विपायन मुनि के साथ व्यभिचार आता है, दूसरे इसका घात माने बिना महाबंध में प्ररूपित उत्कृष्ट अनुभाग का उपार्ध पुद्गल प्रमाण अंतर भी नहीं बन सकता।
औपपादिकाचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ॥53॥
= औपपादिक देहवाले देव व नारकी, चरमोत्तम देहवाले अर्थात् वर्तमान भव से मोक्ष जानेवाले, भोग भूमियाँ तिर्यंच व मनुष्य अनपवर्ती आयु वाले होते हैं। अर्थात् उनकी अपमृत्यु नहीं होती। (सर्वार्थसिद्धि 2/53/201/4) (राजवार्तिक/ अध्याय संख्या 2/53/1-10/157) (धवला/ पुस्तक संख्या 9/4,1,66/306/6) (तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या 2/135)।
जधा णाणावरणादिसमयपबद्धाणं बंधावलियवदिक्कंताणं ओकड्डण-परपयडि-संकमेहि बाधा अत्थि, तधा आउअस्स ओकड्डण-परपयडिसंकमादीहि बाधाभाव परूवणट्ठं विदियवारमाबाधाणिद्देसादो।
= (जैसे) ज्ञानावरणादि कर्मों के समयप्रबद्धों के अपकर्षण और पर-प्रकृति संक्रमण के द्वारा बाधा होती है, उस प्रकार आयुकर्म के आबाधा काल के पूर्ण होने तक अपरकर्षण और पर प्रकृति संक्रमण के द्वारा बाधा का अभाव है। अर्थात् आगामी भव संबंधी आयुकर्म की निषेक स्थिति में कोई व्याघात नहीं होता है, इस बात के प्ररूपण के लिए दूसरी बार `आबाधा' इस सूत्र को निर्देश किया है।
बंधे...। ...आउचउक्के ण संकमणं ॥410॥
= बहुरि च्यारि आयु तिनकैं परस्पर संक्रमण नाहीं, देवायु, मनुष्यायु आदि रूप होई न परिणमैं इत्यादि ऐसा जानना।
एक्को विराहियसंजदो वेमाणियदेवेसु आउअं बंधिदूण तमोवट्टणाघादेण घादिय भवणवासियदेवेसु उववण्णो।
= विराधना की है संयम की जिसने ऐसा कोई संयत मनुष्य वैमानिक देवों में आयु को बाँध करके अपवर्तनाघात से घात करके भवनवासी देवो में उत्पन्न हुआ। (धवला पुस्तक संख्या 4/1,5,97/385/8 विशेषार्थ)
धवला/ पुस्तक संख्या 12/4,2,7,20/21/3उक्किस्साउअं बंधिय पुणो तं घादियमिच्छत्तं गंतूण अग्गिदेवेसु उप्पण्णदीवायण...।
= उत्कृष्ट आयु को बाँध करके मिथ्यात्व को प्राप्त हो, द्विपायन मुनि अग्निकुमार देवो में उत्पन्न हुए।
“ट्ठिदिघादे हंमंते अणुभागा आऊआण सव्वेसिं। अणुभागेण विणा वि हु आउववज्जण ट्ठिदिघादो ॥1॥ अणुभागे हंमंते ट्ठिदिघादो आउआण सव्वेसिं। ठिदिघादेण विणा वि हु आउववज्जामणुभागो ॥2॥
= स्थितिघात के अनुभागों का नाश होता है। आयु को छोड़कर शेष कर्मों का अनुभाग के बिना भी स्थितिघात होता है ॥1॥ अनुभाग का घात होने पर सब आयुओं का स्थितिघात होता है। स्थिति घात के बिना भी आयु को छोड़कर शेष कर्मों के अनुभाग का घात होता है।
धवला/ पुस्तक संख्या 12/4,2,7,20/21/8उक्कस्साणुभागेण सह तेत्तीसाउअं बंधिय अणुभागं मोत्तूण ट्ठिदीए चेत्र ओवट्टणाघादं कादूण सोधम्मादिसु उप्पण्णाणं उक्कस्सभावसामित्तं किण्ण लब्भदे। ण विणा आउअस्स उक्कस्सट्ठिदिघादाभावादो।
= प्रश्न-उत्कृष्ट अनुभाग के साथ तैंतीस सागरोपम प्रमाण आयु को बाँधकर अनुभाग को छोड़ केवल स्थिति के अपवर्तन घात को करके सौधर्मादि देवो में उत्पन्न हुए जीवों के उत्कृष्ट अनुभाग का स्वामित्व क्यों नहीं पाया जाता। उत्तर-नहीं, क्योंकि (अनुभाग घात के) बिना आयु को उत्कृष्ट स्थिति का घात संभव नहीं।
- बद्ध्यमान व भुज्यमान दोनों आयुओं को अपवर्तन संभव है
- आयु बंध संबंधी नियम
- तिर्यचों की उत्कृष्ट आयु भोगभूमि, स्वयंभूरमण द्वीप, व कर्मभूमि के प्रथम चार कालों में ही संभव है
- भोग भूमिजों में भी आयु हीनाधिक हो सकती है
- बद्धायुष्क व घातायुष्क देवों की आयु संबंधी स्पष्टीकरण
- चारों गतियों में परस्पर आयुबंध संबंधी
- आयु के साथ वही गति प्रकृति बँधती है
- एक भव में एक ही आयु का बंध संभव है
- बद्धायुष्कों में सम्यक्त्व व गुणस्थान प्राप्ति संबंधी
- बद्ध्यमान देवायुष्क का सम्यक्त्व विराधित नहीं होता
- बंध उदय सत्त्व संबंधी संयमी भंग
- मिश्र योगों में आयु का बंध संभव नहीं
एदे उक्कस्साऊ पुव्वावरविदेहजादतिरियाणं। कम्मावणिपडिबद्धे बाहिरभागे सयंपहगिरीदो ॥284॥ तत्थेय सव्वकालं केई जीवाण भरहे एरवदे। तुरियस्स पढमभागे एदेणं होदि उक्कस्सं ॥285॥
= उपर्युक्त उत्कृष्ट आयु पूर्वापर विदेहों में उत्पन्न हुए तिर्यंचों के तथा स्वयंप्रभ पर्वत के बाह्य कर्मभूमि-भाग में उत्पन्न हुए तिर्यंचों के ही सर्वकाल पायी जाती है। भरत और ऐरावत क्षेत्र के भीतर चतुर्थ काल के प्रथम भाग में भी किन्हीं तिर्यंचों के उक्त उत्कृष्ट आयु पायी जाती है।
असंखेज्जवासाउअस्स वा त्ति उत्ते देवणेरइयाणं गहणं, ण समयाहियपुव्वकोडिप्पहुडिउवरिमआउअतिरिक्खमणुस्साणं गहणं।
= `असंख्यातवर्षायुष्क' से देव नारकियों का ग्रहण किया गया है, इस पद से एक अधिक पूर्व कोटि आदि उपरिम आयु विकल्पों से तिर्यंचो व मनुष्यों का ग्रहण नहीं करना चाहिए।
