सम्यग्दर्शन: Difference between revisions
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<span class="HindiText"> दुरभिनिवेश रहित पदार्थों का श्रद्धान अथवा स्वात्म प्रत्यक्षपूर्वक स्व-परभेद का या कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक सम्यग्दर्शन कहा जाता है। किन्हीं को यह स्वभाव से ही होता है और किन्हीं को उपदेशपूर्वक। आज्ञा आदि की अपेक्षा यह दश प्रकार का तथा कर्मों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम की अपेक्षा तीन प्रकार का होता है। इनमें से पहले दो अत्यन्त निर्मल व निश्चल होते हैं, पर तीसरे में समल होने के कारण कदाचित् कुछ अतिचार लगने सम्भव हैं। राग के सद्भाव व अभाव की अपेक्षा भी इसके सराग व वीतराग दो भेद हैं। तहाँ सराग तो प्रशम, संवेग आदि गुणों के द्वारा अनुमानगम्य है और वीतराग केवल स्वानुभवगम्य है। सभी भेद नि:शंकित आदि आठ गुणों से भूषित होते हैं। सम्यक्त्व व ज्ञान में महान् अन्तर होता है जो सूक्ष्म विचार के बिना पकड़ में नहीं आता। जितनी भी विकल्पात्मक उपलब्धियाँ, श्रद्धा, अनुभव आदि हैं वे सब ज्ञानरूप हैं, सम्यग्दर्शन तो निर्विकल्प होने के कारण अन्तर में अभिप्राय या लब्धरूप अवस्थित मात्र रहा करता है। मोक्षमार्ग में इसका सर्वोच्च स्थान है, क्योंकि इसके बिना का आगम ज्ञान, चारित्र, व्रत, तप आदि सब वृथा हैं। सम्यग्दर्शन के लक्षणों में भी स्वात्म संवेदन सर्वप्रधान है, क्योंकि बिना इसके तत्त्वों की श्रद्धा आदि अकिंचित्कर है। ये सम्यग्दर्शन स्वत: या किसी के उपदेश से, या जातिस्मरण, जिनबिम्बदर्शन आदि के निमित्त से काल पाकर भव्य जीवों को उत्पन्न होता है। इसको प्राप्त करने की योग्यता केवल संज्ञी पर्याप्त जीवों में चारों ही गतियों में होती है। अनादि मिथ्यादृष्टि को सर्वप्रथम प्रथमोशम सम्यक्त्व होता है। वहाँ से नियम से गिरकर वह पुन: मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। पीछे कदाचित् वेदक-सम्यक्त्व को और तत्पूर्वक यथायोग्य गुणस्थानों में द्वितीयोपशम व क्षायिक हो जाता है। क्षायिक सम्यग्दर्शन अत्यन्त अचल व अप्रतिपाती है, तथा केवली के पादमूल में मनुष्यों को ही होना प्रारम्भ होता है। पीछे यदि मरण हो जाये तो चारों गतियों में पूर्ण होता है।</span> | | ||
<span class="HindiText"> दुरभिनिवेश रहित पदार्थों का श्रद्धान अथवा स्वात्म प्रत्यक्षपूर्वक स्व-परभेद का या कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक सम्यग्दर्शन कहा जाता है। किन्हीं को यह स्वभाव से ही होता है और किन्हीं को उपदेशपूर्वक। आज्ञा आदि की अपेक्षा यह दश प्रकार का तथा कर्मों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम की अपेक्षा तीन प्रकार का होता है। इनमें से पहले दो अत्यन्त निर्मल व निश्चल होते हैं, पर तीसरे में समल होने के कारण कदाचित् कुछ अतिचार लगने सम्भव हैं। राग के सद्भाव व अभाव की अपेक्षा भी इसके सराग व वीतराग दो भेद हैं। तहाँ सराग तो प्रशम, संवेग आदि गुणों के द्वारा अनुमानगम्य है और वीतराग केवल स्वानुभवगम्य है। सभी भेद नि:शंकित आदि आठ गुणों से भूषित होते हैं। सम्यक्त्व व ज्ञान में महान् अन्तर होता है जो सूक्ष्म विचार के बिना पकड़ में नहीं आता। जितनी भी विकल्पात्मक उपलब्धियाँ, श्रद्धा, अनुभव आदि हैं वे सब ज्ञानरूप हैं, सम्यग्दर्शन तो निर्विकल्प होने के कारण अन्तर में अभिप्राय या लब्धरूप अवस्थित मात्र रहा करता है। मोक्षमार्ग में इसका सर्वोच्च स्थान है, क्योंकि इसके बिना का आगम ज्ञान, चारित्र, व्रत, तप आदि सब वृथा हैं। सम्यग्दर्शन के लक्षणों में भी स्वात्म संवेदन सर्वप्रधान है, क्योंकि बिना इसके तत्त्वों की श्रद्धा आदि अकिंचित्कर है। ये सम्यग्दर्शन स्वत: या किसी के उपदेश से, या जातिस्मरण, जिनबिम्बदर्शन आदि के निमित्त से काल पाकर भव्य जीवों को उत्पन्न होता है। इसको प्राप्त करने की योग्यता केवल संज्ञी पर्याप्त जीवों में चारों ही गतियों में होती है। अनादि मिथ्यादृष्टि को सर्वप्रथम प्रथमोशम सम्यक्त्व होता है। वहाँ से नियम से गिरकर वह पुन: मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। पीछे कदाचित् वेदक-सम्यक्त्व को और तत्पूर्वक यथायोग्य गुणस्थानों में द्वितीयोपशम व क्षायिक हो जाता है। क्षायिक सम्यग्दर्शन अत्यन्त अचल व अप्रतिपाती है, तथा केवली के पादमूल में मनुष्यों को ही होना प्रारम्भ होता है। पीछे यदि मरण हो जाये तो चारों गतियों में पूर्ण होता है।</span> | |||
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<li><strong>सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश</strong><ol> | <li><strong>सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश</strong><ol> | ||
<li><strong>सामान्य सम्यग्दर्शन निर्देश</strong> | <li><strong>सामान्य सम्यग्दर्शन निर्देश</strong> | ||
<ul>* सम्यग्दर्शन सामान्य का लक्षण। - देखें | <ul>* सम्यग्दर्शन सामान्य का लक्षण। - देखें [[ सम्य#II.1 | सम्य - II.1]]।</ul><ol> | ||
<li>सम्यग्दर्शन के भेद।</li></ol> | <li>सम्यग्दर्शन के भेद।</li></ol> | ||
<ul>* सम्यक्तवमार्गणा के भेद। - | <ul>* सम्यक्तवमार्गणा के भेद। - देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.1 | सम्यग्दर्शन - IV.1]]।</ul> | ||
<ul>* निसर्गज व अधिगमज के लक्षणादि। - देखें | <ul>* निसर्गज व अधिगमज के लक्षणादि। - देखें [[ अधिगम ]]।</ul> | ||
<ul>* निश्चय व्यवहार व सराग वीतराग भेद। - देखें | <ul>* निश्चय व्यवहार व सराग वीतराग भेद। - देखें [[ सम्य#II | सम्य - II]]।</ul> | ||
<ul>* उपशमादि सम्यक्तव। - देखें | <ul>* उपशमादि सम्यक्तव। - देखें [[ सम्य#IV | सम्य - IV]]।</ul><ol> | ||
<li value="2">आज्ञा आदि | <li value="2">आज्ञा आदि 10 भेदों के लक्षण।</li> | ||
<li>आज्ञा सम्यक्त्व की विशेषताएँ।</li> | <li>आज्ञा सम्यक्त्व की विशेषताएँ।</li> | ||
<li>सम्यग्दर्शन में 'सम्यक्' शब्द का महत्त्व।</li> | <li>सम्यग्दर्शन में 'सम्यक्' शब्द का महत्त्व।</li> | ||
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<ul>* श्रद्धान व अन्धश्रद्धान सम्बन्धी। - देखें | <ul>* श्रद्धान व अन्धश्रद्धान सम्बन्धी। - देखें [[ श्रद्धान ]]।</ul> | ||
<ul>* मार्गणाओं व पर्याप्त अपर्याप्त में सम्यग्दर्शन का स्वामित्व व तद्गत शंकाएँ। - | <ul>* मार्गणाओं व पर्याप्त अपर्याप्त में सम्यग्दर्शन का स्वामित्व व तद्गत शंकाएँ। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</ul> | ||
<ul>* सम्यक्त्व के स्वामित्व में मार्गणा गुणस्थान आदि | <ul>* सम्यक्त्व के स्वामित्व में मार्गणा गुणस्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ। - देखें [[ सत् ]]।</ul> | ||
<ul>* सम्यक्त्व सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्वरूप | <ul>* सम्यक्त्व सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्वरूप 8 प्ररूपणाएँ। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</ul> | ||
<ul>* सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम। - देखें | <ul>* सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम। - देखें [[ मार्गणा ]]।</ul> | ||
<ul>* प्रथम सम्यग्दर्शन के प्रारम्भ सम्बन्धी। - देखें | <ul>* प्रथम सम्यग्दर्शन के प्रारम्भ सम्बन्धी। - देखें [[ सम्य#IV | सम्य - IV]]/2।</ul><ol> | ||
<li value="6">सम्यग्दर्शन के अपर नाम।</li> | <li value="6">सम्यग्दर्शन के अपर नाम।</li> | ||
<li>सम्यक्त्व की पुन:पुन: प्राप्ति व विराधना सम्बन्धी नियम।</li></ol> | <li>सम्यक्त्व की पुन:पुन: प्राप्ति व विराधना सम्बन्धी नियम।</li></ol> | ||
<ul>* सम्यग्दर्शन में कर्मों के बन्ध, उदय, सत्त्व सम्बन्धी। - | <ul>* सम्यग्दर्शन में कर्मों के बन्ध, उदय, सत्त्व सम्बन्धी। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</ul> | ||
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<li><strong>सम्यग्दर्शन के अंग व अतिचार आदि</strong><ol> | <li><strong>सम्यग्दर्शन के अंग व अतिचार आदि</strong><ol> | ||
<li>सम्यग्दर्शन के आठ अंगों के नाम।</li> | <li>सम्यग्दर्शन के आठ अंगों के नाम।</li> | ||
<li>आठों अंगों की प्रधानता।</li></ol> | <li>आठों अंगों की प्रधानता।</li></ol> | ||
<ul>* निश्चय व्यवहार अंगों की मुख्यता-गौणता। - देखें | <ul>* निश्चय व्यवहार अंगों की मुख्यता-गौणता। - देखें [[ सम्य#II | सम्य - II]]I।</ul><ol> | ||
<li value="3">सम्यग्दर्शन के अनेकों गुण।</li> | <li value="3">सम्यग्दर्शन के अनेकों गुण।</li> | ||
<li>सम्यग्दर्शन के अतिचार।</li></ol> | <li>सम्यग्दर्शन के अतिचार।</li></ol> | ||
<ul>* शंका अतिचार व संशय मिथ्यात्व में अन्तर। - | <ul>* शंका अतिचार व संशय मिथ्यात्व में अन्तर। - देखें [[ संशय#5 | संशय - 5]]।</ul><ol> | ||
<li value="5">सम्यग्दर्शन के | <li value="5">सम्यग्दर्शन के 25 दोष।</li> | ||
<li>कारणवश सम्यक्त्व में अतिचार लगने की सम्भावना।</li> | <li>कारणवश सम्यक्त्व में अतिचार लगने की सम्भावना।</li> | ||
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<li>छद्मस्थों का सम्यक्त्व भी सिद्धों के समान है।</li> | <li>छद्मस्थों का सम्यक्त्व भी सिद्धों के समान है।</li> | ||
<li>सम्यग्दर्शन में कथंचित् स्व-पर गम्यता।</li></ol> | <li>सम्यग्दर्शन में कथंचित् स्व-पर गम्यता।</li></ol> | ||
<ul>* सम्यग्दृष्टि को अपने सम्यक्त्व के लिए किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं। - | <ul>* सम्यग्दृष्टि को अपने सम्यक्त्व के लिए किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं। - देखें [[ अनुभव#4.3 | अनुभव - 4.3]]।</ul><ol> | ||
<li value="3">वास्तव में सम्यग्दर्शन गुण नहीं बल्कि प्रशमादि गुण ही प्रत्यक्ष होते हैं।</li> | <li value="3">वास्तव में सम्यग्दर्शन गुण नहीं बल्कि प्रशमादि गुण ही प्रत्यक्ष होते हैं।</li> | ||
<li>सम्यक्त्व वास्तव में प्रत्यक्षज्ञान गम्य है।</li> | <li>सम्यक्त्व वास्तव में प्रत्यक्षज्ञान गम्य है।</li> | ||
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<li>स्वात्मानुभूति के ज्ञान व सम्यक्त्वरूप होने सम्बन्धी समन्वय।</li> | <li>स्वात्मानुभूति के ज्ञान व सम्यक्त्वरूप होने सम्बन्धी समन्वय।</li> | ||
<li>अनुभूति उपयोगरूप होती है और सम्यक्त्व लब्धरूप।</li></ol> | <li>अनुभूति उपयोगरूप होती है और सम्यक्त्व लब्धरूप।</li></ol> | ||
<ul>* सम्यग्दर्शन में कथंचित् विकल्प व निर्विकल्पता। - | <ul>* सम्यग्दर्शन में कथंचित् विकल्प व निर्विकल्पता। - देखें [[ विकल्प#3 | विकल्प - 3]]।</ul><ol> | ||
<li value="6">सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में अन्तर।</li></ol> | <li value="6">सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में अन्तर।</li></ol> | ||
<ul>* सम्यग्दर्शन कथंचित् सम्यग्ज्ञान से पूर्ववर्ती है। - | <ul>* सम्यग्दर्शन कथंचित् सम्यग्ज्ञान से पूर्ववर्ती है। - देखें [[ ज्ञान#III.2.4 | ज्ञान - III.2.4]]।</ul> | ||
<ul>* सम्यग्दर्शन में नय निक्षेपादि का स्थान। - | <ul>* सम्यग्दर्शन में नय निक्षेपादि का स्थान। - देखें [[ न्याय#1.3 | न्याय - 1.3]]।</ul> | ||
<ul>* सम्यग्दर्शन के साथ ज्ञान व वैराग्य का अविनाभावीपना - | <ul>* सम्यग्दर्शन के साथ ज्ञान व वैराग्य का अविनाभावीपना - देखें [[ सम्यग्दृष्टि#2 | सम्यग्दृष्टि - 2]]।</ul><ol> | ||
<li value="7">सम्यक्त्व के साथ चारित्र का कथंचित् भेद-अभेद।</li></ol> | <li value="7">सम्यक्त्व के साथ चारित्र का कथंचित् भेद-अभेद।</li></ol> | ||
<ul>* सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में कथंचित् एकत्व अनेकत्व। - | <ul>* सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में कथंचित् एकत्व अनेकत्व। - देखें [[ मोक्षमार्ग#2 | मोक्षमार्ग - 2]],3।</ul> | ||
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<li><strong>मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन की प्रधानता</strong><ol> | <li><strong>मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन की प्रधानता</strong><ol> | ||
<li>सम्यग्दर्शन की प्रधानता का निर्देश।</li> | <li>सम्यग्दर्शन की प्रधानता का निर्देश।</li> | ||
<li>सम्यग्दर्शन ही सार, सुखनिधान, व मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है इत्यादि महिमा।</li></ol> | <li>सम्यग्दर्शन ही सार, सुखनिधान, व मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है इत्यादि महिमा।</li></ol> | ||
<ul>* सम्यग्दृष्टि नीचकुल आदि में नहीं जन्मता। - | <ul>* सम्यग्दृष्टि नीचकुल आदि में नहीं जन्मता। - देखें [[ जन्म#3.1 | जन्म - 3.1]]।</ul><ol> | ||
<li value="3">सम्यग्दर्शन की प्रधानता में हेतु।</li> | <li value="3">सम्यग्दर्शन की प्रधानता में हेतु।</li> | ||
<li>सम्यग्दर्शन के पश्चात् भव धारण की सीमा।</li> | <li>सम्यग्दर्शन के पश्चात् भव धारण की सीमा।</li> | ||
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<li>तत्त्वों में हेय व उपादेय बुद्धि।</li> | <li>तत्त्वों में हेय व उपादेय बुद्धि।</li> | ||
<li>तत्त्व रुचि।</li></ol> | <li>तत्त्व रुचि।</li></ol> | ||
<ul>* प्रशमादि गुणों की अभिव्यक्ति। - देखें | <ul>* प्रशमादि गुणों की अभिव्यक्ति। - देखें [[ सम्य#II | सम्य - II]]/4/1।</ul></li> | ||
<li>निश्चय सम्यग्दर्शन के लक्षण<ol> | <li>निश्चय सम्यग्दर्शन के लक्षण<ol> | ||
<li>उपरोक्त पदार्थों का शुद्धात्मा से भिन्न दर्शन।</li> | <li>उपरोक्त पदार्थों का शुद्धात्मा से भिन्न दर्शन।</li> | ||
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<li>शुद्धात्म की उपलब्धि आदि।</li></ol> | <li>शुद्धात्म की उपलब्धि आदि।</li></ol> | ||
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<ul>* स्वसंवेदन ज्ञान निर्देश। - देखें | <ul>* स्वसंवेदन ज्ञान निर्देश। - देखें [[ अनुभव ]]।</ul> | ||
<ul>* सम्यग्दर्शन व आत्मा में कथंचित् एकत्व। - | <ul>* सम्यग्दर्शन व आत्मा में कथंचित् एकत्व। - देखें [[ मोक्षमार्ग#2 | मोक्षमार्ग - 2]]/6।</ul> | ||
<ul>* निश्चय व व्यवहार सम्यग्दर्शन ही वीतराग व सराग सम्यग्दर्शन है। - | <ul>* निश्चय व व्यवहार सम्यग्दर्शन ही वीतराग व सराग सम्यग्दर्शन है। - देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.4.2 | सम्यग्दर्शन - I.4.2]]।</ul><ol> | ||
<li value="4">लक्षण में तत्त्व व अर्थ दोनों शब्द क्यों।</li> | <li value="4">लक्षण में तत्त्व व अर्थ दोनों शब्द क्यों।</li> | ||
<li>व्यवहार लक्षणों का समन्वय।</li> | <li>व्यवहार लक्षणों का समन्वय।</li> | ||
<li>निश्चय लक्षणों का समन्वय।</li></ol> | <li>निश्चय लक्षणों का समन्वय।</li></ol> | ||
<ul>* आत्मानुभूति को सम्यग्दर्शन कहने का कारण। - | <ul>* आत्मानुभूति को सम्यग्दर्शन कहने का कारण। - देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.4 | सम्यग्दर्शन - I.4]]।</ul><ol> | ||
<li value="7">व्यवहार व निश्चय लक्षणों का समन्वय।</li> | <li value="7">व्यवहार व निश्चय लक्षणों का समन्वय।</li> | ||
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<li><strong>निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शनों की कथंचित् मुख्यता गौणता</strong><ol> | <li><strong>निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शनों की कथंचित् मुख्यता गौणता</strong><ol> | ||
<li>स्वभाव भान बिना सम्यक्त्व नहीं।</li></ol> | <li>स्वभाव भान बिना सम्यक्त्व नहीं।</li></ol> | ||
<ul>* निश्चय नय के आश्रय से ही सम्यक्त्व होता है। - | <ul>* निश्चय नय के आश्रय से ही सम्यक्त्व होता है। - देखें [[ नय#V.3.3 | नय - V.3.3]]।</ul> | ||
<ul>* आत्मा का जानना ही सर्व जिनशासन का जानना है। - | <ul>* आत्मा का जानना ही सर्व जिनशासन का जानना है। - देखें [[ श्रुतकेवली#2.6 | श्रुतकेवली - 2.6]]।</ul> | ||
<ul>* आत्मदर्शन रहित श्रद्धान सम्यग्दर्शन नहीं। - | <ul>* आत्मदर्शन रहित श्रद्धान सम्यग्दर्शन नहीं। - देखें [[ अनुभव ]]/3।</ul><ol> | ||
<li value="2">आत्मानुभवी को ही आठों अंग होते हैं।</li> | <li value="2">आत्मानुभवी को ही आठों अंग होते हैं।</li> | ||
<li>आठों अंगों में निश्चय अंग ही प्रधान है।</li> | <li>आठों अंगों में निश्चय अंग ही प्रधान है।</li> | ||
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<li>निश्चय सम्यक्त्व की महिमा।</li> | <li>निश्चय सम्यक्त्व की महिमा।</li> | ||
<li>श्रद्धानमात्र सम्यग्दर्शन नहीं है।</li></ol> | <li>श्रद्धानमात्र सम्यग्दर्शन नहीं है।</li></ol> | ||
<ul>* सम्यग्दृष्टि को अन्धश्रद्धान का विधि-निषेध। - | <ul>* सम्यग्दृष्टि को अन्धश्रद्धान का विधि-निषेध। - देखें [[ श्रद्धान ]]/3।</ul> | ||
<ol><li value="7">मिथ्यादृष्टि की श्रद्धा आदि यथार्थ नहीं।</li> | <ol><li value="7">मिथ्यादृष्टि की श्रद्धा आदि यथार्थ नहीं।</li> | ||
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<li><strong>निश्चय व्यवहार सम्यक्त्व समन्वय</strong><ol> | <li><strong>निश्चय व्यवहार सम्यक्त्व समन्वय</strong><ol> | ||
<li>नवतत्त्वों की श्रद्धा का अर्थ शुद्धात्मतत्त्व की श्रद्धा ही है।</li></ol> | <li>नवतत्त्वों की श्रद्धा का अर्थ शुद्धात्मतत्त्व की श्रद्धा ही है।</li></ol> | ||
<ul>* व्यवहार व निश्चय सम्यक्त्व में केवल भाषा का भेद है। - | <ul>* व्यवहार व निश्चय सम्यक्त्व में केवल भाषा का भेद है। - देखें [[ पद्धति#2 | पद्धति - 2]]।</ul> | ||
<ol><li value="2">व्यवहार सम्यक्त्व निश्चय का साधक है।</li> | <ol><li value="2">व्यवहार सम्यक्त्व निश्चय का साधक है।</li> | ||
<li>तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यक्त्व कहने का कारण व प्रयोजन।</li> | <li>तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यक्त्व कहने का कारण व प्रयोजन।</li> | ||
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<li><strong>सराग वीतराग सम्यक्त्व निर्देश</strong><ol> | <li><strong>सराग वीतराग सम्यक्त्व निर्देश</strong><ol> | ||
<li>सराग-वीतरागरूप भेद व लक्षण।</li></ol> | <li>सराग-वीतरागरूप भेद व लक्षण।</li></ol> | ||
<ul>* वीतराग व सराग सम्यक्त्व की स्व-परगम्यता। - | <ul>* वीतराग व सराग सम्यक्त्व की स्व-परगम्यता। - देखें [[ सम्यग्#I.3 | सम्यग् - I.3]]।</ul> | ||
<ol><li value="2">व्यवहार व निश्चय सम्यक्त्व के साथ इन दोनों की एकार्थता।</li> | <ol><li value="2">व्यवहार व निश्चय सम्यक्त्व के साथ इन दोनों की एकार्थता।</li> | ||
<li>सराग व वीतराग सम्यक्त्व का स्वामित्व।</li> | <li>सराग व वीतराग सम्यक्त्व का स्वामित्व।</li> | ||
<li>इन दोनों सम्यक्त्वों सम्बन्धी | <li>इन दोनों सम्यक्त्वों सम्बन्धी 25 दोषों के लक्षणों में विशेषता।</li> | ||
<li>दोनों में कथंचित् एकत्व।</li> | <li>दोनों में कथंचित् एकत्व।</li> | ||
<li>इन दोनों में तात्त्विक भेद मानना भूल है।</li> | <li>इन दोनों में तात्त्विक भेद मानना भूल है।</li> | ||
Line 173: | Line 174: | ||
<li><strong>उपशमादि सामान्य निर्देश</strong><ol> | <li><strong>उपशमादि सामान्य निर्देश</strong><ol> | ||
<li>सम्यक्त्व मार्गणा के उपशमादि भेद।</li></ol> | <li>सम्यक्त्व मार्गणा के उपशमादि भेद।</li></ol> | ||
<ul>* मिथ्यात्वादि का सम्यक्त्व मार्गणा में ग्रहण क्यों - | <ul>* मिथ्यात्वादि का सम्यक्त्व मार्गणा में ग्रहण क्यों - देखें [[ मार्गणा ]]/7।</ul><ol> | ||
<li value="2">तीनों सम्यक्त्वों में कथंचित् एकत्व।</li></ol> | <li value="2">तीनों सम्यक्त्वों में कथंचित् एकत्व।</li></ol> | ||
<ul>* तीनों में कथंचित् अधिगमज व निसर्गजपना। - देखें | <ul>* तीनों में कथंचित् अधिगमज व निसर्गजपना। - देखें [[ सम्य#II | सम्य - II]]I/1/1।</ul> | ||
<ul>* गतियों व गुणस्थानों आदि में तीनों के स्वामित्व व शंकाएँ। - | <ul>* गतियों व गुणस्थानों आदि में तीनों के स्वामित्व व शंकाएँ। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</ul> | ||
<ul>* तीनों के स्वामित्व में मार्गणास्थान व गुणस्थान आदि रूप | <ul>* तीनों के स्वामित्व में मार्गणास्थान व गुणस्थान आदि रूप 20 प्ररूपणाएँ। - देखें [[ सत् ]]।</ul> | ||
<ul>* तीनों सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ। - | <ul>* तीनों सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</ul> | ||
<ul>* तीनों के स्वामिवों को कर्मों का बन्ध, उदय, सत्त्व। - | <ul>* तीनों के स्वामिवों को कर्मों का बन्ध, उदय, सत्त्व। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</ul> | ||
<ul>* तीनों सम्यक्त्वों में यथासंभव मरण संबंधी। - | <ul>* तीनों सम्यक्त्वों में यथासंभव मरण संबंधी। - देखें [[ मरण#3 | मरण - 3]]।</ul> | ||
<ul>* तीनों सम्यक्त्वों में यथासंभव जन्म संबंधी। - | <ul>* तीनों सम्यक्त्वों में यथासंभव जन्म संबंधी। - देखें [[ जन्म#3 | जन्म - 3]]।</ul> | ||
<ul>* तीनों सम्यक्त्वों के पश्चात् भव धारण की सीमा। - देखें | <ul>* तीनों सम्यक्त्वों के पश्चात् भव धारण की सीमा। - देखें [[ सम्य#I.5.4 | सम्य - I.5.4]]।</ul> | ||
<ul>* उपशम व वेदक की पुन: पुन: प्राप्ति की सीमा। - देखें | <ul>* उपशम व वेदक की पुन: पुन: प्राप्ति की सीमा। - देखें [[ सम्य#I.1.7 | सम्य - I.1.7]]।</ul> | ||
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<li><strong>प्रथमोपशम सम्यक्त्व निर्देश</strong><ol> | <li><strong>प्रथमोपशम सम्यक्त्व निर्देश</strong><ol> | ||
<li>उपशम सामान्य का लक्षण।</li></ol> | <li>उपशम सामान्य का लक्षण।</li></ol> | ||
<ul>* उपशम सम्यक्त्व की अत्यन्त निर्मलता। - | <ul>* उपशम सम्यक्त्व की अत्यन्त निर्मलता। - देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.1 | सम्यग्दर्शन - IV.2.1]]।</ul><ol> | ||
<li value="2">उपशम सम्यक्त्व का स्वामित्व।</li> | <li value="2">उपशम सम्यक्त्व का स्वामित्व।</li> | ||
<li>उपशम सम्यक्त्व के भेद व प्रथमोपशम का लक्षण।</li> | <li>उपशम सम्यक्त्व के भेद व प्रथमोपशम का लक्षण।</li> | ||
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</ol> | </ol> | ||
</li></ol> | </li></ol> | ||
<ul>* प्रथमोपशम का निष्ठापक। - | <ul>* प्रथमोपशम का निष्ठापक। - देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.4.3 | सम्यग्दर्शन - IV.2.4.3]]।</ul><ol> | ||
<li value="5">जन्म के पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्ति योग्य सर्व लघु काल।</li> | <li value="5">जन्म के पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्ति योग्य सर्व लघु काल।</li> | ||
<li>अनादि व सादि मिथ्यादृष्टि में सम्यक्त्वप्राप्ति सम्बन्धी कुछ विशेषता।</li> | <li>अनादि व सादि मिथ्यादृष्टि में सम्यक्त्वप्राप्ति सम्बन्धी कुछ विशेषता।</li> | ||
<li>प्रथमोपशम से च्युति सम्बन्धी नियम।</li> | <li>प्रथमोपशम से च्युति सम्बन्धी नियम।</li> | ||
<li>गिरकर किस गुणस्थान में जावे।</li></ol> | <li>गिरकर किस गुणस्थान में जावे।</li></ol> | ||
<ul>* प्रथमोपशम से सासादन की प्राप्ति सम्बन्धी। - देखें | <ul>* प्रथमोपशम से सासादन की प्राप्ति सम्बन्धी। - देखें [[ सासादन ]]।</ul> | ||
<ul>* प्रथमोपशम में अनन्तानुबंधी की विसंयोजना का कथंचित् विधि-निषेध। - | <ul>* प्रथमोपशम में अनन्तानुबंधी की विसंयोजना का कथंचित् विधि-निषेध। - देखें [[ उपशम#2 | उपशम - 2]]।</ul><ol> | ||
<li value="9">पंच लब्धिपूर्वक होता है।</li></ol> | <li value="9">पंच लब्धिपूर्वक होता है।</li></ol> | ||
<ul>* दर्शनमोह की उपशम विधि। - | <ul>* दर्शनमोह की उपशम विधि। - देखें [[ उपशम#2 | उपशम - 2]]।</ul> | ||
<ul>* गति व गुणस्थानों का स्वामित्व, सत्, संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मों के बन्ध आदि, मरण व जन्म तथा संसार स्थिति व पुन: पुन: प्राप्ति की सीमा सम्बन्धी नियम। - | <ul>* गति व गुणस्थानों का स्वामित्व, सत्, संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मों के बन्ध आदि, मरण व जन्म तथा संसार स्थिति व पुन: पुन: प्राप्ति की सीमा सम्बन्धी नियम। - देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.1 | सम्यग्दर्शन - IV.1]]।</ul> | ||
<ul>* प्रथमोपशम का मन:पर्यय आदि के साथ विरोध। - देखें | <ul>* प्रथमोपशम का मन:पर्यय आदि के साथ विरोध। - देखें [[ परिहार विशुद्धि ]]।</ul><ol> | ||
<li value="10">प्रारम्भ करने के पश्चात् अवश्य प्राप्त करता है।</li> | <li value="10">प्रारम्भ करने के पश्चात् अवश्य प्राप्त करता है।</li> | ||
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<li>द्वितीयोपशम का लक्षण।</li> | <li>द्वितीयोपशम का लक्षण।</li> | ||
<li>द्वितीयोपशम का स्वामित्व।</li></ol> | <li>द्वितीयोपशम का स्वामित्व।</li></ol> | ||
<ul>* द्वितीयोपशम आरोहण क्रम। - | <ul>* द्वितीयोपशम आरोहण क्रम। - देखें [[ उपशम#3 | उपशम - 3]]।</ul><ol> | ||
<li value="3">द्वितीयोपशम का अवरोहण क्रम।</li></ol> | <li value="3">द्वितीयोपशम का अवरोहण क्रम।</li></ol> | ||
<ul>* द्वितीयोपशम से सासादन की प्राप्ति संबंधी। - देखें | <ul>* द्वितीयोपशम से सासादन की प्राप्ति संबंधी। - देखें [[ सासादन ]]।</ul><ol> | ||
<li value="4">श्रेणी से नीचे आकर भी कुछ देर द्वितीयोपशम के साथ ही रहता है।</li></ol> | <li value="4">श्रेणी से नीचे आकर भी कुछ देर द्वितीयोपशम के साथ ही रहता है।</li></ol> | ||
<ul>* गति व गुणस्थानों का स्वामित्व, सत्, संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मों के बन्ध आदि, मरण व जन्म, संसारस्थिति व पुन: पुन: प्राप्ति की सीमा सम्बन्धी नियम। - | <ul>* गति व गुणस्थानों का स्वामित्व, सत्, संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मों के बन्ध आदि, मरण व जन्म, संसारस्थिति व पुन: पुन: प्राप्ति की सीमा सम्बन्धी नियम। - देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.1 | सम्यग्दर्शन - IV.1]]।</ul> | ||
</li> | </li> | ||
<li><strong>वेदक सम्यक्त्व निर्देश</strong><ol> | <li><strong>वेदक सम्यक्त्व निर्देश</strong><ol> | ||
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<li>क्षयोपशम की अपेक्षा।</li> | <li>क्षयोपशम की अपेक्षा।</li> | ||
<li>वेदक की अपेक्षा।</li></ol> | <li>वेदक की अपेक्षा।</li></ol> | ||
<ul>x दोनों लक्षणों का समन्वय। - | <ul>x दोनों लक्षणों का समन्वय। - देखें [[ क्षयोपशम#2 | क्षयोपशम - 2]]।</ul></li> | ||
<li>कृतकृत्यवेदक का लक्षण।</li> | <li>कृतकृत्यवेदक का लक्षण।</li> | ||
<li>वेदक सम्यक्त्व के बाह्य चिह्न।</li> | <li>वेदक सम्यक्त्व के बाह्य चिह्न।</li> | ||
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<li>अनादि मिथ्यादृष्टि को सीधा प्राप्त नहीं होता।</li></ol> | <li>अनादि मिथ्यादृष्टि को सीधा प्राप्त नहीं होता।</li></ol> | ||
<ul>* वेदक सम्यक्त्व आरोहण विधि। - | <ul>* वेदक सम्यक्त्व आरोहण विधि। - देखें [[ क्षयोपशम#3 | क्षयोपशम - 3]]।</ul><ol> | ||
<li value="7">सम्यक्त्व से च्युत होने वाले बहुत कम हैं।</li> | <li value="7">सम्यक्त्व से च्युत होने वाले बहुत कम हैं।</li> | ||
<li>च्युत होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त से पहले सम्यक्त्व पुन: प्राप्त नहीं होता।</li> | <li>च्युत होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त से पहले सम्यक्त्व पुन: प्राप्त नहीं होता।</li> | ||
<li>ऊपर के गुणस्थानों में इसका अभाव क्यों?</li> | <li>ऊपर के गुणस्थानों में इसका अभाव क्यों?</li> | ||
<li>कृतकृत्यवेदक सम्बन्धी कुछ नियम।</li></ol> | <li>कृतकृत्यवेदक सम्बन्धी कुछ नियम।</li></ol> | ||
<ul>* गतियों व गुणस्थानों में इसका स्वामित्व, सत्, संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मों के बन्ध आदि, मरण व जन्म, तथा संसारस्थिति व पुन: पुन: प्राप्ति की सीमा सम्बन्धी नियम। - | <ul>* गतियों व गुणस्थानों में इसका स्वामित्व, सत्, संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मों के बन्ध आदि, मरण व जन्म, तथा संसारस्थिति व पुन: पुन: प्राप्ति की सीमा सम्बन्धी नियम। - देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.1 | सम्यग्दर्शन - IV.1]]।</ul> | ||
</li> | </li> | ||
<li><strong>क्षायिक सम्यक्त्व निर्देश</strong><ol> | <li><strong>क्षायिक सम्यक्त्व निर्देश</strong><ol> | ||
<li>क्षायिक सम्यग्दर्शन का लक्षण।</li></ol> | <li>क्षायिक सम्यग्दर्शन का लक्षण।</li></ol> | ||
<ul>* क्षायिक सम्यक्त्व की निर्मलता। - | <ul>* क्षायिक सम्यक्त्व की निर्मलता। - देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.5.1 | सम्यग्दर्शन - IV.5.1]]।</ul><ol> | ||
<li value="2">क्षायिक सम्यक्त्व का स्वामित्व।<ol> | <li value="2">क्षायिक सम्यक्त्व का स्वामित्व।<ol> | ||
<li>गति व पर्याप्ति की अपेक्षा।</li> | <li>गति व पर्याप्ति की अपेक्षा।</li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li>तीर्थंकर आदि के सद्भाव युक्त क्षेत्र व काल में ही सम्भव है।</li></ol> | <li>तीर्थंकर आदि के सद्भाव युक्त क्षेत्र व काल में ही सम्भव है।</li></ol> | ||
<ul>* तीर्थंकर सत्कर्मिक को इसकी प्रतिष्ठापना के लिए केवली के पादमूल दरकार नहीं। - | <ul>* तीर्थंकर सत्कर्मिक को इसकी प्रतिष्ठापना के लिए केवली के पादमूल दरकार नहीं। - देखें [[ तीर्थंकर#3.13 | तीर्थंकर - 3.13]]।</ul> | ||
<ul>* इसकी प्रतिष्ठापना अढ़ाई द्वीप से बाहर संभव नहीं। तथा तद्गत शंकाएँ। - | <ul>* इसकी प्रतिष्ठापना अढ़ाई द्वीप से बाहर संभव नहीं। तथा तद्गत शंकाएँ। - देखें [[ तिर्यंच#2.11 | तिर्यंच - 2.11]]।</ul><ol> | ||
<li value="4">वेदक सम्यक्त्व पूर्वक ही होता है।</li></ol> | <li value="4">वेदक सम्यक्त्व पूर्वक ही होता है।</li></ol> | ||
<ul>* दर्शनमोह क्षपण विधि। - | <ul>* दर्शनमोह क्षपण विधि। - देखें [[ क्षय#2 | क्षय - 2]]।</ul><ol> | ||
<li value="5">क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत होते हैं पर अत्यंत अल्प।</li></ol> | <li value="5">क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत होते हैं पर अत्यंत अल्प।</li></ol> | ||
<ul>* तीनों वेदों में क्षायिक सम्यक्त्व का कथंचित् विधिनिषेध। - | <ul>* तीनों वेदों में क्षायिक सम्यक्त्व का कथंचित् विधिनिषेध। - देखें [[ वेद#6 | वेद - 6]]।</ul> | ||
<ul>* एकेन्द्रिय या निगोद से आकर सीधे क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति सम्बन्धी। - | <ul>* एकेन्द्रिय या निगोद से आकर सीधे क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति सम्बन्धी। - देखें [[ जन्म#5 | जन्म - 5]]।</ul> | ||
<ul>* गतियों व गुणस्थानों में इसका स्वामित्व, सत्, संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मों के बन्ध आदि, मरण व जन्म व संसारस्थिति सम्बन्धी नियम। - | <ul>* गतियों व गुणस्थानों में इसका स्वामित्व, सत्, संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मों के बन्ध आदि, मरण व जन्म व संसारस्थिति सम्बन्धी नियम। - देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.1 | सम्यग्दर्शन - IV.1]]।</ul> | ||
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<p><strong>I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश</strong></p> | <p><strong>I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश</strong></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>1. सामान्य सम्यग्दर्शन निर्देश</strong></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>1. सम्यग्दर्शन के भेद</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p><span class="SanskritText">स.सि./1/7/28/4 विधानं सामान्यादेकं सम्यग्दर्शनम् । द्वितयं निसर्गजाधिगमजभेदात् । त्रितयं औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकभेदात् । एवं संख्येया विकल्पत: शब्दत:। असंख्येया अनन्ताश्चभवन्ति श्रद्धातृश्रद्धातब्यभेदात् (अध्यवसायभेदात् - रा.वा.)।</span> =<span class="HindiText">भेद की अपेक्षा सम्यग्दर्शन सामान्य से एक है। निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का है (त.सू./1/3)। औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है। (और भी देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.1 | सम्यग्दर्शन - IV.1]])। शब्दों की अपेक्षा संख्यात प्रकार का है, तथा श्रद्धान करने वाले की अपेक्षा असंख्यात प्रकार का है, और श्रद्धान करने योग्य पदार्थों व अध्यवसायों की अपेक्षा अनन्त प्रकार का है। (रा.वा./1/7/14/40/28); (द.पा./टी./12/12/12)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p><span class="SanskritText">रा.वा./3/36/2/201/12 दर्शनार्या दशधा - आज्ञामार्गोपदेशसूत्रबीजसंक्षेपविस्तारार्थावगाढपरमावगाढरुचिभेदात् । | ||
</span>=<span class="HindiText">आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ और परमावगाढ रुचि के भेद से दर्शनार्य दश प्रकार हैं। (आ.अनु./ | </span>=<span class="HindiText">आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ और परमावगाढ रुचि के भेद से दर्शनार्य दश प्रकार हैं। (आ.अनु./11); (अन.ध./2/62/185)</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. आज्ञा आदि 10 भेदों के लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p><span class="SanskritText">रा.वा./3/36/2/201/13 तत्र भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीताज्ञामात्रनिमित्तश्रद्धाना आज्ञारुचय:। नि:संगमोक्षमार्गश्रवणमात्रजनितरुचयो मार्गरुचय:। तीर्थंकरबलदेवादिशुभचरितोपदेशहेतुकश्रद्धाना उपदेशरुचय:। प्रव्रज्यामर्यादाप्ररूपणाचारसूत्रश्रवणमात्रसमुद्भूतसम्यग्दर्शना: सूत्ररुचय:। बीजपदग्रहणपूर्वकसूक्ष्मार्थतत्त्वार्थश्रद्धाना बीजरुचय:। जीवादिपदार्थसमासंबोधनसमुद्भूतश्रद्धाना: संक्षेपरुचय:। अङ्गपूर्वविषयजीवाद्यर्थविस्तारप्रमाणनयादिनिरूपणोपलब्धश्रद्धाना विस्ताररुचय:। वचनविस्तारविरहितार्थग्रहणजनितप्रसादा अर्थरुचय:। आचारादिद्वादशाङ्गाभिनिविष्टश्रद्धाना अवगाढरुचय:। परमावधिकेवलज्ञानदर्शनप्रकाशितजीवद्यर्थविषयात्मप्रसादा: परमावगाढरुचय:।</span> =<span class="HindiText">भगवत् अर्हंत सर्वज्ञ की आज्ञामात्र को मानकर सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए जीव आज्ञारुचि हैं। अपरिग्रही मोक्षमार्ग के श्रवणमात्र से सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए जीव मार्गरुचि हैं। तीर्थंकर बलदेव आदि शुभचारित्र के उपदेश को सुनकर सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले उपदेशरुचि हैं। दीक्षा आदि के निरूपक आचारांगादिसूत्रों के सुननेमात्र से जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है, वे सूत्ररुचि हैं। बीजपदों के ग्रहणपूर्वक सूक्ष्मार्थ तत्त्वार्थ श्रद्धान को प्राप्त करने वाले बीजरुचि हैं। जीवादि पदार्थों के संक्षेप कथन से ही सम्यग्दर्शन को प्राप्त होने वाले संक्षेपरुचि हैं। अंगपूर्व के विषय, प्रमाण नय आदि के विस्तार कथन से जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है वे विस्ताररुचि हैं। वचन विस्तार के बिना केवल अर्थग्रहण से जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है वे अर्थरुचि हैं। आचारांग द्वादशांग में जिनका श्रद्धान अतिदृढ़ है वे अवगाढरुचि हैं। परमावधि या केवलज्ञान दर्शन से प्रकाशित जीवादि पदार्थ विषयक प्रकाश से जिनकी आत्मा विशुद्ध है वे परमावगाढरुचि हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">आ.अनु./ | <p><span class="SanskritText">आ.अनु./12-14 आज्ञासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचितं वीतरागाज्ञयैव, त्यक्तग्रन्थप्रपञ्चं शिवममृतपथं श्रद्दधन्मोहशान्ते:। मार्गश्रद्धानमाहु: पुरुषवरपुराणोपदेशोपजाता, या संज्ञानागमाब्धिप्रसृतिभिरुपदेशादिरादेशि दृष्टि:।12। आकर्ण्याचारसूत्रं मुनिचरणविधे: सूचनं श्रद्दधान:, सूक्तासौ सूत्रदृष्टिर्दुरधिजमगतेरर्थसार्थस्य बीजै:। कैश्चिज्जातोपलब्धेरसमशमवशाद्बीजदृष्टि: पदार्थान्, संक्षेपेणैव बुद्धवा रुचिमुपगतवान् साधु संक्षेपदृष्टि:।13। य: श्रुत्वा द्वादशाङ्गी कृतरुचिरथ तं विद्धि विस्तारदृष्टिं, संजातार्थात्कुतश्चित्प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टि:। दृष्टि: साङ्गाङ्गबाह्यप्रवचनमवगाह्योत्थिता यावगाढा, कैवल्यालोकितार्थे रुचिरिह परमावादिगाढेति रूढा।14।</span> =<span class="HindiText">दर्शनमोह के उपशान्त होने से ग्रन्थश्रवण के बिना केवल वीतराग भगवान् की आज्ञा से ही जो तत्त्वश्रद्धान उत्पन्न होता है वह आज्ञासम्यक्त्व है। दर्शनमोह का उपशम होने से ग्रन्थश्रवण के बिना जो कल्याणकारी मोक्षमार्ग का श्रद्धान होता है उसे मार्ग सम्यग्दर्शन कहते हैं। तिरसठ शलाकापुरुषों के पुराण (वृत्तान्त) के उपदेश से जो तत्त्वश्रद्धान उत्पन्न होता है उसे उपदेश सम्यग्दर्शन कहा है।12। मुनि के चारित्रानुष्ठान को सूचित करने वाले आचारसूत्र को सुनकर जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है उसे सूत्रसम्यग्दर्शन कहा गया है। जिन जीवादिपदार्थों के समूह का अथवा गणितादि विषयों का ज्ञान दुर्लभ है उनका किन्हीं बीजपदों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने वाले भव्यजीव के जो दर्शनमोहनीय के असाधारण उपशमवश तत्त्वश्रद्धान होता है उसे बीजसम्यग्दर्शन कहते हैं। जो भव्यजीव पदार्थों के स्वरूप को संक्षेप से ही जान करके तत्त्वश्रद्धान को प्राप्त हुआ है उसके उस सम्यग्दर्शन को संक्षेप सम्यग्दर्शन कहा जाता है।13। जो भव्यजीव 12 अंगों को सुनकर तत्त्वश्रद्धानी हो जाता है उसे विस्तार सम्यग्दर्शन से युक्त जानो। अंग बाह्य आगमों के पढ़ने के बिना भी उनमें प्रतिपादित किसी पदार्थ के निमित्त से जो अर्थश्रद्धान होता है वह अर्थसम्यग्दर्शन कहलाता है। अंगों के साथ अंगबाह्य श्रुत का अवगाहन करके जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे अवगाढ़सम्यग्दर्शन कहते हैं। केवलज्ञान के द्वारा देखे गये पदार्थों के विषय में रुचि होती है वह यहाँ परमावगाढ सम्यग्दर्शन इस नाम से प्रसिद्ध है।14। (द.पा./टी./12/12/20)।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>3. आज्ञा सम्यग्दर्शन की विशेषताएँ</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./27/56/12 य: अर्हदाद्युपदिष्टं प्रवचनं आप्तागमपदार्थत्रयं श्रद्धाति रोचते, तेषु असद्भाव अतत्त्वमपि स्वस्य विशेषज्ञानशून्यत्वेन केवलगुरुनियोगात् अर्हदाद्याज्ञात: श्रद्धाति सोऽपि सम्यग्दृष्टिरेव भवति तदाज्ञाया अनतिक्रमात् ।</span> =<span class="HindiText">जो व्यक्ति अर्हंत आदि के उपदिष्ट प्रवचन की या आप्त आगम व पदार्थ इन तीनों की श्रद्धा करता है या विशेष ज्ञान शून्य होने के कारण केवल गुरुनियोग से या अर्हंत की आज्ञा से अतत्त्वों का भी श्रद्धान कर लेता है वह भी सम्यग्दृष्टि है, क्योंकि उसने उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया है। (विशेष देखें [[ श्रद्धान ]]/3)</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">अन.ध./ | <p><span class="SanskritText">अन.ध./2/63/186 देवोऽर्हन्नेव तस्यैव वचस्तथ्यं शिवप्रद:। धर्मस्तदुक्त एवेति निर्बन्ध साधयेद् दृशम् ।63। | ||
</span>=<span class="HindiText">एक अर्हंत ही देव है और उसका वचन ही सत्य है। उसका कहा गया धर्म ही मोक्षप्रद है। इस प्रकार का अभिनिवेश ही आज्ञासम्यक्त्व को सिद्ध करता | </span>=<span class="HindiText">एक अर्हंत ही देव है और उसका वचन ही सत्य है। उसका कहा गया धर्म ही मोक्षप्रद है। इस प्रकार का अभिनिवेश ही आज्ञासम्यक्त्व को सिद्ध करता है।63।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.1/1,1,144/गा.212/395 छप्पंचणवविहाणं अत्थाणं जिणवरोवइट्ठाणं। आणाए अहिगमेण व सद्दहणं होइ सम्मत्तं।212। | ||
</span><span class="HindiText">जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, और नव पदार्थों की आज्ञा अथवा अधिगम से श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहते | </span><span class="HindiText">जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, और नव पदार्थों की आज्ञा अथवा अधिगम से श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहते हैं।212। (ध.4/1,5,1/गा.6/316)</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>4. सम्यग्दर्शन में 'सम्यक्' शब्द का महत्त्व</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p><span class="SanskritText">स.सि./1/1/5/36 सम्यगित्यव्युत्पन्न: शब्दो व्युत्पन्नो वा। अञ्चते: क्वौ समञ्चतीति सम्यगिति। अस्यार्थ: प्रशंसा। स प्रत्येकं परिसमाप्यते। सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमिति। भावानां याथात्म्यप्रतिपत्तिविषयश्रद्धानसंग्रहार्थं दर्शनस्य सम्यग्विशेषणम् । | ||
</span>=<span class="HindiText">'सम्यक्' शब्द अव्युत्पन्न अर्थात् रौढिक और व्युत्पन्न अर्थात् व्याकरण सिद्ध है। जब यह व्याकरण से सिद्ध किया जाता है तब 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'अञ्च्' धातु से क्विप् प्रत्यय करने पर 'सम्यक्' शब्द बनता है। संस्कृत में इसकी व्युत्पत्ति समञ्चति इति सम्यक् इस प्रकार होती है। प्रकृत में इसका अर्थ प्रशंसा है। सूत्र में आये हुए इस शब्द को दर्शन, ज्ञान और चारित्र इनमें से प्रत्येक शब्द के साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र। पदार्थों के यथार्थ ज्ञान मूल के श्रद्धान का संग्रह करने के लिए दर्शन के पहले सम्यक् विशेषण दिया है। (रा.वा./ | </span>=<span class="HindiText">'सम्यक्' शब्द अव्युत्पन्न अर्थात् रौढिक और व्युत्पन्न अर्थात् व्याकरण सिद्ध है। जब यह व्याकरण से सिद्ध किया जाता है तब 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'अञ्च्' धातु से क्विप् प्रत्यय करने पर 'सम्यक्' शब्द बनता है। संस्कृत में इसकी व्युत्पत्ति समञ्चति इति सम्यक् इस प्रकार होती है। प्रकृत में इसका अर्थ प्रशंसा है। सूत्र में आये हुए इस शब्द को दर्शन, ज्ञान और चारित्र इनमें से प्रत्येक शब्द के साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र। पदार्थों के यथार्थ ज्ञान मूल के श्रद्धान का संग्रह करने के लिए दर्शन के पहले सम्यक् विशेषण दिया है। (रा.वा./1/1/35/10/6)</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./417 सम्यङ्मिथ्याविशेषाभ्यां विना श्रद्धादिमात्रका:। सपक्षवदि्पक्षेऽपि वृत्तित्वाद्व्यभिचारिण:।417।</span> =<span class="HindiText">सम्यक् और मिथ्या विशेषणों के बिना केवल श्रद्धा आदिकी सपक्ष के समान विपक्ष में भी वृत्ति रहने के कारण वे व्यभिचार दोष से युक्त हैं।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>5. सम्यग्दर्शन में दर्शन शब्द का अर्थ</strong></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>1. सत्तामात्र अवलोकन इष्ट नहीं है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./ | <p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./43/186/9 नेदमेव तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शनं वक्तव्यम् । कस्मादिति चेत् - तत्र श्रद्धानं विकल्परूपमिदं तु निर्विकल्पं मत:। | ||
</span>=<span class="HindiText">इस दर्शन को अर्थात् सत्तावलोकनमात्र दर्शनोपयोग को 'तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है' इस सूत्र में जो तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन कहा गया है, सो न कहना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि उपरोक्त श्रद्धान तो विकल्परूप है और यह (दर्शनोपयोग) निर्विकल्प है। (विशेष | </span>=<span class="HindiText">इस दर्शन को अर्थात् सत्तावलोकनमात्र दर्शनोपयोग को 'तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है' इस सूत्र में जो तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन कहा गया है, सो न कहना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि उपरोक्त श्रद्धान तो विकल्परूप है और यह (दर्शनोपयोग) निर्विकल्प है। (विशेष देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]])।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. कथंचित् सत्तामात्रावलोकन भी इष्ट है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p><span class="SanskritText">रा.वा./2/7/9/110/6 मिथ्यादर्शने अदर्शनस्यावरोधो भवति। निद्रानिद्रादीमामपि दर्शनसामान्यावरणत्वात्तत्रैवान्तर्भाव:। ननु च तत्त्वार्थाश्रद्धानं मिथ्यादर्शनमित्युक्तम्; सत्यमुक्तम्; सामान्यनिर्देशे विशेषान्तर्भावात्, सोऽप्येको विशेष:। अयमपरो विशेष: - अदर्शनमप्रतिपत्तिर्मिथ्यादर्शनमिति। | ||
</span>=<span class="HindiText">मिथ्यादर्शन में दर्शनावरण के उदय से होने वाले अदर्शन का अन्तर्भाव हो जाता है। और दर्शनसामान्य को आवरण करने वाले होने के कारण ( देखें | </span>=<span class="HindiText">मिथ्यादर्शन में दर्शनावरण के उदय से होने वाले अदर्शन का अन्तर्भाव हो जाता है। और दर्शनसामान्य को आवरण करने वाले होने के कारण (देखें [[ दर्शन#4.6 | दर्शन - 4.6]]), निद्रानिद्रा आदि का भी यहाँ ही अन्तर्भाव होता है। <strong>प्रश्न</strong> - तत्त्वार्थ के अश्रद्धान को मिथ्यादर्शन कहा गया है? <strong>उत्तर</strong> - वह ठीक ही कहा गया है, क्योंकि, सामान्य निर्देश में विशेष का अन्तर्भाव हो जाता है। तथा दूसरी बात यह है कि अदर्शन नाम अप्रतिपत्ति का है और वही मिथ्यादर्शन है। [अर्थात् स्वपर स्वरूप का यथार्थ अवलोकन न होना ही मिथ्यादर्शन है।]</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ दर्शन#1.3 | दर्शन - 1.3 ]]अन्तरंग चित्प्रकाश का नाम अथवा जानने के प्रति आत्मप्रयत्न का नाम दर्शनोपयोग है। अथवा स्वरूप संवेदन का नाम दर्शनोपयोग है।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ मोक्षमार्ग#3.6 | मोक्षमार्ग - 3.6 ]]दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये तीनों ही दर्शन व ज्ञानरूप सामान्य व विशेष परिणति है।</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText"> देखें [[ आगे इसी शीर्षक का समन्वय ]][लौकिक जीवों को दर्शनोपयोग से बहिर्विषयों का सत्तावलोकन होता है और सम्यग्दृष्टियों को उसी दर्शनोपयोग से आत्मा का सत्तावलोकन होता है। दर्शन, श्रद्धा, रुचि ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं।]</p> | ||
<p class="HindiText"> <strong> | <p class="HindiText"> <strong>3. व्यवहार लक्षण में दर्शन का अर्थ श्रद्धा इष्ट है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p><span class="SanskritText">स.सि./1/2/9/3 दृष्टेरालोकार्थत्वात् श्रद्धार्थगतिर्नोपपद्यते। धातूनामनेकार्थत्वाददोषा। प्रसिद्धार्थत्याग: कुत इति चेन्मोक्षमार्गप्रकरणात् । तत्त्वार्थश्रद्धानं ह्यात्मपरिणामो मोक्षसाधनं युज्यते, भव्यजीवविषयत्वात् । आलोकस्तु चक्षुरादिनिमित्त: सर्वसंसारिजीवसाधारणत्वान्न मोक्षमार्गो युक्त:। | ||
</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - दर्शन शब्द 'दृशि' धातु से बना है जिसका अर्थ आलोक है अत: इससे श्रद्धानरूप अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता ? <strong>उत्तर</strong> - धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं, अत: 'दृशि' धातु का श्रद्धानरूप अर्थ करने में कोई दोष नहीं है। <strong>प्रश्न</strong> - यहाँ (अर्थात् 'तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग् है' - | </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - दर्शन शब्द 'दृशि' धातु से बना है जिसका अर्थ आलोक है अत: इससे श्रद्धानरूप अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता ? <strong>उत्तर</strong> - धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं, अत: 'दृशि' धातु का श्रद्धानरूप अर्थ करने में कोई दोष नहीं है। <strong>प्रश्न</strong> - यहाँ (अर्थात् 'तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग् है' - देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/1, इस प्रकरण में) दृशि धातु का प्रसिद्ध अर्थ क्यों छोड़ दिया ? <strong>उत्तर</strong> - मोक्षमार्ग का प्रकरण होने से। - तत्त्वार्थों का श्रद्धानरूप जो आत्मा का परिणाम होता है वह तो मोक्ष का साधन बन जाता है, क्योंकि वह भव्यों के ही पाया जाता है, किन्तु आलोक, चक्षु आदि निमित्त से होता है जो साधारणरूप से सब संसारी जीवों के पाया जाता है, अत: उसे मोक्षमार्ग मानना युक्त नहीं। (रा.वा./1/2/2-4/19/10); (श्लो.वा./2/1/2/2/4)</span></p> | ||
<p class="SanskritText"> नि.सा./ता.वृ./ | <p class="SanskritText"> नि.सा./ता.वृ./3 दर्शनमपि...जीवास्तिकायसमुजनितपरश्रद्धानमेव भवति।</p> | ||
<p><span class="SanskritText">नि.सा./ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">नि.सा./ता.वृ./13 कारणदृष्टि:...सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावस्य कारणसमयसारस्वरूपस्य... स्वरूपश्रद्धानमात्रमेव।</span> =<span class="HindiText">1. शुद्ध जीवास्तिकाय से उत्पन्न होनेवाला जो परम श्रद्धान वही दर्शन है। 2. कारण दृष्टि परमपारिणामिकभावरूप जिसका स्वभाव है, ऐसे कारणसमयसारस्वरूप आत्मा के यथार्थ स्वरूपश्रद्धानमात्र है।</span></p> | ||
<p class="SanskritText"> प्र.सा./ता.वृ./ | <p class="SanskritText"> प्र.सा./ता.वृ./82/104/19 तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणेन दर्शनेन शुद्धा दर्शनशुद्धा:।</p> | ||
<p><span class="SanskritText">प्र.सा./ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">प्र.सा./ता.वृ./240/333/15 दर्शनशब्देन निजशुद्धात्मश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं ग्राह्यम् ।</span> =<span class="HindiText">1. तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणरूप दर्शन से शुद्ध हुआ दर्शनशुद्ध कहलाता है। 2. दर्शन शब्द से निजशुद्धात्म श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन ग्रहण करना चाहिए।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> <strong> | <p class="HindiText"> <strong>4. उपरोक्त दोनों अर्थों का समन्वय</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">चा.पा./मू./ | <p><span class="PrakritText">चा.पा./मू./18 सम्मद्दंसण पस्सदि जाणदि णाणेण दव्वपज्जाया। सम्मेण य सद्दहदि परिहरदि चरित्तजे दोसे।18। | ||
</span>=<span class="HindiText">यह आत्मा सम्यग्दर्शन से सत्तामात्र वस्तु को देखता है और सम्यग्ज्ञान से द्रव्य व पर्याय को जानता है। सम्यक्त्व के द्वारा द्रव्य पर्यायस्वरूप वस्तु का श्रद्धान करता हुआ चारित्रजनित दोषों को दूर करता है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">यह आत्मा सम्यग्दर्शन से सत्तामात्र वस्तु को देखता है और सम्यग्ज्ञान से द्रव्य व पर्याय को जानता है। सम्यक्त्व के द्वारा द्रव्य पर्यायस्वरूप वस्तु का श्रद्धान करता हुआ चारित्रजनित दोषों को दूर करता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ मोहनीय#2.1. | मोहनीय - 2.1.]]में ध./6 दर्शन, रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा और स्पर्शन ये सब एकार्थवाचक नाम हैं। (देखें [[ मिश्र#1.1 | मिश्र - 1.1 ]]में ध./1/166) - 2. आप्त या आत्मा में, आगम और पदार्थों में रुचि या श्रद्धा को दर्शन कहते हैं।</p> | ||
<p><span class="SanskritText">ध. | <p><span class="SanskritText">ध.1/1,1,133/384/4 अस्वसंविद्रूपो न कदाचिदप्यात्मोपलभ्यत इति चेन्न, तस्य बहिरङ्गोपयोगावस्थायामन्तरङ्गोपयोगानुलम्भात् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - अपने आपके संवेदन से रहित आत्मा की तो कभी भी उपलब्धि नहीं होती ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि, बहिरंगपदार्थों की उपयोगरूप अवस्था में अन्तरंग पदार्थ का उपयोग नहीं पाया जाता है।</span></p> | ||
<p class="SanskritText"> प.प्र./टी./ | <p class="SanskritText"> प.प्र./टी./2/13/127/6 तत्त्वार्थश्रद्धानरुचिरूपं सम्यग्दर्शनं मोक्षमार्गो भवति नास्ति दोष:, पश्यति निर्विकल्परूपेणावलोकयति इत्येवं यदुक्तं तत्सत्तावलोकदर्शनं कथं मोक्षमार्गो भवति, यदि भवति चेत्तर्हि तत्सत्तावलोकदर्शनमभव्यानामपि विद्यते, तेषामपि मोक्षो भवति स चागमविरोध इति। परिहारमाह - तेषां निर्विकल्पसत्तावलोकदर्शनं बहिर्विषये विद्यते न चाभ्यन्तरशुद्धात्मतत्त्वविषये।</p> | ||
<p><span class="SanskritText">प.प्र./टी./ | <p><span class="SanskritText">प.प्र./टी./2/34/154/15 निजात्मा तस्य दर्शनमवलोकनं दर्शनमिति व्याख्यातं भवद्भिरिदं तु सत्तावलोकदर्शनं मिथ्यादृष्टीनामप्यस्ति तेषामपि मोक्षो भवतु। परिहारमाह। चक्षुरचक्षुरवधिकेवलभेदेन चतुर्धा दर्शनम् । अत्र चतुष्टयमध्ये मानसमचक्षुर्दर्शनमात्मग्राहकं भवति, तच्च मिथ्यात्वादिसप्तप्रकृत्युपशमक्षयोपक्षयजनिततत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यक्त्वाभावात् शुद्धात्मतत्त्वमेवोपादेयमिति श्रद्धानाभावे सति तेषां मिथ्यादृष्टीनां न भवत्येवेति भावार्थ:।</span> =<span class="HindiText">1. <strong>प्रश्न</strong> - 'तत्त्वार्थ श्रद्धा या तत्त्वार्थरुचिरूप सम्यग्दर्शन (देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/1) मोक्षमार्ग होता है' ऐसा कहने में दोष नहीं; परन्तु 'जो देखता है या निर्विकल्परूप से अवलोकन करता है' ऐसा सत्तावलोकनरूप दर्शन जो आपने कहा है, वह मोक्षमार्ग कैसे हो सकता है। यदि 'हो तो है' ऐसा मानो तो वह सत्तावलोकनरूप दर्शन तो अभव्यों के भी होता है, उनको भी मोक्ष होना चाहिए और इस प्रकार आगम के साथ विरोध आता है? <strong>उत्तर</strong> - उनके निर्विकल्प सत्तावलोकरूप दर्शन बाह्य विषयों में ही होता है, अत्यन्त शुद्धात्म तत्त्व के विषय में नहीं। 2. <strong>प्रश्न</strong> - निजात्मा के दर्शन या अवलोकन को आपने दर्शन कहा है, और वह सत्तावलोकरूप दर्शन मिथ्यादृष्टियों के भी होता है। उनको भी मोक्ष होना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong> - चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल के भेद से दर्शन चार प्रकार का है। इन चारों में से यहाँ मानस अचक्षु दर्शन आत्मग्राहक होता है। और वह मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय और क्षयोपशम जनित तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण वाले सम्यग्दर्शन का अभाव होने के कारण, 'शुद्धात्मतत्त्व ही उपादेय है' ऐसे श्रद्धान का अभाव है। इसलिए वह मोक्ष उन मिथ्यादृष्टियों के नहीं होता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/3 (सच्चा तत्त्वार्थ श्रद्धान वास्तव में आत्मानुभव सापेक्ष ही होता है।)</p> | |||
<p class="HindiText"> <strong> | <p class="HindiText"> <strong>6. सम्यग्दर्शन के अपर नाम</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">म.पु./ | <p><span class="SanskritText">म.पु./9/123 श्रद्धारुचिस्पर्शप्रत्ययाश्चेति पर्यया:।123।</span> =<span class="HindiText">श्रद्धा, रुचि, स्पर्श और प्रत्यय या प्रतीति ये सम्यग्दर्शन के पर्याय हैं। (पं.ध./उ./411)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> <strong> | <p class="HindiText"> <strong>7. सम्यक्त्व की विराधना व पुन: पुन: प्राप्ति सम्बन्धी नियम</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.5 | सम्यग्दर्शन - IV.2.5 ]]- [मनुष्यों में जन्म लेने के आठ वर्ष पश्चात् देव नारकियों में अन्तर्मुहूर्त पश्चात् और तिर्यंचों को दिवस पृथक्त्व के पश्चात् प्रथम सम्यक्त्व होना सम्भव है, इससे पहला नहीं।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.7 | सम्यग्दर्शन - IV.2.7 ]]- [उपशम सम्यक्त्व अन्तर्मुहूर्त काल पश्चात् अवश्य छूट जाता है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.4.7 | सम्यग्दर्शन - IV.4.7 ]][वेदकसम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व से च्युत होते हैं पर अत्यन्त अल्प।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.5.1 | सम्यग्दर्शन - IV.5.1]] [क्षायिक सम्यग्दर्शन अप्रतिपाती है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.4.8 | सम्यग्दर्शन - IV.4.8 ]][एक बार गिरने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल से पहले सम्यक्त्व पुन: प्राप्त नहीं होता।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ आयु#6.8 | आयु - 6.8 ]][वर्द्धमान देवायु वाले का सम्यक्त्व विराधित नहीं होता।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ तीर्थंकर#3.8 | तीर्थंकर - 3.8 ]][तीर्थंकर प्रकृति सत्कर्मिक का सम्यक्त्व विराधित नहीं होता।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ लेश्या#5.1 | लेश्या - 5.1 ]][शुभ लेश्याओं में सम्यक्त्व विराधित नहीं होता है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ संयम#2.10 | संयम - 2.10 ]][औपशमिक व वेदक सम्यक्त्व व अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना पल्य के असंख्यातवें भाग बार विराधित हो सकते हैं, इससे आगे वे नियम से मुक्त होते हैं।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ श्रेणी#3 | श्रेणी - 3 ]][उपसमश्रेणी के साथ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व अधिक से अधिक चार बार विराधित होता है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.5.4 | सम्यग्दर्शन - I.5.4 ]][क्षायिक सम्यग्दृष्टि जघन्य से 3 भव और उत्कर्ष से 7-8 भवों में अवश्य मुक्ति प्राप्त करता है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> <strong> | <p class="HindiText"> <strong>2. सम्यग्दर्शन के अंग अतिचार आदि</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> <strong> | <p class="HindiText"> <strong>1. सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का नाम</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">मू.आ./ | <p><span class="PrakritText">मू.आ./201 णिस्संकिद णिक्कंखिद णिव्विदगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उवगूहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अट्ठ।201।</span> =<span class="HindiText">नि:शंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ सम्यक्त्व के अंग या गुण जानने चाहिए।201। (स.सि./6/24/338/6); (रा.वा./6/24/1/529/6); (वसु.श्रा./48); (पं.ध./उ./479-480)</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. आठों अंगों की प्रधानता</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">र.क.श्रा./ | <p><span class="SanskritText">र.क.श्रा./21 नाङ्गहीनमलं छेत्तुं दर्शनं जन्मसंततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनां।21।</span> =<span class="HindiText">जैसे एक दो अक्षररहित अशुद्ध मन्त्र विष की वेदना को नष्ट नहीं करता है, वैसे ही अंगरहित सम्यग्दर्शन भी संसार की स्थिति छेदने को समर्थ नहीं है। (चा.सा./6/1)।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">का.अ./मू./ | <p><span class="PrakritText">का.अ./मू./425 णिस्संका-पहुडि गुणा जह धम्मे तह य देव गुरु तच्चे। जाणेहि जिणमयादो सम्मत्तविसोहया एदे।25।</span> =<span class="HindiText">ये नि:शंकितादि आठ गुण जैसे धर्म के विषय में कहे वैसे ही देव गुरु और तत्त्व के विषय में भी जैनागम से जानने चाहिए। ये आठों अंग सम्यग्दर्शन को विशुद्ध करते हैं। (वसु.श्रा./50)।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>3. सम्यग्दर्शन के अनेकों गुण</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">(स.सा./प्रक्षेपक गा./ | <p><span class="PrakritText">(स.सा./प्रक्षेपक गा./177) - संवेओ णिव्वेओ णिंदा गरुहा य उवसमो भत्ती। वच्छल्लं अणुकंपा गुणट्ठ सम्मत्तजुत्तस्स।</span> =<span class="HindiText">संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, अनुकंपा, वात्सल्य ये आठ गुण सम्यक्त्व युक्त जीव के होते हैं। (चा.सा./6/2); (वसु.श्रा./49); (ध./उ./465 में उद्धृत)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ज्ञा./ | <p><span class="SanskritText">ज्ञा./6/7 में उद्धत श्लो.सं.4 एकं प्रशमसंवेगदयास्तिक्यादिलक्षणम् । आत्मन: शुद्धिमात्रं स्यादितरच्च समन्तत:।4। | ||
</span>=<span class="HindiText">एक (सराग) सम्यक्त्व तो प्रशम संवेग अनुकम्पा व आस्तिक्य से चिह्नित है और दूसरा (वीतराग) समस्त प्रकार से आत्मा की शुद्धिमात्र है। (पं.ध./उ./ | </span>=<span class="HindiText">एक (सराग) सम्यक्त्व तो प्रशम संवेग अनुकम्पा व आस्तिक्य से चिह्नित है और दूसरा (वीतराग) समस्त प्रकार से आत्मा की शुद्धिमात्र है। (पं.ध./उ./424-425); (और भी देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/4/1)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">म.पु./ | <p><span class="SanskritText">म.पु./21/97 संवेग: प्रशमस्थैर्यम् असंमूढत्वमस्मय:। आस्तिक्यमनुकम्पेति ज्ञेया: सम्यक्त्वभावना:।97।</span> =<span class="HindiText">संवेग, प्रशम, स्थिरता, अमूढ़ता, गर्व न करना, आस्तिक्य और अनुकम्पा ये सात सम्यग्दर्शन की भावनाएँ जानने के योग्य हैं।97। (म.पु./9/123)।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">का.अ./मू. | <p><span class="PrakritText">का.अ./मू.315 उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो। साहम्मिय अणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो।315।</span> =<span class="HindiText">जो उत्तम गुणों को ग्रहण करने में तत्पर रहता है, उत्तम साधुओं की विनय करता है तथा साधर्मी जनों से अनुराग करता है वह उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दृष्टि#2 | सम्यग्दृष्टि - 2]]/ (सम्यक्त्व के साथ ज्ञान, वैराग्य व चारित्र अवश्यम्भावी हैं)।</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/2 (आत्मानुभव सम्यग्दर्शन का प्रधान चिह्न है)।</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/1/1 (देव गुरु शास्त्र धर्म आदि के प्रति भक्ति तत्त्वों के प्रति श्रद्धा सम्यग्दर्शन के लक्षण हैं)।</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दृष्टि#5 | सम्यग्दृष्टि - 5 ]](सम्यग्दृष्टि में अपने दोषों के प्रति निन्दन गर्हण अवश्य होता है)।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>4. सम्यग्दर्शन के अतिचार</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">त.सू./ | <p><span class="SanskritText">त.सू./7/23 शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवा: सम्यग्दृष्टेरतिचारा:।23।</span> =<span class="HindiText">शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव ये सम्यग्दृष्टि के 5 अतिचार हैं। (भ.आ./वि./16/62/14; तथा 487/707/1)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>5. सम्यग्दर्शन के 25 दोष</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ज्ञा./ | <p><span class="SanskritText">ज्ञा./6/8 में उद्धृत - मूढ़त्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषा: पञ्चविंशति:। | ||
</span>=<span class="HindiText">तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन और शंकादि आठ दोष अर्थात् आठ अंगों से उलटे आठ दोष ये | </span>=<span class="HindiText">तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन और शंकादि आठ दोष अर्थात् आठ अंगों से उलटे आठ दोष ये 25 दोष सम्यग्दर्शन के कहे गये हैं। (द्र.सं./टी.41/166/10)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>6. कारणवश सम्यक्त्व में अतिचार लगने की संभावना सम्बन्धी</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p><span class="SanskritText">स.सि./7/22/364/8 तत्सम्यग्दर्शनं किं सापवादं निरपवादमिति। उच्यते - कस्यचिन्मोहनीयावस्थाविशेषात्कदाचिदिमे भवन्त्यपवादा:।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - सम्यग्दर्शन सापवाद होता है या निरपवाद ? <strong>उत्तर</strong> - किसी जीव के मोहनीय की अवस्था विशेष के कारण ये (अगले सूत्र में बताये गये शंका कांक्षा आदि) अपवाद या अतिचार होते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.4 | सम्यग्दर्शन - IV.4 ]](सम्यक्प्रकृति के उदय से चलमल आदि दोष होते हैं पर इससे सम्यक्त्व में क्षति नहीं होती)।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. सम्यग्दर्शन की प्रत्यक्षता व परोक्षता</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong> 1. छद्मस्थों का सम्यक्त्व भी सिद्धों के समान है</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ देव#I.1.5 | देव - I.1.5 ]](आचार्य, उपाध्याय व साधु इन तीनों के रत्नत्रय भी सिद्धों के समान हैं)।</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.1 | सम्यग्दर्शन - IV.1]] (उपशम, क्षायिक व क्षायोपशमिक इन तीनों सम्यक्त्वों में यथार्थ श्रद्धान के प्रति कोई भेद नहीं है)।</p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.का./ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">पं.का./ता.वृ./160/231/12 वीतरागसर्वज्ञप्रणीतजीवादिपदार्थविषये सम्यक् श्रद्धानं ज्ञानं चेत्युभयं गृहस्थतपोधनयो: समानं चारित्रं...।</span> =<span class="HindiText">वीतराग सर्वज्ञप्रणीत जीवादि पदार्थों के विषय में सम्यक् श्रद्धान व ज्ञान ये दोनों गृहस्थ व तपोधन साधुओं के समान ही होते हैं। परन्तु इनके चारित्र में भेद है।</span></p> | ||
<p class="HindiText">मो.मा.प्र./ | <p class="HindiText">मो.मा.प्र./9/475/11 जैसे छद्मस्थ के श्रुतज्ञान के अनुसार प्रतीति पाइए है...जैसा सप्ततत्त्वनि का श्रद्धान छद्मस्थ के भया था, तैसा ही केवली सिद्ध भगवान् के पाइए है। तातै ज्ञानादिक की हीनता अधिकता होतैं भी तिर्यंचादिक वा केवली सिद्ध भगवान्कैं सम्यक्त्व गुण समान है।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>2. सम्यग्दर्शन में कथंचित् स्व-परगम्यता</strong></p> | ||
<p class="SanskritText"> | <p class="SanskritText"> | ||
श्लो.वा./ | श्लो.वा./2/1/2/श्लो.12/29 सरागे वीतरागे च तस्य संभवतोऽञ्जसा। प्रशमादेरभिव्यक्ति: शुद्धिमात्रा च चेतस:।12।</p> | ||
<p><span class="SanskritText">श्लो.वा. | <p><span class="SanskritText">श्लो.वा.2/1/2/12/पृष्ठ/पंक्ति - एतानि प्रत्येकं समुदितानि वा स्वस्मिन् स्वसंविदितानि, परत्र कायवाग्व्यवहारविशेषलिङ्गानुमितानि सरागसम्यग्दर्शनं ज्ञापयन्ति, तदभावे मिथ्यादृष्टिस्वसंभवित्वात् संभवे वा मिथ्यात्वायोगात् । (34/17)। मिथ्यादृशामपि केषांचित्क्रोधाद्यनुद्रेकदर्शनात् प्रशमोऽनैकान्तिक इति चेन्न, तेषामपि सर्वथैकान्तेऽनन्तानुबन्धिनो मानस्योदयात् । स्वात्मनि चानेकान्तात्मनि द्वेषोदयस्यावश्यंभावात् पृथिवीकायिकादिषु प्राणिषु हननदर्शनात् । (35/5)। नन्वेवं यथा सरागेषु तत्त्वार्थश्रद्धानं प्रशमादिभिरनुमीयते यथा वीतरागेष्वपि तत्तै: किं नानुमीयते। इति चेन्न, तस्य स्वस्मिन्नात्मविशुद्धिमात्रत्वात् सकलमोहाभावे समारोपानवतारात् स्वसंवेदनादेव निश्चयोपपत्तेरनुमेयत्वाभाव:। परत्र तु प्रशमादीनां तल्लिङ्गानां सतामपि निश्चयोपायानां कायादिव्यवहारविशेषाणामपि तदुपायानामभावात् । (44/10)। कथमिदानीमप्रमत्तादिषु सूक्ष्मसाम्परायान्तेषु सद्दर्शनं प्रशमादेरनुमातुं शक्यम् । तन्निर्णयोपायानां कायादिव्यवहारविशेषाणामभावादेव। ...सोऽप्यभिहितानभिज्ञ:, सर्वेषु सरागेषु सद्दर्शनंप्रशमादिभिरनुमीयत इत्यनभिधानात् । यथासंभवं सरागेषु वीतरागेषु च सद्दर्शनस्य तदनुमेयत्वमात्मविशुद्धिमात्रत्वं चेत्यभिहितत्वात् । (45/3)।</span> =<span class="HindiText">1. सराग व वीतराग दोनों में ही सम्यग्दर्शन सम्भव है। तहाँ सराग में तो प्रशमादि लक्षणों के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति होती है और वीतराग में वह केवल चित्तविशुद्धि द्वारा लक्षित होता है। श्लो.12। (अन.ध./2/51/178)। 2. प्रशमादि गुण एक-एक करके या समुदित रूप से अपनी आत्मा में तो स्वसंवेदनगम्य हैं और दूसरों में काय व वचन व्यवहाररूप विशेष ज्ञापक लिंगों द्वारा अनुमानगम्य हैं। इन प्रशमादि गुणों पर से सम्यग्दर्शन जान लिया जाता है। (34/17) - (पं.ध./उ./388); (और भी देखें [[ अनुमान#2.5 | अनुमान - 2.5]]); (चा.पा./पं.जयचन्द/12/85); (रा.वा./हिं./1/2/24)। 3. सम्यग्दर्शन के अभाव में वे प्रशमादि गुण मिथ्यादृष्टि जीवों में सम्भव नहीं हैं यदि वहाँ इनका होना माना जायेगा तो वहाँ मिथ्यादृष्टिपना सम्भव न हो सकेगा। (37/18)। <strong>प्रश्न</strong> - किन्हीं-किन्हीं मिथ्यादृष्टियों में भी क्रोधादि का तीव्र उदय नहीं पाया जाता है, इसलिए सम्यग्दर्शन की सिद्धि में दिया गया उपरोक्त प्रशमादि गुणों वाला हेतु व्यभिचारी है ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं है, क्योंकि, उनके स्वमान्य एकान्त मतों में अनन्तानुबन्धीजन्य तीव्र भाव पाया जाता है। आत्मस्वरूप व अनेकान्तमत में उन्हें द्वेष का होना अवश्यंभावी है। तथा पृथिवीकायिक आदिकों की हिंसा करना भी उनमें पाया जाता है। (35/5) [जैसे सम्यग्दृष्टि में होते हैं वैसे प्रशमादि गुण मिथ्यादृष्टि में नहीं पाये जाते - द.पा./पं.जयचन्द] (द.पा./पं.जयचन्द/2/पृष्ठ 7 व 15)। =<strong>प्रश्न</strong> - 4. जिस प्रकार सराग सम्यग्दृष्टि में उसकी अभिव्यक्ति प्रशमादि गुणों द्वारा अनुमानगम्य है, उसी प्रकार वीतराग सम्यग्दृष्टियों में भी उन्हीं के द्वारा अनुमानगम्य क्यों नहीं ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि वीतरागों का तत्त्वार्थश्रद्धान अपने में आत्मविशुद्धिरूप होता है। सकल मोह के अभाव में तहाँ समारोप को अर्थात् संशय आदि को अवकाश न होने से, उसका स्वसंवेदन से ही निश्चय होता है, क्योंकि, वह विशुद्धि अनुमान का विषय नहीं है। 5. दूसरी बात यह भी है कि वीतराग जनों में, सम्यग्दर्शन के ज्ञापक प्रशमादि गुणों का तथा वचन व काय व्यवहाररूप विशेष ज्ञापक लिंगों का सद्भाव होते हुए भी, वे अति सूक्ष्म होने के कारण वे छद्मस्थों के गोचर नहीं हो पाते, क्योंकि, छद्मस्थों के पास उनको जानने का कोई साधन नहीं है। इसलिए वे गुण व लिंग वीतराग सम्यग्दर्शन के अनुमान के उपाय नहीं हैं। (44/10)। <strong>प्रश्न</strong> - 6. सातवें से लेकर दसवें पर्यंत के अप्रमत्त सराग गुणस्थानों में सम्यग्दर्शन का अनुमान कैसे किया जा सकता है, क्योंकि, उनमें उसके निर्णय के उपायभूत, काय व वचन व्यवहाररूप विशेष ज्ञापक लिंगों का अभाव है? <strong>उत्तर</strong> - तुम हमारे अभिप्राय को नहीं समझे। सर्व ही सराग जीवों के सम्यग्दर्शन का अनुमान केवल इन गुणों व लिंगो पर से ही होता हो, ऐसा नियम नहीं किया गया है। बल्कि यथासम्भव वीतराग व सराग दोनों में ही सम्यग्दर्शन की अनुमेयता आत्मविशुद्धि होती है, ऐसा हमारा अभिप्राय है [अर्थात् 4-6 वाले सराग प्रमत्त गुणस्थानों में तो प्रशमादि गुणों से तथा 7-10 तक के सराग अप्रमत्त गुणस्थानों में आत्मविशुद्धि से उसकी अभिव्यक्ति होती है]। (45/3) (अन.ध./2/53/179)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ अनुभव ]]/4 (आत्मानुभव स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है)।</p> | ||
<p class="HindiText">मो.मा.प्र./ | <p class="HindiText">मो.मा.प्र./7/357/8 द्रव्य लिंगीकै स्थूल तौ अन्यथापना है नाहीं, सूक्ष्म अन्यथापनौ है, सौ सम्यग्दृष्टिकौं भासै है।</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ प्रायश्चित्त#3.1 | प्रायश्चित्त - 3.1 ]](सहवास में रहकर दूसरों के परिणामों का अनुमान किया जा सकता है।)</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. वास्तव में सम्यग्दर्शन नहीं बल्कि प्रशमादि गुण ही प्रत्यक्ष होते हैं</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">श्लो.वा./ | <p><span class="SanskritText">श्लो.वा./2/1/2/12/38/1 ननु प्रशमादयो यदि स्वस्मिन् स्वसंवेद्या: श्रद्धानमपि तत्त्वार्थानां किं न स्वसंवेद्यम् यतस्तेभ्योऽनुमीयते। स्वसंवेद्यत्वाविशेषेऽपि तैस्तदनुमीयते न पुनस्ते तस्मादिति क: श्रद्दधीतान्यत्रापरीक्षकादिति चेत्, नैतत्सारम्, दर्शनमोहोपशमादिविशिष्टात्मस्वरूपस्य तत्त्वार्थश्रद्धानस्य स्वसंवेद्यत्वानिश्चयात् । स्वसंवेद्यपुनरास्तिक्यं तदभिव्यञ्जकं प्रशमसंवेगानुकम्पावत् कथंचित्ततो भिन्नं तत्फलत्वात् । तत एव फलतद्वतोरभेदविवक्षायामास्तिक्यमेव तत्त्वार्थश्रद्धानमिति, तस्य तद्वत्प्रत्यक्षसिद्धत्वात्तदनुमेयत्वमपि न विरुध्यते। | ||
</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - यदि प्रशमादि गुण अपनी आत्मा में स्वसंवेदनगम्य है तो तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन ही स्वसंवेदनगम्य क्यों न हो जाय। क्यों उसे प्रशमादि के द्वारा अनुमान करने की आवश्यकता पड़े। क्योंक, आत्मा के परिणामपनेरूप से दोनों में कोई भेद नहीं है। पहिले स्वसंवेदन से प्रशमादि को जानें और फिर उन पर से सम्यग्दर्शन का अनुमान करें, ऐसा व्यर्थ का परस्पराश्रय क्यों कराया जाय? <strong>उत्तर</strong> - यह कहना सार रहित है, क्योंकि दर्शनमोह के उपशमादि विशिष्ट आत्मस्वरूप तत्त्वार्थश्रद्धान का स्वसंवेदन से निश्चय नहीं हो सकता। परन्तु प्रशम संवेग आदि गुणों की भाँति आस्तिक्य गुण स्वसंवेद्य होता हुआ उसका अभिव्यंजक हो जाता है। श्रद्धान के फलस्वरूप होने के कारण ये चारों प्रशमादि गुण उस श्रद्धान से कथंचित् भिन्न हैं। फल और फलवान् की अभेद विवक्षा करने पर वह आस्तिक्य गुण ही तत्त्वार्थश्रद्धान है। इस प्रकार उस आस्तिक्य की भाँति उस तत्त्वार्थ श्रद्धान की भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सिद्धि हो जाती है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - यदि प्रशमादि गुण अपनी आत्मा में स्वसंवेदनगम्य है तो तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन ही स्वसंवेदनगम्य क्यों न हो जाय। क्यों उसे प्रशमादि के द्वारा अनुमान करने की आवश्यकता पड़े। क्योंक, आत्मा के परिणामपनेरूप से दोनों में कोई भेद नहीं है। पहिले स्वसंवेदन से प्रशमादि को जानें और फिर उन पर से सम्यग्दर्शन का अनुमान करें, ऐसा व्यर्थ का परस्पराश्रय क्यों कराया जाय? <strong>उत्तर</strong> - यह कहना सार रहित है, क्योंकि दर्शनमोह के उपशमादि विशिष्ट आत्मस्वरूप तत्त्वार्थश्रद्धान का स्वसंवेदन से निश्चय नहीं हो सकता। परन्तु प्रशम संवेग आदि गुणों की भाँति आस्तिक्य गुण स्वसंवेद्य होता हुआ उसका अभिव्यंजक हो जाता है। श्रद्धान के फलस्वरूप होने के कारण ये चारों प्रशमादि गुण उस श्रद्धान से कथंचित् भिन्न हैं। फल और फलवान् की अभेद विवक्षा करने पर वह आस्तिक्य गुण ही तत्त्वार्थश्रद्धान है। इस प्रकार उस आस्तिक्य की भाँति उस तत्त्वार्थ श्रद्धान की भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सिद्धि हो जाती है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>4. सम्यक्त्व वस्तुत: प्रत्यक्षज्ञान गम्य है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./श्लो.सं.सम्यक्त्वं वस्तुत: सूक्ष्मं केवलज्ञानगोचरम् । गोचरं स्वावधिस्वान्त:पर्ययज्ञानयोर्द्वयो: | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./श्लो.सं.सम्यक्त्वं वस्तुत: सूक्ष्मं केवलज्ञानगोचरम् । गोचरं स्वावधिस्वान्त:पर्ययज्ञानयोर्द्वयो:।375। न गोचरं मतिज्ञानश्रुतज्ञानद्वयौर्मनाम् । नापि देशावधेस्तत्र विषयोऽनुपलब्धित:।376। सम्यक्त्वं वस्तुत: सूक्ष्ममस्ति वाचामगोचरम् । तस्मात् वक्तुं च श्रोतुं च नाधिकारी विधिक्रमात् ।400।</span> =<span class="HindiText">सम्यक्त्व वास्तव में सूक्ष्म है और केवल ज्ञान के गोचर है, तथा अवधि और मन:पर्यय ज्ञान के भी गोचर है। [क्योंकि अवधि ज्ञान भी जीव के औपशमिक आदि कर्म संयोगी भावों को प्रत्यक्ष जानने में समर्थ है (देखें [[ अविधज्ञान#8 | अविधज्ञान - 8]])]।375। परन्तु मति और श्रुतज्ञान और देशावधि इनके द्वारा उसको उपलब्धि सम्भव नहीं है।376। वास्तव में सम्यक्त्व सूक्ष्म है और वचनों के अत्यन्त अगोचर है, इसलिए कोई भी जीव उसके विधि पूर्वक कहने और सुनने का अधिकारी नहीं है।400।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.4 | सम्यग्दर्शन - I.4]] [प्रशमादि गुण तथा आत्मानुभूति भी सम्यग्दर्शन नहीं ज्ञान की पर्यायें हैं। अत: स्वसंवेद्य श्रुतज्ञान द्वारा भी वह प्रत्यक्ष नहीं है।]</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>5. सम्यक्त्व को सर्वथा केवलज्ञानगम्य कहना युक्त नहीं है।</strong></p> | ||
<p class="HindiText">द.पा./पं.जयचन्द/ | <p class="HindiText">द.पा./पं.जयचन्द/2/पृ.8=<strong>प्रश्न</strong> - केई कहे है जो सम्यक्त्व तौ केवलीगम्य है यातै आपकै सम्यक्त्व भये का निश्चय नहीं होय, तातैं आपकूं सम्यग्दृष्टि नहीं मानना ? <strong>उत्तर</strong> - सौ ऐसे सर्वथा एकान्त करि कहना तौ मिथ्यादृष्टि है, सर्वथा ऐसैं कहे व्यवहार का लोप होय, सर्व मुनि श्रावक की प्रवृत्ति मिथ्यात्वसहित ठहरै। तब सर्व ही मिथ्यादृष्टि आपकूं मानैं, तब व्यवहार काहे का रह्या, तातैं परीक्षा भये पीछैं (देखें [[ शीर्षक सं#2 | शीर्षक सं - 2]]) यह श्रद्धान नाहीं राखणां जो मैं मिथ्यादृष्टि ही हूँ।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>4. सम्यग्दर्शन का ज्ञान व चारित्र के साथ भेद</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. श्रद्धान आदि व आत्मानुभूति वस्तुत: सम्यक्त्व नहीं ज्ञान की पर्याय हैं</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./श्लो.सं.श्रद्धानादिगुणा बाह्यं लक्ष्म सम्यग्दृगात्मन:। न सम्यक्त्वं तदेवेति सन्ति ज्ञानस्य पर्यया: | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./श्लो.सं.श्रद्धानादिगुणा बाह्यं लक्ष्म सम्यग्दृगात्मन:। न सम्यक्त्वं तदेवेति सन्ति ज्ञानस्य पर्यया:।386। अपि चात्मानुभूतिश्च ज्ञानं ज्ञानस्य पर्ययात् । अर्थात् ज्ञानं न सम्यक्त्वमस्ति चेद्बाह्यलक्षणम् ।387। तत्त्वार्थाभिमुखी बुद्धि: श्रद्धा सात्म्यं रुचिस्तथा। प्रतीतिस्तु तथेति स्यात्स्वीकारश्चरणं क्रिया।412। अर्थादाद्यत्रिकं ज्ञानं ज्ञानस्यैवात्र पर्ययात् । चरणं वाक्कायचेतोभिर्व्यापार: शुभकर्मसु।413। | ||
</span>=<span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि जीव के श्रद्धान आदि गुण (लक्षण) बाह्य लक्षण हैं, इसलिए केवल उन श्रद्धानादिक को ही सम्यक्त्व नहीं कह सकते हैं क्योंकि वे वास्तव में ज्ञान की पर्यायें | </span>=<span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि जीव के श्रद्धान आदि गुण (लक्षण) बाह्य लक्षण हैं, इसलिए केवल उन श्रद्धानादिक को ही सम्यक्त्व नहीं कह सकते हैं क्योंकि वे वास्तव में ज्ञान की पर्यायें हैं।386। तथा आत्मानुभूति भी ज्ञान ही है, क्योंकि वह ज्ञान की पर्याय है। इसलिए इसको भी ज्ञान ही कहना चाहिए सम्यक्त्व नहीं। यदि इसे सम्यक्त्व का लक्षण भी कहें तो बाह्य लक्षण ही कहें अन्तरंग नहीं।387। (ला.सं./3/41-42) तत्त्वार्थों के विषय में उन्मुख बुद्धि श्रद्धा कहलाती है तथा उनके विषय में तन्मयता रुचि कहलाती है; और ‘यह ऐसे ही है’ इस प्रकार की स्वीकार प्रतीति कहलाती है, तथा उसके अनुसार आचरण करना चरण कहलाता है।412। इन चारों में वास्तव में आदि वाले श्रद्धादि तीन ज्ञान को ही पर्याय होने से ज्ञानरूप है तथा वचन, काय व मन से शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना चरण कहलाता है।413। देखें [[ अनुभव ]]/4 (आत्मानुभव स्वसंवेदन रूप ज्ञान है)</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. प्रशमादिक ज्ञानरूप नहीं बल्कि सम्यक्त्व के कार्य हैं</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">श्लो.वा./ | <p><span class="SanskritText">श्लो.वा./2/1/2/12/39-41 सम्यग्ज्ञानमेव हि सम्यग्दर्शनमिति केचिद्विप्रवदन्ते, तान् प्रतिज्ञानात् भेदेन दर्शनं प्रशमादिभि: कार्यविशेषै: प्रकाश्यते।(39/9)। ज्ञानकार्यत्वात्तेषां न तत्प्रकाशकत्वमिति चेन्न अज्ञाननिवृत्तिफलत्वात् ज्ञानस्य। साक्षादज्ञाननिवृत्तिर्ज्ञानस्य फलं परम्परया प्रशमादयो हानादिबुद्धिवदिति चेत्, तर्हि हानादिबुद्धिवदेव ज्ञानादुत्तरकालं प्रशमादयोऽनुभूयेरन्, न चैवं ज्ञानसमकालं प्रशमाद्यनुभवनात् ।(39/25)। सम्यग्दर्शनसमसमयमनुभूयमानत्वात् प्रशमादेस्तत्फलत्वमपि माभूत् इति चेन्न, तस्य तदभिन्नफलत्वोपगमात्तत्समसमयवृत्तित्वाविरोधात्, ततो दर्शनकार्यत्वाद्दर्शनस्य ज्ञापका: प्रशमादय:।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - सम्यग्ज्ञान ही वास्तव में सम्यग्दर्शन है ? <strong>उत्तर</strong> - प्रशम आदिक विशेष कार्यों से दर्शन व ज्ञान में भेद है। <strong>प्रश्न</strong> - प्रशमादि क्रिया विशेष तो सम्यग्ज्ञान के कार्य हैं, अत: वे सम्यग्ज्ञान के ही ज्ञापक होंगे ? (39/9) <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि ज्ञान का फल तो अज्ञान निवृत्ति है। <strong>प्रश्न</strong> - ज्ञान का अव्यवहित फल तो अज्ञान निवृत्ति है, किन्तु उसका परम्परा फल प्रशम आदि है जैसे कि हेय पदार्थ में त्याग बुद्धि होना उसका परम्परा फल है? <strong>उत्तर</strong> - यदि ऐसा है तो उस त्याग बुद्धि के समान ये प्रशमादि भी ज्ञान के उत्तर काल में ही अनुभव में आने चाहिए। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ज्ञान के समकाल में ही उनका अनुभव देखा जाता है। (39/25) <strong>प्रश्न</strong> - तब तो सम्यग्दर्शन के समकाल में ही अनुभव गोचर होने के कारण वे सम्यग्दर्शन के भी फल न हो सकेंगे ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, सम्यक्त्व के अभिन्न फलस्वरूप होने के कारण प्रशमादि की समकाल वृत्ति में कोई विरोध नहीं है। इसलिए दर्शन के कार्य होने से वे प्रशमादि सम्यग्दर्शन के ज्ञापक हेतु हैं।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>3. प्रशमादि कथंचित् सम्यग्ज्ञान के भी ज्ञापक हैं</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">श्लो.वा./ | <p><span class="SanskritText">श्लो.वा./2/1/2/12/41/6 प्रशमादय: सहचरकार्यत्वात्तु ज्ञानस्येत्यनवद्यम् ।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्ज्ञानरूप साध्य के साथ रहने वाले सम्यग्दर्शन के कार्य हो जाने से वे प्रशमादिक सम्यग्ज्ञान के भी ज्ञापक हेतु हो जाते हैं।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>4. स्वानुभूति के ज्ञान व सम्यक्त्वरूप होने सम्बन्धी समन्वय</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./श्लो.सं.नन्वात्मानुभव: साक्षात् सम्यक्त्वं वस्तुत: स्वयम् । सर्वत: सर्वकालेऽस्य मिथ्यादृष्टेरसंभवात् | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./श्लो.सं.नन्वात्मानुभव: साक्षात् सम्यक्त्वं वस्तुत: स्वयम् । सर्वत: सर्वकालेऽस्य मिथ्यादृष्टेरसंभवात् ।389। नैवं यतोऽनभिज्ञोऽसि सत्सामान्यविशेषयो:। अप्यनाकारसाकारलिङ्गयोस्तद्यथोच्यते।390। ततो वक्तुमशक्यत्वात् निर्विकल्पस्य वस्तुन:। तदुल्लेखं समालेख्य ज्ञानद्वारा निरूप्यते।396। तत्राप्यात्मानुभूति: सा विशिष्टं ज्ञानमात्मन:। सम्यक्त्वेनाविनाभूतमन्वयाद्व्यतिरेकत:।402। ततोऽस्ति योग्यता वक्तुं व्याप्ते: सद्भावतस्तयो:। सम्यक्त्व: स्वानुभूति: स्यात्सा चेच्छुद्धनयात्मिका।403।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - साक्षात् आत्मा का अनुभव वास्तव में स्वयं सम्यक्त्वस्वरूप है, क्योंकि, किसी भी क्षेत्र या काल में वह मिथ्यादृष्टि को प्राप्त नहीं हो सकता है?।389। <strong>उत्तर</strong> - ऐसा नहीं है, क्योंकि, सामान्य और विशेष के लक्षणभूत अनाकार और साकार के विषय में भी तुम अनभिज्ञ हो।390। [ज्ञान के अतिरिक्त सर्वगुण निर्विकल्प व निराकार हैं (देखें [[ गुण#2.10 | गुण - 2.10]])] और निर्विकल्प वस्तु के कथन को, अनिर्वचनीय होने के कारण, ज्ञान के द्वारा उन सामान्यात्मक गुणों का उल्लेख करके उनका निरूपण किया गया है।396। उस सम्यग्दर्शन के लक्षण में भी जो आत्मा का अनुभव है वह आत्मा का विशेष ज्ञान है जो सम्यक्त्व के साथ अन्वय व्यतिरेक से अविनाभावी है।402। इसलिए इन दोनों में व्याप्ति होने के कारण वचन के अगोचर भी सम्यक्त्व वचन गोचर हो जाता है, इसलिए यदि शुद्धनयात्मिका हो तो वह स्वानुभूति सम्यक्त्व कहलाती है।403।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>5. अनुभूति उपयोगरूप होती है और सम्यक्त्व लब्धरूप</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./श्लो.सं.किंचास्ति विषमव्याप्ति: सम्यक्त्वानुभवद्वयो:। नोपयोगे समव्याप्तिरस्ति लब्धिविधौ तु | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./श्लो.सं.किंचास्ति विषमव्याप्ति: सम्यक्त्वानुभवद्वयो:। नोपयोगे समव्याप्तिरस्ति लब्धिविधौ तु सा।404। तद्यथा स्वानुभूतौ वा तत्काले वा तदात्मनि। अस्त्यवश्यं हि सम्यक्त्वं यस्मात्सा न विनापि तत् ।405। यदि वा सति सम्यक्त्वे स स्याद्वा नोपयोगवान् । शुद्धानुभवस्तत्र लब्धिरूपोऽस्ति वस्तुन:।406। हेतुस्तत्रास्ति सध्रीची सम्यक्त्वेनान्वयादिह। ज्ञानसंचेतनालब्धिर्नित्या स्वावरणव्ययात् ।852। सार्धं तेनोपयोगेन न स्याद्व्याप्तिर्द्वयोरपि। विना तेनापि सम्यक्त्वं तदास्ते सति स्याद्यत:।875। आत्मनोऽन्यत्र कुत्रापि स्थिते ज्ञाने परात्मसु। ज्ञानसंचेतनाया: स्यात्क्षति: साधोयसी तदा।900। सत्यं चापि क्षतेरस्या: क्षति: साध्यस्य न क्वचित् । इयानात्मोपयोगस्य तस्यास्तत्राप्यहेतुत:।901। साध्यं यद्दर्शनाद्धेतोर्निर्जरा चाष्टकर्मणाम् । स्वतो हेतुवशाच्छक्तेर्न तद्धेतु: स्वचेतना।902। अनिध्नन्निह सम्यक्त्वं रागोऽयं बुद्धिपूर्वक:। नूनं हन्तुं क्षमो न स्याज्ज्ञानसंचेतनामिमाम् ।918।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन और स्वानुभूव इन दोनों में विषमव्याप्ति है क्योंकि (अनुभूति उपयोगरूप है और सम्यक्त्व लब्धरूप) उपयोगरूप स्वानुभूति के साथ सम्यक्त्व की समव्याप्ति है।404। वह इस प्रकार कि स्वानुभव के होने पर अथवा स्वानुभूति के काल में भी उस आत्मा में अवश्य ही ज्ञात होता है, क्योंकि उस सम्यग्दर्शनरूप कारण के बिना वह स्वानुभूतिरूप कार्य नहीं होता है।405। अथवा यों कहिए कि सम्यग्दर्शन के होने पर वह आत्मा स्वानुभूति के उपयोग से सहित हो ही ऐसा कोई नियम नहीं, परन्तु स्वानुभूति यदि होती है तो सम्यक्त्व के रहने पर ही होती है।406। इसमें भी हेतु यह है कि सम्यक्त्व के अविनाभूत स्वानुभूति मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से समीचीन ज्ञानचेतना की लब्धि उसके सदैव पायी जाती है।852। परन्तु आत्मोपयोग के साथ सम्यक्त्व की व्याप्ति नहीं है, क्योंकि आत्मा के उपयोग के न रहते हुए भी वह सम्यक्त्व रहता है और उपयोग के रहते हुए भी।875। <strong>प्रश्न</strong> - शुद्धात्मा के सिवा किन्हीं अन्य पदार्थों में जब ज्ञान का उपयोग होता है तब ज्ञान चेतना की हानि अवश्य होती है?।900। <strong>उत्तर</strong> - ठीक है कि तब ज्ञानचेतना की क्षति तो हो जाती है परन्तु उसकी साध्यभूत संवर निर्जरा की हानि नहीं होती है, क्योंकि, वह उपयोगरूप ज्ञानचेतना संवर निर्जरा के हेतु नहीं है।901। स्वात्मा को विषय करना ही उसका कार्य है, क्योंकि, सम्यग्दर्शन के निमित्त से आठों कर्मों की निर्जरा होना जो साध्य है, वह स्वयं सम्यक्त्व की शक्ति के कारण होता है, अत: ज्ञान चेतना उसमें कारण नहीं है।902। यहाँ पर यह बुद्धिपूर्वक औदयिक भावरूप राग सम्यक्त्व का घात नहीं करता है, इसलिए वह इस लब्धरूप ज्ञानचेतना का घात करने को समर्थ नहीं है।918।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>6. सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में अन्तर</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p><span class="SanskritText">रा.वा./1/1/60/16/4 ज्ञानदर्शनयोर्युगपत्प्रवृत्तेरेकत्वमिति चेत्; न; तत्त्वावायश्रद्धानभेदात् तापप्रकाशवत् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - ज्ञान व दर्शन की युगपत् प्रवृत्ति होने के कारण वे दोनों एक हैं ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार युगपत् होते हुए भी अग्नि ताप व प्रकार (अथवा दीपक व उसका प्रकाश - पु.सि.उ.) अपने-अपने लक्षणों से भेद को प्राप्त हैं, उसी प्रकार युगपत् होते हुए भी ये दोनों अपने-अपने लक्षणों से भिन्न हैं। सम्यग्ज्ञान का लक्षण तत्त्वों का यथार्थ निर्णय करना है और सम्यग्दर्शन का लक्षण उन पर श्रद्धान करना है। (पु.सि.उ./32-34), (छहढाला/4/1)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.1.5.3 | सम्यग्दर्शन - I.1.5.3 ]](निर्विकल्परूप से देखना सम्यग्दर्शन है और विशेष रूप से जानना सम्यग्ज्ञान है)।</p> | ||
<p class="SanskritText"> | <p class="SanskritText"> | ||
द्र.सं.टी./ | द्र.सं.टी./44/193/1 यतत्त्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं वस्तुविचाररूपं सम्यग्ज्ञानं तयोर्विशेषो न ज्ञायते। कस्मादिति चेत् । सम्यग्दर्शने पदार्थनिश्चयोऽस्ति, तथैव सम्यग्ज्ञाने च, को विशेष इति। अत्र परिहार:। अर्थग्रहणपरिच्छित्तिरूप: क्षयोपशमविशेषो ज्ञानं भण्यते, तत्रैव भेदनयेन वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धात्मादितत्त्वेष्विदमेवेत्थमेवेति निश्चयसम्यक्त्वमिति। अविवल्परूपेणाभेदनयेन पुनर्यदेव सम्यग्ज्ञानं तदेव सम्यक्त्वमिति। कस्मादिति चेत् - अतत्त्वे तत्त्वबुद्धिरदेवे देवबुद्धिधर्मे धर्मबुद्धिरित्यादिविपरीताभिनिवेशरहितस्य ज्ञानस्यैव सम्यग्विशेषणवाच्योऽवस्थाविशेष: सम्यक्त्वं भण्यते यत: कारणात् । यदि भेदो नास्ति तर्हि कथमावरणद्वयमिति चेत् - तत्रोत्तरम् ।...भेदनयेनावरणभेद:। निश्चयनयेन पुनरभेदविवक्षायां कर्मत्वं प्रत्यावरणद्वयमप्येकमेव विज्ञातव्यम् ।</p> | ||
<p><span class="SanskritText">द्र.सं.टी./ | <p><span class="SanskritText">द्र.सं.टी./52/218/10 स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपसम्यग्दर्शनं।...तस्यैव शुद्धात्मनो...मिथ्यात्वरागादिपरभावेभ्य: पृथक्परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञानम् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - 1. ‘‘तत्त्वार्थ का श्रद्धान करने रूप सम्यग्दर्शन और पदार्थ का विचार करने स्वरूप सम्यग्ज्ञान है’’ इन दोनों में भेद नहीं जाना जाता, क्योंकि जो पदार्थ का निश्चय सम्यग्दर्शन में है वही सम्यग्ज्ञान में है। इसलिए इन दोनों में क्या भेद है ? <strong>उत्तर</strong> - पदार्थ के ग्रहण करने में जाननेरूप जो क्षयोपशम विशेष है, वह ‘ज्ञान’ कहलाता है। और ज्ञान में ही भेदनय से जो वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे हुए शुद्धात्मा आदि तत्त्व हैं उनमें, ‘यह ही तत्त्व है, ऐसा ही तत्त्व है’ इस प्रकार का जो निश्चय है, वह सम्यक्त्व है। 2. और अभेद नय से तो जो सम्यग्ज्ञान है वही सम्यग्दर्शन है। कारण कि अतत्त्व में तत्त्व की बुद्धि, अदेव में देव की बुद्धि और अधर्म में धर्म की बुद्धि, इत्यादिरूप जो विपरीत अभिनिवेश है, उस विपरीताभिनिवेश से रहित जो ज्ञान है; उसके ‘सम्यक्’ विशेषण से कहे जाने वाली अवस्थाविशेष सम्यक्त्व कहलाता है। <strong>प्रश्न</strong> - 3. जो सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में भेद नहीं है, तो उन दोनों गुणों के घातक ज्ञानावरणीय व मिथ्यात्व ये दो कर्म कैसे कहे गये? <strong>उत्तर</strong> - भेदनय से आवरण का भेद है और अभेद की विवक्षा में कर्मत्व के प्रति जो दो आवरण हैं, उन दोनों को एक ही जानना चाहिए। 4. ‘शुद्धात्मा ही उपादेय है’, ऐसी रुचि होनेरूप सम्यग्दर्शन है और उसी शुद्धात्मा को रागादि परभावों से भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है। (देखें [[ उन ]]उनके लक्षण)</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>7. सम्यक्त्व के साथ चारित्र का कथंचित् भेद व अभेद</strong></p> | ||
<p class="HindiText">द.पा./पं.जयचन्द/ | <p class="HindiText">द.पा./पं.जयचन्द/22 जो कोऊ कहै सम्यक्त्वभए पीछे तौ सर्व परद्रव्य संसारकूं हेय जानिये है, ताकूं छोड़ै मुनि होय चारित्र आचरै तव सम्यक्त्व भया जानिये, ताका समाधान रूप यह गाथा है, जो सर्व परद्रव्यकूं हेय जानि निज स्वरूपकूं उपादेय जान्यां श्रद्धान किया तब मिथ्या भाव तो न रहा परन्तु चारित्रमोह कर्म का उदय प्रबल होय जातैं चारित्र अंगीकार करने की सामर्थ्य नहीं होय तेतैं जेती सामर्थ्य होय तेता तौ करै तिस सिवाय का श्रद्धान करै। (देखें [[ श्रद्धान ]]/1/3)</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ चारित्र#3.5 | चारित्र - 3.5 ]][यद्यपि चारित्र सम्यग्दर्शनपूर्वक ही होता है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि सम्यक्त्व होते ही चारित्र प्रगट हो जाय। हाँ, सम्यक्त्व हो जाने के पश्चात् क्रमश: धीरे-धीरे वह यथाकाल प्रगट अवश्य हो जाता है।]</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>5. मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन की प्रधानता</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. सम्यग्दर्शन की प्रधानता का निर्देश</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">भ.आ.मू./ | <p><span class="PrakritText">भ.आ.मू./736-739 णगरस्स जह दुवारं मुहस्स चक्खू तरुस्स जह मूलं। तह जाण सुसम्मत्तं णाणचरणवीरियतवाणं।736। दंसणभट्टो भट्टो दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं। सिज्झंति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिज्झंति।738। दंसण भट्टो भट्टो ण हु भट्टो होइ चरणभट्टो हु। दंसणममुयत्तस्स हु परिवडणं णत्थि संसारे।739।</span> =<span class="HindiText">1. नगर में जिस प्रकार द्वार प्रधान है, मुख में जिस प्रकार चक्षु प्रधान है तथा वृक्ष में जिस प्रकार मूल प्रधान है, उसी प्रकार ज्ञान, चारित्र, वीर्य व तप इन चार आराधनाओं में एक सम्यक्त्व ही प्रधान है।736। 2. दर्शनभ्रष्ट ही वास्तव में भ्रष्ट है क्योंकि दर्शनभ्रष्ट को निर्वाण प्राप्त नहीं होता। चारित्र भ्रष्ट को मोक्ष हो जाती है, पर दर्शनभ्रष्ट को नहीं होती।738। (द.पा./मू./3) (बा.अ./19) 3. दर्शनभ्रष्ट ही भ्रष्ट है, चारित्रभ्रष्ट वास्तव में भ्रष्ट नहीं होता, क्योंकि, जिसका सम्यक्त्व नहीं छूटा है ऐसा चारित्रभ्रष्ट संसार में पतन नहीं करता।739।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">मो.पा./मू./ | <p><span class="PrakritText">मो.पा./मू./39 दंसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं। दंसणविहीणपुरिसो न लहइ तं इच्छियं लाहं।39।</span> =<span class="HindiText">दर्शन शुद्ध ही वास्तव में शुद्ध है, क्योंकि दर्शनशुद्ध ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं। दर्शन विहीन पुरुष इष्टलाभ अर्थात् मोक्ष को प्राप्त नहीं करते। (र.सा./90)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">मो.पा./मू./ | <p><span class="PrakritText">मो.पा./मू./88 किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले। सिज्झिहहिं जे वि भविया जातंणइ सम्ममाहप्पं।88।</span> =<span class="HindiText">बहुत कहने से क्या, जो प्रधान पुरुष अतीतकाल में सिद्ध हुए हैं या आगे सिद्ध होंगे वह सब सम्यक्त्व का माहात्म्य जानो। (बा.अ./90)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">बो.पा./मू./ | <p><span class="PrakritText">बो.पा./मू./21 जह ण वि लहदि हु लक्खं रहिओ कंडस्स वेज्झय विहीणो। तह ण वि लक्खदि लक्खं अण्णाणी मोक्खमग्गस्स।21।</span> | ||
<span class="HindiText">जैसे बाण रहित बेधक धनुष के अभ्यास से रहित होता हुआ निशाने को प्राप्त नहीं करता है, वैसे ही अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मोक्षमार्ग के लक्ष्यभूत परमात्म तत्त्व को प्राप्त नहीं करता है।</span></p> | <span class="HindiText">जैसे बाण रहित बेधक धनुष के अभ्यास से रहित होता हुआ निशाने को प्राप्त नहीं करता है, वैसे ही अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मोक्षमार्ग के लक्ष्यभूत परमात्म तत्त्व को प्राप्त नहीं करता है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">भा.पा./मू./ | <p><span class="PrakritText">भा.पा./मू./144 जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं। अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावय दुविहधम्माणं।144।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार ताराओं में चन्द्र और पशुओं में सिंह प्रधान है, उसी प्रकार मुनि व श्रावक दोनों प्रकार के धर्मों में सम्यक्त्व प्रधान है।144।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">र.सा./ | <p><span class="PrakritText">र.सा./47 सम्मविणा सण्णाणं सच्चारित्तं ण होइ णियमेण। तो रयणत्तयमज्झे सम्मगुणक्किट्ठमिदि जिणुद्दिट्ठं।47।</span> =<span class="HindiText">सम्यक्त्व के बिना नियम से सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र नहीं होते हैं। रत्नत्रय में एक यह सम्यक्त्व गुण ही प्रशंसनीय है।47। (र.क.श्रा./31-32)</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p><span class="SanskritText">स.सि./1/1/7/2 अल्पाक्षरादभ्यर्हितं पूर्वं निपतति। कथमभ्यर्हितत्वं ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतुत्वात् । | ||
</span>=<span class="HindiText">अल्पाक्षरवाले शब्द से पूज्य शब्द पहले रखा जाता है, इसलिए सूत्र में पहले ज्ञान शब्द को न रखकर दर्शन शब्द को रखा है। <strong>प्रश्न</strong> - सम्यग्दर्शन पूज्य क्यों है ? <strong>उत्तर</strong> - क्योंकि सम्यग्दर्शन से ज्ञान मे समीचीनता आती है। (रा.वा./ | </span>=<span class="HindiText">अल्पाक्षरवाले शब्द से पूज्य शब्द पहले रखा जाता है, इसलिए सूत्र में पहले ज्ञान शब्द को न रखकर दर्शन शब्द को रखा है। <strong>प्रश्न</strong> - सम्यग्दर्शन पूज्य क्यों है ? <strong>उत्तर</strong> - क्योंकि सम्यग्दर्शन से ज्ञान मे समीचीनता आती है। (रा.वा./1/1/31/9/27) (और भी देखें [[ ज्ञान#III.2 | ज्ञान - III.2]])</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">प्र.सा./त.प्र./ | <p><span class="SanskritText">प्र.सा./त.प्र./238-239 आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्येऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् ।238। अत आत्मज्ञानशून्यमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यमप्यकिंचित्करमेव। | ||
</span>=<span class="HindiText">आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और सयतत्व की युगपत्ता होने पर भी आत्मज्ञान को ही मोक्षमार्ग का साधकतम सम्मत | </span>=<span class="HindiText">आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और सयतत्व की युगपत्ता होने पर भी आत्मज्ञान को ही मोक्षमार्ग का साधकतम सम्मत करना।238। आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान हेयतत्त्व की युगपत्ता भी अकिंचित्कर ही है।239।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ज्ञा./ | <p><span class="SanskritText">ज्ञा./6/54 चरणज्ञानयोर्बीजं यमप्रशमजीवितम् । तप:श्रुताद्यधिष्ठानं सद्भि: सद्दर्शनं मतम् ।54।</span> =<span class="HindiText">सत्पुरुषों ने सम्यग्दर्शन को चारित्र व ज्ञान का बीज, यम व प्रशम का जीवन तथा तप व स्वाध्याय का आश्रय माना है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>नोट</strong> - [सम्यग्दर्शन विहीन धर्म, चारित्र, ज्ञान, तप आदि सब निरर्थक व अकिंचित्कर हैं। और सम्यक्त्व सहित ही वे सब यथार्थता को प्राप्त होते हैं।] ( देखें | <p class="HindiText"><strong>नोट</strong> - [सम्यग्दर्शन विहीन धर्म, चारित्र, ज्ञान, तप आदि सब निरर्थक व अकिंचित्कर हैं। और सम्यक्त्व सहित ही वे सब यथार्थता को प्राप्त होते हैं।] (देखें [[ चारित्र#3 | चारित्र - 3]]); (देखें [[ ज्ञान#III.2 | ज्ञान - III.2]] तथा IV/1); (देखें [[ तप#3 | तप - 3]])।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>2. सम्यग्दर्शन ही सार, सुखनिधान व मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है इत्यादि महिमा</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">भ.आ./मू./ | <p><span class="PrakritText">भ.आ./मू./735 मा कासि तं पमादं सम्मत्ते सव्वदु:खणासयरे।</span> =<span class="HindiText">यह सम्यग्दर्शन सर्व दु:खों का नाश करने वाला है, अत: इसमें प्रमादी मत बनो।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">चा.पा./मू./ | <p><span class="PrakritText">चा.पा./मू./20 संखिज्जमसंखिज्जगुणं च संसारिमेरुमत्ताणं। सम्मत्तमणुचरंता करंति दुक्खक्खयं धीरा।20।</span> =<span class="HindiText">सम्यक्त्व को आचरण करने वाले धीर पुरुष संख्यात व असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा करते हैं तथा संसारी जीवों की मर्यादा रूप जो सर्व दुख उनका नाश करते हैं।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">द.पा./मू./ | <p><span class="PrakritText">द.पा./मू./21 एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण। सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढममोक्खस्स।21।</span> =<span class="HindiText">जिनप्रणीत सम्यग्दर्शन को अन्तरंग भावों से धारण करो, क्योंकि, यह सर्व गुणों में और रत्नत्रय में सार है तथा मोक्षमन्दिर की प्रथम सीढ़ी है।21।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">र.सा./ | <p><span class="PrakritText">र.सा./54,158 कामदुहिं कप्पतरुं चिंतारयणं रसायणं य समं। लद्धो भंजइ सौक्खं जहच्छियं जाण तह सम्मं।54। सम्मद्दसणसुद्धं जावद लभदे हि ताव सुही। सम्मद्दंसणसुद्धं जाव ण लभते हि ताव दुही।158।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार भाग्यशाली मनुष्य कामधेनु कल्पवृक्ष, चिन्तामणिरत्न और रसायन को प्राप्त कर मनोवांछित उत्तम सुख को प्राप्त होता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन से भव्य जीवों को सर्व प्रकार के सर्वोत्कृष्ट सुख व समस्त प्रकार के भोगोपभोग स्वयमेव प्राप्त होते हैं।54। सम्यग्दर्शन को यह जीव जब प्राप्त हो जाता है तब परम सुखी हो जाता है और जब तक उसे प्राप्त नहीं करता तब तक दु:ख बना रहता है।158।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">र.क.श्रा./ | <p><span class="SanskritText">र.क.श्रा./34,36 न सम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि। श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ।34। ओजस्तेजोविद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथा:। महाकुलामहार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूता:।36।</span> =<span class="HindiText">तीन काल और तीन जगत् में जीवों का सम्यक्त्व के समान कुछ भी कल्याणकारी नहीं है, मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी नहीं है।34। शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव कान्ति, प्रताप, विद्या, वीर्य, यशोवृद्धि, विजय, विभववान, उच्चकुली, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के साधक तथा मनुष्यों में शिरोमणि होते हैं।36।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">र.क.अ./ | <p><span class="SanskritText">र.क.अ./28 सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसम् ।28।</span> =<span class="HindiText">गणधरादि देव सम्यग्दर्शन सहित चाण्डाल को भी भस्म से ढकी हुई चिनगारी के समान देव कहते हैं।28।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.वि./ | <p><span class="SanskritText">पं.वि./1/77 जयति सुखनिधानं मोक्षवृक्षैकबीजं, सकलमलविमुक्तं दर्शनं यद्विना स्यात् । मतिरपि कुमतिर्नु दुश्चरित्रं चरित्रम् भवति मनुजजन्म प्राप्तमप्राप्तमेव।77।</span> =<span class="HindiText">जिस सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान तो मिथ्याज्ञान और चारित्र मिथ्याचारित्र हुआ करता है, वह सुख का स्थानभूत, मोक्षरूपी वृक्ष का अद्वितीय बीजस्वरूप तथा समस्त दोषों से रहित सम्यग्दर्शन जयवन्त होता है। उसके बिना प्राप्त हुआ भी मनुष्य जन्म अप्राप्त हुए के समान है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ज्ञा./ | <p><span class="SanskritText">ज्ञा./6/59 अतुलसुखनिधानं सर्वकल्याणबीजं, जननजलधिपोतं भव्यसत्त्वैकपात्रम् । दुरिततरुकुठारं पुण्यतीर्थप्रधानं, पिबत जितविपक्षं दर्शनाख्यं सुधाम्बम् ।59। | ||
</span>=<span class="HindiText">हे भव्यो ! तुम सम्यग्दर्शनरूपी अमृत का पान करो, क्योंकि, यह अतुल सुखनिधान है, समस्त कल्याणों का बीज है, संसारसागर तरने को जहाज है, भव्यजीव ही इसका पात्र है, पापवृक्ष को काटने के लिए कुठार है, पुण्यतीर्थों में प्रधान है तथा विपक्षी जो मिथ्यादर्शन उसको जीतने वाला है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">हे भव्यो ! तुम सम्यग्दर्शनरूपी अमृत का पान करो, क्योंकि, यह अतुल सुखनिधान है, समस्त कल्याणों का बीज है, संसारसागर तरने को जहाज है, भव्यजीव ही इसका पात्र है, पापवृक्ष को काटने के लिए कुठार है, पुण्यतीर्थों में प्रधान है तथा विपक्षी जो मिथ्यादर्शन उसको जीतने वाला है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ज्ञा./ | <p><span class="SanskritText">ज्ञा./6/53 सद्दर्शनमहारत्नं विश्वलोकैकभूषणम् । मुक्तिपर्यन्तकल्याणदानदक्षं प्रकीर्तितम् ।53।</span> =<span class="HindiText">यह सम्यग्दर्शन महारत्न समस्त लोक का आभूषण है और मोक्ष होने पर्यन्त आत्मा को कल्याण देने में चतुर है।53।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">आ.सा./ | <p><span class="SanskritText">आ.सा./2/68 मान्य: सद्दर्शनी ज्ञानी हीनोऽपि अपरसद्गुणै:। वरं रत्नमनिष्पन्नं, शोभं किं नार्ध्यमर्हति।68। | ||
</span>=<span class="HindiText">अन्य गुणों से हीन भी सम्यग्दृष्टि सर्वमान्य है। क्या बिना शान पर चढ़ा रत्न शोभा को प्राप्त नहीं होता है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">अन्य गुणों से हीन भी सम्यग्दृष्टि सर्वमान्य है। क्या बिना शान पर चढ़ा रत्न शोभा को प्राप्त नहीं होता है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">का.अ./मू./ | <p><span class="PrakritText">का.अ./मू./325-326 रयणाण महारयणं सव्वं जोयाण उत्तम जोयं। रिद्धीण महारिद्धी सम्मत्तं सव्वसिद्धिपरं।325। सम्मत्तगुणपहाणो देविंद-णरिंद-वंदिओ होदि। चत्त वओ वि य पावदि सग्गसुहं उत्तमं विविहं।326।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन सब रत्नों में महारत्न है, सब योगों में उत्तम योग है, सब ऋद्धियों में महा-ऋद्धि है। अधिक क्या, सम्यक्त्व सब सिद्धियों का करने वाला है।325। सम्यक्त्वगुण से जीव देवों के इन्द्रों से तथा चक्रवर्ती आदि से वन्दनीय होता है, और व्रत रहित होता हुआ भी नाना प्रकार के उत्तम स्वर्गसुख को पाता है।326।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">अ.ग.श्रा./ | <p><span class="SanskritText">अ.ग.श्रा./2/83 अपारसंसारसमुद्रतारकं, वशीकृतं येन सुदर्शनं परम् । वशीकृतास्तेन जनेन संपद:, परैरलभ्या विपदामनास्पदम् ।83।</span> =<span class="HindiText">अपार संसारसमुद्र तारने वाला और जिसमें विपदाओं को स्थान नहीं, ऐसा यह सम्यग्दर्शन जिसने अपने वश किया है उस पुरुष ने कोई अलभ्य सम्पदा ही वश करी है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">सा.ध./ | <p><span class="SanskritText">सा.ध./1/4 नरत्वेऽपि पशूयन्ते मिथ्यात्वग्रस्तचेतस:। पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यक्तचेतस:।4।</span> =<span class="HindiText">मिथ्यात्व से ग्रस्त चित्तवाला मनुष्य भी पशु के समान है। और सम्यक्त्व से व्यक्त चित्तवाला पशु भी मनुष्य के समान है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. सम्यग्दर्शन की प्रधानता में हेतु</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">द.पा./मू./ | <p><span class="PrakritText">द.पा./मू./15-16 सम्मत्तादो णाणं णाणादो सव्वभावउवलद्धी। उवलद्धपयत्थे पुण सेयासेयं वियाणेदि।15। सेयासेयविदण्हू उद्धुददुस्सील सीलवंतो वि। सीलफलेणब्भुदयं तत्तो पुण लहइ णिव्वाणं।16। | ||
</span>=<span class="HindiText">सम्यक्त्व से तो ज्ञान सम्यक् होता है। (और भी देखें | </span>=<span class="HindiText">सम्यक्त्व से तो ज्ञान सम्यक् होता है। (और भी देखें [[ शीर्षक सं#1 | शीर्षक सं - 1 ]]में स.सि./1/1/7/2)। उन दोनों से सर्व पदार्थों या तत्त्वों की उपलब्धि होती है। पदार्थों की उपलब्धि होने पर श्रेय व अश्रेय का ज्ञान होता है।15। श्रेय व अश्रेय को जानकर वह पुरुष मिथ्यात्व को उड़ाकर तथा सम्यक् स्वभावयुक्त होकर अभ्युदय व तीर्थंकर आदि पदों को प्राप्त होता हुआ पीछे निर्वाण प्राप्त करता है।16।</span></p> | ||
<p class="HindiText">देखें | <p class="HindiText">देखें [[ शीर्षक सं#1 | शीर्षक सं - 1 ]](सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र का बीज है)।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>4. सम्यग्दर्शन के पश्चात् भव धारण की सीमा</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">भ.आ./मू./गा. लद्धूण य सम्मत्तं मुहुत्तकालमवि जे परिवडंति। तेसिमणंताणंता ण भवदि | <p><span class="PrakritText">भ.आ./मू./गा. लद्धूण य सम्मत्तं मुहुत्तकालमवि जे परिवडंति। तेसिमणंताणंता ण भवदि संसारवासद्धा।53।</span> =<span class="HindiText">जो जीव मुहूर्तकाल पर्यन्त भी सम्यग्दर्शन को प्राप्त करके अनन्तर छोड़ देते हैं, वे भी इस संसार में अनन्तानन्त कालपर्यन्त नहीं रहते।[अर्थात् उनको अधिक से अधिक अर्द्धपुद्गल परिवर्तन कालमात्र ही संसार शेष रहता है इससे अधिक नहीं - देखें [[ काल#6 | काल - 6 ]]तथा अन्तर/4]</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">क.पां./सुत्त/ | <p><span class="PrakritText">क.पां./सुत्त/11/गा.113/641 खवणाए पट्ठवगो जम्मि भवे णियमदो तदी अण्णे। णाधिच्छदि तिण्णि भवे दंसणमोहम्मि खीणम्मि।203। | ||
</span>=<span class="HindiText">जो मनुष्य जिस भव में दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापन करता है, वह दर्शनमोह के क्षीण होने पर तीनभव में नियम से मुक्त हो जाता | </span>=<span class="HindiText">जो मनुष्य जिस भव में दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापन करता है, वह दर्शनमोह के क्षीण होने पर तीनभव में नियम से मुक्त हो जाता है।203। (पं.सं./प्रा./1/203)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p><span class="SanskritText">रा.वा./4/25/3/244/11 अप्रतिपतिसम्यग्दर्शनानां परीतविषय: सप्ताष्टानि भवग्रहणानि उत्कर्षेण वर्तन्ते, जघन्येन द्वित्रीणि अनुबन्ध्योच्छिद्यन्ते। प्रतिपतितसम्यक्त्वानां तु भाज्यम् ।</span> =<span class="HindiText">जो सम्यग्दर्शन से पतित नहीं होते उनको उत्कष्टत: सात या आठ भवों का ग्रहण होता है और जघन्य से दो-तीन भवों का। इतने भवों के पश्चात् उनके संसार का उच्छेद हो जाता है। जो सम्यक्त्व से च्युत हो गये हैं उनके लिए कोई नियम नहीं है। (प.पु./14/224)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">क्ष.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">क्ष.सा./मू./165/218 दंसणमोहे खविदे सिज्झदि तत्थेव तदियतुरियभवे। णादिक्कति तुरियभवे ण विणस्सति सेससम्मे वा। | ||
</span>=<span class="HindiText">दर्शनमोह का क्षय हो जाने पर उस ही भव में या तीसरे भव में अथवा मनुष्य तिर्यंच की पूर्व में आयु बाँध ली हो तो भोगभूमि की अपेक्षा चौथे भव में सिद्धि प्राप्त करते हैं। चौथे भव को उल्लंघन नहीं करते। औपशमिक व क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की भाँति यह नाश को प्राप्त नहीं | </span>=<span class="HindiText">दर्शनमोह का क्षय हो जाने पर उस ही भव में या तीसरे भव में अथवा मनुष्य तिर्यंच की पूर्व में आयु बाँध ली हो तो भोगभूमि की अपेक्षा चौथे भव में सिद्धि प्राप्त करते हैं। चौथे भव को उल्लंघन नहीं करते। औपशमिक व क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की भाँति यह नाश को प्राप्त नहीं होता।165। (गो.जी./जी.प्र./646/1097/2 पर उद्धृत)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">वसु.श्रा./ | <p><span class="PrakritText">वसु.श्रा./269 अण्णे उ सुदेवत्तं सुमाणुसत्तं पुणो पुणो लहिऊण। सत्तट्ठभवेहि तओ करंति कम्मक्खयं णियमा।269। | ||
</span>=<span class="HindiText">कितने ही जीव सुदेवत्व और सुमानुषत्व को पुन: पुन: प्राप्त करके सात-आठ भवों के पश्चात् नियम से कर्मक्षय करते | </span>=<span class="HindiText">कितने ही जीव सुदेवत्व और सुमानुषत्व को पुन: पुन: प्राप्त करके सात-आठ भवों के पश्चात् नियम से कर्मक्षय करते हैं।269।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>II निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>II निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong> 1. निश्चय व्यवहार सम्यक्त्व लक्षण निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong> 1. सम्यग्दर्शन के दो भेद</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">र.सा./ | <p><span class="PrakritText">र.सा./4 सम्मत्तरयणसारं मोक्खमहारुक्खमूलमिदि भणियं। तं जाणिज्जइ णिच्छयववहारसरूवदो भेदं।4।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन समस्त रत्नों में सारभूत रत्न है और मोक्षरूपी वृक्ष का मूल है, इसके निश्चय व व्यवहार ऐसे दो भेद जानने चाहिए।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>2. व्यवहार सम्यग्दर्शन के लक्षण</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. देव शास्त्र गुरु व धर्म की श्रद्धा</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">मो.पा./मू./ | <p><span class="PrakritText">मो.पा./मू./90 हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे। णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं।90। | ||
</span>=<span class="HindiText">हिंसादि रहित धर्म, अठारह दोष रहित देव, निर्ग्रन्थ प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग व गुरु इनमें श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन | </span>=<span class="HindiText">हिंसादि रहित धर्म, अठारह दोष रहित देव, निर्ग्रन्थ प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग व गुरु इनमें श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है।90।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">र.क.श्रा./ | <p><span class="SanskritText">र.क.श्रा./4 श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्यमयम् ।4।</span> =<span class="HindiText">सत्यार्थ देव, शास्त्र और गुरु इन तीनों का आठ अंग सहित, तीन मूढता और आठ मदरहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहा जाता है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">का.अ./मू./ | <p><span class="PrakritText">का.अ./मू./317 णिज्जियदोसं देवं सव्वजिणाणं दयावरं धम्मं। वज्जियगंथं च गुरुं जो मण्णदि सो हु सद्दिट्ठी।317।</span> = | ||
<span class="HindiText">जो वीतराग अर्हन्त को देव, दया को उत्कृष्ट धर्म और निर्ग्रन्थ को गुरु मानता है वही सम्यग्दृष्टि है।</span></p> | <span class="HindiText">जो वीतराग अर्हन्त को देव, दया को उत्कृष्ट धर्म और निर्ग्रन्थ को गुरु मानता है वही सम्यग्दृष्टि है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>2. आप्त आगम व तत्त्वों की श्रद्धा</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">नि.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">नि.सा./मू./5 अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं।</span> =<span class="HindiText">आप्त आगम और तत्त्वों की श्रद्धा से सम्यक्त्व होता है। [इनका सम्यक् श्रद्धान व्यवहार सम्यक्त्व है - (इसी गाथा की ता.वृ.टीका); (ध.1/1,1,4/151/4); (वसु.श्रा./6)]</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. तत्त्वार्थ या पदार्थों आदि का श्रद्धान</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">त.सू./ | <p><span class="SanskritText">त.सू./1/2,3 तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।2। जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।3।</span> =<span class="HindiText">अपने-अपने स्वभाव में स्थित तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। जीव-अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा व मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। (द.पा./मू./20); (मू.आ./203); (ध.1/1,1,4/151/2); (द्र.सं./मू./41); (वसु.श्रा./10)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">पं.का./मू./ | <p><span class="PrakritText">पं.का./मू./107 सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं</span> | ||
<span class="SanskritText">[भावा: खलु कालकलितपञ्चास्तिकायविकल्परूपा नव पदार्था:। (त.प्र.टीका)] | <span class="SanskritText">[भावा: खलु कालकलितपञ्चास्तिकायविकल्परूपा नव पदार्था:। (त.प्र.टीका)] | ||
</span>=<span class="HindiText">काल सहित पंचास्तिकाय के भेदरूप नव पदार्थ वास्तव में भाव हैं। उन भावों का श्रद्धान सो सम्यक्त्व है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">काल सहित पंचास्तिकाय के भेदरूप नव पदार्थ वास्तव में भाव हैं। उन भावों का श्रद्धान सो सम्यक्त्व है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">द.पा./मू./ | <p><span class="PrakritText">द.पा./मू./19 छह दव्व णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा। सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेयव्वो।19।</span> =<span class="HindiText">छह द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकाय, सप्त तत्त्व, ये जिनवचन में कहे गये हैं। इनके स्वरूप का जो श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./ | <p><span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./1/159 छप्पंचणविहाणं अत्थाणं जिणवरोवइट्ठाणं। आणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत्तं।</span> =<span class="HindiText">जिनवरों के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, और नौ पदार्थों का आज्ञा या अधिगम से श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। (ध.1/1,1,4/गा.96/15); (ध.1/1,1,144/गा.212/395); (गो.जी./मू./561/1006)</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>4. पदार्थों का विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.का./ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">पं.का./ता.वृ./107/169/24 मिथ्यात्वोदयजनितविपरीताभिनिवेशरहितं श्रद्धानम् । केषां संबन्धि। पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यविकल्परूपं जीवाजीवद्रव्यं जीवपुद्गलसंयोगपरिणामोत्पन्नास्रवादिपदार्थसप्तकं चेत्युक्तलक्षणानां भावानां जीवादिनवपदार्थानाम् । इदं तु नवपदार्थविषयभूतं व्यवहारसम्यक्त्वम् ।</span> =<span class="HindiText">मिथ्यात्वोदयजनितविपरीत अभिनिवेश रहित, पंचास्तिकाय, षट्द्रव्य, जीवादि सात पदार्थ अथवा जीवादि नव पदार्थ, इनका जो श्रद्धान सो व्यवहार सम्यक्त्व है। (पु.सि.उ./22); (स.सा./वृ./155/220/9)</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>5. यथावस्थित पदार्थों का श्रद्धान</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">प.प्र./मू./ | <p><span class="PrakritText">प.प्र./मू./2/15 दव्वइँ जाणइ जह ठियइँ तह जगि मण्णइ जो जि। अप्पहं केरउ भावडउ अविचलु दंसणु सो जि।15।</span> | ||
<span class="HindiText">जो द्रव्यों को जैसा उनका स्वरूप है वैसा जाने और उसी तरह इस जगत् में श्रद्धान करे, वही आत्मा का चलमलिनअवगाढ दोष रहित निश्चल भाव है। वही आत्मभाव सम्यग्दर्शन है। (और भी | <span class="HindiText">जो द्रव्यों को जैसा उनका स्वरूप है वैसा जाने और उसी तरह इस जगत् में श्रद्धान करे, वही आत्मा का चलमलिनअवगाढ दोष रहित निश्चल भाव है। वही आत्मभाव सम्यग्दर्शन है। (और भी देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.1.4 | सम्यग्दर्शन - I.1.4]]); (देखें [[ तत्त्व#1.1 | तत्त्व - 1.1]])।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>6. तत्त्वों में हेय व उपादेय बुद्धि</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">सू.पा./मू./ | <p><span class="PrakritText">सू.पा./मू./5 सुत्तत्थं जिणभणियं जीवाजीवादिबहुविहं अत्थं। हेयाहेयं च तहा जो जाणइ सो हु सद्दिट्ठी।5।</span> =<span class="HindiText">सूत्र में जिनेन्द्र भगवान् ने जीव अजीव आदि बहुत प्रकार के पदार्थ कहे हैं। उनको जो हेय और अहेयरूप से जानता है (अर्थात् जीव संवर निर्जरा व मोक्ष अहेय हैं और शेष तीन हेय। इस प्रकार जो जानता है) वह सम्यग्दृष्टि है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>7. तत्त्व रुचि</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">मो.पा./मू./ | <p><span class="PrakritText">मो.पा./मू./38 तच्चरुई सम्मत्तं।</span> =<span class="HindiText">तत्त्वरुचि सम्यग्दर्शन है। (ध.1/1,1,4/151/6)</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>3. निश्चय सम्यग्दर्शन के लक्षण</strong></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>1. उपरोक्त पदार्थों का शुद्धात्मा से भिन्न दर्शन</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">प्र.सा./त.प्र./ | <p><span class="SanskritText">प्र.सा./त.प्र./242 ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण</span> =<span class="HindiText">ज्ञेय और ज्ञाता इन दोनों की यथारूप प्रतीति सम्यग्दर्शन का लक्षण है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सा./आ./ | <p><span class="SanskritText">स.सा./आ./314-315 स्वपरयोर्विभागदर्शनेन दर्शको भवति।</span> =<span class="HindiText">स्व व पर के विभाग दर्शन से दर्शक होता है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सा./ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">स.सा./ता.वृ./155/220/11 अथवा तेषामेव भूतार्थेनाधिगतानां पदार्थानां शुद्धात्मन: सकाशात् भिन्नत्वेन सम्यगवलोकनं निश्चय सम्यक्त्वम् ।</span> =<span class="HindiText">अथवा उन भूतार्थरूप से जाने गये जीवादि नौ पदार्थों का शुद्धात्मा से भिन्न करके सम्यक् अवलोकन करना निश्चय सम्यक्त्व है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. शुद्धात्मा की रुचि</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सा.ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">स.सा.ता.वृ./38/72/9 शुद्धात्मैवोपादेय इति श्रद्धानं सम्यक्त्वम् ।</span> =<span class="HindiText">’शुद्धात्मा ही उपादेय है’, ऐसा श्रद्धान सम्यक्त्व है। (द्र.सं./टी./14/42/4)</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सा./ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">स.सा./ता.वृ./2/8/10 विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे निजपरमात्मनि यद्रुचिरूपं सम्यग्दर्शनम् ।</span> =<span class="HindiText">विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावरूप निज परमात्मा में रुचिरूप सम्यग्दर्शन है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.का./ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">पं.का./ता.वृ./107/170/9 शुद्धजीवास्तिकायरुचिरूपस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य...।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध जीवास्तिकाय की रुचि निश्चयसम्यक्त्व है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ मोहनीय#2.1 | मोहनीय - 2.1 ]]में ध./6 (आप्त या आत्मा में रुचि या श्रद्धा दर्शन है।)</p> | ||
<p><strong> | <p><strong>3. अतीन्द्रिय सुख की रुचि</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">प्र.सा./ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">प्र.सा./ता.वृ./5/6/19 रागादिभ्यो भिन्नोऽयं स्वात्मोत्थसुखस्वभाव: परमात्मेति भेदज्ञानं, तथा स एव सर्वप्रकारोपादेय इति रुचिरूपं सम्यक्त्वम् ।</span> =<span class="HindiText">रागादि से भिन्न यह जो स्वात्मा से उत्पन्न सुखरूप स्वभाव है वही परमात्मतत्त्व है। वही परमात्म तत्त्व सर्व प्रकार उपादेय है, ऐसी रुचि सम्यक्त्व है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./ | <p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./41/178/2 शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयभावनोत्पन्नपरमाह्लादैकरूपसुखामृतरसास्वादनमेवोपादेयमिन्द्रियसुखादिके च हेयमिति रुचिरूपं वीतरागचारित्राविनाभूतं वीतरागसम्यक्त्वाभिधानं निश्चयसम्यक्त्वं च ज्ञातव्यमिति।</span> =<span class="HindiText">शुद्धोपयोगरूप निश्चय रत्नत्रय की भावना से उत्पन्न परम आह्लादरूप सुखामृत रस का आस्वादन ही उपादेय है, इन्द्रियजन्य सुख आदिक हेय हैं, ऐसी रुचि तथा जो वीतराग चारित्र के बिना नहीं होता ऐसा जो वीतराग सम्यक्त्व वह ही निश्चय सम्यक्त्व है। (द्र.सं./टी./22/67/1); (द्र.सं./टी./45/194/10); (प.प्र./2/17/132/7)।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>4. वीतराग सुखस्वभाव ही मैं हूँ, ऐसा निश्चय</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./ | <p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./40/163/10 रागादिविकल्पोपाधिरहितचिच्चमत्कारभावोत्पन्नमधुररसास्वादसुखोऽहमिति निश्चयरूपं सम्यग्दर्शनम् ।</span> =<span class="HindiText">‘रागादि विकल्प रहित चित् चमत्कार भावना से उत्पन्न मधुर रस के आस्वादरूप सुख का धारक मैं हूँ’, इस प्रकार निश्चय रूप सम्यग्दर्शन है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>5. शुद्धात्मा की उपलब्धि आदि</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">स.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">स.सा./मू./144 सम्मद्दंसणाणं एसो लहदित्ति णवरि ववदेसं। सव्वणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो।144।</span> =<span class="HindiText">जो सर्व नय पक्षों से रहित कहा गया है वह समयसार है। इसी समयसार की सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान संज्ञा है।144। (और भी देखें [[ मोक्षमार्ग#3 | मोक्षमार्ग - 3]])।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./215 न स्यादात्मोपलब्धिर्वा सम्यग्दर्शनलक्षणम् । शुद्धा चेदस्ति सम्यक्त्वं न चेच्छुद्धा न सा सुदृक् । | ||
</span>=<span class="HindiText">केवल आत्मा की उपलब्धि सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं है। यदि वह शुद्ध है तो उसका लक्षण हो सकती है और यदि अशुद्ध है तो नहीं।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">केवल आत्मा की उपलब्धि सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं है। यदि वह शुद्ध है तो उसका लक्षण हो सकती है और यदि अशुद्ध है तो नहीं।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>4. लक्षण में तत्त्व व अर्थ दोनों शब्द क्यों</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p><span class="SanskritText">स.सि./1/2/9/7 अर्थश्रद्धानमिति चेत्सर्वार्थप्रसङ्गा:। तत्त्वश्रद्धानमिति चेद्भावमात्रप्रसङ्गे ‘सत्ताद्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादि तत्त्वम्’ इति कैश्चित्कल्प्यत इति। तत्त्वमेकत्वमिति वा सर्वैक्यग्रहणप्रसङ्ग:। ‘पुरुष एवेदं सर्वम्’ इत्यादि कैश्चित्कल्प्यत इति। एवं सति दृष्टेष्टविरोध:। तस्मादव्यभिचारार्थमुभयोरुपादानम् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - सूत्र में ‘तत्त्वार्थश्रद्धान’ के स्थान में ‘अर्थश्रद्धानम्’ इतना कहना पर्याप्त है? <strong>उत्तर</strong> - इससे अर्थ शब्द के धन प्रयोजन अभिधेय आदि जितने भी अर्थ हैं उन सबके ग्रहण का प्रसंग आता है। <strong>प्रश्न</strong> - तब ‘तत्त्वश्रद्धानम्’ केवल इतना ही कहना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong> - इससे केवल भाव मात्र के ग्रहण का प्रसंग प्राप्त होता है। कितने ही लोग (वैशेषिक) तत्त्व पद से सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व और कर्मत्व इत्यादि का ग्रहण करते हैं। केवल ‘तत्त्वश्रद्धानम्’ ऐसा कहने पर इन सबका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। अथवा तत्त्व शब्द एकत्ववाची है, इसलिए केवल ‘तत्त्व’ शब्द का ग्रहण करने से ‘सब एक है’ इस प्रकार के स्वीकार का प्रसंग आता है। ‘यह सब दृश्य व अदृश्यजगत्पुरुषस्वरूप ही है’ ऐसा किन्हीं ने माना है। इसलिए भी केवल ‘तत्त्वश्रद्धान’ कहना युक्त नहीं। क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष व अनुमान दोनों से विरोध आता है। अत: इन सब दोषों के दूर करने के लिए सूत्र में ‘तत्त्व’ और ‘अर्थ’ इन दोनों पदों का ग्रहण किया है। (रा.वा./1/2/17-25/20-21); (श्लो.वा./2/1/2/3-4/16/4)।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>5. व्यवहार लक्षणों का समन्वय</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ध. | <p><span class="SanskritText">ध.1/1,1,4/151/2 प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सम्यक्त्वम् । सत्येव असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्याभाव:स्यादिति चेत्सत्यमेतत् शुद्धनये समाश्रीयमाणे। अथवा तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । अस्य गमनिकोच्यते, आप्तागमपदार्थस्तत्त्वार्थस्तेषु श्रद्धानमनुरक्तता सम्यग्दर्शनमिति लक्ष्यनिर्देश:। कथं पौरस्त्येन लक्षणेनास्य न विरोधश्चेन्नैष दोष:, शुद्धाशुद्धसमाश्रयणात् । अथवा तत्त्वरुचि: सम्यक्त्वम् अशुद्धतरनयसमाश्रयणात् ।</span> =<span class="HindiText">1. प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य की प्रकटता ही जिसका लक्षण है उसको सम्यक्त्व कहते हैं। (देखें [[ सराग सम्यग्दर्शन का लक्षण ]])। <strong>प्रश्न</strong> - इस प्रकार सम्यक्त्व का लक्षण मान लेने पर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान का अभाव हो जायेगा? <strong>उत्तर</strong> - यह कहना शुद्धनिश्चयनय के आश्रय करने पर ही सत्य कहा जा सकता है। 2. अथवा, तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि आप्त, आगम और पदार्थ को तत्त्वार्थ कहते हैं। और इनके विषय में श्रद्धान अर्थात् अनुरक्ति करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं। यहाँ पर सम्यग्दर्शन लक्ष्य है, तथा आप्त आगम और पदार्थ का श्रद्धान लक्षण है। <strong>प्रश्न</strong> - पहिले कहे हुए (प्रशमादि की अभिव्यक्तिरूप) सम्यक्त्व के लक्षण के साथ इस लक्षण का विरोध क्यों न माना जाय? <strong>उत्तर</strong> - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि शुद्ध और अशुद्ध नय की अपेक्षा से ये दोनों लक्षण कहे गये हैं। अर्थात् पूर्वोक्त लक्षण शुद्ध नय की अपेक्षा से है और यह तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप लक्षण अशुद्ध नय की अपेक्षा से है। 3. अथवा तत्त्वरुचि को सम्यक्त्व कहते हैं। यह लक्षण अशुद्धतर नय की अपेक्षा जानना चाहिए।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>6. निश्चय लक्षणों का समन्वय</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">प.प्र./टी./ | <p><span class="SanskritText">प.प्र./टी./2/17/132/8 अत्राह प्रभाकरभट्ट:। निजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वं भवतीति बहुधा व्याख्यातं पूर्वं भवद्भि:, इदानीं पुन: वीतरागचारित्राविनाभूतं निश्चयसम्यक्त्वं व्याख्यातमिति पूर्वापरविरोध: कस्मादिति चेत् निजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपम् निश्चयसम्यक्त्वं गृहस्थावस्थायां तीर्थंकरपरमदेवभरतसगररामपाण्डवादीनां विद्यते, न च तेषां वीतरागचारित्रमस्तीति परस्परविरोध: अस्ति चेत्तर्हि तेषामसंयतत्त्वं कथमिति पूर्वपक्ष:। तत्र परिहारमाह। तेषां शुद्धात्मोपादेयभावनारूपम् निश्चयसम्यक्त्वं विद्यते परं किंतु चारित्रमोहोदयेन स्थिरता नास्ति व्रतप्रतिज्ञाभङ्गो भवतीति तेन कारणेनासंयता वा भण्यन्ते। शुद्धात्मभावनाच्युता: सन्त: भरतादयो... शुभरागयोगात् सरागसम्यग्दृष्टयो भवन्ति। या पुनस्तेषां सम्यक्त्वस्य निश्चयसम्यक्त्वसंज्ञा वीतरागचारित्राविनाभूतस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य परंपरया साधकत्वादिति। वस्तुवृत्त्या तु तत्सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वाख्यं व्यवहारसम्यक्त्वमेवेति भावार्थ:।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - ‘निज शुद्धात्मा ही उपादेय है’ ऐसी रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व होता है, ऐसा पहिले कई बार आपने कहा है, और अब ‘वीतराग चारित्र का अविनाभूत निश्चय सम्यक्त्व है’ ऐसा कह रहे हैं। दोनों पर पूर्वापर विरोध है। वह ऐसे कि ‘निज शुद्धात्मतत्त्व ही उपादेय है’ ऐसी रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व गृहस्थावस्था में तीर्थंकर परमदेव तथा भरत, सगर, राम, पाण्डव आदि को रहता है परन्तु उनको वीतराग चारित्र नहीं होता, इसलिए परस्पर विरोध है। यदि ‘होता है’ ऐसा मानें तो उनके असंयतपना कैसे हो सकता है ? <strong>उत्तर</strong> - उनके शुद्धात्मा की उपादेयता की भावनारूप निश्चय सम्यक्त्व रहता है, किन्तु चारित्रमोह के उदय के कारण स्थिरता नहीं है, व्रत की प्रतिज्ञा भंग हो जाती है, इस कारण उनको असंयत कहा जाता है। शुद्धात्मभावना से च्युत होकर शुभराग के योग से वे सराग सम्यग्दृष्टि होते हैं। उनके सम्यक्त्व को जो सम्यक्त्व कहा गया है, उसका कारण यह है कि वह वीतराग चारित्र के अविनाभूत निश्चयसम्यक्त्व का परम्परा साधक है। वस्तुत: तो वह सम्यक्त्व भी सरागसम्यक्त्व नाम वाला व्यवहार सम्यक्त्व ही है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>7. व्यवहार व निश्चय लक्षणों का समन्वय</strong></p> | ||
<p class="HindiText">मो.मा.प्र./ | <p class="HindiText">मो.मा.प्र./9/पृष्ठ/पंक्ति =<strong>प्रश्न</strong> - सात तत्त्वों के श्रद्धान का नियम कहो हो सो बने नाहीं। जातैं कहीं परतै भिन्न आपका श्रद्धान ही कौं सम्यक्त्व कहैं हैं...कहीं एक आत्मा के निश्चय ही कौं सम्यक्त्व कहैं हैं। ...तातैं जीव अजीव ही का वा केवल जीव ही का श्रद्धान भए सम्यक्त्व हो है।577/18। <strong>उत्तर</strong> - 1. परतैं भिन्न आपका श्रद्धान हो है सो आस्रवादिका श्रद्धानकरि रहित हो है कि सहित हो है। जो रहित हो है, तौ मोक्ष का श्रद्धान बिना किस प्रयोजन के अर्थि ऐसा उपाय करै है। ...तातै आस्रवादिक का श्रद्धान रहित आपापर का श्रद्धान करना सम्भवै नाहीं। बहुरि जो आस्रवादि का श्रद्धान सहित हो है, तौ स्वयमेव सातौं तत्त्वनि के श्रद्धान का नियम भया।(478/8)। 2. बहुरि केवल आत्मा का निश्चय है, सो पर का पररूप श्रद्धान भए बिना आत्मा का श्रद्धान न होय तातै अजीव का श्रद्धान भए ही जीव का श्रद्धान होय।...तातैं यहाँ भी सातौं तत्त्वनि के ही श्रद्धान का नियम जानना। बहुरि आस्रवादिक का श्रद्धान बिना आपापर का श्रद्धान वा केवल आत्मा का श्रद्धान साँचा होता नाहीं। जातै आत्मा द्रव्य है, सो तौ शुद्ध अशुद्ध पर्याय लिये है। ...सो शुद्ध अशुद्ध अवस्था की पहिचान आस्रवादिक की पहिचानतैं हो है। (478/15)। =<strong>प्रश्न</strong> - 3. जो ऐसे हैं, तौ शास्त्रनिविषैं ... नव तत्त्व की सन्तति छोड़ि हमारे एक आत्मा ही होहु, ऐसी कह्या। सो कैसें कह्या ? (स.सा./आ./12/क 6) <strong>उत्तर</strong> - जाकौ साचा आपापर का श्रद्धान होय, ताकौ सातौं तत्त्वनि का श्रद्धान होय ही होय, बहुरि जाकै साँचा सात तत्त्वनि का श्रद्धान होय, ताकै आपापर का वा आत्मा का श्रद्धान होय ही होय। ऐसा परस्पर अविनाभावीपन जानि आपापर का श्रद्धानकौं या आत्मश्रद्धान होनकौं सम्यक्त्व कह्या है। (479/15)। <strong>प्रश्न</strong> - 4. जो कहीं शास्त्रनिविषैं अर्हंत देव निर्ग्रन्थ गुरु हिंसारहित धर्म का श्रद्धानकौं सम्यक्त्व कह्या है, सो कैसें है (480/22)? <strong>उत्तर</strong> - 1. अर्हंत देवादिक का श्रद्धान होनेतैं वा कुदेवादिक का श्रद्धान दूर होने करि गृहीत मिथ्यात्व का अभाव हो है, तिस अपेक्षा याकौं सम्यक्त्वी कह्या है। सर्वथा सम्यक्त्व का लक्षण नाहीं। (481/2) 2. अर्हंतदेवादिक का श्रद्धान होतैं तौ सम्यक्त्व होय वा न होय, परन्तु अर्हंतादिक का श्रद्धान भए बिना तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व कदाचित् न होय। तातै अर्हंतादिक के श्रद्धानकौं अन्वयरूपकारण जानि कारणविषैं कार्य का उपचारकरि इस श्रद्धानकौं सम्यक्त्व कह्या है। याही तै याका नाम व्यवहार सम्यक्त्व है। 3. अथवा जाकै तत्त्वार्थ श्रद्धान होय, ताकै साँचा अर्हन्तादिक के स्वरूप का श्रद्धान होय ही होय। (481/10) ...जाकै साँचा अर्हंतादिक के स्वरूप का श्रद्धान होय ताकै तत्त्वार्थ श्रद्धान होय ही होय। जातैं अर्हन्तादिक का स्वरूप पहिचानें जीव अजीव आस्रव आदिक की पहिचानि हो है। ऐसे इनिकौ परस्पर अविनाभावी जानि, कहीं अर्हंतादिक के श्रद्धानकौं सम्यक्त्व कह्या है। (481/15)। <strong>प्रश्न</strong> - 5. जो केई जीव अर्हंतादिक का श्रद्धान करैं हैं तिनिके गुण पहिचानैं हैं अर उनकै तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यक्त्व न हो है। (482/17)? <strong>उत्तर</strong> - जातैं जीव अजीव की जाति पहिचानें बिना अरहन्तादिक के आत्माश्रित गुणनिकौं वा शरीराश्रित गुणनिकौं भिन्न-भिन्न न जानैं। जो जानैं तौ अपने आत्माकौं परद्रव्यतै भिन्न कैसैं न मानैं ? (483/2) <strong>प्रश्न</strong> - 6. अन्य-अन्य प्रकार लक्षण करने का प्रयोजन कह्या (483/21)? <strong>उत्तर</strong> - साँची दृष्टिकरि एक लक्षण ग्रहण किये चारयों लक्षण का ग्रहण हो है। तथापि मुख्य प्रयोजन जुदा-जुदा विचारि अन्य-अन्य प्रकार लक्षण कहे हैं। 1. जहाँ तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण कह्या है, तहाँ तौ यहू प्रयोजन है, जो इनि तत्त्वनिकौं पहिचानैं, तौं यथार्थ वस्तु के स्वरूप वा अपने हित अहित का श्रद्धान करौं तब मोक्षमार्गविषैं प्रवर्त्तै। (484/1) 2. आपापर का भिन्न श्रद्धान भए परद्रव्यविषै रागादि न करने का श्रद्धान हो है। ऐसैं तत्त्वार्थश्रद्धान का प्रयोजन आपापर का भिन्न श्रद्धानतै सिद्ध होता जानि इस लक्षण लक्षणकौं कहा है। (484/10)। 3. बहुरि जहाँ आतमश्रद्धान लक्षण कह्या है तहाँ आपापर का भिन्न श्रद्धान का प्रयोजन इतना ही है - आपकौ आप जानना। आपकौ आप जानैं पर का भी विकल्प कार्यकारी नाहीं। ऐसा मूलभूत प्रयोजन की प्रधानता जानि आत्मश्रद्धानकौं मुख्य लक्षण कह्या है। (484/13) 4. बहुरि जहाँ देवगुरुधर्म का श्रद्धान लक्षण कह्या है, तहाँ बाह्य साधन की प्रधानता करी है। जातैं अर्हन्तादिक का श्रद्धान साँचा तत्त्वार्थश्रद्धानकौं कारण है। ...ऐसे जुदे-जुदे प्रयोजन की मुख्यता करि जुदे-जुदे लक्षण कहे हैं। (484/17)।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>2. निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन की कथंचित् मुख्यता गौणता</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. स्वभाव भान बिना सम्यक्त्व नहीं</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">न.च.वृ./ | <p><span class="PrakritText">न.च.वृ./182 जे णयदिट्ठिविहीणा ताण ण वत्थूसहावउवलद्धी। वत्थुसहावविहूणा सम्माइट्ठी कहं हुंति।182। | ||
</span><span class="HindiText">=जो नयदृष्टिविहीन हैं उनके वस्तुस्वभाव की उपलब्धि नहीं होती है। और वस्तुस्वभाव से विहीन सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं।</span></p> | </span><span class="HindiText">=जो नयदृष्टिविहीन हैं उनके वस्तुस्वभाव की उपलब्धि नहीं होती है। और वस्तुस्वभाव से विहीन सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText">मो.मा.प्र./ | <p class="HindiText">मो.मा.प्र./7/329/12 वस्तु के भाव का नाम तत्त्व कह्या। सो भाव भासैं बिना तत्त्वार्थ श्रद्धान कैसैं होय 1</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>2. आत्मानुभवी को ही आठों अंग होते हैं</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">का.अ./मू./ | <p><span class="PrakritText">का.अ./मू./424 जो ण कुणदि परतत्तिं पुणु पुणु भावेदि सुद्धमप्पाणं। इंदियसुहणिरवेक्खो णिस्संकाई गुणा तस्स।</span> =<span class="HindiText">जो पुरुष परायी निन्दा नहीं करता और बारम्बार शुद्धात्मा को भाता है, तथा इन्द्रिय सुख की इच्छा नहीं करता, उसके नि:शंकित आदि गुण होते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. आठों अंगों में निश्चय अंग ही प्रधान हैं</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./श्लो.सं.तद् द्विधाथ वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात् । प्रधानं स्वात्मसंबन्धिगुणो | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./श्लो.सं.तद् द्विधाथ वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात् । प्रधानं स्वात्मसंबन्धिगुणो यावत्परात्मनि।809। पूर्ववत्सोऽपि द्विविध: स्वान्यात्मभेदत: पुन:। तत्राद्यो वरमादेय: समादेय: परोऽभ्यत:।814।</span> =<span class="HindiText">वह वात्सल्य अंग भी स्व और पर के विषय के भेद से दो प्रकार का है, उनमें से स्वात्मसम्बन्धी प्रधान है तथा परात्मसम्बन्धी गौण है।809। वह प्रभावना अंग भी वात्सल्य की तरह स्व व पर के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से पहला प्रधान रीति से आदेय है तथा दूसरी जो परप्रभावना है वह गौणरूप से उपादेय है।814।</span></p> | ||
<p class="HindiText">द.पा./पं.जयचन्द/ | <p class="HindiText">द.पा./पं.जयचन्द/2/7/24 ‘ते चिह्न कौन, सो लिखिए है - तहाँ मुख्य चिन्ह तौ यह है कि जो उपाधि रहित शुद्ध ज्ञानचेतनास्वरूप आत्मा की अनुभूति है, सो यद्यपि यह अनुभूति ज्ञान का विशेष है (देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.4 | सम्यग्दर्शन - I.4]]/1) तथापि सम्यक्त्व भये यह होय है, तातै याकूं बाह्य चिह्न कहिए है।’</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>4. श्रद्धान आदि सब आत्मा के परिणाम हैं</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p><span class="SanskritText">रा.वा./1/2/9/19/30 स्यादेतत्-वक्ष्यमाणनिर्देशादिसूत्रविवरणात् पुद्गलद्रव्यस्य संप्रत्यय: प्राप्तनोति; तन्न; किं कारणम् । आत्मपरिणामेऽपि तदुपपत्ते:। किं तत्त्वार्थश्रद्धानम् । आत्मपरिणाम:। कस्य। आत्मन इत्येवमादि।</span> | ||