“यहाँ पर जो बद्धायुघात की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देवों के दो प्रकार के काल की प्ररूपणा की है, उसका अभिप्राय यह है कि, किसी मनुष्य ने अपनी संयम अवस्था में देवायु बंध किया। पीछे उसने संक्लेश परिणामों के निमित्त से संयम की विराधना कर दी और इसलिए अपवर्तन घात के द्वारा आयु का घात भी कर दिया। संयम की विराधना कर देने पर भी यदि वह सम्यग्दृष्टि है, तो मर कर जिसे कल्प में उत्पन्न होगा, वहाँ की साधाणतः निश्चित आयु से अंतर्मुहूर्त कम अर्ध सागरोपम प्रमाण अधिक आयु का धारक होगा। कल्पना कीजिए किसी मनुष्य ने संयम अवस्था में अच्युत कल्प में संभव बाईस सागर प्रमाण आयु बंध किया। पीछे संयम की विराधना और बाँधी हुई आयु की अपवर्तना कर असंयत सम्यग्दृष्टि हो गया। पीछे मर कर यदि सहस्रार कल्प में उत्पन्न हुआ, तो वहाँ की साधारण आयु जो अठारह सागर की है, उससे धातायुष्क सम्यग्दृष्टि देव की आयु अंतर्मूहूर्त कम आधा सागर अधिक होगी। यदि वही पुरुष संयम की विराधना के साथ ही सम्यक्त्व की विराधना कर मिथ्यादृष्टि हो जाता है, और पीछे मरण कर उसी सहस्रार कल्प में उत्पन्न होता है, तो उसकी वहाँ की निश्चित अठारह सागर की आयुसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग से अधिक होगी। ऐसे जीव को घातायुष्क मिथ्यादृष्टि कहते हैं।
1. नरक व देवगति के जीवो में
धवला/ पुस्तक संख्या 12/4,2,7,32/27/5अपज्जत्ततिरिक्खाउअं देव-णेरइया ण बंधंति।
= अपर्याप्त तिर्यंच संबंधी आयु को देव व नारकी जीव नहीं बाँधते।
गोम्मटसार कर्मकांड /जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 439-440/836/6परभवायुः स्वभुज्यामानायुष्युत्कृष्टेन षण्मासेऽवशिष्टे देवनारका नारं नैरश्चं बध्नंति तद्बंधे योग्याः स्युरित्यर्थः।... सप्तमपृथ्वीजाश्च तैरश्चमेव।
= भुज्यमान आयु के उत्कृष्ट छह मास अवशेष रहैं देव नारकी हैं ते मनुष्यायु वा तिर्यंचायु को बाँधै है अर्थात् तिस काल में बंध योग्य हों हैं।....सप्तम पृथ्वी के नारकी तिर्यंचायु ही को बाँधे हैं।
2. कर्म भूमिज तिर्यंच मनुष्य गति के जीवों में
नोट-सम्यग्दृष्टि मनुष्य व तिर्यंच केवल देवायु न मनुष्यायु का ही बंध करते हैं-देखें बंधव्युच्छित्ति चार्ट ।
राजवार्तिक/अध्याय संख्या 2/49/8/155/9देवेषूत्पद्य च्युतः मनुष्येषु तिर्यक्षु चोत्पद्य अपर्याप्तकालमनु भूय पुनिर्देवायुर्बद्ध्वा उत्पद्यते लब्धमंतरम्।
= देवों में उत्पन्न होकर वहाँ से च्युत हो मनुष्य वा तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ। अपर्याप्त काल मात्र का अनुभव कर पुनः देवायु को बाँधकर वहाँ ही उत्पन्न हो गया। इस प्रकार देव गति का अंतर अंतर्मुहूर्त मात्र ही प्राप्त होता है। अर्थात् अपर्याप्त मनुष्य वा तिर्यंच भी देवायु बंध कर सकते हैं। गोम्मटसार कर्मकांड| जीव तत्त्व प्रदीपिका/टीका गाथा संख्या 439-440/836/7
नरतिर्यंचस्त्रिभागेऽवशिष्टे चत्वारि।... एक विकलेंद्रिया नारं तैरंचं च। तेजो वायवः...
= तैरंचमेव बहुरि मनुष्य तिर्यंच भुज्यमान आयु का तीसरा भाग अवशेष रहैं च्यास्यों आयु कौ बाँधै है....एकेंद्रिय व विकलेंद्रिय नारक और तिर्यंच आयु कौ बाँधै है। तेजकायिक वा वातकायिक.... तिर्यचायु ही बांधै हैं।
गोम्मटसार कर्मकांड | जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका/ गाथा संख्या 745/900/1उद्वेलितानुद्वेलितमनुष्यद्विकतेजीवायूनां मनुष्यायुरबंधादत्रानुत्पत्तेः।
= मनुष्य-द्विक की उद्वेलना भये वा न भये तेज वातकायिकनि के मनुष्यायु के बंध का अभावतैं मनुष्यनिविषैं उपजना नाहीं।
3. भोगभूमि मनुष्य व तिर्यंच गति के जीवो में
गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका/ गाथा संख्या 639-640/836/8भोगभूमिजाः षण्मासेऽवशिष्टे दैवं।
= बहुरि भोगभूमिया छह मास अवशेष रहैं देवायु ही को बाँधै।
नोट-आयु के साथ गति का जो बंध होता है वह नियम से आयु के समान ही होता है। क्योंकि गति नामकर्म व आयुकर्म की व्युच्छित्ति एक साथ ही होती है-देखें बंध व्युच्छित्ति चार्ट ।
एक्के एक्कं आऊं एक्कभवे बंधमेदि जोग्गपदे। अडवारं वा तत्थवि तिभागसेसे व सव्वत्थ ॥642॥
= एक जीव एक समय विषैं एक ही आयु को बाँधै सो भी योग्यकाल विषै आठ बार ही बाँधै, तहाँ सर्व तीसरा भाग अवशेष रहे बाँधे है।
चत्तारि वि छेत्ताइं आउयबंधेण होइ सम्मत्तं। अणुवय-महव्वाइं ण लहइ देवउअं मोत्तुं ॥201॥
= जीव चारों ही क्षेत्रों की (गतियों की) आयु का बंध होने पर सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है। किंतु अणुव्रत और महाव्रत देवायु को छोड़कर शेष आयु का बंध होने पर प्राप्त नहीं कर सकता।
(धवला/ पुस्तक संख्या 1/1,1,85/169/326), (गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 334), (गोम्मटसार जीवकांड / मूल गाथा संख्या 653/1101)
धवला/ पुस्तक संख्या 1/1,1,26/208/1बद्धायुरसंयतसम्यग्दष्टिसासादनानामिव न सम्यग्मिथ्यादृष्टिसंयतासंयतानां च तत्रापर्याप्तकाले संभव। समस्ति तत्र तेन तयोर्विरोधात्।
= जिस प्रकार बद्धायुष्क असंयतसम्यग्दृष्टि और सासादन गुणस्थान वालों का तिर्यंच गति के अपर्याप्त काल में संभव है, उस प्रकार सम्यग् मिथ्यादृष्टि और संयतासंयतों का तिर्यंचगति के अपर्याप्त काल में संभव नहीं हैं, क्योंकि, तिर्यंचगति में अपर्याप्तकाल के साथ सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयतों का विरोध है।
धवला/ पुस्तक संख्या 12/1,2,7,19/20/13उक्कस्साणुभागेण सह आउवबंधे संजदासंजदादिहेट्ठिमगुणट्ठाणाणं गमणाभावादो।
= उत्कृष्ट अनुभाग के साथ आयु को बाँधने पर संयतासंयतादि अधस्तन गुणस्थानों में गमन नहीं होता।
गोम्मटसार जीवकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका /गाथा संख्या 731/1325/14बद्धदेवायुष्कादन्यस्त उपशमश्रेण्यांमरणाभावत्। शेषत्रिकबद्धायुष्कानां च देशसकलसंयमयोरेवासंभवात्।
= देवायु का जाकै बंध भया होइ तिहिं बिना अन्य जीव का उपशम श्रेणी विषैं मरण नाहीं। अन्य आयु जाकै बंधा होइ ताकै देशसंयम सकलसंयम भी न होइ।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका/ गाथा संख्या 335/486/13नरकतिर्यग्देवायुस्तु भुज्यमानबद्ध्यमानोभयप्रकारेण सत्त्वेसु सत्सु यथासंख्यंदेशव्रताः सकलव्रताः क्षपका नैव स्युः।
गोम्मटसार कर्मकांड /जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका /गाथा संख्या 346/498/11असंयते नारकमनुष्यायुषी व्युच्छित्तिः, तत्सत्त्वेऽणुव्रताघटनात्।
= 1. बद्ध्यमान और भुज्यमान दोउ प्रकार अपेक्षा करि नरकायु का सत्त्व होतैं देशव्रत न होई, तिर्यंचायु का सत्त्व होतैं सकलव्रत न होई, नरक तिर्यंच व देवायु का सत्त्व होतैं क्षपक श्रेणी न होई। 2. असंयत सम्यग्दृष्टियों के नारक व मनुष्यायु की व्युच्छित्ति हो जाती है क्योंकि उनके सत्त्व में अणुव्रत नहीं होते।
बहुरि बद्ध्यमान देवायु अर भुज्यमान मनुष्यायु युक्त असंयातादि च्यारि गुणस्थानवर्ती जीव सम्यक्त्व तै भ्रष्ट होइ मिथ्यादृष्टि विषैं होते नाहीं।
सगसगगदीणमाउं उदेदि बंधे उदिण्णगेण समं। दो सत्ता हु अबंधे एक्कं उदयागदं सत्तं ॥64॥
= नारकादिकनिकें अपनी-अपनी गति संबंधी ही एक आयु उदय हो हैं। बहुरि सत्त्व पर-भव की आयु का बंध भयें उदयागत आयु सहित दोय आयु का है-एक बद्धयमान और एक भुज्यमान। बहुरि अबद्धायुकै एक उदय आया भुज्यमान आयु ही का सत्त्व है।
गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 644/838एवमबंधे बंधे उवरदबंधे वि होंति भंगा हु। एक्कस्सेक्कम्मि भवे एक्काउं पडि तये णियमा।
= ऐसे पूर्वोक्त रीति करि बंध वा अबंध वा उपरत बंधकरि एक जीव के एक पर्याय विषै एक आयु प्रति तीन भंग नियत तैं होय है।
बंधादि विषै बंध वर्तमान बंधक अबंध (अबद्धायुष्क) उपरत बंद (बद्धायुष्क) बंध 1 x x उदय 1 1 1 सत्त्व 2 1 -
जातैं मिश्र योग विषैं आयुबंध होय नाहीं।
- तिर्यचों की उत्कृष्ट आयु भोगभूमि, स्वयंभूरमण द्वीप, व कर्मभूमि के प्रथम चार कालों में ही संभव है
- आयु विषयक प्ररूपणाएँ
- नरक गति सम्मबंधी
- तिर्यंच गति संबंधी
- एक अंतर्मुहूर्त में लब्ध्यपर्याप्तक के संभव निरंतर क्षुद्रभव
- मनुष्य गति संबंधी :-
नरक-गति के पटलों में जघन्य / उत्कृष्ट आयु पटल संख्या प्रथम पृथ्वी द्वितीय पृथ्वी तृतीय पृथ्वी चतुर्थ पृथ्वी पंचम पृथ्वी षष्ट पृथ्वी सप्तम पृथ्वी जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सामान्य 10,000 वर्ष 1 सागर 1 3 3 7 7 10 10 17 17 22 22 33 1 10,000 वर्ष 90,000 वर्ष 1 13/11 3 31/9 7 52/7 10 57/5 17 56/3 22 33 2 90,000 वर्ष 90,00,000 वर्ष 13/11 15/11 31/9 35/9 52/7 55/7 57/5 64/5 56/3 61/3 3 90,00,000 वर्ष असं. कोटि पूर्व 15/11 17/11 35/9 39/9 55/7 58/7 64/5 71/5 61/3 22 4 असं. कोटि पूर्व 1/10 सागर 17/11 19/11 39/9 43/9 58/7 61/7 71/5 78/5 5 1/10 सागर 1/5 सागर 19/11 21/11 43/9 47/9 61/7 64/7 78/5 17 6 1/5 सागर 3/10 सागर 21/11 23/11 47/9 51/9 64/7 67/7 7 3/10 सागर 2/5 सागर 23/11 25/11 51/9 55/9 67/7 10 8 2/5 सागर 1/2 सागर 25/11 27/11 55/9 59/9 9 1/2 सागर 3/5 सागर 27/11 29/11 59/9 7 10 3/5 सागर 7/10 सागर 29/11 31/11 11 7/10 सागर 4/5 सागर 31/11 3 12 4/5 सागर 9/10 सागर 13 9/10 सागर 1 सा तिर्यंच-गति में जघन्य / उत्कृष्ट आयु मार्गणा विशेष आयु उत्कृष्ट जघन्य एकेंद्रिय पृथ्वीकायिक शुद्ध 12,000 वर्ष अंतर्मुहुर्त पृथ्वीकायिक खर 22,000 वर्ष अपकायिक 7,000 वर्ष तेजकायिक 3 दिन रात वायुकायिक 3,000 वर्ष वनस्पति साधारण 10,000 वर्ष विकलेंद्रिय द्वींद्रिय 12 वर्ष त्रींद्रिय 49 दिन रात चतुरिंद्रिय 6 महीने पंचेंद्रिय जलचर मत्स्यादि 1 कोड पूर्व परिसर्ग गोह ,नेवला ,सरी-सृपादि 9 पूर्वांग उरग सर्प 42,000 वर्ष पक्षी कर्म भूमिज भैरुंड आदि 72,000 वर्ष चौपाये कर्म भूमिज 1 पल्य असंज्ञी पंचेंद्रिय कर्म भूमिज 1 कोड पूर्व भोग भूमिज उत्तम भोगभूमिज देव कुरु -उत्तर कुरु 3 पल्य मध्यम भोगभूमिज हरि व् रम्यक क्षेत्र 2 पल्य जघन्य भोगभूमिज हेमवत -हैरण्यवत 1 पल्य कुभोगभूमिज (अंतर्द्वीप ) 1 पल्य कर्म भूमिज 1 पल्य एक अंतर्महुर्त मे लब्ध्यपर्याप्तक के संभव निरंतर क्षुद्र भव क्रम मार्गणा एक अंतर्महुर्त के भव नाम सूक्ष्म / बादर प्रत्येक मे योग (जोड़) स्थावर 1 पृथ्वीकायिक सूक्ष्म 6012</t> 66132 2 बादर 6012 3 अपकायिक सूक्ष्म 6012 4 बादर 6012 5 तेजकायिक सूक्ष्म 6012 6 बादर 6012 7 वायुकायिक सूक्ष्म 6012 8 बादर 6012 9 वनस्पति साधारण सूक्ष्म 6012 10 बादर 6012 11 वनस्पति अप्रति प्रत्येक बादर 6012 विकलेंद्रिय 12 द्वींद्रिय बादर 80 180 13 त्रींद्रिय बादर 60 14 चतुरिंद्रिय बादर 40 पंचेंद्रिय 15 असंज्ञी बादर 8 24 16 संज्ञी बादर 8 17 मनुष्य बादर 8 कुल योग 66336 1 पूर्व = 70560000000000 वर्ष 1. क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण = (मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या 1111-1113); (तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 4/गाथा); (सर्वार्थसिद्धि/ अध्याय संख्या 3/27-31,37/58-66); (राजवार्तिक/अध्याय संख्या 3/27-31,37/191-192,198)