<span class="HindiText">=मोहनीय कर्म की प्रकृतियों में भी सम्यक्त्व नाम की कर्मप्रकृति है और ‘निर्देश स्वामित्व‘ आदि सूत्र के विवरण से भी ज्ञात होता है कि यहाँ सम्यक्त्व कर्मप्रकृति का सम्यग्दर्शन से ग्रहण है अत: सम्यक्त्व को कर्म पुद्गलरूप मानना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong> - यहाँ मोक्ष के कारणों का प्रकरण है, अत: उपादानभूत आत्मपरिणाम ही विवक्षित है। (द्र.सं./मू./ | <span class="HindiText">=मोहनीय कर्म की प्रकृतियों में भी सम्यक्त्व नाम की कर्मप्रकृति है और ‘निर्देश स्वामित्व‘ आदि सूत्र के विवरण से भी ज्ञात होता है कि यहाँ सम्यक्त्व कर्मप्रकृति का सम्यग्दर्शन से ग्रहण है अत: सम्यक्त्व को कर्म पुद्गलरूप मानना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong> - यहाँ मोक्ष के कारणों का प्रकरण है, अत: उपादानभूत आत्मपरिणाम ही विवक्षित है। (द्र.सं./मू./41)</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ भाव#2.3 | भाव - 2.3 ]]औपशमिकादि सम्यग्दर्शन भी सीधे आत्मपरिणाम स्वरूप है कर्मों की पर्यायरूप नहीं।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>5. निश्चय सम्यक्त्व की महिमा</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.वि./ | <p><span class="SanskritText">पं.वि./4/23 तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता। निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम् ।23।</span> =<span class="HindiText">उस आत्मतेज के प्रति मन में प्रेम को धारण करके जिसने उसकी बात भी सुनी है, वह निश्चय से भव्य है, व भविष्य में प्राप्त होने वाली मुक्ति का पात्र है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>6. श्रद्धान मात्र सम्यग्दर्शन नहीं है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p><span class="SanskritText">रा.वा./1/2/26-28/21/29 इच्छाश्रद्धानमित्यपरे।26। तदयुक्तम् मिथ्यादृष्टेरपि प्रसङ्गात् ।27। केवलिनि सम्यक्त्वाभावप्रसंगाच्च।28।</span> =<span class="HindiText">कोई वादी इच्छापूर्वक श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं।26। उनका यह मत ठीक नहीं हैं, क्योंकि मिथ्यादृष्टि (जैन शास्त्रों को पढ़कर) वैसा श्रद्धान तो कर लेते हैं।27। दूसरी बात यह है कि ऐसा मानने से केवली भगवान् में सम्यक्त्व का अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि, उनमें इच्छा का अभाव है।28।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">श्लो.वा. | <p><span class="SanskritText">श्लो.वा.2/1/2/2/3/3 दृशेश्चालोचने स्थिति: प्रसिद्धा, दृशिन् प्रेक्षणे इति वचनात् । तत्र सम्यक् पश्यत्नयेननेत्यादिकरणसाधनत्वादित्यवस्थायां दर्शनशब्दनिरुक्तेरिष्टलक्षणं सम्यग्दर्शनं न लभ्यत एव तत: प्रशस्तालोचनमात्रस्य लब्धे:। न च तदेवेष्टमतिव्यापित्वादभव्यस्य मिथ्यादृष्टे: प्रशस्तालोचनस्य सम्यग्दर्शनप्रसंगात् । | ||
</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - दृश धातु की ‘सामान्य से देखना’ ऐसी व्युत्पत्ति जगत् प्रसिद्ध है। वहाँ ‘सम्यक् देखता है जिसके द्वारा’ ऐसा करण प्रत्यय करने पर जो इष्ट लक्षण प्राप्त होता है वह आप स्याद्वादियों के यहाँ प्राप्त नहीं होता है। भले प्रकार देखना ऐसा भाव साधनरूप अर्थ भी नहीं मिलता है ? <strong>उत्तर</strong> - ऐसा अर्थ हम इष्ट नहीं कर सकते, क्योंकि इसमें अतिव्याप्ति दोष होगा। मिथ्यादृष्टि अभव्य के प्रशस्त देखना होने के कारण सम्यग्दर्शन हो जाने का प्रसंग हो जायेगा।</span></p> | </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - दृश धातु की ‘सामान्य से देखना’ ऐसी व्युत्पत्ति जगत् प्रसिद्ध है। वहाँ ‘सम्यक् देखता है जिसके द्वारा’ ऐसा करण प्रत्यय करने पर जो इष्ट लक्षण प्राप्त होता है वह आप स्याद्वादियों के यहाँ प्राप्त नहीं होता है। भले प्रकार देखना ऐसा भाव साधनरूप अर्थ भी नहीं मिलता है ? <strong>उत्तर</strong> - ऐसा अर्थ हम इष्ट नहीं कर सकते, क्योंकि इसमें अतिव्याप्ति दोष होगा। मिथ्यादृष्टि अभव्य के प्रशस्त देखना होने के कारण सम्यग्दर्शन हो जाने का प्रसंग हो जायेगा।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./414 व्यस्ताश्चैते समस्ता वा सद्दृष्टेर्लक्षणं न वा। सपक्षे वा विपक्षे वा सन्ति यद्वा न सन्ति वा।414।</span> =<span class="HindiText">श्रद्धा, रुचि, प्रतीति और चरण, ये चारों पृथक्-पृथक् अथवा समस्तरूप से भी सम्यग्दर्शन के वास्तविक लक्षण नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, सपक्ष और विपक्ष दोनों ही अवस्थाओं में होते हुए भी हैं और नहीं भी होते हैं। रहस्यपूर्ण चिट्ठी पं.टोडरमल/मो.मा.प्र./506/6 जो आपापर का यथार्थ श्रद्धान नाहीं है, अर जिनमत विषैं कहे जे देव, गुरु, धर्म तिनि ही कूं मानें है, अन्य मत विषैं कहे देवादि वा तत्त्वादि तिनिको नाहीं माने है, तो ऐसे केवल व्यवहार सम्यक्त्व करि सम्यक्त्वी नाम पावै नाहीं।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>7. मिथ्यादृष्टि की श्रद्धा आदि यथार्थ नहीं</strong></p> | ||
<p><span class="HindiText"> देखें | <p><span class="HindiText">देखें [[ श्रद्धान ]]/3/6 [एक बार का ग्रहण किया हुआ पक्ष, मिथ्यादृष्टि जीव, सम्यक् उपदेश मिलने पर भी नहीं छोड़ता। उसी की हठ पकड़े रहता है।]</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./418 अर्थाच्छ्रद्धादय: सम्यग्दृष्टिश्रद्धादयो यत:। मिथ्या श्रद्धादयो मिथ्या नार्थाच्छ्रद्धादयो तत:। | ||
</span>=<span class="HindiText">क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव के श्रद्धादिक वास्तव में श्रद्धा आदिक है और मिथ्यादृष्टि के श्रद्धा आदिक मिथ्या है, इसलिए मिथ्यादृष्टि के श्रद्धा आदिक वास्तविक नहीं | </span>=<span class="HindiText">क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव के श्रद्धादिक वास्तव में श्रद्धा आदिक है और मिथ्यादृष्टि के श्रद्धा आदिक मिथ्या है, इसलिए मिथ्यादृष्टि के श्रद्धा आदिक वास्तविक नहीं है।418।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ मिथ्यादृष्टि#2.2 | मिथ्यादृष्टि - 2.2 ]]व 4/1 [मिथ्यादृष्टि व्यक्ति यद्यपि प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य आदि सभी अंगों का पालन करता है, परन्तु उसके वे सब अंग मिथ्या हैं, क्योंकि, वे सब भोग के निमित्त ही होते हैं मोक्ष के निमित्त नहीं।] मो.मा.प्र./7/330/19 व्यवहारावलम्बी की तत्त्वश्रद्धा ऐसी होती है, कि] शास्त्र के अनुसारि जानितौ ले है। परन्तु आपकौं आप जानि पर का अंश भी न मिलावना अर आपका अंश भी पर विषै न मिलावना, ऐसा सांचा श्रद्धान नाहीं करै है।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. निश्चय व्यवहार सम्यक्त्व समन्वय</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. नव तत्त्वों की श्रद्धा का अर्थ शुद्धात्म की श्रद्धा ही है</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">स.सा./मू. व आ./ | <p><span class="PrakritText">स.सा./मू. व आ./13 भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीव य पुण्णपावं च। आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं।13।</span> | ||
<span class="SanskritText">नवतत्त्वेष्वेकत्वद्योतिना भूतार्थनयेनैकत्वमुपानीय शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापितस्यात्मनोऽनुभूतेरात्मख्यातिलक्षणाया: संपद्यमानत्वात् । | <span class="SanskritText">नवतत्त्वेष्वेकत्वद्योतिना भूतार्थनयेनैकत्वमुपानीय शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापितस्यात्मनोऽनुभूतेरात्मख्यातिलक्षणाया: संपद्यमानत्वात् । | ||
</span>=<span class="HindiText">भूतार्थनय से ज्ञात जीव, अजीव और पुण्य, पाप तथा आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नव तत्त्व सम्यक्त्व | </span>=<span class="HindiText">भूतार्थनय से ज्ञात जीव, अजीव और पुण्य, पाप तथा आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नव तत्त्व सम्यक्त्व हैं।13। क्योंकि, नव तत्त्वों में एकत्व प्रकट करने वाले भूतार्थ नय से एकत्व प्राप्त करके, शुद्धनयरूप से स्थापित आत्मा की अनुभूति - जिसका लक्षण आत्मख्याति है, वह प्राप्त होती है। (पं.ध./उ./186)</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सा./आ./ | <p><span class="SanskritText">स.सा./आ./13/क 8 चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं, कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे। अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकरूपं, प्रतिपदमिदमात्मज्योतितिरुद्योतमानम् ।8।</span> =<span class="HindiText">इस प्रकार नवतत्त्वों में (अनेक पर्यायों में) बहुत समय से छिपी हुई यह आत्मज्योति शुद्धनय से बाहर निकालकर प्रकट की गयी है, जैसे वर्णों के समूह में छिपे हुए एकाकार स्वर्ण को बाहर निकालते हैं। इसलिए अब हे भव्यो ! इसे सदा अन्य द्रव्यों से तथा उनसे होने वाले (राग आदिक) नैमित्तिक भावों से भिन्न, एकरूप देखो। यह (ज्योति), पद-पद पर अर्थात् प्रत्येक पर्याय में एकरूप चिच्चमत्कारमात्र उद्योतमान है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सा./ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">स.सा./ता.वृ./13/31/12 नवपदार्था: भूतार्थेन ज्ञाता: सन्त: सम्यक्त्वं भवन्तीत्युक्तं भवद्भिस्तत्कीदृशं भूतार्थपरिज्ञानमिति पृष्टे प्रत्युत्तरमाह। यद्यपि नवपदार्था: तीर्थवर्तनानिमित्तं प्राथमिकशिष्यापेक्षया भूतार्था भण्यन्ते तथाप्यभेदरत्नत्रयलक्षणनिर्विकल्पसमाधिकाले अभूतार्था असत्यार्था शुद्धात्मस्वरूपं न भवन्ति। तस्मिन् परमसमाधिकाले नवपदार्थमध्ये शुद्धनिश्चयनयेनैक एव शुद्धात्मा प्रद्योतते प्रकाशते प्रतीयते अनुभूयत इति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - नव पदार्थ यदि भूतार्थरूप से जाने गये हों तो सम्यग्दर्शन रूप होते हैं ऐसा आपने कहा है। वह भूतार्थ परिज्ञान कैसा है? <strong>उत्तर</strong> - यद्यपि तीर्थप्रवृत्ति के निमित्त प्राथमिक शिष्य की अपेक्षा से नवपदार्थ भूतार्थ कहे जाते हैं, (देखें [[ नय#V.8.4 | नय - V.8.4]]) तथापि अभेद रत्नत्रयरूप निर्विकल्प समाधिकाल में वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं, क्योंकि वे शुद्धात्मस्वरूप नहीं हैं। उस परम समाधि के काल में इन नवपदार्थों में से शुद्धनिश्चयनय से एक शुद्धात्मा ही अर्थात् नित्य निरंजन चित्स्वभाव ही द्योतित होता है, प्रकाशित होता है, प्रतीति में आता है, अनुभव किया जाता है। (और भी देखें [[ तत्त्व#3.4 | तत्त्व - 3.4]]); (स.सा./ता.वृ./96/154/9)</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ अनुभव ]]/3/3 [आत्मानुभव सहित ही तत्त्वों की श्रद्धा या प्रतीति सम्यग्दर्शन का लक्षण है, बिना आत्मानुभव के नहीं।]</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>2. व्यवहार सम्यक्त्व निश्चय का साधक है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./ | <p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./41/178/4 अत्र व्यवहारसम्यक्त्वमध्ये निश्चयसम्यक्त्वं किमर्थं व्याख्यातमिति चेद् व्यवहारसम्यक्त्वेन निश्चयसम्यक्त्वं साध्यत इति साध्यसाधकभावज्ञापनार्थमिति। | ||
</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - यहाँ इस व्यवहार सम्यक्त्व के व्याख्यान में निश्चय सम्यक्त्व का वर्णन क्यों किया ? <strong>उत्तर</strong> - व्यवहार सम्यक्त्व से निश्चय सम्यक्त्व सिद्ध किया जाता है, इस साध्य-साधक भाव को बतलाने के लिए किया गया है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - यहाँ इस व्यवहार सम्यक्त्व के व्याख्यान में निश्चय सम्यक्त्व का वर्णन क्यों किया ? <strong>उत्तर</strong> - व्यवहार सम्यक्त्व से निश्चय सम्यक्त्व सिद्ध किया जाता है, इस साध्य-साधक भाव को बतलाने के लिए किया गया है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.का./ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">पं.का./ता.वृ./107/170/8 इदं तु नवपदार्थविषयभूतं व्यवहारसम्यक्त्वं। किं विशिष्टम् । शुद्धजीवास्तिकायरुचिरूपस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य छद्मस्थावस्थामात्मविषयस्वसंवेदनज्ञानस्य परम्परया बीजम् ।</span> =<span class="HindiText">यह जो नवपदार्थ का विषयभूत व्यवहार सम्यक्त्व है, वह शुद्ध जीवास्तिकाय की रुचिरूप जो निश्चय सम्यक्त्व है उसका तथा छद्मस्थ अवस्था में आत्मविषयक स्वसंवेदन ज्ञान का परम्परा से बीज है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यक्त्व कहने का कारण व प्रयोजन</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">यो.सा./अ./ | <p><span class="SanskritText">यो.सा./अ./1/2-4 जीवाजीवद्वयं त्यक्त्वा नापरं विद्यते यत:। तल्लक्षणं ततो ज्ञेयं स्वस्वभावबुभुत्सया।2। यो जीवाजीवयोर्वेति स्वरूपं परमार्थत:। सोऽजीवपरिहारेण जीवतत्त्वे निलीयते।3। जीवतत्त्वविलीनस्य रागद्वेषपरिक्षय:। तत: कर्माश्रयच्छेदस्ततो निर्वाणसंगम:।4।</span> =<span class="HindiText">संसार में जीव व अजीव इन दोनों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इसलिए अपने स्वरूपज्ञान की अभिलाषा से इन दोनों के लक्षण जानना चाहिए।2। जो परमार्थ से इनके स्वरूप को जान जाता है वह अजीव को छोड़कर जीव तत्त्व में लय हो जाता है। उससे रागद्वेष का क्षय और इससे मोक्ष की प्राप्ति होती है।2-4।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सा./ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">स.सा./ता.वृ./176/355/8 जीवादिनवपदार्थ: श्रद्धानविषय: सम्यक्त्वाश्रयत्वान्निमित्तत्वाद् व्यवहारेण सम्यक्त्वं भवति।</span> =<span class="HindiText">जीवादि नव पदार्थ श्रद्धान के विषय हैं। वे सम्यक्त्व के आश्रय या निमित्त होने के कारण व्यवहार से सम्यक्त्व कहे जाते हैं। (मो.मा.प्र./9/489/19)</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">प.प्र./टी./ | <p><span class="SanskritText">प.प्र./टी./2/13/127/2 तत्त्वार्थश्रद्धानापेक्षया चलमलिनावगाढ़परिहारेण शुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपेण निश्चिनोति।</span> =<span class="HindiText">तत्त्वार्थश्रद्धान की अपेक्षा चलमलिन अवगाढ इन दोषों के परिहार द्वारा ‘शुद्धात्मा ही उपादेय है’ ऐसी रुचिरूप से निश्चय करता है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>4. सम्यक्त्व के अंगों को सम्यक्त्व कहने का कारण</strong></p> | ||
<p class="HindiText">मो.मा.प्र./ | <p class="HindiText">मो.मा.प्र./8/401/15 निश्चय सम्यक्त्व का तौ व्यवहारविषै उपचार किया, बहुरि व्यवहार सम्यक्त्व के कोई एक अंगविषै सम्पूर्ण व्यवहार सम्यक्त्व का उपचार किया, ऐसे उपचारकरि सम्यक्त्व भया कहिए।’</p> | ||
<p class="HindiText">रा.वा./हिं./ | <p class="HindiText">रा.वा./हिं./1/2/24 यह (प्रशम संवेगादि) चार चिह्न सम्यग्दर्शन को जनावै हैं, तातै सम्यग्दर्शन के कार्य हैं। तातै कार्य करि कारण का अनुमान हो है।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>4. सराग वीतराग सम्यग्दर्शन निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. सराग वीतराग रूप भेद व लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p><span class="SanskritText">स.सि./1/2/10/2 तद् द्विविधं, सरागवीतरागविषयभेदात् ।’’ प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याद्यभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम् । आत्मविशुद्धिमात्रमितरत् ।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है - सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति लक्षण वाला सराग सम्यग्दर्शन है और आत्मा की विशुद्धि मात्र वीतराग सम्यग्दर्शन है। (रा.वा./1/2/29-31/22/6); (श्लो.वा.2/1/2/श्लो.12/29); (अन.ध./2/51/178); (गो.जी./जी.प्र./561/1006/15 पर उद्धृत); (और भी देखें [[ आगे शीर्षक नं#2 | आगे शीर्षक नं - 2]])।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p><span class="SanskritText">रा.वा./1/2/31/22/11 सप्तानां कर्मप्रकृतीनाम् आत्यन्तिकेऽपगमे सत्यात्मविशुद्धिमात्रमितरद् वीतरागसम्यक्त्वमित्युच्यते।</span> =<span class="HindiText">(दर्शनमोहनीय की) सातों प्रकृतियों का आत्यन्तिक क्षय हो जाने पर जो आत्म विशुद्धिमात्र प्रकट होती है वह वीतराग सम्यक्त्व है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">भ.आ./वि./ | <p><span class="SanskritText">भ.आ./वि./51/175/18,21 इह द्विविधं सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वं वीतरागसम्यक्त्वं चेति। ...तत्र प्रशस्तरागसहितानां श्रद्धानं सरागसम्यग्दर्शनम् । रागद्वयरहितानां क्षीणमोहावरणानां वीतरागसम्यग्दर्शनम् ।</span> =<span class="HindiText">सम्यक्त्व दो प्रकार का है - सरागसम्यक्त्व और वीतराग सम्यक्त्व। तहाँ प्रशस्तराग सहित जीवों का सम्यक्त्व सराग सम्यक्त्व है, और प्रशस्त व अप्रशस्त दोनों प्रकार के राग से | ||
रहित क्षीणमोह वीतरागियों का सम्यक्त्व वीतराग सम्यक्त्व है।</span></p> | रहित क्षीणमोह वीतरागियों का सम्यक्त्व वीतराग सम्यक्त्व है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">अ.ग.श्रा./ | <p><span class="SanskritText">अ.ग.श्रा./2/65-66 वीतरागं सरागं च सम्यक्त्वं कथितं द्विधा। विरागं क्षायिकं तत्र सरागमपराद्वयम् ।65। संवेगप्रशमास्तिक्यकारुण्यव्यक्तलक्षणम् । सरागं पटुभिर्ज्ञेयमुपेक्षालक्षणं परम् ।66।</span> =<span class="HindiText">वीतराग और सराग के भेद से सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है। तहाँ क्षायिक सम्यक्त्व वीतराग है और शेष दो अर्थात् औपशमिक व क्षायोपशमिक सराग है।65। प्रशम, संवेग, आस्तिक और अनुकम्पा इन प्रगट लक्षणों वाला सराग सम्यक्त्व जानना चाहिए। उपेक्षा अर्थात् वीतरागता लक्षण वाला वीतराग सम्यक्त्व है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सा./ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">स.सा./ता.वृ./97/125/13 सरागसम्यग्दृष्टि: सन्नशुभकर्मकर्तृत्वं मुञ्चति। निश्चयचारित्राविनाभाविवीतरागसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा शुभाशुभसर्वकर्मकर्तृत्वं च मुञ्चति।</span> =सरागसम्यग्दृष्टि | ||
<span class="HindiText">केवल अशुभ कर्म के कर्तापने को छोड़ता है (शुभकर्म के कर्तापने को नहीं), जबकि निश्चय चारित्र के अविनाभूत वीतराग सम्यग्दृष्टि होकर वह शुभ और अशुभ सर्व प्रकार के कर्मों के कर्तापने को छोड़ देता है।</span></p> | <span class="HindiText">केवल अशुभ कर्म के कर्तापने को छोड़ता है (शुभकर्म के कर्तापने को नहीं), जबकि निश्चय चारित्र के अविनाभूत वीतराग सम्यग्दृष्टि होकर वह शुभ और अशुभ सर्व प्रकार के कर्मों के कर्तापने को छोड़ देता है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./ | <p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./41/168/2 त्रिगुप्तावस्थालक्षणवीतरागसम्यक्त्वप्रस्तावे। | ||
</span><span class="HindiText">=त्रिगुप्तिरूप अवस्था ही वीरागसम्यक्त्व का लक्षण है।</span></p> | </span><span class="HindiText">=त्रिगुप्तिरूप अवस्था ही वीरागसम्यक्त्व का लक्षण है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. व्यवहार व निश्चय सम्यक्त्व के साथ इन दोनों की एकार्थता</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./ | <p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./41/177/12 शुद्धजीवादितत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सरागसम्यक्त्वाभिधानं व्यवहारसम्यक्त्वं विज्ञेयम् ।...वीतरागचारित्राविनाभूतं वीतरागसम्यक्त्वाभिधानं निश्चयसम्यक्त्वं च ज्ञातव्यमिति।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध जीव आदि तत्त्वार्थों का श्रद्धानरूप सरागसम्यक्त्व व्यवहार जानना चाहिए और वीतराग चारित्र के बिना नहीं होने वाला वीतराग सम्यक्त्व नामक निश्चयसम्यक्त्व जानना चाहिए।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">प.प्र./टी./ | <p><span class="SanskritText">प.प्र./टी./2/17/132/5 प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सरागसम्यक्त्वं भण्यते। तदेव व्यवहारसम्यक्त्वमिति। ...वीतरागसम्यक्त्वं निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागचारित्राविनाभूतम् ।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">तदेव निश्चयसम्यक्त्वमिति।</span> =<span class="HindiText">प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति सराग सम्यक्त्व का लक्षण है (देखें | <p><span class="SanskritText">तदेव निश्चयसम्यक्त्वमिति।</span> =<span class="HindiText">प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति सराग सम्यक्त्व का लक्षण है (देखें [[ शीर्षक नं#1 | शीर्षक नं - 1]])। वह ही व्यवहारसम्यक्त्व है। वीतराग सम्यक्त्व निजशुद्धात्मानुभूति लक्षण वाला है और वीतराग चारित्र के अविनाभावी है। वह ही निश्चय सम्यक्त्व है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.का./ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">पं.का./ता.वृ./150-151/217/15 सप्तप्रकृतीनामुपशमेन क्षयोपशमेन च सरागसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा पञ्चपरमेष्ठिभक्तयादिरूपेण...।</span> =<span class="HindiText">सात प्रकृतियों के उपशम या क्षयोपशम से सरागसम्यग्दृष्टि होकर पंचपरमेष्ठी की भक्ति आदिरूप से (परिणमित होता है)।</span></p> | ||
<p class="HindiText">देखें | <p class="HindiText">देखें [[ समय ]][पंचपरमेष्ठी आदि की भक्तिरूप परिणत होने के कारण सराग सम्यग्दृष्टि सूक्ष्म परसमय है]।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. सराग व वीतराग सम्यक्त्व का स्वामित्व</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">भ.आ.वि./ | <p><span class="SanskritText">भ.आ.वि./16/62/3 वीतरागसम्यक्त्वं नेह गृहीतम् । मोहप्रलयमन्तरेण वीतरागता नास्ति।</span> =<span class="HindiText">यहाँ वीतराग सम्यक्त्व का ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि मोह का क्षय हुए बिना वीतरागता नहीं होती। (देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/4/1)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/4/1 (क्षायिक सम्यग्दृष्टि वीतराग सम्यग्दृष्टि है और औपशमिक व क्षायोपशमिक सराग सम्यग्दृष्टि हैं) देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/4/2/ - पं.का.)।</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/4/2 (भक्ति आदि शुभ राग से परिणत सराग सम्यग्दृष्टि है और वीतरागचारित्र का अविनाभावी वीतराग सम्यग्दृष्टि है)।</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.3.2.6 | सम्यग्दर्शन - I.3.2.6 ]](चौथे से छठे गुणस्थान तक स्थूल सराग सम्यग्दृष्टि हैं, क्योंकि, उनकी पहिचान उनके काय आदि के व्यापार पर से होती है और सातवें से दसवें गुणस्थान तक सूक्ष्म सराग सम्यग्दृष्टि है, क्योंकि, उसकी पहिचान काय आदि के व्यापार पर से या प्रशम आदि गुणों पर से नहीं होती है। यहाँ अर्थापत्ति से बात जान ली जाती है कि वीतराग सम्यग्दृष्टि 11 वें से 14 वें गुणस्थान तक होते हैं। सकल मोह का अभाव हो जाने से वे ही वास्तव में वीतराग हैं या वीतराग चारित्र के धारक हैं)।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>4. इन दोनों सम्यक्त्वों सम्बन्धी 25 दोषों के लक्षणों की विशेषता</strong></p> | ||
<p class="HindiText">द्र.सं./टी./ | <p class="HindiText">द्र.सं./टी./41/166-169 का भावार्थ - [वीतराग सर्वज्ञ को देव न मानकर क्षेत्रपाल आदि को देव मानना देवमूढ़ता है। गङ्गादि तीर्थों में स्नान करना पुण्य है, ऐसा मानना लोकमूढ़ता है। वीतराग निर्ग्रन्थ गुरु को न मानकर लौकिक चमत्कार दिखाने वाले कुलिंगियों को गुरु मानना गुरुमूढ़ता है। विज्ञान ऐश्वर्य आदि का मद करना सो आठ मद हैं। कुदेव, कुगुरु, कुधर्म तथा इसके उपासक ये छह अनायतन हैं। व्यवहार नि:शंकितादि आठ अंगों से विपरीत आठ दोष हैं। ये 25 दोष हैं (विशेष देखें [[ वह वह नाम ]])]।</p> | ||
<p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./ | <p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./41/पृष्ठ/पंक्ति - एवमुक्तलक्षणं मूढत्रयं सरागसम्यग्दृष्टयवस्थायां परिहरणीयमिति। त्रिगुप्तावस्थालक्षणवीतरागसम्यक्त्वप्रस्तावे पुनर्निजनिरञ्जननिर्दोषपरमात्मैव देव इति निश्चयबुद्धिर्देवमूढरहितत्वं विज्ञेयम् । तथैव च मिथ्यात्वरागादिरूपमूढभावत्यागेन स्वशुद्धात्मन्येवावस्थानं लोकमूढरहितत्वं विज्ञेयम् । तथैव च ...परसमरसीभावेन तस्मिन्नेव सम्यग्रूपेणायनं गमनं परिणमनं समयमूढरहितत्वं बोद्धव्यम् । (268/1)। ...मदाष्टकं सरागसम्यग्दृष्टिभिस्त्याज्यमिति। वीतरागसम्यग्दृष्टीनां पुनर्मानकषायादुत्पन्नमदमात्सर्यादिसमस्तविकल्पजालपरिहारेण ममकाराहंकाररहिते शुद्धात्मनि भावनैव मदाष्टत्याग इति। (168/9)। चेत्युक्तलक्षणमनायतनषट्कं सरागसम्यग्दृष्टीनां त्याज्यं भवतीति। वीतरागसम्यग्दृष्टीनां पुन: समस्तदोषायतनभूतानां मिथ्यात्वविषयकषायरूपायतनानां परिहारेण केवलज्ञानाद्यनन्तगुणायतनभूते स्वशुद्धात्मनि निवास एवानायतनसेवापरिहार इति।</span> =<span class="HindiText">इन उपरोक्त लक्षण वाली तीन मूढ़ताओं को सराग सम्यग्दृष्टि अवस्था में त्यागना चाहिए, और मन, वचन तथा काय की गुप्तिरूप अवस्था वाले वीतराग सम्यक्त्व के प्रस्ताव में 'अपना निरंजन तथा निर्दोष परमात्मा ही देव है' ऐसी जो निश्चय बुद्धि है वही देवमूढ़ता से रहितता जानना चाहिए। तथा मिथ्यात्व राग आदि रूप जो मूढ़ भाव हैं, इनका त्याग करने से निजशुद्ध आत्मा में स्थिति का करना वही लोकमूढ़ता से रहितता है। तथा परमसमता भाव से उसी निज शुद्धात्मा में ही जो सम्यक् प्रकार से अयन यानी गमन अथवा परिणमन है, उसको समयमूढ़ता का त्याग समझना चाहिए। उपरोक्त आठ मदों का सराग सम्यग्दृष्टियों का त्याग करना चाहिए। मान कषाय से उत्पन्न जो मद, मात्सर्य (ईर्ष्या) आदि समस्त विकल्पों के त्यागपूर्वक जो ममकार अहंकार से रहित शुद्ध आत्मा में भावना का करना है वही वीतराग सम्यग्दृष्टियों के आठ मदों का त्याग है। ये उपरोक्त छह अनायतन सराग सम्यग्दृष्टियों को त्यागने चाहिए। और जो वीतराग सम्यग्दृष्टि जीव हैं उनके सम्पूर्ण दोषों के स्थानभूत मिथ्यात्व, विषय तथा कषायरूप आयतनों के त्यागपूर्वक केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों के स्थानभूत निजशुद्ध आत्मा में जो निवास करना है, वही अनायतनों की सेवा का त्याग है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>5. दोनों में कथंचित् एकत्व</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">श्लो.वा./पु. | <p><span class="SanskritText">श्लो.वा./पु.2/1/2/3-4/16/28 तत्त्वविशेषणे त्वर्थे श्रद्धानस्य न किंचिदवद्यं दर्शनमोहरहितस्य पुरुषस्वरूपस्य वा 'तत्त्वार्थश्रद्धानम्' शब्देनाभिधानात् सरागवीतरागसम्यग्दर्शनयोस्तस्य सद्भावादव्याप्ते: स्फुटं विध्वंसनात् । | ||
</span>=<span class="HindiText">तत्त्व विशेषण लगाने से तत्त्व करके निर्णीत अर्थ का श्रद्धान करना रूप लक्षण अनवद्य है। क्योंकि, दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से रहित हो रहे आत्मा के 'तत्त्वार्थों का श्रद्धान करना' इस शब्द से कहा गया यह लक्षण, सराग और वीतराग दोनों ही सम्यग्दर्शनों में घटित हो जाता है। अत: अव्याप्ति दोष का सर्वथा नाश हो जाता है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">तत्त्व विशेषण लगाने से तत्त्व करके निर्णीत अर्थ का श्रद्धान करना रूप लक्षण अनवद्य है। क्योंकि, दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से रहित हो रहे आत्मा के 'तत्त्वार्थों का श्रद्धान करना' इस शब्द से कहा गया यह लक्षण, सराग और वीतराग दोनों ही सम्यग्दर्शनों में घटित हो जाता है। अत: अव्याप्ति दोष का सर्वथा नाश हो जाता है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>6. इन दोनों में तात्त्विक भेद मानना भूल है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./श्लो.नं. तत्रास्ति वीतरागस्य कस्यचिज्ज्ञानचेतना। सदृष्टेर्निर्विकल्पस्य नेतरस्य | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./श्लो.नं. तत्रास्ति वीतरागस्य कस्यचिज्ज्ञानचेतना। सदृष्टेर्निर्विकल्पस्य नेतरस्य कदाचन।828। व्यावहारिकसदृष्टे: सविकल्पस्य रागिण:। प्रतीतिमात्रमेवास्ति कुत: स्यात् ज्ञानचेतना।829। इति प्रज्ञापराधेन ये वदन्ति दुराशया:। तेषां यावत् श्रुताभ्यास: कायक्लेशाय केवलम् ।830। वह्नेरौष्ण्यमिवात्मज्ञं पृथक्कर्त्तुंत्वमर्हसि। मा विभ्रमस्वदृष्ट्वापि चक्षुषाऽचक्षुषाशयो:।833। हेतो: परं प्रसिद्धैर्यै: स्थूललक्ष्यैरिति स्मृतम् । आप्रमत्तं च सम्यक्त्वं ज्ञानं वा सविकल्पम् ।913। ततस्तूर्ध्वं तु सम्यक्त्वं ज्ञानं वा निर्विकल्पकम् । शुक्लध्यानं तदेवास्ति तत्रास्ति ज्ञान चेतना।914। प्रमत्तानां विकल्पत्वान्न स्यात्सा शुद्धचेतना। अस्तीति वासनोन्मेष: केषांचित्स न सन्निह।915। यत: पराश्रितो दोषो गुणो वा नाश्रयेत्परम् । परो वा नाश्रयेद्दोषं गुणं चापि पराश्रितम् ।916।</span> =<span class="HindiText">1. उन दोनों में से एक वीतराग निर्विकल्प सम्यग्दृष्टि के ही ज्ञानचेतना होती है और दूसरे अर्थात् सविकल्प व सराग सम्यग्दृष्टि के वह नहीं होती है।828। किन्तु उस सविकल्प सरागी व्यवहार सम्यग्दृष्टि के केवल प्रतीति मात्र श्रद्धा होती है, इसलिए उसके ज्ञानचेतना कैसे हो सकती है?।829। बुद्धि के दोष से जो दुराशय लोग ऐसा कहते हैं, उनका जितना भी शास्त्राध्ययन है वह सब केवल शरीरक्लेश के लिए ही समझना चाहिए।830। भो आत्मज्ञ ! अग्नि की उष्णता के समान तुम्हें अपने स्वभाव को पृथक् करके देखना योग्य है। (स्वसंवेदन द्वारा उस वीतराग तत्त्व को) प्रत्यक्ष देखकर भी सराग रूप अदृष्ट की आशा से भ्रम में मत पड़ो।833। 2. केवल रागरूप हेतु से ही, प्रसिद्ध जिन स्थूल दृष्टिवाले आचार्यों ने सम्यक्त्व और ज्ञान को छठे गुणस्थान तक सविकल्प और इससे ऊपर के गुणस्थानों में निर्विकल्प कहकर उसे शुक्ल ध्यान माना है; तथा वहाँ ही शुद्ध ज्ञान चेतना मानते हुए नीचे के छठे गुणस्थान तक विकल्प का सद्भाव होने से ज्ञान चेतना का न होना माना है, ऐसे किन्हीं-किन्हीं के वासना का पक्ष होने के कारण वह ठीक नहीं है।913-915। क्योंकि जैसे अन्य के गुण-दोष अन्य के नहीं कहलाते उसी प्रकार अन्य के गुण दोष अन्य के गुण-दोषों का आश्रय भी नहीं करते। (अर्थात् चारित्र सम्बन्धी राग का दोष सम्यक्त्व में लगाना योग्य नहीं)।916।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>7. सराग सम्यग्दृष्टि भी कथंचित् वीतराग हैं</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ मिथ्यादृष्टि#4.1 | मिथ्यादृष्टि - 4.1 ]](सम्यग्दृष्टि सदा अपना काल वैराग्य भाव से गमाता है।)</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ राग#6.4 | राग - 6.4 ]](सम्यग्दृष्टि को ज्ञान व वैराग्य की शक्ति अवश्य होती है)</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ जिन#3 | जिन - 3 ]](मिथ्यात्व तथा रागादि को जीत लेने के कारण असंयत सम्यग्दृष्टि भी एकदेश जिन कहलाता है।)</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ संवर#2 | संवर - 2 ]](सम्यग्दृष्टि जीव को प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति का अंश भी अवश्य रहता है।)</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ उपयोग#II.3.2 | उपयोग - II.3.2 ]](तहाँ उसे जितने अंश में राग वर्तता है उतने अंश में बन्ध है और जितने अंश में राग नहीं है उतने अंश में संवर निर्जरा है।)</p> | ||
<p><strong> | <p><strong>8. सराग व वीतराग कहने का कारण प्रयोजन</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./912 विमृश्यैतत्परं कैश्चिदसद्भूतोपचारत:। रागवज्ज्ञानमत्रास्ति सम्यक्त्वं तद्वदीरितम् ।912।</span> | ||
<span class="HindiText">( | <span class="HindiText">(7-10 गुणस्थान तक अबुद्धिपूर्वक का सूक्ष्म राग होता है, जो इससे ऊपर के गुणस्थानों में नहीं होता - देखें [[ राग#3 | राग - 3]]) केवल यही विचार करके किन्हीं आचार्यों ने असद्भूत उपचारनय से जिस प्रकार छठे गुणस्थान तक के ज्ञान को राग युक्त कहा है उसी प्रकार सम्यक्त्व को भी रागयुक्त कहा है।912। (देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/1/6)</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/3/1 (विकल्पात्मक निचली भूमिकाओं में यद्यपि विषय कषाय वंचनार्थ नव पदार्थ भूतार्थ हैं पर समाधि काल में एकमात्र शुद्धात्म तत्त्व ही भूतार्थ है। ऐसा अभिप्राय है।) (और भी देखें [[ नय#I.3.10 | नय - I.3.10]])</p> | ||
<p class="HindiText"><strong>III सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के निमित्त</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>III सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के निमित्त</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. सम्यक्त्व के अन्तरंग व बाह्य निमित्तों का निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. निसर्गं व अधिगम आदि</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">नि.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">नि.सा./मू./53 सम्मत्तस्य णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा।</span>=<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन का निमित्त जिन सूत्र है, अथवा जिनसूत्र के जानने वाले पुरुष हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">त.सू./ | <p><span class="SanskritText">त.सू./1/3 तन्निसर्गादधिगमाद्वा।3।</span> =<span class="HindiText">वह सम्यग्दर्शन निसर्ग से अर्थात् परिणाममात्र से और अधिगम से अर्थात् उपदेश के निमित्त से उत्पन्न होता है। (अन.ध./2/47/171)</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">श्लो.वा./ | <p><span class="SanskritText">श्लो.वा./2/1/3 यथा ह्यौपशमिकं दर्शनं निसर्गादधिगमाच्चोत्पद्यते तथा क्षायोपशमिकं क्षायिकं चेति सुप्रतीतम् ।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार औपशमिक सम्यग्दर्शन निसर्ग व अधिगम दोनों से होता है, उसी प्रकार क्षायोपशमिक व क्षायिक भी सम्यक्त्व दोनों प्रकार से होते हुए भले प्रकार प्रतीत हो रहे हैं।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">न.च.वृ./ | <p><span class="PrakritText">न.च.वृ./248 सामण्ण अह विसेसं दव्वे णाणं हवेइ अविरोहो। साहइ तं सम्मत्तं णहु पुण तं तस्स विवरीयं।248।</span> =<span class="HindiText">द्रव्य का अविरुद्ध सामान्य व विशेष ज्ञान सम्यग्दर्शन को सिद्ध करता है क्योंकि वह उससे विपरीत नहीं होता।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ स्वाध्याय#1.10 | स्वाध्याय - 1.10 ]](आगम ज्ञान के बिना स्व व पर का ज्ञान नहीं होता तब सम्यक्त्व पूर्वक कर्मों का क्षय कैसे हो सकता है।)</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ लब्धि#3 | लब्धि - 3 ]](सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि के उपदेश के निमित्त सम्बन्धी)</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>2. दर्शनमोह के उपशम आदि</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">नि.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">नि.सा./मू./53 अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी।53।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन के अन्तरंग हेतु दर्शनमोह के क्षय उपशम व क्षयोपशम है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p><span class="SanskritText">स.सि./1/7/26/1 अभ्यन्तरं दर्शनमोहस्योपशम: क्षय: क्षयोपशमो वा।</span> =<span class="HindiText">दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशम अभ्यन्तर साधन है। (रा.वा./7/14/40/26); (म.पु./9/118); (अन.ध./2/46/171)</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. लब्धि आदि</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">म.पु./ | <p><span class="SanskritText">म.पु./9/116 देशनाकाललब्ध्यादिबाह्यकारणसंपदि। अन्त:करणसामग्रयां भव्यात्मा स्याद् विशुद्धदृक् ।116।</span> =<span class="HindiText">जब देशनालब्धि और काललब्धि आदि बहिरंगकारण तथा करणलब्धिरूप अन्तरंग कारणरूप सामग्री की प्राप्ति होती है, तभी यह भव्य प्राणी विशुद्ध सम्यग्दर्शन का धारक हो सकता है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">न.च.वृ./ | <p><span class="PrakritText">न.च.वृ./315 काऊण करणलद्धी सम्यग्भावस्य कुणइ जं गहणं। उवसमखयमिस्सादो पयडीणं तं पि णियहेउं।315।</span> =<span class="HindiText">जिस करणलब्धि को करके सम्यक्भाव को तथा प्रकृतियों के उपशम क्षय व क्षयोपशम को ग्रहण करता है, वह करण लब्धि भी सम्यक्त्व में निजहेतु है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.9 | सम्यग्दर्शन - IV.2.9 ]](पंच लब्धि को प्राप्त करके ही प्रथमोपशम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है।)</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ क्षय#2 | क्षय - 2]]/3 (क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए भी करण लब्धि निमित्त है।)</p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./378 दैवात्कालादिसंलब्धौ प्रत्यासन्ने भवार्णवे। भव्यभावविपाकाद्वा जीव: सम्यक्त्वमश्नुते।378।</span> =<span class="HindiText">दैवयोग से अथवा कालादि लब्धि की प्राप्ति होने पर अथवा संसार-सागर के निकट होने पर अथवा भव्यभाव का विपाक होने पर जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।378। (विशेष देखें [[ नियति#2.1 | नियति - 2.1]],3)</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>4. द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप निमित्त</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">श्लो.वा./ | <p><span class="SanskritText">श्लो.वा./3/1/3/11/82/22 दर्शनमोहस्यापि संपन्नो जिनेन्द्रबिम्बादि द्रव्यं, समवसरणादि क्षेत्रं, कालश्चार्धपुद्गलपरिवर्तनविशेषादिर्भावश्चाधाप्रवृत्तिकरणादिरिति निश्चीयते। तदभावे तदुपशमादिप्रतिपत्ते:, अन्यथा तदभावात् ।</span> =<span class="HindiText">(विष आदि के नाश की भाँति) दर्शनमोह के नाश में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव हेतु होते हैं। तहाँ जिनेन्द्र बिम्ब आदि तो द्रव्य हैं, समवसरण आदि क्षेत्र हैं, अर्धपुद्गलपरिवर्तन विशेष काल है, अध:प्रवृत्तिकरण आदि भाव हैं। उस मोहनीय कर्म का अभाव होने पर ही उपशमादि की प्रतिपत्ति होती है। दूसरे प्रकारों से उन उपशम आदि के होने का अभाव है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-8,4/214/5 'सव्वविशुद्धो' त्ति एदस्स पदस्स अत्थो उच्चदे। तं जधा - एत्थ पढमसम्मत्तपडिवज्जंतस्स अधापवत्तकरण-अपुव्वकरण-अणियट्टीकरणभेदेण तिविहाओ विसोहीओ होंति।</span> =<span class="HindiText">अब सूत्र में (देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2 | सम्यग्दर्शन - IV.2 ]]उपशम सम्यक्त्व का स्वामित्व 'सर्वविशुद्ध' इस पद का अर्थ कहते हैं' वह इस प्रकार है - यहाँ पर प्रथमोशम सम्यक्त्व को प्राप्त होने वाले जीव के अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के भेद से तीन प्रकार की विशुद्धियाँ होती हैं। (विशेष देखें [[ करण#3 | करण - 3]]-6)</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ल.सा./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">ल.सा./जी.प्र./2/41/11 विशुद्ध इत्यनेन शुभलेश्यत्वं संगृहीतं उदयप्रस्तावे स्त्यानगृद्धयादित्रयोदयाभावस्य वक्ष्यमाणत्वात् जागरत्वमप्युक्तमेव।</span> =<span class="HindiText">गाथा में प्रयुक्त 'विशुद्ध' इस शब्द से यहाँ शुभलेश्या का संग्रह किया गया है। तथा आगे स्त्यानगृद्धि आदि तीन निद्राओं का अभाव कहेंगे जिससे 'जागृत अवस्था में होता है' ऐसा भी कह दिया गया समझना चाहिए।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>5. जाति स्मरण आदि</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p><span class="SanskritText">स.सि./2/3/153/6 'आदि' शब्देन जातिस्मरणादि: परिगृह्यते।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p><span class="SanskritText">स.सि./1/7/26/2 बाह्यं...केषांचिज्जातिस्मरणं...।</span> =<span class="HindiText">'आदि' शब्द से जाति स्मरण आदि का अर्थात् जातिस्मरण, जिनबिम्बदर्शन, धर्मश्रवण, जिनमहिमादर्शन, देवर्द्धिदर्शन व वेदना आदि का ग्रहण होता है। ये जातिस्मरण आदि बाह्यनिमित्त हैं। (रा.वा./2/3/2/105/4) (और भी देखें [[ शीर्षक नं#4 | शीर्षक नं - 4]])</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">न.च.वृ./ | <p><span class="PrakritText">न.च.वृ./316 तित्थयरकेवलिसमणभवसुमरणसत्थदेवमहिमादी। इच्चेवमाइ बहुगा बाहिरहेउ मुणेयव्वा।316। | ||
</span>=<span class="HindiText">तीर्थंकर, केवली, श्रमण, भवस्मरण, शास्त्र, देवमहिमा आदि बहुत प्रकार के बाह्य हेतु मानने चाहिए।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">तीर्थंकर, केवली, श्रमण, भवस्मरण, शास्त्र, देवमहिमा आदि बहुत प्रकार के बाह्य हेतु मानने चाहिए।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ क्रिया#3 | क्रिया - 3 ]]में सम्यक्त्ववर्धिनी क्रिया - (जिनपूजा आदि से सम्यक्त्व में वृद्धि होती है।)</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]I/3/1 (चारों गतियों में पृथक्-पृथक् जातिस्मरण आदि कारणों की यथायोग्य सम्भावना)</p> | ||
<p><strong> | <p><strong>6. उपरोक्त निमित्तों में अन्तरंग व बाह्य विभाग</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p><span class="SanskritText">रा.वा./1/7/14/40/26 बाह्यं चोपदेशादि।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन के बाह्यकारण उपदेश आदि हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText">देखें | <p class="HindiText">देखें [[ शीर्षक ]]नं.1,2 (नि.सा./गा.53 के अपरार्ध में दर्शनमोह के उपशमादि को अन्तरंग कारण कहा है। अत: पूर्वार्ध में कहे गये जिन सूत्र व उसके ज्ञायक पुरुष अर्थापत्ति से ही बाह्य निमित्त कहे गये सिद्ध होते हैं।)</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ शीर्षक ]]2 (दर्शनमोहनीय कर्म के उपशमादि अन्तरंग कारण हैं।)</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ शीर्षक ]]3 (देशनालब्धि व काललब्धि बाह्य कारण है तथा करण लब्धि अन्तरंग कारण है।)</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ शीर्षक ]]4 (भावात्मक होने के कारण करणलब्धि व शुभ लेश्या आदि अन्तरंग कारण हैं)।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>2. कारणों में कथंचित् मुख्यता गौणता व भेदाभेद</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. कारणों की कथंचित् मुख्यता</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p><span class="SanskritText">रा.वा./1/3/10/24/6 यदि हि सर्वस्य कालो हेतुरिष्ट: स्यात् बाह्यभ्यन्तरकारणनियमस्यदृष्टेष्टस्य वा विरोध: स्यात् ।</span> =<span class="HindiText">यदि सबका काल ही कारण मान लिया जाय (अर्थात् केवल काललब्धि से मुक्ति होना मान लिया जाये) तो बाह्य और आभ्यन्तर कारण सामग्री का ही लोप हो जायेगा।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-9,30/430/9 णइसग्गियमवि पढमसम्मत्तं तच्चट्ठे उत्तं तं हि एत्थेव दट्ठव्वं, जाइस्सरण-जिणबिंबदंसणेहि विणा उप्पज्जमाणणइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभवादो।</span> =<span class="HindiText">तत्त्वार्थ सूत्रों में नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व का भी कथन किया गया है, उसका भी पूर्वोक्तकरणों से उत्पन्न हुए सम्यक्त्व में ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिए, क्योंकि जातिस्मरण और जिनबिम्बदर्शन के बिना उत्पन्न होने वाला नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व असम्भव है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>2. कारणों की कथंचित् गौणता</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]I/3/4 [नारकी जीवों में केवल जाति स्मरण सम्यक्त्व का निमित्त नहीं है, बल्कि पूर्वभवकृत अनुष्ठानों की विफलता के दर्शन रूप उपयोग सहित जातिस्मरण कारण है।1। इसी प्रकार तहाँ केवल वेदना सामान्य कारण नहीं है, बल्कि 'यह वेदना अमुक मिथ्यात्व व असंयम का फल है' इस प्रकार के उपयोग सहित ही वह कारण है।2।]</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]I/3/9 [अवधिज्ञान द्वारा जिनमहिमा आदि देखते हुए भी अपनी वीतरागता के कारण ग्रैवेयक वासी देवों को विस्मय उत्पन्न कराने में असमर्थ वे उन्हें सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण नहीं होते।]</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]I/2/4 [मात्र देव ऋद्धि दर्शन सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण नहीं है बल्कि 'ये अमुक संयम के फल हैं अथवा बालतप आदि के कारण हम ऋद्धि हीन नीच देव रह गये' इत्यादि उपयोग सहित ही वे कारण हैं।]</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. कारणों का परस्पर में अन्तर्भाव</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]I/2/1 [नैसर्गिक सम्यक्त्व का भी इन्हीं कारणों से उत्पन्न सम्यक्त्व में अन्तर्भाव हो जाता है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]I/3/3 [ऋषियों व तीर्थक्षेत्रों के दर्शन का जिनबिम्बदर्शन में अन्तर्भाव हो जाता है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]I/3/6,7 [जिनबिम्बदर्शन व जिन महिमादर्शन का एक दूसरे में अन्तर्भाव हो जाता है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]I/3/8/4 [धर्मोपदेश व देवर्द्धि से उत्पन्न जातिस्मरण का धर्मोपदेश व देवर्द्धि में अन्तर्भाव हो जाता है।]</p> | ||
<p><strong> | <p><strong>4. कारणों में परस्पर अन्तर</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-9,37/433/5 देविद्धिदंसणं जाइसरणम्मि किण्ण पविसदि। ण पविसदि, अप्पणो अणिमादिरिद्धीओ दटठूण एदाओ रिद्धीओ जिणपण्णत्तधम्माणुट्ठाणादो जादाओ त्ति पढमसम्मत्तपडिवज्जणं जाइस्सरणणिमित्तं। सोहम्मिदादिदेवाणं महिड्ढीओ दटठूण एदाओ सम्मद्दंसणसंजुत्तसंजमफलेण जादाओ, अहं पुण सम्मत्तविरहिददव्वसंजमफलेण वाहणादिणीचदेवेसु उप्पण्णो त्ति णादूण पढमसम्मत्तग्गहणं देविद्धिदंसणणिबंधणं। तेण ण दोण्हमेयत्तमिदि। किं च जाइस्सरणमुप्पण्णपढमसमयप्पहुडि अंतोमुहुत्तकालब्भंतरे चेव होदि। देविद्धिदंसणं पुण कालंतरे चेव होदि, तेण ण दोण्हमेयत्तं। एसो अत्थो णेरइयाणं जाइस्सरणवेयणाभिभवणाणं पि वत्तव्वो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - देवर्द्धिदर्शन का जातिस्मरण में समावेश क्यों नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong> - 1. नहीं होता, क्योंकि, अपनी अणिमादिक ऋद्धियों को देखकर जब (देवों को) ये विचार उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ जिनभगवान् द्वारा उपदिष्ट धर्म के अनुष्ठान से उत्पन्न हुई हैं, तब प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति जातिस्मरणनिमित्तक होती है। किन्तु जब सौधर्मेन्द्रादिक देवों की महाऋद्धियों को देखकर यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ सम्यग्दर्शन से संयुक्त संयम के फल से प्राप्त हुई हैं, किन्तु मैं सम्यक्त्व से रहित द्रव्यसंयम के फल से वाहनादिक नीच देवों में उत्पन्न हुआ हूँ, तब प्रथम सम्यक्त्व का ग्रहण देवऋद्धिदर्शननिमित्तक होता है। इससे ये दोनों कारण एक नहीं हो सकते। 2. तथा जातिस्मरण उत्पन्न होने के प्रथम समय से लगाकर अन्तर्मुहूर्तकाल के भीतर ही होता है। किन्तु देवर्द्धिदर्शन, उत्पन्न होने के समय ये अन्तर्मुहूर्त काल के पश्चात् ही होता है। इसलिए भी उन दोनों कारणों में एकत्व नहीं है। 3. यही अर्थ नारकियों के जातिस्मरण और वेदनाभिभवरूप कारणों में विवेक के लिए भी कहना चाहिए।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]I/3/8/4 [धर्मोपदेश से हुआ जातिस्मरण और देविर्द्धि को देखकर हुआ जातिस्मरण ये दोनों जातिस्मरणरूप से एक होते हुए भी भिन्न-भिन्न माने गये हैं।]</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. कारणों का स्वामित्व व शंकाएँ</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. चारों गतियों में यथासम्भव कारण</strong></p> | ||
<p>(ष.खं./ | <p>(ष.खं./6/1/1,9-9/सूत्र नं./419-436); (ति.प./अधि./गा.नं.); (स.सि./1/7/26/2); (रा.वा./2/3/2/105/3) - </p> | ||
<table> | <table> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 644: | Line 645: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td> | <td>6-9</td> | ||
<td> | <td>2/359-360</td> | ||
<td> | <td>1-3 पृथिवी</td> | ||
<td> x</td> | <td> x</td> | ||
<td><img height="23" src="file:///C:/Users/chiragj029/Desktop/JSK/JSK 4 - htmls/361-370/clip_image002.gif" width="11"></td> | <td><img height="23" src="file:///C:/Users/chiragj029/Desktop/JSK/JSK 4 - htmls/361-370/clip_image002.gif" width="11"></td> | ||
Line 653: | Line 654: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td> | <td>10-12</td> | ||
<td> | <td>2/361</td> | ||
<td> | <td>4-7 पृथिवी</td> | ||
<td> x</td> | <td> x</td> | ||
<td> x</td> | <td> x</td> | ||
Line 667: | Line 668: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td> | <td>21-22</td> | ||
<td> | <td>5/309</td> | ||
<td>पंचे.संज्ञी गर्भज</td> | <td>पंचे.संज्ञी गर्भज</td> | ||
<td> x</td> | <td> x</td> | ||
Line 677: | Line 678: | ||
<tr> | <tr> | ||
<td> x</td> | <td> x</td> | ||
<td> | <td>5-308</td> | ||
<td>कर्मभूमिज</td> | <td>कर्मभूमिज</td> | ||
<td> x</td> | <td> x</td> | ||
Line 690: | Line 691: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td> | <td>29-30</td> | ||
<td> | <td>5/2956</td> | ||
<td>मनु.गर्भज</td> | <td>मनु.गर्भज</td> | ||
<td> x</td> | <td> x</td> | ||
Line 700: | Line 701: | ||
<tr> | <tr> | ||
<td>x</td> | <td>x</td> | ||
<td> | <td>5/2955</td> | ||
<td>कर्मभूमिज</td> | <td>कर्मभूमिज</td> | ||
<td> x</td> | <td> x</td> | ||
Line 713: | Line 714: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td> | <td>37-38</td> | ||
<td> | <td>3/239-240</td> | ||
<td>भवनवासी</td> | <td>भवनवासी</td> | ||
<td>जिनमहिमा द.</td> | <td>जिनमहिमा द.</td> | ||
Line 722: | Line 723: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td> | <td>37</td> | ||
<td> | <td>6/101</td> | ||
<td>व्यंतर</td> | <td>व्यंतर</td> | ||
<td> x</td> | <td> x</td> | ||
Line 731: | Line 732: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td> | <td>37</td> | ||
<td> | <td>7/317</td> | ||
<td>ज्योतिषी</td> | <td>ज्योतिषी</td> | ||
<td> x</td> | <td> x</td> | ||
Line 740: | Line 741: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td> | <td>37</td> | ||
<td> | <td>8/677-78</td> | ||
<td>सौधर्म-सहस्रार</td> | <td>सौधर्म-सहस्रार</td> | ||
<td> x</td> | <td> x</td> | ||
Line 749: | Line 750: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td> | <td>39-40</td> | ||
<td> </td> | <td> </td> | ||
<td>आनत आदि चार</td> | <td>आनत आदि चार</td> | ||
Line 758: | Line 759: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td> | <td>42</td> | ||
<td> | <td>8/679</td> | ||
<td>नवग्रैवेयक</td> | <td>नवग्रैवेयक</td> | ||
<td> x</td> | <td> x</td> | ||
Line 767: | Line 768: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td rowspan="2"> | <td rowspan="2">43</td> | ||
<td rowspan="2"> | <td rowspan="2">8/679</td> | ||
<td rowspan="2">अनुदिश व अनुत्तर</td> | <td rowspan="2">अनुदिश व अनुत्तर</td> | ||
<td>x</td> | <td>x</td> | ||
Line 779: | Line 780: | ||
</tr> | </tr> | ||
</table> | </table> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. जिनबिम्ब दर्शन सम्यक्त्व का कारण कैसे</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-9,22/427/9 कथं जिणबिंबदंसणं पढमसम्मत्तुप्पत्तीए कारणं। जिणबिंबदंसणेण णिधत्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसणादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - जिनबिम्बदर्शन प्रथमसम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण किस कारण से है ? <strong>उत्तर</strong> - जिनबिम्ब के दर्शन से निधत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्मकलाप का क्षय देखा जाता है। (विशेष - देखें [[ पूजा#2.4 | पूजा - 2.4]])।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. ऋषियों व तीर्थक्षेत्रों के दर्शनों का निर्देश क्यों नहीं</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-9,30/430/6 लद्धिसंपण्णरिसिदंसणं पि पढमसम्मत्तुप्पत्तीए कारणं होदि, तमेत्थ पुध किण्ण भण्णदे। ण, एदस्स वि जिणबिंबदंसणो अंतब्भावादो। उज्जंत-चंपा-पावाणयरादिदंसणं पि एदेण घेत्तव्वं। कुदो। तत्थतणजिणबिंबदंसण जिणणिव्वुइगमणकहणेहि विणा पढमसम्मत्तगहणाभावा।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - लब्धिसम्पन्न ऋषियों का दर्शन भी तो प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण होता है, अतएव इस कारण को यहाँ पृथक् रूप से क्यों नहीं कहा ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं कहा, क्योंकि, लब्धिसम्पन्न ऋषियों के दर्शन का भी जिनबिम्ब दर्शन में ही अन्तर्भाव हो जाता है। - ऊर्जयन्त पर्वत तथा चम्पापुर व पावापुर आदि के दर्शन का भी जिनबिम्बदर्शन के भीतर ही ग्रहण कर लेना चाहिए, क्योंकि, उक्त प्रदेशवर्ती जिनबिम्बों के दर्शन तथा जिनभगवान् के निर्वाण गमन के कथन के बिना प्रथम सम्यक्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>4. नरक में जातिस्मरण व वेदना सम्बन्धी</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-9,8/422/2 सव्वे णेरइया विभंगणाणेण एक्क-दो-तिण्णिआदिभवग्गहणाणि जेण जाणंति तेण सव्वेसिं जाइंभरत्तमत्थि त्ति सव्वणेरइएहि सम्मादिट्ठीहि होदव्वमिदि। ण एस दोसो, भवसामण्णसरणेण सम्मत्तुप्पत्तीए अणब्भुवगमादो। किं तु धम्मबुद्धीए पुव्वभवम्हि कयाणुट्ठाणाणं विहवलत्तदंसणस्स पढमसम्मत्तुप्पत्तीए कारणत्तमिच्छिज्जदे, तेण ण पुव्वुत्तदोसो ढुक्कदि त्ति। ण च एवंविहा बुद्धी सव्वणेरइयाणं होदि, तिव्वमिच्छत्तोदएण ओट्टद्धणेरइयाणं जाणंताणं पि एवंविहउवजोगाभावादो, तम्हा जाइस्सरणं पढमसम्मत्तुप्पत्तीए कारणं।...वेयणाणुहवणं सम्मत्तुप्पत्तीए कारणं ण होदि, सव्वणेरइयाणं साहारणत्तादो। जइ होइ तो सव्वे णेरइया सम्माइट्ठिणो होंति। ण चेवं, अणुवलंभा। परिहारो वुच्चदे - ण वेयणासामण्णं सम्मत्तुप्पत्तीए कारणं। किंतु जेसिमेसा वेयणा एदम्हादो मिच्छत्तादो इमादो असंजमादो (वा) उप्पण्णेत्ति उवजोगो, जादो तेसिं चेव वेयणा सम्मत्तुप्पत्तीए कारणं, णावरजीवाणं वेयणा, तत्थ एवंविहउवजोगाभावा।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - 1. चूँकि सभी नारकी जीव विभंगज्ञान के द्वारा एक, दो, या तीन आदि भवग्रहण जानते हैं (देखें [[ नरक ]]), इसलिए सभी के जातिस्मरण होता है। अतएव सारे नारकीय जीव सम्यग्दृष्टि होने चाहिए? <strong>उत्तर</strong> - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सामान्यरूप से भवस्मरण के द्वारा सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं होती। किन्तु धर्मबुद्धि से पूर्वभव में किये गये अनुष्ठानों की विफलता के दर्शन से ही प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारणत्व इष्ट है, जिससे पूर्वोक्त दोष प्राप्त नहीं होता। और इस प्रकार की बुद्धि सब नारकी जीवों के होती नहीं है, क्योंकि तीव्र मिथ्यात्व के उदय के वशीभूत नारकी जीवों के पूर्वभवों का स्मरण होते हुए भी उक्त प्रकार के उपयोग का अभाव है। इस प्रकार जातिस्मरण प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण है। <strong>प्रश्न</strong> - वेदना का अनुभव सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि, यह अनुभव तो सब नारकियों के साधारण होता है। यदि वह अनुभव सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण हो तो सब नारकी जीव सम्यग्दृष्टि होंगे। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता ? <strong>उत्तर</strong> - पूर्वोक्त शंका का परिहार कहते हैं। वेदना सामान्य सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण नहीं है, किन्तु जिन जीवों के ऐसा उपयोग होता है, कि अमुक वेदना अमुक मिथ्यात्व के कारण या अमुक असंयम से उत्पन्न हुई, उन्हीं जीवों की वेदना सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण होती है। अन्य जीवों की वेदना नरकों में सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण नहीं होती, क्योंकि उसमें उक्त प्रकार के उपयोग का अभाव होता है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>5. नरकों में धर्म श्रवण सम्बन्धी</strong></p> | ||
<p class="PrakritText"> | <p class="PrakritText"> | ||
ध. | ध.6/1,9-9,8/422/9 कधं तेसिं धम्मसुण्णं संभवदि, तत्थ रिसीणं गमणाभावा। ण सम्माइट्ठिदेवाणं पुव्वभवसंबंधीणं धम्मपदुप्पायणे वावदाणं सयलवाधाविरहियाणं तत्थ गमणदंसणादो।</p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-9,12/424/5 धम्मसवणादो पढमसम्मत्तस्स तत्थ उप्पत्ती णत्थि, देवाणं तत्थ गमणाभावा। तत्थतणसम्माइट्ठिधम्मसवणादो पढमसम्मत्तस्स उप्पत्ती किण्ण होदि त्ति वुत्ते ण होदि, तेसिं भवसंबंधेण पुव्वबेरसंबंधेण वा परोप्परविरुद्धाणं अणुगेज्झणुग्गाहयभावाणमसंभवादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - 1. नारकी जीवों के धर्म श्रवण किस प्रकार सम्भव है, क्योंकि, वहाँ तो ऋषियों के गमन का अभाव है ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि, अपने पूर्वभव के सम्बन्धी जीवों के धर्म उत्पन्न कराने में प्रवृत्त और समस्त बाधाओं से रहित सम्यग्दृष्टि देवों का नरकों में गमन देखा जाता है। 2. नीचे की चार पृथिवियों में धर्मश्रवण के द्वारा प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि वहाँ देवों के गमन का अभाव है। <strong>प्रश्न</strong> - वहाँ ही विद्यमान सम्यग्दृष्टियों से धर्मश्रवण के द्वारा प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति क्यों नहीं होती ? <strong>उत्तर</strong> - ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि नहीं होती, क्योंकि, भव सम्बन्ध से या पूर्व वैर के सम्बन्ध से परस्पर विरोधी हुए नारकी जीवों के अनुगृह्य अनुग्राहक भाव उत्पन्न होना असम्भव है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>6. मनुष्यों में जिनमहिमा दर्शन के अभाव सम्बन्धी</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-9,10/430/1 जिणमहिमं दट्ठूण वि केइं पढमसम्मत्तं पडिवज्जंता अत्थि तेण चदुहि कारणेहि पढमसम्मत्तं पडिवज्जंति त्ति वत्तव्वं। ण एस दोसो, एदस्स जिणबिंबदंसणे अंतब्भावादो। अधवा मणुसमिच्छाइट्ठीणं गयणगमणविरहियाणं चउव्विहदेवणिकाएहि णंदीसर-जिणवर-पडिमाणं कीरमाणमहामहिमावलोयणे संभवाभावा। मेरुजिणवरमहिमाओ विज्जाधरमिच्छादिट्ठिणो पेच्छंति त्ति एस अत्थो ण वत्तव्वओ त्ति केइं भणंति। तेण पुव्वुत्तो चेव अत्थो घेत्तव्वो। | ||
</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - जिनमहिमा को देखकर भी कितने ही मनुष्य प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं, इसलिए (तीन की बजाय) चार कारणों से मनुष्य प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं, ऐसा कहना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong> - | </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - जिनमहिमा को देखकर भी कितने ही मनुष्य प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं, इसलिए (तीन की बजाय) चार कारणों से मनुष्य प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं, ऐसा कहना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong> - 1. यह कोई दोष नहीं क्योंकि, जिनमहिमादर्शन का जिनबिम्ब दर्शन में अन्तर्भाव हो जाता है। 2. अथवा मिथ्यादृष्टि मनुष्यों के आकाश में गमन करने की शक्ति न होने से उनके चतुर्विध देवनिकायों के द्वारा किये जाने वाले नन्दीश्वरद्वीपवर्ती जिनेन्द्र प्रतिमाओं के महामहोत्सव का देखना सम्भव नहीं है, इसलिए उनके जिनमहिमादर्शनरूप कारण का अभाव है। 3. किन्तु मेरुपर्वत पर किये जाने वाले जिनेन्द्र महोत्सवों को विद्याधर मिथ्यादृष्टि देखते हैं, इसलिए उपर्युक्त अर्थ नहीं कहना चाहिए, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, अतएव पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना योग्य है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>7. देवों में जिनबिम्ब दर्शन क्यों नहीं</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-9,37/432/10 जिणबिंबदंसणं पढमसम्मत्तस्स कारणत्तेण एत्थ किण्ण उत्तं। ण एस दोसो; जिणमहिमादंसणम्मि तस्स अंतब्भावादो, जिणबिंबेण विणा जिणमहिमाए अणुववत्तीदो। सग्गोयरणजम्माहिसेय-परिणिक्खमणजिणमहिमाओ जिणबिंबेण बिणा कीरमाणीओ दिस्संति त्ति जिणबिंबदंसणस्स अविणाभावो णत्थि त्ति णासंकणिज्जं, तत्थ वि भाविजिणबिंबस्स दंसणुवलंभा। अधवा एदासु महिमासु उप्पज्जमाणपढमसम्मत्तं ण जिणबिंबदंसणणिमित्तं, किंतु जिणगुणसवणणिमित्तमिदि।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - यहाँ (देवों में) जिन बिम्बदर्शन को प्रथम सम्यक्त्व के कारणरूप से क्यों नहीं कहा ? <strong>उत्तर</strong> - 1. यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिन बिम्बदर्शन का जिनमहिमादर्शन में ही अन्तर्भाव हो जाता है, कारण जिनबिम्ब के बिना जिनमहिमा की उपपत्ति बनती नहीं है। <strong>प्रश्न</strong> - स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और परिनिष्क्रमणरूप जिनमहिमाएँ जिनबिम्ब के बिना ही की गयी देखी जाती हैं, इसलिए जिनमहिमा दर्शन में जिनबिम्बदर्शन का अविनाभावीपना नहीं है? <strong>उत्तर</strong> - ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए क्योंकि स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और परिनिष्क्रमण रूप जिनमहिमाओं में भी भावी जिनबिम्ब का दर्शन पाया जाता है। 2. अथवा इन महिमाओं में उत्पन्न होने वाला प्रथम सम्यक्त्व जिनबिम्बदर्शन निमित्तक नहीं है, किन्तु जिनगुण श्रवण निमित्तक है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>8. आनतादि में देवऋद्धि दर्शन क्यों नहीं</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-9,40/435/1 देविद्धिदंसणेणं चत्तारि कारणणि किण्ण वुत्ताणि। तत्थ महिद्धिसंजुत्तुवरिमदेवाणमागमाभावा। ण तत्थट्ठिददेवाणं महिद्धिदंसणं पढमसम्मत्तुप्पत्तीए णिमित्तं, भूयो दंसणेण तत्थ विम्हयाभावा, सुक्कलेस्साए महिद्धिदंसणेण संकिलेसाभावादो वा। सोऊण जं जाइसरणं, देविद्धिं दट्ठूण जं च जाइस्सरणं, एदाणि दो वि जदि वि पढमसम्मत्तुप्पत्तीए णिमित्तं होंति, तो वि तं सम्मत्तं जाइस्सरणणिमित्तमिदि एत्थ ण घेप्पदि, देविद्धिदंसणसुणणपच्छायदजाइस्सरणणिमित्तत्तादो। किंतु सवणदेविद्धिदंसणणिमित्तमिदि घेत्तव्वं।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - यहाँ पर (आनतादि चार सवर्गों में) देवऋद्धिदर्शन सहित चार कारण क्यों नहीं कहे ? <strong>उत्तर</strong> - 1. आनत आदि चार कल्पों में महर्धि से संयुक्त ऊपर के देवों के आगमन नहीं होता, इसलिए वहाँ महर्द्धिदर्शनपररूप प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण नहीं पाया जाता। 2. और उन्हीं कल्पों में स्थित देवों के महर्द्धि का दर्शन प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का निमित्त हो नहीं सकता, क्योंकि उसी ऋद्धि को बार-बार देखने से विस्मय नहीं होता। 3. अथवा उक्त कल्पों में शुक्ललेश्या के सद्भाव के कारण महर्द्धि के दर्शन से उन्हें कोई संक्लेशभाव उत्पन्न नहीं होते। 4. धर्मोपदेश सुनकर जो जातिस्मरण होता है और देवर्द्धि को देखकर जो जातिस्मरण होता है, ये दोनों ही जातिस्मरण यद्यपि प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के निमित्त होते हैं, तथापि उनसे उत्पन्न सम्यक्त्व वहाँ (आनत आदि में) जातिस्मरण निमित्तक नहीं माना गया है, क्योंकि यहाँ देवर्द्धि के दर्शन व धर्मोपदेश के श्रवण के पश्चात् ही उत्पन्न हुए जातिस्मरण का निमित्त प्राप्त हुआ है। अतएव यहाँ धर्मोपदेश श्रवण और देवर्द्धि दर्शन को ही निमित्त मानना चाहिए।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>9. नवग्रैवेयकों में जिनमहिमा व देवर्द्धि दर्शन क्यों नहीं</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-9,42/436/3 एत्थ महिद्धिदंसणं णत्थि, उवरिमदेवाणमागमाभावा। जिणमहिमदंसणं पि णत्थि, णंदीसरादिमहिमाणं तेसिमागमणाभावा। ओहिणाणेण तत्थट्ठिया चेव जिणमहिमाओ पेच्छंति त्ति जिणमहिमादंसणं वि तेसिं सम्मत्तुप्पत्तीए णिमित्तमिदि किण्ण उच्चदे। ण तेसिं वीयरायाणं जिणमहिमादंसणेण विभयाभावा।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - नवग्रैवेयकों में महर्द्धिदर्शन नहीं है, क्योंकि यहाँ ऊपर के देवों के आगमन का अभाव है। यहाँ जिनमहिमादर्शन भी नहीं है, क्योंकि ग्रैवेयकविमानवासी देव नन्दीश्वर आदि के महोत्सव देखने नहीं आते। <strong>प्रश्न</strong> - ग्रैवेयक देव अपने विमान में रहते हुए ही अवधिज्ञान से जिनमहिमाओं को देखते तो हैं, अतएव जिनमहिमा का दर्शन भी उनके सम्यक्त्व की उत्पत्ति में निमित्त होता है ऐसा क्यों नहीं कहा? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि, ग्रैवेयक विमानवासी देव वीतराग होते हैं अतएव जिनमहिमा के दर्शन से उन्हें विस्मय उत्पन्न नहीं होता।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>10. नवग्रैवेयक में धर्मश्रवण क्यों नहीं</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-9,42/436/6 कधं तेसिं धम्मसुणणसंभवो। ण, तेसिं अण्णोण्णसल्लावे संते अहमिंदत्तस्स विरोहाभावा।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - ग्रैवेयक विमानवासी देवों के धर्मश्रवण किस प्रकार सम्भव होता है ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि उनमें परस्पर संलाप होने पर अहमिन्द्रत्व से विरोध नहीं होता।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>IV उपशमादि समयग्दर्शन</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>IV उपशमादि समयग्दर्शन</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. उपशमादि सम्यग्दर्शन सामान्य</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. सम्यक्त्व मार्गणा के उपशमादि भेद</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ष.खं./ | <p><span class="PrakritText">ष.खं./1/1,1/सूत्र 144/395 सम्मत्ताणुवादेण अत्थि सम्माइट्ठी खयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी मिच्छाइट्ठी चेदि।144।</span> =<span class="HindiText">सम्यक्त्व मार्गणा के अणुवाद से सामान्य की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि सामान्य और विशेष की अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं।144। (द्र.सं.टी./13/40/1/); (गो.जी./जी.प्र./704/1142/1)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ज्ञा./ | <p><span class="SanskritText">ज्ञा./6/7 क्षीणप्रशान्तमिश्रासु मोहप्रकृतिषुक्रमात् । तत् स्याद्द्रव्यस्यादिसामग्रया पुंसां सद्दर्शनं त्रिधा।7।</span> =<span class="HindiText">दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों के क्षय उपशम और क्षयोपशमरूप होने से क्रमश: तीन प्रकार का सम्यक्त्व है - क्षायिक, औपशमिक व क्षायोपशमिक।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. तीनों सम्यक्त्वों में कथंचित् एकत्व</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ध. | <p><span class="SanskritText">ध.1/1,1,145/396/8 किं तत्सम्यक्त्वगतसामान्यमिति चेत् त्रिष्वपि सम्यग्दर्शनेषु य: साधारणोंऽशस्तत्सामान्यम् । क्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकेषु परस्परतो भिन्नेषु किं सादृश्यमिति चेन्न, तत्र यथार्थश्रद्धानं प्रति साम्योपलम्भात् । क्षयक्षयोपशमविशिष्टानां यथार्थश्रद्धानानां कथं समानतेति चेद्भवतु विशेषणानां भेदो न विशेष्यस्य यथार्थश्रद्धानस्य। | ||
</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - समयक्त्व में रहने वाला वह सामान्य क्या वस्तु है (जिससे कि इन भेदों से पृथक् एक सामान्य सम्यग्दृष्टि संज्ञक भेद ग्रहण कर लिया गया?) <strong>उत्तर</strong> - तीनों ही सम्यग्दर्शनों में जो साधारण धर्म है, वह सामान्य शब्द से यहाँ पर विवक्षित है। <strong>प्रश्न</strong> - क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दर्शनों के परस्पर भिन्न भिन्न होने पर सदृशता क्या वस्तु हो सकती है? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि उन तीनों सम्यग्दर्शनों में यथार्थ श्रद्धान के प्रति समानता क्यों पायी जाती है। <strong>प्रश्न</strong> - क्षय, क्षयोपशम और उपशम विशेषण से युक्त यथार्थ श्रद्धानों में समानता कैसे हो सकती है ? <strong>उत्तर</strong> - विशेषणों में भेद भले ही रहा आवे, परन्तु इससे यथार्थ श्रद्धानरूप विशेष्य में भेद नहीं पड़ता है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - समयक्त्व में रहने वाला वह सामान्य क्या वस्तु है (जिससे कि इन भेदों से पृथक् एक सामान्य सम्यग्दृष्टि संज्ञक भेद ग्रहण कर लिया गया?) <strong>उत्तर</strong> - तीनों ही सम्यग्दर्शनों में जो साधारण धर्म है, वह सामान्य शब्द से यहाँ पर विवक्षित है। <strong>प्रश्न</strong> - क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दर्शनों के परस्पर भिन्न भिन्न होने पर सदृशता क्या वस्तु हो सकती है? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि उन तीनों सम्यग्दर्शनों में यथार्थ श्रद्धान के प्रति समानता क्यों पायी जाती है। <strong>प्रश्न</strong> - क्षय, क्षयोपशम और उपशम विशेषण से युक्त यथार्थ श्रद्धानों में समानता कैसे हो सकती है ? <strong>उत्तर</strong> - विशेषणों में भेद भले ही रहा आवे, परन्तु इससे यथार्थ श्रद्धानरूप विशेष्य में भेद नहीं पड़ता है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. प्रथमोपशम सम्यक्त्व निर्देश</strong></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>1. उपशम सम्यक्त्व सामान्य का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./ | <p><span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./1/165-166 देवे अणण्णभावो विसयविरागो य तच्चसद्दहणं। दिट्ठीसु असम्मोहो सम्मत्तमणूणयं जाणे।165। दंसणमोहस्सुदए उवसंते सच्चभावसद्दहणं। उवसमसम्मत्तमिणं पसण्णकलुसं जहा तोयं।166।</span> =<span class="HindiText">उपशम सम्यक्त्व के होने पर जीव के सत्यार्थ देव में अनन्य भक्तिभाव, विषयों से विराग, तत्त्वों का श्रद्धान और विविध मिथ्यादृष्टियों (मतों) में असम्मोह प्रगट होता है। इसे क्षायिक सम्यक्त्व से कुछ भी कम नहीं जानना चाहिए।165। जिस प्रकार पंकादि जनित कालुष्य के प्रशान्त होने पर जल निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार दर्शन मोह के उदय के उपशान्त होने पर जो सत्यार्थ श्रद्धान उत्पन्न होता है, उसे उपशम सम्यग्दर्शन कहते हैं।166।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.1/1,1,144/गा.216/396 दंसणमोहुवसमदो उप्पज्जइ जं पयत्थ सद्दहणं। उवसमसम्मत्तमिणं पसण्णमलपंकतोयसमं।</span> =<span class="HindiText">दर्शनमोहनीय के उपशम से, कीचड़ के नीचे बैठ जाने से निर्मल जल के समान, पदार्थों का जो निर्मल श्रद्धान होता है, वह उपशम सम्यग्दर्शन है।216। (गो.जी./मू./650/1099)</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p><span class="SanskritText">स.सि./2/3/152/9 आसां सप्तानां प्रकृतीनामुवशमादौपशमिकं सम्यक्त्वम् | ||