मनुष्य-गति मार्गणा में आयु अपेक्षा विशेष (ति.प. गा) जघन्य आयु (ति.प. गा) उत्कृष्ट आयु क्षेत्र भरत-एरावत क्षेत्र सुषमा सुषमा काल 2 पल्य 3 पल्य सुषमा काल 1 पल्य 2 पल्य सुषमा दुषमा काल 1 कोटि पूर्व 1 पल्य दुषमा सुषमा काल 120 वर्ष 1 कोटि पूर्व दुषमा काल 20 वर्ष 120 वर्ष दुषमा दुषमा काल 12 वर्ष 20 वर्ष विदेह क्षेत्र 2255 अंतमहूर्त 2255 1 कोटि पूर्व हेमवत-हैरण्यवत 1 कोटि पूर्व 1 पल्य हरि रम्यक 404 1 पल्य 396 2 पल्य देव-उत्तर कुरु 2 पल्य 335 3 पल्य अंतर्द्वीपज म्लेच्छ 1 कोटि पूर्व 2513 1 पल्य (ति.प. गा) जघन्य आयु (ति.प. गा) उत्कृष्ट आयु काल अवसर्पिणी सुषमा सुषमा काल 2 पल्य 335 3 पल्य सुषमा काल 1 पल्य 396 2 पल्य सुषमा दुषमा काल 1 कोटि पूर्व 404 1 पल्य दुषमा सुषमा काल 120 वर्ष 1277 1 कोटि पूर्व दुषमा काल 20 वर्ष 1475 120 वर्ष दुषमा दुषमा काल 1554 15 या 16 वर्ष 1536 20 वर्ष उत्सर्पिणी सुषमा सुषमा काल 1564 15 या 16 वर्ष 20 वर्ष सुषमा काल 1568 20 वर्ष 120 वर्ष सुषमा दुषमा काल 1576 120 वर्ष 1595 1 कोटि पूर्व दुषमा सुषमा काल 1596 1 कोटि पूर्व 1598 1 पल्य दुषमा काल 1600 1 पल्य 2 पल्य दुषमा दुषमा काल 1602 2 पल्य 1604 3 पल्य (ति.प. गा) जघन्य आयु (ति.प. गा) उत्कृष्ट आयु भोग-भूमि उत्तम भोग भूमि 290 2 पल्य 290 3 पल्य मध्यम भोग भूमि 289 1 पल्य 289 2 पल्य जघन्य भोग भूमि 288 1 कोटि पूर्व 288 1 पल्य - देवगति में व्यंतर संबंधी
- देव गतिमें भवनवासियों संबंधी
- देवगतिमें ज्योतिष देवों संबंधी
- देवगति में वैमानिक देव सामान्य संबंधी
- वैमानिक देवोंमें व उनके परिवार देवों संबंधी
- वैमामिक इंद्रों अथवा देवोंकी देवियों संबंधी
- देवों-द्वारा बंध योग्य जघन्य आयु
देव-गति में व्यंतर देव संबंधी आयु प्रमाण - 1 (मू.आ. १११६-१७); 2 (त.सू. ४/३८-३९); 3 (ति.प. ४,५,६/गा), 4 (त्रि.सा. २४०-२९३), 5 (द्र.सं./टी. ३५/१४२) ति.प.गा अन्य प्रमाण नाम आयु उत्कृष्ट जघन्य 83 1,2 व्यंतर सामान्य 1 पल्य 10,000 वर्ष 84 4,5 किन्नर आदि आठों इंद्र 1 पल्य 84 4,5 प्रतींद्र 1 पल्य समानिक 1 पल्य महत्तर देव 1/2 पल्य शेष देव यथायोग्य 85 4 नीचोपपाद 10,000 वर्ष दिग्वासी 20,000 वर्ष अंतर निवासी 30,000 वर्ष कूषमांड 40,000 वर्ष उत्पन्न 50,000 वर्ष अनुत्पन्न 60,000 वर्ष प्रमाणक 70,000 वर्ष गंध 80,000 वर्ष महागंध 84,000 वर्ष भुजंग (जुगल) 1/8 पल्य प्रातिक 1/4 पल्य आकाशोत्पन्न 1/2 पल्य जंबू द्वीप के रक्षक ति.प.४ गा. ति.प.५ गा. नाम आयु उत्कृष्ट जघन्य 76 महोराग 1 पल्य 10,000 वर्ष 276 वृषभ देव 1712 शाली देव 51 अन्य सर्व द्वीप समुद्रों के अधिपति देव देवियाँ ति.प.४ गा. ति.प.५ गा. नाम आयु उत्कृष्ट जघन्य 1672 श्री देवी 1 पल्य 10,000 वर्ष 1728 ह्रीं देवी 1762 धृति देवी 209 बला देवी 258 लवणा देवी इसी प्रकार अन्य सब देवियों की जानना देव गति में भवनवासी संबंधी आयु क्रम नाम आयु सामान्य मूल भेद प्रतींद्र / त्रायस्त्रिंश / लोकपाल / सामानिक आत्मरक्ष परिषद् सेनापति आरोहक वाहन या अनीक देव सामान्य इंद्र जघन्य उत्कृष्ट इंद्र इंद्राणी देव देवी अभ्यंतर माध्यम बाह्य 1 असुर कुमार चमरेंद्र सर्वत्र 10,000 वर्षइंद्रवत1 सागर 2 1/2 पल्य स्व स्व इंद्रवत 1 पल्य कथन नष्ट हो गया है (तिलोयपण्णत्ति/ अधिकार संख्या 6/161,174)2 1/2 पल्य 2 पल्य 1 1/2 पल्य 1 पल्य 1/2 पल्य वैरोचन साधिक 1 सागर 3 पल्य साधिक 1 पल्य 3 पल्य 2 1/2 पल्य 2 पल्य साधिक 1 पल्य साधिक 1/2 पल्य 2 नाग कुमार भूतानंद 3 पल्य 1/8 पल्य 1 कोटि पूर्व 1/8 पल्य 1/16 पल्य 1/32 पल्य 1 कोटि पूर्व 1 कोटि वर्ष धरणानंद साधिक 3 पल्य साधिक 1/8 पल्य साधिक 1 कोटि पूर्व साधिक 1/8 पल्य साधिक 1/16 पल्य साधिक 1/32 पल्य साधिक 1 कोटि पूर्व साधिक 1 कोटि वर्ष 3 सुपर्ण कुमार वेणु 2 1/2 पल्य 3 कोटि पूर्व 1 कोटि वर्ष 3 कोटि पूर्व 2 कोटि पूर्व 1 कोटि पूर्व 1 कोटि वर्ष 1 लाख वर्ष वेणुधारी साधिक 2 1/2 पल्य साधिक 3 कोटि पूर्व साधिक 1 कोटि वर्ष साधिक 3 कोटि पूर्व साधिक 2 कोटि पूर्व साधिक 1 कोटि पूर्व साधिक 1 कोटि वर्ष साधिक 1 लाख वर्ष 4 द्वीप कुमार पूर्ण 2 पल्य 3 कोटि वर्ष 1 लाख वर्ष 3 कोटि वर्ष 2 कोटि वर्ष 1 कोटि वर्ष 1 लाख वर्ष 50,000 वर्ष विशिष्ट साधिक 2 पल्य साधिक 3 कोटि वर्ष साधिक 1 लाख वर्ष साधिक 3 कोटि वर्ष साधिक 2 कोटि वर्ष साधिक 1 कोटि वर्ष साधिक 1 लाख वर्ष साधिक 50,000 वर्ष 5 उदधि कुमार जल प्रभ 1 1/2 पल्य 3 कोटि वर्ष 1 लाख वर्ष 3 कोटि वर्ष 2 कोटि वर्ष 1 कोटि वर्ष 1 लाख वर्ष 50,000 वर्ष जल कांत साधिक 1 1/2 पल्य साधिक 