</span>। =<span class="HindiText">(अनन्तानुबंधी चार और दर्शनमोह की तीन) इन सात प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व होता है। (रा.वा./ | </span>। =<span class="HindiText">(अनन्तानुबंधी चार और दर्शनमोह की तीन) इन सात प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व होता है। (रा.वा./2/3/1/104/17)।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.1/1,1,12/171/5 एदासिं सत्तण्हं पयडीणमुवसमेण उवसमसम्माइट्ठी होइ।...एरिसो चेय।</span> =<span class="HindiText">पूर्वोक्त दर्शनमोह की सात प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यग्दृष्टि होता है। यह भी क्षायिक जैसा ही निर्मल व सन्देह रहित होता है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. उपशम सम्यक्त्व का स्वामित्व</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ष.खं./ | <p><span class="PrakritText">ष.खं./1/1,1/सू.147/398 उवसमसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव उवसंतकसायवीयरायछदुमत्थात्ति। | ||
</span>=<span class="HindiText">उपशम सम्यग्दृष्टि जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। (विशेष देखें | </span>=<span class="HindiText">उपशम सम्यग्दृष्टि जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। (विशेष देखें [[ वह वह मार्गणा तथा ]]'सत्')।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>3. उपशम सम्यक्त्व के 2 भेद व प्रथमोपशम का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.क./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">गो.क./जी.प्र./550/742/3 तत्राद्यं प्रथमद्वितीयभेदाद् द्वेधा।</span> =<span class="HindiText">उनमें से आदि का अर्थात् उपशम सम्यक्त्व दो प्रकार का है - प्रथम व द्वितीय।</span></p> | ||
<p class="HindiText">ल.सा./भाषा/ | <p class="HindiText">ल.सा./भाषा/2/41/18 मिथ्यादृष्टि गुणस्थानतैं छूटि उपशम सम्यक्त्व होइ ताका नाम (प्रथम) उपशम सम्यक्त्व है। (विशेष देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.4.2 | सम्यग्दर्शन - IV.2.4.2]])।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>4. प्रथमोपशम का प्रतिष्ठापक</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. गति व जीव समासों की अपेक्षा</strong></p> | ||
<p class="PrakritText"> | <p class="PrakritText"> | ||
ष.खं. | ष.खं.6/1,9-8/सूत्र 9/238 उवसामेंतो कम्हि उवसामेदि, चदुसु विगदीसु उवसामेदि। चदुसु वि गदीसु उवसामेंतो पंचिंदिएसु उवसामेंतो पंचिंदिएसु उवसामेदिणो एइंदियविगलिंदियेसु। पंचिंदिएसु उवसामेंतो सण्णीसु उवसामेदि, णो असण्णीसु। सण्णीसु उवसामेंतो गब्भोवकंतिएसु उवसामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु। गब्भोवक्कंतिएसु उवसामेंतो पज्जत्तएसु उवसामेदि, णो अपज्जत्तएसु। पज्जत्तएसु उवसामेंतो संखेज्जवस्साउग्गेसु वि उवसामेदि, असंखेज्जवस्साउगेसु वि।9।</p> | ||
<p><span class="PrakritText">ष.खं. | <p><span class="PrakritText">ष.खं.6/1,9-9/सूत्र 1-33/418-431 णेरइया...पज्जत्तएसु उप्पादेंति, णो अप्पज्जत्तएसु।1-3। एवं जाव सत्तसु पुढवीसु णेरइया।5। तिरिक्ख...पंचिंदिएसु...सण्णीसु...गब्भोवकंतिएसु...पज्जत्तएसु उप्पादेंति।13-18। एवं जाव सव्वदीवसमुद्देसु।20। मणुस्सा...गब्भोवकंतिएसु...पज्जत्तएसु उप्पादेंति।23-25। एवं जाव अड्ढाइज्जदीवसमुद्देसु।28। देवा...पज्जत्तेसु उप्पादेंति। एवं जाव उवरिमगेवज्जविमाणवासियदेवा त्ति।31-35।</span> =<span class="HindiText">1. दर्शनमोहनीय कर्म को उपशमाता हुआ यह जीव कहाँ उपशमाता है? चारों ही गतियों में उपशमाता है। चारों ही गतियों में पंचेन्द्रियों में उपशमाता है, एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियों में नहीं। पंचेन्द्रियों में उपशमाता हुआ संज्ञियों में उपशमाता है, असंज्ञियों में नहीं। संज्ञियों में उपशमाता हुआ गर्भोपक्रान्तिकों में उपशमाता है सम्मूर्च्छियों में नहीं- गर्भोपक्रान्तिकों में उपशमाता हुआ पर्याप्तकों में उपशमाता है अपर्याप्तकों में नहीं। पर्याप्तकों में उपशमाता हुआ संख्यातवर्ष की आयुवाले जीवों में भी उपशमाता है और असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीवों में भी उपशमाता है।9। 2. (विशेषरूप से व्याख्यान करने पर) नरक गति में सातों ही पृथिवियों में पर्याप्तक ही उपशमाता है।1-5। तिर्यंचगति में सर्व ही द्वीप समुद्रों में से पञ्चेन्द्रिय संज्ञी गर्भज पर्याप्तक ही उपशमाते हैं।13-20। मनुष्यगति में अढ़ाई द्वीप समुद्रों में गर्भज पर्याप्तक ही उपशमाते हैं।23-28। देवगति में भवनवासियों से लेकर उपरिम ग्रैवेयक पर्यंत पर्याप्तक ही उपशमाते हैं।31-35। [इनसे विपरीत में अर्थात् अपर्याप्तक आदि में नहीं उपशमाता है।] (रा.वा./2/3/2/105/1)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">क.पा.सुत्त/ | <p><span class="PrakritText">क.पा.सुत्त/10/गा.95-96/630 दंसणमोहस्सुवसामगो दु चदुसु वि गदीसु बोद्धव्वो। पंचिंदिओ य सण्णी णियमा सो होई पज्जत्तो।95। सव्वणिरय-भवणेसु दीवसमुद्दे गुह जोदिसि-विमाणे। अभिजोग्ग-अणभिजोग्ग उवसामो होइ बोद्धव्वो।96।</span> =<span class="HindiText">1. दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम करने वाला जीव चारों ही गतियों में जानना चाहिए। वह जीव नियम से पंचेन्द्रिय, संज्ञी और पर्याप्तक होता है।95। (पं.सं./प्रा./1/204/), (ध.6/1,9-8,9/गा.2/239) (और भी देखें [[ उपशीर्षक नं#2 | उपशीर्षक नं - 2]])। 2. इन्द्रक श्रेणीबद्ध आदि सर्व नरकों में, सर्व प्रकार के भवनवासी देवों में, (तिर्यंचों की अपेक्षा) सर्व द्वीपसमुद्रों में, (और मनुष्यों की अपेक्षा अढ़ाई द्वीप समुद्रों में), सर्व व्यन्तर देवों में, समस्त ज्योतिष देवों में, सौधर्म से लेकर सर्व अभियोग्य अर्थात् वाहनादि रूप नीच देवों में, उनसे भिन्न किल्विष आदि अनुत्तम तथा पारिषद आदि उत्तम देवों में दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम होता है।96। (ध.6/1,9-8,9/गा.3/239)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-8,4/206/8 तत्थ वि असण्णी ण होदि, तेसु मणेण विणा विसिट्ठणाणाणुप्पत्तीदो। तदो सो सण्णी चेव।</span> =<span class="HindiText">पंचेन्द्रियों में भी वे असंज्ञी नहीं होते, क्योंकि, असंज्ञी जीवों में मन के बिना विशिष्ट ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. गुणस्थान की अपेक्षा</strong></p> | ||
<p class="PrakritText"> | <p class="PrakritText"> | ||
ष.खं. | ष.खं.6/1,9-8/सूत्र 4/206 सो पुण पंचिंदिओ सण्णीमिच्छाइट्ठी पज्जत्तओ सव्वविसुद्धो।4।</p> | ||
<p><span class="PrakritText">ष.खं. | <p><span class="PrakritText">ष.खं.6/1,9-9/सूत्र नं./418 णेरइयामिच्छाइट्ठी...।1। तिरिक्खमिच्छाइट्ठी...।13। मणुस्सा मिच्छाइट्ठी...।23। देवा मिच्छाइट्ठी पढमसम्मत्तमुप्पादेंति।31।</span> =<span class="HindiText">1. वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने वाला जीव पञ्चेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि पर्याप्त और सर्व विशुद्ध होता है।4। (रा.वा./2/3/2/105/26); (ल.सा./मू./2/41); (गो.क./जी.प्र./550/442/9 में उद्धृत गाथा।) 2. नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य व देव ये चारों ही मिथ्यादृष्टि प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हैं।1-31।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-8,4/206/9 सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी वा पढमसम्मत्तं ण पडिवज्जदि, एदेसिं तेण पज्जाएण परिणमनसत्तीए अभावादो। उवसमसेडिं चडमाणवेदगसम्माइटि्ठणो उवसमसम्मत्तं पडिवज्जंता अत्थि, किंतु ण तस्स पढमसम्मत्तववएसो। कुदो, सम्मत्ता तस्सुप्पत्तीए। तदो तेण मिच्छाइटि्ठणो चेव होदव्वं।</span> =<span class="HindiText">सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा वेदक सम्यग्दृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, इन जीवों के उस प्रथमोपशम सम्यक्त्वरूप पर्याय के द्वारा परिणमन होने की शक्ति का अभाव है। उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले वेदकसम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले होते हैं, किन्तु उस सम्यक्त्व को 'प्रथमोपशम सम्यक्त्व' यह नाम नहीं है, क्योंकि उस उपशम श्रेणीवाले के उपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति सम्यक्त्व से होती है। इसलिए प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव मिथ्यादृष्टि ही होना चाहिए।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. उपयोग, योग व विशुद्धि आदि की अपेक्षा</strong></p> | ||
<p class="HindiText">देखें | <p class="HindiText">देखें [[ उपशीर्षक नं#2 | उपशीर्षक नं - 2]] - (वह सर्व विशुद्ध होना चाहिए)।</p> | ||
<p><span class="PrakritText">क.पा.सुत्त/ | <p><span class="PrakritText">क.पा.सुत्त/10/गा/98/632 सागारे पट्ठवगो मज्झिमो य भजियव्वो। जोगे अण्णदरम्हि य जहण्णगो तेउलेस्साए।98। | ||
</span><span class="HindiText">साकारोपयोग में वर्तमान जीव ही दर्शनमोहनीय कर्म के उपशम का प्रस्थापक होता है। किन्तु निष्ठापक और मध्यस्थानवर्ती जीव भजितव्य है। तीनों योगों में से किसी एक योग में वर्तमान और तेजोलेश्या के जघन्य अंश को प्राप्त जीव दर्शनमोह का उपशमन करता | </span><span class="HindiText">साकारोपयोग में वर्तमान जीव ही दर्शनमोहनीय कर्म के उपशम का प्रस्थापक होता है। किन्तु निष्ठापक और मध्यस्थानवर्ती जीव भजितव्य है। तीनों योगों में से किसी एक योग में वर्तमान और तेजोलेश्या के जघन्य अंश को प्राप्त जीव दर्शनमोह का उपशमन करता है।98। (ध.6/1,9-8,9/गा.5/239); (ल.सा./मू./101/138)</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p><span class="SanskritText">रा.वा./9/1/12/588/25 गृहीतुमारभमाण: शुभपरिणामाभिमुख: अन्तर्मुहूर्तमनन्तगुणवृद्धया वर्द्धमानविशुद्धि:...अन्यतमेन मनोयोगेन...अन्यतमेन वाग्योगेन...अन्यतमेन काययोगेन वा समाविष्ट: हीयमानान्यतमकषाय: साकारोपयोग:, त्रिष्वन्यतमेन वेदेन, संक्लेशविरहित:।</span> =<span class="HindiText">प्रथम सम्यक्त्व को प्रारम्भ करने वाला जीव शुभपरिणाम के अभिमुख होता है, अन्तर्मुहूर्त में अनन्तगुण वृद्धि के द्वारा वर्धमान विशुद्धि वाला होता है। (तीनों योगों के सर्व उत्तर भेदों में से) अन्यतम मनोयोग वाला या अन्यतम वचनयोग वाला या अन्यतम काययोग वाला होता है। हीनमान अन्यतम कषाय वाला होता है। साकारोपयोगी होता है। तीनों वेदों में से अन्यतम वेदवाला होता है। और संक्लेश से रहित होता है। (ध.6/1,9-8,4/207/4)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-8,4/207/6 असंजदो। मदिसुदसागारुवजुत्तो। तत्थ अणागारुवजोगो णत्थि, तस्स बज्झत्थे पउत्तीए अभावादो। छण्णं लेस्साणमण्णदरलेस्सो किंतु हीयमाणअसुद्धलेस्सो वड्ढमाणसुहलेस्सो। | ||
</span>=<span class="HindiText">(वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख जीव) असंयत होता है, मति व श्रुतज्ञान रूप साकारोपयोगी होता है, अनाकारोपयोगी नहीं होता, क्योंकि, अनाकार उपयोग की बाह्य अर्थ की प्रवृत्ति का अभाव है। कृष्णादि छहों लेश्याओं में से किसी एक लेश्या वाला हो, किन्तु यदि अशुभ लेश्या वाला हो तो हीयमान होना चाहिए, और यदि शुभ लेश्या हो तो वर्धमान होना चाहिए।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">(वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख जीव) असंयत होता है, मति व श्रुतज्ञान रूप साकारोपयोगी होता है, अनाकारोपयोगी नहीं होता, क्योंकि, अनाकार उपयोग की बाह्य अर्थ की प्रवृत्ति का अभाव है। कृष्णादि छहों लेश्याओं में से किसी एक लेश्या वाला हो, किन्तु यदि अशुभ लेश्या वाला हो तो हीयमान होना चाहिए, और यदि शुभ लेश्या हो तो वर्धमान होना चाहिए।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-8,4/214/5 'सव्वविसुद्धो' त्ति एदस्स पदस्स अत्थो उच्चदे। तं जधा - एत्थ पढमसम्मत्तं पडिवज्जंतस्स अधापवत्तकरण-अपुव्वकरण-अणियट्टीकरणभेदेण तिविहाओ विसोहीओ होंति।</span> =<span class="HindiText">अब सूत्रोक्त 'सर्वविशुद्ध' (देखें [[ इसी शीर्षक में ]]) इस पद का अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है - यहाँ पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होने वाले जीव के अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के भेद से तीन प्रकार की विशुद्धियाँ होती हैं।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">गो.जी./मू./ | <p><span class="PrakritText">गो.जी./मू./652/1100 चदुगदिभव्वो सण्णी पज्जत्तो य सागारो। जागारो सल्लेस्सो सलद्धिगो सम्ममुवगमई।</span> =<span class="HindiText">चारों में से किसी भी गति वाला, भव्य, सैनी, पर्याप्त, साकारोपयोगी, जागृत, शुभलेश्या वाला, तथा करण लब्धिरूप परिणमा जीव यथासम्भव सम्यक्त्व को प्राप्त होता है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ल.सा./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">ल.सा./जी.प्र./2/41/12 विशुद्ध इत्यनेन शुभलेश्यत्वं संगृहीतं उदयप्रस्तावे स्त्यानगृद्धयादित्रयोदयाभावस्य वक्ष्यमाणत्वात् जागरत्वमप्युक्तमेव।</span> =<span class="HindiText">गाथा में प्रयुक्त 'विशुद्ध' इस शब्द से शुभ लेश्या का ग्रहण हो जाता है और स्त्यानगृद्धि आदि तीनों प्रकृतियों के उदय का अभाव आगे कहा जायेगा (देखें [[ उदय#6 | उदय - 6]]), इसलिए जागृतपना भी कह ही दिया गया।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>4. कर्मों के स्थिति बन्ध व स्थिति सत्त्व की अपेक्षा</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ष.खं. | <p><span class="PrakritText">ष.खं.6/1,9-8 सूत्र 3,5/203,222 एदेसिं चेव सव्वकम्माणं जावे अंतोकोडाकोडिटि्ठदिं बंधदि तावे पढमसम्मत्तं लभदि।3। एदेसिं चेव सव्वकम्माणं जाधे अंतोकोडाकोडिटि्ठदिं ठवेदि संखेज्जेहि सागरोवमसहस्सेहि ऊणियं ताधे पढमसम्मत्तमुप्पादेदि।5।</span> =<span class="HindiText">इन ही सर्व कर्मों की अर्थात् आठों कर्मों की जब अन्त:कोड़ाकोड़ी स्थिति को बाँधता है, तब यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।3। जिस समय इन ही सर्व कर्मों की संख्यात हज़ार सागरोपमों से हीन अन्त:कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण स्थिति को स्थापित करता है उस समय यह जीव प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है।5। (ल.सा./मू./9/47)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ल.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">ल.सा./मू./8/46 जेट्ठवरटि्ठदिबंधे जेट्ठवरटि्ठदितियाण सत्ते य। ण य पडिवज्जदि पढमुवसमसम्मं मिच्छजीवो हु।8।</span> =<span class="HindiText">संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में सम्भव ऐसे उत्कृष्ट स्थिति बन्ध और उत्कृष्ट स्थिति अनुभाग व प्रदेश सत्त्व - तथा विशुद्ध क्षपक श्रेणी वाले के सम्भव ऐसे जघन्य स्थिति बन्ध और जघन्य स्थिति, अनुभाग व प्रदेश सत्त्व, इनके होते हुए जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करता। <strong>नोट</strong> - [सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों के स्थिति सत्त्व सम्बन्धी विशेषता (देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.6 | सम्यग्दर्शन - IV.2.6]]]</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>5. जन्म के पश्चात् प्राप्ति योग्य सर्वलघु काल</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ष.खं. | <p><span class="PrakritText">ष.खं.6/1,9-9/सूत्र नं./419-431 णेरइया मिच्छाइट्ठी/.../1/पज्जत्तएसु उप्पादेंता अंतोमुहुत्तप्पहुडि जाव तत्पाओग्गंतोमुहुत्तं उवरिमुप्पादेंति, णो हेट्ठा।4। एवं जाव सत्तसु पुढवीसु णेरइया।5। तिरिक्खमिच्छाइट्ठी...।13। पज्जत्तएसु उप्पादेंता दिवसपुधत्तप्पहुडि जावमुवरिमुप्पादेंति णो हेट्ठादो।19। एवं जाव सव्वदीवसमुद्देसु।20। मणुस्सा मिच्छादिट्ठी...।23। पज्जत्तएसु उप्पादेंता अट्ठवारप्पहुडि जाव उवरिमुप्पादेंति, णो हेट्ठादो।27। एवं जाव अड्ढाइज्जदीवसमुद्देसु।28। देवा मिच्छाइट्ठी...।31। पज्जत्तएसु उप्पाएंता अंतोमुहुत्तप्पहुडि जाव उवरि उप्पाएंति, णो हेट्ठदो।34। एवं जाव उवरिमउवरिमगेवज्जविमाणवासियदेवा त्ति।35।</span> =<span class="HindiText">नारकी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तकों में सम्यक्त्व उत्पन्न करने वाले अन्तर्मुहूर्त से लगाकर अपने योग्य अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् उत्पन्न करते हैं, उससे नीचे नहीं। इस प्रकार सातों पृथिवियों में जानना चाहिए।1-5। तिर्यंचमिथ्यादृष्टि पर्याप्तकों में सम्यक्त्व उत्पन्न करने वाले जीव दिवसपृथक्त्व से लगाकर उपरिम काल में उत्पन्न करते हैं, नीचे के काल में नहीं। इस प्रकार सर्व द्वीपसमुद्रों में जानना चाहिए।13-30। मनुष्य मिथ्यादृष्टि पर्याप्तकों में सम्यक्त्व उत्पन्न करने वाले जीव आठ वर्ष से लेकर ऊपर किसी समय भी उत्पन्न करते हैं, उससे नीचे के काल में नहीं। इस प्रकार अढाई द्वीपसमुद्रों में जानना चाहिए।23-28। देव मिथ्यादृष्टि पर्याप्तकों में प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करने वाले जीव अन्तर्मुहूर्त काल से लेकर ऊपर उत्पन्न करते हैं, उससे नीचे के काल में नहीं। इस प्रकार भवनवासी से लेकर उपरिम उपरिम ग्रैवेयक विमानवासी देवों तक जानना चाहिए।31-35। (रा.वा./2/3/1/105/2,6,8,12)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.13/5,4,31/111/10 छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदम्मि एक्को, विस्समणे विदियो, विसोहिआवूरणे तदियो मुहुत्तो। किमट्ठमेदे अवणिज्जंते। ण, एदेसु सम्मत्तग्गहणाभावादो।</span> =<span class="HindiText">छह पर्याप्तियों से प्राप्त होने का प्रथम अन्तर्मुहूर्त है, विश्राम करने का दूसरा अन्तर्मुहूर्त है और विशुद्धि को पूरा करने का तीसरा अनतर्मुहूर्त है। <strong>प्रश्न</strong> - ये अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितियों में से क्यों घटाये जाते हैं ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि, (जन्म होने के पश्चात् ) इन अन्तर्मुहूर्तों के भीतर सम्यक्त्व का ग्रहण नहीं होता है। (अर्थात् ये तीन अन्तर्मुहूर्त बीत जाने के पश्चात् चौथे अन्तर्मुहूर्त में ही सम्यक्त्व का ग्रहण सम्भव है, उससे पहले नहीं। पर ये चारों अन्तर्मुहूर्त मिलकर भी एक अन्तर्मुहूर्त के काल को उल्लंघन नहीं कर पाते। ऐसे अन्तर्मुहूर्त द्वारा नारकी व देव प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं।)</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>6. अनादि व सादि मिथ्यादृष्टि में सम्यक्त्व प्राप्ति सम्बन्धी कुछ विशेषता</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">क.पा.सु./ | <p><span class="PrakritText">क.पा.सु./10/गा.104/435 सम्मत्तपढमलंभो सव्वोवसमेण तह वियट्टेण। भजियव्वो य अभिक्खं सव्वोवसमेण देसेण।104। | ||
</span>=<span class="HindiText">जो सर्वप्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, अर्थात् अनादि मिथ्यादृष्टि जीव, उसके सम्यक्त्व का सर्वप्रथम लाभ सर्वोपशमपना से होता है। इसी प्रकार विप्रकृष्ट जीव के, (अर्थात् जिसने पहले कभी सम्यक्त्व को प्राप्त किया था किन्तु पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त होकर और वहाँ सम्यक्त्वप्रकृति एवं सम्यक्त्वमिथ्यात्वकर्म की उद्वेलना कर बहुतकाल तक मिथ्यात्व सहित परिभ्रमण कर पुन: सम्यक्त्व को प्राप्त किया है, अर्थात् अनादि तुल्य सादि मिथ्यादृष्टि के ( देखें | </span>=<span class="HindiText">जो सर्वप्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, अर्थात् अनादि मिथ्यादृष्टि जीव, उसके सम्यक्त्व का सर्वप्रथम लाभ सर्वोपशमपना से होता है। इसी प्रकार विप्रकृष्ट जीव के, (अर्थात् जिसने पहले कभी सम्यक्त्व को प्राप्त किया था किन्तु पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त होकर और वहाँ सम्यक्त्वप्रकृति एवं सम्यक्त्वमिथ्यात्वकर्म की उद्वेलना कर बहुतकाल तक मिथ्यात्व सहित परिभ्रमण कर पुन: सम्यक्त्व को प्राप्त किया है, अर्थात् अनादि तुल्य सादि मिथ्यादृष्टि के (देखें [[ आगे#IV.4.5.3 | आगे - IV.4.5.3]]) प्रथमोपशम सम्यक्त्व का लाभ भी सर्वोपशम से होता है। किन्तु जो जीव सम्यक्त्व से गिरकर जल्दी ही पुन: पुन: सम्यक्त्व को ग्रहण करता है, अर्थात् सादि मिथ्यादृष्टि जीव सर्वोपशम और देशोपशम से भजनीय है। (तीनों प्रकृतियों के उदयाभाव को सर्वोपशम कहते हैं। तथा सम्यक्त्वप्रकृति सम्बन्धी देशघाती के उदय को देशोपशमना कहते हैं।) (पं.सं./प्र./1/171); (ध.6/1,9-8,9/गा.11/241); (रा.वा./9/1/13/588/23); (गो.क./जी.प्र./550/742/15)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.1,6,38/33/10 तसेसु अच्छिदूण जेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेलिदाणि सो सागरोवमपुधत्तेण सम्मत्तसम्मामिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मेण उवसमसम्मत्तं पडिवज्जदि एदम्हादो उवरिमासु ट्ठिदीसु जदि सम्मत्तं गेण्हदि, तो णिच्छएण वेदगसम्मत्तमेव गेण्हदि। अध एइंदिएसु जेण सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणि उव्वेलिदाणि, सो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणुणसागरोवममेत्ते समत्त-सम्मामिच्छत्ताणं ट्ठिदिसंतकम्मे सेसे तसेसुववज्जिय उवसमसम्मत्तं पडिवज्जदि। एदाहि ट्ठिदीहि ऊणसेस कम्मट्ठिदिउव्वेलणकालो जेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो तेण सासणेगजीवजहण्णंतरं पि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तं होदि।</span> =<span class="HindiText">1. त्रसजीवों में रहकर जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियों का उद्वेलन किया है, वह जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की स्थिति के सत्त्वस्वरूप सागरोपम पृथक्त्व के पश्चात् उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है। यदि, इससे ऊपर की स्थिति रहने पर सम्यक्त्व को ग्रहण करता है, तो निश्चय से वेदक सम्यक्त्व को ही प्राप्त होता है। 2. और एकेन्द्रियों में जाकर के जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उद्वेलना की है, वह पल्योपम के असंख्यातवें भाग से कम सागरोपमकालमात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व का स्थितिसत्त्व अवशेष रहने पर त्रस जीवों में उत्पन्न होकर उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है इन स्थितियों से कम शेष कर्मस्थिति, उद्वेलनकाल चूँकि पल्योपम के असंख्यातवें भाग है (देखें [[ संक्रमण ]]) इसलिए सासादन गुणस्थान का एक जीव सम्बन्धी जघन्य अन्तर भी (प्रथमोपशम की भाँति) पल्योपम के असंख्यात भागमात्र ही होता है। (विशेष देखें [[ अन्तर#2.6 | अन्तर - 2.6]])</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">गो.क./मू./ | <p><span class="PrakritText">गो.क./मू./615/820 उदधिपुधत्तं तु तसे पल्लासंखूणमेगमेयक्खे। जाव य सम्मं मिस्सं वेदगजोग्गो व उवसमरस्सतदो।</span> =<span class="HindiText">सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय, इनकी पूर्वबद्ध सत्तारूप स्थिति, त्रस के तो सागरोपम प्रमाण अवशेष रहने पर और एकेन्द्रियों के पल्य का असंख्यातवाँ भाग हीन एक सागरोपम प्रमाण अवशेष रहने पर, तावत्काल वेदक योग्य काल माना गया है। और उससे भी हीन स्थितिसत्त्व हो जाने पर उपशम योग्य काल माना गया है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.क./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">गो.क./जी.प्र./550/742/12 सादिर्यदि सम्यक्त्वमिश्रप्रकृतिसत्त्वस्तदा सप्तप्रकृती: सदसत्त्वस्तदा सोऽप्यनादिरपि मिथ्यात्वानुबन्धिन:...प्रशस्तोपशमविधानेन युगपदेवोपशम्यान्तर्मुहूर्तकालं प्रथमोपशमसम्यक्त्वं स्वीकुर्वन् ।</span> =<span class="HindiText">सादि मिथ्यादृष्टि के यदि सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय, इन दो प्रकृतियों का सत्त्व हो तो उसके सात प्रकृतियाँ है और यदि इन दोनों का सत्त्व नहीं है अर्थात् इनकी उद्वेलना कर दी है तो उसके दर्शनमोह की पाँच प्रकृतियाँ है। ऐसा जीव भी अनादि मिथ्यादृष्टि ही है। वह भी मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन पाँच प्रकृतियों को प्रशस्त उपशम या सर्वोपशम विधान के द्वारा युगपत् उपशमाकर, अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त उपशम सम्यक्त्व को अंगीकार करता है। (विशेष देखें [[ अन्तर#2. | अन्तर - 2.]])</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>7. प्रथमोपशम से च्युति सम्बन्धी नियम</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">क.पा.सुत्त./ | <p><span class="PrakritText">क.पा.सुत्त./10/गा.नं./632 मिच्छत्तवेदणीयं कम्मं उवसामगस्स बोद्धव्वं। उवसंते आसाणे तेण परं होइ भजियव्वो।99। सव्वेहिं ट्ठिदिविसेसेहिं उवसंता होंति तिण्णि कम्मंसा। एक्कम्हि य अणुभागे णियमा सव्वे ट्ठिदिविसेसा।100। अंतोमुहुत्तमद्धं सव्वोवसमेण होइ उवसंतो। तत्तो परमुदयो खलु तिण्णेक्कदरस्स कम्मस्स।103। सम्मत्तपढमलंभस्स पच्छदो य पच्छदो य मिच्छत्तं। लंभस्स अपढमस्स दु भजियव्वो पच्छिदो होदि।105। | ||
</span>=<span class="HindiText">उपशामक के मिथ्यात्व वेदनीयकर्म का उदय जानना चाहिए। किन्तु उपशान्त अवस्था के विनाश होने पर तदनन्तर उसका उदय भजितव्य | </span>=<span class="HindiText">उपशामक के मिथ्यात्व वेदनीयकर्म का उदय जानना चाहिए। किन्तु उपशान्त अवस्था के विनाश होने पर तदनन्तर उसका उदय भजितव्य है।99। (ध.6/1,9-8,9/गा.6/240)। 2. दर्शनमोहनीय के मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, ये तीनों कर्मांश, दर्शनमोह की उपशान्त अवस्था में सर्वस्थितिविशेषों के साथ उपशान्त रहते हैं, अर्थात् उस समय तीनों प्रकृतियों में से किसी एक की भी किसी स्थिति का उदय नहीं रहता है। तथा एक ही अनुभाग में उन तीनों कर्मांशों के सभी स्थितिविशेष नियम से अवस्थित रहते हैं।100। (ध.6/1,9-8,9/गा.7/240)। 3. उपशमसम्यग्दृष्टि जीव के दर्शनमोहनीय कर्म अन्तर्मुहूर्त काल तक सर्वोपशम से उपशान्त रहता है। इसके पश्चात् नियम से उसके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, इन तीन कर्मों में से किसी एक कर्म का उदय हो जाता है।103। (ध.6/1,9-8,9/गा.9/240); (ल.सा./मू./102/139)। 4. सम्यक्त्व की प्रथम बार प्राप्ति के अनन्तर और पश्चात् मिथ्यात्व का उदय होता है। किन्तु अप्रथम बार सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् वह भजितव्य है।105। (पं.सं./प्रा./1/172); (ध.6/1,9-8,9/गा.12/242); (अन.ध./2/1/120 पर उद्धृत एक श्लोक)</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>8. गिरकर किस गुणस्थान में जावे</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.1/1,1,12/171/8 एरिसो चेव उवसमसम्माइट्ठी, किंतु परिणामपच्चएण मिच्छत्तं गच्छइ, सासणगुणं वि पडिवज्जइ, सम्मामिच्छत्तगुणं पि ढक्कइ, वेदगसम्मत्तं पि समिल्लियइ।</span> =<span class="HindiText">उपशम सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि क्षायिकवत् निर्मल होता है, परन्तु परिणामों के निमित्त से उपशम सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व को जाता है, कभी सासादन गुणस्थान को भी प्राप्त करता है, कभी सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को भी पहुँच जाता है और कभी वेदक सम्यक्त्व से मेल कर लेता है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./704/1141/15 ते अप्रमत्तसंयतं विना त्रय एव तत्सम्यक्त्वकालान्तर्मुहूर्ते जघन्येन एकसमये उत्कृष्टेन च षडावलिमात्रेऽवशिष्टे अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदयेसासादनाभवन्ति। अथवा ते चत्वारोऽपि यदि भव्यतागुणविशेषेण सम्यक्त्वविराधका न स्यु: तदा तत्काले संपूर्णे जाते सम्यक्त्वप्रकृत्युदये वेदकसम्यग्दृष्टय: वा मिश्रप्रकृत्युदये सम्यग्मिथ्यादृष्टय: वा मिथ्यात्वोदये मिथ्यादृष्टयो भवन्ति।</span> =<span class="HindiText">[प्रथमोपशम सम्यक्त्व 4-7 तक के चार गुणस्थानों में होना सम्भव है (देखें [[ सत् ]])] तहाँ अप्रमत्त के बिना तीन गुणस्थानवर्ती जीव उस प्रथमोपशम के अन्तर्मुहूर्तमात्र काल में से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवली शेष रह जाने पर, अनन्तानुबन्धी चतुष्क में से किसी एक के उदय से सासादन होते हैं। अथवा वे चारों ही गुणस्थानवर्ती यदि भव्यतागुण की विशेषता से सम्यक्त्व की विराधना नहीं करते हैं, तो सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं। अथवा मिश्र प्रकृति के उदय से सम्यग्मिथ्यादृष्टि या मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं। (और भी देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.4.5.3 | सम्यग्दर्शन - IV.4.5.3]])।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>9. पंच लब्धि पूर्वक होता है</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-8,3/204/2 तिकरणचरिमसमए सम्मत्तुप्पतीदो। एदेण खओवसमलद्धी विसोहिलद्धी देसणलद्धी पाओग्गलद्धी त्ति चत्तारि लद्धीओ परूविदो।</span> =<span class="HindiText">तीनों करणों के अन्तिम समय में सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है। इस सूत्र के द्वारा क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, और प्रायोग्य लब्धि ये चारों लब्धियाँ प्ररूपण की गयीं - (और भी देखें [[ लब्धि#2.5 | लब्धि - 2.5 ]]तथा उपशम/2/2); (ल.सा./4/41/9)।</span></p> | ||
<p><strong class="HindiText"> | <p><strong class="HindiText">10. प्रारम्भ किये पश्चात् अवश्य प्राप्त करता है</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">क.पा.सु./ | <p><span class="PrakritText">क.पा.सु./10/97/631 उवसामगो च सव्वो णिव्वाधादो तहा णिरासाओ।97।</span> =<span class="HindiText">दर्शनमोह का उपशमन करने वाला जीव उपद्रव व उपसर्ग आने पर भी उसका उपशम किये बिना नहीं रहता। (ध.6/1,9-8,1/गा.4/239); (ल.सा./मू./99/136); (और भी देखें [[ अपूर्वकरण#4 | अपूर्वकरण - 4]])।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. द्वितीयोपशम का लक्षण</strong></p> | ||
<p class="HindiText">ल.सा./भाषा/ | <p class="HindiText">ल.सा./भाषा/2/42/1 उपशमश्रेणी चढ़ता क्षयोपशम सम्यक्त्वतैं जो उपशम सम्यक्त्व (होता है) ताका नाम द्वितीयोपशम सम्यक्त्व है। (और भी देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.4.2 | सम्यग्दर्शन - IV.2.4.2]])।</p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का स्वामित्व</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-8,14/331/8 हंदि तिसु आउएसु एक्केण वि बद्धेण ण सक्को कसाए उवसामेदुं, तेण कारणेण णिरय-तिरिक्ख-मणुसगदीओ ण गच्छदि।</span> =<span class="HindiText">निश्चयत: नरकायु, तिर्यंगायु, और मनुष्यायु, इन तीनों आयु में से पूर्व में बाँधी गयी एक भी आयु से कषायों को उपशमाने के लिए समर्थ नहीं होता। इसी कारण से वह नरक तिर्यंच व (मरकर) मनुष्यगति को प्राप्त नहीं होता। (विशेष देखें [[ मरण#3 | मरण - 3]]/7)।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">गो.जी./मू./ | <p><span class="PrakritText">गो.जी./मू./696,731/1132,1325 विदियुवसमसम्मत्तं अविरदसम्मादि संतमोहोत्ति।696। विदियुवसमसम्मत्तं सेढोदोदिण्णि अविरदादिसु।731। | ||
</span><span class="HindiText"> | </span><span class="HindiText">1. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व 4 थे से 11वें गुणस्थान तक होता है।696। (विशेष देखें [[ उपशम#2 | उपशम - 2]]/4)। 2. श्रेणी से उतरते हुए अविरतादि गुणस्थान होते हैं। (विशेष देखें [[ शीर्षक नं#3 | शीर्षक नं - 3]],4)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./550/742/7 द्वितीयं पर्याप्तमनुष्यनिर्वृत्त्यपर्याप्तवैमानिकयोरेव।</span> =<span class="HindiText">द्वितीयोपशम सम्यक्त्व पर्याप्त मनुष्य व निर्वृत्त्यपर्याप्त वैमानिक देवों में ही होता है। (देखें [[ द्र ]]सं./टी./41/179/9); (और भी देखें [[ मरण#3 | मरण - 3]]/7)।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>3. द्वितीयोपशम का अवरोहण क्रम</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-8,14/331/4 एदिस्से उवसम्मत्ताए अब्भंतरादो असंजमं पि गच्छेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेज्ज, छसु आवलियासु सेसासु आसाणं पि गच्छेज्ज।</span> =<span class="HindiText">इस द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के काल के भीतर असंयम को भी प्राप्त हो सकता है, संयमासंयम को भी प्राप्त हो सकता है और छह आवलियों के शेष रहने पर सासादन को भी प्राप्त हो सकता है। [सासादन को प्राप्त करने व न करने के सम्बन्ध में दो मत हैं। (देखें [[ सासादन ]])] (ल.सा./मू./348/437)।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">गो.जी./मू./ | <p><span class="PrakritText">गो.जी./मू./731/1325 विदिमुवसारसम्मत्तं सेढीदोदिण्णि अविरदादीसु। सगसगलेस्सा मरिदे देवअपज्जत्तगेव हवे।731।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./704/1141/19 द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा उपशमश्रेणिमारुह्य उपशान्तकषायं गत्वा अन्तर्मुहूर्तं स्थित्वा क्रमेण अवतीर्य अप्रमत्तगुणस्थानं प्राप्य प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसहस्राणि करोति। वा अध: देशसंयमो भूत्वा आस्ते वा असंयतो भूत्वा आस्ते वा मरणे देवासंयत: स्यात् वा मिश्रप्रकृत्युदये मिश्र: स्यात् । अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदये द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं विराधयतीत्याचार्यपक्षे सासादन: स्यात् वा मिथ्यात्वोदये मिथ्यादृष्टि: स्यात् इति।</span> =<span class="HindiText">द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि होकर, उपशमश्रेणी पर आरोहण करके, उपशान्तकषाय गुणस्थान में जाकर और वहाँ तत् योग्य अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रहकर क्रम से नीचे गिरता हुआ अर्थात् क्रमपूर्वक 10,9,8 गुणस्थानों में से होता हुआ अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त करता है। वहाँ प्रमत्त व अप्रमत्त में हज़ारों बार उतरना गिरना करता है। अथवा नीचे देशसंयत होकर रहता है, अथवा असंयत होकर रहता है, या मरण करके असंयत देव (निवृत्त्यपर्याप्त) होता है, अथवा मिश्र प्रकृति के उदय से मिश्रगुणस्थानवर्ती होता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्क में से किसी एक का उदय आने पर द्वितीयोपशम की विराधना करके किन्हीं आचार्यों के मत से सासादन भी हो जाता है (विशेष देखें [[ सासादन ]]), अथवा मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है। (और भी देखें [[ श्रेणी#3.3 | श्रेणी - 3.3]])।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>4. श्रेणी से नीचे आकर भी कुछ देर द्वितीयोपशम के साथ ही रहता है</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-8,14/331/1 उवसामगस्स पढमसमयअपुव्वकरणप्पहुडि जाव पडिवणमाणयस्स चरिमसमयअपुव्वकरणेत्ति तदो एत्तो संखेज्जगुणं कालं पडिणियत्ता अधापवत्तकरणेण उवसमसम्मत्तद्धमणुपालेदि। | ||
</span>=<span class="HindiText">उपशामक के श्रेणी चढ़ते समय अपूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर उतरते हुए अपूर्वकरण के अन्तिम समय तक जो काल है, उससे संख्यातगुणे काल तक कषायोपशमना से लौटता हुआ जीव अध:प्रवृत्तिकरण ( | </span>=<span class="HindiText">उपशामक के श्रेणी चढ़ते समय अपूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर उतरते हुए अपूर्वकरण के अन्तिम समय तक जो काल है, उससे संख्यातगुणे काल तक कषायोपशमना से लौटता हुआ जीव अध:प्रवृत्तिकरण (7वें गुणस्थान) के साथ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व को पालता है। (ल.सा./मू./347/437); (और भी देखें [[ मरण#3 | मरण - 3]]/7)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./696/1132/12 द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं असंयताद्युपशान्तकषायान्तं भवति। अप्रमत्ते उत्पाद्य उपरि उपशान्तकषायान्तं गत्वा अधोवतरणे असंयतान्तमपि तत्संभवात् ।</span>= <span class="HindiText">द्वितीयोपशम सम्यक्त्व असंयतादि उपशान्तकषाय गुणस्थान पर्यन्त होता है। अप्रमत्त गुणस्थान में उत्पन्न करके, ऊपर उपशान्तकषाय गुणस्थान तक जाकर, फिर नीचे उतरते हुए असंयत गुणस्थान तक भी सम्भव है। (गो.जी./जी.प्र./731/1325/13)</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>4. वेदक सम्यक्त्व निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. वेदक सामान्य का लक्षण</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. क्षयोपशम की अपेक्षा</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p><span class="SanskritText">स.सि./2/5/157/6 अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयस्य मिथ्यात्वसम्यङ्मिथ्यात्वयोश्चोदयक्षयात्सदुपशमाच्च सम्यक्त्वस्य देशघातिस्पर्धकस्योदये तत्त्वार्थश्रद्धानं क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वम् ।</span> =<span class="HindiText">चार अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और इन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से, देशघाती स्पर्धकवाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। (रा.वा./2/5/8/108/1); (विशेष देखें [[ क्षयोपशम#1.1 | क्षयोपशम - 1.1]]); (गो.जी./जी.प्र./25/50/18)।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. वेदक सम्यक्त्व की अपेक्षा</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.1/1,1,114/गा.215/396 दंसणमोहुदयादो उप्पज्जई जं पयत्थ सद्दहणं। चलमलिनमगाढं तं वेदगसम्मत्तमिह मुणहु। | ||
</span>=<span class="HindiText">सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति के उदय से पदार्थों का जो चल, मलिन और आगाढ़रूप श्रद्धान होता है उसको वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं। (गो.जी./मू./ | </span>=<span class="HindiText">सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति के उदय से पदार्थों का जो चल, मलिन और आगाढ़रूप श्रद्धान होता है उसको वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं। (गो.जी./मू./649/1099); (गो.जी./मू./25/50)।</span></p> | ||
<p class="PrakritText"> | <p class="PrakritText"> | ||
ध. | ध.1/1,1,12/172/6 सम्मत्त-सण्णिद-दंसणमोहणीयभेय-कम्मस्स उदएण वेदयसम्माइट्ठी णाम।</p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.1/1,1,12/172/3 सम्मत्तदेसघाइ-वेदयसम्मत्तुदएणुप्पण्णवेदयसम्मत्तं खओवसमियं।</span> =<span class="HindiText">1. जिसकी सम्यक्त्व संज्ञा है ऐसी दर्शनमोहनीय कर्म की भेदरूप प्रकृति के उदय से यह जीव वेदक सम्यग्दृष्टि कहलाता है। (पं.सं./प्रा./1/164)। 2. सम्यक्त्व का एक देशरूप से वेदन कराने वाली सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से उत्पन्न होने वाला वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक है। (विशेष देखें [[ क्षयोपशम#1.1 | क्षयोपशम - 1.1]])।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. कृतकृत्य वेदक का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-8,12/262/10 चरिमे टि्ठदखंडए णिट्ठिदे कदकरणिज्जो त्ति भण्णदि।</span> =<span class="HindiText">दर्शनमोहनीय का क्षय करने वाला कोई जीव 7वें गुणस्थान के अन्तिम सातिशय भाग में कर्मों की स्थिति का काण्डक घात करता है - देखें [[ क्षय ]]) तहाँ अन्तिम स्थितिकाण्डक के समान होने पर वह 'कृतकृत्यवेदक' कहलाता है। (ल.सा./मू./145) (विशेष देखें [[ क्षय#2 | क्षय - 2]]/5)</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>3. वेदक सम्यक्त्व के बाह्य चिह्न</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./ | <p><span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./1/163-164 बुद्धी सुहाणुबंधी सुइकम्मरओ सुए य संवेगो। तच्चत्थे सद्दहणं पियधम्मे तिव्वणिव्वेदो।163। इच्चेवमाइया जे वेदयमाणस्स होंति ते य गुणा। वेदयसम्मत्तमिणं</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">सम्मत्तुदएण | <p><span class="PrakritText">सम्मत्तुदएण जीवस्स।164।</span> =वे<span class="HindiText">दक सम्यक्त्व के उत्पन्न होने पर जीव की बुद्धि शुभानुबन्धी या सुखानुबन्धी हो जाती है। शुचिकर्म में रति उत्पन्न होती है। श्रुत में संवेग अर्थात् प्रीति पैदा होती है। तत्त्वार्थ में श्रद्धान, प्रिय धर्म में अनुराग एवं संसार से तीव्र निर्वेद अर्थात् वैराग्य जागृत हो जाता है।163। इन गुणों को आदि लेकर इस प्रकार के जितने गुण हैं, वे सब वेदक सम्यक्त्वी जीव के प्रकट हो जाते हैं। सम्यक्त्व प्रकृति के उदय का वेदन करने वाले जीव को वेदक सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।164।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>4. वेदक सम्यक्त्व की मलिनता का निर्देश</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.1/1,1,12/171/10 जो पुण वेदयसम्माइट्ठी सो सिथिलसद्दहणो थेरस्स लट्ठिग्गहणं व सिथिलग्गाही कुहेउ-कुदिट्ठंतेहि झडिदि विराहओ।</span> =<span class="HindiText">वेदक सम्यग्दृष्टि जीव शिथिलश्रद्धानी होता है, इसलिए वृद्धपुरुष जिस प्रकार अपने हाथ में लकड़ी को शिथिलतापूर्वक पकड़ता है, उसी प्रकार वह भी तत्त्वार्थ के श्रद्धान में शिथिलग्राही होता है। अत: कुहेतु और कुदृष्टान्त से उसे सम्यक्त्व की विराधना करने में देर नहीं लगती है। (और भी देखें [[ अगाढ ]])</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-1,21/40/1 अत्तागमपयत्थसद्धाए सिथिलत्तं सद्धाहाणी वि सम्मत्तलिंगं। | ||
</span>=<span class="HindiText">आप्त आगम और पदार्थों की श्रद्धा में शिथिलता और श्रद्धा की हीनता होना सम्यक्त्वप्रकृति का चिह्न है। ( देखें | </span>=<span class="HindiText">आप्त आगम और पदार्थों की श्रद्धा में शिथिलता और श्रद्धा की हीनता होना सम्यक्त्वप्रकृति का चिह्न है। (देखें [[ मोहनीय#2.4 | मोहनीय - 2.4]])</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्य#I.2.6 | सम्य - I.2.6 ]][दर्शनमोह के उदय से (अर्थात् सम्यक्त्व-प्रकृति के उदय से) सम्यग्दर्शन में शंका कांक्षा आदि अतिचार लगते हैं।]</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ अनुभाग#4.6.3 | अनुभाग - 4.6.3 ]][सम्यक्त्वप्रकृति सम्यक्त्व के स्थिरता और निष्कांक्षता गुणों का घात करती है।]</p> | ||
<p><span class="PrakritText">गो.जी./मू./ | <p><span class="PrakritText">गो.जी./मू./25/50 सम्मत्तदेसघादिस्सुदयादो वेदगं हवे सम्मं। चलमलिनमगाढं तं णिच्चं कम्मक्खवणहेदु।25।</span> =<span class="HindiText">सम्यक्त्व नाम की देशघाती प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व चल मलिन व अगाढ़ दोष से युक्त हो जाता है, परन्तु नित्य ही वह कर्मक्षय का हेतु बना रहता है। (और भी देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.4.1.2 | सम्यग्दर्शन - IV.4.1.2]]), (अन.ध./2/56/182)</span></p> | ||
<p class="HindiText">देखें | <p class="HindiText">देखें [[ चल ]](अपने व अन्य के द्वारा स्थापित जिनबिम्बों में मेरे तेरे की बुद्धि करता है, तथा कुछ मात्र काल स्थिर रहकर चलायमान हो जाता है।)</p> | ||
<p class="HindiText">देखें | <p class="HindiText">देखें [[ मल ]][शंका आदि दोषों से दूषित हो जाना मल है।]</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>5. वेदक सम्यक्त्व का स्वामित्व </strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. गति व पर्याप्ति आदि की अपेक्षा</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p><span class="SanskritText">स.सि./1/7/22/6 गत्यनुवादेन नरकगतौ सर्वासु पृथिवीषु नारकाणां पर्याप्तकानामौपशमिकं क्षायोपशमिकं चास्ति। प्रथमायां पृथिव्यां पर्याप्तापर्याप्तकानां क्षायिकं क्षायोपशमिकं चास्ति। तिर्यग्गतौ तिरश्चां...क्षायिकं क्षायोपशमिकं च पर्याप्तापर्याप्तकानामस्ति। तिरश्चीनां क्षायिकं नास्ति। क्षायोपशमिकं च पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम् । मनुष्यगतौ मनुष्याणां पर्याप्तापर्याप्तकानां क्षायिकं क्षायोपशमिकं चास्ति। मानुषीणां त्रितयमप्यस्ति पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम् । देवगतौ देवानां पर्याप्तापर्याप्तकानां त्रितयमप्यस्ति ...विशेषेण भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्काणां देवानां देवीनां च सौधर्मैशानकल्पवासिनीनां च क्षायिकं नास्ति। तेषां पर्याप्तकानामौपशमिकं क्षायोपशमिकं चास्ति।</span> =<span class="HindiText">गतिमार्गणा के अनुवाद से नरक गति में सब पृथिवियों में पर्याप्तक नारकियों के औपशमिक व क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। पहली पृथिवी में पर्याप्तक और अपर्याप्तक नारकियों में क्षायिक व क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। तिर्यंचगति में क्षायिक और क्षायोपशमिक पर्याप्त और अपर्याप्तक दोनों प्रकार के तिर्यंचों के होता है। तिर्यंचिनी के क्षायिक नहीं होता क्षायोपशमिक पर्याप्तक के ही होता है, अपर्याप्तक तिर्यंचिनी के नहीं। मनुष्यगति में क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकार के मनुष्यों के होता है। मनुष्यणियों के तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु पर्याप्तक मनुष्यनी के ही होते हैं, अपर्याप्तक मनुष्यणी के नहीं। देवगति में पर्याप्तक, अपर्याप्तक दोनों प्रकार के देवों के तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं। विशेषरूप से भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों के, इन तीनों की देवांगनाओं के तथा सौधर्म और ऐशान कल्प में उत्पन्न हुई देवांगनाओं के क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता शेष दो होते हैं, सो वे भी पर्याप्तक अवस्था में ही होते हैं। (विशेष देखें [[ वह वह गति तथा सत् ]])</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">गो.जी./मू./ | <p><span class="PrakritText">गो.जी./मू./128/339 हेट्ठिमछप्पुढवीणं जोइसिवणभवणसव्वइत्थीणं। पुण्णिदरे णहि सम्मो ण सासणो णारयापुण्णे।128।</span> =<span class="HindiText">नरक गति में प्रथम पृथिवी के अतिरिक्त नीचे की छह पृथिवी में, देव गति में ज्योतिषी व्यन्तर व भवनवासी देव, सर्व ही प्रकार की स्त्रियाँ, इन सबको पर्याप्त अवस्था में ही सम्यक्त्व होता है अपर्याप्त अवस्था में नहीं। इसके अतिरिक्त नारकियों को अपर्याप्त अवस्था में सासादन भी नहीं होता है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.जी./ | <p><span class="SanskritText">गो.जी./550/742/7 वेदकं चातुर्गतिपर्याप्तिनिर्वृत्त्यपर्याप्तेषु।7।</span> =<span class="HindiText">वेदक सम्यग्दर्शन चारों ही गतियों में पर्याप्त व निर्वृत्त्यपर्याप्त दोनों दशाओं में होता है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. गुणस्थानों की अपेक्षा</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ष.खं. | <p><span class="PrakritText">ष.खं.1/1,1/सूत्र 146/397 वेदगसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी-प्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा त्ति।146।</span> =<span class="HindiText">वेदक सम्यग्दृष्टि जीव असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं। (विशेष देखें [[ सत् ]])</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>3. उपशम सम्यग्दृष्टि व सादि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.क./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">गो.क./जी.प्र./550/744/16 कर्मभूमिमनुष्यप्रथमोपशमसम्यग्दृष्टयश्च स्वस्वान्तर्मुहूर्तकाले गते सम्यक्त्वप्रकृत्युदयाद्वेदकसम्यग्दृष्टयो जायन्ते। कर्मभूमिमनुष्यसादिमिथ्यादृष्टय: सम्यक्त्वप्रकृत्युदयेन मिथ्यात्वोदयनिषेकानुत्कृष्यासंयतादिचतुर्गुणस्थानवेदकसम्यग्दृष्टयो भूत्वा। ...नरकगतौ प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टय: स्वकालानन्तरसमयं प्राप्य सम्यग्मिथ्यादृष्टिसादिमिथ्यादृष्टय: मिश्रमिथ्यात्वप्रकृत्युदयनिषेकानुत्कृष्य च सम्यक्त्वप्रकृत्युदयाद्वेदकसम्यग्दृष्टयो भूत्वा। ...कर्मभोगभूमितिर्यंचो भोगभूमिमनुष्याश्च प्रथमोपशमसम्यक्त्वं त्यक्त्वा सादिमिथ्यादृष्टितिर्यञ्चो मिथ्यात्वोदयनिषेकानुत्कृष्य च सम्यक्त्वप्रकृत्युदयाद्वेदकसम्यग्दृष्टयो जायन्ते।... भवनत्रयाद्युपरिमग्रैवेयकान्तादिमिथ्यादृष्टय: करणत्रयमकृत्वा वा यथासंभवं सम्यक्त्वप्रकृत्यान्मिथ्यात्वं त्यक्त्वा वेदकसम्यग्दृष्टयो भूत्वा तदेव बध्ननित।</span> =<span class="HindiText">कर्मभूमिज मनुष्य प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि अपने-अपने योग्य अन्तर्मुहूर्त काल के बीत जाने पर सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं। कर्मभूमिज मनुष्य सादि मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से उदयगत मिथ्यात्व के निषेकों का अभाव करके असंयतादि चार गुणस्थानवर्ती वेदक सम्यग्दृष्टि होकर...। नरक गति में प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि जीव अपने काल के अनन्तर समय को प्राप्त करके, मिश्रगुणस्थानवर्ती या सादि मिथ्यादृष्टि हो, मिश्र व मिथ्यात्व प्रकृति के उदयगत निषेकों को हटाकर सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। कर्मभूमिज तिर्यंच और भोगभूमिज मनुष्य प्रथमोपशम को छोड़ और सादि मिथ्यादृष्टि तिर्यंच मिथ्यात्व के उदयगत निषेकों का अभाव करके सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से वेदक-सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं। भवनत्रिक से लेकर उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्त के सादि मिथ्यादृष्टि देव करणत्रय को करके अथवा यथासम्भव सम्यक्त्व प्रकृति के द्वारा मिथ्यात्व को छोड़कर वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। (इस प्रकार ये सभी जीव वेदक सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थंकर प्रकृति को बाँधने के योग्य हो जाते हैं, ऐसा यहाँ प्रकरण है।) (और भी देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.8 | सम्यग्दर्शन - IV.2.8]])</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>6. अनादि मिथ्यादृष्टि को सीधा प्राप्त नहीं होता</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.5/1,6,121/73/5 एइंदिएसु दीहद्धमवट्ठिदस्स उव्वेल्लिदसम्मत्तसम्मामिच्छत्तस्स तदुप्पायणे संभवाभावा।</span> =<span class="HindiText">एकेन्द्रियों में दीर्घकाल तक रहने वाले और उद्वेलना की है सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की जिसने ऐसे जीव के वेदक सम्यक्त्व का उत्पन्न कराना सम्भव नहीं है। (ध.5/1,6,288/139/6)</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.6 | सम्यग्दर्शन - IV.2.6]] में अन्तिम सन्दर्भ -[उपरोक्त प्रकार का जीव अनादिमिथ्यादृष्टि ही होता है।]</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>7. सम्यक्त्व से च्युत होने वाले बहुत कम हैं</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ध. | <p><span class="SanskritText">ध.3/1,2,14/120/4 वेदगसम्माइट्ठीणमसंखेज्जदिभागो मिच्छत्तं गच्छदि। तस्स वि असंखेज्जदिभागो सम्मामिच्छत्तं गच्छदि।</span> =<span class="HindiText">वेदक सम्यग्दृष्टियों का असंख्यातवाँ भाग मिथ्यात्व को प्राप्त होता है और उसका भी असंख्यातवाँ भाग सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>8. च्युत होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त से पहले सम्यक्त्व पुन: प्राप्त नहीं होता</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">क.पा. | <p><span class="PrakritText">क.पा.3/3-22/362/196/4 संकिलेसादो ओयरिय विसोहीए अंतोमुहुत्तावट्ठाणेण विणा सम्मत्तस्स गहणाणुववत्तीदो।</span> =<span class="HindiText">मिथ्यात्व में आकर और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के कारणभूत संक्लेश से च्युत होकर, विशुद्धि को प्राप्त करके, जब तक उस विशुद्धि के साथ जीव मिथ्यात्व में अन्तर्मुहूर्त काल तक नहीं ठहरता, तब तक उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है। (विशेष देखें [[ अन्तर#4 | अन्तर - 4]])।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>9. ऊपर के गुणस्थान में न होने में हेतु</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ध. | <p><span class="SanskritText">ध.1/1,1,146/397/7 उपरितनगुणेषु किमिति वेदकसम्यक्त्वं नास्तीति चेन्न, अगाढसमलश्रद्धानेन सह क्षपकोपशमश्रेण्यारोहणानुपपत्ते:। | ||
</span>=<span class="HindiText">प्रश्न -ऊपर के आठवें आदि गुणस्थानों में वेदकसम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता है? उत्तर -नहीं होता, क्योंकि, अगाढ़ आदि मलसहित श्रद्धान के साथ क्षपक और उपशम श्रेणी का चढ़ना नहीं बनता है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">प्रश्न -ऊपर के आठवें आदि गुणस्थानों में वेदकसम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता है? उत्तर -नहीं होता, क्योंकि, अगाढ़ आदि मलसहित श्रद्धान के साथ क्षपक और उपशम श्रेणी का चढ़ना नहीं बनता है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>10. कृतकृत्य वेदक सम्बन्धी कुछ नियम</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-8,12/263/1 कदकरणिज्जकालब्भंतरे मरणं पि होज्ज, काउ-तेउ-पम्म -सुक्क-लेस्साणमण्णदराए लेस्साए वि परिणामेज्ज, संकिलिस्सदु वा विसुज्झदु वा, तो वि असंखेज्जगुणाए सेडीए जाव समयाहियावलिया सेसा ताव असंखेज्जाणं समयपबद्धाणमुदीरणा, उक्कस्सिया वि उदीरणा उदयस्स असंखेज्जदिभागो।</span> =<span class="HindiText">कृतकृत्यवेदककाल के भीतर उसका मरण भी हो (विशेष देखें [[ मरण#3 | मरण - 3]]/8); कापोत तेज पद्म और शुक्ल इन लेश्याओं में से किसी एक लेश्या के द्वारा भी परिणमित हो; संक्लेश को प्राप्त हो; अथवा विशुद्धि को प्राप्त हो; तो भी असंख्यातगुणित श्रेणी के द्वारा जब तक एक समय अधिक आवलीकाल शेष रहता है, तब तक असंख्यात समय प्रबद्धों की उदीरणा होती रहती है। उत्कृष्ट भी उदीरणा उदय के असंख्यातवें भाग होती है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>5. क्षायिक सम्यक्त्व निर्देश</strong></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>1. क्षायिक सम्यग्दर्शन का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./ | <p><span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./1/160-162 खीणे दंसणमोहे जं सद्दहणं सुणिम्मलं होइ। तं खाइयसम्मत्तं णिच्चं कम्मक्खवणहेउं।160। वयणेहिं वि हेऊहि य इंदियभय जणणगेहिं रूवेहिं। वीभच्छ-दुगुंछेहि य णे तेल्लोक्केण चालिज्जा।161। एवं विउला बुद्धी ण य विभयमेदि किंचि दट्ठूणं। पट्ठविए सम्मत्ते खइए जीवस्स लद्धीए।162।</span> =<span class="HindiText">दर्शनमोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने पर जो निर्मल श्रद्धान होता है, उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। वह सम्यक्त्व नित्य है और कर्मों के क्षय करने का कारण है।160। श्रद्धान को भ्रष्ट करने वाले वचनों से, तर्कों से, इन्द्रियों को भय उत्पन्न करने वाले रूपों से तथा वीभत्स और जुगुप्सित पदार्थों से भी चलायमान नहीं होता। अधिक क्या कहा जाय वह त्रैलोक्य के द्वारा भी चल-विचल नहीं होता।161। क्षायिक सम्यक्त्व के प्रारम्भ होने पर अथवा प्राप्ति या निष्ठापन होने पर, क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव के ऐसी विशाल, गम्भीर एवं दृढ़ बुद्धि उत्पन्न हो जाती है कि वह कुछ (असम्भव या अनहोनी घटनाएँ) देखकर भी विस्मय या क्षोभ को प्राप्त नहीं होता।162। (ध.1/1,144/गा.213-214); (गो.जी./मू./646-647/1096)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p><span class="SanskritText">स.सि./2/4/154/11 पूर्वोक्तानां सप्तानां प्रकृतीनामत्यन्तक्षयात्क्षायिकं सम्यक्त्वम् ।</span> =<span class="HindiText">पूर्वोक्त (दर्शनमोहनीय की) सात प्रकृतियों के अत्यन्त विनाश से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। (रा.वा./2/4/7/106/11)।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ल.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">ल.सा./मू./164/217 सत्तण्णं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्तं। मेरु व णिप्पकंपं सुणिम्मलं अक्खयमणंतं।164। | ||
</span>=<span class="HindiText">सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। वह मेरु की भाँति निष्प्रकम्प, निर्मल व अक्षय अनन्त है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। वह मेरु की भाँति निष्प्रकम्प, निर्मल व अक्षय अनन्त है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">प्र.प./टी./ | <p><span class="SanskritText">प्र.प./टी./1/61/61/9 शुद्धात्मादिपदार्थ विषये विपरीताभिनिवेशरहित: परिणाम: क्षायिकसम्यकत्वमिति भण्यते।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध आत्मा आदि पदार्थों के विषय में विपरीत अभिनिवेश रहित परिणाम क्षायिक सम्यक्त्व कहा जाता है। (द्र.सं./टी./14/42/5)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.1/1,1,12/171/4 एदासिं सत्तण्हं णिरवसेसखएण खइयसम्माइट्ठी उच्चइ।...खइयसम्माइट्ठी ण कयाइ वि मिच्छत्तं गच्छइ, ण कुणइ संदेहं पि मिच्छत्तुब्भवं। दट्ठूण णो विम्हयं जायदि।</span> =<span class="HindiText">सात प्रकृतियों के सर्वथा विनाश से जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। ...क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव कभी भी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, किसी प्रकार के सन्देह को भी नहीं करता, और मिथ्यात्वजन्य अतिशयों को देखकर विस्मय को भी प्राप्त नहीं होता है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. क्षायिक सम्यक्त्व का स्वामित्व</strong></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>1. गति व पर्याप्ति की अपेक्षा</strong></p> | ||
<p><span class="HindiText"> देखें | <p><span class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.4.5.1 | सम्यग्दर्शन - IV.4.5.1 ]]-[नरक गति में केवल प्रथम पृथिवी में होता अन्य पृथिवियों में नहीं। वहाँ पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनों के होता है। तिर्यंच गति में तिर्यंचों को पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनों को होता है, पर तिर्यंचिनियों को सर्वथा नहीं। मनुष्य गति में मनुष्यों को पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनों को होता है, मनुष्यनी के केवल पर्याप्तक को होता है। देवों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों को होता है, पर भवनत्रिक व सर्व ही देवियों के सर्वथा नहीं होता है।] विशेष देखें [[ वह वह गति ]])।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.क./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">गो.क./जी.प्र./550/742/6 क्षायिकं धर्मानारकभोगभूमितिर्यग्भोगकर्मभूमिमनुष्यवैमानिकेष्वेव पर्याप्तापर्याप्तेषु।</span> =<span class="HindiText">क्षायिक सम्यग्दर्शन धर्मानरक अर्थात प्रथम पृथिवी में, भोगभूमिज तिर्यंचों में, कर्म व भूमिज मनुष्यों में तथा वैमानिक देवों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में होते हैं। (विशेष देखें [[ वह वह गति ]])।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. प्रस्थापक व निष्ठापक की अपेक्षा</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ष.खं. | <p><span class="PrakritText">ष.खं.6/1,9-8/सूत्र 12/247 णिट्ठवओ पुण चतुसु वि गदीसु णिट्ठवेदि।12।</span> =<span class="HindiText">दर्शनमोह की क्षपणा का निष्ठापक तो चारों ही गतियों में उसका निष्ठापन करता है। [पर इसका प्रस्थापन मनुष्यगति में ही सम्भव है।]</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">क.पा.सुत्त/ | <p><span class="PrakritText">क.पा.सुत्त/11/गा.110-111/639 दंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजादो दु। णियमा मणुसगदीए णिट्ठवगो चावि सव्वत्थ।110। मिच्छत्तवेदणोयकम्मे ओवट्टिदम्मि सम्मत्ते। खवणाए पट्ठवगो जहण्णगो तेउलेस्साए।111।</span> | ||
<span class="HindiText"> | <span class="HindiText">1. नियम से कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ और मनुष्यगति में वर्तमान जीव ही दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक (प्रारम्भ करने वाला) होता है। किन्तु उसका निष्ठापक (पूर्ण करने वाला) चारों गतियों में होता है।110। (पं.सं./प्रा./1/202); (ध.6/1,9-8,11/गा.17/245); (गो.जी./मू./648/1098); (देखें [[ तिर्यंच#2.5 | तिर्यंच - 2.5 ]]में स.सि.) 2. मिथ्यात्ववेदनीयकर्म के सम्यकत्व प्रकृति में अपवर्तित अर्थात् संक्रमित कर देने पर जीव दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक कहलाता है। दर्शनमोह की क्षपणा के प्रस्थापक को जघन्य तेजोलेश्या में वर्तमान होना चाहिए।111।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ल.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">ल.सा./मू./110-111/149 दंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजो मणुसो।...।110। णिट्ठवगो तट्ठाणे विमाणभोगावणीसु घम्मे य। किदकरणिज्जो चदुसु वि गदीसु उप्पज्जदे जम्हा।111। | ||
</span>=<span class="HindiText">दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक कर्मभूमिज मनुष्य ही होता | </span>=<span class="HindiText">दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक कर्मभूमिज मनुष्य ही होता है।110। परन्तु उसका निष्ठापक तो (अबद्धायुष्क की अपेक्षा) उसी स्थान में अर्थात् जहाँ प्रारम्भ किया था ऐसी उस मनुष्यगति में (और बद्धायुष्क की अपेक्षा) विमानवासी देवों में, भोगभूमिज मनुष्यों व तिर्यंचों में और घर्मा नामक प्रथम नरक पृथिवी में भी होता है, क्योंकि बद्धायुष्क कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मरकर चारों ही गतियों में उत्पन्न होता है।111। (गो.क./जी./550/744/11)</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>3. गुणस्थानों की अपेक्षा </strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ष.खं./ | <p><span class="PrakritText">ष.खं./1/1,1/सू.145/396 सम्माइट्ठी खइयसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।145।</span> =<span class="HindiText">सामान्य से सम्यग्दृष्टि और विशेष से क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं।145।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.क./जी.प्र/ | <p><span class="SanskritText">गो.क./जी.प्र/550/744/11 प्रस्थापकोऽयमसंयतादिचतुर्ष्वन्यतमो मनुष्य एव।</span> =<span class="HindiText">प्रस्थापक तो असंयत से अप्रमत्त पर्यन्त के चार गुणस्थानवर्ती मनुष्य ही होते हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./704/1141/22 क्षायिकसम्यक्त्वं तु असंयतादि चतुर्गुणस्थानमनुष्याणां असंयतदेशसंयतोपचारमहाव्रतमानुषीणां च कर्मभूमिवेदकसम्यग्दृष्टीनामेव...सप्तप्रकृतिनिरवशेषक्षये भवति।</span>=<span class="HindiText">क्षायिक सम्यक्त्व तो असंयतादि अप्रमत्त पर्यन्त के चार गुणस्थानवर्ती मनुष्यों के, तथा असंयत, देशसंयत और उपचार से महाव्रती मनुष्यनियों के, कर्मभूमिज वेदक सम्यग्दृष्टियों के ही सात-प्रकृतियों का निरवशेष क्षय हो जाने पर होता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ तिर्यंच#2.4 | तिर्यंच - 2.4 ]][क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच संयतासंयत नहीं होते]</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. तीर्थंकर आदि के सद्भाव युक्त क्षेत्र व काल में ही प्रतिष्ठापना सम्भव है</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ष.खं. | <p><span class="PrakritText">ष.खं.6/1,9-8/सूत्र 11/243 दंसणमोहणीयं कम्मं खवेदुम ढवेंतो कम्हि आढवेदि, अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु जम्हि जिणा केवली तित्थयरा तम्हि आढवेदि।11। | ||
</span>=<span class="HindiText">दर्शनमोहनीय कर्म का क्षपण करने के लिए आरम्भ करता हुआ यह जीव कहाँ पर आरम्भ करता है ? अढ़ाई द्वीप समुद्रों में स्थित पन्द्रह कर्मभूमियों में जहाँ जिस काल में जिन केवली और तीर्थंकर होते हैं उस काल में आरम्भ करता | </span>=<span class="HindiText">दर्शनमोहनीय कर्म का क्षपण करने के लिए आरम्भ करता हुआ यह जीव कहाँ पर आरम्भ करता है ? अढ़ाई द्वीप समुद्रों में स्थित पन्द्रह कर्मभूमियों में जहाँ जिस काल में जिन केवली और तीर्थंकर होते हैं उस काल में आरम्भ करता है।11।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-8,11/246/1 दुस्सम (दुस्समदुस्सम) -सुस्समासुस्समा-सुसमा-सुसमादुस्समाकालुप्पण्णमणुसाणं खवणणिवारणट्ठं ‘जम्हि जिणा’ त्ति वयणं। जम्हि काले जिणा संभवंति तम्हि चेव खवणाए पट्ठवओ होदि, ण अण्णकालेसु। ...जम्हि केवलिणाणिणो अत्थि...तित्थयरपादमूले...अधवा चोद्दसपुव्वहरा...एदाणं तिण्हं पि पादमूले दंसणमोहक्खवणं पट्ठवेंति त्ति।</span> =<span class="HindiText">दु:षमा, (दु:षमा-दु:षमा), सुषमासुषमा, सुषमा, और सुषमादु:षमा काल में उत्पन्न हुए मनुष्यों के दर्शनमोह का क्षपण निषेध करने के लिए (उपरोक्त सूत्र में) ‘जहाँ जिन होते हैं’ यह वचन कहा गया है। जिस काल में जिन सम्भव हैं उस की काल में दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक होता है, अन्य काल में नहीं। अर्थात् जिस काल में केवलज्ञान होते हैं, या तीर्थंकर के पादमूल में, अथवा चतुर्दश पूर्वधर होते हैं, इन तीनों के पादमूल में कर्मभूमिज मनुष्यदर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भक होता है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ल.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">ल.सा./मू./110/149 तित्थयरपायमूले केवलिसुदकेवलीमूले।110।</span> =<span class="HindiText">तीर्थंकर के पादमूल में अथवा केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में ही (कर्मभूमिज मनुष्य दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक होता है।)</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./704/1141/23 केवलिश्रुतकेवलिद्धयश्रीपादोपान्ते सप्तप्रकृतिनिरवशेषक्षये भवति।</span>=<span class="HindiText">केवली और श्रुतकेवली इन दोनों में से किसी के श्रीपादमूल के निकट सात प्रकृतियों का निरवशेषक्षय होने पर होता है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>4. वेदक सम्यक्त्व पूर्वक ही होता है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p><span class="SanskritText">रा.वा./2/1/8/100/31 सम्यग्दर्शनस्य हि आदिरौपशमिको भावस्तत: क्षायोपशमिकस्तत: क्षायिक इति।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन में निश्चय से पहले औपशमिक भाव होता है, फिर क्षायोपशमिक होता है और तत्पश्चात् क्षायिक होता है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./704/1141/23 वेदकसम्यग्दृष्टीनामेव...।</span> =<span class="HindiText">वेदक सम्यग्दृष्टियों को ही होता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>5. क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत होते हैं पर अल्प</strong></p> | ||
<p class="PrakritText">ष.खं. | <p class="PrakritText">ष.खं.5/1,8/सूत्र 18/256 संजदासंजदट्ठाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी।18।</p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.5/1,8,18/256/6 कुदो। अणुव्वयसहिदखइयसम्मादिट्ठीणमइदुल्लभत्तादो। ण च तिरिक्खेसु खइयसम्मत्तेण सह संजमासंजमो लब्भदि, तत्थ दंसणमोहणीयखवणाभावा।</span> | ||
<span class="HindiText">=संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम | <span class="HindiText">=संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं।18। क्योंकि 1. अणुव्रत सहित क्षायिक सम्यग्दृष्टियों का होना अत्यन्त दुर्लभ है। तथा 2. तिर्यञ्चों में क्षायिक सम्यक्त्व के साथ संयमासंयम पाया नहीं जाता, क्योंकि, तिर्यंचों में दर्शनमोह की क्षपणा का अभाव है। (विशेष देखें [[ तिर्यंच#2 | तिर्यंच - 2]])।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">म.पु./ | <p><span class="SanskritText">म.पु./24/163-165 तत: सम्यक्त्वशुद्धिं च व्रतशुद्धिं च पुष्कलाम् । निष्कलाद्भरतो भेजे परमानन्दमुद्वहन् ।163। स लेभे गुरुमाराध्य सम्यग्दर्शननायकाम् । व्रतशीलावलीं मुक्ते: कण्ठिकामिव निर्मलाम् ।165।</span> =<span class="HindiText">परम आनन्द को धारण करते हुए भरत ने शरीरानुराग से रहित भगवान् वृषभदेव से सम्यग्दर्शन की शुद्धि और अणुव्रतों की परम विशुद्धि को प्राप्त किया।163। भरत ने गुरुदेव की आराधना करके, जिसमें सम्यग्दर्शनरूपी प्रधान मणि लगा हुआ है और जो मुक्तिरूपी लक्ष्मी के निर्मल कण्ठहार के समान जान पड़ती थी ऐसी व्रत और शीलों की (5 अणुव्रत और सात शीलव्रत, इस प्रकार श्रावक के 12 व्रतों की) निर्मल माला धारण की।165।</span></p> | ||
<p class="HindiText">सम्यग्दर्शन क्रिया- देखें | <p class="HindiText">सम्यग्दर्शन क्रिया-देखें [[ क्रिया#3 | क्रिया - 3]]।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong>सम्यग्दृष्टि-</strong>सम्यग्दर्शन युक्त जीव को सम्यग्दृष्टि कहते हैं जो चारों गतियों में होने सम्भव हैं। दृष्टि की विचित्रता के कारण इनका विचारण व चिन्तवन सांसारिक लोगों से कुछ विभिन्न प्रकार का होता है, जिसे साधारण जन नहीं समझ सकते। सांसारिक लोग बाह्य जगत् की ओर दौड़ते हैं और वह अन्तरंग जगत् की ओर। बाह्यपदार्थों के संयोग आदि को भी कुछ विचित्र ही प्रकार से ग्रहण करता है। इसी कारण बाहर में रागी व भोगी रहता हुआ भी वह अन्तरंग में विरागी व योगी बना रहता है। यद्यपि कषायोद्रेक वश कषाय आदि भी करता है पर विवेक ज्योति खुली रहने के कारण नित्य उनके प्रति निन्दन गर्हण वर्तता है। इसी से उसके कषाय युक्त भाव भी ज्ञानमयी व निरास्रव कहे जाते हैं।</p> | <p class="HindiText"><strong>सम्यग्दृष्टि-</strong>सम्यग्दर्शन युक्त जीव को सम्यग्दृष्टि कहते हैं जो चारों गतियों में होने सम्भव हैं। दृष्टि की विचित्रता के कारण इनका विचारण व चिन्तवन सांसारिक लोगों से कुछ विभिन्न प्रकार का होता है, जिसे साधारण जन नहीं समझ सकते। सांसारिक लोग बाह्य जगत् की ओर दौड़ते हैं और वह अन्तरंग जगत् की ओर। बाह्यपदार्थों के संयोग आदि को भी कुछ विचित्र ही प्रकार से ग्रहण करता है। इसी कारण बाहर में रागी व भोगी रहता हुआ भी वह अन्तरंग में विरागी व योगी बना रहता है। यद्यपि कषायोद्रेक वश कषाय आदि भी करता है पर विवेक ज्योति खुली रहने के कारण नित्य उनके प्रति निन्दन गर्हण वर्तता है। इसी से उसके कषाय युक्त भाव भी ज्ञानमयी व निरास्रव कहे जाते हैं।</p> | ||