3 कोटि वर्ष साधिक 1 लाख वर्ष साधिक 3 कोटि वर्ष साधिक 2 कोटि वर्ष साधिक 1 कोटि वर्ष साधिक 1 लाख वर्ष साधिक 50,000 वर्ष 6 स्तनित कुमार घोष 1 1/2 पल्य 3 कोटि वर्ष 1 लाख वर्ष 3 कोटि वर्ष 2 कोटि वर्ष 1 कोटि वर्ष 1 लाख वर्ष 50,000 वर्ष महा घोष साधिक 1 1/2 पल्य साधिक 3 कोटि वर्ष साधिक 1 लाख वर्ष साधिक 3 कोटि वर्ष साधिक 2 कोटि वर्ष साधिक 1 कोटि वर्ष साधिक 1 लाख वर्ष साधिक 50,000 वर्ष 7 विद्युत कुमार हरिषेण 1 1/2 पल्य 3 कोटि वर्ष 1 लाख वर्ष 3 कोटि वर्ष 2 कोटि वर्ष 1 कोटि वर्ष 1 लाख वर्ष 50,000 वर्ष हरिकांत साधिक 1 1/2 पल्य साधिक 3 कोटि वर्ष साधिक 1 लाख वर्ष साधिक 3 कोटि वर्ष साधिक 2 कोटि वर्ष साधिक 1 कोटि वर्ष साधिक 1 लाख वर्ष साधिक 50,000 वर्ष 8 दिक्कुमार अमित गति 1 1/2 पल्य 3 कोटि वर्ष 1 लाख वर्ष 3 कोटि वर्ष 2 कोटि वर्ष 1 कोटि वर्ष 1 लाख वर्ष 50,000 वर्ष अमित वाहन साधिक 1 1/2 पल्य साधिक 3 कोटि वर्ष साधिक 1 लाख वर्ष साधिक 3 कोटि वर्ष साधिक 2 कोटि वर्ष साधिक 1 कोटि वर्ष साधिक 1 लाख वर्ष साधिक 50,000 वर्ष 9 अग्नि कुमार अग्नि शिखा 1 1/2 पल्य 3 कोटि वर्ष 1 लाख वर्ष 3 कोटि वर्ष 2 कोटि वर्ष 1 कोटि वर्ष 1 लाख वर्ष 50,000 वर्ष अग्नि वाहन साधिक 1 1/2 पल्य साधिक 3 कोटि वर्ष साधिक 1 लाख वर्ष साधिक 3 कोटि वर्ष साधिक 2 कोटि वर्ष साधिक 1 कोटि वर्ष साधिक 1 लाख वर्ष साधिक 50,000 वर्ष 10 वायु कुमार विलंब 1 1/2 पल्य 3 कोटि वर्ष 1 लाख वर्ष 3 कोटि वर्ष 2 कोटि वर्ष 1 कोटि वर्ष 1 लाख वर्ष 50,000 वर्ष प्रभज्जन साधिक 1 1/2 पल्य साधिक 3 कोटि वर्ष साधिक 1 लाख वर्ष साधिक 3 कोटि वर्ष साधिक 2 कोटि वर्ष साधिक 1 कोटि वर्ष साधिक 1 लाख वर्ष साधिक 50,000 वर्ष देव गति मे ज्योतिष देव संबंधी प्रमाण सं नाम आयु जघन्य (प्रमाण नं 5) उत्कृष्ट 1-7 चंद्र 1/8 पल्य 1 पल्य+1 लाख वर्ष 1-7 सूर्य 1/8 पल्य 1 पल्य+1000 वर्ष 1-7 शुक्र 1/8 पल्य 1 पल्य+100 वर्ष 2,3,4,6,7 वृहस्पति 1/8 पल्य 1 पल्य 1 बृहस्पति 1/8 पल्य 1 पल्य+100 वर्ष 5 बृहस्पति 1/8 पल्य 3/4 पल्य 1-7 बुध, मंगल 1/8 पल्य 1/2 पल्य 1-7 शनि 1/8 पल्य 1/2 पल्य 1-7 नक्षत्र 1/8 पल्य 1/2 पल्य 1-7 तारे 1/8 पल्य 1/4 पल्य त्रि.सा 449 सर्व देवियाँ स्व-स्व देवों से आधी घातायुष्क की अपेक्षा : ध. 7/2,२,30/129; त्रि.सा,541, सम्यक दृष्टि : स्व स्व उत्कृष्ट + 1/2 पल्य, मिथ्यादृष्टि : स्व स्व उत्कृष्ट + पल्य /अ सं प्रमाण : 1=(मूलाचार 1122-1123), 2=(तत्त्वार्थसूत्र 4/40-41), 3=(तिलोयपण्णत्ति 7/617-625), 4=(राजवार्तिक 4/40-41/249), 5=(हरिवंश पुराण 6/89), 6=(जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो 12/95-96), 7=(त्रिलोकसार 446) देव गति मे सौधर्म-ईशान देव संबंधी आयु नाम आयु बद्धायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट घातायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सामान्य स्वर्ग सामान्य साधिक 1 पल्य साधिक 2 सागर घातायुष्क सम्यक दृष्टि 1 पल्य + 1/2 पल्य 2 सागर + 1/2 सागर मिथ्या दृष्टि 1 पल्य + पल्य /अ सं 2 सागर + पल्य /अ सं प्रत्येक पटल ऋजु 3/2 पल्य 1/2 सागर 666,666,666,666,66 2/3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत विमल 1/2 सागर 17/30 सागर 1,333,333,333,333,33 1/3 पल्य चंद्र 17/30 सागर 19/30 सागर 20,000,000,000,000,00 पल्य वल्गु 19/30 सागर 21/30 सागर 266,666,666,666,66 2/3 पल्य वीर 21/30 सागर 23/30 सागर 333,333,333,333,333 1/3 पल्य अरुण 23/30 सागर 25/30 सागर 400,000,000,000,000 पल्य नंदन 25/30 सागर 27/30 सागर 466,666,666,666,666 2/3 पल्य नलिन 27/30 सागर 29/30 सागर 533,333,333,333,333 1/3 पल्य कांचन 29/30 सागर 31/30 सागर 600,000,000,000,000 पल्य रुधिर 31/30 सागर 33/30 सागर 666,666,666,666,666 2/3 पल्य चचू 33/30 सागर 35/30 सागर 733,333,333,333,333 1/3 पल्य मरुत 35/30 सागर 37/30 सागर 800,000,000,000,000 पल्य ऋद्धीश 37/30 सागर 39/30 सागर 866,666,666,666,666 2/3 पल्य वैडूर्य 39/30 सागर 41/30 सागर 933,333,333,333,333 पल्य रुचक 41/30 सागर 43/30 सागर 1,000,000,000,000,000 पल्य रुचिर 43/30 सागर 45/30 सागर 1,066,666,666,666,666 2/3 पल्य अंक 45/30 सागर 47/30 सागर 1,133,333,333,333,333 1/3 पल्य स्फटिक 47/30 सागर 49/30 सागर 1,200,000,000,000,000 पल्य तपनीय 49/30 सागर 51/30 सागर 1,266,666,666,666,666 पल्य मेघ 51/30 सागर 53/30 सागर 1,333,333,333,333,333 पल्य अभ्र 53/30 सागर 55/30 सागर 1,400,000,000,000,000 पल्य हरित 55/30 सागर 57/30 सागर 1,466,666,666,666,666 2/3 पल्य पद्म 57/30 सागर 59/30 सागर 1,533,333,333,333,333 1/3 पल्य लोहितांक 59/30 सागर 61/30 सागर 1,600,000,000,000,000 पल्य वरिष्ट 61/30 सागर 63/30 सागर 1,666,666,666,666,666 2/3 पल्य नंदावर्त 63/30 सागर 65/30 सागर 1,73,3333,333,333,333 1/3 पल्य प्रभंकर 65/30 सागर 67/30 सागर 1,800,000,000,000,000 पल्य पिश्टाक (पृष्ठक) 67/30 सागर 69/30 सागर 1,866,666,666,666,666 2/3 पल्य गज 69/30 सागर 71/30 सागर 1,933,333,333,333,333 1/22 पल्य मित्र 71/30 सागर 73/30 सागर 20,000,000,000,000,000 पल्य प्रभा 73/30 सागर 5/2 सागर साधिक 2 सागर (2) सनत्कुमार माहेंद्र युगल संबंधी