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<li>सम्यग्दृष्टि का लक्षण।</li></ol> | <li>सम्यग्दृष्टि का लक्षण।</li></ol> | ||
<ul>* अन्य अनेकों लक्षण वैराग्य, गुण, नि:शंकितादि</ul> | <ul>* अन्य अनेकों लक्षण वैराग्य, गुण, नि:शंकितादि</ul> | ||
<ul>* अंग आदि का निर्देश - देखें | <ul>* अंग आदि का निर्देश -देखें [[ सम्यग्दृष्टि#5.4 | सम्यग्दृष्टि - 5.4]]।</ul> | ||
<ul>* भय व संशय आदि के अभाव सम्बन्धी -देखें | <ul>* भय व संशय आदि के अभाव सम्बन्धी -देखें [[ नि:शंकित ]]।</ul> | ||
<ul>* आकांक्षा व राग के अभाव सम्बन्धी - देखें | <ul>* आकांक्षा व राग के अभाव सम्बन्धी -देखें [[ राग#6 | राग - 6]]।</ul> | ||
<ul>* सम्यग्दृष्टि का सुख - देखें | <ul>* सम्यग्दृष्टि का सुख -देखें [[ सुख#2.7 | सुख - 2.7]]।</ul> | ||
<ul>* अन्धश्रद्धान का विधि निषेध - देखें | <ul>* अन्धश्रद्धान का विधि निषेध -देखें [[ श्रद्धान ]]/3।</ul> | ||
<ul>* एक पारिणामिक भाव का आश्रय - देखें | <ul>* एक पारिणामिक भाव का आश्रय -देखें [[ मोक्षमार्ग#2 | मोक्षमार्ग - 2]]/4।</ul> | ||
<ul>* सम्यग्दृष्टि दो तीन ही होते हैं - देखें | <ul>* सम्यग्दृष्टि दो तीन ही होते हैं -देखें [[ संख्या#2.7 | संख्या - 2.7]]।</ul> | ||
<ul>* सम्यग्दृष्टि को ज्ञानी कहने की विवक्षा -देखें | <ul>* सम्यग्दृष्टि को ज्ञानी कहने की विवक्षा -देखें [[ ज्ञानी ]]।</ul><ol> | ||
<li value="2">सिद्धान्त या आगम को भी कथंचित् सम्यग्दृष्टि व्यपदेश</li> | <li value="2">सिद्धान्त या आगम को भी कथंचित् सम्यग्दृष्टि व्यपदेश</li> | ||
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<li><strong>सम्यग्दृष्टि की महिमा का निर्देश</strong> | <li><strong>सम्यग्दृष्टि की महिमा का निर्देश</strong> | ||
<ul>* सम्यग्दृष्टि एकदेशजिन कहलाते हैं - देखें | <ul>* सम्यग्दृष्टि एकदेशजिन कहलाते हैं -देखें [[ जिन#3 | जिन - 3]]।</ul><ol> | ||
<li>उसके सब भाव ज्ञानमयी हैं।</li></ol> | <li>उसके सब भाव ज्ञानमयी हैं।</li></ol> | ||
<ul>* वह रागी भी विरागी है - देखें | <ul>* वह रागी भी विरागी है -देखें [[ राग#6 | राग - 6]]/3,4।</ul><ol> | ||
<li value="2">वह सदा निरास्रव व अबन्ध है।</li> | <li value="2">वह सदा निरास्रव व अबन्ध है।</li> | ||
<li>कर्म करता हुआ भी वह बँधता नहीं।</li></ol> | <li>कर्म करता हुआ भी वह बँधता नहीं।</li></ol> | ||
<ul>* विषय सेवता हुआ भी वह असेवक है - देखें | <ul>* विषय सेवता हुआ भी वह असेवक है -देखें [[ राग#6 | राग - 6]]।</ul><ol> | ||
<li value ="4">उसके सब कार्य निर्जरा के निमित्त हैं।</li> | <li value ="4">उसके सब कार्य निर्जरा के निमित्त हैं।</li> | ||
<li>अनुपयुक्त दशा में भी उसे निर्जरा होती है।</li> | <li>अनुपयुक्त दशा में भी उसे निर्जरा होती है।</li> | ||
<li>उसकी कर्म चेतना भी ज्ञान चेतना है।</li></ol> | <li>उसकी कर्म चेतना भी ज्ञान चेतना है।</li></ol> | ||
<ul>* कर्म करता हुआ भी वह अकर्ता है - देखें | <ul>* कर्म करता हुआ भी वह अकर्ता है -देखें [[ चेतना#3 | चेतना - 3]]।</ul><ol> | ||
<li value ="7">उसके कुध्यान भी कुगति के कारण नहीं।</li> | <li value ="7">उसके कुध्यान भी कुगति के कारण नहीं।</li> | ||
<li>वह वर्तमान में ही मुक्त है।</li></ol> | <li>वह वर्तमान में ही मुक्त है।</li></ol> | ||
<ul>* सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के पुण्य व धर्म में अन्तर - देखें | <ul>* सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के पुण्य व धर्म में अन्तर -देखें [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि - 4]]।</ul> | ||
<ul>* सम्यग्दृष्टि को ही सच्ची भक्ति होती है - देखें | <ul>* सम्यग्दृष्टि को ही सच्ची भक्ति होती है -देखें [[ भक्ति#1 | भक्ति - 1]]।</ul> | ||
<ul>* सम्यग्दृष्टि का ही ज्ञान प्रमाण है - देखें | <ul>* सम्यग्दृष्टि का ही ज्ञान प्रमाण है -देखें [[ प्रमाण#2.2 | प्रमाण - 2.2]],4।</ul> | ||
<ul>* सम्यग्दृष्टि का आत्मानुभव व उसकी प्रत्यक्षता। - देखें | <ul>* सम्यग्दृष्टि का आत्मानुभव व उसकी प्रत्यक्षता। -देखें [[ अनुभव ]]/4,5।</ul> | ||
<ul>* उसका कुशास्त्र ज्ञान भी सम्यक् है - देखें | <ul>* उसका कुशास्त्र ज्ञान भी सम्यक् है -देखें [[ ज्ञान#III.2 | ज्ञान - III.2]]/10।</ul> | ||
<ul>* मरकर उच्चकुल आदिक में ही जन्मता है - देखें | <ul>* मरकर उच्चकुल आदिक में ही जन्मता है -देखें [[ जन्म#3 | जन्म - 3]]।</ul> | ||
<ul>* उसकी भवधारणा की सीमा - देखें | <ul>* उसकी भवधारणा की सीमा -देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.5 | सम्यग्दर्शन - I.5]]।</ul> | ||
</li> | </li> | ||
<li><strong>उपरोक्त महिमा सम्बन्धी समन्वय</strong><ol> | <li><strong>उपरोक्त महिमा सम्बन्धी समन्वय</strong><ol> | ||
<li>भावों में ज्ञानमयीपने सम्बन्धी।</li></ol> | <li>भावों में ज्ञानमयीपने सम्बन्धी।</li></ol> | ||
<ul>* शुद्धाशुद्धोपयोग दोनों युगपत् होते हैं। - देखें | <ul>* शुद्धाशुद्धोपयोग दोनों युगपत् होते हैं। -देखें [[ उपयोग#II.3 | उपयोग - II.3]]।</ul> | ||
<ul>* राग व विराग सम्बन्धी - देखें | <ul>* राग व विराग सम्बन्धी -देखें [[ राग#6 | राग - 6]]।</ul><ol> | ||
<li value="2">सदा निरास्रव व अबन्ध होने सम्बन्धी</li> | <li value="2">सदा निरास्रव व अबन्ध होने सम्बन्धी</li> | ||
<li>सर्व कार्यों में निर्जरा सम्बन्धी।</li> | <li>सर्व कार्यों में निर्जरा सम्बन्धी।</li> | ||
<li>ज्ञान चेतना सम्बन्धी।</li></ol> | <li>ज्ञान चेतना सम्बन्धी।</li></ol> | ||
<ul>* कर्तापने व अकर्तापने सम्बन्धी - देखें | <ul>* कर्तापने व अकर्तापने सम्बन्धी -देखें [[ चेतना#3 | चेतना - 3]]।</ul><ol> | ||
<li value ="5">अशुभ ध्यानों सम्बन्धी।</li> | <li value ="5">अशुभ ध्यानों सम्बन्धी।</li> | ||
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<li><strong>सम्यग्दृष्टि की विशेषताएँ</strong><ol> | <li><strong>सम्यग्दृष्टि की विशेषताएँ</strong><ol> | ||
<li>सम्यग्दृष्टि ही सम्यक्त्व व मिथ्यात्व के भेद को यथार्थ जानता है</li></ol> | <li>सम्यग्दृष्टि ही सम्यक्त्व व मिथ्यात्व के भेद को यथार्थ जानता है</li></ol> | ||
<ul>* सम्यग्दृष्टि स्व व पर दोनों के सम्यक्त्व को जानता है - देखें | <ul>* सम्यग्दृष्टि स्व व पर दोनों के सम्यक्त्व को जानता है -देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.3 | सम्यग्दर्शन - I.3]]।</ul><ol> | ||
<li value ="2">सम्यग्दृष्टि को पक्षपात नहीं होता है।</li></ol> | <li value ="2">सम्यग्दृष्टि को पक्षपात नहीं होता है।</li></ol> | ||
<ul>* वह नय को जानता है पर उसका पक्ष नहीं करता - देखें | <ul>* वह नय को जानता है पर उसका पक्ष नहीं करता -देखें [[ नय#I.3.5 | नय - I.3.5]]।</ul> | ||
<ul>* सम्यग्दृष्टि वाद नहीं करता -देखें | <ul>* सम्यग्दृष्टि वाद नहीं करता -देखें [[ वाद ]]।</ul><ol> | ||
<li value="3">जहाँ जगत् जागता है वहाँ ज्ञानी सोता है।</li></ol> | <li value="3">जहाँ जगत् जागता है वहाँ ज्ञानी सोता है।</li></ol> | ||
<ul>* वह पुण्य को हेय जानता है पर विषय वंचनार्थ उसका सेवन करता है - देखें | <ul>* वह पुण्य को हेय जानता है पर विषय वंचनार्थ उसका सेवन करता है -देखें [[ पुण्य#3 | पुण्य - 3]],5।</ul> | ||
<ul>* सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि की क्रियाओं व कर्म क्षपणा में अन्तर - देखें | <ul>* सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि की क्रियाओं व कर्म क्षपणा में अन्तर -देखें [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि - 4]]।</ul> | ||
</li> | </li> | ||
<li><strong>अविरत सम्यग्दृष्टि</strong><ol> | <li><strong>अविरत सम्यग्दृष्टि</strong><ol> | ||
<li>अविरत सम्यग्दृष्टि का सामान्य लक्षण</li></ol> | <li>अविरत सम्यग्दृष्टि का सामान्य लक्षण</li></ol> | ||
<ul>* उसके परिणाम अध:प्रवृत्तिकरणरूप होते हैं - देखें | <ul>* उसके परिणाम अध:प्रवृत्तिकरणरूप होते हैं -देखें [[ करण#4 | करण - 4]]।</ul><ol> | ||
<li value ="2">वह सर्वथा अव्रती नहीं।</li></ol> | <li value ="2">वह सर्वथा अव्रती नहीं।</li></ol> | ||
<ul>* उस गुणस्थान में सम्भव भाव - देखें | <ul>* उस गुणस्थान में सम्भव भाव -देखें [[ भाव#2.9 | भाव - 2.9]]।</ul> | ||
<ul>* वेदक सम्यग्दृष्टि के क्षायोपशमिक भाव सम्बन्धी शंका - देखें | <ul>* वेदक सम्यग्दृष्टि के क्षायोपशमिक भाव सम्बन्धी शंका -देखें [[ क्षयोपशम#2 | क्षयोपशम - 2]]।</ul><ol> | ||
<li value ="3">अपने दोषों के प्रति निन्दन गर्हण करना उसका स्वाभाविक व्रत है।</li> | <li value ="3">अपने दोषों के प्रति निन्दन गर्हण करना उसका स्वाभाविक व्रत है।</li> | ||
<li>अविरत सम्यग्दृष्टि के अन्य बाह्य चिह्न।</li></ol> | <li>अविरत सम्यग्दृष्टि के अन्य बाह्य चिह्न।</li></ol> | ||
<ul>* इस गुणस्थान में मार्गणा जीवसमास आदि रूप | <ul>* इस गुणस्थान में मार्गणा जीवसमास आदि रूप 20 प्ररूपणाएँ -देखें [[ सत् ]]</ul> | ||
<ul>* इस गुणस्थान में सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ - | <ul>* इस गुणस्थान में सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ -देखें [[ वह वह नाम ]]।</ul> | ||
<ul>* सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम -देखें | <ul>* सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम -देखें [[ मार्गणा ]]।</ul> | ||
<ul>* इस गुणस्थान में कर्मों का बन्ध उदय सत्त्व - | <ul>* इस गुणस्थान में कर्मों का बन्ध उदय सत्त्व -देखें [[ वह वह नाम ]]।</ul> | ||
<ul>* अविरत सम्यग्दृष्टि व दर्शन प्रतिमा में अन्तर -देखें | <ul>* अविरत सम्यग्दृष्टि व दर्शन प्रतिमा में अन्तर -देखें [[ दर्शन प्रतिमा ]]।</ul> | ||
<ul>* अविरत सम्यग्दृष्टि और पाक्षिक श्रावक में कथंचित् समानता - देखें | <ul>* अविरत सम्यग्दृष्टि और पाक्षिक श्रावक में कथंचित् समानता -देखें [[ श्रावक#3 | श्रावक - 3]]।</ul> | ||
<ul>* पुन: पुन: यह गुणस्थान प्राप्ति की सीमा - देखें | <ul>* पुन: पुन: यह गुणस्थान प्राप्ति की सीमा -देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.1.7 | सम्यग्दर्शन - I.1.7]]।</ul> | ||
<ul>* असंयत सम्यग्दृष्टि वन्द्य नहीं - देखें | <ul>* असंयत सम्यग्दृष्टि वन्द्य नहीं -देखें [[ विनय#4 | विनय - 4]]।</ul> | ||
<ul>* अविरत भी वह मोक्षमार्गी है - देखें | <ul>* अविरत भी वह मोक्षमार्गी है -देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.5 | सम्यग्दर्शन - I.5]]।</ul> | ||
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<p><strong> | <p><strong>1. सम्यग्दृष्टि सामान्य निर्देश</strong></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>1. सम्यग्दृष्टि का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">मो.पा./मू./ | <p><span class="PrakritText">मो.पा./मू./14 सद्दव्वरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ सो साहू। सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्मइं।14।</span> | ||
<span class="HindiText">जो साधु अपनी आत्मा में रत हैं अर्थात् रुचि सहित हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं। सम्यक्त्व भाव से युक्त होते हुए वे दुष्ट अष्टकर्मों का क्षय करते हैं। (भा.वा./मू./ | <span class="HindiText">जो साधु अपनी आत्मा में रत हैं अर्थात् रुचि सहित हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं। सम्यक्त्व भाव से युक्त होते हुए वे दुष्ट अष्टकर्मों का क्षय करते हैं। (भा.वा./मू./31)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">प.प्र./मू./ | <p><span class="PrakritText">प.प्र./मू./1/76 अप्पिं अप्पु मुणंतु जिउ सम्मादिट्ठि हवेइ। सम्माइट्ठिउ जीवडउ लहु कम्मइं मुच्चेइ।76।</span> =<span class="HindiText">अपने को अपने से जानता हुआ यह जीव सम्यग्दृष्टि होता है और सम्यग्दृष्टि होता हुआ शीघ्र ही कर्मों से छूट जाता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/1/1/6 [सूत्र प्रणीत जीव अजीव आदि पदार्थों को हेय व उपादेय बुद्धि से जो जानता है वह सम्यग्दृष्टि है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ नियति#1.2 | नियति - 1.2 ]][जो जब जहाँ जैसे होना होता है वह तब तहाँ तैसे ही होता है, इस प्रकार जो मानता है वह सम्यग्दृष्टि है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दृष्टि#5 | सम्यग्दृष्टि - 5 ]][वैराग्य भक्ति आत्मनिन्दन युक्त होता]</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>2. सिद्धान्त या आगम को भी कथंचित् सम्यग्दृष्टि व्यपदेश</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ध. | <p><span class="SanskritText">ध.13/5,5,50/11 सम्यग्दृश्यन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवादय: पदार्था: अनया इति सम्यग्दृष्टि: श्रुति: सम्यग्दृश्यन्ते अनया जीवादय: पदार्था: इति सम्यग्दृष्टि: सम्यग्दृष्टयविनाभाववद्वा सम्यग्दृष्टि:। | ||
</span>=<span class="HindiText">इसके द्वारा जीवादि पदार्थ सम्यक् प्रकार से देखे जाते हैं अर्थात् जाने जाते हैं, इसलिए इस (सिद्धान्त) का नाम सम्यग्दृष्टि या श्रुति है। इसके द्वारा जीवादिक पदार्थ सम्यक् प्रकार से देखे जाते हैं अर्थात् श्रद्धान किये जाते हैं इसलिए इसका नाम सम्यग्दृष्टि है। अथवा सम्यग्दृष्टि के साथ श्रुति का अविनाभाव होने से उसका नाम सम्यग्दृष्टि है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">इसके द्वारा जीवादि पदार्थ सम्यक् प्रकार से देखे जाते हैं अर्थात् जाने जाते हैं, इसलिए इस (सिद्धान्त) का नाम सम्यग्दृष्टि या श्रुति है। इसके द्वारा जीवादिक पदार्थ सम्यक् प्रकार से देखे जाते हैं अर्थात् श्रद्धान किये जाते हैं इसलिए इसका नाम सम्यग्दृष्टि है। अथवा सम्यग्दृष्टि के साथ श्रुति का अविनाभाव होने से उसका नाम सम्यग्दृष्टि है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. सम्यग्दृष्टि की महिमा का निर्देश</strong></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>1. उसके सब भाव ज्ञानमयी हैं</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">स.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">स.सा./मू./128 णाणमया भावाओ णाणमओ चेव जायए भावो। जम्हा तम्हा णाणिस्स सव्वे भावा हु णाणमया।</span> =<span class="HindiText">क्योंकि ज्ञानमय भावों में से ज्ञानमय ही भाव उत्पन्न होते हैं, इसलिए ज्ञानियों के समस्त भाव वास्तव में ज्ञानमय ही होते हैं।128। (स.सा./आ./128/क.67)।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText">पं.ध./उ./ | <p><span class="HindiText">पं.ध./उ./231 यस्माज्ज्ञानमया भावा ज्ञानिनां ज्ञाननिर्वृता:। अज्ञानमयभावानां नावकाश: सुदृष्टिषु।231।</span> =<span class="HindiText">क्योंकि ज्ञानियों के सर्वभाव ज्ञानमयी होते हैं, इसलिए सम्यग्दृष्टियों में अज्ञानमयी भाव अवकाश नहीं पाते।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. वह सदा निरास्रव व अबन्ध है</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">स.सा.मू./ | <p><span class="PrakritText">स.सा.मू./107 चउविहं अणेयभेहं बंधंते णाणदंसणगुणेहिं। समए समए जम्हा तेण अबंधोत्ति णाणो दु।</span> =<span class="HindiText">क्योंकि चार प्रकार के द्रव्यास्रव ज्ञानदर्शन गुणों के द्वारा समय-समय पर अनेक प्रकार का कर्म बाँधते हैं, इसलिए ज्ञानी तो अबन्ध है। (विशेष देखें [[ सम्यग्दृष्टि#3.2 | सम्यग्दृष्टि - 3.2]])</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>3. कर्म करता हुआ भी वह बँधता नहीं</strong></p> | ||
<p> <span class="PrakritText">स.सा./मू./ | <p> <span class="PrakritText">स.सा./मू./196,218 जह मज्जं पिवमाणो अरदिभावेण मज्जदि ण पुरिसो। दव्वुवभोगे अरदो णाणी वि ण बज्झदि तहेव।196। णाणी रागप्पजहो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो। णे लिप्पदि रजएण दु कद्दममज्झे जहा कणयं।218।</span> =<span class="HindiText">1. जैसे कोई पुरुष मदिरा को अरति भाव से पीता हुआ मतवाला नहीं होता, इसी प्रकार ज्ञानी भी द्रव्य के उपभोग के प्रति अरत वर्तता हुआ बन्ध को प्राप्त नहीं होता।196। 2. ज्ञानी जो कि सर्व द्रव्यों के प्रति राग को छोड़ने वाला है, वह कर्मों के मध्य में रहा हुआ हो तो भी कर्म रूपी रज से लिप्त नहीं होता -जैसे सोना कीचड़ के बीच पड़ा हुआ हो तो भी लिप्त नहीं होता।218।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">भा.पा./मू./ | <p><span class="PrakritText">भा.पा./मू./154 जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलिणिपत्तं सहावपयडीए। तह भावेण ण लिप्पइ कसायविसएहिं सप्पुरिसो।154।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार जल में रहता हुआ भी कमलिनीपत्र अपने स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष क्रोधादि कषाय और इन्द्रियों के विषयों में संलग्न भी अपने भावों से उनके साथ लिप्त नहीं होता।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">यो.सा./अ./ | <p><span class="SanskritText">यो.सा./अ./4/19 ज्ञानी विषयसंगेऽपि विषयैर्नैव लिप्यते। कनकं मलमध्येऽपि न मलैरुपलिप्यते।19।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार स्वर्ण कीचड़ के बीच रहता हुआ भी कीचड़ से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार ज्ञानी विषय भोग करता हुआ भी विषयों में लिप्त नहीं होता।19।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">भा.पा./टी./ | <p><span class="SanskritText">भा.पा./टी./152/296 पर उद्धृत -धात्री बालाऽसतीनाथपद्मिनीदलवारिवत् । दग्धरज्जुवदाभासं भुञ्जन् राज्यं न पापभाक् ।6।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार पतिव्रता नहीं है ऐसी युवती धाय अपने पति के साथ दिखावटी सम्बन्ध रखती है, जिस प्रकार कमल का पत्ता पानी के साथ दिखावटी सम्बन्ध रखता है, और जिस प्रकार जली हुई रज्जू मात्र देखने में ही रज्जू है, उसी प्रकार ज्ञानी राज्य को भोगता हुआ भी पाप का भागी नहीं होता।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">द.पा./टी./ | <p><span class="SanskritText">द.पा./टी./7/7/8 सम्यग्दृष्टेर्लग्नमपि पापं बन्धं न याति कौरघटस्थितं रज इव न बन्धं याति। | ||
</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार कोरे घड़े पर पड़ी हुई रज उसके साथ सम्बन्ध को प्राप्त नहीं होती, उसी प्रकार पाप के साथ लग्न भी सम्यग्दृष्टि बन्ध को प्राप्त नहीं होता।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार कोरे घड़े पर पड़ी हुई रज उसके साथ सम्बन्ध को प्राप्त नहीं होती, उसी प्रकार पाप के साथ लग्न भी सम्यग्दृष्टि बन्ध को प्राप्त नहीं होता।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>4. उसके सर्व कार्य निर्जरा के निमित्त हैं</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">स.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">स.सा./मू./193 उवभोगमिंदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिदराणं। जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं।193।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि जीव जो इन्द्रियों के द्वारा अचेतन तथा चेतन द्रव्यों का उपभोग करता है वह सर्व उसके लिए निर्जरा का निमित्त है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ज्ञा./ | <p><span class="SanskritText">ज्ञा./32/38 अलौकिकमहो वृत्तं ज्ञानिन: केन वर्ण्यते। अज्ञानी बध्यते यत्र ज्ञानी तत्रैव मुच्यते।38।</span> =<span class="HindiText">अहो, देखो ज्ञानी पुरुषों के इस अलौकिक चारित्र का कौन वर्णन कर सकता है। जहाँ अज्ञानी बन्ध को प्राप्त होता है, उसी आचरण में ज्ञानी कर्मों से छूट जाता है।38। (यो.सा./अ./6/18)</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./230 आस्तां न बन्धहेतु: स्याज्ज्ञानिनां कर्मजा क्रिया। चित्रं यत्पूर्वबद्धानां निर्जरायै च कर्मणाम् ।230।</span> =<span class="HindiText">ज्ञानियों की कर्म से उत्पन्न होने वाली क्रिया बन्ध का कारण नहीं होती है, यह बात तो दूर रही, परन्तु आश्चर्य तो यह है कि उनकी जो भी क्रिया है वह सब पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा के लिए ही कारण होती है।230।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>5. अनुपयुक्त दशा में भी उसे निर्जरा होती है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./878 आत्मन्येवोपयोग्यवस्तु ज्ञानं वा स्यात् परात्मनि। सत्सु सम्यक्त्वभावेषु सन्ति ते निर्जरादय:।</span> =<span class="HindiText">ज्ञान चाहे आत्मा में उपयुक्त हो अथवा कदाचित् परपदार्थों में उपयुक्त हो परन्तु सम्यक्त्व भाव के होने पर वे निर्जरादिक अवश्य होते हैं।878।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>6. उसकी कर्म चेतना भी ज्ञान चेतना है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./275 अस्ति तस्यापि सद्दृष्टे: कस्यचित्कर्मचेतना। अपि कर्मफले सा स्यादर्थतो ज्ञानचेतना।275।</span> =<span class="HindiText">यद्यपि जघन्य भूमिका में किसी-किसी सम्यग्दृष्टि के कर्मचेतना और कर्मफलचेतना भी होती है, पर वास्तव में वह ज्ञानचेतना ही है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>7. उसके कुध्यान भी कुगति के कारण नहीं</strong></p> | ||
<p>द्र<span class="SanskritText">.सं./टी./ | <p>द्र<span class="SanskritText">.सं./टी./48/201/3 चतुर्विधमार्त्तध्यानम् । ...यद्यपि मिथ्यादृष्टीनां तिर्यग्गतिकारणं भवति तथापि बद्धायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीनां न भवति।...रौद्रध्यानं...तच्च मिथ्यादृष्टीनां नरकगतिकारणमपि बद्धायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीनां तत्कारणं न भवति।</span> =<span class="HindiText">चार प्रकार का आर्तध्यान यद्यपि मिथ्यादृष्टि जीवों को तिर्यंचगति का कारण होता है तथापि बद्धायुष्क को छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टियों को वह तिर्यंचगति का कारण नहीं होता है। (इसी प्रकार) रौद्रध्यान भी मिथ्यादृष्टियों को नरकगति का कारण होता है, परन्तु बद्धायुष्क को छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टियों को वह नरक का कारण नहीं होता है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>8. वह वर्तमान में ही मुक्त है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सा./आ./ | <p><span class="SanskritText">स.सा./आ./318/क.198 ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म, जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम् । जानन्परं करणवेदनयोरभावाच्छुद्धस्वभावनियत: स हि मुक्त एव।198।</span> =<span class="HindiText">ज्ञानी कर्म को न तो करता है और न भोगता है, वह कर्म के स्वभाव को मात्र जानता ही है। इस प्रकार मात्र जानता हुआ करने और भोगने के अभाव के कारण, शुद्ध स्वभाव में निश्चल ऐसा वह वास्तव में मुक्त है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ज्ञा./ | <p><span class="SanskritText">ज्ञा./6/57 मन्ये मुक्त: स पुण्यात्मा विशुद्धं यस्य दर्शनम् । यतस्तदेव मुत्तयङ्गमग्रिमं परिकीर्तितम् ।57। | ||
</span>=<span class="HindiText">जिसको विशुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ है वह पुण्यात्मा मुक्त है ऐसा मैं मानता हूँ। क्योंकि, सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का मुख्य अंग कहा गया है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">जिसको विशुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ है वह पुण्यात्मा मुक्त है ऐसा मैं मानता हूँ। क्योंकि, सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का मुख्य अंग कहा गया है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">नि.सा./ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">नि.सा./ता.वृ./61/क.81 इत्थं बुद्धवा परमसमितिं मुक्तिकान्तासखीं यो, मुक्तवा सङ्गं भवभयकरं हेमरामात्मकं च। स्थित्वाऽपूर्वे सहजविलसच्चिच्चमत्कारमात्रे, भेदाभावे समयति च य: सर्वदा मुक्त एव।81।</span> =<span class="HindiText">इस प्रकार मुक्तिकान्ता ही सखी परम समिति को जानकर जो जीव भवभय के करने वाले कंचनकामिनी के संग को छोड़कर, अपूर्व सहज विलसते अभेद चैतन्य चमत्कार मात्र स्थित रहकर सम्यक् ‘इति’ करते हैं अर्थात् सम्यक् रूप से परिणमित होते हैं वे सर्वदा मुक्त ही हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./232 वैराग्यं परमोपेक्षाज्ञानं स्वानुभव: स्वयम् । तद्द्वयं ज्ञानिनो लक्ष्म जीवन्मुक्त: स एव च।232।</span> =<span class="HindiText">परमोपेक्षारूप वैराग्य और आत्मप्रत्यक्ष रूप स्वसंवेद ज्ञान ही ज्ञानी के लक्षण है। जिसके ये दोनों होते हैं, वह ज्ञानी जीवन्मुक्त है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>3. उपरोक्त महिमा सम्बन्धी समन्वय</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. भावों में ज्ञानमयीपने सम्बन्धी</strong></p> | ||
<p class="HindiText">स.सा./पं.जयचन्द/ | <p class="HindiText">स.सा./पं.जयचन्द/128 ज्ञानी के सर्वभाव ज्ञान जाति का उल्लंघन न करने से ज्ञानमयी हैं।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>2. सदा निरास्रव व अबन्ध होने सम्बन्धी</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">स.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">स.सा./मू./177-178 रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स। तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पञ्चया होंति।177। हेदू चदुवियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं। तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति।178।</span> =<span class="HindiText">राग, द्वेष और मोह ये आस्रव सम्यग्दृष्टि के नहीं होते, इसलिए आस्रवभाव के बिना द्रव्यप्रत्यय कर्मबन्ध के कारण नहीं होते।177। मिथ्यात्व अविरति प्रमाद और कषाय ये चार प्रकार के हेतु, आठ प्रकार के कर्मों के कारण कहे गये हैं, और उनके भी कारण रागादि भाव हैं। इसलिए उनके अभाव में ज्ञानी को कर्म नहीं बँधते।178।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">इ.उ./ | <p><span class="SanskritText">इ.उ./44 अगच्छंस्तद्विशेषाणामनभिज्ञश्च जायते। अज्ञाततद्विशेषस्तु बद्धयते न विमुच्यते।44।</span> =<span class="HindiText">स्वात्मतत्त्व में निष्ठ योगी की जब पर पदार्थों से निवृत्ति होती है, तब उनके अच्छे बुरे आदि विकल्पों का उसे अनुभव नहीं होता। तब वह योगी कर्मों से भी नहीं बँधता, किन्तु कर्मों से छूटता ही है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><span class="SanskritText">स.सा./आ./ | <p class="HindiText"><span class="SanskritText">स.सा./आ./170-171 ज्ञानी हि तावदास्रव-भावभावनाभिप्रायाभावान्निरास्रव एव। यत्तु तस्यापि द्रव्यप्रत्यया: प्रतिसमयमनेकप्रकारं पुद्गलकर्म बध्नन्ति तत्र ज्ञानगुणपरिणाम एव हेतु:।170। ...तस्यान्तर्मुहूर्तविपरिणामित्वात् पुन: पुनरन्यतमोऽस्ति परिणाम:। स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यंभाविरागसद्भावात् बन्धहेतुरेव स्यात् ।171।</span> =ज्ञानी तो आस्रवभाव की भावना के अभिप्राय के अभाव के कारण निरास्रव ही है परन्तु जो उसे भी द्रव्यप्रत्यय प्रति समय अनेक प्रकार का पुद्गलकर्म बाँधते हैं, वहाँ क्षायोपशमिक ज्ञान का परिणमन ही कारण है।170। क्योंकि वह अन्तर्मुहूर्तपरिणामी है। इसलिए यथाख्यात चारित्रअवस्था से पहले उसे अवश्य ही रागभाव का सद्भाव होने से, वह ज्ञान बन्ध का कारण ही है।</p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सा./आ./ | <p><span class="SanskritText">स.सा./आ./172/क./116 संन्यसन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयं, बारंबारमबुद्धिपूर्वमपि ते जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन् । उच्छिनदन्परवृत्तिमेव सकलो ज्ञानस्य पूर्णोभवन्नात्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा।116।</span> =<span class="HindiText">आत्मा जब ज्ञानी होता है, तब स्वयं अपने समस्त बुद्धिपूर्वक राग को निरन्तर छोड़ता हुआ अर्थात् न करता हुआ, और जो अबुद्धिपूर्वक राग है उसे भी जीतने के लिए बारम्बार (ज्ञानानुभव रूप) स्वशक्ति को स्पर्श करता हुआ, और (इस प्रकार) समस्त प्रवृत्ति को -परपरिणति को उखाड़ता हुआ, ज्ञान के पूर्ण भावरूप होता हुआ, वास्तव में सदा निरास्रव है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सा./आ. | <p><span class="SanskritText">स.सा./आ.173-176 ज्ञानिनो यदि द्रव्यप्रत्यया: पूर्वबद्धा: सन्ति, सन्तु; तथापि स तु निरास्रव एव, कर्मोदयकार्यस्य रागद्वेषमोहरूपस्यास्रवभावस्याभावे द्रव्यप्रत्ययानामबन्धहेतुत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">ज्ञानी के यदि पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्यय विद्यमान हैं; तो भले रहें; तथापि वह तो निरास्रव ही है; क्योंकि, कर्मोदय का कार्य जो रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव हैं उसके अभाव में द्रव्य प्रत्यय बन्ध का कारण नहीं है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सा./ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">स.सा./ता.वृ./172/239/6 यथाख्यातचारित्राधस्तादन्तर्मूहूर्तानन्तरं निर्विकल्पसमाधौ स्थातुं न शक्यत इति भणितं पूर्वं। एवं सति कथं ज्ञानी निरास्रव इति चेत्, ज्ञानी तावदीहापूर्वरागादिविकल्पकरणाभावान्निरास्रव एव। किंतु सोऽपि यावत्कालं परमसमाधेरनुष्ठानाभावे सति शुद्धात्मस्वरूपं द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरितुं वासमर्थ: तावत्कालं तस्यापि संबन्धि यद्दर्शनं ज्ञानं चारित्रं तज्जघन्यभावेन सकषायभावेन अनोहितवृत्त्या परिणमति, तेन कारणेन स तु भेदज्ञानी...विविधपुण्यकर्मणा बध्यते।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> -यथाख्यात चारित्र से पहले अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर निर्विकल्प समाधि में स्थित रहना शक्य नहीं है, ऐसा पहले कहा गया है। ऐसा होने पर ज्ञानी निरास्रव कैसे हो सकता है ? <strong>उत्तर</strong> -1. ज्ञानी क्योंकि ईहा पूर्वक अर्थात् अभिप्रायपूर्वक रागादि विकल्प नहीं करता है, इसलिए वह निरास्रव ही है। (अन.ध./8/4/733) 2. किन्तु जबतक परमसमाधि के अनुष्ठान के अभाव में वह भी शुद्धात्मस्वरूप को देखने-जानने व आचरण करने में असमर्थ रहता है, तब तक उसके भी तत्सम्बन्धी जो दर्शन ज्ञान चारित्र हैं वे जघन्यभाव से अर्थात् कषायभाव से अनीहितवृत्ति से स्वयं परिणमते हैं। उसके कारण यह भेदज्ञानी भी विविध प्रकार के पुण्यकर्म से बँधता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ उपयोग#II.3 | उपयोग - II.3]] [जितने अंश में उसे राग है उतने अंश में आस्रव व बन्ध है और जितने अंश में राग का अभाव है, उतने अंश में निरास्रव व अबन्ध है।]</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. सर्व कार्यों में निर्जरा सम्बन्धी</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">स.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">स.सा./मू./194 दव्वे उवभुंजंते णियमा जायदि सुहं च दुक्खं वा। तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अह णिज्जरं जादि।194।</span> =<span class="HindiText">वस्तु भोगने में आने पर सुख अथवा दु:ख नियम से उत्पन्न होता है। उदय को प्राप्त उस सुखदु:ख का अनुभव करता है तत्पश्चात् वह (सुख-दुखरूपभाव) निर्जरा को प्राप्त होता है। (इस प्रकार भाव निर्जरा की अपेक्षा समाधान है)।194।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सा./आ./ | <p><span class="SanskritText">स.सा./आ./193-195 रागादिभावानां सद्भावेन मिथ्यादृष्टेरचेतनान्यद्रव्योपभोगो बन्धनिमित्तमेव स्यात् । स एव रागादिभावानामभावेन सम्यग्दृष्टेर्निर्जरानिमित्तमेव स्यात् । एतेन द्रव्यनिर्जरास्वरूपमावेदयति।193। अथ भावनिर्जरास्वरूपमावेदयति। स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टे: रागादिभावानां सद्भावेन बन्धनिमित्तं भूत्वा निर्जीर्यमाणोपजीर्ण: सन् बन्ध एव स्यात् । सम्यग्दृष्टेस्तु रागादिभावानामभावेन बन्धनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीयमाणो निर्जीर्ण: सन्निर्जरैव स्यात् ।194।</span> =<span class="HindiText">रागादि भावों के सद्भाव से मिथ्यादृष्टि के जो अचेतन तथा चेतन द्रव्यों का उपभोग बन्ध का निमित्त होता है; वही रागादिभावों के अभाव के कारण सम्यग्दृष्टि के लिए निर्जरा का निमित्त होता है। इस प्रकार द्रव्य निर्जरा का स्वरूप कहा।193। अब भाव निर्जरा का स्वरूप कहते हैं -जब उस (कर्मोदयजन्य सुखरूप अथवा दु:खरूप) भाव का वेदन होता है तब मिथ्यादृष्टि को, रागादिभावों के सद्भाव से (नवीन) बन्ध का निमित्त होकर निर्जरा को प्राप्त होता हुआ भी, निर्जरित न होता हुआ बन्ध ही होता है; किन्तु सम्यग्दृष्टि के रागादिभावों के अभाव से बन्ध का निमित्त हुए बिना केवल मात्र निर्जरित होने से, निर्जरित होता हुआ, निर्जरा ही होती है।194।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सा./ता.वृ./ | <p><span class="SanskritText">स.सा./ता.वृ./193/267/14 अत्राह शिष्य: -रागद्वेषमोहाभावे सति निर्जराकारणं भणितं सम्यग्दृष्टेस्तु रागादय: सन्ति, तत: कथं निर्जराकारणं भवतीति। अस्मिन्पूर्वपक्षे परिहार: -अत्र ग्रन्थे वस्तुवृत्त्या वीतरागसम्यग्दृष्टेर्ग्रहणं, यस्तु चतुर्थगुणस्थानवर्तिसरागसम्यग्दृष्टयस्तस्य गौणवृत्त्या ग्रहणं, तत्र तु परिहार: पूर्वमेव भणित:। कथमिति चेत् । मिथ्यादृष्टे: सकाशादसंयतसम्यग्दृष्टे: अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभमिथ्यात्वोदयजनिता:, श्रावकस्य च प्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभोदयजनिता रागादयो न सन्तीत्यादि। किंच सम्यग्दृष्टे: संवरपूर्विका निर्जरा भवति, मिथ्यादृष्टेस्तु गजस्नानवत् बन्धपूर्विका भवति। तेन कारणेन मिथ्यादृष्टयपेक्षया सम्यग्दृष्टिरबन्धक इति। एवं द्रव्यनिर्जराव्याख्यानरूपेण गाथा गता।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> -राग-द्वेष व मोह का अभाव होने पर भोग आदि निर्जरा के कारण कहे गये हैं, परन्तु सम्यग्दृष्टि के तो रागादि होते हैं, इसलिए उसे वे निर्जरा के कारण कैसे हो सकते हैं ? <strong>उत्तर</strong> -1. इस ग्रन्थ में वस्तु वृत्ति से वीतराग सम्यग्दृष्टि ग्रहण किया गया है, जो चौथे गुणस्थानवर्ती सरागसम्यग्दृष्टि है उसका गौण वृत्ति से ग्रहण किया गया है। 2. सराग सम्यग्दृष्टि सम्बन्धी समाधान पहले ही दे दिया गया है। वह ऐसे कि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टि को अनन्तानुबन्धी चतुष्क और मिथ्यात्वोदयजन्य रागादिक तथा श्रावक को अप्रत्याख्यान चतुष्क जनित रागादि नहीं होते हैं। 3. सम्यग्दृष्टि को निर्जरा संवरपूर्वक होती है और मिथ्यादृष्टि की गजस्नानवत् बन्धपूर्वक होती है। इस कारण मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि अबन्धक है। इस प्रकार द्रव्यनिर्जरा के व्याख्यानरूप गाथा कही। 4. [सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहोदय के वशीभूत होकर अरुचिपूर्वक सुख-दु:ख आदिक अनुभव करता है और मिथ्यादृष्टि उपादेय बुद्धि से करता है। इसलिए सम्यग्दृष्टि को भोगों का भोगना निर्जरा का निमित्त है। इस प्रकार भाव निर्जरा की अपेक्षा व्याख्यान जानना। (देखें [[ राग#6 | राग - 6]]/6)]</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>4. ज्ञान चेतना सम्बन्धी</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ. | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ.276 चेतनाया: फलं बन्धस्तत्फले वाऽथ कर्मणि। रागाभावान्न बन्धोऽस्य तस्मात्सा ज्ञानचेतना।276।</span> =<span class="HindiText">कर्म व कर्मफलरूप चेतना का फल कर्म बन्ध है, पर सम्यग्दृष्टि को राग का अभाव होने से बन्ध नहीं होता है, इसलिए उसकी वह कर्म व कर्मफल चेतना ज्ञानचेतना है।276।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>5. अशुभ ध्यानों सम्बन्धी</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./ | <p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./48/201/5 कस्मादिति चेत् -स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति विशिष्टभावनाबलेन तत्कारणभूतसंक्लेशाभावादिति।5।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> -आर्तध्यान सम्यग्दृष्टि को मिथ्यादृष्टि की भाँति तिर्यंच गति का कारण क्यों नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong> -सम्यग्दृष्टि जीवों के ‘निज शुद्ध आत्मा ही उपादेय है’ ऐसी भावना के कारण तिर्यंचगति का कारण रूप संक्लेश नहीं होता। [यही उत्तर रौद्रध्यान के लिए भी दिया गया है]</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>4. सम्यग्दृष्टि की विशेषताएँ</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. सम्यग्दृष्टि ही सम्यक्त्व व मिथ्यात्व के भेद को यथार्थत: जानता है</strong></p> | ||
<p class="HindiText">स.सा./पं.जयचन्द/ | <p class="HindiText">स.सा./पं.जयचन्द/200/क.137 सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व सहित राग नहीं होता और जिसके मिथ्यात्व सहित राग हो वह सम्यग्दृष्टि नहीं होता। ऐसे अन्तर को सम्यग्दृष्टि ही जानता है। पहले तो मिथ्यादृष्टि का आत्म शास्त्र में प्रवेश ही नहीं है, और यदि वह प्रवेश करता है तो विपरीत समझता है -शुभभाव को सर्वथा छोड़कर भ्रष्ट होता है अथवा अशुभभावों में प्रवर्तता है, अथवा निश्चय को भली भाँति जाने बिना व्यवहार से ही (शुभभाव से ही) मोक्ष मानता है, परमार्थ तत्त्व में मूढ़ रहता है। यदि कोई बिरला जीव स्याद्वाद न्याय से सत्यार्थ को समझते तो उसे अवश्य ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, वह अवश्य सम्यग्दृष्टि हो जाता है।</p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. सम्यग्दृष्टि को पक्षपात नहीं होता</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स्या.म./मू.श्लो. | <p><span class="SanskritText">स्या.म./मू.श्लो.30/334 अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावात् यथा परे मत्सरिण: प्रवादा:। नयानशेषानविशेषमिच्छन् न पक्षपाती समयस्तथा ते।30।</span> =<span class="HindiText">आत्मवादी लोग परस्पर पक्ष और प्रतिपक्ष भाव रखने के कारण एक दूसरे से ईर्ष्या करते हैं, परन्तु सम्पूर्ण नयों को एक समान देखते वाले (देखें [[ अनेकान्त#2 | अनेकान्त - 2]]) आपके शास्त्र में पक्षपात नहीं है।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>3. जहाँ जगत् जागता है वहाँ ज्ञानी सोता है</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">मो.पा./मू. | <p><span class="PrakritText">मो.पा./मू.31 जो सुत्तो ववहारे सो जोइ जग्गए सकज्जम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे।31। | ||
</span>=<span class="HindiText">जो योगी व्यवहार में सोता है वह अपने स्वरूप के कार्य में जागता है। और व्यवहार में जागता है, वह अपने कार्य में सोता | </span>=<span class="HindiText">जो योगी व्यवहार में सोता है वह अपने स्वरूप के कार्य में जागता है। और व्यवहार में जागता है, वह अपने कार्य में सोता है।31। (स.श./78)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">प.प्र./मू./ | <p><span class="PrakritText">प.प्र./मू./2/46 जा णिसि सयलहँ देहियँ जोग्गिउ तर्हि जग्गेइ। जहिँ पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ।46।</span> =<span class="HindiText">जो सब संसारी जीवों की रात है, उसमें परम तपस्वी जागता है, और जिसमें सब संसारी जीव जाग रहे हैं, उस दशा में योगी रात मानकर योग निद्रा में सोता है। (ज्ञा./18/37)।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>5. अविरत सम्यग्दृष्टि निर्देश</strong></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>1. अविरति सम्यग्दृष्टि का सामान्य लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./ | <p><span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./11 णो इंदियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे चावि। जो सद्दहइ जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो।11।</span> =<span class="HindiText">जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों में विरत नहीं है और न त्रस तथा स्थावर जीवों के घात से ही विरक्त है, किन्तु केवल जिनोक्त तत्त्व का श्रद्धान करता है, वह चतुर्थगुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि है।11। (ध.1/1,1,12/गा.111/173); (गो.जी./मू./29/58); (और भी देखें [[ असंयम ]])</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p><span class="SanskritText">रा.वा./9/1/15/589/26 औपशमिकेन क्षायोपशमिकेन क्षायिकेण वा सम्यक्त्वेन समन्वित: चारित्रमोहोदयात् अत्यन्तविरतिपरिणामप्रवणोऽसंयतसम्यग्दृष्टिरिति व्यपदिश्यते।</span> =<span class="HindiText">औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इन तीनों में से किसी भी सम्यक्त्व से समन्वित तथा चारित्रमोह के उदय से जिसके परिणाम अत्यन्त अविरतिरूप रहते हैं, उसको ‘असंयत सम्यग्दृष्टि’ ऐसा कहा जाता है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.1/1,1,12/171/1 समीचीनदृष्टि: श्रद्धा यस्यासौ सम्यग्दृष्टि:, असंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च, असंयतसम्यग्दृष्टि:। सो वि सम्माइट्ठी तिविहो, खइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी चेदि।</span> =<span class="HindiText">जिसकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा समीचीन होती है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं, और संयम रहित [अर्थात् इन्द्रिय भोग व जीव हिंसा से विरक्त न होना (देखें [[ असंयम ]])] सम्यग्दृष्टि को असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं। वे सम्यग्दृष्टि जीव तीन प्रकार के हैं -क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और औपशमिक सम्यग्दृष्टि।</span></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>2. अव्रत सम्यग्दृष्टि सर्वथा अव्रती नहीं</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ श्रावक#3 | श्रावक - 3]]/4 [यद्यपि व्रतरूप से कुछ भी अंगीकार नहीं करता, पर कुलाचाररूप से अष्टमूलगुण धारण, स्थूल अणुव्रत पालन, स्थूल रूपेण रात्रि भोजन व सप्तव्यसन त्याग अवश्य करता है। क्योंकि ये सब क्रियाएँ व्रत न कहलाकर केवल कुलक्रिया कहलाती हैं, इसलिए वह अव्रती या असंयत कहलाता है। ये क्रियाएँ व्रती व अव्रती दोनों को होती हैं। व्रती को नियम व्रतरूप से और अव्रती को कुलाचार रूप से।]</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/1/6 [निश्चय सम्यक्त्व युक्त होने पर भी चारित्र मोहोदयवश उसे आत्मध्यान में स्थिरता नहीं है तथा व्रत व प्रतिज्ञाएँ भंग भी हो जाती हैं, इसलिए असंयत कहा जाता है।]</p> | ||
<p class="HindiText">मो.मा.प्र./ | <p class="HindiText">मो.मा.प्र./9/499/22 कषायनि के असंख्यात लोकप्रमाण स्थान हैं। तिनिविषै सर्वत्र पूर्वस्थानतैं उत्तरस्थानविषैं मन्दता पाइए है।...आदि के बहुत स्थान तौ असंयमरूप कहे, पीछे केतेक देश संयमरूप कहे। ...तिनिविषैं प्रथमगुणस्थानतैं लगाय चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त जे कषाय के स्थान हो हैं, ते सर्व असंयम ही के हो हैं।...परमार्थतै कषाय का घटना चारित्र का अंश है...सर्वत्र असंयम की समानता न जानना।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. अपने दोषों के प्रति निन्दन गर्हण करना उसका स्वाभाविक व्रत है</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">का.अ./मू./ | <p><span class="PrakritText">का.अ./मू./4 विरलो अज्जदि पुण्णं सम्मादिट्ठी वएहि संजुत्तो। उवसमभावे सहिदो णिंदण-गरहाहिसंजुत्तो।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि, व्रती, उपशम भाव से युक्त, तथा अपनी निन्दा और गर्हा करने वाले विरलेजन ही पुण्य कर्म का उपार्जन करते हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./ | <p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./13/33/9 निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम्, इन्द्रियसुखादिपरद्रव्यं हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते परं किन्तु भूमिरेखादिसदृशक्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलवरगृहीततस्करवदात्मनिन्दासहित: सन्निन्द्रियसुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टेर्लक्षणम् ।</span> =<span class="HindiText">निज परमात्म द्रव्य उपादेय है तथा इन्द्रिय सुख आदि परद्रव्य त्याज्य हैं, इस प्रकार सर्वज्ञ प्रणीत निश्चय, व्यवहार को साध्य साधक भाव से मानता है, परन्तु भूमि की रेखा के समान क्रोध आदि अप्रत्याख्यानकषाय के उदय से, मारने के लिए कोतवाल से पकड़े हुए चोर की भाँति आत्मनिन्दादि सहित होकर इन्द्रिय सुख का अनुभव करता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थानवर्ती है। (सा.ध./1/13)</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./427 दृङ्मोहस्योदयाभावात् प्रसिद्ध: प्रशमो गुण:। तत्राभिव्यञ्जकं बाह्यन्निन्दनं चापि गर्हणम् ।472।</span> =<span class="HindiText">दर्शनमोहनीय के उदय के अभाव से प्रशम गुण उत्पन्न होता है और प्रशम के बाह्यरूप अभिव्यंजक निन्दा तथा गर्हा ये दोनों होते हैं।472।</span></p> | ||
<p class="HindiText">का.अ./पं.जयचन्द/ | <p class="HindiText">का.अ./पं.जयचन्द/391 इसके असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि कार्यों में हिंसा होती है। तो भी मारने का अभिमत नहीं है, कार्य का अभिप्राय है। वहाँ घात होता है, उसके लिए अपनी निन्दा गर्हा करता है। इसके त्रस हिंसा न करने के पक्ष मात्र से पाक्षिक कहलाता है। यह अप्रत्याख्यानावरण कषाय के मन्द परिणाम हैं, इसलिए अव्रती ही है।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>4. अविरत सम्यग्दृष्टि के अन्य बाह्य चिह्न</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">का.अ./मू./ | <p><span class="PrakritText">का.अ./मू./313-324 जो ण या कुव्वदि गव्वं पुत्तकलत्ताइसव्वअत्थेसु। उवसमभावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिणमेत्तं।313। उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो। साहम्मिय अणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो।315। एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए। सो सद्दिट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुदिट्ठी।323। जो ण विजाणदि तच्चं सो जिणवयणे करेदि सद्दहणं। जं जिणवरेहि भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि।324।</span>=<span class="HindiText">वह सम्यग्दृष्टि पुत्र, स्त्री आदि समस्त पदार्थों में गर्व नहीं करता, उपशमभाव को भाता है और अपने को तृणसमान मानता है।313। जो उत्तम गुणों को ग्रहण करने में तत्पर रहता है, उत्तम साधुओं की विनय करता है, तथा साधर्मी जनों से अनुराग करता है, वह उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि है।315। इस प्रकार जो निश्चय से सब द्रव्यों को और सब पर्यायों को जानता है, वह सम्यग्दृष्टि है और जो उनके अस्तित्व में शंका करता है, वह मिथ्यादृष्टि है।323। जो तत्त्वों को नहीं जानता किन्तु जिनवचन में श्रद्धान करता है (देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.1.2 | सम्यग्दर्शन - I.1.2]],3) कि जिनवर भगवान् ने को कुछ कहा है, वह सब मुझे पसन्द है। वह भी श्रद्धावान् है।324।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/1 (देव, गुरु, धर्म, तत्त्व व पदार्थों आदि की श्रद्धा करता है, आत्मस्वभाव की रुचि रखता है।)</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.2 | सम्यग्दर्शन - I.2 ]](नि:शंकितादि आठ अंगों को व प्रशम संवेग अनुकम्पा आस्तिक्य आदि गुणों को धारण करता है।)</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दृष्टि#2 | सम्यग्दृष्टि - 2]] (सम्यग्दृष्टि को राग द्वेष व मोह का अभाव है।)</p> | ||
<p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./ | <p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./45/194/10 शुद्धात्मभावनोत्पन्ननिर्विकारवास्तवसुखामृतमुपादेयं कृत्वा संसारशरीरभोगेषु योऽसौ हेयबुद्धि: सम्यग्दर्शनशुद्ध: स चतुर्थगुणस्थानवर्ती व्रतरहितो दर्शनिको भण्यते। | ||
</span>=<span class="HindiText">शुद्धात्म भावना से उत्पन्न निर्विकार यथार्थ सुखरूपी अमृत को उपादेय करके संसार शरीर और भोगों में जो हेय बुद्धि है वह सम्यग्दर्शन से शुद्ध चतुर्थगुणस्थान वाला व्रतरहित दर्शनिक है। ( देखें | </span>=<span class="HindiText">शुद्धात्म भावना से उत्पन्न निर्विकार यथार्थ सुखरूपी अमृत को उपादेय करके संसार शरीर और भोगों में जो हेय बुद्धि है वह सम्यग्दर्शन से शुद्ध चतुर्थगुणस्थान वाला व्रतरहित दर्शनिक है। (देखें [[ सम्यग्दृष्टि#5 | सम्यग्दृष्टि - 5]]-2); (और भी देखें [[ राग#6 | राग - 6]])</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./261,271 उपेक्षा सर्वभोगेषु सद्दृष्टेर्दृष्टरोगवत् । अवश्यं तदवस्थायास्तथाभावो निसर्गज:।261। इत्येवं ज्ञाततत्त्वीऽसौ सम्यग्दृष्टिर्निजात्मदृक । वैषयिके सुखे ज्ञाने राग-द्वेषौ परित्यजेत् ।371।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि को सर्वप्रकार के भोगों में प्रत्यक्ष रोग की तरह अरुचि होती है, क्योंकि, उस सम्यक्त्वरूप अवस्था का, विषयों में अवश्य अरुचि का होना स्वत:सिद्ध स्वभाव है।261। इस प्रकार तत्त्वों को जानने वाला स्वात्मदर्शी यह सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियजन्य सुख और ज्ञान में राग तथा द्वेष का परित्याग करे।371। -देखें [[ राग#6 | राग - 6]]।</span></p> | ||
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Revision as of 21:48, 5 July 2020
दुरभिनिवेश रहित पदार्थों का श्रद्धान अथवा स्वात्म प्रत्यक्षपूर्वक स्व-परभेद का या कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक सम्यग्दर्शन कहा जाता है। किन्हीं को यह स्वभाव से ही होता है और किन्हीं को उपदेशपूर्वक। आज्ञा आदि की अपेक्षा यह दश प्रकार का तथा कर्मों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम की अपेक्षा तीन प्रकार का होता है। इनमें से पहले दो अत्यन्त निर्मल व निश्चल होते हैं, पर तीसरे में समल होने के कारण कदाचित् कुछ अतिचार लगने सम्भव हैं। राग के सद्भाव व अभाव की अपेक्षा भी इसके सराग व वीतराग दो भेद हैं। तहाँ सराग तो प्रशम, संवेग आदि गुणों के द्वारा अनुमानगम्य है और वीतराग केवल स्वानुभवगम्य है। सभी भेद नि:शंकित आदि आठ गुणों से भूषित होते हैं। सम्यक्त्व व ज्ञान में महान् अन्तर होता है जो सूक्ष्म विचार के बिना पकड़ में नहीं आता। जितनी भी विकल्पात्मक उपलब्धियाँ, श्रद्धा, अनुभव आदि हैं वे सब ज्ञानरूप हैं, सम्यग्दर्शन तो निर्विकल्प होने के कारण अन्तर में अभिप्राय या लब्धरूप अवस्थित मात्र रहा करता है। मोक्षमार्ग में इसका सर्वोच्च स्थान है, क्योंकि इसके बिना का आगम ज्ञान, चारित्र, व्रत, तप आदि सब वृथा हैं। सम्यग्दर्शन के लक्षणों में भी स्वात्म संवेदन सर्वप्रधान है, क्योंकि बिना इसके तत्त्वों की श्रद्धा आदि अकिंचित्कर है। ये सम्यग्दर्शन स्वत: या किसी के उपदेश से, या जातिस्मरण, जिनबिम्बदर्शन आदि के निमित्त से काल पाकर भव्य जीवों को उत्पन्न होता है। इसको प्राप्त करने की योग्यता केवल संज्ञी पर्याप्त जीवों में चारों ही गतियों में होती है। अनादि मिथ्यादृष्टि को सर्वप्रथम प्रथमोशम सम्यक्त्व होता है। वहाँ से नियम से गिरकर वह पुन: मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। पीछे कदाचित् वेदक-सम्यक्त्व को और तत्पूर्वक यथायोग्य गुणस्थानों में द्वितीयोपशम व क्षायिक हो जाता है। क्षायिक सम्यग्दर्शन अत्यन्त अचल व अप्रतिपाती है, तथा केवली के पादमूल में मनुष्यों को ही होना प्रारम्भ होता है। पीछे यदि मरण हो जाये तो चारों गतियों में पूर्ण होता है।
- सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश
- सामान्य सम्यग्दर्शन निर्देश
- * सम्यग्दर्शन सामान्य का लक्षण। - देखें सम्य - II.1।
- सम्यग्दर्शन के भेद।
- * सम्यक्तवमार्गणा के भेद। - देखें सम्यग्दर्शन - IV.1।
- * निसर्गज व अधिगमज के लक्षणादि। - देखें अधिगम ।
- * निश्चय व्यवहार व सराग वीतराग भेद। - देखें सम्य - II।
- * उपशमादि सम्यक्तव। - देखें सम्य - IV।
- आज्ञा आदि 10 भेदों के लक्षण।
- आज्ञा सम्यक्त्व की विशेषताएँ।
- सम्यग्दर्शन में 'सम्यक्' शब्द का महत्त्व।
- सम्यग्दर्शन में दर्शन शब्द का अर्थ।
- सत्तामात्र अवलोकन इष्ट नहीं है।
- कथंचित् सत्तामात्र अवलोकन इष्ट है।
- व्यवहार लक्षण में 'दर्शन' शब्द का अर्थ श्रद्धा है।
- उपर्युक्त दोनों अर्थों का समन्वय।
- * श्रद्धान व अन्धश्रद्धान सम्बन्धी। - देखें श्रद्धान ।
- * मार्गणाओं व पर्याप्त अपर्याप्त में सम्यग्दर्शन का स्वामित्व व तद्गत शंकाएँ। - देखें वह वह नाम ।
- * सम्यक्त्व के स्वामित्व में मार्गणा गुणस्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ। - देखें सत् ।
- * सम्यक्त्व सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्वरूप 8 प्ररूपणाएँ। - देखें वह वह नाम ।
- * सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम। - देखें मार्गणा ।
- * प्रथम सम्यग्दर्शन के प्रारम्भ सम्बन्धी। - देखें सम्य - IV/2।
- सम्यग्दर्शन के अपर नाम।
- सम्यक्त्व की पुन:पुन: प्राप्ति व विराधना सम्बन्धी नियम।
- * सम्यग्दर्शन में कर्मों के बन्ध, उदय, सत्त्व सम्बन्धी। - देखें वह वह नाम ।
- सम्यग्दर्शन के अंग व अतिचार आदि
- सम्यग्दर्शन के आठ अंगों के नाम।
- आठों अंगों की प्रधानता।
- * निश्चय व्यवहार अंगों की मुख्यता-गौणता। - देखें सम्य - III।
- सम्यग्दर्शन के अनेकों गुण।
- सम्यग्दर्शन के अतिचार।
- * शंका अतिचार व संशय मिथ्यात्व में अन्तर। - देखें संशय - 5।
- सम्यग्दर्शन के 25 दोष।
- कारणवश सम्यक्त्व में अतिचार लगने की सम्भावना।
- सम्यग्दर्शन की प्रत्यक्षता-परोक्षता
- छद्मस्थों का सम्यक्त्व भी सिद्धों के समान है।
- सम्यग्दर्शन में कथंचित् स्व-पर गम्यता।
- * सम्यग्दृष्टि को अपने सम्यक्त्व के लिए किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं। - देखें अनुभव - 4.3।
- वास्तव में सम्यग्दर्शन गुण नहीं बल्कि प्रशमादि गुण ही प्रत्यक्ष होते हैं।
- सम्यक्त्व वास्तव में प्रत्यक्षज्ञान गम्य है।
- सम्यक्त्व को सर्वथा केवलज्ञानगम्य कहना युक्त नहीं।
- सम्यक्त्व का ज्ञान व चारित्र के साथ भेद
- श्रद्धान आदि व आत्मानुभूति वस्तुत: सम्यक्त्व नहीं ज्ञान की पर्याय हैं।
- प्रशम आदि ज्ञानरूप नहीं बल्कि सम्यक्त्व के कार्य हैं।
- प्रशमादि कथंचित् सम्यग्ज्ञान के भी ज्ञापक हैं।
- स्वात्मानुभूति के ज्ञान व सम्यक्त्वरूप होने सम्बन्धी समन्वय।
- अनुभूति उपयोगरूप होती है और सम्यक्त्व लब्धरूप।
- * सम्यग्दर्शन में कथंचित् विकल्प व निर्विकल्पता। - देखें विकल्प - 3।
- सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में अन्तर।
- * सम्यग्दर्शन कथंचित् सम्यग्ज्ञान से पूर्ववर्ती है। - देखें ज्ञान - III.2.4।
- * सम्यग्दर्शन में नय निक्षेपादि का स्थान। - देखें न्याय - 1.3।
- * सम्यग्दर्शन के साथ ज्ञान व वैराग्य का अविनाभावीपना - देखें सम्यग्दृष्टि - 2।
- सम्यक्त्व के साथ चारित्र का कथंचित् भेद-अभेद।
- * सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में कथंचित् एकत्व अनेकत्व। - देखें मोक्षमार्ग - 2,3।
- मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन की प्रधानता
- सम्यग्दर्शन की प्रधानता का निर्देश।
- सम्यग्दर्शन ही सार, सुखनिधान, व मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है इत्यादि महिमा।
- * सम्यग्दृष्टि नीचकुल आदि में नहीं जन्मता। - देखें जन्म - 3.1।
- सम्यग्दर्शन की प्रधानता में हेतु।
- सम्यग्दर्शन के पश्चात् भव धारण की सीमा।
- सामान्य सम्यग्दर्शन निर्देश
- निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन
- निश्चय व्यवहार सम्यक्त्व लक्षण निर्देश
- सम्यग्दर्शन के दो भेद - निश्चय व्यवहार।
- व्यवहार सम्यग्दर्शन के लक्षण।
- देव शास्त्र व गुरु धर्म की श्रद्धा।
- आप्त आगम व तत्त्वों की श्रद्धा।
- तत्त्वार्थ या पदार्थों आदि का श्रद्धान।
- पदार्थों का विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान।
- यथावस्थित पदार्थों का श्रद्धान।
- तत्त्वों में हेय व उपादेय बुद्धि।
- तत्त्व रुचि।
- * प्रशमादि गुणों की अभिव्यक्ति। - देखें सम्य - II/4/1।
- निश्चय सम्यग्दर्शन के लक्षण
- उपरोक्त पदार्थों का शुद्धात्मा से भिन्न दर्शन।
- शुद्धात्मा की रुचि।
- अतीन्द्रिय सुख की रुचि।
- वीतराग सुखस्वभाव ही 'मैं हूँ' ऐसा निश्चय।
- शुद्धात्म की उपलब्धि आदि।
- * स्वसंवेदन ज्ञान निर्देश। - देखें अनुभव ।
- * सम्यग्दर्शन व आत्मा में कथंचित् एकत्व। - देखें मोक्षमार्ग - 2/6।
- * निश्चय व व्यवहार सम्यग्दर्शन ही वीतराग व सराग सम्यग्दर्शन है। - देखें सम्यग्दर्शन - I.4.2।
- लक्षण में तत्त्व व अर्थ दोनों शब्द क्यों।
- व्यवहार लक्षणों का समन्वय।
- निश्चय लक्षणों का समन्वय।
- * आत्मानुभूति को सम्यग्दर्शन कहने का कारण। - देखें सम्यग्दर्शन - I.4।
- व्यवहार व निश्चय लक्षणों का समन्वय।
- निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शनों की कथंचित् मुख्यता गौणता
- स्वभाव भान बिना सम्यक्त्व नहीं।
- * निश्चय नय के आश्रय से ही सम्यक्त्व होता है। - देखें नय - V.3.3।
- * आत्मा का जानना ही सर्व जिनशासन का जानना है। - देखें श्रुतकेवली - 2.6।
- * आत्मदर्शन रहित श्रद्धान सम्यग्दर्शन नहीं। - देखें अनुभव /3।
- आत्मानुभवी को ही आठों अंग होते हैं।
- आठों अंगों में निश्चय अंग ही प्रधान है।
- श्रद्धान आदि सब आत्मा के परिणाम है।
- निश्चय सम्यक्त्व की महिमा।
- श्रद्धानमात्र सम्यग्दर्शन नहीं है।
- * सम्यग्दृष्टि को अन्धश्रद्धान का विधि-निषेध। - देखें श्रद्धान /3।
- मिथ्यादृष्टि की श्रद्धा आदि यथार्थ नहीं।
- निश्चय व्यवहार सम्यक्त्व समन्वय
- नवतत्त्वों की श्रद्धा का अर्थ शुद्धात्मतत्त्व की श्रद्धा ही है।
- * व्यवहार व निश्चय सम्यक्त्व में केवल भाषा का भेद है। - देखें पद्धति - 2।
- व्यवहार सम्यक्त्व निश्चय का साधक है।
- तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यक्त्व कहने का कारण व प्रयोजन।
- सम्यक्त्व अंगों को सम्यक्त्व कहने का कारण।
- सराग वीतराग सम्यक्त्व निर्देश
- सराग-वीतरागरूप भेद व लक्षण।
- * वीतराग व सराग सम्यक्त्व की स्व-परगम्यता। - देखें सम्यग् - I.3।
- व्यवहार व निश्चय सम्यक्त्व के साथ इन दोनों की एकार्थता।
- सराग व वीतराग सम्यक्त्व का स्वामित्व।
- इन दोनों सम्यक्त्वों सम्बन्धी 25 दोषों के लक्षणों में विशेषता।
- दोनों में कथंचित् एकत्व।
- इन दोनों में तात्त्विक भेद मानना भूल है।
- सराग सम्यग्दृष्टि भी कथंचित् वीतराग है।
- सराग व वीतराग कहने का कारण प्रयोजन।
- निश्चय व्यवहार सम्यक्त्व लक्षण निर्देश
- सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के निमित्त
- सम्यक्त्व के अन्तरंग व बाह्य निमित्तों का निर्देश
- निसर्ग व अधिगम आदि।
- दर्शनमोह के उपशम आदि।
- लब्धि आदि।
- द्रव्य-क्षेत्र-काल भावरूप निमित्त।
- जाति स्मरण आदि।
- उपर्युक्त निमित्तों में अन्तरंग व बाह्य विभाग।
- कारणों में कथंचित् मुख्यता-गौणता व भेद-अभेद
- कारणों की कथंचित् मुख्यता।
- कारणों की कथंचित् गौणता।
- कारणों का परस्पर में अन्तर्भाव।
- कारणों में परस्पर अन्तर।
- कारणों का स्वामित्व व शंकाएँ
- चारों गतियों में यथासम्भव कारण।
- जिनबिम्बदर्शन सम्यक्त्व का कारण कैसे ?
- ऋषियों व तीर्थक्षेत्रों के दर्शनों का निर्देश क्यों नहीं।
- नरक में जातिस्मरण व वेदना सम्बन्धी।
- नरकों में धर्मश्रवण सम्बन्धी।
- मनुष्यों में जिनमहिमा दर्शन के अभाव सम्बन्धी।
- देवों में जिनबिंब दर्शन क्यों नहीं।
- आनत आदि में देविद्धिदर्शन क्यों नहीं।
- नवग्रैवेयकों में जिनमहिमा व देवद्धिदर्शन क्यों नहीं ?
- नवग्रैवेयकों में धर्मश्रवण क्यों नहीं।
- सम्यक्त्व के अन्तरंग व बाह्य निमित्तों का निर्देश
- उपशमादि सम्यग्दर्शन
- उपशमादि सामान्य निर्देश
- सम्यक्त्व मार्गणा के उपशमादि भेद।
- * मिथ्यात्वादि का सम्यक्त्व मार्गणा में ग्रहण क्यों - देखें मार्गणा /7।
- तीनों सम्यक्त्वों में कथंचित् एकत्व।
- * तीनों में कथंचित् अधिगमज व निसर्गजपना। - देखें सम्य - III/1/1।
- * गतियों व गुणस्थानों आदि में तीनों के स्वामित्व व शंकाएँ। - देखें वह वह नाम ।
- * तीनों के स्वामित्व में मार्गणास्थान व गुणस्थान आदि रूप 20 प्ररूपणाएँ। - देखें सत् ।
- * तीनों सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ। - देखें वह वह नाम ।
- * तीनों के स्वामिवों को कर्मों का बन्ध, उदय, सत्त्व। - देखें वह वह नाम ।
- * तीनों सम्यक्त्वों में यथासंभव मरण संबंधी। - देखें मरण - 3।
- * तीनों सम्यक्त्वों में यथासंभव जन्म संबंधी। - देखें जन्म - 3।
- * तीनों सम्यक्त्वों के पश्चात् भव धारण की सीमा। - देखें सम्य - I.5.4।
- * उपशम व वेदक की पुन: पुन: प्राप्ति की सीमा। - देखें सम्य - I.1.7।
- प्रथमोपशम सम्यक्त्व निर्देश
- उपशम सामान्य का लक्षण।
- * उपशम सम्यक्त्व की अत्यन्त निर्मलता। - देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.1।
- उपशम सम्यक्त्व का स्वामित्व।
- उपशम सम्यक्त्व के भेद व प्रथमोपशम का लक्षण।
- प्रथमोपशम का प्रतिष्ठापक।
- गति व जीव समासों की अपेक्षा।
- गुणस्थानों की अपेक्षा।
- उपयोग योग व विशुद्धि आदि की अपेक्षा।
- कर्मों की स्थितिबन्ध व सत्त्व की अपेक्षा।
- * प्रथमोपशम का निष्ठापक। - देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.4.3।
- जन्म के पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्ति योग्य सर्व लघु काल।
- अनादि व सादि मिथ्यादृष्टि में सम्यक्त्वप्राप्ति सम्बन्धी कुछ विशेषता।
- प्रथमोपशम से च्युति सम्बन्धी नियम।
- गिरकर किस गुणस्थान में जावे।
- * प्रथमोपशम से सासादन की प्राप्ति सम्बन्धी। - देखें सासादन ।
- * प्रथमोपशम में अनन्तानुबंधी की विसंयोजना का कथंचित् विधि-निषेध। - देखें उपशम - 2।
- पंच लब्धिपूर्वक होता है।
- * दर्शनमोह की उपशम विधि। - देखें उपशम - 2।
- * गति व गुणस्थानों का स्वामित्व, सत्, संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मों के बन्ध आदि, मरण व जन्म तथा संसार स्थिति व पुन: पुन: प्राप्ति की सीमा सम्बन्धी नियम। - देखें सम्यग्दर्शन - IV.1।
- * प्रथमोपशम का मन:पर्यय आदि के साथ विरोध। - देखें परिहार विशुद्धि ।
- प्रारम्भ करने के पश्चात् अवश्य प्राप्त करता है।
- द्वितीयोपशम सम्यक्त्व निर्देश
- द्वितीयोपशम का लक्षण।
- द्वितीयोपशम का स्वामित्व।
- * द्वितीयोपशम आरोहण क्रम। - देखें उपशम - 3।
- द्वितीयोपशम का अवरोहण क्रम।
- * द्वितीयोपशम से सासादन की प्राप्ति संबंधी। - देखें सासादन ।
- श्रेणी से नीचे आकर भी कुछ देर द्वितीयोपशम के साथ ही रहता है।
- * गति व गुणस्थानों का स्वामित्व, सत्, संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मों के बन्ध आदि, मरण व जन्म, संसारस्थिति व पुन: पुन: प्राप्ति की सीमा सम्बन्धी नियम। - देखें सम्यग्दर्शन - IV.1।
- वेदक सम्यक्त्व निर्देश
- वेदक सम्यक्त्व सामान्य का लक्षण।
- क्षयोपशम की अपेक्षा।
- वेदक की अपेक्षा।
- x दोनों लक्षणों का समन्वय। - देखें क्षयोपशम - 2।
- कृतकृत्यवेदक का लक्षण।
- वेदक सम्यक्त्व के बाह्य चिह्न।
- वेदक सम्यक्त्व की मलिनता का निर्देश।
- वेदक सम्यक्त्व का स्वामित्व।
- गति व पर्याप्ति की अपेक्षा।
- गुणस्थानों की अपेक्षा।
- उपशम सम्यग्दृष्टि व सादि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा।
- अनादि मिथ्यादृष्टि को सीधा प्राप्त नहीं होता।
- * वेदक सम्यक्त्व आरोहण विधि। - देखें क्षयोपशम - 3।
- सम्यक्त्व से च्युत होने वाले बहुत कम हैं।
- च्युत होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त से पहले सम्यक्त्व पुन: प्राप्त नहीं होता।
- ऊपर के गुणस्थानों में इसका अभाव क्यों?
- कृतकृत्यवेदक सम्बन्धी कुछ नियम।
- * गतियों व गुणस्थानों में इसका स्वामित्व, सत्, संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मों के बन्ध आदि, मरण व जन्म, तथा संसारस्थिति व पुन: पुन: प्राप्ति की सीमा सम्बन्धी नियम। - देखें सम्यग्दर्शन - IV.1।
- वेदक सम्यक्त्व सामान्य का लक्षण।
- क्षायिक सम्यक्त्व निर्देश
- क्षायिक सम्यग्दर्शन का लक्षण।
- * क्षायिक सम्यक्त्व की निर्मलता। - देखें सम्यग्दर्शन - IV.5.1।
- क्षायिक सम्यक्त्व का स्वामित्व।
- गति व पर्याप्ति की अपेक्षा।
- प्रस्थापक व निष्ठापक की अपेक्षा।
- गुणस्थानों की अपेक्षा।
- तीर्थंकर आदि के सद्भाव युक्त क्षेत्र व काल में ही सम्भव है।
- * तीर्थंकर सत्कर्मिक को इसकी प्रतिष्ठापना के लिए केवली के पादमूल दरकार नहीं। - देखें तीर्थंकर - 3.13।
- * इसकी प्रतिष्ठापना अढ़ाई द्वीप से बाहर संभव नहीं। तथा तद्गत शंकाएँ। - देखें तिर्यंच - 2.11।
- वेदक सम्यक्त्व पूर्वक ही होता है।
- * दर्शनमोह क्षपण विधि। - देखें क्षय - 2।
- क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत होते हैं पर अत्यंत अल्प।
- * तीनों वेदों में क्षायिक सम्यक्त्व का कथंचित् विधिनिषेध। - देखें वेद - 6।
- * एकेन्द्रिय या निगोद से आकर सीधे क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति सम्बन्धी। - देखें जन्म - 5।
- * गतियों व गुणस्थानों में इसका स्वामित्व, सत्, संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मों के बन्ध आदि, मरण व जन्म व संसारस्थिति सम्बन्धी नियम। - देखें सम्यग्दर्शन - IV.1।
- उपशमादि सामान्य निर्देश
I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश
1. सामान्य सम्यग्दर्शन निर्देश
1. सम्यग्दर्शन के भेद
स.सि./1/7/28/4 विधानं सामान्यादेकं सम्यग्दर्शनम् । द्वितयं निसर्गजाधिगमजभेदात् । त्रितयं औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकभेदात् । एवं संख्येया विकल्पत: शब्दत:। असंख्येया अनन्ताश्चभवन्ति श्रद्धातृश्रद्धातब्यभेदात् (अध्यवसायभेदात् - रा.वा.)। =भेद की अपेक्षा सम्यग्दर्शन सामान्य से एक है। निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का है (त.सू./1/3)। औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है। (और भी देखें सम्यग्दर्शन - IV.1)। शब्दों की अपेक्षा संख्यात प्रकार का है, तथा श्रद्धान करने वाले की अपेक्षा असंख्यात प्रकार का है, और श्रद्धान करने योग्य पदार्थों व अध्यवसायों की अपेक्षा अनन्त प्रकार का है। (रा.वा./1/7/14/40/28); (द.पा./टी./12/12/12)।
रा.वा./3/36/2/201/12 दर्शनार्या दशधा - आज्ञामार्गोपदेशसूत्रबीजसंक्षेपविस्तारार्थावगाढपरमावगाढरुचिभेदात् । =आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ और परमावगाढ रुचि के भेद से दर्शनार्य दश प्रकार हैं। (आ.अनु./11); (अन.ध./2/62/185)
2. आज्ञा आदि 10 भेदों के लक्षण
रा.वा./3/36/2/201/13 तत्र भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीताज्ञामात्रनिमित्तश्रद्धाना आज्ञारुचय:। नि:संगमोक्षमार्गश्रवणमात्रजनितरुचयो मार्गरुचय:। तीर्थंकरबलदेवादिशुभचरितोपदेशहेतुकश्रद्धाना उपदेशरुचय:। प्रव्रज्यामर्यादाप्ररूपणाचारसूत्रश्रवणमात्रसमुद्भूतसम्यग्दर्शना: सूत्ररुचय:। बीजपदग्रहणपूर्वकसूक्ष्मार्थतत्त्वार्थश्रद्धाना बीजरुचय:। जीवादिपदार्थसमासंबोधनसमुद्भूतश्रद्धाना: संक्षेपरुचय:। अङ्गपूर्वविषयजीवाद्यर्थविस्तारप्रमाणनयादिनिरूपणोपलब्धश्रद्धाना विस्ताररुचय:। वचनविस्तारविरहितार्थग्रहणजनितप्रसादा अर्थरुचय:। आचारादिद्वादशाङ्गाभिनिविष्टश्रद्धाना अवगाढरुचय:। परमावधिकेवलज्ञानदर्शनप्रकाशितजीवद्यर्थविषयात्मप्रसादा: परमावगाढरुचय:। =भगवत् अर्हंत सर्वज्ञ की आज्ञामात्र को मानकर सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए जीव आज्ञारुचि हैं। अपरिग्रही मोक्षमार्ग के श्रवणमात्र से सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए जीव मार्गरुचि हैं। तीर्थंकर बलदेव आदि शुभचारित्र के उपदेश को सुनकर सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले उपदेशरुचि हैं। दीक्षा आदि के निरूपक आचारांगादिसूत्रों के सुननेमात्र से जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है, वे सूत्ररुचि हैं। बीजपदों के ग्रहणपूर्वक सूक्ष्मार्थ तत्त्वार्थ श्रद्धान को प्राप्त करने वाले बीजरुचि हैं। जीवादि पदार्थों के संक्षेप कथन से ही सम्यग्दर्शन को प्राप्त होने वाले संक्षेपरुचि हैं। अंगपूर्व के विषय, प्रमाण नय आदि के विस्तार कथन से जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है वे विस्ताररुचि हैं। वचन विस्तार के बिना केवल अर्थग्रहण से जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है वे अर्थरुचि हैं। आचारांग द्वादशांग में जिनका श्रद्धान अतिदृढ़ है वे अवगाढरुचि हैं। परमावधि या केवलज्ञान दर्शन से प्रकाशित जीवादि पदार्थ विषयक प्रकाश से जिनकी आत्मा विशुद्ध है वे परमावगाढरुचि हैं।
आ.अनु./12-14 आज्ञासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचितं वीतरागाज्ञयैव, त्यक्तग्रन्थप्रपञ्चं शिवममृतपथं श्रद्दधन्मोहशान्ते:। मार्गश्रद्धानमाहु: पुरुषवरपुराणोपदेशोपजाता, या संज्ञानागमाब्धिप्रसृतिभिरुपदेशादिरादेशि दृष्टि:।12। आकर्ण्याचारसूत्रं मुनिचरणविधे: सूचनं श्रद्दधान:, सूक्तासौ सूत्रदृष्टिर्दुरधिजमगतेरर्थसार्थस्य बीजै:। कैश्चिज्जातोपलब्धेरसमशमवशाद्बीजदृष्टि: पदार्थान्, संक्षेपेणैव बुद्धवा रुचिमुपगतवान् साधु संक्षेपदृष्टि:।13। य: श्रुत्वा द्वादशाङ्गी कृतरुचिरथ तं विद्धि विस्तारदृष्टिं, संजातार्थात्कुतश्चित्प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टि:। दृष्टि: साङ्गाङ्गबाह्यप्रवचनमवगाह्योत्थिता यावगाढा, कैवल्यालोकितार्थे रुचिरिह परमावादिगाढेति रूढा।14। =दर्शनमोह के उपशान्त होने से ग्रन्थश्रवण के बिना केवल वीतराग भगवान् की आज्ञा से ही जो तत्त्वश्रद्धान उत्पन्न होता है वह आज्ञासम्यक्त्व है। दर्शनमोह का उपशम होने से ग्रन्थश्रवण के बिना जो कल्याणकारी मोक्षमार्ग का श्रद्धान होता है उसे मार्ग सम्यग्दर्शन कहते हैं। तिरसठ शलाकापुरुषों के पुराण (वृत्तान्त) के उपदेश से जो तत्त्वश्रद्धान उत्पन्न होता है उसे उपदेश सम्यग्दर्शन कहा है।12। मुनि के चारित्रानुष्ठान को सूचित करने वाले आचारसूत्र को सुनकर जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है उसे सूत्रसम्यग्दर्शन कहा गया है। जिन जीवादिपदार्थों के समूह का अथवा गणितादि विषयों का ज्ञान दुर्लभ है उनका किन्हीं बीजपदों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने वाले भव्यजीव के जो दर्शनमोहनीय के असाधारण उपशमवश तत्त्वश्रद्धान होता है उसे बीजसम्यग्दर्शन कहते हैं। जो भव्यजीव पदार्थों के स्वरूप को संक्षेप से ही जान करके तत्त्वश्रद्धान को प्राप्त हुआ है उसके उस सम्यग्दर्शन को संक्षेप सम्यग्दर्शन कहा जाता है।13। जो भव्यजीव 12 अंगों को सुनकर तत्त्वश्रद्धानी हो जाता है उसे विस्तार सम्यग्दर्शन से युक्त जानो। अंग बाह्य आगमों के पढ़ने के बिना भी उनमें प्रतिपादित किसी पदार्थ के निमित्त से जो अर्थश्रद्धान होता है वह अर्थसम्यग्दर्शन कहलाता है। अंगों के साथ अंगबाह्य श्रुत का अवगाहन करके जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे अवगाढ़सम्यग्दर्शन कहते हैं। केवलज्ञान के द्वारा देखे गये पदार्थों के विषय में रुचि होती है वह यहाँ परमावगाढ सम्यग्दर्शन इस नाम से प्रसिद्ध है।14। (द.पा./टी./12/12/20)।
3. आज्ञा सम्यग्दर्शन की विशेषताएँ
गो.जी./जी.प्र./27/56/12 य: अर्हदाद्युपदिष्टं प्रवचनं आप्तागमपदार्थत्रयं श्रद्धाति रोचते, तेषु असद्भाव अतत्त्वमपि स्वस्य विशेषज्ञानशून्यत्वेन केवलगुरुनियोगात् अर्हदाद्याज्ञात: श्रद्धाति सोऽपि सम्यग्दृष्टिरेव भवति तदाज्ञाया अनतिक्रमात् । =जो व्यक्ति अर्हंत आदि के उपदिष्ट प्रवचन की या आप्त आगम व पदार्थ इन तीनों की श्रद्धा करता है या विशेष ज्ञान शून्य होने के कारण केवल गुरुनियोग से या अर्हंत की आज्ञा से अतत्त्वों का भी श्रद्धान कर लेता है वह भी सम्यग्दृष्टि है, क्योंकि उसने उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया है। (विशेष देखें श्रद्धान /3)
अन.ध./2/63/186 देवोऽर्हन्नेव तस्यैव वचस्तथ्यं शिवप्रद:। धर्मस्तदुक्त एवेति निर्बन्ध साधयेद् दृशम् ।63। =एक अर्हंत ही देव है और उसका वचन ही सत्य है। उसका कहा गया धर्म ही मोक्षप्रद है। इस प्रकार का अभिनिवेश ही आज्ञासम्यक्त्व को सिद्ध करता है।63।
ध.1/1,1,144/गा.212/395 छप्पंचणवविहाणं अत्थाणं जिणवरोवइट्ठाणं। आणाए अहिगमेण व सद्दहणं होइ सम्मत्तं।212। जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, और नव पदार्थों की आज्ञा अथवा अधिगम से श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहते हैं।212। (ध.4/1,5,1/गा.6/316)
4. सम्यग्दर्शन में 'सम्यक्' शब्द का महत्त्व
स.सि./1/1/5/36 सम्यगित्यव्युत्पन्न: शब्दो व्युत्पन्नो वा। अञ्चते: क्वौ समञ्चतीति सम्यगिति। अस्यार्थ: प्रशंसा। स प्रत्येकं परिसमाप्यते। सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमिति। भावानां याथात्म्यप्रतिपत्तिविषयश्रद्धानसंग्रहार्थं दर्शनस्य सम्यग्विशेषणम् । ='सम्यक्' शब्द अव्युत्पन्न अर्थात् रौढिक और व्युत्पन्न अर्थात् व्याकरण सिद्ध है। जब यह व्याकरण से सिद्ध किया जाता है तब 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'अञ्च्' धातु से क्विप् प्रत्यय करने पर 'सम्यक्' शब्द बनता है। संस्कृत में इसकी व्युत्पत्ति समञ्चति इति सम्यक् इस प्रकार होती है। प्रकृत में इसका अर्थ प्रशंसा है। सूत्र में आये हुए इस शब्द को दर्शन, ज्ञान और चारित्र इनमें से प्रत्येक शब्द के साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र। पदार्थों के यथार्थ ज्ञान मूल के श्रद्धान का संग्रह करने के लिए दर्शन के पहले सम्यक् विशेषण दिया है। (रा.वा./1/1/35/10/6)
पं.ध./उ./417 सम्यङ्मिथ्याविशेषाभ्यां विना श्रद्धादिमात्रका:। सपक्षवदि्पक्षेऽपि वृत्तित्वाद्व्यभिचारिण:।417। =सम्यक् और मिथ्या विशेषणों के बिना केवल श्रद्धा आदिकी सपक्ष के समान विपक्ष में भी वृत्ति रहने के कारण वे व्यभिचार दोष से युक्त हैं।
5. सम्यग्दर्शन में दर्शन शब्द का अर्थ
1. सत्तामात्र अवलोकन इष्ट नहीं है
द्र.सं./टी./43/186/9 नेदमेव तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शनं वक्तव्यम् । कस्मादिति चेत् - तत्र श्रद्धानं विकल्परूपमिदं तु निर्विकल्पं मत:। =इस दर्शन को अर्थात् सत्तावलोकनमात्र दर्शनोपयोग को 'तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है' इस सूत्र में जो तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन कहा गया है, सो न कहना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि उपरोक्त श्रद्धान तो विकल्परूप है और यह (दर्शनोपयोग) निर्विकल्प है। (विशेष देखें सम्यग्दर्शन - II)।
2. कथंचित् सत्तामात्रावलोकन भी इष्ट है
रा.वा./2/7/9/110/6 मिथ्यादर्शने अदर्शनस्यावरोधो भवति। निद्रानिद्रादीमामपि दर्शनसामान्यावरणत्वात्तत्रैवान्तर्भाव:। ननु च तत्त्वार्थाश्रद्धानं मिथ्यादर्शनमित्युक्तम्; सत्यमुक्तम्; सामान्यनिर्देशे विशेषान्तर्भावात्, सोऽप्येको विशेष:। अयमपरो विशेष: - अदर्शनमप्रतिपत्तिर्मिथ्यादर्शनमिति। =मिथ्यादर्शन में दर्शनावरण के उदय से होने वाले अदर्शन का अन्तर्भाव हो जाता है। और दर्शनसामान्य को आवरण करने वाले होने के कारण (देखें दर्शन - 4.6), निद्रानिद्रा आदि का भी यहाँ ही अन्तर्भाव होता है। प्रश्न - तत्त्वार्थ के अश्रद्धान को मिथ्यादर्शन कहा गया है? उत्तर - वह ठीक ही कहा गया है, क्योंकि, सामान्य निर्देश में विशेष का अन्तर्भाव हो जाता है। तथा दूसरी बात यह है कि अदर्शन नाम अप्रतिपत्ति का है और वही मिथ्यादर्शन है। [अर्थात् स्वपर स्वरूप का यथार्थ अवलोकन न होना ही मिथ्यादर्शन है।]
देखें दर्शन - 1.3 अन्तरंग चित्प्रकाश का नाम अथवा जानने के प्रति आत्मप्रयत्न का नाम दर्शनोपयोग है। अथवा स्वरूप संवेदन का नाम दर्शनोपयोग है।
देखें मोक्षमार्ग - 3.6 दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये तीनों ही दर्शन व ज्ञानरूप सामान्य व विशेष परिणति है।
देखें आगे इसी शीर्षक का समन्वय [लौकिक जीवों को दर्शनोपयोग से बहिर्विषयों का सत्तावलोकन होता है और सम्यग्दृष्टियों को उसी दर्शनोपयोग से आत्मा का सत्तावलोकन होता है। दर्शन, श्रद्धा, रुचि ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं।]
3. व्यवहार लक्षण में दर्शन का अर्थ श्रद्धा इष्ट है
स.सि./1/2/9/3 दृष्टेरालोकार्थत्वात् श्रद्धार्थगतिर्नोपपद्यते। धातूनामनेकार्थत्वाददोषा। प्रसिद्धार्थत्याग: कुत इति चेन्मोक्षमार्गप्रकरणात् । तत्त्वार्थश्रद्धानं ह्यात्मपरिणामो मोक्षसाधनं युज्यते, भव्यजीवविषयत्वात् । आलोकस्तु चक्षुरादिनिमित्त: सर्वसंसारिजीवसाधारणत्वान्न मोक्षमार्गो युक्त:। =प्रश्न - दर्शन शब्द 'दृशि' धातु से बना है जिसका अर्थ आलोक है अत: इससे श्रद्धानरूप अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता ? उत्तर - धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं, अत: 'दृशि' धातु का श्रद्धानरूप अर्थ करने में कोई दोष नहीं है। प्रश्न - यहाँ (अर्थात् 'तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग् है' - देखें सम्यग्दर्शन - II/1, इस प्रकरण में) दृशि धातु का प्रसिद्ध अर्थ क्यों छोड़ दिया ? उत्तर - मोक्षमार्ग का प्रकरण होने से। - तत्त्वार्थों का श्रद्धानरूप जो आत्मा का परिणाम होता है वह तो मोक्ष का साधन बन जाता है, क्योंकि वह भव्यों के ही पाया जाता है, किन्तु आलोक, चक्षु आदि निमित्त से होता है जो साधारणरूप से सब संसारी जीवों के पाया जाता है, अत: उसे मोक्षमार्ग मानना युक्त नहीं। (रा.वा./1/2/2-4/19/10); (श्लो.वा./2/1/2/2/4)
नि.सा./ता.वृ./3 दर्शनमपि...जीवास्तिकायसमुजनितपरश्रद्धानमेव भवति।
नि.सा./ता.वृ./13 कारणदृष्टि:...सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावस्य कारणसमयसारस्वरूपस्य... स्वरूपश्रद्धानमात्रमेव। =1. शुद्ध जीवास्तिकाय से उत्पन्न होनेवाला जो परम श्रद्धान वही दर्शन है। 2. कारण दृष्टि परमपारिणामिकभावरूप जिसका स्वभाव है, ऐसे कारणसमयसारस्वरूप आत्मा के यथार्थ स्वरूपश्रद्धानमात्र है।
प्र.सा./ता.वृ./82/104/19 तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणेन दर्शनेन शुद्धा दर्शनशुद्धा:।
प्र.सा./ता.वृ./240/333/15 दर्शनशब्देन निजशुद्धात्मश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं ग्राह्यम् । =1. तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणरूप दर्शन से शुद्ध हुआ दर्शनशुद्ध कहलाता है। 2. दर्शन शब्द से निजशुद्धात्म श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन ग्रहण करना चाहिए।
4. उपरोक्त दोनों अर्थों का समन्वय
चा.पा./मू./18 सम्मद्दंसण पस्सदि जाणदि णाणेण दव्वपज्जाया। सम्मेण य सद्दहदि परिहरदि चरित्तजे दोसे।18। =यह आत्मा सम्यग्दर्शन से सत्तामात्र वस्तु को देखता है और सम्यग्ज्ञान से द्रव्य व पर्याय को जानता है। सम्यक्त्व के द्वारा द्रव्य पर्यायस्वरूप वस्तु का श्रद्धान करता हुआ चारित्रजनित दोषों को दूर करता है।
देखें मोहनीय - 2.1.में ध./6 दर्शन, रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा और स्पर्शन ये सब एकार्थवाचक नाम हैं। (देखें मिश्र - 1.1 में ध./1/166) - 2. आप्त या आत्मा में, आगम और पदार्थों में रुचि या श्रद्धा को दर्शन कहते हैं।
ध.1/1,1,133/384/4 अस्वसंविद्रूपो न कदाचिदप्यात्मोपलभ्यत इति चेन्न, तस्य बहिरङ्गोपयोगावस्थायामन्तरङ्गोपयोगानुलम्भात् । =प्रश्न - अपने आपके संवेदन से रहित आत्मा की तो कभी भी उपलब्धि नहीं होती ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, बहिरंगपदार्थों की उपयोगरूप अवस्था में अन्तरंग पदार्थ का उपयोग नहीं पाया जाता है।
प.प्र./टी./2/13/127/6 तत्त्वार्थश्रद्धानरुचिरूपं सम्यग्दर्शनं मोक्षमार्गो भवति नास्ति दोष:, पश्यति निर्विकल्परूपेणावलोकयति इत्येवं यदुक्तं तत्सत्तावलोकदर्शनं कथं मोक्षमार्गो भवति, यदि भवति चेत्तर्हि तत्सत्तावलोकदर्शनमभव्यानामपि विद्यते, तेषामपि मोक्षो भवति स चागमविरोध इति। परिहारमाह - तेषां निर्विकल्पसत्तावलोकदर्शनं बहिर्विषये विद्यते न चाभ्यन्तरशुद्धात्मतत्त्वविषये।
प.प्र./टी./2/34/154/15 निजात्मा तस्य दर्शनमवलोकनं दर्शनमिति व्याख्यातं भवद्भिरिदं तु सत्तावलोकदर्शनं मिथ्यादृष्टीनामप्यस्ति तेषामपि मोक्षो भवतु। परिहारमाह। चक्षुरचक्षुरवधिकेवलभेदेन चतुर्धा दर्शनम् । अत्र चतुष्टयमध्ये मानसमचक्षुर्दर्शनमात्मग्राहकं भवति, तच्च मिथ्यात्वादिसप्तप्रकृत्युपशमक्षयोपक्षयजनिततत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यक्त्वाभावात् शुद्धात्मतत्त्वमेवोपादेयमिति श्रद्धानाभावे सति तेषां मिथ्यादृष्टीनां न भवत्येवेति भावार्थ:। =1. प्रश्न - 'तत्त्वार्थ श्रद्धा या तत्त्वार्थरुचिरूप सम्यग्दर्शन (देखें सम्यग्दर्शन - II/1) मोक्षमार्ग होता है' ऐसा कहने में दोष नहीं; परन्तु 'जो देखता है या निर्विकल्परूप से अवलोकन करता है' ऐसा सत्तावलोकनरूप दर्शन जो आपने कहा है, वह मोक्षमार्ग कैसे हो सकता है। यदि 'हो तो है' ऐसा मानो तो वह सत्तावलोकनरूप दर्शन तो अभव्यों के भी होता है, उनको भी मोक्ष होना चाहिए और इस प्रकार आगम के साथ विरोध आता है? उत्तर - उनके निर्विकल्प सत्तावलोकरूप दर्शन बाह्य विषयों में ही होता है, अत्यन्त शुद्धात्म तत्त्व के विषय में नहीं। 2. प्रश्न - निजात्मा के दर्शन या अवलोकन को आपने दर्शन कहा है, और वह सत्तावलोकरूप दर्शन मिथ्यादृष्टियों के भी होता है। उनको भी मोक्ष होना चाहिए ? उत्तर - चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल के भेद से दर्शन चार प्रकार का है। इन चारों में से यहाँ मानस अचक्षु दर्शन आत्मग्राहक होता है। और वह मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय और क्षयोपशम जनित तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण वाले सम्यग्दर्शन का अभाव होने के कारण, 'शुद्धात्मतत्त्व ही उपादेय है' ऐसे श्रद्धान का अभाव है। इसलिए वह मोक्ष उन मिथ्यादृष्टियों के नहीं होता है।
देखें सम्यग्दर्शन - II/3 (सच्चा तत्त्वार्थ श्रद्धान वास्तव में आत्मानुभव सापेक्ष ही होता है।)
6. सम्यग्दर्शन के अपर नाम
म.पु./9/123 श्रद्धारुचिस्पर्शप्रत्ययाश्चेति पर्यया:।123। =श्रद्धा, रुचि, स्पर्श और प्रत्यय या प्रतीति ये सम्यग्दर्शन के पर्याय हैं। (पं.ध./उ./411)।
7. सम्यक्त्व की विराधना व पुन: पुन: प्राप्ति सम्बन्धी नियम
देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.5 - [मनुष्यों में जन्म लेने के आठ वर्ष पश्चात् देव नारकियों में अन्तर्मुहूर्त पश्चात् और तिर्यंचों को दिवस पृथक्त्व के पश्चात् प्रथम सम्यक्त्व होना सम्भव है, इससे पहला नहीं।]
देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.7 - [उपशम सम्यक्त्व अन्तर्मुहूर्त काल पश्चात् अवश्य छूट जाता है।]
देखें सम्यग्दर्शन - IV.4.7 [वेदकसम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व से च्युत होते हैं पर अत्यन्त अल्प।]
देखें सम्यग्दर्शन - IV.5.1 [क्षायिक सम्यग्दर्शन अप्रतिपाती है।]
देखें सम्यग्दर्शन - IV.4.8 [एक बार गिरने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल से पहले सम्यक्त्व पुन: प्राप्त नहीं होता।]
देखें आयु - 6.8 [वर्द्धमान देवायु वाले का सम्यक्त्व विराधित नहीं होता।]
देखें तीर्थंकर - 3.8 [तीर्थंकर प्रकृति सत्कर्मिक का सम्यक्त्व विराधित नहीं होता।]
देखें लेश्या - 5.1 [शुभ लेश्याओं में सम्यक्त्व विराधित नहीं होता है।]
देखें संयम - 2.10 [औपशमिक व वेदक सम्यक्त्व व अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना पल्य के असंख्यातवें भाग बार विराधित हो सकते हैं, इससे आगे वे नियम से मुक्त होते हैं।]
देखें श्रेणी - 3 [उपसमश्रेणी के साथ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व अधिक से अधिक चार बार विराधित होता है।]
देखें सम्यग्दर्शन - I.5.4 [क्षायिक सम्यग्दृष्टि जघन्य से 3 भव और उत्कर्ष से 7-8 भवों में अवश्य मुक्ति प्राप्त करता है।]
2. सम्यग्दर्शन के अंग अतिचार आदि
1. सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का नाम
मू.आ./201 णिस्संकिद णिक्कंखिद णिव्विदगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उवगूहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अट्ठ।201। =नि:शंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ सम्यक्त्व के अंग या गुण जानने चाहिए।201। (स.सि./6/24/338/6); (रा.वा./6/24/1/529/6); (वसु.श्रा./48); (पं.ध./उ./479-480)
2. आठों अंगों की प्रधानता
र.क.श्रा./21 नाङ्गहीनमलं छेत्तुं दर्शनं जन्मसंततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनां।21। =जैसे एक दो अक्षररहित अशुद्ध मन्त्र विष की वेदना को नष्ट नहीं करता है, वैसे ही अंगरहित सम्यग्दर्शन भी संसार की स्थिति छेदने को समर्थ नहीं है। (चा.सा./6/1)।
का.अ./मू./425 णिस्संका-पहुडि गुणा जह धम्मे तह य देव गुरु तच्चे। जाणेहि जिणमयादो सम्मत्तविसोहया एदे।25। =ये नि:शंकितादि आठ गुण जैसे धर्म के विषय में कहे वैसे ही देव गुरु और तत्त्व के विषय में भी जैनागम से जानने चाहिए। ये आठों अंग सम्यग्दर्शन को विशुद्ध करते हैं। (वसु.श्रा./50)।
3. सम्यग्दर्शन के अनेकों गुण
(स.सा./प्रक्षेपक गा./177) - संवेओ णिव्वेओ णिंदा गरुहा य उवसमो भत्ती। वच्छल्लं अणुकंपा गुणट्ठ सम्मत्तजुत्तस्स। =संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, अनुकंपा, वात्सल्य ये आठ गुण सम्यक्त्व युक्त जीव के होते हैं। (चा.सा./6/2); (वसु.श्रा./49); (ध./उ./465 में उद्धृत)।
ज्ञा./6/7 में उद्धत श्लो.सं.4 एकं प्रशमसंवेगदयास्तिक्यादिलक्षणम् । आत्मन: शुद्धिमात्रं स्यादितरच्च समन्तत:।4। =एक (सराग) सम्यक्त्व तो प्रशम संवेग अनुकम्पा व आस्तिक्य से चिह्नित है और दूसरा (वीतराग) समस्त प्रकार से आत्मा की शुद्धिमात्र है। (पं.ध./उ./424-425); (और भी देखें सम्यग्दर्शन - II/4/1)।
म.पु./21/97 संवेग: प्रशमस्थैर्यम् असंमूढत्वमस्मय:। आस्तिक्यमनुकम्पेति ज्ञेया: सम्यक्त्वभावना:।97। =संवेग, प्रशम, स्थिरता, अमूढ़ता, गर्व न करना, आस्तिक्य और अनुकम्पा ये सात सम्यग्दर्शन की भावनाएँ जानने के योग्य हैं।97। (म.पु./9/123)।
का.अ./मू.315 उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो। साहम्मिय अणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो।315। =जो उत्तम गुणों को ग्रहण करने में तत्पर रहता है, उत्तम साधुओं की विनय करता है तथा साधर्मी जनों से अनुराग करता है वह उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि है।
देखें सम्यग्दृष्टि - 2/ (सम्यक्त्व के साथ ज्ञान, वैराग्य व चारित्र अवश्यम्भावी हैं)।
देखें सम्यग्दर्शन - II/2 (आत्मानुभव सम्यग्दर्शन का प्रधान चिह्न है)।
देखें सम्यग्दर्शन - II/1/1 (देव गुरु शास्त्र धर्म आदि के प्रति भक्ति तत्त्वों के प्रति श्रद्धा सम्यग्दर्शन के लक्षण हैं)।
देखें सम्यग्दृष्टि - 5 (सम्यग्दृष्टि में अपने दोषों के प्रति निन्दन गर्हण अवश्य होता है)।
4. सम्यग्दर्शन के अतिचार
त.सू./7/23 शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवा: सम्यग्दृष्टेरतिचारा:।23। =शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव ये सम्यग्दृष्टि के 5 अतिचार हैं। (भ.आ./वि./16/62/14; तथा 487/707/1)।
5. सम्यग्दर्शन के 25 दोष
ज्ञा./6/8 में उद्धृत - मूढ़त्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषा: पञ्चविंशति:। =तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन और शंकादि आठ दोष अर्थात् आठ अंगों से उलटे आठ दोष ये 25 दोष सम्यग्दर्शन के कहे गये हैं। (द्र.सं./टी.41/166/10)।
6. कारणवश सम्यक्त्व में अतिचार लगने की संभावना सम्बन्धी
स.सि./7/22/364/8 तत्सम्यग्दर्शनं किं सापवादं निरपवादमिति। उच्यते - कस्यचिन्मोहनीयावस्थाविशेषात्कदाचिदिमे भवन्त्यपवादा:। =प्रश्न - सम्यग्दर्शन सापवाद होता है या निरपवाद ? उत्तर - किसी जीव के मोहनीय की अवस्था विशेष के कारण ये (अगले सूत्र में बताये गये शंका कांक्षा आदि) अपवाद या अतिचार होते हैं।
देखें सम्यग्दर्शन - IV.4 (सम्यक्प्रकृति के उदय से चलमल आदि दोष होते हैं पर इससे सम्यक्त्व में क्षति नहीं होती)।
3. सम्यग्दर्शन की प्रत्यक्षता व परोक्षता
1. छद्मस्थों का सम्यक्त्व भी सिद्धों के समान है
देखें देव - I.1.5 (आचार्य, उपाध्याय व साधु इन तीनों के रत्नत्रय भी सिद्धों के समान हैं)।
देखें सम्यग्दर्शन - IV.1 (उपशम, क्षायिक व क्षायोपशमिक इन तीनों सम्यक्त्वों में यथार्थ श्रद्धान के प्रति कोई भेद नहीं है)।
पं.का./ता.वृ./160/231/12 वीतरागसर्वज्ञप्रणीतजीवादिपदार्थविषये सम्यक् श्रद्धानं ज्ञानं चेत्युभयं गृहस्थतपोधनयो: समानं चारित्रं...। =वीतराग सर्वज्ञप्रणीत जीवादि पदार्थों के विषय में सम्यक् श्रद्धान व ज्ञान ये दोनों गृहस्थ व तपोधन साधुओं के समान ही होते हैं। परन्तु इनके चारित्र में भेद है।
मो.मा.प्र./9/475/11 जैसे छद्मस्थ के श्रुतज्ञान के अनुसार प्रतीति पाइए है...जैसा सप्ततत्त्वनि का श्रद्धान छद्मस्थ के भया था, तैसा ही केवली सिद्ध भगवान् के पाइए है। तातै ज्ञानादिक की हीनता अधिकता होतैं भी तिर्यंचादिक वा केवली सिद्ध भगवान्कैं सम्यक्त्व गुण समान है।
2. सम्यग्दर्शन में कथंचित् स्व-परगम्यता
श्लो.वा./2/1/2/श्लो.12/29 सरागे वीतरागे च तस्य संभवतोऽञ्जसा। प्रशमादेरभिव्यक्ति: शुद्धिमात्रा च चेतस:।12।
श्लो.वा.2/1/2/12/पृष्ठ/पंक्ति - एतानि प्रत्येकं समुदितानि वा स्वस्मिन् स्वसंविदितानि, परत्र कायवाग्व्यवहारविशेषलिङ्गानुमितानि सरागसम्यग्दर्शनं ज्ञापयन्ति, तदभावे मिथ्यादृष्टिस्वसंभवित्वात् संभवे वा मिथ्यात्वायोगात् । (34/17)। मिथ्यादृशामपि केषांचित्क्रोधाद्यनुद्रेकदर्शनात् प्रशमोऽनैकान्तिक इति चेन्न, तेषामपि सर्वथैकान्तेऽनन्तानुबन्धिनो मानस्योदयात् । स्वात्मनि चानेकान्तात्मनि द्वेषोदयस्यावश्यंभावात् पृथिवीकायिकादिषु प्राणिषु हननदर्शनात् । (35/5)। नन्वेवं यथा सरागेषु तत्त्वार्थश्रद्धानं प्रशमादिभिरनुमीयते यथा वीतरागेष्वपि तत्तै: किं नानुमीयते। इति चेन्न, तस्य स्वस्मिन्नात्मविशुद्धिमात्रत्वात् सकलमोहाभावे समारोपानवतारात् स्वसंवेदनादेव निश्चयोपपत्तेरनुमेयत्वाभाव:। परत्र तु प्रशमादीनां तल्लिङ्गानां सतामपि निश्चयोपायानां कायादिव्यवहारविशेषाणामपि तदुपायानामभावात् । (44/10)। कथमिदानीमप्रमत्तादिषु सूक्ष्मसाम्परायान्तेषु सद्दर्शनं प्रशमादेरनुमातुं शक्यम् । तन्निर्णयोपायानां कायादिव्यवहारविशेषाणामभावादेव। ...सोऽप्यभिहितानभिज्ञ:, सर्वेषु सरागेषु सद्दर्शनंप्रशमादिभिरनुमीयत इत्यनभिधानात् । यथासंभवं सरागेषु वीतरागेषु च सद्दर्शनस्य तदनुमेयत्वमात्मविशुद्धिमात्रत्वं चेत्यभिहितत्वात् । (45/3)। =1. सराग व वीतराग दोनों में ही सम्यग्दर्शन सम्भव है। तहाँ सराग में तो प्रशमादि लक्षणों के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति होती है और वीतराग में वह केवल चित्तविशुद्धि द्वारा लक्षित होता है। श्लो.12। (अन.ध./2/51/178)। 2. प्रशमादि गुण एक-एक करके या समुदित रूप से अपनी आत्मा में तो स्वसंवेदनगम्य हैं और दूसरों में काय व वचन व्यवहाररूप विशेष ज्ञापक लिंगों द्वारा अनुमानगम्य हैं। इन प्रशमादि गुणों पर से सम्यग्दर्शन जान लिया जाता है। (34/17) - (पं.ध./उ./388); (और भी देखें अनुमान - 2.5); (चा.पा./पं.जयचन्द/12/85); (रा.वा./हिं./1/2/24)। 3. सम्यग्दर्शन के अभाव में वे प्रशमादि गुण मिथ्यादृष्टि जीवों में सम्भव नहीं हैं यदि वहाँ इनका होना माना जायेगा तो वहाँ मिथ्यादृष्टिपना सम्भव न हो सकेगा। (37/18)। प्रश्न - किन्हीं-किन्हीं मिथ्यादृष्टियों में भी क्रोधादि का तीव्र उदय नहीं पाया जाता है, इसलिए सम्यग्दर्शन की सिद्धि में दिया गया उपरोक्त प्रशमादि गुणों वाला हेतु व्यभिचारी है ? उत्तर - नहीं है, क्योंकि, उनके स्वमान्य एकान्त मतों में अनन्तानुबन्धीजन्य तीव्र भाव पाया जाता है। आत्मस्वरूप व अनेकान्तमत में उन्हें द्वेष का होना अवश्यंभावी है। तथा पृथिवीकायिक आदिकों की हिंसा करना भी उनमें पाया जाता है। (35/5) [जैसे सम्यग्दृष्टि में होते हैं वैसे प्रशमादि गुण मिथ्यादृष्टि में नहीं पाये जाते - द.पा./पं.जयचन्द] (द.पा./पं.जयचन्द/2/पृष्ठ 7 व 15)। =प्रश्न - 4. जिस प्रकार सराग सम्यग्दृष्टि में उसकी अभिव्यक्ति प्रशमादि गुणों द्वारा अनुमानगम्य है, उसी प्रकार वीतराग सम्यग्दृष्टियों में भी उन्हीं के द्वारा अनुमानगम्य क्यों नहीं ? उत्तर - नहीं, क्योंकि वीतरागों का तत्त्वार्थश्रद्धान अपने में आत्मविशुद्धिरूप होता है। सकल मोह के अभाव में तहाँ समारोप को अर्थात् संशय आदि को अवकाश न होने से, उसका स्वसंवेदन से ही निश्चय होता है, क्योंकि, वह विशुद्धि अनुमान का विषय नहीं है। 5. दूसरी बात यह भी है कि वीतराग जनों में, सम्यग्दर्शन के ज्ञापक प्रशमादि गुणों का तथा वचन व काय व्यवहाररूप विशेष ज्ञापक लिंगों का सद्भाव होते हुए भी, वे अति सूक्ष्म होने के कारण वे छद्मस्थों के गोचर नहीं हो पाते, क्योंकि, छद्मस्थों के पास उनको जानने का कोई साधन नहीं है। इसलिए वे गुण व लिंग वीतराग सम्यग्दर्शन के अनुमान के उपाय नहीं हैं। (44/10)। प्रश्न - 6. सातवें से लेकर दसवें पर्यंत के अप्रमत्त सराग गुणस्थानों में सम्यग्दर्शन का अनुमान कैसे किया जा सकता है, क्योंकि, उनमें उसके निर्णय के उपायभूत, काय व वचन व्यवहाररूप विशेष ज्ञापक लिंगों का अभाव है? उत्तर - तुम हमारे अभिप्राय को नहीं समझे। सर्व ही सराग जीवों के सम्यग्दर्शन का अनुमान केवल इन गुणों व लिंगो पर से ही होता हो, ऐसा नियम नहीं किया गया है। बल्कि यथासम्भव वीतराग व सराग दोनों में ही सम्यग्दर्शन की अनुमेयता आत्मविशुद्धि होती है, ऐसा हमारा अभिप्राय है [अर्थात् 4-6 वाले सराग प्रमत्त गुणस्थानों में तो प्रशमादि गुणों से तथा 7-10 तक के सराग अप्रमत्त गुणस्थानों में आत्मविशुद्धि से उसकी अभिव्यक्ति होती है]। (45/3) (अन.ध./2/53/179)।
देखें अनुभव /4 (आत्मानुभव स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है)।
मो.मा.प्र./7/357/8 द्रव्य लिंगीकै स्थूल तौ अन्यथापना है नाहीं, सूक्ष्म अन्यथापनौ है, सौ सम्यग्दृष्टिकौं भासै है।
देखें प्रायश्चित्त - 3.1 (सहवास में रहकर दूसरों के परिणामों का अनुमान किया जा सकता है।)
3. वास्तव में सम्यग्दर्शन नहीं बल्कि प्रशमादि गुण ही प्रत्यक्ष होते हैं
श्लो.वा./2/1/2/12/38/1 ननु प्रशमादयो यदि स्वस्मिन् स्वसंवेद्या: श्रद्धानमपि तत्त्वार्थानां किं न स्वसंवेद्यम् यतस्तेभ्योऽनुमीयते। स्वसंवेद्यत्वाविशेषेऽपि तैस्तदनुमीयते न पुनस्ते तस्मादिति क: श्रद्दधीतान्यत्रापरीक्षकादिति चेत्, नैतत्सारम्, दर्शनमोहोपशमादिविशिष्टात्मस्वरूपस्य तत्त्वार्थश्रद्धानस्य स्वसंवेद्यत्वानिश्चयात् । स्वसंवेद्यपुनरास्तिक्यं तदभिव्यञ्जकं प्रशमसंवेगानुकम्पावत् कथंचित्ततो भिन्नं तत्फलत्वात् । तत एव फलतद्वतोरभेदविवक्षायामास्तिक्यमेव तत्त्वार्थश्रद्धानमिति, तस्य तद्वत्प्रत्यक्षसिद्धत्वात्तदनुमेयत्वमपि न विरुध्यते। =प्रश्न - यदि प्रशमादि गुण अपनी आत्मा में स्वसंवेदनगम्य है तो तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन ही स्वसंवेदनगम्य क्यों न हो जाय। क्यों उसे प्रशमादि के द्वारा अनुमान करने की आवश्यकता पड़े। क्योंक, आत्मा के परिणामपनेरूप से दोनों में कोई भेद नहीं है। पहिले स्वसंवेदन से प्रशमादि को जानें और फिर उन पर से सम्यग्दर्शन का अनुमान करें, ऐसा व्यर्थ का परस्पराश्रय क्यों कराया जाय? उत्तर - यह कहना सार रहित है, क्योंकि दर्शनमोह के उपशमादि विशिष्ट आत्मस्वरूप तत्त्वार्थश्रद्धान का स्वसंवेदन से निश्चय नहीं हो सकता। परन्तु प्रशम संवेग आदि गुणों की भाँति आस्तिक्य गुण स्वसंवेद्य होता हुआ उसका अभिव्यंजक हो जाता है। श्रद्धान के फलस्वरूप होने के कारण ये चारों प्रशमादि गुण उस श्रद्धान से कथंचित् भिन्न हैं। फल और फलवान् की अभेद विवक्षा करने पर वह आस्तिक्य गुण ही तत्त्वार्थश्रद्धान है। इस प्रकार उस आस्तिक्य की भाँति उस तत्त्वार्थ श्रद्धान की भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सिद्धि हो जाती है।
4. सम्यक्त्व वस्तुत: प्रत्यक्षज्ञान गम्य है
पं.ध./उ./श्लो.सं.सम्यक्त्वं वस्तुत: सूक्ष्मं केवलज्ञानगोचरम् । गोचरं स्वावधिस्वान्त:पर्ययज्ञानयोर्द्वयो:।375। न गोचरं मतिज्ञानश्रुतज्ञानद्वयौर्मनाम् । नापि देशावधेस्तत्र विषयोऽनुपलब्धित:।376। सम्यक्त्वं वस्तुत: सूक्ष्ममस्ति वाचामगोचरम् । तस्मात् वक्तुं च श्रोतुं च नाधिकारी विधिक्रमात् ।400। =सम्यक्त्व वास्तव में सूक्ष्म है और केवल ज्ञान के गोचर है, तथा अवधि और मन:पर्यय ज्ञान के भी गोचर है। [क्योंकि अवधि ज्ञान भी जीव के औपशमिक आदि कर्म संयोगी भावों को प्रत्यक्ष जानने में समर्थ है (देखें अविधज्ञान - 8)]।375। परन्तु मति और श्रुतज्ञान और देशावधि इनके द्वारा उसको उपलब्धि सम्भव नहीं है।376। वास्तव में सम्यक्त्व सूक्ष्म है और वचनों के अत्यन्त अगोचर है, इसलिए कोई भी जीव उसके विधि पूर्वक कहने और सुनने का अधिकारी नहीं है।400।
देखें सम्यग्दर्शन - I.4 [प्रशमादि गुण तथा आत्मानुभूति भी सम्यग्दर्शन नहीं ज्ञान की पर्यायें हैं। अत: स्वसंवेद्य श्रुतज्ञान द्वारा भी वह प्रत्यक्ष नहीं है।]
5. सम्यक्त्व को सर्वथा केवलज्ञानगम्य कहना युक्त नहीं है।
द.पा./पं.जयचन्द/2/पृ.8=प्रश्न - केई कहे है जो सम्यक्त्व तौ केवलीगम्य है यातै आपकै सम्यक्त्व भये का निश्चय नहीं होय, तातैं आपकूं सम्यग्दृष्टि नहीं मानना ? उत्तर - सौ ऐसे सर्वथा एकान्त करि कहना तौ मिथ्यादृष्टि है, सर्वथा ऐसैं कहे व्यवहार का लोप होय, सर्व मुनि श्रावक की प्रवृत्ति मिथ्यात्वसहित ठहरै। तब सर्व ही मिथ्यादृष्टि आपकूं मानैं, तब व्यवहार काहे का रह्या, तातैं परीक्षा भये पीछैं (देखें शीर्षक सं - 2) यह श्रद्धान नाहीं राखणां जो मैं मिथ्यादृष्टि ही हूँ।
4. सम्यग्दर्शन का ज्ञान व चारित्र के साथ भेद
1. श्रद्धान आदि व आत्मानुभूति वस्तुत: सम्यक्त्व नहीं ज्ञान की पर्याय हैं
पं.ध./उ./श्लो.सं.श्रद्धानादिगुणा बाह्यं लक्ष्म सम्यग्दृगात्मन:। न सम्यक्त्वं तदेवेति सन्ति ज्ञानस्य पर्यया:।386। अपि चात्मानुभूतिश्च ज्ञानं ज्ञानस्य पर्ययात् । अर्थात् ज्ञानं न सम्यक्त्वमस्ति चेद्बाह्यलक्षणम् ।387। तत्त्वार्थाभिमुखी बुद्धि: श्रद्धा सात्म्यं रुचिस्तथा। प्रतीतिस्तु तथेति स्यात्स्वीकारश्चरणं क्रिया।412। अर्थादाद्यत्रिकं ज्ञानं ज्ञानस्यैवात्र पर्ययात् । चरणं वाक्कायचेतोभिर्व्यापार: शुभकर्मसु।413। =सम्यग्दृष्टि जीव के श्रद्धान आदि गुण (लक्षण) बाह्य लक्षण हैं, इसलिए केवल उन श्रद्धानादिक को ही सम्यक्त्व नहीं कह सकते हैं क्योंकि वे वास्तव में ज्ञान की पर्यायें हैं।386। तथा आत्मानुभूति भी ज्ञान ही है, क्योंकि वह ज्ञान की पर्याय है। इसलिए इसको भी ज्ञान ही कहना चाहिए सम्यक्त्व नहीं। यदि इसे सम्यक्त्व का लक्षण भी कहें तो बाह्य लक्षण ही कहें अन्तरंग नहीं।387। (ला.सं./3/41-42) तत्त्वार्थों के विषय में उन्मुख बुद्धि श्रद्धा कहलाती है तथा उनके विषय में तन्मयता रुचि कहलाती है; और ‘यह ऐसे ही है’ इस प्रकार की स्वीकार प्रतीति कहलाती है, तथा उसके अनुसार आचरण करना चरण कहलाता है।412। इन चारों में वास्तव में आदि वाले श्रद्धादि तीन ज्ञान को ही पर्याय होने से ज्ञानरूप है तथा वचन, काय व मन से शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना चरण कहलाता है।413। देखें अनुभव /4 (आत्मानुभव स्वसंवेदन रूप ज्ञान है)
2. प्रशमादिक ज्ञानरूप नहीं बल्कि सम्यक्त्व के कार्य हैं
श्लो.वा./2/1/2/12/39-41 सम्यग्ज्ञानमेव हि सम्यग्दर्शनमिति केचिद्विप्रवदन्ते, तान् प्रतिज्ञानात् भेदेन दर्शनं प्रशमादिभि: कार्यविशेषै: प्रकाश्यते।(39/9)। ज्ञानकार्यत्वात्तेषां न तत्प्रकाशकत्वमिति चेन्न अज्ञाननिवृत्तिफलत्वात् ज्ञानस्य। साक्षादज्ञाननिवृत्तिर्ज्ञानस्य फलं परम्परया प्रशमादयो हानादिबुद्धिवदिति चेत्, तर्हि हानादिबुद्धिवदेव ज्ञानादुत्तरकालं प्रशमादयोऽनुभूयेरन्, न चैवं ज्ञानसमकालं प्रशमाद्यनुभवनात् ।(39/25)। सम्यग्दर्शनसमसमयमनुभूयमानत्वात् प्रशमादेस्तत्फलत्वमपि माभूत् इति चेन्न, तस्य तदभिन्नफलत्वोपगमात्तत्समसमयवृत्तित्वाविरोधात्, ततो दर्शनकार्यत्वाद्दर्शनस्य ज्ञापका: प्रशमादय:। =प्रश्न - सम्यग्ज्ञान ही वास्तव में सम्यग्दर्शन है ? उत्तर - प्रशम आदिक विशेष कार्यों से दर्शन व ज्ञान में भेद है। प्रश्न - प्रशमादि क्रिया विशेष तो सम्यग्ज्ञान के कार्य हैं, अत: वे सम्यग्ज्ञान के ही ज्ञापक होंगे ? (39/9) उत्तर - नहीं, क्योंकि ज्ञान का फल तो अज्ञान निवृत्ति है। प्रश्न - ज्ञान का अव्यवहित फल तो अज्ञान निवृत्ति है, किन्तु उसका परम्परा फल प्रशम आदि है जैसे कि हेय पदार्थ में त्याग बुद्धि होना उसका परम्परा फल है? उत्तर - यदि ऐसा है तो उस त्याग बुद्धि के समान ये प्रशमादि भी ज्ञान के उत्तर काल में ही अनुभव में आने चाहिए। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ज्ञान के समकाल में ही उनका अनुभव देखा जाता है। (39/25) प्रश्न - तब तो सम्यग्दर्शन के समकाल में ही अनुभव गोचर होने के कारण वे सम्यग्दर्शन के भी फल न हो सकेंगे ? उत्तर - नहीं, सम्यक्त्व के अभिन्न फलस्वरूप होने के कारण प्रशमादि की समकाल वृत्ति में कोई विरोध नहीं है। इसलिए दर्शन के कार्य होने से वे प्रशमादि सम्यग्दर्शन के ज्ञापक हेतु हैं।
3. प्रशमादि कथंचित् सम्यग्ज्ञान के भी ज्ञापक हैं
श्लो.वा./2/1/2/12/41/6 प्रशमादय: सहचरकार्यत्वात्तु ज्ञानस्येत्यनवद्यम् । =सम्यग्ज्ञानरूप साध्य के साथ रहने वाले सम्यग्दर्शन के कार्य हो जाने से वे प्रशमादिक सम्यग्ज्ञान के भी ज्ञापक हेतु हो जाते हैं।
4. स्वानुभूति के ज्ञान व सम्यक्त्वरूप होने सम्बन्धी समन्वय
पं.ध./उ./श्लो.सं.नन्वात्मानुभव: साक्षात् सम्यक्त्वं वस्तुत: स्वयम् । सर्वत: सर्वकालेऽस्य मिथ्यादृष्टेरसंभवात् ।389। नैवं यतोऽनभिज्ञोऽसि सत्सामान्यविशेषयो:। अप्यनाकारसाकारलिङ्गयोस्तद्यथोच्यते।390। ततो वक्तुमशक्यत्वात् निर्विकल्पस्य वस्तुन:। तदुल्लेखं समालेख्य ज्ञानद्वारा निरूप्यते।396। तत्राप्यात्मानुभूति: सा विशिष्टं ज्ञानमात्मन:। सम्यक्त्वेनाविनाभूतमन्वयाद्व्यतिरेकत:।402। ततोऽस्ति योग्यता वक्तुं व्याप्ते: सद्भावतस्तयो:। सम्यक्त्व: स्वानुभूति: स्यात्सा चेच्छुद्धनयात्मिका।403। =प्रश्न - साक्षात् आत्मा का अनुभव वास्तव में स्वयं सम्यक्त्वस्वरूप है, क्योंकि, किसी भी क्षेत्र या काल में वह मिथ्यादृष्टि को प्राप्त नहीं हो सकता है?।389। उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि, सामान्य और विशेष के लक्षणभूत अनाकार और साकार के विषय में भी तुम अनभिज्ञ हो।390। [ज्ञान के अतिरिक्त सर्वगुण निर्विकल्प व निराकार हैं (देखें गुण - 2.10)] और निर्विकल्प वस्तु के कथन को, अनिर्वचनीय होने के कारण, ज्ञान के द्वारा उन सामान्यात्मक गुणों का उल्लेख करके उनका निरूपण किया गया है।396। उस सम्यग्दर्शन के लक्षण में भी जो आत्मा का अनुभव है वह आत्मा का विशेष ज्ञान है जो सम्यक्त्व के साथ अन्वय व्यतिरेक से अविनाभावी है।402। इसलिए इन दोनों में व्याप्ति होने के कारण वचन के अगोचर भी सम्यक्त्व वचन गोचर हो जाता है, इसलिए यदि शुद्धनयात्मिका हो तो वह स्वानुभूति सम्यक्त्व कहलाती है।403।
5. अनुभूति उपयोगरूप होती है और सम्यक्त्व लब्धरूप
पं.ध./उ./श्लो.सं.किंचास्ति विषमव्याप्ति: सम्यक्त्वानुभवद्वयो:। नोपयोगे समव्याप्तिरस्ति लब्धिविधौ तु सा।404। तद्यथा स्वानुभूतौ वा तत्काले वा तदात्मनि। अस्त्यवश्यं हि सम्यक्त्वं यस्मात्सा न विनापि तत् ।405। यदि वा सति सम्यक्त्वे स स्याद्वा नोपयोगवान् । शुद्धानुभवस्तत्र लब्धिरूपोऽस्ति वस्तुन:।406। हेतुस्तत्रास्ति सध्रीची सम्यक्त्वेनान्वयादिह। ज्ञानसंचेतनालब्धिर्नित्या स्वावरणव्ययात् ।852। सार्धं तेनोपयोगेन न स्याद्व्याप्तिर्द्वयोरपि। विना तेनापि सम्यक्त्वं तदास्ते सति स्याद्यत:।875। आत्मनोऽन्यत्र कुत्रापि स्थिते ज्ञाने परात्मसु। ज्ञानसंचेतनाया: स्यात्क्षति: साधोयसी तदा।900। सत्यं चापि क्षतेरस्या: क्षति: साध्यस्य न क्वचित् । इयानात्मोपयोगस्य तस्यास्तत्राप्यहेतुत:।901। साध्यं यद्दर्शनाद्धेतोर्निर्जरा चाष्टकर्मणाम् । स्वतो हेतुवशाच्छक्तेर्न तद्धेतु: स्वचेतना।902। अनिध्नन्निह सम्यक्त्वं रागोऽयं बुद्धिपूर्वक:। नूनं हन्तुं क्षमो न स्याज्ज्ञानसंचेतनामिमाम् ।918। =सम्यग्दर्शन और स्वानुभूव इन दोनों में विषमव्याप्ति है क्योंकि (अनुभूति उपयोगरूप है और सम्यक्त्व लब्धरूप) उपयोगरूप स्वानुभूति के साथ सम्यक्त्व की समव्याप्ति है।404। वह इस प्रकार कि स्वानुभव के होने पर अथवा स्वानुभूति के काल में भी उस आत्मा में अवश्य ही ज्ञात होता है, क्योंकि उस सम्यग्दर्शनरूप कारण के बिना वह स्वानुभूतिरूप कार्य नहीं होता है।405। अथवा यों कहिए कि सम्यग्दर्शन के होने पर वह आत्मा स्वानुभूति के उपयोग से सहित हो ही ऐसा कोई नियम नहीं, परन्तु स्वानुभूति यदि होती है तो सम्यक्त्व के रहने पर ही होती है।406। इसमें भी हेतु यह है कि सम्यक्त्व के अविनाभूत स्वानुभूति मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से समीचीन ज्ञानचेतना की लब्धि उसके सदैव पायी जाती है।852। परन्तु आत्मोपयोग के साथ सम्यक्त्व की व्याप्ति नहीं है, क्योंकि आत्मा के उपयोग के न रहते हुए भी वह सम्यक्त्व रहता है और उपयोग के रहते हुए भी।875। प्रश्न - शुद्धात्मा के सिवा किन्हीं अन्य पदार्थों में जब ज्ञान का उपयोग होता है तब ज्ञान चेतना की हानि अवश्य होती है?।900। उत्तर - ठीक है कि तब ज्ञानचेतना की क्षति तो हो जाती है परन्तु उसकी साध्यभूत संवर निर्जरा की हानि नहीं होती है, क्योंकि, वह उपयोगरूप ज्ञानचेतना संवर निर्जरा के हेतु नहीं है।901। स्वात्मा को विषय करना ही उसका कार्य है, क्योंकि, सम्यग्दर्शन के निमित्त से आठों कर्मों की निर्जरा होना जो साध्य है, वह स्वयं सम्यक्त्व की शक्ति के कारण होता है, अत: ज्ञान चेतना उसमें कारण नहीं है।902। यहाँ पर यह बुद्धिपूर्वक औदयिक भावरूप राग सम्यक्त्व का घात नहीं करता है, इसलिए वह इस लब्धरूप ज्ञानचेतना का घात करने को समर्थ नहीं है।918।
6. सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में अन्तर
रा.वा./1/1/60/16/4 ज्ञानदर्शनयोर्युगपत्प्रवृत्तेरेकत्वमिति चेत्; न; तत्त्वावायश्रद्धानभेदात् तापप्रकाशवत् । =प्रश्न - ज्ञान व दर्शन की युगपत् प्रवृत्ति होने के कारण वे दोनों एक हैं ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार युगपत् होते हुए भी अग्नि ताप व प्रकार (अथवा दीपक व उसका प्रकाश - पु.सि.उ.) अपने-अपने लक्षणों से भेद को प्राप्त हैं, उसी प्रकार युगपत् होते हुए भी ये दोनों अपने-अपने लक्षणों से भिन्न हैं। सम्यग्ज्ञान का लक्षण तत्त्वों का यथार्थ निर्णय करना है और सम्यग्दर्शन का लक्षण उन पर श्रद्धान करना है। (पु.सि.उ./32-34), (छहढाला/4/1)।
देखें सम्यग्दर्शन - I.1.5.3 (निर्विकल्परूप से देखना सम्यग्दर्शन है और विशेष रूप से जानना सम्यग्ज्ञान है)।
द्र.सं.टी./44/193/1 यतत्त्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं वस्तुविचाररूपं सम्यग्ज्ञानं तयोर्विशेषो न ज्ञायते। कस्मादिति चेत् । सम्यग्दर्शने पदार्थनिश्चयोऽस्ति, तथैव सम्यग्ज्ञाने च, को विशेष इति। अत्र परिहार:। अर्थग्रहणपरिच्छित्तिरूप: क्षयोपशमविशेषो ज्ञानं भण्यते, तत्रैव भेदनयेन वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धात्मादितत्त्वेष्विदमेवेत्थमेवेति निश्चयसम्यक्त्वमिति। अविवल्परूपेणाभेदनयेन पुनर्यदेव सम्यग्ज्ञानं तदेव सम्यक्त्वमिति। कस्मादिति चेत् - अतत्त्वे तत्त्वबुद्धिरदेवे देवबुद्धिधर्मे धर्मबुद्धिरित्यादिविपरीताभिनिवेशरहितस्य ज्ञानस्यैव सम्यग्विशेषणवाच्योऽवस्थाविशेष: सम्यक्त्वं भण्यते यत: कारणात् । यदि भेदो नास्ति तर्हि कथमावरणद्वयमिति चेत् - तत्रोत्तरम् ।...भेदनयेनावरणभेद:। निश्चयनयेन पुनरभेदविवक्षायां कर्मत्वं प्रत्यावरणद्वयमप्येकमेव विज्ञातव्यम् ।
द्र.सं.टी./52/218/10 स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपसम्यग्दर्शनं।...तस्यैव शुद्धात्मनो...मिथ्यात्वरागादिपरभावेभ्य: पृथक्परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञानम् । =प्रश्न - 1. ‘‘तत्त्वार्थ का श्रद्धान करने रूप सम्यग्दर्शन और पदार्थ का विचार करने स्वरूप सम्यग्ज्ञान है’’ इन दोनों में भेद नहीं जाना जाता, क्योंकि जो पदार्थ का निश्चय सम्यग्दर्शन में है वही सम्यग्ज्ञान में है। इसलिए इन दोनों में क्या भेद है ? उत्तर - पदार्थ के ग्रहण करने में जाननेरूप जो क्षयोपशम विशेष है, वह ‘ज्ञान’ कहलाता है। और ज्ञान में ही भेदनय से जो वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे हुए शुद्धात्मा आदि तत्त्व हैं उनमें, ‘यह ही तत्त्व है, ऐसा ही तत्त्व है’ इस प्रकार का जो निश्चय है, वह सम्यक्त्व है। 2. और अभेद नय से तो जो सम्यग्ज्ञान है वही सम्यग्दर्शन है। कारण कि अतत्त्व में तत्त्व की बुद्धि, अदेव में देव की बुद्धि और अधर्म में धर्म की बुद्धि, इत्यादिरूप जो विपरीत अभिनिवेश है, उस विपरीताभिनिवेश से रहित जो ज्ञान है; उसके ‘सम्यक्’ विशेषण से कहे जाने वाली अवस्थाविशेष सम्यक्त्व कहलाता है। प्रश्न - 3. जो सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में भेद नहीं है, तो उन दोनों गुणों के घातक ज्ञानावरणीय व मिथ्यात्व ये दो कर्म कैसे कहे गये? उत्तर - भेदनय से आवरण का भेद है और अभेद की विवक्षा में कर्मत्व के प्रति जो दो आवरण हैं, उन दोनों को एक ही जानना चाहिए। 4. ‘शुद्धात्मा ही उपादेय है’, ऐसी रुचि होनेरूप सम्यग्दर्शन है और उसी शुद्धात्मा को रागादि परभावों से भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है। (देखें उन उनके लक्षण)
7. सम्यक्त्व के साथ चारित्र का कथंचित् भेद व अभेद
द.पा./पं.जयचन्द/22 जो कोऊ कहै सम्यक्त्वभए पीछे तौ सर्व परद्रव्य संसारकूं हेय जानिये है, ताकूं छोड़ै मुनि होय चारित्र आचरै तव सम्यक्त्व भया जानिये, ताका समाधान रूप यह गाथा है, जो सर्व परद्रव्यकूं हेय जानि निज स्वरूपकूं उपादेय जान्यां श्रद्धान किया तब मिथ्या भाव तो न रहा परन्तु चारित्रमोह कर्म का उदय प्रबल होय जातैं चारित्र अंगीकार करने की सामर्थ्य नहीं होय तेतैं जेती सामर्थ्य होय तेता तौ करै तिस सिवाय का श्रद्धान करै। (देखें श्रद्धान /1/3)
देखें चारित्र - 3.5 [यद्यपि चारित्र सम्यग्दर्शनपूर्वक ही होता है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि सम्यक्त्व होते ही चारित्र प्रगट हो जाय। हाँ, सम्यक्त्व हो जाने के पश्चात् क्रमश: धीरे-धीरे वह यथाकाल प्रगट अवश्य हो जाता है।]
5. मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन की प्रधानता
1. सम्यग्दर्शन की प्रधानता का निर्देश
भ.आ.मू./736-739 णगरस्स जह दुवारं मुहस्स चक्खू तरुस्स जह मूलं। तह जाण सुसम्मत्तं णाणचरणवीरियतवाणं।736। दंसणभट्टो भट्टो दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं। सिज्झंति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिज्झंति।738। दंसण भट्टो भट्टो ण हु भट्टो होइ चरणभट्टो हु। दंसणममुयत्तस्स हु परिवडणं णत्थि संसारे।739। =1. नगर में जिस प्रकार द्वार प्रधान है, मुख में जिस प्रकार चक्षु प्रधान है तथा वृक्ष में जिस प्रकार मूल प्रधान है, उसी प्रकार ज्ञान, चारित्र, वीर्य व तप इन चार आराधनाओं में एक सम्यक्त्व ही प्रधान है।736। 2. दर्शनभ्रष्ट ही वास्तव में भ्रष्ट है क्योंकि दर्शनभ्रष्ट को निर्वाण प्राप्त नहीं होता। चारित्र भ्रष्ट को मोक्ष हो जाती है, पर दर्शनभ्रष्ट को नहीं होती।738। (द.पा./मू./3) (बा.अ./19) 3. दर्शनभ्रष्ट ही भ्रष्ट है, चारित्रभ्रष्ट वास्तव में भ्रष्ट नहीं होता, क्योंकि, जिसका सम्यक्त्व नहीं छूटा है ऐसा चारित्रभ्रष्ट संसार में पतन नहीं करता।739।
मो.पा./मू./39 दंसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं। दंसणविहीणपुरिसो न लहइ तं इच्छियं लाहं।39। =दर्शन शुद्ध ही वास्तव में शुद्ध है, क्योंकि दर्शनशुद्ध ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं। दर्शन विहीन पुरुष इष्टलाभ अर्थात् मोक्ष को प्राप्त नहीं करते। (र.सा./90)
मो.पा./मू./88 किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले। सिज्झिहहिं जे वि भविया जातंणइ सम्ममाहप्पं।88। =बहुत कहने से क्या, जो प्रधान पुरुष अतीतकाल में सिद्ध हुए हैं या आगे सिद्ध होंगे वह सब सम्यक्त्व का माहात्म्य जानो। (बा.अ./90)
बो.पा./मू./21 जह ण वि लहदि हु लक्खं रहिओ कंडस्स वेज्झय विहीणो। तह ण वि लक्खदि लक्खं अण्णाणी मोक्खमग्गस्स।21। जैसे बाण रहित बेधक धनुष के अभ्यास से रहित होता हुआ निशाने को प्राप्त नहीं करता है, वैसे ही अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मोक्षमार्ग के लक्ष्यभूत परमात्म तत्त्व को प्राप्त नहीं करता है।
भा.पा./मू./144 जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं। अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावय दुविहधम्माणं।144। =जिस प्रकार ताराओं में चन्द्र और पशुओं में सिंह प्रधान है, उसी प्रकार मुनि व श्रावक दोनों प्रकार के धर्मों में सम्यक्त्व प्रधान है।144।
र.सा./47 सम्मविणा सण्णाणं सच्चारित्तं ण होइ णियमेण। तो रयणत्तयमज्झे सम्मगुणक्किट्ठमिदि जिणुद्दिट्ठं।47। =सम्यक्त्व के बिना नियम से सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र नहीं होते हैं। रत्नत्रय में एक यह सम्यक्त्व गुण ही प्रशंसनीय है।47। (र.क.श्रा./31-32)
स.सि./1/1/7/2 अल्पाक्षरादभ्यर्हितं पूर्वं निपतति। कथमभ्यर्हितत्वं ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतुत्वात् । =अल्पाक्षरवाले शब्द से पूज्य शब्द पहले रखा जाता है, इसलिए सूत्र में पहले ज्ञान शब्द को न रखकर दर्शन शब्द को रखा है। प्रश्न - सम्यग्दर्शन पूज्य क्यों है ? उत्तर - क्योंकि सम्यग्दर्शन से ज्ञान मे समीचीनता आती है। (रा.वा./1/1/31/9/27) (और भी देखें ज्ञान - III.2)
प्र.सा./त.प्र./238-239 आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्येऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् ।238। अत आत्मज्ञानशून्यमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यमप्यकिंचित्करमेव। =आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और सयतत्व की युगपत्ता होने पर भी आत्मज्ञान को ही मोक्षमार्ग का साधकतम सम्मत करना।238। आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान हेयतत्त्व की युगपत्ता भी अकिंचित्कर ही है।239।
ज्ञा./6/54 चरणज्ञानयोर्बीजं यमप्रशमजीवितम् । तप:श्रुताद्यधिष्ठानं सद्भि: सद्दर्शनं मतम् ।54। =सत्पुरुषों ने सम्यग्दर्शन को चारित्र व ज्ञान का बीज, यम व प्रशम का जीवन तथा तप व स्वाध्याय का आश्रय माना है।
नोट - [सम्यग्दर्शन विहीन धर्म, चारित्र, ज्ञान, तप आदि सब निरर्थक व अकिंचित्कर हैं। और सम्यक्त्व सहित ही वे सब यथार्थता को प्राप्त होते हैं।] (देखें चारित्र - 3); (देखें ज्ञान - III.2 तथा IV/1); (देखें तप - 3)।
2. सम्यग्दर्शन ही सार, सुखनिधान व मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है इत्यादि महिमा
भ.आ./मू./735 मा कासि तं पमादं सम्मत्ते सव्वदु:खणासयरे। =यह सम्यग्दर्शन सर्व दु:खों का नाश करने वाला है, अत: इसमें प्रमादी मत बनो।
चा.पा./मू./20 संखिज्जमसंखिज्जगुणं च संसारिमेरुमत्ताणं। सम्मत्तमणुचरंता करंति दुक्खक्खयं धीरा।20। =सम्यक्त्व को आचरण करने वाले धीर पुरुष संख्यात व असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा करते हैं तथा संसारी जीवों की मर्यादा रूप जो सर्व दुख उनका नाश करते हैं।
द.पा./मू./21 एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण। सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढममोक्खस्स।21। =जिनप्रणीत सम्यग्दर्शन को अन्तरंग भावों से धारण करो, क्योंकि, यह सर्व गुणों में और रत्नत्रय में सार है तथा मोक्षमन्दिर की प्रथम सीढ़ी है।21।
र.सा./54,158 कामदुहिं कप्पतरुं चिंतारयणं रसायणं य समं। लद्धो भंजइ सौक्खं जहच्छियं जाण तह सम्मं।54। सम्मद्दसणसुद्धं जावद लभदे हि ताव सुही। सम्मद्दंसणसुद्धं जाव ण लभते हि ताव दुही।158। =जिस प्रकार भाग्यशाली मनुष्य कामधेनु कल्पवृक्ष, चिन्तामणिरत्न और रसायन को प्राप्त कर मनोवांछित उत्तम सुख को प्राप्त होता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन से भव्य जीवों को सर्व प्रकार के सर्वोत्कृष्ट सुख व समस्त प्रकार के भोगोपभोग स्वयमेव प्राप्त होते हैं।54। सम्यग्दर्शन को यह जीव जब प्राप्त हो जाता है तब परम सुखी हो जाता है और जब तक उसे प्राप्त नहीं करता तब तक दु:ख बना रहता है।158।
र.क.श्रा./34,36 न सम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि। श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ।34। ओजस्तेजोविद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथा:। महाकुलामहार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूता:।36। =तीन काल और तीन जगत् में जीवों का सम्यक्त्व के समान कुछ भी कल्याणकारी नहीं है, मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी नहीं है।34। शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव कान्ति, प्रताप, विद्या, वीर्य, यशोवृद्धि, विजय, विभववान, उच्चकुली, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के साधक तथा मनुष्यों में शिरोमणि होते हैं।36।
र.क.अ./28 सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसम् ।28। =गणधरादि देव सम्यग्दर्शन सहित चाण्डाल को भी भस्म से ढकी हुई चिनगारी के समान देव कहते हैं।28।
पं.वि./1/77 जयति सुखनिधानं मोक्षवृक्षैकबीजं, सकलमलविमुक्तं दर्शनं यद्विना स्यात् । मतिरपि कुमतिर्नु दुश्चरित्रं चरित्रम् भवति मनुजजन्म प्राप्तमप्राप्तमेव।77। =जिस सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान तो मिथ्याज्ञान और चारित्र मिथ्याचारित्र हुआ करता है, वह सुख का स्थानभूत, मोक्षरूपी वृक्ष का अद्वितीय बीजस्वरूप तथा समस्त दोषों से रहित सम्यग्दर्शन जयवन्त होता है। उसके बिना प्राप्त हुआ भी मनुष्य जन्म अप्राप्त हुए के समान है।
ज्ञा./6/59 अतुलसुखनिधानं सर्वकल्याणबीजं, जननजलधिपोतं भव्यसत्त्वैकपात्रम् । दुरिततरुकुठारं पुण्यतीर्थप्रधानं, पिबत जितविपक्षं दर्शनाख्यं सुधाम्बम् ।59। =हे भव्यो ! तुम सम्यग्दर्शनरूपी अमृत का पान करो, क्योंकि, यह अतुल सुखनिधान है, समस्त कल्याणों का बीज है, संसारसागर तरने को जहाज है, भव्यजीव ही इसका पात्र है, पापवृक्ष को काटने के लिए कुठार है, पुण्यतीर्थों में प्रधान है तथा विपक्षी जो मिथ्यादर्शन उसको जीतने वाला है।
ज्ञा./6/53 सद्दर्शनमहारत्नं विश्वलोकैकभूषणम् । मुक्तिपर्यन्तकल्याणदानदक्षं प्रकीर्तितम् ।53। =यह सम्यग्दर्शन महारत्न समस्त लोक का आभूषण है और मोक्ष होने पर्यन्त आत्मा को कल्याण देने में चतुर है।53।
आ.सा./2/68 मान्य: सद्दर्शनी ज्ञानी हीनोऽपि अपरसद्गुणै:। वरं रत्नमनिष्पन्नं, शोभं किं नार्ध्यमर्हति।68। =अन्य गुणों से हीन भी सम्यग्दृष्टि सर्वमान्य है। क्या बिना शान पर चढ़ा रत्न शोभा को प्राप्त नहीं होता है।
का.अ./मू./325-326 रयणाण महारयणं सव्वं जोयाण उत्तम जोयं। रिद्धीण महारिद्धी सम्मत्तं सव्वसिद्धिपरं।325। सम्मत्तगुणपहाणो देविंद-णरिंद-वंदिओ होदि। चत्त वओ वि य पावदि सग्गसुहं उत्तमं विविहं।326। =सम्यग्दर्शन सब रत्नों में महारत्न है, सब योगों में उत्तम योग है, सब ऋद्धियों में महा-ऋद्धि है। अधिक क्या, सम्यक्त्व सब सिद्धियों का करने वाला है।325। सम्यक्त्वगुण से जीव देवों के इन्द्रों से तथा चक्रवर्ती आदि से वन्दनीय होता है, और व्रत रहित होता हुआ भी नाना प्रकार के उत्तम स्वर्गसुख को पाता है।326।
अ.ग.श्रा./2/83 अपारसंसारसमुद्रतारकं, वशीकृतं येन सुदर्शनं परम् । वशीकृतास्तेन जनेन संपद:, परैरलभ्या विपदामनास्पदम् ।83। =अपार संसारसमुद्र तारने वाला और जिसमें विपदाओं को स्थान नहीं, ऐसा यह सम्यग्दर्शन जिसने अपने वश किया है उस पुरुष ने कोई अलभ्य सम्पदा ही वश करी है।
सा.ध./1/4 नरत्वेऽपि पशूयन्ते मिथ्यात्वग्रस्तचेतस:। पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यक्तचेतस:।4। =मिथ्यात्व से ग्रस्त चित्तवाला मनुष्य भी पशु के समान है। और सम्यक्त्व से व्यक्त चित्तवाला पशु भी मनुष्य के समान है।
3. सम्यग्दर्शन की प्रधानता में हेतु
द.पा./मू./15-16 सम्मत्तादो णाणं णाणादो सव्वभावउवलद्धी। उवलद्धपयत्थे पुण सेयासेयं वियाणेदि।15। सेयासेयविदण्हू उद्धुददुस्सील सीलवंतो वि। सीलफलेणब्भुदयं तत्तो पुण लहइ णिव्वाणं।16। =सम्यक्त्व से तो ज्ञान सम्यक् होता है। (और भी देखें शीर्षक सं - 1 में स.सि./1/1/7/2)। उन दोनों से सर्व पदार्थों या तत्त्वों की उपलब्धि होती है। पदार्थों की उपलब्धि होने पर श्रेय व अश्रेय का ज्ञान होता है।15। श्रेय व अश्रेय को जानकर वह पुरुष मिथ्यात्व को उड़ाकर तथा सम्यक् स्वभावयुक्त होकर अभ्युदय व तीर्थंकर आदि पदों को प्राप्त होता हुआ पीछे निर्वाण प्राप्त करता है।16।
देखें शीर्षक सं - 1 (सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र का बीज है)।
4. सम्यग्दर्शन के पश्चात् भव धारण की सीमा
भ.आ./मू./गा. लद्धूण य सम्मत्तं मुहुत्तकालमवि जे परिवडंति। तेसिमणंताणंता ण भवदि संसारवासद्धा।53। =जो जीव मुहूर्तकाल पर्यन्त भी सम्यग्दर्शन को प्राप्त करके अनन्तर छोड़ देते हैं, वे भी इस संसार में अनन्तानन्त कालपर्यन्त नहीं रहते।[अर्थात् उनको अधिक से अधिक अर्द्धपुद्गल परिवर्तन कालमात्र ही संसार शेष रहता है इससे अधिक नहीं - देखें काल - 6 तथा अन्तर/4]
क.पां./सुत्त/11/गा.113/641 खवणाए पट्ठवगो जम्मि भवे णियमदो तदी अण्णे। णाधिच्छदि तिण्णि भवे दंसणमोहम्मि खीणम्मि।203। =जो मनुष्य जिस भव में दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापन करता है, वह दर्शनमोह के क्षीण होने पर तीनभव में नियम से मुक्त हो जाता है।203। (पं.सं./प्रा./1/203)।
रा.वा./4/25/3/244/11 अप्रतिपतिसम्यग्दर्शनानां परीतविषय: सप्ताष्टानि भवग्रहणानि उत्कर्षेण वर्तन्ते, जघन्येन द्वित्रीणि अनुबन्ध्योच्छिद्यन्ते। प्रतिपतितसम्यक्त्वानां तु भाज्यम् । =जो सम्यग्दर्शन से पतित नहीं होते उनको उत्कष्टत: सात या आठ भवों का ग्रहण होता है और जघन्य से दो-तीन भवों का। इतने भवों के पश्चात् उनके संसार का उच्छेद हो जाता है। जो सम्यक्त्व से च्युत हो गये हैं उनके लिए कोई नियम नहीं है। (प.पु./14/224)
क्ष.सा./मू./165/218 दंसणमोहे खविदे सिज्झदि तत्थेव तदियतुरियभवे। णादिक्कति तुरियभवे ण विणस्सति सेससम्मे वा। =दर्शनमोह का क्षय हो जाने पर उस ही भव में या तीसरे भव में अथवा मनुष्य तिर्यंच की पूर्व में आयु बाँध ली हो तो भोगभूमि की अपेक्षा चौथे भव में सिद्धि प्राप्त करते हैं। चौथे भव को उल्लंघन नहीं करते। औपशमिक व क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की भाँति यह नाश को प्राप्त नहीं होता।165। (गो.जी./जी.प्र./646/1097/2 पर उद्धृत)
वसु.श्रा./269 अण्णे उ सुदेवत्तं सुमाणुसत्तं पुणो पुणो लहिऊण। सत्तट्ठभवेहि तओ करंति कम्मक्खयं णियमा।269। =कितने ही जीव सुदेवत्व और सुमानुषत्व को पुन: पुन: प्राप्त करके सात-आठ भवों के पश्चात् नियम से कर्मक्षय करते हैं।269।
II निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन
1. निश्चय व्यवहार सम्यक्त्व लक्षण निर्देश
1. सम्यग्दर्शन के दो भेद
र.सा./4 सम्मत्तरयणसारं मोक्खमहारुक्खमूलमिदि भणियं। तं जाणिज्जइ णिच्छयववहारसरूवदो भेदं।4। =सम्यग्दर्शन समस्त रत्नों में सारभूत रत्न है और मोक्षरूपी वृक्ष का मूल है, इसके निश्चय व व्यवहार ऐसे दो भेद जानने चाहिए।
2. व्यवहार सम्यग्दर्शन के लक्षण
1. देव शास्त्र गुरु व धर्म की श्रद्धा
मो.पा./मू./90 हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे। णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं।90। =हिंसादि रहित धर्म, अठारह दोष रहित देव, निर्ग्रन्थ प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग व गुरु इनमें श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है।90।
र.क.श्रा./4 श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्यमयम् ।4। =सत्यार्थ देव, शास्त्र और गुरु इन तीनों का आठ अंग सहित, तीन मूढता और आठ मदरहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहा जाता है।
का.अ./मू./317 णिज्जियदोसं देवं सव्वजिणाणं दयावरं धम्मं। वज्जियगंथं च गुरुं जो मण्णदि सो हु सद्दिट्ठी।317। = जो वीतराग अर्हन्त को देव, दया को उत्कृष्ट धर्म और निर्ग्रन्थ को गुरु मानता है वही सम्यग्दृष्टि है।
2. आप्त आगम व तत्त्वों की श्रद्धा
नि.सा./मू./5 अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं। =आप्त आगम और तत्त्वों की श्रद्धा से सम्यक्त्व होता है। [इनका सम्यक् श्रद्धान व्यवहार सम्यक्त्व है - (इसी गाथा की ता.वृ.टीका); (ध.1/1,1,4/151/4); (वसु.श्रा./6)]
3. तत्त्वार्थ या पदार्थों आदि का श्रद्धान
त.सू./1/2,3 तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।2। जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।3। =अपने-अपने स्वभाव में स्थित तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। जीव-अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा व मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। (द.पा./मू./20); (मू.आ./203); (ध.1/1,1,4/151/2); (द्र.सं./मू./41); (वसु.श्रा./10)
पं.का./मू./107 सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं [भावा: खलु कालकलितपञ्चास्तिकायविकल्परूपा नव पदार्था:। (त.प्र.टीका)] =काल सहित पंचास्तिकाय के भेदरूप नव पदार्थ वास्तव में भाव हैं। उन भावों का श्रद्धान सो सम्यक्त्व है।
द.पा./मू./19 छह दव्व णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा। सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेयव्वो।19। =छह द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकाय, सप्त तत्त्व, ये जिनवचन में कहे गये हैं। इनके स्वरूप का जो श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि है।
पं.सं./प्रा./1/159 छप्पंचणविहाणं अत्थाणं जिणवरोवइट्ठाणं। आणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत्तं। =जिनवरों के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, और नौ पदार्थों का आज्ञा या अधिगम से श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। (ध.1/1,1,4/गा.96/15); (ध.1/1,1,144/गा.212/395); (गो.जी./मू./561/1006)
4. पदार्थों का विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान
पं.का./ता.वृ./107/169/24 मिथ्यात्वोदयजनितविपरीताभिनिवेशरहितं श्रद्धानम् । केषां संबन्धि। पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यविकल्परूपं जीवाजीवद्रव्यं जीवपुद्गलसंयोगपरिणामोत्पन्नास्रवादिपदार्थसप्तकं चेत्युक्तलक्षणानां भावानां जीवादिनवपदार्थानाम् । इदं तु नवपदार्थविषयभूतं व्यवहारसम्यक्त्वम् । =मिथ्यात्वोदयजनितविपरीत अभिनिवेश रहित, पंचास्तिकाय, षट्द्रव्य, जीवादि सात पदार्थ अथवा जीवादि नव पदार्थ, इनका जो श्रद्धान सो व्यवहार सम्यक्त्व है। (पु.सि.उ./22); (स.सा./वृ./155/220/9)
5. यथावस्थित पदार्थों का श्रद्धान
प.प्र./मू./2/15 दव्वइँ जाणइ जह ठियइँ तह जगि मण्णइ जो जि। अप्पहं केरउ भावडउ अविचलु दंसणु सो जि।15। जो द्रव्यों को जैसा उनका स्वरूप है वैसा जाने और उसी तरह इस जगत् में श्रद्धान करे, वही आत्मा का चलमलिनअवगाढ दोष रहित निश्चल भाव है। वही आत्मभाव सम्यग्दर्शन है। (और भी देखें सम्यग्दर्शन - I.1.4); (देखें तत्त्व - 1.1)।
6. तत्त्वों में हेय व उपादेय बुद्धि
सू.पा./मू./5 सुत्तत्थं जिणभणियं जीवाजीवादिबहुविहं अत्थं। हेयाहेयं च तहा जो जाणइ सो हु सद्दिट्ठी।5। =सूत्र में जिनेन्द्र भगवान् ने जीव अजीव आदि बहुत प्रकार के पदार्थ कहे हैं। उनको जो हेय और अहेयरूप से जानता है (अर्थात् जीव संवर निर्जरा व मोक्ष अहेय हैं और शेष तीन हेय। इस प्रकार जो जानता है) वह सम्यग्दृष्टि है।
7. तत्त्व रुचि
मो.पा./मू./38 तच्चरुई सम्मत्तं। =तत्त्वरुचि सम्यग्दर्शन है। (ध.1/1,1,4/151/6)
3. निश्चय सम्यग्दर्शन के लक्षण
1. उपरोक्त पदार्थों का शुद्धात्मा से भिन्न दर्शन
प्र.सा./त.प्र./242 ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण =ज्ञेय और ज्ञाता इन दोनों की यथारूप प्रतीति सम्यग्दर्शन का लक्षण है।
स.सा./आ./314-315 स्वपरयोर्विभागदर्शनेन दर्शको भवति। =स्व व पर के विभाग दर्शन से दर्शक होता है।
स.सा./ता.वृ./155/220/11 अथवा तेषामेव भूतार्थेनाधिगतानां पदार्थानां शुद्धात्मन: सकाशात् भिन्नत्वेन सम्यगवलोकनं निश्चय सम्यक्त्वम् । =अथवा उन भूतार्थरूप से जाने गये जीवादि नौ पदार्थों का शुद्धात्मा से भिन्न करके सम्यक् अवलोकन करना निश्चय सम्यक्त्व है।
2. शुद्धात्मा की रुचि
स.सा.ता.वृ./38/72/9 शुद्धात्मैवोपादेय इति श्रद्धानं सम्यक्त्वम् । =’शुद्धात्मा ही उपादेय है’, ऐसा श्रद्धान सम्यक्त्व है। (द्र.सं./टी./14/42/4)
स.सा./ता.वृ./2/8/10 विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे निजपरमात्मनि यद्रुचिरूपं सम्यग्दर्शनम् । =विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावरूप निज परमात्मा में रुचिरूप सम्यग्दर्शन है।
पं.का./ता.वृ./107/170/9 शुद्धजीवास्तिकायरुचिरूपस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य...।=शुद्ध जीवास्तिकाय की रुचि निश्चयसम्यक्त्व है।
देखें मोहनीय - 2.1 में ध./6 (आप्त या आत्मा में रुचि या श्रद्धा दर्शन है।)
3. अतीन्द्रिय सुख की रुचि
प्र.सा./ता.वृ./5/6/19 रागादिभ्यो भिन्नोऽयं स्वात्मोत्थसुखस्वभाव: परमात्मेति भेदज्ञानं, तथा स एव सर्वप्रकारोपादेय इति रुचिरूपं सम्यक्त्वम् । =रागादि से भिन्न यह जो स्वात्मा से उत्पन्न सुखरूप स्वभाव है वही परमात्मतत्त्व है। वही परमात्म तत्त्व सर्व प्रकार उपादेय है, ऐसी रुचि सम्यक्त्व है।
द्र.सं./टी./41/178/2 शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयभावनोत्पन्नपरमाह्लादैकरूपसुखामृतरसास्वादनमेवोपादेयमिन्द्रियसुखादिके च हेयमिति रुचिरूपं वीतरागचारित्राविनाभूतं वीतरागसम्यक्त्वाभिधानं निश्चयसम्यक्त्वं च ज्ञातव्यमिति। =शुद्धोपयोगरूप निश्चय रत्नत्रय की भावना से उत्पन्न परम आह्लादरूप सुखामृत रस का आस्वादन ही उपादेय है, इन्द्रियजन्य सुख आदिक हेय हैं, ऐसी रुचि तथा जो वीतराग चारित्र के बिना नहीं होता ऐसा जो वीतराग सम्यक्त्व वह ही निश्चय सम्यक्त्व है। (द्र.सं./टी./22/67/1); (द्र.सं./टी./45/194/10); (प.प्र./2/17/132/7)।
4. वीतराग सुखस्वभाव ही मैं हूँ, ऐसा निश्चय
द्र.सं./टी./40/163/10 रागादिविकल्पोपाधिरहितचिच्चमत्कारभावोत्पन्नमधुररसास्वादसुखोऽहमिति निश्चयरूपं सम्यग्दर्शनम् । =‘रागादि विकल्प रहित चित् चमत्कार भावना से उत्पन्न मधुर रस के आस्वादरूप सुख का धारक मैं हूँ’, इस प्रकार निश्चय रूप सम्यग्दर्शन है।
5. शुद्धात्मा की उपलब्धि आदि
स.सा./मू./144 सम्मद्दंसणाणं एसो लहदित्ति णवरि ववदेसं। सव्वणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो।144। =जो सर्व नय पक्षों से रहित कहा गया है वह समयसार है। इसी समयसार की सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान संज्ञा है।144। (और भी देखें मोक्षमार्ग - 3)।
पं.ध./उ./215 न स्यादात्मोपलब्धिर्वा सम्यग्दर्शनलक्षणम् । शुद्धा चेदस्ति सम्यक्त्वं न चेच्छुद्धा न सा सुदृक् । =केवल आत्मा की उपलब्धि सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं है। यदि वह शुद्ध है तो उसका लक्षण हो सकती है और यदि अशुद्ध है तो नहीं।
4. लक्षण में तत्त्व व अर्थ दोनों शब्द क्यों
स.सि./1/2/9/7 अर्थश्रद्धानमिति चेत्सर्वार्थप्रसङ्गा:। तत्त्वश्रद्धानमिति चेद्भावमात्रप्रसङ्गे ‘सत्ताद्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादि तत्त्वम्’ इति कैश्चित्कल्प्यत इति। तत्त्वमेकत्वमिति वा सर्वैक्यग्रहणप्रसङ्ग:। ‘पुरुष एवेदं सर्वम्’ इत्यादि कैश्चित्कल्प्यत इति। एवं सति दृष्टेष्टविरोध:। तस्मादव्यभिचारार्थमुभयोरुपादानम् । =प्रश्न - सूत्र में ‘तत्त्वार्थश्रद्धान’ के स्थान में ‘अर्थश्रद्धानम्’ इतना कहना पर्याप्त है? उत्तर - इससे अर्थ शब्द के धन प्रयोजन अभिधेय आदि जितने भी अर्थ हैं उन सबके ग्रहण का प्रसंग आता है। प्रश्न - तब ‘तत्त्वश्रद्धानम्’ केवल इतना ही कहना चाहिए ? उत्तर - इससे केवल भाव मात्र के ग्रहण का प्रसंग प्राप्त होता है। कितने ही लोग (वैशेषिक) तत्त्व पद से सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व और कर्मत्व इत्यादि का ग्रहण करते हैं। केवल ‘तत्त्वश्रद्धानम्’ ऐसा कहने पर इन सबका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। अथवा तत्त्व शब्द एकत्ववाची है, इसलिए केवल ‘तत्त्व’ शब्द का ग्रहण करने से ‘सब एक है’ इस प्रकार के स्वीकार का प्रसंग आता है। ‘यह सब दृश्य व अदृश्यजगत्पुरुषस्वरूप ही है’ ऐसा किन्हीं ने माना है। इसलिए भी केवल ‘तत्त्वश्रद्धान’ कहना युक्त नहीं। क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष व अनुमान दोनों से विरोध आता है। अत: इन सब दोषों के दूर करने के लिए सूत्र में ‘तत्त्व’ और ‘अर्थ’ इन दोनों पदों का ग्रहण किया है। (रा.वा./1/2/17-25/20-21); (श्लो.वा./2/1/2/3-4/16/4)।
5. व्यवहार लक्षणों का समन्वय
ध.1/1,1,4/151/2 प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सम्यक्त्वम् । सत्येव असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्याभाव:स्यादिति चेत्सत्यमेतत् शुद्धनये समाश्रीयमाणे। अथवा तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । अस्य गमनिकोच्यते, आप्तागमपदार्थस्तत्त्वार्थस्तेषु श्रद्धानमनुरक्तता सम्यग्दर्शनमिति लक्ष्यनिर्देश:। कथं पौरस्त्येन लक्षणेनास्य न विरोधश्चेन्नैष दोष:, शुद्धाशुद्धसमाश्रयणात् । अथवा तत्त्वरुचि: सम्यक्त्वम् अशुद्धतरनयसमाश्रयणात् । =1. प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य की प्रकटता ही जिसका लक्षण है उसको सम्यक्त्व कहते हैं। (देखें सराग सम्यग्दर्शन का लक्षण )। प्रश्न - इस प्रकार सम्यक्त्व का लक्षण मान लेने पर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान का अभाव हो जायेगा? उत्तर - यह कहना शुद्धनिश्चयनय के आश्रय करने पर ही सत्य कहा जा सकता है। 2. अथवा, तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि आप्त, आगम और पदार्थ को तत्त्वार्थ कहते हैं। और इनके विषय में श्रद्धान अर्थात् अनुरक्ति करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं। यहाँ पर सम्यग्दर्शन लक्ष्य है, तथा आप्त आगम और पदार्थ का श्रद्धान लक्षण है। प्रश्न - पहिले कहे हुए (प्रशमादि की अभिव्यक्तिरूप) सम्यक्त्व के लक्षण के साथ इस लक्षण का विरोध क्यों न माना जाय? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि शुद्ध और अशुद्ध नय की अपेक्षा से ये दोनों लक्षण कहे गये हैं। अर्थात् पूर्वोक्त लक्षण शुद्ध नय की अपेक्षा से है और यह तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप लक्षण अशुद्ध नय की अपेक्षा से है। 3. अथवा तत्त्वरुचि को सम्यक्त्व कहते हैं। यह लक्षण अशुद्धतर नय की अपेक्षा जानना चाहिए।
6. निश्चय लक्षणों का समन्वय
प.प्र./टी./2/17/132/8 अत्राह प्रभाकरभट्ट:। निजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वं भवतीति बहुधा व्याख्यातं पूर्वं भवद्भि:, इदानीं पुन: वीतरागचारित्राविनाभूतं निश्चयसम्यक्त्वं व्याख्यातमिति पूर्वापरविरोध: कस्मादिति चेत् निजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपम् निश्चयसम्यक्त्वं गृहस्थावस्थायां तीर्थंकरपरमदेवभरतसगररामपाण्डवादीनां विद्यते, न च तेषां वीतरागचारित्रमस्तीति परस्परविरोध: अस्ति चेत्तर्हि तेषामसंयतत्त्वं कथमिति पूर्वपक्ष:। तत्र परिहारमाह। तेषां शुद्धात्मोपादेयभावनारूपम् निश्चयसम्यक्त्वं विद्यते परं किंतु चारित्रमोहोदयेन स्थिरता नास्ति व्रतप्रतिज्ञाभङ्गो भवतीति तेन कारणेनासंयता वा भण्यन्ते। शुद्धात्मभावनाच्युता: सन्त: भरतादयो... शुभरागयोगात् सरागसम्यग्दृष्टयो भवन्ति। या पुनस्तेषां सम्यक्त्वस्य निश्चयसम्यक्त्वसंज्ञा वीतरागचारित्राविनाभूतस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य परंपरया साधकत्वादिति। वस्तुवृत्त्या तु तत्सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वाख्यं व्यवहारसम्यक्त्वमेवेति भावार्थ:। =प्रश्न - ‘निज शुद्धात्मा ही उपादेय है’ ऐसी रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व होता है, ऐसा पहिले कई बार आपने कहा है, और अब ‘वीतराग चारित्र का अविनाभूत निश्चय सम्यक्त्व है’ ऐसा कह रहे हैं। दोनों पर पूर्वापर विरोध है। वह ऐसे कि ‘निज शुद्धात्मतत्त्व ही उपादेय है’ ऐसी रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व गृहस्थावस्था में तीर्थंकर परमदेव तथा भरत, सगर, राम, पाण्डव आदि को रहता है परन्तु उनको वीतराग चारित्र नहीं होता, इसलिए परस्पर विरोध है। यदि ‘होता है’ ऐसा मानें तो उनके असंयतपना कैसे हो सकता है ? उत्तर - उनके शुद्धात्मा की उपादेयता की भावनारूप निश्चय सम्यक्त्व रहता है, किन्तु चारित्रमोह के उदय के कारण स्थिरता नहीं है, व्रत की प्रतिज्ञा भंग हो जाती है, इस कारण उनको असंयत कहा जाता है। शुद्धात्मभावना से च्युत होकर शुभराग के योग से वे सराग सम्यग्दृष्टि होते हैं। उनके सम्यक्त्व को जो सम्यक्त्व कहा गया है, उसका कारण यह है कि वह वीतराग चारित्र के अविनाभूत निश्चयसम्यक्त्व का परम्परा साधक है। वस्तुत: तो वह सम्यक्त्व भी सरागसम्यक्त्व नाम वाला व्यवहार सम्यक्त्व ही है।
7. व्यवहार व निश्चय लक्षणों का समन्वय
मो.मा.प्र./9/पृष्ठ/पंक्ति =प्रश्न - सात तत्त्वों के श्रद्धान का नियम कहो हो सो बने नाहीं। जातैं कहीं परतै भिन्न आपका श्रद्धान ही कौं सम्यक्त्व कहैं हैं...कहीं एक आत्मा के निश्चय ही कौं सम्यक्त्व कहैं हैं। ...तातैं जीव अजीव ही का वा केवल जीव ही का श्रद्धान भए सम्यक्त्व हो है।577/18। उत्तर - 1. परतैं भिन्न आपका श्रद्धान हो है सो आस्रवादिका श्रद्धानकरि रहित हो है कि सहित हो है। जो रहित हो है, तौ मोक्ष का श्रद्धान बिना किस प्रयोजन के अर्थि ऐसा उपाय करै है। ...तातै आस्रवादिक का श्रद्धान रहित आपापर का श्रद्धान करना सम्भवै नाहीं। बहुरि जो आस्रवादि का श्रद्धान सहित हो है, तौ स्वयमेव सातौं तत्त्वनि के श्रद्धान का नियम भया।(478/8)। 2. बहुरि केवल आत्मा का निश्चय है, सो पर का पररूप श्रद्धान भए बिना आत्मा का श्रद्धान न होय तातै अजीव का श्रद्धान भए ही जीव का श्रद्धान होय।...तातैं यहाँ भी सातौं तत्त्वनि के ही श्रद्धान का नियम जानना। बहुरि आस्रवादिक का श्रद्धान बिना आपापर का श्रद्धान वा केवल आत्मा का श्रद्धान साँचा होता नाहीं। जातै आत्मा द्रव्य है, सो तौ शुद्ध अशुद्ध पर्याय लिये है। ...सो शुद्ध अशुद्ध अवस्था की पहिचान आस्रवादिक की पहिचानतैं हो है। (478/15)। =प्रश्न - 3. जो ऐसे हैं, तौ शास्त्रनिविषैं ... नव तत्त्व की सन्तति छोड़ि हमारे एक आत्मा ही होहु, ऐसी कह्या। सो कैसें कह्या ? (स.सा./आ./12/क 6) उत्तर - जाकौ साचा आपापर का श्रद्धान होय, ताकौ सातौं तत्त्वनि का श्रद्धान होय ही होय, बहुरि जाकै साँचा सात तत्त्वनि का श्रद्धान होय, ताकै आपापर का वा आत्मा का श्रद्धान होय ही होय। ऐसा परस्पर अविनाभावीपन जानि आपापर का श्रद्धानकौं या आत्मश्रद्धान होनकौं सम्यक्त्व कह्या है। (479/15)। प्रश्न - 4. जो कहीं शास्त्रनिविषैं अर्हंत देव निर्ग्रन्थ गुरु हिंसारहित धर्म का श्रद्धानकौं सम्यक्त्व कह्या है, सो कैसें है (480/22)? उत्तर - 1. अर्हंत देवादिक का श्रद्धान होनेतैं वा कुदेवादिक का श्रद्धान दूर होने करि गृहीत मिथ्यात्व का अभाव हो है, तिस अपेक्षा याकौं सम्यक्त्वी कह्या है। सर्वथा सम्यक्त्व का लक्षण नाहीं। (481/2) 2. अर्हंतदेवादिक का श्रद्धान होतैं तौ सम्यक्त्व होय वा न होय, परन्तु अर्हंतादिक का श्रद्धान भए बिना तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व कदाचित् न होय। तातै अर्हंतादिक के श्रद्धानकौं अन्वयरूपकारण जानि कारणविषैं कार्य का उपचारकरि इस श्रद्धानकौं सम्यक्त्व कह्या है। याही तै याका नाम व्यवहार सम्यक्त्व है। 3. अथवा जाकै तत्त्वार्थ श्रद्धान होय, ताकै साँचा अर्हन्तादिक के स्वरूप का श्रद्धान होय ही होय। (481/10) ...जाकै साँचा अर्हंतादिक के स्वरूप का श्रद्धान होय ताकै तत्त्वार्थ श्रद्धान होय ही होय। जातैं अर्हन्तादिक का स्वरूप पहिचानें जीव अजीव आस्रव आदिक की पहिचानि हो है। ऐसे इनिकौ परस्पर अविनाभावी जानि, कहीं अर्हंतादिक के श्रद्धानकौं सम्यक्त्व कह्या है। (481/15)। प्रश्न - 5. जो केई जीव अर्हंतादिक का श्रद्धान करैं हैं तिनिके गुण पहिचानैं हैं अर उनकै तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यक्त्व न हो है। (482/17)? उत्तर - जातैं जीव अजीव की जाति पहिचानें बिना अरहन्तादिक के आत्माश्रित गुणनिकौं वा शरीराश्रित गुणनिकौं भिन्न-भिन्न न जानैं। जो जानैं तौ अपने आत्माकौं परद्रव्यतै भिन्न कैसैं न मानैं ? (483/2) प्रश्न - 6. अन्य-अन्य प्रकार लक्षण करने का प्रयोजन कह्या (483/21)? उत्तर - साँची दृष्टिकरि एक लक्षण ग्रहण किये चारयों लक्षण का ग्रहण हो है। तथापि मुख्य प्रयोजन जुदा-जुदा विचारि अन्य-अन्य प्रकार लक्षण कहे हैं। 1. जहाँ तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण कह्या है, तहाँ तौ यहू प्रयोजन है, जो इनि तत्त्वनिकौं पहिचानैं, तौं यथार्थ वस्तु के स्वरूप वा अपने हित अहित का श्रद्धान करौं तब मोक्षमार्गविषैं प्रवर्त्तै। (484/1) 2. आपापर का भिन्न श्रद्धान भए परद्रव्यविषै रागादि न करने का श्रद्धान हो है। ऐसैं तत्त्वार्थश्रद्धान का प्रयोजन आपापर का भिन्न श्रद्धानतै सिद्ध होता जानि इस लक्षण लक्षणकौं कहा है। (484/10)। 3. बहुरि जहाँ आतमश्रद्धान लक्षण कह्या है तहाँ आपापर का भिन्न श्रद्धान का प्रयोजन इतना ही है - आपकौ आप जानना। आपकौ आप जानैं पर का भी विकल्प कार्यकारी नाहीं। ऐसा मूलभूत प्रयोजन की प्रधानता जानि आत्मश्रद्धानकौं मुख्य लक्षण कह्या है। (484/13) 4. बहुरि जहाँ देवगुरुधर्म का श्रद्धान लक्षण कह्या है, तहाँ बाह्य साधन की प्रधानता करी है। जातैं अर्हन्तादिक का श्रद्धान साँचा तत्त्वार्थश्रद्धानकौं कारण है। ...ऐसे जुदे-जुदे प्रयोजन की मुख्यता करि जुदे-जुदे लक्षण कहे हैं। (484/17)।
2. निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन की कथंचित् मुख्यता गौणता
1. स्वभाव भान बिना सम्यक्त्व नहीं
न.च.वृ./182 जे णयदिट्ठिविहीणा ताण ण वत्थूसहावउवलद्धी। वत्थुसहावविहूणा सम्माइट्ठी कहं हुंति।182। =जो नयदृष्टिविहीन हैं उनके वस्तुस्वभाव की उपलब्धि नहीं होती है। और वस्तुस्वभाव से विहीन सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं।
मो.मा.प्र./7/329/12 वस्तु के भाव का नाम तत्त्व कह्या। सो भाव भासैं बिना तत्त्वार्थ श्रद्धान कैसैं होय 1
2. आत्मानुभवी को ही आठों अंग होते हैं
का.अ./मू./424 जो ण कुणदि परतत्तिं पुणु पुणु भावेदि सुद्धमप्पाणं। इंदियसुहणिरवेक्खो णिस्संकाई गुणा तस्स। =जो पुरुष परायी निन्दा नहीं करता और बारम्बार शुद्धात्मा को भाता है, तथा इन्द्रिय सुख की इच्छा नहीं करता, उसके नि:शंकित आदि गुण होते हैं।
3. आठों अंगों में निश्चय अंग ही प्रधान हैं
पं.ध./उ./श्लो.सं.तद् द्विधाथ वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात् । प्रधानं स्वात्मसंबन्धिगुणो यावत्परात्मनि।809। पूर्ववत्सोऽपि द्विविध: स्वान्यात्मभेदत: पुन:। तत्राद्यो वरमादेय: समादेय: परोऽभ्यत:।814। =वह वात्सल्य अंग भी स्व और पर के विषय के भेद से दो प्रकार का है, उनमें से स्वात्मसम्बन्धी प्रधान है तथा परात्मसम्बन्धी गौण है।809। वह प्रभावना अंग भी वात्सल्य की तरह स्व व पर के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से पहला प्रधान रीति से आदेय है तथा दूसरी जो परप्रभावना है वह गौणरूप से उपादेय है।814।