<thead> </thead>सानतकुमार / महेंद्र युगल में आयु नाम आयु सामान्य बद्धायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट घातायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सामान्य स्वर्ग सामान्य साधिक 2 सागर साधिक 7 सागर स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत घातायुष्क सम्यग्दृष्टि 5/2 सागर 7/2 सागर मिथ्या दृष्टि 2 सागर + पल्य /अ सं 7 सागर + पल्य /अ सं प्रत्येक पटल अंजन 5/2 सागर 45/14 सागर 19/7 सागर वनमाला 45/14 सागर 43/14 सागर 24/7 सागर नाग 55/14 सागर 63/14 सागर 29/7 सागर गरुण 65/14 सागर 75/14 सागर 34/7 सागर लांगल 75/14 सागर 85/14 सागर 39/7 सागर बलभद्र 85/14 सागर 95/14 सागर 45/7 सागर चक्र 95/14 सागर 15/2 सागर साधिक 7 सागर (3) ब्रह्म ब्रह्मोत्तर युगल संबंधी
ब्रह्म ब्रह्मोत्तर युगल संबंधी आयु नाम आयु सामान्य बद्धायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट घातायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सामान्य स्वर्ग सामान्य साधिक 7 सागर साधिक 10 सागर उत्कृष्ट आयु सामन्य् वत घातायुष्क सम्यक दृष्टि 7+1/2 सागर 10+1/2 सागर मिथ्या दृष्टि 7 सागर + पल्य /अ सं 10सागर +पल्य /अ सं प्रत्येक पटल अरित 15/2 सागर 33/4 सागर 31/4 सागर देव समित 33/4 सागर 9 सागर 34/4 सागर ब्रह्म 9 सागर 39/4 सागर 37/4 सागर ब्रह्मोत्तर 39/4 सागर 21/2सागर साधिक 10 सागर लौकंतिक देव 8 सागर 8 सागर 8 सागर (4) लांतव कापिष्ठ युगल संबंधी
लांतव-कापिष्ट युगल संबंधी नाम आयु सामान्य बद्धायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट घातायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सामान्य स्वर्ग सामान्य साधिक 10 सागर साधिक 14सागर उत्कृष्ट आयु सामन्य् वत घातायुष्क सम्यक दृष्टि 10+1/2 सागर 14+1/2 सागर मिथ्या दृष्टि 10 सागर + पल्य /अ सं 14सागर +पल्य /अ सं प्रत्येक पटल ब्रह्मा निलय 21/2 सागर 25/2 सागर साधिक 12सागर लांतव 25/2 सागर 29/2 सागर साधिक 14सागर (5) शुष्क महाशुक्र युगल संब्धी
शुक्र से प्राणत युगल संबंधी आयु नाम आयु सामान्य बद्धायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट घातायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सामान्य स्वर्ग सामान्य साधिक 14 सागर साधिक 1 सागर उत्कृष्ट आयुवत घातायुष्क सम्यग्दृष्टि 15/2 सागर 33/2 सागर मिथ्या दृष्टि 14 सागर - पल्य /अ सं 16 सागर + पल्य /अ सं प्रत्येक पटल महा शुक्र 15/2 सागर 33/2 सागर साधिक 16 सागर (6) शतार-सहस्रार युगल संबंधी
शतार सहस्त्रार युगल संबंधी नाम आयु सामान्य बद्धायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट घातायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सामान्य स्वर्ग सामान्य साधिक 16 सागर साधिक 18 सागर उत्कृष्ट आयुवत घातायुष्क सम्यग्दृष्टि 33/2 सागर 37/2 सागर मिथ्या दृष्टि 16 सागर + पल्य /अ सं 18 सागर + पल्य /अ सं प्रत्येक पटल सहस्त्रार 33/2 सागर 37/2 सागर साधिक 18 सागर (7) आनत प्राणत युगल संबंधी
आनत प्राणत युगल संबंधी नाम आयु सामान्य बद्धायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट घातायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सामान्य स्वर्ग सामान्य 18 सागर 20 सागर उत्कृष्ट आयुवत घातायुष्क उत्पत्ति का अभाव (त्रि .सा 533) प्रत्येक पटल आनत 37/2 सागर 19 सागर 112/6 सागर प्राणत 19 सागर 39/2 सागर 59/3 सागर पुष्पक 39/2 सागर 20 सागर 20 सागर (8) आरण अच्युत युगल संबंधी
आरण से सर्वार्थ-सिद्धि तक आयु नाम आयु सामान्य बद्धायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट घातायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सामान्य स्वर्ग सामान्य 20 सागर 22 सागर उत्पत्ति का अभाव घातायुष्क उत्पत्ति का अभाव (त्रि .सा 533) प्रत्येक पटल सातंकर 20 सागर 62/3 सागर 124/6 सागर आरण 62/3 सागर 64/3 सागर 128/6 सागर अच्युत 64/3 सागर 22 सागर 22 सागर (9) नव ग्रैवेयक संबंधी
नव ग्रैवेयिक संबंधी नाम आयु सामान्य बद्धायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट घातायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सामान्य स्वर्ग सामान्य 22 सागर 31 सागर उत्पत्ति का अभाव घातायुष्क उत्पत्ति का अभाव (त्रिलोकसार 533) अधो प्रत्येक पटल सुदर्शन 21 सागर 23 सागर अमोघ 23 सागर 24 सागर सुप्रबद्ध 24 सागर 25 सागर मध्यम यशोधर 25 सागर 26 सागर सुभद्र 26 सागर 27 सागर सुविशाल 27 सागर 28 सागर उर्ध्व सुमनस 28 सागर 29 सागर सौमनस 29 सागर 30 सागर प्रीतिकर 30 सागर 31 सागर (10) नव अनुदिश संबंधी
नव अनुदिश संबंधी नाम आयु सामान्य बद्धायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट घातायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सामान्य स्वर्ग सामान्य 31 सागर 32 सागर उत्पत्ति का अभाव घातायुष्क उत्पत्ति का अभाव (त्रिलोकसार 533) प्रत्येक पटल आदित्य 9 के 9 सर्व विमान 31 सागर 32 सागर (11) पंच अनुत्तर संबंधी
पंच अनुत्तर संबंधी नाम आयु सामान्य बद्धायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट घातायुष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सामान्य स्वर्ग सामान्य 32 सागर 33 सागर उत्पत्ति का अभाव घातायुष्क उत्पत्ति का अभाव (त्रिलोकसार 533) प्रत्येक विमान विजय 32 सागर 33 सागर वैजयंत 32 सागर 33 सागर जयंत 32 सागर 33 सागर अपराजित 32 सागर 33 सागर सर्वार्थ सिद्धि 33 सागर 33 सागर वैमानिक परिवार में आयु नाम स्वर्ग इंद्रादिक लोकपालादिक आत्मरक्ष परिषद अनीक प्रकीर्णक इंद्र इंद्रत्रिक यम-सोम कुबेर वरुण लो. चतु. अभ्यंतर मध्यम बाह्य सौधर्म स्व-स्व स्वर्ग की उत्कृष्ट आयुस्व-स्व इंद्रवत्5/2 पल्य 3 पल्य ऊन 3 पल्य स्व स्व स्वामिवत 5/2 पल्य 3 पल्य 4 पल्य 5 पल्य 1 पल्य कथन नष्ट हो गया हैईशान 3 पल्य ऊन 3 पल्य साधिक 3 पल्य 5/2 पल्य 3 पल्य 4 पल्य 5 पल्य 1 पल्य सनत्कुमार 7/2 पल्य 4 पल्य ऊन 4 पल्य 7/2 पल्य 4 पल्य 5 पल्य 6 पल्य 2 पल्य माहेंद्र 4 पल्य ऊन 4 पल्य साधिक 4 पल्य 7/2 पल्य 4 पल्य 5 पल्य 6 पल्य 2 पल्य ब्रह्म 9/2 पल्य 5 पल्य ऊन 5 पल्य 9/2 पल्य 5 पल्य 6 पल्य 7 पल्य 3 पल्य ब्रह्मोत्तर 5 पल्य ऊन 5 पल्य साधिक 5 पल्य 9/2 पल्य 5 पल्य 6 पल्य 7 पल्य 3 पल्य लांतव 11/2 पल्य 6 पल्य ऊन 6 पल्य 11/2 पल्य 6 पल्य 7 पल्य 8 पल्य 4 पल्य कापिष्ट 6 पल्य ऊन 6 पल्य साधिक 6 पल्य 11/2 पल्य 6 पल्य 7 पल्य 8 पल्य 4 पल्य शुक्र 13/2 पल्य 7 पल्य ऊन 7 पल्य 13/2 पल्य 7 पल्य 8 पल्य 9 पल्य 5 पल्य महाशुक्र 7 पल्य ऊन 7 पल्य साधिक 7 पल्य 13/2 पल्य 7 पल्य 8 पल्य 9 पल्य 5 पल्य शतार 15/2 पल्य 8 पल्य ऊन 8 पल्य 15/2 पल्य 8 पल्य 9 पल्य 10 पल्य 6 पल्य सहस्त्रार 8 पल्य ऊन 8 पल्य साधिक 8 पल्य 15/2 पल्य 8 पल्य 9 पल्य 10 पल्य 6 पल्य आनत 17/2 पल्य 9 पल्य ऊन 9 पल्य 17/2 पल्य 9 पल्य 10 पल्य 11 पल्य 7 पल्य प्राणत 9 पल्य ऊन 9 पल्य साधिक 9 पल्य 17/2 पल्य 9 पल्य 10 पल्य 11 पल्य 7 पल्य आरण 19/2 पल्य 10 पल्य ऊन 10 पल्य 19/2 पल्य 10 पल्य 11 पल्य 12 पल्य 8 पल्य अच्युत 10 पल्य ऊन 10 पल्य साधिक 10 पल्य 19/2 पल्य 10 पल्य 11 पल्य 12 पल्य 8 पल्य वैमामिक इंद्रों अथवा देवों की देवियों संबंधी आयु नं स्वर्ग इंद्र की देवियाँ इन्द्रत्रिक की देवियाँ लोकपाल परिवार की देवियाँ आत्मरक्षकों की देवियाँ पारिषद की देवियाँ अनीकों की देवियाँ प्रकी. त्रिक की देवियाँ द्रष्टि नं 1 द्रष्टि नं 2 द्रष्टि नं 3 सोम-यम कुबेर वरुण लो. त्रिक 1 सौधर्म 5 पल्य 5 पल्य 5 पल्य स्व-स्व इन्द्रों की देवियोंवत् 5/4 पल्य 3/2 पल्य ऊन 3/2 पल्य स्व-स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है 2 ईशान 7 पल्य 7 पल्य 7 पल्य 3/2 पल्य 3/2 पल्य साधिक 3/2 पल्य 3 सनत्कुमार 9 पल्य 9 पल्य 17 पल्य 9/4 पल्य 5/2 पल्य ऊन 5/2 पल्य 4 माहेन्द्र 11 पल्य 11 पल्य 17 पल्य 5/2 पल्य 5/2 पल्य साधिक 5/2 पल्य 5 ब्रह्म 13पल्य 13पल्य 25 पल्य 13/4 पल्य 7/2 पल्य ऊन 7/2 पल्य 6 ब्रह्मोत्तर 15 पल्य 15 पल्य 25 पल्य 7/2 पल्य 7/2 पल्य साधिक 7/2 पल्य 7 लान्तव 17पल्य 17पल्य 35 पल्य 17/4 पल्य 9/2 पल्य ऊन 9/2 पल्य 8 कापिष्ट 19 पल्य 19 पल्य 35 पल्य 1/2 पल्य 9/2 पल्य साधिक 9/2 पल्य 9 शुक्र 21 पल्य 21 पल्य 40 पल्य 21/4 पल्य 11/2 पल्य ऊन 11/2 पल्य 10 महाशुक्र 23 पल्य 23 पल्य 40 पल्य 11/2 पल्य 11/2 पल्य साधिक 11/2 पल्य 11 शतार 25 पल्य 25 पल्य 45 पल्य 25/4 पल्य 13/2 पल्य ऊन 13/2 पल्य 12 सहस्त्रार 27 पल्य 27 पल्य 45 पल्य 13/2 पल्य 13/2 पल्य साधिक 13/2 पल्य 13 आनत 34 पल्य 29 पल्य 50 पल्य 29/4 पल्य 15/2 पल्य ऊन 15/2 पल्य 14 प्राणत 41 पल्य 31 पल्य 50 पल्य 15/2 पल्य 15/2 पल्य साधिक 15/2 पल्य 15 आरण 48 पल्य 33 पल्य 55 पल्य 33/4 पल्य 17/2 पल्य ऊन 17/2 पल्य 16 अच्युत 55 पल्य 35 पल्य 55 पल्य 17/2 पल्य 17/2 पल्य साधिक 17/2 पल्य धवला पुस्तक संख्या 9/4,1,66/306-308
देवों द्वारा बंध जघन्य आयु क्रम स्वर्ग जघन्य आयु तिर्यन्चों की मनुष्यों की 1 सानत्कुमार-माहेन्द्र मुहूर्त पृथक्त्व मुहूर्त पृथक्त्व 2 ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर दिवस पृथक्त्व दिवस पृथक्त्व 3 लांतव-कापिष्ट दिवसपृथक्त्व दिवसपृथक्त्व 4 शुक्र-महाशुक्र पक्षपृथक्त्व पक्षपृथक्त्व 5 शतार-सहस्त्रार पक्ष पृथक्त्व पक्ष पृथक्त्व 6 आनत-प्राणत मास पृथक्त्व मास पृथक्त्व 7 आरण-अच्युत मास पृथक्त्व मास पृथक्त्व 8 नव ग्रैवेयिक वर्ष पृथक्त्व वर्ष पृथक्त्व 9 अनुदिश-अराजित * वर्ष पृथक्त्व 10 सम्यग्द्रष्टि-कोई भी देव * वर्ष पृथक्त्व
- नरक गति सम्मबंधी
स्यादेतत्-अनादि तन्निमित्तं तल्लाभालाभर्जीवतमरणदर्शनादिति; तन्न; किं धारणम्। तस्यानुग्रहाकत्वत्...अतश्चैतदेवं यत् क्षीणायुषोऽन्नादिसंनिधानेऽपि मरणं दृश्यते।...देवेषु नारकेषु चान्नाद्यभावाद् भवधारणमायुरधीनमेवेत्यवसेयम्।