द.पा./पं.जयचन्द/2/7/24 ‘ते चिह्न कौन, सो लिखिए है - तहाँ मुख्य चिन्ह तौ यह है कि जो उपाधि रहित शुद्ध ज्ञानचेतनास्वरूप आत्मा की अनुभूति है, सो यद्यपि यह अनुभूति ज्ञान का विशेष है (देखें सम्यग्दर्शन - I.4/1) तथापि सम्यक्त्व भये यह होय है, तातै याकूं बाह्य चिह्न कहिए है।’
4. श्रद्धान आदि सब आत्मा के परिणाम हैं
रा.वा./1/2/9/19/30 स्यादेतत्-वक्ष्यमाणनिर्देशादिसूत्रविवरणात् पुद्गलद्रव्यस्य संप्रत्यय: प्राप्तनोति; तन्न; किं कारणम् । आत्मपरिणामेऽपि तदुपपत्ते:। किं तत्त्वार्थश्रद्धानम् । आत्मपरिणाम:। कस्य। आत्मन इत्येवमादि। =मोहनीय कर्म की प्रकृतियों में भी सम्यक्त्व नाम की कर्मप्रकृति है और ‘निर्देश स्वामित्व‘ आदि सूत्र के विवरण से भी ज्ञात होता है कि यहाँ सम्यक्त्व कर्मप्रकृति का सम्यग्दर्शन से ग्रहण है अत: सम्यक्त्व को कर्म पुद्गलरूप मानना चाहिए ? उत्तर - यहाँ मोक्ष के कारणों का प्रकरण है, अत: उपादानभूत आत्मपरिणाम ही विवक्षित है। (द्र.सं./मू./41)
देखें भाव - 2.3 औपशमिकादि सम्यग्दर्शन भी सीधे आत्मपरिणाम स्वरूप है कर्मों की पर्यायरूप नहीं।
5. निश्चय सम्यक्त्व की महिमा
पं.वि./4/23 तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता। निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम् ।23। =उस आत्मतेज के प्रति मन में प्रेम को धारण करके जिसने उसकी बात भी सुनी है, वह निश्चय से भव्य है, व भविष्य में प्राप्त होने वाली मुक्ति का पात्र है।
6. श्रद्धान मात्र सम्यग्दर्शन नहीं है
रा.वा./1/2/26-28/21/29 इच्छाश्रद्धानमित्यपरे।26। तदयुक्तम् मिथ्यादृष्टेरपि प्रसङ्गात् ।27। केवलिनि सम्यक्त्वाभावप्रसंगाच्च।28। =कोई वादी इच्छापूर्वक श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं।26। उनका यह मत ठीक नहीं हैं, क्योंकि मिथ्यादृष्टि (जैन शास्त्रों को पढ़कर) वैसा श्रद्धान तो कर लेते हैं।27। दूसरी बात यह है कि ऐसा मानने से केवली भगवान् में सम्यक्त्व का अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि, उनमें इच्छा का अभाव है।28।
श्लो.वा.2/1/2/2/3/3 दृशेश्चालोचने स्थिति: प्रसिद्धा, दृशिन् प्रेक्षणे इति वचनात् । तत्र सम्यक् पश्यत्नयेननेत्यादिकरणसाधनत्वादित्यवस्थायां दर्शनशब्दनिरुक्तेरिष्टलक्षणं सम्यग्दर्शनं न लभ्यत एव तत: प्रशस्तालोचनमात्रस्य लब्धे:। न च तदेवेष्टमतिव्यापित्वादभव्यस्य मिथ्यादृष्टे: प्रशस्तालोचनस्य सम्यग्दर्शनप्रसंगात् । =प्रश्न - दृश धातु की ‘सामान्य से देखना’ ऐसी व्युत्पत्ति जगत् प्रसिद्ध है। वहाँ ‘सम्यक् देखता है जिसके द्वारा’ ऐसा करण प्रत्यय करने पर जो इष्ट लक्षण प्राप्त होता है वह आप स्याद्वादियों के यहाँ प्राप्त नहीं होता है। भले प्रकार देखना ऐसा भाव साधनरूप अर्थ भी नहीं मिलता है ? उत्तर - ऐसा अर्थ हम इष्ट नहीं कर सकते, क्योंकि इसमें अतिव्याप्ति दोष होगा। मिथ्यादृष्टि अभव्य के प्रशस्त देखना होने के कारण सम्यग्दर्शन हो जाने का प्रसंग हो जायेगा।
पं.ध./उ./414 व्यस्ताश्चैते समस्ता वा सद्दृष्टेर्लक्षणं न वा। सपक्षे वा विपक्षे वा सन्ति यद्वा न सन्ति वा।414। =श्रद्धा, रुचि, प्रतीति और चरण, ये चारों पृथक्-पृथक् अथवा समस्तरूप से भी सम्यग्दर्शन के वास्तविक लक्षण नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, सपक्ष और विपक्ष दोनों ही अवस्थाओं में होते हुए भी हैं और नहीं भी होते हैं। रहस्यपूर्ण चिट्ठी पं.टोडरमल/मो.मा.प्र./506/6 जो आपापर का यथार्थ श्रद्धान नाहीं है, अर जिनमत विषैं कहे जे देव, गुरु, धर्म तिनि ही कूं मानें है, अन्य मत विषैं कहे देवादि वा तत्त्वादि तिनिको नाहीं माने है, तो ऐसे केवल व्यवहार सम्यक्त्व करि सम्यक्त्वी नाम पावै नाहीं।
7. मिथ्यादृष्टि की श्रद्धा आदि यथार्थ नहीं
देखें श्रद्धान /3/6 [एक बार का ग्रहण किया हुआ पक्ष, मिथ्यादृष्टि जीव, सम्यक् उपदेश मिलने पर भी नहीं छोड़ता। उसी की हठ पकड़े रहता है।]
पं.ध./उ./418 अर्थाच्छ्रद्धादय: सम्यग्दृष्टिश्रद्धादयो यत:। मिथ्या श्रद्धादयो मिथ्या नार्थाच्छ्रद्धादयो तत:। =क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव के श्रद्धादिक वास्तव में श्रद्धा आदिक है और मिथ्यादृष्टि के श्रद्धा आदिक मिथ्या है, इसलिए मिथ्यादृष्टि के श्रद्धा आदिक वास्तविक नहीं है।418।
देखें मिथ्यादृष्टि - 2.2 व 4/1 [मिथ्यादृष्टि व्यक्ति यद्यपि प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य आदि सभी अंगों का पालन करता है, परन्तु उसके वे सब अंग मिथ्या हैं, क्योंकि, वे सब भोग के निमित्त ही होते हैं मोक्ष के निमित्त नहीं।] मो.मा.प्र./7/330/19 व्यवहारावलम्बी की तत्त्वश्रद्धा ऐसी होती है, कि] शास्त्र के अनुसारि जानितौ ले है। परन्तु आपकौं आप जानि पर का अंश भी न मिलावना अर आपका अंश भी पर विषै न मिलावना, ऐसा सांचा श्रद्धान नाहीं करै है।
3. निश्चय व्यवहार सम्यक्त्व समन्वय
1. नव तत्त्वों की श्रद्धा का अर्थ शुद्धात्म की श्रद्धा ही है
स.सा./मू. व आ./13 भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीव य पुण्णपावं च। आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं।13। नवतत्त्वेष्वेकत्वद्योतिना भूतार्थनयेनैकत्वमुपानीय शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापितस्यात्मनोऽनुभूतेरात्मख्यातिलक्षणाया: संपद्यमानत्वात् । =भूतार्थनय से ज्ञात जीव, अजीव और पुण्य, पाप तथा आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नव तत्त्व सम्यक्त्व हैं।13। क्योंकि, नव तत्त्वों में एकत्व प्रकट करने वाले भूतार्थ नय से एकत्व प्राप्त करके, शुद्धनयरूप से स्थापित आत्मा की अनुभूति - जिसका लक्षण आत्मख्याति है, वह प्राप्त होती है। (पं.ध./उ./186)
स.सा./आ./13/क 8 चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं, कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे। अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकरूपं, प्रतिपदमिदमात्मज्योतितिरुद्योतमानम् ।8। =इस प्रकार नवतत्त्वों में (अनेक पर्यायों में) बहुत समय से छिपी हुई यह आत्मज्योति शुद्धनय से बाहर निकालकर प्रकट की गयी है, जैसे वर्णों के समूह में छिपे हुए एकाकार स्वर्ण को बाहर निकालते हैं। इसलिए अब हे भव्यो ! इसे सदा अन्य द्रव्यों से तथा उनसे होने वाले (राग आदिक) नैमित्तिक भावों से भिन्न, एकरूप देखो। यह (ज्योति), पद-पद पर अर्थात् प्रत्येक पर्याय में एकरूप चिच्चमत्कारमात्र उद्योतमान है।
स.सा./ता.वृ./13/31/12 नवपदार्था: भूतार्थेन ज्ञाता: सन्त: सम्यक्त्वं भवन्तीत्युक्तं भवद्भिस्तत्कीदृशं भूतार्थपरिज्ञानमिति पृष्टे प्रत्युत्तरमाह। यद्यपि नवपदार्था: तीर्थवर्तनानिमित्तं प्राथमिकशिष्यापेक्षया भूतार्था भण्यन्ते तथाप्यभेदरत्नत्रयलक्षणनिर्विकल्पसमाधिकाले अभूतार्था असत्यार्था शुद्धात्मस्वरूपं न भवन्ति। तस्मिन् परमसमाधिकाले नवपदार्थमध्ये शुद्धनिश्चयनयेनैक एव शुद्धात्मा प्रद्योतते प्रकाशते प्रतीयते अनुभूयत इति। =प्रश्न - नव पदार्थ यदि भूतार्थरूप से जाने गये हों तो सम्यग्दर्शन रूप होते हैं ऐसा आपने कहा है। वह भूतार्थ परिज्ञान कैसा है? उत्तर - यद्यपि तीर्थप्रवृत्ति के निमित्त प्राथमिक शिष्य की अपेक्षा से नवपदार्थ भूतार्थ कहे जाते हैं, (देखें नय - V.8.4) तथापि अभेद रत्नत्रयरूप निर्विकल्प समाधिकाल में वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं, क्योंकि वे शुद्धात्मस्वरूप नहीं हैं। उस परम समाधि के काल में इन नवपदार्थों में से शुद्धनिश्चयनय से एक शुद्धात्मा ही अर्थात् नित्य निरंजन चित्स्वभाव ही द्योतित होता है, प्रकाशित होता है, प्रतीति में आता है, अनुभव किया जाता है। (और भी देखें तत्त्व - 3.4); (स.सा./ता.वृ./96/154/9)
देखें अनुभव /3/3 [आत्मानुभव सहित ही तत्त्वों की श्रद्धा या प्रतीति सम्यग्दर्शन का लक्षण है, बिना आत्मानुभव के नहीं।]
2. व्यवहार सम्यक्त्व निश्चय का साधक है
द्र.सं./टी./41/178/4 अत्र व्यवहारसम्यक्त्वमध्ये निश्चयसम्यक्त्वं किमर्थं व्याख्यातमिति चेद् व्यवहारसम्यक्त्वेन निश्चयसम्यक्त्वं साध्यत इति साध्यसाधकभावज्ञापनार्थमिति। =प्रश्न - यहाँ इस व्यवहार सम्यक्त्व के व्याख्यान में निश्चय सम्यक्त्व का वर्णन क्यों किया ? उत्तर - व्यवहार सम्यक्त्व से निश्चय सम्यक्त्व सिद्ध किया जाता है, इस साध्य-साधक भाव को बतलाने के लिए किया गया है।
पं.का./ता.वृ./107/170/8 इदं तु नवपदार्थविषयभूतं व्यवहारसम्यक्त्वं। किं विशिष्टम् । शुद्धजीवास्तिकायरुचिरूपस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य छद्मस्थावस्थामात्मविषयस्वसंवेदनज्ञानस्य परम्परया बीजम् । =यह जो नवपदार्थ का विषयभूत व्यवहार सम्यक्त्व है, वह शुद्ध जीवास्तिकाय की रुचिरूप जो निश्चय सम्यक्त्व है उसका तथा छद्मस्थ अवस्था में आत्मविषयक स्वसंवेदन ज्ञान का परम्परा से बीज है।
3. तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यक्त्व कहने का कारण व प्रयोजन
यो.सा./अ./1/2-4 जीवाजीवद्वयं त्यक्त्वा नापरं विद्यते यत:। तल्लक्षणं ततो ज्ञेयं स्वस्वभावबुभुत्सया।2। यो जीवाजीवयोर्वेति स्वरूपं परमार्थत:। सोऽजीवपरिहारेण जीवतत्त्वे निलीयते।3। जीवतत्त्वविलीनस्य रागद्वेषपरिक्षय:। तत: कर्माश्रयच्छेदस्ततो निर्वाणसंगम:।4। =संसार में जीव व अजीव इन दोनों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इसलिए अपने स्वरूपज्ञान की अभिलाषा से इन दोनों के लक्षण जानना चाहिए।2। जो परमार्थ से इनके स्वरूप को जान जाता है वह अजीव को छोड़कर जीव तत्त्व में लय हो जाता है। उससे रागद्वेष का क्षय और इससे मोक्ष की प्राप्ति होती है।2-4।
स.सा./ता.वृ./176/355/8 जीवादिनवपदार्थ: श्रद्धानविषय: सम्यक्त्वाश्रयत्वान्निमित्तत्वाद् व्यवहारेण सम्यक्त्वं भवति। =जीवादि नव पदार्थ श्रद्धान के विषय हैं। वे सम्यक्त्व के आश्रय या निमित्त होने के कारण व्यवहार से सम्यक्त्व कहे जाते हैं। (मो.मा.प्र./9/489/19)
प.प्र./टी./2/13/127/2 तत्त्वार्थश्रद्धानापेक्षया चलमलिनावगाढ़परिहारेण शुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपेण निश्चिनोति। =तत्त्वार्थश्रद्धान की अपेक्षा चलमलिन अवगाढ इन दोषों के परिहार द्वारा ‘शुद्धात्मा ही उपादेय है’ ऐसी रुचिरूप से निश्चय करता है।
4. सम्यक्त्व के अंगों को सम्यक्त्व कहने का कारण
मो.मा.प्र./8/401/15 निश्चय सम्यक्त्व का तौ व्यवहारविषै उपचार किया, बहुरि व्यवहार सम्यक्त्व के कोई एक अंगविषै सम्पूर्ण व्यवहार सम्यक्त्व का उपचार किया, ऐसे उपचारकरि सम्यक्त्व भया कहिए।’
रा.वा./हिं./1/2/24 यह (प्रशम संवेगादि) चार चिह्न सम्यग्दर्शन को जनावै हैं, तातै सम्यग्दर्शन के कार्य हैं। तातै कार्य करि कारण का अनुमान हो है।
4. सराग वीतराग सम्यग्दर्शन निर्देश
1. सराग वीतराग रूप भेद व लक्षण
स.सि./1/2/10/2 तद् द्विविधं, सरागवीतरागविषयभेदात् ।’’ प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याद्यभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम् । आत्मविशुद्धिमात्रमितरत् । =सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है - सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति लक्षण वाला सराग सम्यग्दर्शन है और आत्मा की विशुद्धि मात्र वीतराग सम्यग्दर्शन है। (रा.वा./1/2/29-31/22/6); (श्लो.वा.2/1/2/श्लो.12/29); (अन.ध./2/51/178); (गो.जी./जी.प्र./561/1006/15 पर उद्धृत); (और भी देखें आगे शीर्षक नं - 2)।
रा.वा./1/2/31/22/11 सप्तानां कर्मप्रकृतीनाम् आत्यन्तिकेऽपगमे सत्यात्मविशुद्धिमात्रमितरद् वीतरागसम्यक्त्वमित्युच्यते। =(दर्शनमोहनीय की) सातों प्रकृतियों का आत्यन्तिक क्षय हो जाने पर जो आत्म विशुद्धिमात्र प्रकट होती है वह वीतराग सम्यक्त्व है।
भ.आ./वि./51/175/18,21 इह द्विविधं सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वं वीतरागसम्यक्त्वं चेति। ...तत्र प्रशस्तरागसहितानां श्रद्धानं सरागसम्यग्दर्शनम् । रागद्वयरहितानां क्षीणमोहावरणानां वीतरागसम्यग्दर्शनम् । =सम्यक्त्व दो प्रकार का है - सरागसम्यक्त्व और वीतराग सम्यक्त्व। तहाँ प्रशस्तराग सहित जीवों का सम्यक्त्व सराग सम्यक्त्व है, और प्रशस्त व अप्रशस्त दोनों प्रकार के राग से रहित क्षीणमोह वीतरागियों का सम्यक्त्व वीतराग सम्यक्त्व है।
अ.ग.श्रा./2/65-66 वीतरागं सरागं च सम्यक्त्वं कथितं द्विधा। विरागं क्षायिकं तत्र सरागमपराद्वयम् ।65। संवेगप्रशमास्तिक्यकारुण्यव्यक्तलक्षणम् । सरागं पटुभिर्ज्ञेयमुपेक्षालक्षणं परम् ।66। =वीतराग और सराग के भेद से सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है। तहाँ क्षायिक सम्यक्त्व वीतराग है और शेष दो अर्थात् औपशमिक व क्षायोपशमिक सराग है।65। प्रशम, संवेग, आस्तिक और अनुकम्पा इन प्रगट लक्षणों वाला सराग सम्यक्त्व जानना चाहिए। उपेक्षा अर्थात् वीतरागता लक्षण वाला वीतराग सम्यक्त्व है।
स.सा./ता.वृ./97/125/13 सरागसम्यग्दृष्टि: सन्नशुभकर्मकर्तृत्वं मुञ्चति। निश्चयचारित्राविनाभाविवीतरागसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा शुभाशुभसर्वकर्मकर्तृत्वं च मुञ्चति। =सरागसम्यग्दृष्टि केवल अशुभ कर्म के कर्तापने को छोड़ता है (शुभकर्म के कर्तापने को नहीं), जबकि निश्चय चारित्र के अविनाभूत वीतराग सम्यग्दृष्टि होकर वह शुभ और अशुभ सर्व प्रकार के कर्मों के कर्तापने को छोड़ देता है।
द्र.सं./टी./41/168/2 त्रिगुप्तावस्थालक्षणवीतरागसम्यक्त्वप्रस्तावे। =त्रिगुप्तिरूप अवस्था ही वीरागसम्यक्त्व का लक्षण है।
2. व्यवहार व निश्चय सम्यक्त्व के साथ इन दोनों की एकार्थता
द्र.सं./टी./41/177/12 शुद्धजीवादितत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सरागसम्यक्त्वाभिधानं व्यवहारसम्यक्त्वं विज्ञेयम् ।...वीतरागचारित्राविनाभूतं वीतरागसम्यक्त्वाभिधानं निश्चयसम्यक्त्वं च ज्ञातव्यमिति। =शुद्ध जीव आदि तत्त्वार्थों का श्रद्धानरूप सरागसम्यक्त्व व्यवहार जानना चाहिए और वीतराग चारित्र के बिना नहीं होने वाला वीतराग सम्यक्त्व नामक निश्चयसम्यक्त्व जानना चाहिए।
प.प्र./टी./2/17/132/5 प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सरागसम्यक्त्वं भण्यते। तदेव व्यवहारसम्यक्त्वमिति। ...वीतरागसम्यक्त्वं निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागचारित्राविनाभूतम् ।
तदेव निश्चयसम्यक्त्वमिति। =प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति सराग सम्यक्त्व का लक्षण है (देखें शीर्षक नं - 1)। वह ही व्यवहारसम्यक्त्व है। वीतराग सम्यक्त्व निजशुद्धात्मानुभूति लक्षण वाला है और वीतराग चारित्र के अविनाभावी है। वह ही निश्चय सम्यक्त्व है।
पं.का./ता.वृ./150-151/217/15 सप्तप्रकृतीनामुपशमेन क्षयोपशमेन च सरागसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा पञ्चपरमेष्ठिभक्तयादिरूपेण...। =सात प्रकृतियों के उपशम या क्षयोपशम से सरागसम्यग्दृष्टि होकर पंचपरमेष्ठी की भक्ति आदिरूप से (परिणमित होता है)।
देखें समय [पंचपरमेष्ठी आदि की भक्तिरूप परिणत होने के कारण सराग सम्यग्दृष्टि सूक्ष्म परसमय है]।
3. सराग व वीतराग सम्यक्त्व का स्वामित्व
भ.आ.वि./16/62/3 वीतरागसम्यक्त्वं नेह गृहीतम् । मोहप्रलयमन्तरेण वीतरागता नास्ति। =यहाँ वीतराग सम्यक्त्व का ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि मोह का क्षय हुए बिना वीतरागता नहीं होती। (देखें सम्यग्दर्शन - II/4/1)।
देखें सम्यग्दर्शन - II/4/1 (क्षायिक सम्यग्दृष्टि वीतराग सम्यग्दृष्टि है और औपशमिक व क्षायोपशमिक सराग सम्यग्दृष्टि हैं) देखें सम्यग्दर्शन - II/4/2/ - पं.का.)।
देखें सम्यग्दर्शन - II/4/2 (भक्ति आदि शुभ राग से परिणत सराग सम्यग्दृष्टि है और वीतरागचारित्र का अविनाभावी वीतराग सम्यग्दृष्टि है)।
देखें सम्यग्दर्शन - I.3.2.6 (चौथे से छठे गुणस्थान तक स्थूल सराग सम्यग्दृष्टि हैं, क्योंकि, उनकी पहिचान उनके काय आदि के व्यापार पर से होती है और सातवें से दसवें गुणस्थान तक सूक्ष्म सराग सम्यग्दृष्टि है, क्योंकि, उसकी पहिचान काय आदि के व्यापार पर से या प्रशम आदि गुणों पर से नहीं होती है। यहाँ अर्थापत्ति से बात जान ली जाती है कि वीतराग सम्यग्दृष्टि 11 वें से 14 वें गुणस्थान तक होते हैं। सकल मोह का अभाव हो जाने से वे ही वास्तव में वीतराग हैं या वीतराग चारित्र के धारक हैं)।
4. इन दोनों सम्यक्त्वों सम्बन्धी 25 दोषों के लक्षणों की विशेषता
द्र.सं./टी./41/166-169 का भावार्थ - [वीतराग सर्वज्ञ को देव न मानकर क्षेत्रपाल आदि को देव मानना देवमूढ़ता है। गङ्गादि तीर्थों में स्नान करना पुण्य है, ऐसा मानना लोकमूढ़ता है। वीतराग निर्ग्रन्थ गुरु को न मानकर लौकिक चमत्कार दिखाने वाले कुलिंगियों को गुरु मानना गुरुमूढ़ता है। विज्ञान ऐश्वर्य आदि का मद करना सो आठ मद हैं। कुदेव, कुगुरु, कुधर्म तथा इसके उपासक ये छह अनायतन हैं। व्यवहार नि:शंकितादि आठ अंगों से विपरीत आठ दोष हैं। ये 25 दोष हैं (विशेष देखें वह वह नाम )]।
द्र.सं./टी./41/पृष्ठ/पंक्ति - एवमुक्तलक्षणं मूढत्रयं सरागसम्यग्दृष्टयवस्थायां परिहरणीयमिति। त्रिगुप्तावस्थालक्षणवीतरागसम्यक्त्वप्रस्तावे पुनर्निजनिरञ्जननिर्दोषपरमात्मैव देव इति निश्चयबुद्धिर्देवमूढरहितत्वं विज्ञेयम् । तथैव च मिथ्यात्वरागादिरूपमूढभावत्यागेन स्वशुद्धात्मन्येवावस्थानं लोकमूढरहितत्वं विज्ञेयम् । तथैव च ...परसमरसीभावेन तस्मिन्नेव सम्यग्रूपेणायनं गमनं परिणमनं समयमूढरहितत्वं बोद्धव्यम् । (268/1)। ...मदाष्टकं सरागसम्यग्दृष्टिभिस्त्याज्यमिति। वीतरागसम्यग्दृष्टीनां पुनर्मानकषायादुत्पन्नमदमात्सर्यादिसमस्तविकल्पजालपरिहारेण ममकाराहंकाररहिते शुद्धात्मनि भावनैव मदाष्टत्याग इति। (168/9)। चेत्युक्तलक्षणमनायतनषट्कं सरागसम्यग्दृष्टीनां त्याज्यं भवतीति। वीतरागसम्यग्दृष्टीनां पुन: समस्तदोषायतनभूतानां मिथ्यात्वविषयकषायरूपायतनानां परिहारेण केवलज्ञानाद्यनन्तगुणायतनभूते स्वशुद्धात्मनि निवास एवानायतनसेवापरिहार इति। =इन उपरोक्त लक्षण वाली तीन मूढ़ताओं को सराग सम्यग्दृष्टि अवस्था में त्यागना चाहिए, और मन, वचन तथा काय की गुप्तिरूप अवस्था वाले वीतराग सम्यक्त्व के प्रस्ताव में 'अपना निरंजन तथा निर्दोष परमात्मा ही देव है' ऐसी जो निश्चय बुद्धि है वही देवमूढ़ता से रहितता जानना चाहिए। तथा मिथ्यात्व राग आदि रूप जो मूढ़ भाव हैं, इनका त्याग करने से निजशुद्ध आत्मा में स्थिति का करना वही लोकमूढ़ता से रहितता है। तथा परमसमता भाव से उसी निज शुद्धात्मा में ही जो सम्यक् प्रकार से अयन यानी गमन अथवा परिणमन है, उसको समयमूढ़ता का त्याग समझना चाहिए। उपरोक्त आठ मदों का सराग सम्यग्दृष्टियों का त्याग करना चाहिए। मान कषाय से उत्पन्न जो मद, मात्सर्य (ईर्ष्या) आदि समस्त विकल्पों के त्यागपूर्वक जो ममकार अहंकार से रहित शुद्ध आत्मा में भावना का करना है वही वीतराग सम्यग्दृष्टियों के आठ मदों का त्याग है। ये उपरोक्त छह अनायतन सराग सम्यग्दृष्टियों को त्यागने चाहिए। और जो वीतराग सम्यग्दृष्टि जीव हैं उनके सम्पूर्ण दोषों के स्थानभूत मिथ्यात्व, विषय तथा कषायरूप आयतनों के त्यागपूर्वक केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों के स्थानभूत निजशुद्ध आत्मा में जो निवास करना है, वही अनायतनों की सेवा का त्याग है।
5. दोनों में कथंचित् एकत्व
श्लो.वा./पु.2/1/2/3-4/16/28 तत्त्वविशेषणे त्वर्थे श्रद्धानस्य न किंचिदवद्यं दर्शनमोहरहितस्य पुरुषस्वरूपस्य वा 'तत्त्वार्थश्रद्धानम्' शब्देनाभिधानात् सरागवीतरागसम्यग्दर्शनयोस्तस्य सद्भावादव्याप्ते: स्फुटं विध्वंसनात् । =तत्त्व विशेषण लगाने से तत्त्व करके निर्णीत अर्थ का श्रद्धान करना रूप लक्षण अनवद्य है। क्योंकि, दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से रहित हो रहे आत्मा के 'तत्त्वार्थों का श्रद्धान करना' इस शब्द से कहा गया यह लक्षण, सराग और वीतराग दोनों ही सम्यग्दर्शनों में घटित हो जाता है। अत: अव्याप्ति दोष का सर्वथा नाश हो जाता है।
6. इन दोनों में तात्त्विक भेद मानना भूल है
पं.ध./उ./श्लो.नं. तत्रास्ति वीतरागस्य कस्यचिज्ज्ञानचेतना। सदृष्टेर्निर्विकल्पस्य नेतरस्य कदाचन।828। व्यावहारिकसदृष्टे: सविकल्पस्य रागिण:। प्रतीतिमात्रमेवास्ति कुत: स्यात् ज्ञानचेतना।829। इति प्रज्ञापराधेन ये वदन्ति दुराशया:। तेषां यावत् श्रुताभ्यास: कायक्लेशाय केवलम् ।830। वह्नेरौष्ण्यमिवात्मज्ञं पृथक्कर्त्तुंत्वमर्हसि। मा विभ्रमस्वदृष्ट्वापि चक्षुषाऽचक्षुषाशयो:।833। हेतो: परं प्रसिद्धैर्यै: स्थूललक्ष्यैरिति स्मृतम् । आप्रमत्तं च सम्यक्त्वं ज्ञानं वा सविकल्पम् ।913। ततस्तूर्ध्वं तु सम्यक्त्वं ज्ञानं वा निर्विकल्पकम् । शुक्लध्यानं तदेवास्ति तत्रास्ति ज्ञान चेतना।914। प्रमत्तानां विकल्पत्वान्न स्यात्सा शुद्धचेतना। अस्तीति वासनोन्मेष: केषांचित्स न सन्निह।915। यत: पराश्रितो दोषो गुणो वा नाश्रयेत्परम् । परो वा नाश्रयेद्दोषं गुणं चापि पराश्रितम् ।916। =1. उन दोनों में से एक वीतराग निर्विकल्प सम्यग्दृष्टि के ही ज्ञानचेतना होती है और दूसरे अर्थात् सविकल्प व सराग सम्यग्दृष्टि के वह नहीं होती है।828। किन्तु उस सविकल्प सरागी व्यवहार सम्यग्दृष्टि के केवल प्रतीति मात्र श्रद्धा होती है, इसलिए उसके ज्ञानचेतना कैसे हो सकती है?।829। बुद्धि के दोष से जो दुराशय लोग ऐसा कहते हैं, उनका जितना भी शास्त्राध्ययन है वह सब केवल शरीरक्लेश के लिए ही समझना चाहिए।830। भो आत्मज्ञ ! अग्नि की उष्णता के समान तुम्हें अपने स्वभाव को पृथक् करके देखना योग्य है। (स्वसंवेदन द्वारा उस वीतराग तत्त्व को) प्रत्यक्ष देखकर भी सराग रूप अदृष्ट की आशा से भ्रम में मत पड़ो।833। 2. केवल रागरूप हेतु से ही, प्रसिद्ध जिन स्थूल दृष्टिवाले आचार्यों ने सम्यक्त्व और ज्ञान को छठे गुणस्थान तक सविकल्प और इससे ऊपर के गुणस्थानों में निर्विकल्प कहकर उसे शुक्ल ध्यान माना है; तथा वहाँ ही शुद्ध ज्ञान चेतना मानते हुए नीचे के छठे गुणस्थान तक विकल्प का सद्भाव होने से ज्ञान चेतना का न होना माना है, ऐसे किन्हीं-किन्हीं के वासना का पक्ष होने के कारण वह ठीक नहीं है।913-915। क्योंकि जैसे अन्य के गुण-दोष अन्य के नहीं कहलाते उसी प्रकार अन्य के गुण दोष अन्य के गुण-दोषों का आश्रय भी नहीं करते। (अर्थात् चारित्र सम्बन्धी राग का दोष सम्यक्त्व में लगाना योग्य नहीं)।916।
7. सराग सम्यग्दृष्टि भी कथंचित् वीतराग हैं
देखें मिथ्यादृष्टि - 4.1 (सम्यग्दृष्टि सदा अपना काल वैराग्य भाव से गमाता है।)
देखें राग - 6.4 (सम्यग्दृष्टि को ज्ञान व वैराग्य की शक्ति अवश्य होती है)
देखें जिन - 3 (मिथ्यात्व तथा रागादि को जीत लेने के कारण असंयत सम्यग्दृष्टि भी एकदेश जिन कहलाता है।)
देखें संवर - 2 (सम्यग्दृष्टि जीव को प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति का अंश भी अवश्य रहता है।)
देखें उपयोग - II.3.2 (तहाँ उसे जितने अंश में राग वर्तता है उतने अंश में बन्ध है और जितने अंश में राग नहीं है उतने अंश में संवर निर्जरा है।)
8. सराग व वीतराग कहने का कारण प्रयोजन
पं.ध./उ./912 विमृश्यैतत्परं कैश्चिदसद्भूतोपचारत:। रागवज्ज्ञानमत्रास्ति सम्यक्त्वं तद्वदीरितम् ।912। (7-10 गुणस्थान तक अबुद्धिपूर्वक का सूक्ष्म राग होता है, जो इससे ऊपर के गुणस्थानों में नहीं होता - देखें राग - 3) केवल यही विचार करके किन्हीं आचार्यों ने असद्भूत उपचारनय से जिस प्रकार छठे गुणस्थान तक के ज्ञान को राग युक्त कहा है उसी प्रकार सम्यक्त्व को भी रागयुक्त कहा है।912। (देखें सम्यग्दर्शन - II/1/6)
देखें सम्यग्दर्शन - II/3/1 (विकल्पात्मक निचली भूमिकाओं में यद्यपि विषय कषाय वंचनार्थ नव पदार्थ भूतार्थ हैं पर समाधि काल में एकमात्र शुद्धात्म तत्त्व ही भूतार्थ है। ऐसा अभिप्राय है।) (और भी देखें नय - I.3.10)
III सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के निमित्त
1. सम्यक्त्व के अन्तरंग व बाह्य निमित्तों का निर्देश
1. निसर्गं व अधिगम आदि
नि.सा./मू./53 सम्मत्तस्य णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा।=सम्यग्दर्शन का निमित्त जिन सूत्र है, अथवा जिनसूत्र के जानने वाले पुरुष हैं।
त.सू./1/3 तन्निसर्गादधिगमाद्वा।3। =वह सम्यग्दर्शन निसर्ग से अर्थात् परिणाममात्र से और अधिगम से अर्थात् उपदेश के निमित्त से उत्पन्न होता है। (अन.ध./2/47/171)
श्लो.वा./2/1/3 यथा ह्यौपशमिकं दर्शनं निसर्गादधिगमाच्चोत्पद्यते तथा क्षायोपशमिकं क्षायिकं चेति सुप्रतीतम् । =जिस प्रकार औपशमिक सम्यग्दर्शन निसर्ग व अधिगम दोनों से होता है, उसी प्रकार क्षायोपशमिक व क्षायिक भी सम्यक्त्व दोनों प्रकार से होते हुए भले प्रकार प्रतीत हो रहे हैं।
न.च.वृ./248 सामण्ण अह विसेसं दव्वे णाणं हवेइ अविरोहो। साहइ तं सम्मत्तं णहु पुण तं तस्स विवरीयं।248। =द्रव्य का अविरुद्ध सामान्य व विशेष ज्ञान सम्यग्दर्शन को सिद्ध करता है क्योंकि वह उससे विपरीत नहीं होता।
देखें स्वाध्याय - 1.10 (आगम ज्ञान के बिना स्व व पर का ज्ञान नहीं होता तब सम्यक्त्व पूर्वक कर्मों का क्षय कैसे हो सकता है।)
देखें लब्धि - 3 (सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि के उपदेश के निमित्त सम्बन्धी)
2. दर्शनमोह के उपशम आदि
नि.सा./मू./53 अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी।53। =सम्यग्दर्शन के अन्तरंग हेतु दर्शनमोह के क्षय उपशम व क्षयोपशम है।
स.सि./1/7/26/1 अभ्यन्तरं दर्शनमोहस्योपशम: क्षय: क्षयोपशमो वा। =दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशम अभ्यन्तर साधन है। (रा.वा./7/14/40/26); (म.पु./9/118); (अन.ध./2/46/171)
3. लब्धि आदि
म.पु./9/116 देशनाकाललब्ध्यादिबाह्यकारणसंपदि। अन्त:करणसामग्रयां भव्यात्मा स्याद् विशुद्धदृक् ।116। =जब देशनालब्धि और काललब्धि आदि बहिरंगकारण तथा करणलब्धिरूप अन्तरंग कारणरूप सामग्री की प्राप्ति होती है, तभी यह भव्य प्राणी विशुद्ध सम्यग्दर्शन का धारक हो सकता है।
न.च.वृ./315 काऊण करणलद्धी सम्यग्भावस्य कुणइ जं गहणं। उवसमखयमिस्सादो पयडीणं तं पि णियहेउं।315। =जिस करणलब्धि को करके सम्यक्भाव को तथा प्रकृतियों के उपशम क्षय व क्षयोपशम को ग्रहण करता है, वह करण लब्धि भी सम्यक्त्व में निजहेतु है।
देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.9 (पंच लब्धि को प्राप्त करके ही प्रथमोपशम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है।)
देखें क्षय - 2/3 (क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए भी करण लब्धि निमित्त है।)
पं.ध./उ./378 दैवात्कालादिसंलब्धौ प्रत्यासन्ने भवार्णवे। भव्यभावविपाकाद्वा जीव: सम्यक्त्वमश्नुते।378। =दैवयोग से अथवा कालादि लब्धि की प्राप्ति होने पर अथवा संसार-सागर के निकट होने पर अथवा भव्यभाव का विपाक होने पर जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।378। (विशेष देखें नियति - 2.1,3)
4. द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप निमित्त
श्लो.वा./3/1/3/11/82/22 दर्शनमोहस्यापि संपन्नो जिनेन्द्रबिम्बादि द्रव्यं, समवसरणादि क्षेत्रं, कालश्चार्धपुद्गलपरिवर्तनविशेषादिर्भावश्चाधाप्रवृत्तिकरणादिरिति निश्चीयते। तदभावे तदुपशमादिप्रतिपत्ते:, अन्यथा तदभावात् । =(विष आदि के नाश की भाँति) दर्शनमोह के नाश में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव हेतु होते हैं। तहाँ जिनेन्द्र बिम्ब आदि तो द्रव्य हैं, समवसरण आदि क्षेत्र हैं, अर्धपुद्गलपरिवर्तन विशेष काल है, अध:प्रवृत्तिकरण आदि भाव हैं। उस मोहनीय कर्म का अभाव होने पर ही उपशमादि की प्रतिपत्ति होती है। दूसरे प्रकारों से उन उपशम आदि के होने का अभाव है।
ध.6/1,9-8,4/214/5 'सव्वविशुद्धो' त्ति एदस्स पदस्स अत्थो उच्चदे। तं जधा - एत्थ पढमसम्मत्तपडिवज्जंतस्स अधापवत्तकरण-अपुव्वकरण-अणियट्टीकरणभेदेण तिविहाओ विसोहीओ होंति। =अब सूत्र में (देखें सम्यग्दर्शन - IV.2 उपशम सम्यक्त्व का स्वामित्व 'सर्वविशुद्ध' इस पद का अर्थ कहते हैं' वह इस प्रकार है - यहाँ पर प्रथमोशम सम्यक्त्व को प्राप्त होने वाले जीव के अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के भेद से तीन प्रकार की विशुद्धियाँ होती हैं। (विशेष देखें करण - 3-6)
ल.सा./जी.प्र./2/41/11 विशुद्ध इत्यनेन शुभलेश्यत्वं संगृहीतं उदयप्रस्तावे स्त्यानगृद्धयादित्रयोदयाभावस्य वक्ष्यमाणत्वात् जागरत्वमप्युक्तमेव। =गाथा में प्रयुक्त 'विशुद्ध' इस शब्द से यहाँ शुभलेश्या का संग्रह किया गया है। तथा आगे स्त्यानगृद्धि आदि तीन निद्राओं का अभाव कहेंगे जिससे 'जागृत अवस्था में होता है' ऐसा भी कह दिया गया समझना चाहिए।
5. जाति स्मरण आदि
स.सि./2/3/153/6 'आदि' शब्देन जातिस्मरणादि: परिगृह्यते।
स.सि./1/7/26/2 बाह्यं...केषांचिज्जातिस्मरणं...। ='आदि' शब्द से जाति स्मरण आदि का अर्थात् जातिस्मरण, जिनबिम्बदर्शन, धर्मश्रवण, जिनमहिमादर्शन, देवर्द्धिदर्शन व वेदना आदि का ग्रहण होता है। ये जातिस्मरण आदि बाह्यनिमित्त हैं। (रा.वा./2/3/2/105/4) (और भी देखें शीर्षक नं - 4)
न.च.वृ./316 तित्थयरकेवलिसमणभवसुमरणसत्थदेवमहिमादी। इच्चेवमाइ बहुगा बाहिरहेउ मुणेयव्वा।316। =तीर्थंकर, केवली, श्रमण, भवस्मरण, शास्त्र, देवमहिमा आदि बहुत प्रकार के बाह्य हेतु मानने चाहिए।
देखें क्रिया - 3 में सम्यक्त्ववर्धिनी क्रिया - (जिनपूजा आदि से सम्यक्त्व में वृद्धि होती है।)
देखें सम्यग्दर्शन - III/3/1 (चारों गतियों में पृथक्-पृथक् जातिस्मरण आदि कारणों की यथायोग्य सम्भावना)
6. उपरोक्त निमित्तों में अन्तरंग व बाह्य विभाग
रा.वा./1/7/14/40/26 बाह्यं चोपदेशादि। =सम्यग्दर्शन के बाह्यकारण उपदेश आदि हैं।
देखें शीर्षक नं.1,2 (नि.सा./गा.53 के अपरार्ध में दर्शनमोह के उपशमादि को अन्तरंग कारण कहा है। अत: पूर्वार्ध में कहे गये जिन सूत्र व उसके ज्ञायक पुरुष अर्थापत्ति से ही बाह्य निमित्त कहे गये सिद्ध होते हैं।)
देखें शीर्षक 2 (दर्शनमोहनीय कर्म के उपशमादि अन्तरंग कारण हैं।)
देखें शीर्षक 3 (देशनालब्धि व काललब्धि बाह्य कारण है तथा करण लब्धि अन्तरंग कारण है।)
देखें शीर्षक 4 (भावात्मक होने के कारण करणलब्धि व शुभ लेश्या आदि अन्तरंग कारण हैं)।
2. कारणों में कथंचित् मुख्यता गौणता व भेदाभेद
1. कारणों की कथंचित् मुख्यता
रा.वा./1/3/10/24/6 यदि हि सर्वस्य कालो हेतुरिष्ट: स्यात् बाह्यभ्यन्तरकारणनियमस्यदृष्टेष्टस्य वा विरोध: स्यात् । =यदि सबका काल ही कारण मान लिया जाय (अर्थात् केवल काललब्धि से मुक्ति होना मान लिया जाये) तो बाह्य और आभ्यन्तर कारण सामग्री का ही लोप हो जायेगा।
ध.6/1,9-9,30/430/9 णइसग्गियमवि पढमसम्मत्तं तच्चट्ठे उत्तं तं हि एत्थेव दट्ठव्वं, जाइस्सरण-जिणबिंबदंसणेहि विणा उप्पज्जमाणणइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभवादो। =तत्त्वार्थ सूत्रों में नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व का भी कथन किया गया है, उसका भी पूर्वोक्तकरणों से उत्पन्न हुए सम्यक्त्व में ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिए, क्योंकि जातिस्मरण और जिनबिम्बदर्शन के बिना उत्पन्न होने वाला नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व असम्भव है।
2. कारणों की कथंचित् गौणता
देखें सम्यग्दर्शन - III/3/4 [नारकी जीवों में केवल जाति स्मरण सम्यक्त्व का निमित्त नहीं है, बल्कि पूर्वभवकृत अनुष्ठानों की विफलता के दर्शन रूप उपयोग सहित जातिस्मरण कारण है।1। इसी प्रकार तहाँ केवल वेदना सामान्य कारण नहीं है, बल्कि 'यह वेदना अमुक मिथ्यात्व व असंयम का फल है' इस प्रकार के उपयोग सहित ही वह कारण है।2।]
देखें सम्यग्दर्शन - III/3/9 [अवधिज्ञान द्वारा जिनमहिमा आदि देखते हुए भी अपनी वीतरागता के कारण ग्रैवेयक वासी देवों को विस्मय उत्पन्न कराने में असमर्थ वे उन्हें सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण नहीं होते।]
देखें सम्यग्दर्शन - III/2/4 [मात्र देव ऋद्धि दर्शन सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण नहीं है बल्कि 'ये अमुक संयम के फल हैं अथवा बालतप आदि के कारण हम ऋद्धि हीन नीच देव रह गये' इत्यादि उपयोग सहित ही वे कारण हैं।]
3. कारणों का परस्पर में अन्तर्भाव
देखें सम्यग्दर्शन - III/2/1 [नैसर्गिक सम्यक्त्व का भी इन्हीं कारणों से उत्पन्न सम्यक्त्व में अन्तर्भाव हो जाता है।]
देखें सम्यग्दर्शन - III/3/3 [ऋषियों व तीर्थक्षेत्रों के दर्शन का जिनबिम्बदर्शन में अन्तर्भाव हो जाता है।]
देखें सम्यग्दर्शन - III/3/6,7 [जिनबिम्बदर्शन व जिन महिमादर्शन का एक दूसरे में अन्तर्भाव हो जाता है।]
देखें सम्यग्दर्शन - III/3/8/4 [धर्मोपदेश व देवर्द्धि से उत्पन्न जातिस्मरण का धर्मोपदेश व देवर्द्धि में अन्तर्भाव हो जाता है।]
4. कारणों में परस्पर अन्तर
ध.6/1,9-9,37/433/5 देविद्धिदंसणं जाइसरणम्मि किण्ण पविसदि। ण पविसदि, अप्पणो अणिमादिरिद्धीओ दटठूण एदाओ रिद्धीओ जिणपण्णत्तधम्माणुट्ठाणादो जादाओ त्ति पढमसम्मत्तपडिवज्जणं जाइस्सरणणिमित्तं। सोहम्मिदादिदेवाणं महिड्ढीओ दटठूण एदाओ सम्मद्दंसणसंजुत्तसंजमफलेण जादाओ, अहं पुण सम्मत्तविरहिददव्वसंजमफलेण वाहणादिणीचदेवेसु उप्पण्णो त्ति णादूण पढमसम्मत्तग्गहणं देविद्धिदंसणणिबंधणं। तेण ण दोण्हमेयत्तमिदि। किं च जाइस्सरणमुप्पण्णपढमसमयप्पहुडि अंतोमुहुत्तकालब्भंतरे चेव होदि। देविद्धिदंसणं पुण कालंतरे चेव होदि, तेण ण दोण्हमेयत्तं। एसो अत्थो णेरइयाणं जाइस्सरणवेयणाभिभवणाणं पि वत्तव्वो। =प्रश्न - देवर्द्धिदर्शन का जातिस्मरण में समावेश क्यों नहीं होता ? उत्तर - 1. नहीं होता, क्योंकि, अपनी अणिमादिक ऋद्धियों को देखकर जब (देवों को) ये विचार उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ जिनभगवान् द्वारा उपदिष्ट धर्म के अनुष्ठान से उत्पन्न हुई हैं, तब प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति जातिस्मरणनिमित्तक होती है। किन्तु जब सौधर्मेन्द्रादिक देवों की महाऋद्धियों को देखकर यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ सम्यग्दर्शन से संयुक्त संयम के फल से प्राप्त हुई हैं, किन्तु मैं सम्यक्त्व से रहित द्रव्यसंयम के फल से वाहनादिक नीच देवों में उत्पन्न हुआ हूँ, तब प्रथम सम्यक्त्व का ग्रहण देवऋद्धिदर्शननिमित्तक होता है। इससे ये दोनों कारण एक नहीं हो सकते। 2. तथा जातिस्मरण उत्पन्न होने के प्रथम समय से लगाकर अन्तर्मुहूर्तकाल के भीतर ही होता है। किन्तु देवर्द्धिदर्शन, उत्पन्न होने के समय ये अन्तर्मुहूर्त काल के पश्चात् ही होता है। इसलिए भी उन दोनों कारणों में एकत्व नहीं है। 3. यही अर्थ नारकियों के जातिस्मरण और वेदनाभिभवरूप कारणों में विवेक के लिए भी कहना चाहिए।
देखें सम्यग्दर्शन - III/3/8/4 [धर्मोपदेश से हुआ जातिस्मरण और देविर्द्धि को देखकर हुआ जातिस्मरण ये दोनों जातिस्मरणरूप से एक होते हुए भी भिन्न-भिन्न माने गये हैं।]
3. कारणों का स्वामित्व व शंकाएँ
1. चारों गतियों में यथासम्भव कारण
(ष.खं./6/1/1,9-9/सूत्र नं./419-436); (ति.प./अधि./गा.नं.); (स.सि./1/7/26/2); (रा.वा./2/3/2/105/3) -
ष.खं./सूत्र नं. | ति.प. | मार्गणा | जिनबिंब द. | धर्मश्रवण | जातिस्मरण | वेदना |
नरक गति | ||||||
6-9 | 2/359-360 | 1-3 पृथिवी | x | <img height="23" src="file:///C:/Users/chiragj029/Desktop/JSK/JSK 4 - htmls/361-370/clip_image002.gif" width="11"> | <img height="23" src="file:///C:/Users/chiragj029/Desktop/JSK/JSK 4 - htmls/361-370/clip_image002.gif" width="11"> | <img height="23" src="file:///C:/Users/chiragj029/Desktop/JSK/JSK 4 - htmls/361-370/clip_image002.gif" width="11"> |
10-12 | 2/361 | 4-7 पृथिवी | x | x | <img height="23" src="file:///C:/Users/chiragj029/Desktop/JSK/JSK 4 - htmls/361-370/clip_image002.gif" width="11"> | <img height="23" src="file:///C:/Users/chiragj029/Desktop/JSK/JSK 4 - htmls/361-370/clip_image002.gif" width="11"> |
तिर्यंच गति | ||||||
21-22 | 5/309 | पंचे.संज्ञी गर्भज | x | x | <img height="23" src="file:///C:/Users/chiragj029/Desktop/JSK/JSK 4 - htmls/361-370/clip_image002.gif" width="11"> | x |
x | 5-308 | कर्मभूमिज | x | x | <img height="23" src="file:///C:/Users/chiragj029/Desktop/JSK/JSK 4 - htmls/361-370/clip_image002.gif" width="11"> | x |
मनुष्यगति | ||||||
29-30 | 5/2956 | मनु.गर्भज | x | x | <img height="23" src="file:///C:/Users/chiragj029/Desktop/JSK/JSK 4 - htmls/361-370/clip_image002.gif" width="11"> | x |
x | 5/2955 | कर्मभूमिज | x | x | <img height="23" src="file:///C:/Users/chiragj029/Desktop/JSK/JSK 4 - htmls/361-370/clip_image002.gif" width="11"> | x |
देवगति | ||||||
37-38 | 3/239-240 | भवनवासी | जिनमहिमा द. | धर्मश्रवण | जातिस्मरण | देवर्द्धि द. |
37 | 6/101 | व्यंतर | x | x | <img height="23" src="file:///C:/Users/chiragj029/Desktop/JSK/JSK 4 - htmls/361-370/clip_image002.gif" width="11"> | x |
37 | 7/317 | ज्योतिषी | x | x | <img height="23" src="file:///C:/Users/chiragj029/Desktop/JSK/JSK 4 - htmls/361-370/clip_image002.gif" width="11"> | x |
37 | 8/677-78 | सौधर्म-सहस्रार | x | x | <img height="23" src="file:///C:/Users/chiragj029/Desktop/JSK/JSK 4 - htmls/361-370/clip_image002.gif" width="11"> | x |
39-40 | आनत आदि चार | x | x | <img height="23" src="file:///C:/Users/chiragj029/Desktop/JSK/JSK 4 - htmls/361-370/clip_image002.gif" width="11"> | x | |
42 | 8/679 | नवग्रैवेयक | x | x | <img height="23" src="file:///C:/Users/chiragj029/Desktop/JSK/JSK 4 - htmls/361-370/clip_image002.gif" width="11"> | x |
43 | 8/679 | अनुदिश व अनुत्तर | x | x | x | x |
(पहिले से ही सम्यग्दृष्टि होते हैं) |
2. जिनबिम्ब दर्शन सम्यक्त्व का कारण कैसे
ध.6/1,9-9,22/427/9 कथं जिणबिंबदंसणं पढमसम्मत्तुप्पत्तीए कारणं। जिणबिंबदंसणेण णिधत्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसणादो। =प्रश्न - जिनबिम्बदर्शन प्रथमसम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण किस कारण से है ? उत्तर - जिनबिम्ब के दर्शन से निधत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्मकलाप का क्षय देखा जाता है। (विशेष - देखें पूजा - 2.4)।
3. ऋषियों व तीर्थक्षेत्रों के दर्शनों का निर्देश क्यों नहीं
ध.6/1,9-9,30/430/6 लद्धिसंपण्णरिसिदंसणं पि पढमसम्मत्तुप्पत्तीए कारणं होदि, तमेत्थ पुध किण्ण भण्णदे। ण, एदस्स वि जिणबिंबदंसणो अंतब्भावादो। उज्जंत-चंपा-पावाणयरादिदंसणं पि एदेण घेत्तव्वं। कुदो। तत्थतणजिणबिंबदंसण जिणणिव्वुइगमणकहणेहि विणा पढमसम्मत्तगहणाभावा। =प्रश्न - लब्धिसम्पन्न ऋषियों का दर्शन भी तो प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण होता है, अतएव इस कारण को यहाँ पृथक् रूप से क्यों नहीं कहा ? उत्तर - नहीं कहा, क्योंकि, लब्धिसम्पन्न ऋषियों के दर्शन का भी जिनबिम्ब दर्शन में ही अन्तर्भाव हो जाता है। - ऊर्जयन्त पर्वत तथा चम्पापुर व पावापुर आदि के दर्शन का भी जिनबिम्बदर्शन के भीतर ही ग्रहण कर लेना चाहिए, क्योंकि, उक्त प्रदेशवर्ती जिनबिम्बों के दर्शन तथा जिनभगवान् के निर्वाण गमन के कथन के बिना प्रथम सम्यक्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता।
4. नरक में जातिस्मरण व वेदना सम्बन्धी
ध.6/1,9-9,8/422/2 सव्वे णेरइया विभंगणाणेण एक्क-दो-तिण्णिआदिभवग्गहणाणि जेण जाणंति तेण सव्वेसिं जाइंभरत्तमत्थि त्ति सव्वणेरइएहि सम्मादिट्ठीहि होदव्वमिदि। ण एस दोसो, भवसामण्णसरणेण सम्मत्तुप्पत्तीए अणब्भुवगमादो। किं तु धम्मबुद्धीए पुव्वभवम्हि कयाणुट्ठाणाणं विहवलत्तदंसणस्स पढमसम्मत्तुप्पत्तीए कारणत्तमिच्छिज्जदे, तेण ण पुव्वुत्तदोसो ढुक्कदि त्ति। ण च एवंविहा बुद्धी सव्वणेरइयाणं होदि, तिव्वमिच्छत्तोदएण ओट्टद्धणेरइयाणं जाणंताणं पि एवंविहउवजोगाभावादो, तम्हा जाइस्सरणं पढमसम्मत्तुप्पत्तीए कारणं।...वेयणाणुहवणं सम्मत्तुप्पत्तीए कारणं ण होदि, सव्वणेरइयाणं साहारणत्तादो। जइ होइ तो सव्वे णेरइया सम्माइट्ठिणो होंति। ण चेवं, अणुवलंभा। परिहारो वुच्चदे - ण वेयणासामण्णं सम्मत्तुप्पत्तीए कारणं। किंतु जेसिमेसा वेयणा एदम्हादो मिच्छत्तादो इमादो असंजमादो (वा) उप्पण्णेत्ति उवजोगो, जादो तेसिं चेव वेयणा सम्मत्तुप्पत्तीए कारणं, णावरजीवाणं वेयणा, तत्थ एवंविहउवजोगाभावा। =प्रश्न - 1. चूँकि सभी नारकी जीव विभंगज्ञान के द्वारा एक, दो, या तीन आदि भवग्रहण जानते हैं (देखें नरक ), इसलिए सभी के जातिस्मरण होता है। अतएव सारे नारकीय जीव सम्यग्दृष्टि होने चाहिए? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सामान्यरूप से भवस्मरण के द्वारा सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं होती। किन्तु धर्मबुद्धि से पूर्वभव में किये गये अनुष्ठानों की विफलता के दर्शन से ही प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारणत्व इष्ट है, जिससे पूर्वोक्त दोष प्राप्त नहीं होता। और इस प्रकार की बुद्धि सब नारकी जीवों के होती नहीं है, क्योंकि तीव्र मिथ्यात्व के उदय के वशीभूत नारकी जीवों के पूर्वभवों का स्मरण होते हुए भी उक्त प्रकार के उपयोग का अभाव है। इस प्रकार जातिस्मरण प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण है। प्रश्न - वेदना का अनुभव सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि, यह अनुभव तो सब नारकियों के साधारण होता है। यदि वह अनुभव सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण हो तो सब नारकी जीव सम्यग्दृष्टि होंगे। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता ? उत्तर - पूर्वोक्त शंका का परिहार कहते हैं। वेदना सामान्य सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण नहीं है, किन्तु जिन जीवों के ऐसा उपयोग होता है, कि अमुक वेदना अमुक मिथ्यात्व के कारण या अमुक असंयम से उत्पन्न हुई, उन्हीं जीवों की वेदना सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण होती है। अन्य जीवों की वेदना नरकों में सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण नहीं होती, क्योंकि उसमें उक्त प्रकार के उपयोग का अभाव होता है।
5. नरकों में धर्म श्रवण सम्बन्धी
ध.6/1,9-9,8/422/9 कधं तेसिं धम्मसुण्णं संभवदि, तत्थ रिसीणं गमणाभावा। ण सम्माइट्ठिदेवाणं पुव्वभवसंबंधीणं धम्मपदुप्पायणे वावदाणं सयलवाधाविरहियाणं तत्थ गमणदंसणादो।
ध.6/1,9-9,12/424/5 धम्मसवणादो पढमसम्मत्तस्स तत्थ उप्पत्ती णत्थि, देवाणं तत्थ गमणाभावा। तत्थतणसम्माइट्ठिधम्मसवणादो पढमसम्मत्तस्स उप्पत्ती किण्ण होदि त्ति वुत्ते ण होदि, तेसिं भवसंबंधेण पुव्वबेरसंबंधेण वा परोप्परविरुद्धाणं अणुगेज्झणुग्गाहयभावाणमसंभवादो। =प्रश्न - 1. नारकी जीवों के धर्म श्रवण किस प्रकार सम्भव है, क्योंकि, वहाँ तो ऋषियों के गमन का अभाव है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, अपने पूर्वभव के सम्बन्धी जीवों के धर्म उत्पन्न कराने में प्रवृत्त और समस्त बाधाओं से रहित सम्यग्दृष्टि देवों का नरकों में गमन देखा जाता है। 2. नीचे की चार पृथिवियों में धर्मश्रवण के द्वारा प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि वहाँ देवों के गमन का अभाव है। प्रश्न - वहाँ ही विद्यमान सम्यग्दृष्टियों से धर्मश्रवण के द्वारा प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति क्यों नहीं होती ? उत्तर - ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि नहीं होती, क्योंकि, भव सम्बन्ध से या पूर्व वैर के सम्बन्ध से परस्पर विरोधी हुए नारकी जीवों के अनुगृह्य अनुग्राहक भाव उत्पन्न होना असम्भव है।
6. मनुष्यों में जिनमहिमा दर्शन के अभाव सम्बन्धी
ध.6/1,9-9,10/430/1 जिणमहिमं दट्ठूण वि केइं पढमसम्मत्तं पडिवज्जंता अत्थि तेण चदुहि कारणेहि पढमसम्मत्तं पडिवज्जंति त्ति वत्तव्वं। ण एस दोसो, एदस्स जिणबिंबदंसणे अंतब्भावादो। अधवा मणुसमिच्छाइट्ठीणं गयणगमणविरहियाणं चउव्विहदेवणिकाएहि णंदीसर-जिणवर-पडिमाणं कीरमाणमहामहिमावलोयणे संभवाभावा। मेरुजिणवरमहिमाओ विज्जाधरमिच्छादिट्ठिणो पेच्छंति त्ति एस अत्थो ण वत्तव्वओ त्ति केइं भणंति। तेण पुव्वुत्तो चेव अत्थो घेत्तव्वो। =प्रश्न - जिनमहिमा को देखकर भी कितने ही मनुष्य प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं, इसलिए (तीन की बजाय) चार कारणों से मनुष्य प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं, ऐसा कहना चाहिए ? उत्तर - 1. यह कोई दोष नहीं क्योंकि, जिनमहिमादर्शन का जिनबिम्ब दर्शन में अन्तर्भाव हो जाता है। 2. अथवा मिथ्यादृष्टि मनुष्यों के आकाश में गमन करने की शक्ति न होने से उनके चतुर्विध देवनिकायों के द्वारा किये जाने वाले नन्दीश्वरद्वीपवर्ती जिनेन्द्र प्रतिमाओं के महामहोत्सव का देखना सम्भव नहीं है, इसलिए उनके जिनमहिमादर्शनरूप कारण का अभाव है। 3. किन्तु मेरुपर्वत पर किये जाने वाले जिनेन्द्र महोत्सवों को विद्याधर मिथ्यादृष्टि देखते हैं, इसलिए उपर्युक्त अर्थ नहीं कहना चाहिए, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, अतएव पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना योग्य है।
7. देवों में जिनबिम्ब दर्शन क्यों नहीं
ध.6/1,9-9,37/432/10 जिणबिंबदंसणं पढमसम्मत्तस्स कारणत्तेण एत्थ किण्ण उत्तं। ण एस दोसो; जिणमहिमादंसणम्मि तस्स अंतब्भावादो, जिणबिंबेण विणा जिणमहिमाए अणुववत्तीदो। सग्गोयरणजम्माहिसेय-परिणिक्खमणजिणमहिमाओ जिणबिंबेण बिणा कीरमाणीओ दिस्संति त्ति जिणबिंबदंसणस्स अविणाभावो णत्थि त्ति णासंकणिज्जं, तत्थ वि भाविजिणबिंबस्स दंसणुवलंभा। अधवा एदासु महिमासु उप्पज्जमाणपढमसम्मत्तं ण जिणबिंबदंसणणिमित्तं, किंतु जिणगुणसवणणिमित्तमिदि। =प्रश्न - यहाँ (देवों में) जिन बिम्बदर्शन को प्रथम सम्यक्त्व के कारणरूप से क्यों नहीं कहा ? उत्तर - 1. यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिन बिम्बदर्शन का जिनमहिमादर्शन में ही अन्तर्भाव हो जाता है, कारण जिनबिम्ब के बिना जिनमहिमा की उपपत्ति बनती नहीं है। प्रश्न - स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और परिनिष्क्रमणरूप जिनमहिमाएँ जिनबिम्ब के बिना ही की गयी देखी जाती हैं, इसलिए जिनमहिमा दर्शन में जिनबिम्बदर्शन का अविनाभावीपना नहीं है? उत्तर - ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए क्योंकि स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और परिनिष्क्रमण रूप जिनमहिमाओं में भी भावी जिनबिम्ब का दर्शन पाया जाता है। 2. अथवा इन महिमाओं में उत्पन्न होने वाला प्रथम सम्यक्त्व जिनबिम्बदर्शन निमित्तक नहीं है, किन्तु जिनगुण श्रवण निमित्तक है।
8. आनतादि में देवऋद्धि दर्शन क्यों नहीं
ध.6/1,9-9,40/435/1 देविद्धिदंसणेणं चत्तारि कारणणि किण्ण वुत्ताणि। तत्थ महिद्धिसंजुत्तुवरिमदेवाणमागमाभावा। ण तत्थट्ठिददेवाणं महिद्धिदंसणं पढमसम्मत्तुप्पत्तीए णिमित्तं, भूयो दंसणेण तत्थ विम्हयाभावा, सुक्कलेस्साए महिद्धिदंसणेण संकिलेसाभावादो वा। सोऊण जं जाइसरणं, देविद्धिं दट्ठूण जं च जाइस्सरणं, एदाणि दो वि जदि वि पढमसम्मत्तुप्पत्तीए णिमित्तं होंति, तो वि तं सम्मत्तं जाइस्सरणणिमित्तमिदि एत्थ ण घेप्पदि, देविद्धिदंसणसुणणपच्छायदजाइस्सरणणिमित्तत्तादो। किंतु सवणदेविद्धिदंसणणिमित्तमिदि घेत्तव्वं। =प्रश्न - यहाँ पर (आनतादि चार सवर्गों में) देवऋद्धिदर्शन सहित चार कारण क्यों नहीं कहे ? उत्तर - 1. आनत आदि चार कल्पों में महर्धि से संयुक्त ऊपर के देवों के आगमन नहीं होता, इसलिए वहाँ महर्द्धिदर्शनपररूप प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण नहीं पाया जाता। 2. और उन्हीं कल्पों में स्थित देवों के महर्द्धि का दर्शन प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का निमित्त हो नहीं सकता, क्योंकि उसी ऋद्धि को बार-बार देखने से विस्मय नहीं होता। 3. अथवा उक्त कल्पों में शुक्ललेश्या के सद्भाव के कारण महर्द्धि के दर्शन से उन्हें कोई संक्लेशभाव उत्पन्न नहीं होते। 4. धर्मोपदेश सुनकर जो जातिस्मरण होता है और देवर्द्धि को देखकर जो जातिस्मरण होता है, ये दोनों ही जातिस्मरण यद्यपि प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के निमित्त होते हैं, तथापि उनसे उत्पन्न सम्यक्त्व वहाँ (आनत आदि में) जातिस्मरण निमित्तक नहीं माना गया है, क्योंकि यहाँ देवर्द्धि के दर्शन व धर्मोपदेश के श्रवण के पश्चात् ही उत्पन्न हुए जातिस्मरण का निमित्त प्राप्त हुआ है। अतएव यहाँ धर्मोपदेश श्रवण और देवर्द्धि दर्शन को ही निमित्त मानना चाहिए।
9. नवग्रैवेयकों में जिनमहिमा व देवर्द्धि दर्शन क्यों नहीं
ध.6/1,9-9,42/436/3 एत्थ महिद्धिदंसणं णत्थि, उवरिमदेवाणमागमाभावा। जिणमहिमदंसणं पि णत्थि, णंदीसरादिमहिमाणं तेसिमागमणाभावा। ओहिणाणेण तत्थट्ठिया चेव जिणमहिमाओ पेच्छंति त्ति जिणमहिमादंसणं वि तेसिं सम्मत्तुप्पत्तीए णिमित्तमिदि किण्ण उच्चदे। ण तेसिं वीयरायाणं जिणमहिमादंसणेण विभयाभावा। =प्रश्न - नवग्रैवेयकों में महर्द्धिदर्शन नहीं है, क्योंकि यहाँ ऊपर के देवों के आगमन का अभाव है। यहाँ जिनमहिमादर्शन भी नहीं है, क्योंकि ग्रैवेयकविमानवासी देव नन्दीश्वर आदि के महोत्सव देखने नहीं आते। प्रश्न - ग्रैवेयक देव अपने विमान में रहते हुए ही अवधिज्ञान से जिनमहिमाओं को देखते तो हैं, अतएव जिनमहिमा का दर्शन भी उनके सम्यक्त्व की उत्पत्ति में निमित्त होता है ऐसा क्यों नहीं कहा? उत्तर - नहीं, क्योंकि, ग्रैवेयक विमानवासी देव वीतराग होते हैं अतएव जिनमहिमा के दर्शन से उन्हें विस्मय उत्पन्न नहीं होता।
10. नवग्रैवेयक में धर्मश्रवण क्यों नहीं
ध.6/1,9-9,42/436/6 कधं तेसिं धम्मसुणणसंभवो। ण, तेसिं अण्णोण्णसल्लावे संते अहमिंदत्तस्स विरोहाभावा। =प्रश्न - ग्रैवेयक विमानवासी देवों के धर्मश्रवण किस प्रकार सम्भव होता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि उनमें परस्पर संलाप होने पर अहमिन्द्रत्व से विरोध नहीं होता।
IV उपशमादि समयग्दर्शन
1. उपशमादि सम्यग्दर्शन सामान्य
1. सम्यक्त्व मार्गणा के उपशमादि भेद
ष.खं./1/1,1/सूत्र 144/395 सम्मत्ताणुवादेण अत्थि सम्माइट्ठी खयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी मिच्छाइट्ठी चेदि।144। =सम्यक्त्व मार्गणा के अणुवाद से सामान्य की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि सामान्य और विशेष की अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं।144। (द्र.सं.टी./13/40/1/); (गो.जी./जी.प्र./704/1142/1)।
ज्ञा./6/7 क्षीणप्रशान्तमिश्रासु मोहप्रकृतिषुक्रमात् । तत् स्याद्द्रव्यस्यादिसामग्रया पुंसां सद्दर्शनं त्रिधा।7। =दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों के क्षय उपशम और क्षयोपशमरूप होने से क्रमश: तीन प्रकार का सम्यक्त्व है - क्षायिक, औपशमिक व क्षायोपशमिक।
2. तीनों सम्यक्त्वों में कथंचित् एकत्व
ध.1/1,1,145/396/8 किं तत्सम्यक्त्वगतसामान्यमिति चेत् त्रिष्वपि सम्यग्दर्शनेषु य: साधारणोंऽशस्तत्सामान्यम् । क्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकेषु परस्परतो भिन्नेषु किं सादृश्यमिति चेन्न, तत्र यथार्थश्रद्धानं प्रति साम्योपलम्भात् । क्षयक्षयोपशमविशिष्टानां यथार्थश्रद्धानानां कथं समानतेति चेद्भवतु विशेषणानां भेदो न विशेष्यस्य यथार्थश्रद्धानस्य। =प्रश्न - समयक्त्व में रहने वाला वह सामान्य क्या वस्तु है (जिससे कि इन भेदों से पृथक् एक सामान्य सम्यग्दृष्टि संज्ञक भेद ग्रहण कर लिया गया?) उत्तर - तीनों ही सम्यग्दर्शनों में जो साधारण धर्म है, वह सामान्य शब्द से यहाँ पर विवक्षित है। प्रश्न - क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दर्शनों के परस्पर भिन्न भिन्न होने पर सदृशता क्या वस्तु हो सकती है? उत्तर - नहीं, क्योंकि उन तीनों सम्यग्दर्शनों में यथार्थ श्रद्धान के प्रति समानता क्यों पायी जाती है। प्रश्न - क्षय, क्षयोपशम और उपशम विशेषण से युक्त यथार्थ श्रद्धानों में समानता कैसे हो सकती है ? उत्तर - विशेषणों में भेद भले ही रहा आवे, परन्तु इससे यथार्थ श्रद्धानरूप विशेष्य में भेद नहीं पड़ता है।
2. प्रथमोपशम सम्यक्त्व निर्देश
1. उपशम सम्यक्त्व सामान्य का लक्षण
पं.सं./प्रा./1/165-166 देवे अणण्णभावो विसयविरागो य तच्चसद्दहणं। दिट्ठीसु असम्मोहो सम्मत्तमणूणयं जाणे।165। दंसणमोहस्सुदए उवसंते सच्चभावसद्दहणं। उवसमसम्मत्तमिणं पसण्णकलुसं जहा तोयं।166। =उपशम सम्यक्त्व के होने पर जीव के सत्यार्थ देव में अनन्य भक्तिभाव, विषयों से विराग, तत्त्वों का श्रद्धान और विविध मिथ्यादृष्टियों (मतों) में असम्मोह प्रगट होता है। इसे क्षायिक सम्यक्त्व से कुछ भी कम नहीं जानना चाहिए।165। जिस प्रकार पंकादि जनित कालुष्य के प्रशान्त होने पर जल निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार दर्शन मोह के उदय के उपशान्त होने पर जो सत्यार्थ श्रद्धान उत्पन्न होता है, उसे उपशम सम्यग्दर्शन कहते हैं।166।
ध.1/1,1,144/गा.216/396 दंसणमोहुवसमदो उप्पज्जइ जं पयत्थ सद्दहणं। उवसमसम्मत्तमिणं पसण्णमलपंकतोयसमं। =दर्शनमोहनीय के उपशम से, कीचड़ के नीचे बैठ जाने से निर्मल जल के समान, पदार्थों का जो निर्मल श्रद्धान होता है, वह उपशम सम्यग्दर्शन है।216। (गो.जी./मू./650/1099)
स.सि./2/3/152/9 आसां सप्तानां प्रकृतीनामुवशमादौपशमिकं सम्यक्त्वम् । =(अनन्तानुबंधी चार और दर्शनमोह की तीन) इन सात प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व होता है। (रा.वा./2/3/1/104/17)।
ध.1/1,1,12/171/5 एदासिं सत्तण्हं पयडीणमुवसमेण उवसमसम्माइट्ठी होइ।...एरिसो चेय। =पूर्वोक्त दर्शनमोह की सात प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यग्दृष्टि होता है। यह भी क्षायिक जैसा ही निर्मल व सन्देह रहित होता है।
2. उपशम सम्यक्त्व का स्वामित्व
ष.खं./1/1,1/सू.147/398 उवसमसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव उवसंतकसायवीयरायछदुमत्थात्ति। =उपशम सम्यग्दृष्टि जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। (विशेष देखें वह वह मार्गणा तथा 'सत्')।
3. उपशम सम्यक्त्व के 2 भेद व प्रथमोपशम का लक्षण
गो.क./जी.प्र./550/742/3 तत्राद्यं प्रथमद्वितीयभेदाद् द्वेधा। =उनमें से आदि का अर्थात् उपशम सम्यक्त्व दो प्रकार का है - प्रथम व द्वितीय।
ल.सा./भाषा/2/41/18 मिथ्यादृष्टि गुणस्थानतैं छूटि उपशम सम्यक्त्व होइ ताका नाम (प्रथम) उपशम सम्यक्त्व है। (विशेष देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.4.2)।
4. प्रथमोपशम का प्रतिष्ठापक
1. गति व जीव समासों की अपेक्षा
ष.खं.6/1,9-8/सूत्र 9/238 उवसामेंतो कम्हि उवसामेदि, चदुसु विगदीसु उवसामेदि। चदुसु वि गदीसु उवसामेंतो पंचिंदिएसु उवसामेंतो पंचिंदिएसु उवसामेदिणो एइंदियविगलिंदियेसु। पंचिंदिएसु उवसामेंतो सण्णीसु उवसामेदि, णो असण्णीसु। सण्णीसु उवसामेंतो गब्भोवकंतिएसु उवसामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु। गब्भोवक्कंतिएसु उवसामेंतो पज्जत्तएसु उवसामेदि, णो अपज्जत्तएसु। पज्जत्तएसु उवसामेंतो संखेज्जवस्साउग्गेसु वि उवसामेदि, असंखेज्जवस्साउगेसु वि।9।
ष.खं.6/1,9-9/सूत्र 1-33/418-431 णेरइया...पज्जत्तएसु उप्पादेंति, णो अप्पज्जत्तएसु।1-3। एवं जाव सत्तसु पुढवीसु णेरइया।5। तिरिक्ख...पंचिंदिएसु...सण्णीसु...गब्भोवकंतिएसु...पज्जत्तएसु उप्पादेंति।13-18। एवं जाव सव्वदीवसमुद्देसु।20। मणुस्सा...गब्भोवकंतिएसु...पज्जत्तएसु उप्पादेंति।23-25। एवं जाव अड्ढाइज्जदीवसमुद्देसु।28। देवा...पज्जत्तेसु उप्पादेंति। एवं जाव उवरिमगेवज्जविमाणवासियदेवा त्ति।31-35। =1. दर्शनमोहनीय कर्म को उपशमाता हुआ यह जीव कहाँ उपशमाता है? चारों ही गतियों में उपशमाता है। चारों ही गतियों में पंचेन्द्रियों में उपशमाता है, एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियों में नहीं। पंचेन्द्रियों में उपशमाता हुआ संज्ञियों में उपशमाता है, असंज्ञियों में नहीं। संज्ञियों में उपशमाता हुआ गर्भोपक्रान्तिकों में उपशमाता है सम्मूर्च्छियों में नहीं- गर्भोपक्रान्तिकों में उपशमाता हुआ पर्याप्तकों में उपशमाता है अपर्याप्तकों में नहीं। पर्याप्तकों में उपशमाता हुआ संख्यातवर्ष की आयुवाले जीवों में भी उपशमाता है और असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीवों में भी उपशमाता है।9। 2. (विशेषरूप से व्याख्यान करने पर) नरक गति में सातों ही पृथिवियों में पर्याप्तक ही उपशमाता है।1-5। तिर्यंचगति में सर्व ही द्वीप समुद्रों में से पञ्चेन्द्रिय संज्ञी गर्भज पर्याप्तक ही उपशमाते हैं।13-20। मनुष्यगति में अढ़ाई द्वीप समुद्रों में गर्भज पर्याप्तक ही उपशमाते हैं।23-28। देवगति में भवनवासियों से लेकर उपरिम ग्रैवेयक पर्यंत पर्याप्तक ही उपशमाते हैं।31-35। [इनसे विपरीत में अर्थात् अपर्याप्तक आदि में नहीं उपशमाता है।] (रा.वा./2/3/2/105/1)
क.पा.सुत्त/10/गा.95-96/630 दंसणमोहस्सुवसामगो दु चदुसु वि गदीसु बोद्धव्वो। पंचिंदिओ य सण्णी णियमा सो होई पज्जत्तो।95। सव्वणिरय-भवणेसु दीवसमुद्दे गुह जोदिसि-विमाणे। अभिजोग्ग-अणभिजोग्ग उवसामो होइ बोद्धव्वो।96। =1. दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम करने वाला जीव चारों ही गतियों में जानना चाहिए। वह जीव नियम से पंचेन्द्रिय, संज्ञी और पर्याप्तक होता है।95। (पं.सं./प्रा./1/204/), (ध.6/1,9-8,9/गा.2/239) (और भी देखें उपशीर्षक नं - 2)। 2. इन्द्रक श्रेणीबद्ध आदि सर्व नरकों में, सर्व प्रकार के भवनवासी देवों में, (तिर्यंचों की अपेक्षा) सर्व द्वीपसमुद्रों में, (और मनुष्यों की अपेक्षा अढ़ाई द्वीप समुद्रों में), सर्व व्यन्तर देवों में, समस्त ज्योतिष देवों में, सौधर्म से लेकर सर्व अभियोग्य अर्थात् वाहनादि रूप नीच देवों में, उनसे भिन्न किल्विष आदि अनुत्तम तथा पारिषद आदि उत्तम देवों में दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम होता है।96। (ध.6/1,9-8,9/गा.3/239)
ध.6/1,9-8,4/206/8 तत्थ वि असण्णी ण होदि, तेसु मणेण विणा विसिट्ठणाणाणुप्पत्तीदो। तदो सो सण्णी चेव। =पंचेन्द्रियों में भी वे असंज्ञी नहीं होते, क्योंकि, असंज्ञी जीवों में मन के बिना विशिष्ट ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है।
2. गुणस्थान की अपेक्षा
ष.खं.6/1,9-8/सूत्र 4/206 सो पुण पंचिंदिओ सण्णीमिच्छाइट्ठी पज्जत्तओ सव्वविसुद्धो।4।
ष.खं.6/1,9-9/सूत्र नं./418 णेरइयामिच्छाइट्ठी...।1। तिरिक्खमिच्छाइट्ठी...।13। मणुस्सा मिच्छाइट्ठी...।23। देवा मिच्छाइट्ठी पढमसम्मत्तमुप्पादेंति।31। =1. वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने वाला जीव पञ्चेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि पर्याप्त और सर्व विशुद्ध होता है।4। (रा.वा./2/3/2/105/26); (ल.सा./मू./2/41); (गो.क./जी.प्र./550/442/9 में उद्धृत गाथा।) 2. नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य व देव ये चारों ही मिथ्यादृष्टि प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हैं।1-31।
ध.6/1,9-8,4/206/9 सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी वा पढमसम्मत्तं ण पडिवज्जदि, एदेसिं तेण पज्जाएण परिणमनसत्तीए अभावादो। उवसमसेडिं चडमाणवेदगसम्माइटि्ठणो उवसमसम्मत्तं पडिवज्जंता अत्थि, किंतु ण तस्स पढमसम्मत्तववएसो। कुदो, सम्मत्ता तस्सुप्पत्तीए। तदो तेण मिच्छाइटि्ठणो चेव होदव्वं। =सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा वेदक सम्यग्दृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, इन जीवों के उस प्रथमोपशम सम्यक्त्वरूप पर्याय के द्वारा परिणमन होने की शक्ति का अभाव है। उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले वेदकसम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले होते हैं, किन्तु उस सम्यक्त्व को 'प्रथमोपशम सम्यक्त्व' यह नाम नहीं है, क्योंकि उस उपशम श्रेणीवाले के उपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति सम्यक्त्व से होती है। इसलिए प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव मिथ्यादृष्टि ही होना चाहिए।
3. उपयोग, योग व विशुद्धि आदि की अपेक्षा
देखें उपशीर्षक नं - 2 - (वह सर्व विशुद्ध होना चाहिए)।
क.पा.सुत्त/10/गा/98/632 सागारे पट्ठवगो मज्झिमो य भजियव्वो। जोगे अण्णदरम्हि य जहण्णगो तेउलेस्साए।98। साकारोपयोग में वर्तमान जीव ही दर्शनमोहनीय कर्म के उपशम का प्रस्थापक होता है। किन्तु निष्ठापक और मध्यस्थानवर्ती जीव भजितव्य है। तीनों योगों में से किसी एक योग में वर्तमान और तेजोलेश्या के जघन्य अंश को प्राप्त जीव दर्शनमोह का उपशमन करता है।98। (ध.6/1,9-8,9/गा.5/239); (ल.सा./मू./101/138)
रा.वा./9/1/12/588/25 गृहीतुमारभमाण: शुभपरिणामाभिमुख: अन्तर्मुहूर्तमनन्तगुणवृद्धया वर्द्धमानविशुद्धि:...अन्यतमेन मनोयोगेन...अन्यतमेन वाग्योगेन...अन्यतमेन काययोगेन वा समाविष्ट: हीयमानान्यतमकषाय: साकारोपयोग:, त्रिष्वन्यतमेन वेदेन, संक्लेशविरहित:। =प्रथम सम्यक्त्व को प्रारम्भ करने वाला जीव शुभपरिणाम के अभिमुख होता है, अन्तर्मुहूर्त में अनन्तगुण वृद्धि के द्वारा वर्धमान विशुद्धि वाला होता है। (तीनों योगों के सर्व उत्तर भेदों में से) अन्यतम मनोयोग वाला या अन्यतम वचनयोग वाला या अन्यतम काययोग वाला होता है। हीनमान अन्यतम कषाय वाला होता है। साकारोपयोगी होता है। तीनों वेदों में से अन्यतम वेदवाला होता है। और संक्लेश से रहित होता है। (ध.6/1,9-8,4/207/4)
ध.6/1,9-8,4/207/6 असंजदो। मदिसुदसागारुवजुत्तो। तत्थ अणागारुवजोगो णत्थि, तस्स बज्झत्थे पउत्तीए अभावादो। छण्णं लेस्साणमण्णदरलेस्सो किंतु हीयमाणअसुद्धलेस्सो वड्ढमाणसुहलेस्सो। =(वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख जीव) असंयत होता है, मति व श्रुतज्ञान रूप साकारोपयोगी होता है, अनाकारोपयोगी नहीं होता, क्योंकि, अनाकार उपयोग की बाह्य अर्थ की प्रवृत्ति का अभाव है। कृष्णादि छहों लेश्याओं में से किसी एक लेश्या वाला हो, किन्तु यदि अशुभ लेश्या वाला हो तो हीयमान होना चाहिए, और यदि शुभ लेश्या हो तो वर्धमान होना चाहिए।
ध.6/1,9-8,4/214/5 'सव्वविसुद्धो' त्ति एदस्स पदस्स अत्थो उच्चदे। तं जधा - एत्थ पढमसम्मत्तं पडिवज्जंतस्स अधापवत्तकरण-अपुव्वकरण-अणियट्टीकरणभेदेण तिविहाओ विसोहीओ होंति। =अब सूत्रोक्त 'सर्वविशुद्ध' (देखें इसी शीर्षक में ) इस पद का अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है - यहाँ पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होने वाले जीव के अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के भेद से तीन प्रकार की विशुद्धियाँ होती हैं।
गो.जी./मू./652/1100 चदुगदिभव्वो सण्णी पज्जत्तो य सागारो। जागारो सल्लेस्सो सलद्धिगो सम्ममुवगमई। =चारों में से किसी भी गति वाला, भव्य, सैनी, पर्याप्त, साकारोपयोगी, जागृत, शुभलेश्या वाला, तथा करण लब्धिरूप परिणमा जीव यथासम्भव सम्यक्त्व को प्राप्त होता है।
ल.सा./जी.प्र./2/41/12 विशुद्ध इत्यनेन शुभलेश्यत्वं संगृहीतं उदयप्रस्तावे स्त्यानगृद्धयादित्रयोदयाभावस्य वक्ष्यमाणत्वात् जागरत्वमप्युक्तमेव। =गाथा में प्रयुक्त 'विशुद्ध' इस शब्द से शुभ लेश्या का ग्रहण हो जाता है और स्त्यानगृद्धि आदि तीनों प्रकृतियों के उदय का अभाव आगे कहा जायेगा (देखें उदय - 6), इसलिए जागृतपना भी कह ही दिया गया।
4. कर्मों के स्थिति बन्ध व स्थिति सत्त्व की अपेक्षा
ष.खं.6/1,9-8 सूत्र 3,5/203,222 एदेसिं चेव सव्वकम्माणं जावे अंतोकोडाकोडिटि्ठदिं बंधदि तावे पढमसम्मत्तं लभदि।3। एदेसिं चेव सव्वकम्माणं जाधे अंतोकोडाकोडिटि्ठदिं ठवेदि संखेज्जेहि सागरोवमसहस्सेहि ऊणियं ताधे पढमसम्मत्तमुप्पादेदि।5। =इन ही सर्व कर्मों की अर्थात् आठों कर्मों की जब अन्त:कोड़ाकोड़ी स्थिति को बाँधता है, तब यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।3। जिस समय इन ही सर्व कर्मों की संख्यात हज़ार सागरोपमों से हीन अन्त:कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण स्थिति को स्थापित करता है उस समय यह जीव प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है।5। (ल.सा./मू./9/47)
ल.सा./मू./8/46 जेट्ठवरटि्ठदिबंधे जेट्ठवरटि्ठदितियाण सत्ते य। ण य पडिवज्जदि पढमुवसमसम्मं मिच्छजीवो हु।8। =संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में सम्भव ऐसे उत्कृष्ट स्थिति बन्ध और उत्कृष्ट स्थिति अनुभाग व प्रदेश सत्त्व - तथा विशुद्ध क्षपक श्रेणी वाले के सम्भव ऐसे जघन्य स्थिति बन्ध और जघन्य स्थिति, अनुभाग व प्रदेश सत्त्व, इनके होते हुए जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करता। नोट - [सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों के स्थिति सत्त्व सम्बन्धी विशेषता (देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.6]
5. जन्म के पश्चात् प्राप्ति योग्य सर्वलघु काल
ष.खं.6/1,9-9/सूत्र नं./419-431 णेरइया मिच्छाइट्ठी/.../1/पज्जत्तएसु उप्पादेंता अंतोमुहुत्तप्पहुडि जाव तत्पाओग्गंतोमुहुत्तं उवरिमुप्पादेंति, णो हेट्ठा।4। एवं जाव सत्तसु पुढवीसु णेरइया।5। तिरिक्खमिच्छाइट्ठी...।13। पज्जत्तएसु उप्पादेंता दिवसपुधत्तप्पहुडि जावमुवरिमुप्पादेंति णो हेट्ठादो।19। एवं जाव सव्वदीवसमुद्देसु।20। मणुस्सा मिच्छादिट्ठी...।23। पज्जत्तएसु उप्पादेंता अट्ठवारप्पहुडि जाव उवरिमुप्पादेंति, णो हेट्ठादो।27। एवं जाव अड्ढाइज्जदीवसमुद्देसु।28। देवा मिच्छाइट्ठी...।31। पज्जत्तएसु उप्पाएंता अंतोमुहुत्तप्पहुडि जाव उवरि उप्पाएंति, णो हेट्ठदो।34। एवं जाव उवरिमउवरिमगेवज्जविमाणवासियदेवा त्ति।35। =नारकी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तकों में सम्यक्त्व उत्पन्न करने वाले अन्तर्मुहूर्त से लगाकर अपने योग्य अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् उत्पन्न करते हैं, उससे नीचे नहीं। इस प्रकार सातों पृथिवियों में जानना चाहिए।1-5। तिर्यंचमिथ्यादृष्टि पर्याप्तकों में सम्यक्त्व उत्पन्न करने वाले जीव दिवसपृथक्त्व से लगाकर उपरिम काल में उत्पन्न करते हैं, नीचे के काल में नहीं। इस प्रकार सर्व द्वीपसमुद्रों में जानना चाहिए।13-30। मनुष्य मिथ्यादृष्टि पर्याप्तकों में सम्यक्त्व उत्पन्न करने वाले जीव आठ वर्ष से लेकर ऊपर किसी समय भी उत्पन्न करते हैं, उससे नीचे के काल में नहीं। इस प्रकार अढाई द्वीपसमुद्रों में जानना चाहिए।23-28। देव मिथ्यादृष्टि पर्याप्तकों में प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करने वाले जीव अन्तर्मुहूर्त काल से लेकर ऊपर उत्पन्न करते हैं, उससे नीचे के काल में नहीं। इस प्रकार भवनवासी से लेकर उपरिम उपरिम ग्रैवेयक विमानवासी देवों तक जानना चाहिए।31-35। (रा.वा./2/3/1/105/2,6,8,12)
ध.13/5,4,31/111/10 छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदम्मि एक्को, विस्समणे विदियो, विसोहिआवूरणे तदियो मुहुत्तो। किमट्ठमेदे अवणिज्जंते। ण, एदेसु सम्मत्तग्गहणाभावादो। =छह पर्याप्तियों से प्राप्त होने का प्रथम अन्तर्मुहूर्त है, विश्राम करने का दूसरा अन्तर्मुहूर्त है और विशुद्धि को पूरा करने का तीसरा अनतर्मुहूर्त है। प्रश्न - ये अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितियों में से क्यों घटाये जाते हैं ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, (जन्म होने के पश्चात् ) इन अन्तर्मुहूर्तों के भीतर सम्यक्त्व का ग्रहण नहीं होता है। (अर्थात् ये तीन अन्तर्मुहूर्त बीत जाने के पश्चात् चौथे अन्तर्मुहूर्त में ही सम्यक्त्व का ग्रहण सम्भव है, उससे पहले नहीं। पर ये चारों अन्तर्मुहूर्त मिलकर भी एक अन्तर्मुहूर्त के काल को उल्लंघन नहीं कर पाते। ऐसे अन्तर्मुहूर्त द्वारा नारकी व देव प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं।)
6. अनादि व सादि मिथ्यादृष्टि में सम्यक्त्व प्राप्ति सम्बन्धी कुछ विशेषता
क.पा.सु./10/गा.104/435 सम्मत्तपढमलंभो सव्वोवसमेण तह वियट्टेण। भजियव्वो य अभिक्खं सव्वोवसमेण देसेण।104। =जो सर्वप्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, अर्थात् अनादि मिथ्यादृष्टि जीव, उसके सम्यक्त्व का सर्वप्रथम लाभ सर्वोपशमपना से होता है। इसी प्रकार विप्रकृष्ट जीव के, (अर्थात् जिसने पहले कभी सम्यक्त्व को प्राप्त किया था किन्तु पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त होकर और वहाँ सम्यक्त्वप्रकृति एवं सम्यक्त्वमिथ्यात्वकर्म की उद्वेलना कर बहुतकाल तक मिथ्यात्व सहित परिभ्रमण कर पुन: सम्यक्त्व को प्राप्त किया है, अर्थात् अनादि तुल्य सादि मिथ्यादृष्टि के (देखें आगे - IV.4.5.3) प्रथमोपशम सम्यक्त्व का लाभ भी सर्वोपशम से होता है। किन्तु जो जीव सम्यक्त्व से गिरकर जल्दी ही पुन: पुन: सम्यक्त्व को ग्रहण करता है, अर्थात् सादि मिथ्यादृष्टि जीव सर्वोपशम और देशोपशम से भजनीय है। (तीनों प्रकृतियों के उदयाभाव को सर्वोपशम कहते हैं। तथा सम्यक्त्वप्रकृति सम्बन्धी देशघाती के उदय को देशोपशमना कहते हैं।) (पं.सं./प्र./1/171); (ध.6/1,9-8,9/गा.11/241); (रा.वा./9/1/13/588/23); (गो.क./जी.प्र./550/742/15)
ध.1,6,38/33/10 तसेसु अच्छिदूण जेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेलिदाणि सो सागरोवमपुधत्तेण सम्मत्तसम्मामिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मेण उवसमसम्मत्तं पडिवज्जदि एदम्हादो उवरिमासु ट्ठिदीसु जदि सम्मत्तं गेण्हदि, तो णिच्छएण वेदगसम्मत्तमेव गेण्हदि। अध एइंदिएसु जेण सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणि उव्वेलिदाणि, सो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणुणसागरोवममेत्ते समत्त-सम्मामिच्छत्ताणं ट्ठिदिसंतकम्मे सेसे तसेसुववज्जिय उवसमसम्मत्तं पडिवज्जदि। एदाहि ट्ठिदीहि ऊणसेस कम्मट्ठिदिउव्वेलणकालो जेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो तेण सासणेगजीवजहण्णंतरं पि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तं होदि। =1. त्रसजीवों में रहकर जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियों का उद्वेलन किया है, वह जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की स्थिति के सत्त्वस्वरूप सागरोपम पृथक्त्व के पश्चात् उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है। यदि, इससे ऊपर की स्थिति रहने पर सम्यक्त्व को ग्रहण करता है, तो निश्चय से वेदक सम्यक्त्व को ही प्राप्त होता है। 2. और एकेन्द्रियों में जाकर के जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उद्वेलना की है, वह पल्योपम के असंख्यातवें भाग से कम सागरोपमकालमात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व का स्थितिसत्त्व अवशेष रहने पर त्रस जीवों में उत्पन्न होकर उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है इन स्थितियों से कम शेष कर्मस्थिति, उद्वेलनकाल चूँकि पल्योपम के असंख्यातवें भाग है (देखें संक्रमण ) इसलिए सासादन गुणस्थान का एक जीव सम्बन्धी जघन्य अन्तर भी (प्रथमोपशम की भाँति) पल्योपम के असंख्यात भागमात्र ही होता है। (विशेष देखें अन्तर - 2.6)
गो.क./मू./615/820 उदधिपुधत्तं तु तसे पल्लासंखूणमेगमेयक्खे। जाव य सम्मं मिस्सं वेदगजोग्गो व उवसमरस्सतदो। =सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय, इनकी पूर्वबद्ध सत्तारूप स्थिति, त्रस के तो सागरोपम प्रमाण अवशेष रहने पर और एकेन्द्रियों के पल्य का असंख्यातवाँ भाग हीन एक सागरोपम प्रमाण अवशेष रहने पर, तावत्काल वेदक योग्य काल माना गया है। और उससे भी हीन स्थितिसत्त्व हो जाने पर उपशम योग्य काल माना गया है।
गो.क./जी.प्र./550/742/12 सादिर्यदि सम्यक्त्वमिश्रप्रकृतिसत्त्वस्तदा सप्तप्रकृती: सदसत्त्वस्तदा सोऽप्यनादिरपि मिथ्यात्वानुबन्धिन:...प्रशस्तोपशमविधानेन युगपदेवोपशम्यान्तर्मुहूर्तकालं प्रथमोपशमसम्यक्त्वं स्वीकुर्वन् । =सादि मिथ्यादृष्टि के यदि सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय, इन दो प्रकृतियों का सत्त्व हो तो उसके सात प्रकृतियाँ है और यदि इन दोनों का सत्त्व नहीं है अर्थात् इनकी उद्वेलना कर दी है तो उसके दर्शनमोह की पाँच प्रकृतियाँ है। ऐसा जीव भी अनादि मिथ्यादृष्टि ही है। वह भी मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन पाँच प्रकृतियों को प्रशस्त उपशम या सर्वोपशम विधान के द्वारा युगपत् उपशमाकर, अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त उपशम सम्यक्त्व को अंगीकार करता है। (विशेष देखें अन्तर - 2.)