= प्रश्न-जीवन का निमित्त तो अन्नादिक हैं, क्योंकि उसके लाभ से जीवन और अलाभ से मरण देखा जाता है? उत्तर-ऐसा नहीं है क्योंकि अन्नादि तो आयु के अऩुग्राहक मात्र हैं, मूल कारण नहीं है। क्योंकि आयु के क्षीण हो जाने पर अन्नादि की प्राप्ति में भी मरण देखा जाता है। फिर सर्वत्र अन्नादिक अनुग्राहक भी तो नहीं होते, क्योंकि देवों और नारकियों के अन्नादिक का आहार नहीं होता है। अतः यह सिद्ध होता है कि भवधारण आयु के ही आधीन है।
नापि नरकगतिकर्मणः सत्त्वं तस्य तत्रोत्पत्तेःकारणं तत्सत्त्वं प्रत्यविशेषतः सकलपंचेंद्रयाणामपि नरकप्राप्ति प्रसंगात्। नित्यनिगोदानामपि विद्यमानत्रसकर्मणां त्रसेषूत्वत्तिप्रसंगात्।
= नरकगति का सत्त्व भी (सम्यग्दृष्टि के) नरक में उत्पत्ति का कारण कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, नरकगति के सत्त्व प्रति कोई विशेषता न होने से सभी पंचेंद्रियों की नरकगति का प्रसंग आ आयेगा। तथा नित्य निगोदिया जीवों के भी त्रसकर्म की सत्ता विद्यमान रहती है, इसलिए उनको भी त्रसों में उत्पत्ति होने लगेगी।
न हि नरकायुर्मुखेन तिर्यगायुर्मनुष्यायुर्वा विपच्यते।
= `नराकायु' नरकायु रूप से ही फल देगी तिर्यंचायु वा मनुष्यायु रूप से नहीं।
धवला पुस्तक संख्या 10/4,2,4,40/239/3जिस्से गईए आउअं बद्धं तत्थेव णिच्छएण उपज्जत्ति त्ति।
= जिस गति की आयु बाँधी गयी है। निश्चय से वहाँ ही उत्पन्न होता है।
देवणेरइएसु संखेज्जवासाउसत्तमिदि भणिदे सच्चं ण ते असंखेज्जवासाउआ, किंतु संखेज्ज वासाउआ चेव; समयाहियपुव्वकोडिप्पहुडि उवरिमआउअवियप्पाणं असंखेज्जवासाउअत्तब्भुवगमादो। कधं समयाहियपुव्वकोडीए संखेज्जवासाए असंखेज्जवासत्तं। ण, रायरुक्खो व रूढिबलेण परिचत्तसगट्ठस्स असंखेज्जवस्सद्दस्स आउअविसेसम्मि वट्टमाणस्स गहणादो।
= प्रश्न-देव व नारकी तो संख्यात वर्षायुक्त भी होते हैं, फिर यहाँ उनका ग्रहण असंख्यात वर्षायुक्त पद से कैसे संभव है? उत्तर-इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि सचमुच में वे असंख्यात वर्षायुष्क नहीं हैं, किंतु संख्यात वर्षायुष्क ही है। परंतु यहाँ एक समय अधिक पूर्व कोटि को आदि लेकर आगे के आयु विकल्पों को असंख्यात वर्षायु के भीतर स्वीकार किया गया है। प्रश्न-एक समय अधिक पूर्व कोटि के असंख्यात वर्षरूपता कैसे संभव है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, राजवृक्ष (वृक्षविशेष) से समान `असंख्यात वर्ष' शब्द रूढिवश अपने अर्थ को छोड़कर आयु विशेष में रहने वाला यहाँ ग्रहण किया गया है।
- आयु के लक्षण संबंधी शंका
प्रवचनसार तत्त्व प्रदीपिका गाथा संख्या 146 भवधारणनिमित्तमायुः प्राणः। = भवधारण का निमित्त आयु प्राण है।
आयु का प्रमाण सो आयुष्य है।
विद्यमान जिस आयु को भोगवै सो भुज्यमान अर आगामी जाका बंध किया सो बद्ध्यमान ऐसे दोऊ प्रकार अपेक्षा करी...आयु का सत्त्व है।
2. अद्धा शब्द का `काल' ऐसा अर्थ है, और आयु शब्द से द्रव्य की स्थिति ऐसा अर्थ समझना चाहिए। द्रव्य का जो स्थितिकाल उस को अद्धायु कहते हैं।
विद्यमान जिस आयु को भोगवे सो भुज्यमान अर आगामी जाका बंध किया सो बद्ध्यमान (आयु कहलाती है)
धवला पुस्तक संख्या 6/1,9-1/12/10 एति भवधारणं प्रति इत्यायुः। = जो भव धारण के प्रति जाता है वह आयुकर्म है। (धवला पुस्तक संख्या 13/5,5,98/362/6)
गोम्मटसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 11/8कम्मकयमोहवड्ढियसंसारम्हि य अणादिजुत्तेहि। जीवस्स अवट्ठाणं करेदि आऊ हलिव्वणरं ॥11॥
= आयु कर्म का उदय है सो कर्मकरि किया अर अज्ञान असंयम मिथ्यात्व करि वृद्धि को प्राप्त भया ऐसा अनादि संसार ता विषै च्यारि गतिनिमैं जीव अवस्थान को करै है। जैसे काष्ट का खोड़ा अपने छिद्र में जाका पग आया होय ताकि तहाँ ही स्थिति करावै तैसे आयुकर्म जिस गति संबंधी उदयरूप होइ तिस ही गति विषै जीव की स्थिति करावै है। (द्रव्यसंग्रह मूल या टीका गाथा संख्या 33/93), (गोम्मटसार कर्मकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 20/13)= नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु ये चार आयुकर्म के भेद हैं। (पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 2/4) (षट्खंडागम 9,9-1/मूल 25/48), ( षट्खंडागम/ पुस्तक 12/42,14/सूत्र 13/483), ( षट्खंडागम 13/5,5/ सूत्र 99/362) (महाबंध पुस्तक संख्या 1/$5/28) (गोम्मटसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका/ गाथा संख्या 33/28/11) (पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या 2/20)
पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जामाणे आउअपयडी वि असंखेज्जलोगमेत्ता भवदि, कम्मोदयवियप्पाणमसंखेज्जलोगमेत्ताणमुवलंभादो।
= पर्यायार्थिक नय का आवलंबन करने पर तो आयु की प्रकृतियाँ भी असंख्यात लोकमात्र हैं। क्योंकि कर्म के उदय रूप विकल्प असंख्यात लोकमात्र पाये जाते हैं।
नरकेषु तीव्रशीतोष्णवेदनेषु यन्निमित्तं दीर्घजीवन तन्नारकम्। एवं शेषेष्वपि।
= तीव्र उष्ण वेदना वाले नरकों में जिसके निमित्त से दीर्घ जीवन होता है वह नारक आयु है। इसी प्रकार शेष आयुओं में भी जानना चाहिए।
- आयु सामान्य का लक्षण