7. प्रथमोपशम से च्युति सम्बन्धी नियम
क.पा.सुत्त./10/गा.नं./632 मिच्छत्तवेदणीयं कम्मं उवसामगस्स बोद्धव्वं। उवसंते आसाणे तेण परं होइ भजियव्वो।99। सव्वेहिं ट्ठिदिविसेसेहिं उवसंता होंति तिण्णि कम्मंसा। एक्कम्हि य अणुभागे णियमा सव्वे ट्ठिदिविसेसा।100। अंतोमुहुत्तमद्धं सव्वोवसमेण होइ उवसंतो। तत्तो परमुदयो खलु तिण्णेक्कदरस्स कम्मस्स।103। सम्मत्तपढमलंभस्स पच्छदो य पच्छदो य मिच्छत्तं। लंभस्स अपढमस्स दु भजियव्वो पच्छिदो होदि।105। =उपशामक के मिथ्यात्व वेदनीयकर्म का उदय जानना चाहिए। किन्तु उपशान्त अवस्था के विनाश होने पर तदनन्तर उसका उदय भजितव्य है।99। (ध.6/1,9-8,9/गा.6/240)। 2. दर्शनमोहनीय के मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, ये तीनों कर्मांश, दर्शनमोह की उपशान्त अवस्था में सर्वस्थितिविशेषों के साथ उपशान्त रहते हैं, अर्थात् उस समय तीनों प्रकृतियों में से किसी एक की भी किसी स्थिति का उदय नहीं रहता है। तथा एक ही अनुभाग में उन तीनों कर्मांशों के सभी स्थितिविशेष नियम से अवस्थित रहते हैं।100। (ध.6/1,9-8,9/गा.7/240)। 3. उपशमसम्यग्दृष्टि जीव के दर्शनमोहनीय कर्म अन्तर्मुहूर्त काल तक सर्वोपशम से उपशान्त रहता है। इसके पश्चात् नियम से उसके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, इन तीन कर्मों में से किसी एक कर्म का उदय हो जाता है।103। (ध.6/1,9-8,9/गा.9/240); (ल.सा./मू./102/139)। 4. सम्यक्त्व की प्रथम बार प्राप्ति के अनन्तर और पश्चात् मिथ्यात्व का उदय होता है। किन्तु अप्रथम बार सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् वह भजितव्य है।105। (पं.सं./प्रा./1/172); (ध.6/1,9-8,9/गा.12/242); (अन.ध./2/1/120 पर उद्धृत एक श्लोक)
8. गिरकर किस गुणस्थान में जावे
ध.1/1,1,12/171/8 एरिसो चेव उवसमसम्माइट्ठी, किंतु परिणामपच्चएण मिच्छत्तं गच्छइ, सासणगुणं वि पडिवज्जइ, सम्मामिच्छत्तगुणं पि ढक्कइ, वेदगसम्मत्तं पि समिल्लियइ। =उपशम सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि क्षायिकवत् निर्मल होता है, परन्तु परिणामों के निमित्त से उपशम सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व को जाता है, कभी सासादन गुणस्थान को भी प्राप्त करता है, कभी सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को भी पहुँच जाता है और कभी वेदक सम्यक्त्व से मेल कर लेता है।
गो.जी./जी.प्र./704/1141/15 ते अप्रमत्तसंयतं विना त्रय एव तत्सम्यक्त्वकालान्तर्मुहूर्ते जघन्येन एकसमये उत्कृष्टेन च षडावलिमात्रेऽवशिष्टे अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदयेसासादनाभवन्ति। अथवा ते चत्वारोऽपि यदि भव्यतागुणविशेषेण सम्यक्त्वविराधका न स्यु: तदा तत्काले संपूर्णे जाते सम्यक्त्वप्रकृत्युदये वेदकसम्यग्दृष्टय: वा मिश्रप्रकृत्युदये सम्यग्मिथ्यादृष्टय: वा मिथ्यात्वोदये मिथ्यादृष्टयो भवन्ति। =[प्रथमोपशम सम्यक्त्व 4-7 तक के चार गुणस्थानों में होना सम्भव है (देखें सत् )] तहाँ अप्रमत्त के बिना तीन गुणस्थानवर्ती जीव उस प्रथमोपशम के अन्तर्मुहूर्तमात्र काल में से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवली शेष रह जाने पर, अनन्तानुबन्धी चतुष्क में से किसी एक के उदय से सासादन होते हैं। अथवा वे चारों ही गुणस्थानवर्ती यदि भव्यतागुण की विशेषता से सम्यक्त्व की विराधना नहीं करते हैं, तो सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं। अथवा मिश्र प्रकृति के उदय से सम्यग्मिथ्यादृष्टि या मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं। (और भी देखें सम्यग्दर्शन - IV.4.5.3)।
9. पंच लब्धि पूर्वक होता है
ध.6/1,9-8,3/204/2 तिकरणचरिमसमए सम्मत्तुप्पतीदो। एदेण खओवसमलद्धी विसोहिलद्धी देसणलद्धी पाओग्गलद्धी त्ति चत्तारि लद्धीओ परूविदो। =तीनों करणों के अन्तिम समय में सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है। इस सूत्र के द्वारा क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, और प्रायोग्य लब्धि ये चारों लब्धियाँ प्ररूपण की गयीं - (और भी देखें लब्धि - 2.5 तथा उपशम/2/2); (ल.सा./4/41/9)।
10. प्रारम्भ किये पश्चात् अवश्य प्राप्त करता है
क.पा.सु./10/97/631 उवसामगो च सव्वो णिव्वाधादो तहा णिरासाओ।97। =दर्शनमोह का उपशमन करने वाला जीव उपद्रव व उपसर्ग आने पर भी उसका उपशम किये बिना नहीं रहता। (ध.6/1,9-8,1/गा.4/239); (ल.सा./मू./99/136); (और भी देखें अपूर्वकरण - 4)।
3. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व निर्देश
1. द्वितीयोपशम का लक्षण
ल.सा./भाषा/2/42/1 उपशमश्रेणी चढ़ता क्षयोपशम सम्यक्त्वतैं जो उपशम सम्यक्त्व (होता है) ताका नाम द्वितीयोपशम सम्यक्त्व है। (और भी देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.4.2)।
2. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का स्वामित्व
ध.6/1,9-8,14/331/8 हंदि तिसु आउएसु एक्केण वि बद्धेण ण सक्को कसाए उवसामेदुं, तेण कारणेण णिरय-तिरिक्ख-मणुसगदीओ ण गच्छदि। =निश्चयत: नरकायु, तिर्यंगायु, और मनुष्यायु, इन तीनों आयु में से पूर्व में बाँधी गयी एक भी आयु से कषायों को उपशमाने के लिए समर्थ नहीं होता। इसी कारण से वह नरक तिर्यंच व (मरकर) मनुष्यगति को प्राप्त नहीं होता। (विशेष देखें मरण - 3/7)।
गो.जी./मू./696,731/1132,1325 विदियुवसमसम्मत्तं अविरदसम्मादि संतमोहोत्ति।696। विदियुवसमसम्मत्तं सेढोदोदिण्णि अविरदादिसु।731। 1. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व 4 थे से 11वें गुणस्थान तक होता है।696। (विशेष देखें उपशम - 2/4)। 2. श्रेणी से उतरते हुए अविरतादि गुणस्थान होते हैं। (विशेष देखें शीर्षक नं - 3,4)।
गो.जी./जी.प्र./550/742/7 द्वितीयं पर्याप्तमनुष्यनिर्वृत्त्यपर्याप्तवैमानिकयोरेव। =द्वितीयोपशम सम्यक्त्व पर्याप्त मनुष्य व निर्वृत्त्यपर्याप्त वैमानिक देवों में ही होता है। (देखें द्र सं./टी./41/179/9); (और भी देखें मरण - 3/7)।
3. द्वितीयोपशम का अवरोहण क्रम
ध.6/1,9-8,14/331/4 एदिस्से उवसम्मत्ताए अब्भंतरादो असंजमं पि गच्छेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेज्ज, छसु आवलियासु सेसासु आसाणं पि गच्छेज्ज। =इस द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के काल के भीतर असंयम को भी प्राप्त हो सकता है, संयमासंयम को भी प्राप्त हो सकता है और छह आवलियों के शेष रहने पर सासादन को भी प्राप्त हो सकता है। [सासादन को प्राप्त करने व न करने के सम्बन्ध में दो मत हैं। (देखें सासादन )] (ल.सा./मू./348/437)।
गो.जी./मू./731/1325 विदिमुवसारसम्मत्तं सेढीदोदिण्णि अविरदादीसु। सगसगलेस्सा मरिदे देवअपज्जत्तगेव हवे।731।
गो.जी./जी.प्र./704/1141/19 द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा उपशमश्रेणिमारुह्य उपशान्तकषायं गत्वा अन्तर्मुहूर्तं स्थित्वा क्रमेण अवतीर्य अप्रमत्तगुणस्थानं प्राप्य प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसहस्राणि करोति। वा अध: देशसंयमो भूत्वा आस्ते वा असंयतो भूत्वा आस्ते वा मरणे देवासंयत: स्यात् वा मिश्रप्रकृत्युदये मिश्र: स्यात् । अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदये द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं विराधयतीत्याचार्यपक्षे सासादन: स्यात् वा मिथ्यात्वोदये मिथ्यादृष्टि: स्यात् इति। =द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि होकर, उपशमश्रेणी पर आरोहण करके, उपशान्तकषाय गुणस्थान में जाकर और वहाँ तत् योग्य अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रहकर क्रम से नीचे गिरता हुआ अर्थात् क्रमपूर्वक 10,9,8 गुणस्थानों में से होता हुआ अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त करता है। वहाँ प्रमत्त व अप्रमत्त में हज़ारों बार उतरना गिरना करता है। अथवा नीचे देशसंयत होकर रहता है, अथवा असंयत होकर रहता है, या मरण करके असंयत देव (निवृत्त्यपर्याप्त) होता है, अथवा मिश्र प्रकृति के उदय से मिश्रगुणस्थानवर्ती होता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्क में से किसी एक का उदय आने पर द्वितीयोपशम की विराधना करके किन्हीं आचार्यों के मत से सासादन भी हो जाता है (विशेष देखें सासादन ), अथवा मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है। (और भी देखें श्रेणी - 3.3)।
4. श्रेणी से नीचे आकर भी कुछ देर द्वितीयोपशम के साथ ही रहता है
ध.6/1,9-8,14/331/1 उवसामगस्स पढमसमयअपुव्वकरणप्पहुडि जाव पडिवणमाणयस्स चरिमसमयअपुव्वकरणेत्ति तदो एत्तो संखेज्जगुणं कालं पडिणियत्ता अधापवत्तकरणेण उवसमसम्मत्तद्धमणुपालेदि। =उपशामक के श्रेणी चढ़ते समय अपूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर उतरते हुए अपूर्वकरण के अन्तिम समय तक जो काल है, उससे संख्यातगुणे काल तक कषायोपशमना से लौटता हुआ जीव अध:प्रवृत्तिकरण (7वें गुणस्थान) के साथ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व को पालता है। (ल.सा./मू./347/437); (और भी देखें मरण - 3/7)।
गो.जी./जी.प्र./696/1132/12 द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं असंयताद्युपशान्तकषायान्तं भवति। अप्रमत्ते उत्पाद्य उपरि उपशान्तकषायान्तं गत्वा अधोवतरणे असंयतान्तमपि तत्संभवात् ।= द्वितीयोपशम सम्यक्त्व असंयतादि उपशान्तकषाय गुणस्थान पर्यन्त होता है। अप्रमत्त गुणस्थान में उत्पन्न करके, ऊपर उपशान्तकषाय गुणस्थान तक जाकर, फिर नीचे उतरते हुए असंयत गुणस्थान तक भी सम्भव है। (गो.जी./जी.प्र./731/1325/13)
4. वेदक सम्यक्त्व निर्देश
1. वेदक सामान्य का लक्षण
1. क्षयोपशम की अपेक्षा
स.सि./2/5/157/6 अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयस्य मिथ्यात्वसम्यङ्मिथ्यात्वयोश्चोदयक्षयात्सदुपशमाच्च सम्यक्त्वस्य देशघातिस्पर्धकस्योदये तत्त्वार्थश्रद्धानं क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वम् । =चार अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और इन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से, देशघाती स्पर्धकवाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। (रा.वा./2/5/8/108/1); (विशेष देखें क्षयोपशम - 1.1); (गो.जी./जी.प्र./25/50/18)।
2. वेदक सम्यक्त्व की अपेक्षा
ध.1/1,1,114/गा.215/396 दंसणमोहुदयादो उप्पज्जई जं पयत्थ सद्दहणं। चलमलिनमगाढं तं वेदगसम्मत्तमिह मुणहु। =सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति के उदय से पदार्थों का जो चल, मलिन और आगाढ़रूप श्रद्धान होता है उसको वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं। (गो.जी./मू./649/1099); (गो.जी./मू./25/50)।
ध.1/1,1,12/172/6 सम्मत्त-सण्णिद-दंसणमोहणीयभेय-कम्मस्स उदएण वेदयसम्माइट्ठी णाम।
ध.1/1,1,12/172/3 सम्मत्तदेसघाइ-वेदयसम्मत्तुदएणुप्पण्णवेदयसम्मत्तं खओवसमियं। =1. जिसकी सम्यक्त्व संज्ञा है ऐसी दर्शनमोहनीय कर्म की भेदरूप प्रकृति के उदय से यह जीव वेदक सम्यग्दृष्टि कहलाता है। (पं.सं./प्रा./1/164)। 2. सम्यक्त्व का एक देशरूप से वेदन कराने वाली सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से उत्पन्न होने वाला वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक है। (विशेष देखें क्षयोपशम - 1.1)।
2. कृतकृत्य वेदक का लक्षण
ध.6/1,9-8,12/262/10 चरिमे टि्ठदखंडए णिट्ठिदे कदकरणिज्जो त्ति भण्णदि। =दर्शनमोहनीय का क्षय करने वाला कोई जीव 7वें गुणस्थान के अन्तिम सातिशय भाग में कर्मों की स्थिति का काण्डक घात करता है - देखें क्षय ) तहाँ अन्तिम स्थितिकाण्डक के समान होने पर वह 'कृतकृत्यवेदक' कहलाता है। (ल.सा./मू./145) (विशेष देखें क्षय - 2/5)
3. वेदक सम्यक्त्व के बाह्य चिह्न
पं.सं./प्रा./1/163-164 बुद्धी सुहाणुबंधी सुइकम्मरओ सुए य संवेगो। तच्चत्थे सद्दहणं पियधम्मे तिव्वणिव्वेदो।163। इच्चेवमाइया जे वेदयमाणस्स होंति ते य गुणा। वेदयसम्मत्तमिणं
सम्मत्तुदएण जीवस्स।164। =वेदक सम्यक्त्व के उत्पन्न होने पर जीव की बुद्धि शुभानुबन्धी या सुखानुबन्धी हो जाती है। शुचिकर्म में रति उत्पन्न होती है। श्रुत में संवेग अर्थात् प्रीति पैदा होती है। तत्त्वार्थ में श्रद्धान, प्रिय धर्म में अनुराग एवं संसार से तीव्र निर्वेद अर्थात् वैराग्य जागृत हो जाता है।163। इन गुणों को आदि लेकर इस प्रकार के जितने गुण हैं, वे सब वेदक सम्यक्त्वी जीव के प्रकट हो जाते हैं। सम्यक्त्व प्रकृति के उदय का वेदन करने वाले जीव को वेदक सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।164।
4. वेदक सम्यक्त्व की मलिनता का निर्देश
ध.1/1,1,12/171/10 जो पुण वेदयसम्माइट्ठी सो सिथिलसद्दहणो थेरस्स लट्ठिग्गहणं व सिथिलग्गाही कुहेउ-कुदिट्ठंतेहि झडिदि विराहओ। =वेदक सम्यग्दृष्टि जीव शिथिलश्रद्धानी होता है, इसलिए वृद्धपुरुष जिस प्रकार अपने हाथ में लकड़ी को शिथिलतापूर्वक पकड़ता है, उसी प्रकार वह भी तत्त्वार्थ के श्रद्धान में शिथिलग्राही होता है। अत: कुहेतु और कुदृष्टान्त से उसे सम्यक्त्व की विराधना करने में देर नहीं लगती है। (और भी देखें अगाढ )
ध.6/1,9-1,21/40/1 अत्तागमपयत्थसद्धाए सिथिलत्तं सद्धाहाणी वि सम्मत्तलिंगं। =आप्त आगम और पदार्थों की श्रद्धा में शिथिलता और श्रद्धा की हीनता होना सम्यक्त्वप्रकृति का चिह्न है। (देखें मोहनीय - 2.4)
देखें सम्य - I.2.6 [दर्शनमोह के उदय से (अर्थात् सम्यक्त्व-प्रकृति के उदय से) सम्यग्दर्शन में शंका कांक्षा आदि अतिचार लगते हैं।]
देखें अनुभाग - 4.6.3 [सम्यक्त्वप्रकृति सम्यक्त्व के स्थिरता और निष्कांक्षता गुणों का घात करती है।]
गो.जी./मू./25/50 सम्मत्तदेसघादिस्सुदयादो वेदगं हवे सम्मं। चलमलिनमगाढं तं णिच्चं कम्मक्खवणहेदु।25। =सम्यक्त्व नाम की देशघाती प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व चल मलिन व अगाढ़ दोष से युक्त हो जाता है, परन्तु नित्य ही वह कर्मक्षय का हेतु बना रहता है। (और भी देखें सम्यग्दर्शन - IV.4.1.2), (अन.ध./2/56/182)
देखें चल (अपने व अन्य के द्वारा स्थापित जिनबिम्बों में मेरे तेरे की बुद्धि करता है, तथा कुछ मात्र काल स्थिर रहकर चलायमान हो जाता है।)
देखें मल [शंका आदि दोषों से दूषित हो जाना मल है।]
5. वेदक सम्यक्त्व का स्वामित्व
1. गति व पर्याप्ति आदि की अपेक्षा
स.सि./1/7/22/6 गत्यनुवादेन नरकगतौ सर्वासु पृथिवीषु नारकाणां पर्याप्तकानामौपशमिकं क्षायोपशमिकं चास्ति। प्रथमायां पृथिव्यां पर्याप्तापर्याप्तकानां क्षायिकं क्षायोपशमिकं चास्ति। तिर्यग्गतौ तिरश्चां...क्षायिकं क्षायोपशमिकं च पर्याप्तापर्याप्तकानामस्ति। तिरश्चीनां क्षायिकं नास्ति। क्षायोपशमिकं च पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम् । मनुष्यगतौ मनुष्याणां पर्याप्तापर्याप्तकानां क्षायिकं क्षायोपशमिकं चास्ति। मानुषीणां त्रितयमप्यस्ति पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम् । देवगतौ देवानां पर्याप्तापर्याप्तकानां त्रितयमप्यस्ति ...विशेषेण भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्काणां देवानां देवीनां च सौधर्मैशानकल्पवासिनीनां च क्षायिकं नास्ति। तेषां पर्याप्तकानामौपशमिकं क्षायोपशमिकं चास्ति। =गतिमार्गणा के अनुवाद से नरक गति में सब पृथिवियों में पर्याप्तक नारकियों के औपशमिक व क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। पहली पृथिवी में पर्याप्तक और अपर्याप्तक नारकियों में क्षायिक व क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। तिर्यंचगति में क्षायिक और क्षायोपशमिक पर्याप्त और अपर्याप्तक दोनों प्रकार के तिर्यंचों के होता है। तिर्यंचिनी के क्षायिक नहीं होता क्षायोपशमिक पर्याप्तक के ही होता है, अपर्याप्तक तिर्यंचिनी के नहीं। मनुष्यगति में क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकार के मनुष्यों के होता है। मनुष्यणियों के तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु पर्याप्तक मनुष्यनी के ही होते हैं, अपर्याप्तक मनुष्यणी के नहीं। देवगति में पर्याप्तक, अपर्याप्तक दोनों प्रकार के देवों के तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं। विशेषरूप से भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों के, इन तीनों की देवांगनाओं के तथा सौधर्म और ऐशान कल्प में उत्पन्न हुई देवांगनाओं के क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता शेष दो होते हैं, सो वे भी पर्याप्तक अवस्था में ही होते हैं। (विशेष देखें वह वह गति तथा सत् )
गो.जी./मू./128/339 हेट्ठिमछप्पुढवीणं जोइसिवणभवणसव्वइत्थीणं। पुण्णिदरे णहि सम्मो ण सासणो णारयापुण्णे।128। =नरक गति में प्रथम पृथिवी के अतिरिक्त नीचे की छह पृथिवी में, देव गति में ज्योतिषी व्यन्तर व भवनवासी देव, सर्व ही प्रकार की स्त्रियाँ, इन सबको पर्याप्त अवस्था में ही सम्यक्त्व होता है अपर्याप्त अवस्था में नहीं। इसके अतिरिक्त नारकियों को अपर्याप्त अवस्था में सासादन भी नहीं होता है।
गो.जी./550/742/7 वेदकं चातुर्गतिपर्याप्तिनिर्वृत्त्यपर्याप्तेषु।7। =वेदक सम्यग्दर्शन चारों ही गतियों में पर्याप्त व निर्वृत्त्यपर्याप्त दोनों दशाओं में होता है।
2. गुणस्थानों की अपेक्षा
ष.खं.1/1,1/सूत्र 146/397 वेदगसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी-प्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा त्ति।146। =वेदक सम्यग्दृष्टि जीव असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं। (विशेष देखें सत् )
3. उपशम सम्यग्दृष्टि व सादि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा
गो.क./जी.प्र./550/744/16 कर्मभूमिमनुष्यप्रथमोपशमसम्यग्दृष्टयश्च स्वस्वान्तर्मुहूर्तकाले गते सम्यक्त्वप्रकृत्युदयाद्वेदकसम्यग्दृष्टयो जायन्ते। कर्मभूमिमनुष्यसादिमिथ्यादृष्टय: सम्यक्त्वप्रकृत्युदयेन मिथ्यात्वोदयनिषेकानुत्कृष्यासंयतादिचतुर्गुणस्थानवेदकसम्यग्दृष्टयो भूत्वा। ...नरकगतौ प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टय: स्वकालानन्तरसमयं प्राप्य सम्यग्मिथ्यादृष्टिसादिमिथ्यादृष्टय: मिश्रमिथ्यात्वप्रकृत्युदयनिषेकानुत्कृष्य च सम्यक्त्वप्रकृत्युदयाद्वेदकसम्यग्दृष्टयो भूत्वा। ...कर्मभोगभूमितिर्यंचो भोगभूमिमनुष्याश्च प्रथमोपशमसम्यक्त्वं त्यक्त्वा सादिमिथ्यादृष्टितिर्यञ्चो मिथ्यात्वोदयनिषेकानुत्कृष्य च सम्यक्त्वप्रकृत्युदयाद्वेदकसम्यग्दृष्टयो जायन्ते।... भवनत्रयाद्युपरिमग्रैवेयकान्तादिमिथ्यादृष्टय: करणत्रयमकृत्वा वा यथासंभवं सम्यक्त्वप्रकृत्यान्मिथ्यात्वं त्यक्त्वा वेदकसम्यग्दृष्टयो भूत्वा तदेव बध्ननित। =कर्मभूमिज मनुष्य प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि अपने-अपने योग्य अन्तर्मुहूर्त काल के बीत जाने पर सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं। कर्मभूमिज मनुष्य सादि मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से उदयगत मिथ्यात्व के निषेकों का अभाव करके असंयतादि चार गुणस्थानवर्ती वेदक सम्यग्दृष्टि होकर...। नरक गति में प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि जीव अपने काल के अनन्तर समय को प्राप्त करके, मिश्रगुणस्थानवर्ती या सादि मिथ्यादृष्टि हो, मिश्र व मिथ्यात्व प्रकृति के उदयगत निषेकों को हटाकर सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। कर्मभूमिज तिर्यंच और भोगभूमिज मनुष्य प्रथमोपशम को छोड़ और सादि मिथ्यादृष्टि तिर्यंच मिथ्यात्व के उदयगत निषेकों का अभाव करके सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से वेदक-सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं। भवनत्रिक से लेकर उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्त के सादि मिथ्यादृष्टि देव करणत्रय को करके अथवा यथासम्भव सम्यक्त्व प्रकृति के द्वारा मिथ्यात्व को छोड़कर वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। (इस प्रकार ये सभी जीव वेदक सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थंकर प्रकृति को बाँधने के योग्य हो जाते हैं, ऐसा यहाँ प्रकरण है।) (और भी देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.8)
6. अनादि मिथ्यादृष्टि को सीधा प्राप्त नहीं होता
ध.5/1,6,121/73/5 एइंदिएसु दीहद्धमवट्ठिदस्स उव्वेल्लिदसम्मत्तसम्मामिच्छत्तस्स तदुप्पायणे संभवाभावा। =एकेन्द्रियों में दीर्घकाल तक रहने वाले और उद्वेलना की है सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की जिसने ऐसे जीव के वेदक सम्यक्त्व का उत्पन्न कराना सम्भव नहीं है। (ध.5/1,6,288/139/6)
देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.6 में अन्तिम सन्दर्भ -[उपरोक्त प्रकार का जीव अनादिमिथ्यादृष्टि ही होता है।]
7. सम्यक्त्व से च्युत होने वाले बहुत कम हैं
ध.3/1,2,14/120/4 वेदगसम्माइट्ठीणमसंखेज्जदिभागो मिच्छत्तं गच्छदि। तस्स वि असंखेज्जदिभागो सम्मामिच्छत्तं गच्छदि। =वेदक सम्यग्दृष्टियों का असंख्यातवाँ भाग मिथ्यात्व को प्राप्त होता है और उसका भी असंख्यातवाँ भाग सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है।
8. च्युत होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त से पहले सम्यक्त्व पुन: प्राप्त नहीं होता
क.पा.3/3-22/362/196/4 संकिलेसादो ओयरिय विसोहीए अंतोमुहुत्तावट्ठाणेण विणा सम्मत्तस्स गहणाणुववत्तीदो। =मिथ्यात्व में आकर और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के कारणभूत संक्लेश से च्युत होकर, विशुद्धि को प्राप्त करके, जब तक उस विशुद्धि के साथ जीव मिथ्यात्व में अन्तर्मुहूर्त काल तक नहीं ठहरता, तब तक उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है। (विशेष देखें अन्तर - 4)।
9. ऊपर के गुणस्थान में न होने में हेतु
ध.1/1,1,146/397/7 उपरितनगुणेषु किमिति वेदकसम्यक्त्वं नास्तीति चेन्न, अगाढसमलश्रद्धानेन सह क्षपकोपशमश्रेण्यारोहणानुपपत्ते:। =प्रश्न -ऊपर के आठवें आदि गुणस्थानों में वेदकसम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता है? उत्तर -नहीं होता, क्योंकि, अगाढ़ आदि मलसहित श्रद्धान के साथ क्षपक और उपशम श्रेणी का चढ़ना नहीं बनता है।
10. कृतकृत्य वेदक सम्बन्धी कुछ नियम
ध.6/1,9-8,12/263/1 कदकरणिज्जकालब्भंतरे मरणं पि होज्ज, काउ-तेउ-पम्म -सुक्क-लेस्साणमण्णदराए लेस्साए वि परिणामेज्ज, संकिलिस्सदु वा विसुज्झदु वा, तो वि असंखेज्जगुणाए सेडीए जाव समयाहियावलिया सेसा ताव असंखेज्जाणं समयपबद्धाणमुदीरणा, उक्कस्सिया वि उदीरणा उदयस्स असंखेज्जदिभागो। =कृतकृत्यवेदककाल के भीतर उसका मरण भी हो (विशेष देखें मरण - 3/8); कापोत तेज पद्म और शुक्ल इन लेश्याओं में से किसी एक लेश्या के द्वारा भी परिणमित हो; संक्लेश को प्राप्त हो; अथवा विशुद्धि को प्राप्त हो; तो भी असंख्यातगुणित श्रेणी के द्वारा जब तक एक समय अधिक आवलीकाल शेष रहता है, तब तक असंख्यात समय प्रबद्धों की उदीरणा होती रहती है। उत्कृष्ट भी उदीरणा उदय के असंख्यातवें भाग होती है।
5. क्षायिक सम्यक्त्व निर्देश
1. क्षायिक सम्यग्दर्शन का लक्षण
पं.सं./प्रा./1/160-162 खीणे दंसणमोहे जं सद्दहणं सुणिम्मलं होइ। तं खाइयसम्मत्तं णिच्चं कम्मक्खवणहेउं।160। वयणेहिं वि हेऊहि य इंदियभय जणणगेहिं रूवेहिं। वीभच्छ-दुगुंछेहि य णे तेल्लोक्केण चालिज्जा।161। एवं विउला बुद्धी ण य विभयमेदि किंचि दट्ठूणं। पट्ठविए सम्मत्ते खइए जीवस्स लद्धीए।162। =दर्शनमोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने पर जो निर्मल श्रद्धान होता है, उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। वह सम्यक्त्व नित्य है और कर्मों के क्षय करने का कारण है।160। श्रद्धान को भ्रष्ट करने वाले वचनों से, तर्कों से, इन्द्रियों को भय उत्पन्न करने वाले रूपों से तथा वीभत्स और जुगुप्सित पदार्थों से भी चलायमान नहीं होता। अधिक क्या कहा जाय वह त्रैलोक्य के द्वारा भी चल-विचल नहीं होता।161। क्षायिक सम्यक्त्व के प्रारम्भ होने पर अथवा प्राप्ति या निष्ठापन होने पर, क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव के ऐसी विशाल, गम्भीर एवं दृढ़ बुद्धि उत्पन्न हो जाती है कि वह कुछ (असम्भव या अनहोनी घटनाएँ) देखकर भी विस्मय या क्षोभ को प्राप्त नहीं होता।162। (ध.1/1,144/गा.213-214); (गो.जी./मू./646-647/1096)।
स.सि./2/4/154/11 पूर्वोक्तानां सप्तानां प्रकृतीनामत्यन्तक्षयात्क्षायिकं सम्यक्त्वम् । =पूर्वोक्त (दर्शनमोहनीय की) सात प्रकृतियों के अत्यन्त विनाश से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। (रा.वा./2/4/7/106/11)।
ल.सा./मू./164/217 सत्तण्णं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्तं। मेरु व णिप्पकंपं सुणिम्मलं अक्खयमणंतं।164। =सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। वह मेरु की भाँति निष्प्रकम्प, निर्मल व अक्षय अनन्त है।
प्र.प./टी./1/61/61/9 शुद्धात्मादिपदार्थ विषये विपरीताभिनिवेशरहित: परिणाम: क्षायिकसम्यकत्वमिति भण्यते। =शुद्ध आत्मा आदि पदार्थों के विषय में विपरीत अभिनिवेश रहित परिणाम क्षायिक सम्यक्त्व कहा जाता है। (द्र.सं./टी./14/42/5)
ध.1/1,1,12/171/4 एदासिं सत्तण्हं णिरवसेसखएण खइयसम्माइट्ठी उच्चइ।...खइयसम्माइट्ठी ण कयाइ वि मिच्छत्तं गच्छइ, ण कुणइ संदेहं पि मिच्छत्तुब्भवं। दट्ठूण णो विम्हयं जायदि। =सात प्रकृतियों के सर्वथा विनाश से जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। ...क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव कभी भी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, किसी प्रकार के सन्देह को भी नहीं करता, और मिथ्यात्वजन्य अतिशयों को देखकर विस्मय को भी प्राप्त नहीं होता है।
2. क्षायिक सम्यक्त्व का स्वामित्व
1. गति व पर्याप्ति की अपेक्षा
देखें सम्यग्दर्शन - IV.4.5.1 -[नरक गति में केवल प्रथम पृथिवी में होता अन्य पृथिवियों में नहीं। वहाँ पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनों के होता है। तिर्यंच गति में तिर्यंचों को पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनों को होता है, पर तिर्यंचिनियों को सर्वथा नहीं। मनुष्य गति में मनुष्यों को पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनों को होता है, मनुष्यनी के केवल पर्याप्तक को होता है। देवों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों को होता है, पर भवनत्रिक व सर्व ही देवियों के सर्वथा नहीं होता है।] विशेष देखें वह वह गति )।
गो.क./जी.प्र./550/742/6 क्षायिकं धर्मानारकभोगभूमितिर्यग्भोगकर्मभूमिमनुष्यवैमानिकेष्वेव पर्याप्तापर्याप्तेषु। =क्षायिक सम्यग्दर्शन धर्मानरक अर्थात प्रथम पृथिवी में, भोगभूमिज तिर्यंचों में, कर्म व भूमिज मनुष्यों में तथा वैमानिक देवों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में होते हैं। (विशेष देखें वह वह गति )।
2. प्रस्थापक व निष्ठापक की अपेक्षा
ष.खं.6/1,9-8/सूत्र 12/247 णिट्ठवओ पुण चतुसु वि गदीसु णिट्ठवेदि।12। =दर्शनमोह की क्षपणा का निष्ठापक तो चारों ही गतियों में उसका निष्ठापन करता है। [पर इसका प्रस्थापन मनुष्यगति में ही सम्भव है।]
क.पा.सुत्त/11/गा.110-111/639 दंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजादो दु। णियमा मणुसगदीए णिट्ठवगो चावि सव्वत्थ।110। मिच्छत्तवेदणोयकम्मे ओवट्टिदम्मि सम्मत्ते। खवणाए पट्ठवगो जहण्णगो तेउलेस्साए।111। 1. नियम से कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ और मनुष्यगति में वर्तमान जीव ही दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक (प्रारम्भ करने वाला) होता है। किन्तु उसका निष्ठापक (पूर्ण करने वाला) चारों गतियों में होता है।110। (पं.सं./प्रा./1/202); (ध.6/1,9-8,11/गा.17/245); (गो.जी./मू./648/1098); (देखें तिर्यंच - 2.5 में स.सि.) 2. मिथ्यात्ववेदनीयकर्म के सम्यकत्व प्रकृति में अपवर्तित अर्थात् संक्रमित कर देने पर जीव दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक कहलाता है। दर्शनमोह की क्षपणा के प्रस्थापक को जघन्य तेजोलेश्या में वर्तमान होना चाहिए।111।
ल.सा./मू./110-111/149 दंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजो मणुसो।...।110। णिट्ठवगो तट्ठाणे विमाणभोगावणीसु घम्मे य। किदकरणिज्जो चदुसु वि गदीसु उप्पज्जदे जम्हा।111। =दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक कर्मभूमिज मनुष्य ही होता है।110। परन्तु उसका निष्ठापक तो (अबद्धायुष्क की अपेक्षा) उसी स्थान में अर्थात् जहाँ प्रारम्भ किया था ऐसी उस मनुष्यगति में (और बद्धायुष्क की अपेक्षा) विमानवासी देवों में, भोगभूमिज मनुष्यों व तिर्यंचों में और घर्मा नामक प्रथम नरक पृथिवी में भी होता है, क्योंकि बद्धायुष्क कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मरकर चारों ही गतियों में उत्पन्न होता है।111। (गो.क./जी./550/744/11)
3. गुणस्थानों की अपेक्षा
ष.खं./1/1,1/सू.145/396 सम्माइट्ठी खइयसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।145। =सामान्य से सम्यग्दृष्टि और विशेष से क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं।145।
गो.क./जी.प्र/550/744/11 प्रस्थापकोऽयमसंयतादिचतुर्ष्वन्यतमो मनुष्य एव। =प्रस्थापक तो असंयत से अप्रमत्त पर्यन्त के चार गुणस्थानवर्ती मनुष्य ही होते हैं।
गो.जी./जी.प्र./704/1141/22 क्षायिकसम्यक्त्वं तु असंयतादि चतुर्गुणस्थानमनुष्याणां असंयतदेशसंयतोपचारमहाव्रतमानुषीणां च कर्मभूमिवेदकसम्यग्दृष्टीनामेव...सप्तप्रकृतिनिरवशेषक्षये भवति।=क्षायिक सम्यक्त्व तो असंयतादि अप्रमत्त पर्यन्त के चार गुणस्थानवर्ती मनुष्यों के, तथा असंयत, देशसंयत और उपचार से महाव्रती मनुष्यनियों के, कर्मभूमिज वेदक सम्यग्दृष्टियों के ही सात-प्रकृतियों का निरवशेष क्षय हो जाने पर होता है।
देखें तिर्यंच - 2.4 [क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच संयतासंयत नहीं होते]
3. तीर्थंकर आदि के सद्भाव युक्त क्षेत्र व काल में ही प्रतिष्ठापना सम्भव है
ष.खं.6/1,9-8/सूत्र 11/243 दंसणमोहणीयं कम्मं खवेदुम ढवेंतो कम्हि आढवेदि, अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु जम्हि जिणा केवली तित्थयरा तम्हि आढवेदि।11। =दर्शनमोहनीय कर्म का क्षपण करने के लिए आरम्भ करता हुआ यह जीव कहाँ पर आरम्भ करता है ? अढ़ाई द्वीप समुद्रों में स्थित पन्द्रह कर्मभूमियों में जहाँ जिस काल में जिन केवली और तीर्थंकर होते हैं उस काल में आरम्भ करता है।11।
ध.6/1,9-8,11/246/1 दुस्सम (दुस्समदुस्सम) -सुस्समासुस्समा-सुसमा-सुसमादुस्समाकालुप्पण्णमणुसाणं खवणणिवारणट्ठं ‘जम्हि जिणा’ त्ति वयणं। जम्हि काले जिणा संभवंति तम्हि चेव खवणाए पट्ठवओ होदि, ण अण्णकालेसु। ...जम्हि केवलिणाणिणो अत्थि...तित्थयरपादमूले...अधवा चोद्दसपुव्वहरा...एदाणं तिण्हं पि पादमूले दंसणमोहक्खवणं पट्ठवेंति त्ति। =दु:षमा, (दु:षमा-दु:षमा), सुषमासुषमा, सुषमा, और सुषमादु:षमा काल में उत्पन्न हुए मनुष्यों के दर्शनमोह का क्षपण निषेध करने के लिए (उपरोक्त सूत्र में) ‘जहाँ जिन होते हैं’ यह वचन कहा गया है। जिस काल में जिन सम्भव हैं उस की काल में दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक होता है, अन्य काल में नहीं। अर्थात् जिस काल में केवलज्ञान होते हैं, या तीर्थंकर के पादमूल में, अथवा चतुर्दश पूर्वधर होते हैं, इन तीनों के पादमूल में कर्मभूमिज मनुष्यदर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भक होता है।
ल.सा./मू./110/149 तित्थयरपायमूले केवलिसुदकेवलीमूले।110। =तीर्थंकर के पादमूल में अथवा केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में ही (कर्मभूमिज मनुष्य दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक होता है।)
गो.जी./जी.प्र./704/1141/23 केवलिश्रुतकेवलिद्धयश्रीपादोपान्ते सप्तप्रकृतिनिरवशेषक्षये भवति।=केवली और श्रुतकेवली इन दोनों में से किसी के श्रीपादमूल के निकट सात प्रकृतियों का निरवशेषक्षय होने पर होता है।
4. वेदक सम्यक्त्व पूर्वक ही होता है
रा.वा./2/1/8/100/31 सम्यग्दर्शनस्य हि आदिरौपशमिको भावस्तत: क्षायोपशमिकस्तत: क्षायिक इति। =सम्यग्दर्शन में निश्चय से पहले औपशमिक भाव होता है, फिर क्षायोपशमिक होता है और तत्पश्चात् क्षायिक होता है।
गो.जी./जी.प्र./704/1141/23 वेदकसम्यग्दृष्टीनामेव...। =वेदक सम्यग्दृष्टियों को ही होता है।
5. क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत होते हैं पर अल्प
ष.खं.5/1,8/सूत्र 18/256 संजदासंजदट्ठाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी।18।
ध.5/1,8,18/256/6 कुदो। अणुव्वयसहिदखइयसम्मादिट्ठीणमइदुल्लभत्तादो। ण च तिरिक्खेसु खइयसम्मत्तेण सह संजमासंजमो लब्भदि, तत्थ दंसणमोहणीयखवणाभावा। =संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं।18। क्योंकि 1. अणुव्रत सहित क्षायिक सम्यग्दृष्टियों का होना अत्यन्त दुर्लभ है। तथा 2. तिर्यञ्चों में क्षायिक सम्यक्त्व के साथ संयमासंयम पाया नहीं जाता, क्योंकि, तिर्यंचों में दर्शनमोह की क्षपणा का अभाव है। (विशेष देखें तिर्यंच - 2)।
म.पु./24/163-165 तत: सम्यक्त्वशुद्धिं च व्रतशुद्धिं च पुष्कलाम् । निष्कलाद्भरतो भेजे परमानन्दमुद्वहन् ।163। स लेभे गुरुमाराध्य सम्यग्दर्शननायकाम् । व्रतशीलावलीं मुक्ते: कण्ठिकामिव निर्मलाम् ।165। =परम आनन्द को धारण करते हुए भरत ने शरीरानुराग से रहित भगवान् वृषभदेव से सम्यग्दर्शन की शुद्धि और अणुव्रतों की परम विशुद्धि को प्राप्त किया।163। भरत ने गुरुदेव की आराधना करके, जिसमें सम्यग्दर्शनरूपी प्रधान मणि लगा हुआ है और जो मुक्तिरूपी लक्ष्मी के निर्मल कण्ठहार के समान जान पड़ती थी ऐसी व्रत और शीलों की (5 अणुव्रत और सात शीलव्रत, इस प्रकार श्रावक के 12 व्रतों की) निर्मल माला धारण की।165।
सम्यग्दर्शन क्रिया-देखें क्रिया - 3।
सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दर्शन युक्त जीव को सम्यग्दृष्टि कहते हैं जो चारों गतियों में होने सम्भव हैं। दृष्टि की विचित्रता के कारण इनका विचारण व चिन्तवन सांसारिक लोगों से कुछ विभिन्न प्रकार का होता है, जिसे साधारण जन नहीं समझ सकते। सांसारिक लोग बाह्य जगत् की ओर दौड़ते हैं और वह अन्तरंग जगत् की ओर। बाह्यपदार्थों के संयोग आदि को भी कुछ विचित्र ही प्रकार से ग्रहण करता है। इसी कारण बाहर में रागी व भोगी रहता हुआ भी वह अन्तरंग में विरागी व योगी बना रहता है। यद्यपि कषायोद्रेक वश कषाय आदि भी करता है पर विवेक ज्योति खुली रहने के कारण नित्य उनके प्रति निन्दन गर्हण वर्तता है। इसी से उसके कषाय युक्त भाव भी ज्ञानमयी व निरास्रव कहे जाते हैं।
- सम्यग्दृष्टि सामान्य निर्देश
- सम्यग्दृष्टि का लक्षण।
- * अन्य अनेकों लक्षण वैराग्य, गुण, नि:शंकितादि
- * अंग आदि का निर्देश -देखें सम्यग्दृष्टि - 5.4।
- * भय व संशय आदि के अभाव सम्बन्धी -देखें नि:शंकित ।
- * आकांक्षा व राग के अभाव सम्बन्धी -देखें राग - 6।
- * सम्यग्दृष्टि का सुख -देखें सुख - 2.7।
- * अन्धश्रद्धान का विधि निषेध -देखें श्रद्धान /3।
- * एक पारिणामिक भाव का आश्रय -देखें मोक्षमार्ग - 2/4।
- * सम्यग्दृष्टि दो तीन ही होते हैं -देखें संख्या - 2.7।
- * सम्यग्दृष्टि को ज्ञानी कहने की विवक्षा -देखें ज्ञानी ।
- सिद्धान्त या आगम को भी कथंचित् सम्यग्दृष्टि व्यपदेश
- सम्यग्दृष्टि की महिमा का निर्देश
- * सम्यग्दृष्टि एकदेशजिन कहलाते हैं -देखें जिन - 3।
- उसके सब भाव ज्ञानमयी हैं।
- * वह रागी भी विरागी है -देखें राग - 6/3,4।
- वह सदा निरास्रव व अबन्ध है।
- कर्म करता हुआ भी वह बँधता नहीं।
- * विषय सेवता हुआ भी वह असेवक है -देखें राग - 6।
- उसके सब कार्य निर्जरा के निमित्त हैं।
- अनुपयुक्त दशा में भी उसे निर्जरा होती है।
- उसकी कर्म चेतना भी ज्ञान चेतना है।
- * कर्म करता हुआ भी वह अकर्ता है -देखें चेतना - 3।
- उसके कुध्यान भी कुगति के कारण नहीं।
- वह वर्तमान में ही मुक्त है।
- * सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के पुण्य व धर्म में अन्तर -देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- * सम्यग्दृष्टि को ही सच्ची भक्ति होती है -देखें भक्ति - 1।
- * सम्यग्दृष्टि का ही ज्ञान प्रमाण है -देखें प्रमाण - 2.2,4।
- * सम्यग्दृष्टि का आत्मानुभव व उसकी प्रत्यक्षता। -देखें अनुभव /4,5।
- * उसका कुशास्त्र ज्ञान भी सम्यक् है -देखें ज्ञान - III.2/10।
- * मरकर उच्चकुल आदिक में ही जन्मता है -देखें जन्म - 3।
- * उसकी भवधारणा की सीमा -देखें सम्यग्दर्शन - I.5।
- उपरोक्त महिमा सम्बन्धी समन्वय
- भावों में ज्ञानमयीपने सम्बन्धी।
- * शुद्धाशुद्धोपयोग दोनों युगपत् होते हैं। -देखें उपयोग - II.3।
- * राग व विराग सम्बन्धी -देखें राग - 6।
- सदा निरास्रव व अबन्ध होने सम्बन्धी
- सर्व कार्यों में निर्जरा सम्बन्धी।
- ज्ञान चेतना सम्बन्धी।
- * कर्तापने व अकर्तापने सम्बन्धी -देखें चेतना - 3।
- अशुभ ध्यानों सम्बन्धी।
- सम्यग्दृष्टि की विशेषताएँ
- सम्यग्दृष्टि ही सम्यक्त्व व मिथ्यात्व के भेद को यथार्थ जानता है
- * सम्यग्दृष्टि स्व व पर दोनों के सम्यक्त्व को जानता है -देखें सम्यग्दर्शन - I.3।
- सम्यग्दृष्टि को पक्षपात नहीं होता है।
- * वह नय को जानता है पर उसका पक्ष नहीं करता -देखें नय - I.3.5।
- * सम्यग्दृष्टि वाद नहीं करता -देखें वाद ।
- जहाँ जगत् जागता है वहाँ ज्ञानी सोता है।
- * वह पुण्य को हेय जानता है पर विषय वंचनार्थ उसका सेवन करता है -देखें पुण्य - 3,5।
- * सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि की क्रियाओं व कर्म क्षपणा में अन्तर -देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- अविरत सम्यग्दृष्टि
- अविरत सम्यग्दृष्टि का सामान्य लक्षण
- * उसके परिणाम अध:प्रवृत्तिकरणरूप होते हैं -देखें करण - 4।
- वह सर्वथा अव्रती नहीं।
- * उस गुणस्थान में सम्भव भाव -देखें भाव - 2.9।
- * वेदक सम्यग्दृष्टि के क्षायोपशमिक भाव सम्बन्धी शंका -देखें क्षयोपशम - 2।
- अपने दोषों के प्रति निन्दन गर्हण करना उसका स्वाभाविक व्रत है।
- अविरत सम्यग्दृष्टि के अन्य बाह्य चिह्न।
- * इस गुणस्थान में मार्गणा जीवसमास आदि रूप 20 प्ररूपणाएँ -देखें सत्
- * इस गुणस्थान में सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ -देखें वह वह नाम ।
- * सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम -देखें मार्गणा ।
- * इस गुणस्थान में कर्मों का बन्ध उदय सत्त्व -देखें वह वह नाम ।
- * अविरत सम्यग्दृष्टि व दर्शन प्रतिमा में अन्तर -देखें दर्शन प्रतिमा ।
- * अविरत सम्यग्दृष्टि और पाक्षिक श्रावक में कथंचित् समानता -देखें श्रावक - 3।
- * पुन: पुन: यह गुणस्थान प्राप्ति की सीमा -देखें सम्यग्दर्शन - I.1.7।
- * असंयत सम्यग्दृष्टि वन्द्य नहीं -देखें विनय - 4।
- * अविरत भी वह मोक्षमार्गी है -देखें सम्यग्दर्शन - I.5।
1. सम्यग्दृष्टि सामान्य निर्देश
1. सम्यग्दृष्टि का लक्षण
मो.पा./मू./14 सद्दव्वरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ सो साहू। सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्मइं।14। जो साधु अपनी आत्मा में रत हैं अर्थात् रुचि सहित हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं। सम्यक्त्व भाव से युक्त होते हुए वे दुष्ट अष्टकर्मों का क्षय करते हैं। (भा.वा./मू./31)
प.प्र./मू./1/76 अप्पिं अप्पु मुणंतु जिउ सम्मादिट्ठि हवेइ। सम्माइट्ठिउ जीवडउ लहु कम्मइं मुच्चेइ।76। =अपने को अपने से जानता हुआ यह जीव सम्यग्दृष्टि होता है और सम्यग्दृष्टि होता हुआ शीघ्र ही कर्मों से छूट जाता है।
देखें सम्यग्दर्शन - II/1/1/6 [सूत्र प्रणीत जीव अजीव आदि पदार्थों को हेय व उपादेय बुद्धि से जो जानता है वह सम्यग्दृष्टि है।]
देखें नियति - 1.2 [जो जब जहाँ जैसे होना होता है वह तब तहाँ तैसे ही होता है, इस प्रकार जो मानता है वह सम्यग्दृष्टि है।]
देखें सम्यग्दृष्टि - 5 [वैराग्य भक्ति आत्मनिन्दन युक्त होता]
2. सिद्धान्त या आगम को भी कथंचित् सम्यग्दृष्टि व्यपदेश
ध.13/5,5,50/11 सम्यग्दृश्यन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवादय: पदार्था: अनया इति सम्यग्दृष्टि: श्रुति: सम्यग्दृश्यन्ते अनया जीवादय: पदार्था: इति सम्यग्दृष्टि: सम्यग्दृष्टयविनाभाववद्वा सम्यग्दृष्टि:। =इसके द्वारा जीवादि पदार्थ सम्यक् प्रकार से देखे जाते हैं अर्थात् जाने जाते हैं, इसलिए इस (सिद्धान्त) का नाम सम्यग्दृष्टि या श्रुति है। इसके द्वारा जीवादिक पदार्थ सम्यक् प्रकार से देखे जाते हैं अर्थात् श्रद्धान किये जाते हैं इसलिए इसका नाम सम्यग्दृष्टि है। अथवा सम्यग्दृष्टि के साथ श्रुति का अविनाभाव होने से उसका नाम सम्यग्दृष्टि है।
2. सम्यग्दृष्टि की महिमा का निर्देश
1. उसके सब भाव ज्ञानमयी हैं
स.सा./मू./128 णाणमया भावाओ णाणमओ चेव जायए भावो। जम्हा तम्हा णाणिस्स सव्वे भावा हु णाणमया। =क्योंकि ज्ञानमय भावों में से ज्ञानमय ही भाव उत्पन्न होते हैं, इसलिए ज्ञानियों के समस्त भाव वास्तव में ज्ञानमय ही होते हैं।128। (स.सा./आ./128/क.67)।
पं.ध./उ./231 यस्माज्ज्ञानमया भावा ज्ञानिनां ज्ञाननिर्वृता:। अज्ञानमयभावानां नावकाश: सुदृष्टिषु।231। =क्योंकि ज्ञानियों के सर्वभाव ज्ञानमयी होते हैं, इसलिए सम्यग्दृष्टियों में अज्ञानमयी भाव अवकाश नहीं पाते।
2. वह सदा निरास्रव व अबन्ध है
स.सा.मू./107 चउविहं अणेयभेहं बंधंते णाणदंसणगुणेहिं। समए समए जम्हा तेण अबंधोत्ति णाणो दु। =क्योंकि चार प्रकार के द्रव्यास्रव ज्ञानदर्शन गुणों के द्वारा समय-समय पर अनेक प्रकार का कर्म बाँधते हैं, इसलिए ज्ञानी तो अबन्ध है। (विशेष देखें सम्यग्दृष्टि - 3.2)
3. कर्म करता हुआ भी वह बँधता नहीं
स.सा./मू./196,218 जह मज्जं पिवमाणो अरदिभावेण मज्जदि ण पुरिसो। दव्वुवभोगे अरदो णाणी वि ण बज्झदि तहेव।196। णाणी रागप्पजहो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो। णे लिप्पदि रजएण दु कद्दममज्झे जहा कणयं।218। =1. जैसे कोई पुरुष मदिरा को अरति भाव से पीता हुआ मतवाला नहीं होता, इसी प्रकार ज्ञानी भी द्रव्य के उपभोग के प्रति अरत वर्तता हुआ बन्ध को प्राप्त नहीं होता।196। 2. ज्ञानी जो कि सर्व द्रव्यों के प्रति राग को छोड़ने वाला है, वह कर्मों के मध्य में रहा हुआ हो तो भी कर्म रूपी रज से लिप्त नहीं होता -जैसे सोना कीचड़ के बीच पड़ा हुआ हो तो भी लिप्त नहीं होता।218।
भा.पा./मू./154 जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलिणिपत्तं सहावपयडीए। तह भावेण ण लिप्पइ कसायविसएहिं सप्पुरिसो।154। =जिस प्रकार जल में रहता हुआ भी कमलिनीपत्र अपने स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष क्रोधादि कषाय और इन्द्रियों के विषयों में संलग्न भी अपने भावों से उनके साथ लिप्त नहीं होता।
यो.सा./अ./4/19 ज्ञानी विषयसंगेऽपि विषयैर्नैव लिप्यते। कनकं मलमध्येऽपि न मलैरुपलिप्यते।19। =जिस प्रकार स्वर्ण कीचड़ के बीच रहता हुआ भी कीचड़ से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार ज्ञानी विषय भोग करता हुआ भी विषयों में लिप्त नहीं होता।19।
भा.पा./टी./152/296 पर उद्धृत -धात्री बालाऽसतीनाथपद्मिनीदलवारिवत् । दग्धरज्जुवदाभासं भुञ्जन् राज्यं न पापभाक् ।6। =जिस प्रकार पतिव्रता नहीं है ऐसी युवती धाय अपने पति के साथ दिखावटी सम्बन्ध रखती है, जिस प्रकार कमल का पत्ता पानी के साथ दिखावटी सम्बन्ध रखता है, और जिस प्रकार जली हुई रज्जू मात्र देखने में ही रज्जू है, उसी प्रकार ज्ञानी राज्य को भोगता हुआ भी पाप का भागी नहीं होता।
द.पा./टी./7/7/8 सम्यग्दृष्टेर्लग्नमपि पापं बन्धं न याति कौरघटस्थितं रज इव न बन्धं याति। =जिस प्रकार कोरे घड़े पर पड़ी हुई रज उसके साथ सम्बन्ध को प्राप्त नहीं होती, उसी प्रकार पाप के साथ लग्न भी सम्यग्दृष्टि बन्ध को प्राप्त नहीं होता।
4. उसके सर्व कार्य निर्जरा के निमित्त हैं
स.सा./मू./193 उवभोगमिंदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिदराणं। जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं।193। =सम्यग्दृष्टि जीव जो इन्द्रियों के द्वारा अचेतन तथा चेतन द्रव्यों का उपभोग करता है वह सर्व उसके लिए निर्जरा का निमित्त है।
ज्ञा./32/38 अलौकिकमहो वृत्तं ज्ञानिन: केन वर्ण्यते। अज्ञानी बध्यते यत्र ज्ञानी तत्रैव मुच्यते।38। =अहो, देखो ज्ञानी पुरुषों के इस अलौकिक चारित्र का कौन वर्णन कर सकता है। जहाँ अज्ञानी बन्ध को प्राप्त होता है, उसी आचरण में ज्ञानी कर्मों से छूट जाता है।38। (यो.सा./अ./6/18)
पं.ध./उ./230 आस्तां न बन्धहेतु: स्याज्ज्ञानिनां कर्मजा क्रिया। चित्रं यत्पूर्वबद्धानां निर्जरायै च कर्मणाम् ।230। =ज्ञानियों की कर्म से उत्पन्न होने वाली क्रिया बन्ध का कारण नहीं होती है, यह बात तो दूर रही, परन्तु आश्चर्य तो यह है कि उनकी जो भी क्रिया है वह सब पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा के लिए ही कारण होती है।230।
5. अनुपयुक्त दशा में भी उसे निर्जरा होती है
पं.ध./उ./878 आत्मन्येवोपयोग्यवस्तु ज्ञानं वा स्यात् परात्मनि। सत्सु सम्यक्त्वभावेषु सन्ति ते निर्जरादय:। =ज्ञान चाहे आत्मा में उपयुक्त हो अथवा कदाचित् परपदार्थों में उपयुक्त हो परन्तु सम्यक्त्व भाव के होने पर वे निर्जरादिक अवश्य होते हैं।878।
6. उसकी कर्म चेतना भी ज्ञान चेतना है
पं.ध./उ./275 अस्ति तस्यापि सद्दृष्टे: कस्यचित्कर्मचेतना। अपि कर्मफले सा स्यादर्थतो ज्ञानचेतना।275। =यद्यपि जघन्य भूमिका में किसी-किसी सम्यग्दृष्टि के कर्मचेतना और कर्मफलचेतना भी होती है, पर वास्तव में वह ज्ञानचेतना ही है।
7. उसके कुध्यान भी कुगति के कारण नहीं
द्र.सं./टी./48/201/3 चतुर्विधमार्त्तध्यानम् । ...यद्यपि मिथ्यादृष्टीनां तिर्यग्गतिकारणं भवति तथापि बद्धायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीनां न भवति।...रौद्रध्यानं...तच्च मिथ्यादृष्टीनां नरकगतिकारणमपि बद्धायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीनां तत्कारणं न भवति। =चार प्रकार का आर्तध्यान यद्यपि मिथ्यादृष्टि जीवों को तिर्यंचगति का कारण होता है तथापि बद्धायुष्क को छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टियों को वह तिर्यंचगति का कारण नहीं होता है। (इसी प्रकार) रौद्रध्यान भी मिथ्यादृष्टियों को नरकगति का कारण होता है, परन्तु बद्धायुष्क को छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टियों को वह नरक का कारण नहीं होता है।
8. वह वर्तमान में ही मुक्त है
स.सा./आ./318/क.198 ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म, जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम् । जानन्परं करणवेदनयोरभावाच्छुद्धस्वभावनियत: स हि मुक्त एव।198। =ज्ञानी कर्म को न तो करता है और न भोगता है, वह कर्म के स्वभाव को मात्र जानता ही है। इस प्रकार मात्र जानता हुआ करने और भोगने के अभाव के कारण, शुद्ध स्वभाव में निश्चल ऐसा वह वास्तव में मुक्त है।
ज्ञा./6/57 मन्ये मुक्त: स पुण्यात्मा विशुद्धं यस्य दर्शनम् । यतस्तदेव मुत्तयङ्गमग्रिमं परिकीर्तितम् ।57। =जिसको विशुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ है वह पुण्यात्मा मुक्त है ऐसा मैं मानता हूँ। क्योंकि, सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का मुख्य अंग कहा गया है।
नि.सा./ता.वृ./61/क.81 इत्थं बुद्धवा परमसमितिं मुक्तिकान्तासखीं यो, मुक्तवा सङ्गं भवभयकरं हेमरामात्मकं च। स्थित्वाऽपूर्वे सहजविलसच्चिच्चमत्कारमात्रे, भेदाभावे समयति च य: सर्वदा मुक्त एव।81। =इस प्रकार मुक्तिकान्ता ही सखी परम समिति को जानकर जो जीव भवभय के करने वाले कंचनकामिनी के संग को छोड़कर, अपूर्व सहज विलसते अभेद चैतन्य चमत्कार मात्र स्थित रहकर सम्यक् ‘इति’ करते हैं अर्थात् सम्यक् रूप से परिणमित होते हैं वे सर्वदा मुक्त ही हैं।
पं.ध./उ./232 वैराग्यं परमोपेक्षाज्ञानं स्वानुभव: स्वयम् । तद्द्वयं ज्ञानिनो लक्ष्म जीवन्मुक्त: स एव च।232। =परमोपेक्षारूप वैराग्य और आत्मप्रत्यक्ष रूप स्वसंवेद ज्ञान ही ज्ञानी के लक्षण है। जिसके ये दोनों होते हैं, वह ज्ञानी जीवन्मुक्त है।
3. उपरोक्त महिमा सम्बन्धी समन्वय
1. भावों में ज्ञानमयीपने सम्बन्धी
स.सा./पं.जयचन्द/128 ज्ञानी के सर्वभाव ज्ञान जाति का उल्लंघन न करने से ज्ञानमयी हैं।
2. सदा निरास्रव व अबन्ध होने सम्बन्धी
स.सा./मू./177-178 रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स। तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पञ्चया होंति।177। हेदू चदुवियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं। तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति।178। =राग, द्वेष और मोह ये आस्रव सम्यग्दृष्टि के नहीं होते, इसलिए आस्रवभाव के बिना द्रव्यप्रत्यय कर्मबन्ध के कारण नहीं होते।177। मिथ्यात्व अविरति प्रमाद और कषाय ये चार प्रकार के हेतु, आठ प्रकार के कर्मों के कारण कहे गये हैं, और उनके भी कारण रागादि भाव हैं। इसलिए उनके अभाव में ज्ञानी को कर्म नहीं बँधते।178।
इ.उ./44 अगच्छंस्तद्विशेषाणामनभिज्ञश्च जायते। अज्ञाततद्विशेषस्तु बद्धयते न विमुच्यते।44। =स्वात्मतत्त्व में निष्ठ योगी की जब पर पदार्थों से निवृत्ति होती है, तब उनके अच्छे बुरे आदि विकल्पों का उसे अनुभव नहीं होता। तब वह योगी कर्मों से भी नहीं बँधता, किन्तु कर्मों से छूटता ही है।
स.सा./आ./170-171 ज्ञानी हि तावदास्रव-भावभावनाभिप्रायाभावान्निरास्रव एव। यत्तु तस्यापि द्रव्यप्रत्यया: प्रतिसमयमनेकप्रकारं पुद्गलकर्म बध्नन्ति तत्र ज्ञानगुणपरिणाम एव हेतु:।170। ...तस्यान्तर्मुहूर्तविपरिणामित्वात् पुन: पुनरन्यतमोऽस्ति परिणाम:। स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यंभाविरागसद्भावात् बन्धहेतुरेव स्यात् ।171। =ज्ञानी तो आस्रवभाव की भावना के अभिप्राय के अभाव के कारण निरास्रव ही है परन्तु जो उसे भी द्रव्यप्रत्यय प्रति समय अनेक प्रकार का पुद्गलकर्म बाँधते हैं, वहाँ क्षायोपशमिक ज्ञान का परिणमन ही कारण है।170। क्योंकि वह अन्तर्मुहूर्तपरिणामी है। इसलिए यथाख्यात चारित्रअवस्था से पहले उसे अवश्य ही रागभाव का सद्भाव होने से, वह ज्ञान बन्ध का कारण ही है।
स.सा./आ./172/क./116 संन्यसन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयं, बारंबारमबुद्धिपूर्वमपि ते जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन् । उच्छिनदन्परवृत्तिमेव सकलो ज्ञानस्य पूर्णोभवन्नात्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा।116। =आत्मा जब ज्ञानी होता है, तब स्वयं अपने समस्त बुद्धिपूर्वक राग को निरन्तर छोड़ता हुआ अर्थात् न करता हुआ, और जो अबुद्धिपूर्वक राग है उसे भी जीतने के लिए बारम्बार (ज्ञानानुभव रूप) स्वशक्ति को स्पर्श करता हुआ, और (इस प्रकार) समस्त प्रवृत्ति को -परपरिणति को उखाड़ता हुआ, ज्ञान के पूर्ण भावरूप होता हुआ, वास्तव में सदा निरास्रव है।
स.सा./आ.173-176 ज्ञानिनो यदि द्रव्यप्रत्यया: पूर्वबद्धा: सन्ति, सन्तु; तथापि स तु निरास्रव एव, कर्मोदयकार्यस्य रागद्वेषमोहरूपस्यास्रवभावस्याभावे द्रव्यप्रत्ययानामबन्धहेतुत्वात् ।=ज्ञानी के यदि पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्यय विद्यमान हैं; तो भले रहें; तथापि वह तो निरास्रव ही है; क्योंकि, कर्मोदय का कार्य जो रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव हैं उसके अभाव में द्रव्य प्रत्यय बन्ध का कारण नहीं है।
स.सा./ता.वृ./172/239/6 यथाख्यातचारित्राधस्तादन्तर्मूहूर्तानन्तरं निर्विकल्पसमाधौ स्थातुं न शक्यत इति भणितं पूर्वं। एवं सति कथं ज्ञानी निरास्रव इति चेत्, ज्ञानी तावदीहापूर्वरागादिविकल्पकरणाभावान्निरास्रव एव। किंतु सोऽपि यावत्कालं परमसमाधेरनुष्ठानाभावे सति शुद्धात्मस्वरूपं द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरितुं वासमर्थ: तावत्कालं तस्यापि संबन्धि यद्दर्शनं ज्ञानं चारित्रं तज्जघन्यभावेन सकषायभावेन अनोहितवृत्त्या परिणमति, तेन कारणेन स तु भेदज्ञानी...विविधपुण्यकर्मणा बध्यते। =प्रश्न -यथाख्यात चारित्र से पहले अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर निर्विकल्प समाधि में स्थित रहना शक्य नहीं है, ऐसा पहले कहा गया है। ऐसा होने पर ज्ञानी निरास्रव कैसे हो सकता है ? उत्तर -1. ज्ञानी क्योंकि ईहा पूर्वक अर्थात् अभिप्रायपूर्वक रागादि विकल्प नहीं करता है, इसलिए वह निरास्रव ही है। (अन.ध./8/4/733) 2. किन्तु जबतक परमसमाधि के अनुष्ठान के अभाव में वह भी शुद्धात्मस्वरूप को देखने-जानने व आचरण करने में असमर्थ रहता है, तब तक उसके भी तत्सम्बन्धी जो दर्शन ज्ञान चारित्र हैं वे जघन्यभाव से अर्थात् कषायभाव से अनीहितवृत्ति से स्वयं परिणमते हैं। उसके कारण यह भेदज्ञानी भी विविध प्रकार के पुण्यकर्म से बँधता है।
देखें उपयोग - II.3 [जितने अंश में उसे राग है उतने अंश में आस्रव व बन्ध है और जितने अंश में राग का अभाव है, उतने अंश में निरास्रव व अबन्ध है।]
3. सर्व कार्यों में निर्जरा सम्बन्धी
स.सा./मू./194 दव्वे उवभुंजंते णियमा जायदि सुहं च दुक्खं वा। तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अह णिज्जरं जादि।194। =वस्तु भोगने में आने पर सुख अथवा दु:ख नियम से उत्पन्न होता है। उदय को प्राप्त उस सुखदु:ख का अनुभव करता है तत्पश्चात् वह (सुख-दुखरूपभाव) निर्जरा को प्राप्त होता है। (इस प्रकार भाव निर्जरा की अपेक्षा समाधान है)।194।
स.सा./आ./193-195 रागादिभावानां सद्भावेन मिथ्यादृष्टेरचेतनान्यद्रव्योपभोगो बन्धनिमित्तमेव स्यात् । स एव रागादिभावानामभावेन सम्यग्दृष्टेर्निर्जरानिमित्तमेव स्यात् । एतेन द्रव्यनिर्जरास्वरूपमावेदयति।193। अथ भावनिर्जरास्वरूपमावेदयति। स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टे: रागादिभावानां सद्भावेन बन्धनिमित्तं भूत्वा निर्जीर्यमाणोपजीर्ण: सन् बन्ध एव स्यात् । सम्यग्दृष्टेस्तु रागादिभावानामभावेन बन्धनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीयमाणो निर्जीर्ण: सन्निर्जरैव स्यात् ।194। =रागादि भावों के सद्भाव से मिथ्यादृष्टि के जो अचेतन तथा चेतन द्रव्यों का उपभोग बन्ध का निमित्त होता है; वही रागादिभावों के अभाव के कारण सम्यग्दृष्टि के लिए निर्जरा का निमित्त होता है। इस प्रकार द्रव्य निर्जरा का स्वरूप कहा।193। अब भाव निर्जरा का स्वरूप कहते हैं -जब उस (कर्मोदयजन्य सुखरूप अथवा दु:खरूप) भाव का वेदन होता है तब मिथ्यादृष्टि को, रागादिभावों के सद्भाव से (नवीन) बन्ध का निमित्त होकर निर्जरा को प्राप्त होता हुआ भी, निर्जरित न होता हुआ बन्ध ही होता है; किन्तु सम्यग्दृष्टि के रागादिभावों के अभाव से बन्ध का निमित्त हुए बिना केवल मात्र निर्जरित होने से, निर्जरित होता हुआ, निर्जरा ही होती है।194।
स.सा./ता.वृ./193/267/14 अत्राह शिष्य: -रागद्वेषमोहाभावे सति निर्जराकारणं भणितं सम्यग्दृष्टेस्तु रागादय: सन्ति, तत: कथं निर्जराकारणं भवतीति। अस्मिन्पूर्वपक्षे परिहार: -अत्र ग्रन्थे वस्तुवृत्त्या वीतरागसम्यग्दृष्टेर्ग्रहणं, यस्तु चतुर्थगुणस्थानवर्तिसरागसम्यग्दृष्टयस्तस्य गौणवृत्त्या ग्रहणं, तत्र तु परिहार: पूर्वमेव भणित:। कथमिति चेत् । मिथ्यादृष्टे: सकाशादसंयतसम्यग्दृष्टे: अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभमिथ्यात्वोदयजनिता:, श्रावकस्य च प्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभोदयजनिता रागादयो न सन्तीत्यादि। किंच सम्यग्दृष्टे: संवरपूर्विका निर्जरा भवति, मिथ्यादृष्टेस्तु गजस्नानवत् बन्धपूर्विका भवति। तेन कारणेन मिथ्यादृष्टयपेक्षया सम्यग्दृष्टिरबन्धक इति। एवं द्रव्यनिर्जराव्याख्यानरूपेण गाथा गता। =प्रश्न -राग-द्वेष व मोह का अभाव होने पर भोग आदि निर्जरा के कारण कहे गये हैं, परन्तु सम्यग्दृष्टि के तो रागादि होते हैं, इसलिए उसे वे निर्जरा के कारण कैसे हो सकते हैं ? उत्तर -1. इस ग्रन्थ में वस्तु वृत्ति से वीतराग सम्यग्दृष्टि ग्रहण किया गया है, जो चौथे गुणस्थानवर्ती सरागसम्यग्दृष्टि है उसका गौण वृत्ति से ग्रहण किया गया है। 2. सराग सम्यग्दृष्टि सम्बन्धी समाधान पहले ही दे दिया गया है। वह ऐसे कि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टि को अनन्तानुबन्धी चतुष्क और मिथ्यात्वोदयजन्य रागादिक तथा श्रावक को अप्रत्याख्यान चतुष्क जनित रागादि नहीं होते हैं। 3. सम्यग्दृष्टि को निर्जरा संवरपूर्वक होती है और मिथ्यादृष्टि की गजस्नानवत् बन्धपूर्वक होती है। इस कारण मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि अबन्धक है। इस प्रकार द्रव्यनिर्जरा के व्याख्यानरूप गाथा कही। 4. [सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहोदय के वशीभूत होकर अरुचिपूर्वक सुख-दु:ख आदिक अनुभव करता है और मिथ्यादृष्टि उपादेय बुद्धि से करता है। इसलिए सम्यग्दृष्टि को भोगों का भोगना निर्जरा का निमित्त है। इस प्रकार भाव निर्जरा की अपेक्षा व्याख्यान जानना। (देखें राग - 6/6)]
4. ज्ञान चेतना सम्बन्धी
पं.ध./उ.276 चेतनाया: फलं बन्धस्तत्फले वाऽथ कर्मणि। रागाभावान्न बन्धोऽस्य तस्मात्सा ज्ञानचेतना।276। =कर्म व कर्मफलरूप चेतना का फल कर्म बन्ध है, पर सम्यग्दृष्टि को राग का अभाव होने से बन्ध नहीं होता है, इसलिए उसकी वह कर्म व कर्मफल चेतना ज्ञानचेतना है।276।
5. अशुभ ध्यानों सम्बन्धी
द्र.सं./टी./48/201/5 कस्मादिति चेत् -स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति विशिष्टभावनाबलेन तत्कारणभूतसंक्लेशाभावादिति।5। =प्रश्न -आर्तध्यान सम्यग्दृष्टि को मिथ्यादृष्टि की भाँति तिर्यंच गति का कारण क्यों नहीं होता ? उत्तर -सम्यग्दृष्टि जीवों के ‘निज शुद्ध आत्मा ही उपादेय है’ ऐसी भावना के कारण तिर्यंचगति का कारण रूप संक्लेश नहीं होता। [यही उत्तर रौद्रध्यान के लिए भी दिया गया है]
4. सम्यग्दृष्टि की विशेषताएँ
1. सम्यग्दृष्टि ही सम्यक्त्व व मिथ्यात्व के भेद को यथार्थत: जानता है
स.सा./पं.जयचन्द/200/क.137 सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व सहित राग नहीं होता और जिसके मिथ्यात्व सहित राग हो वह सम्यग्दृष्टि नहीं होता। ऐसे अन्तर को सम्यग्दृष्टि ही जानता है। पहले तो मिथ्यादृष्टि का आत्म शास्त्र में प्रवेश ही नहीं है, और यदि वह प्रवेश करता है तो विपरीत समझता है -शुभभाव को सर्वथा छोड़कर भ्रष्ट होता है अथवा अशुभभावों में प्रवर्तता है, अथवा निश्चय को भली भाँति जाने बिना व्यवहार से ही (शुभभाव से ही) मोक्ष मानता है, परमार्थ तत्त्व में मूढ़ रहता है। यदि कोई बिरला जीव स्याद्वाद न्याय से सत्यार्थ को समझते तो उसे अवश्य ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, वह अवश्य सम्यग्दृष्टि हो जाता है।
2. सम्यग्दृष्टि को पक्षपात नहीं होता
स्या.म./मू.श्लो.30/334 अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावात् यथा परे मत्सरिण: प्रवादा:। नयानशेषानविशेषमिच्छन् न पक्षपाती समयस्तथा ते।30। =आत्मवादी लोग परस्पर पक्ष और प्रतिपक्ष भाव रखने के कारण एक दूसरे से ईर्ष्या करते हैं, परन्तु सम्पूर्ण नयों को एक समान देखते वाले (देखें अनेकान्त - 2) आपके शास्त्र में पक्षपात नहीं है।
3. जहाँ जगत् जागता है वहाँ ज्ञानी सोता है
मो.पा./मू.31 जो सुत्तो ववहारे सो जोइ जग्गए सकज्जम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे।31। =जो योगी व्यवहार में सोता है वह अपने स्वरूप के कार्य में जागता है। और व्यवहार में जागता है, वह अपने कार्य में सोता है।31। (स.श./78)
प.प्र./मू./2/46 जा णिसि सयलहँ देहियँ जोग्गिउ तर्हि जग्गेइ। जहिँ पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ।46। =जो सब संसारी जीवों की रात है, उसमें परम तपस्वी जागता है, और जिसमें सब संसारी जीव जाग रहे हैं, उस दशा में योगी रात मानकर योग निद्रा में सोता है। (ज्ञा./18/37)।
5. अविरत सम्यग्दृष्टि निर्देश
1. अविरति सम्यग्दृष्टि का सामान्य लक्षण
पं.सं./प्रा./11 णो इंदियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे चावि। जो सद्दहइ जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो।11। =जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों में विरत नहीं है और न त्रस तथा स्थावर जीवों के घात से ही विरक्त है, किन्तु केवल जिनोक्त तत्त्व का श्रद्धान करता है, वह चतुर्थगुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि है।11। (ध.1/1,1,12/गा.111/173); (गो.जी./मू./29/58); (और भी देखें असंयम )
रा.वा./9/1/15/589/26 औपशमिकेन क्षायोपशमिकेन क्षायिकेण वा सम्यक्त्वेन समन्वित: चारित्रमोहोदयात् अत्यन्तविरतिपरिणामप्रवणोऽसंयतसम्यग्दृष्टिरिति व्यपदिश्यते। =औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इन तीनों में से किसी भी सम्यक्त्व से समन्वित तथा चारित्रमोह के उदय से जिसके परिणाम अत्यन्त अविरतिरूप रहते हैं, उसको ‘असंयत सम्यग्दृष्टि’ ऐसा कहा जाता है।
ध.1/1,1,12/171/1 समीचीनदृष्टि: श्रद्धा यस्यासौ सम्यग्दृष्टि:, असंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च, असंयतसम्यग्दृष्टि:। सो वि सम्माइट्ठी तिविहो, खइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी चेदि। =जिसकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा समीचीन होती है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं, और संयम रहित [अर्थात् इन्द्रिय भोग व जीव हिंसा से विरक्त न होना (देखें असंयम )] सम्यग्दृष्टि को असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं। वे सम्यग्दृष्टि जीव तीन प्रकार के हैं -क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और औपशमिक सम्यग्दृष्टि।
2. अव्रत सम्यग्दृष्टि सर्वथा अव्रती नहीं
देखें श्रावक - 3/4 [यद्यपि व्रतरूप से कुछ भी अंगीकार नहीं करता, पर कुलाचाररूप से अष्टमूलगुण धारण, स्थूल अणुव्रत पालन, स्थूल रूपेण रात्रि भोजन व सप्तव्यसन त्याग अवश्य करता है। क्योंकि ये सब क्रियाएँ व्रत न कहलाकर केवल कुलक्रिया कहलाती हैं, इसलिए वह अव्रती या असंयत कहलाता है। ये क्रियाएँ व्रती व अव्रती दोनों को होती हैं। व्रती को नियम व्रतरूप से और अव्रती को कुलाचार रूप से।]
देखें सम्यग्दर्शन - II/1/6 [निश्चय सम्यक्त्व युक्त होने पर भी चारित्र मोहोदयवश उसे आत्मध्यान में स्थिरता नहीं है तथा व्रत व प्रतिज्ञाएँ भंग भी हो जाती हैं, इसलिए असंयत कहा जाता है।]
मो.मा.प्र./9/499/22 कषायनि के असंख्यात लोकप्रमाण स्थान हैं। तिनिविषै सर्वत्र पूर्वस्थानतैं उत्तरस्थानविषैं मन्दता पाइए है।...आदि के बहुत स्थान तौ असंयमरूप कहे, पीछे केतेक देश संयमरूप कहे। ...तिनिविषैं प्रथमगुणस्थानतैं लगाय चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त जे कषाय के स्थान हो हैं, ते सर्व असंयम ही के हो हैं।...परमार्थतै कषाय का घटना चारित्र का अंश है...सर्वत्र असंयम की समानता न जानना।
3. अपने दोषों के प्रति निन्दन गर्हण करना उसका स्वाभाविक व्रत है
का.अ./मू./4 विरलो अज्जदि पुण्णं सम्मादिट्ठी वएहि संजुत्तो। उवसमभावे सहिदो णिंदण-गरहाहिसंजुत्तो। =सम्यग्दृष्टि, व्रती, उपशम भाव से युक्त, तथा अपनी निन्दा और गर्हा करने वाले विरलेजन ही पुण्य कर्म का उपार्जन करते हैं।
द्र.सं./टी./13/33/9 निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम्, इन्द्रियसुखादिपरद्रव्यं हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते परं किन्तु भूमिरेखादिसदृशक्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलवरगृहीततस्करवदात्मनिन्दासहित: सन्निन्द्रियसुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टेर्लक्षणम् । =निज परमात्म द्रव्य उपादेय है तथा इन्द्रिय सुख आदि परद्रव्य त्याज्य हैं, इस प्रकार सर्वज्ञ प्रणीत निश्चय, व्यवहार को साध्य साधक भाव से मानता है, परन्तु भूमि की रेखा के समान क्रोध आदि अप्रत्याख्यानकषाय के उदय से, मारने के लिए कोतवाल से पकड़े हुए चोर की भाँति आत्मनिन्दादि सहित होकर इन्द्रिय सुख का अनुभव करता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थानवर्ती है। (सा.ध./1/13)
पं.ध./उ./427 दृङ्मोहस्योदयाभावात् प्रसिद्ध: प्रशमो गुण:। तत्राभिव्यञ्जकं बाह्यन्निन्दनं चापि गर्हणम् ।472। =दर्शनमोहनीय के उदय के अभाव से प्रशम गुण उत्पन्न होता है और प्रशम के बाह्यरूप अभिव्यंजक निन्दा तथा गर्हा ये दोनों होते हैं।472।
का.अ./पं.जयचन्द/391 इसके असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि कार्यों में हिंसा होती है। तो भी मारने का अभिमत नहीं है, कार्य का अभिप्राय है। वहाँ घात होता है, उसके लिए अपनी निन्दा गर्हा करता है। इसके त्रस हिंसा न करने के पक्ष मात्र से पाक्षिक कहलाता है। यह अप्रत्याख्यानावरण कषाय के मन्द परिणाम हैं, इसलिए अव्रती ही है।
4. अविरत सम्यग्दृष्टि के अन्य बाह्य चिह्न
का.अ./मू./313-324 जो ण या कुव्वदि गव्वं पुत्तकलत्ताइसव्वअत्थेसु। उवसमभावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिणमेत्तं।313। उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो। साहम्मिय अणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो।315। एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए। सो सद्दिट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुदिट्ठी।323। जो ण विजाणदि तच्चं सो जिणवयणे करेदि सद्दहणं। जं जिणवरेहि भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि।324।=वह सम्यग्दृष्टि पुत्र, स्त्री आदि समस्त पदार्थों में गर्व नहीं करता, उपशमभाव को भाता है और अपने को तृणसमान मानता है।313। जो उत्तम गुणों को ग्रहण करने में तत्पर रहता है, उत्तम साधुओं की विनय करता है, तथा साधर्मी जनों से अनुराग करता है, वह उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि है।315। इस प्रकार जो निश्चय से सब द्रव्यों को और सब पर्यायों को जानता है, वह सम्यग्दृष्टि है और जो उनके अस्तित्व में शंका करता है, वह मिथ्यादृष्टि है।323। जो तत्त्वों को नहीं जानता किन्तु जिनवचन में श्रद्धान करता है (देखें सम्यग्दर्शन - I.1.2,3) कि जिनवर भगवान् ने को कुछ कहा है, वह सब मुझे पसन्द है। वह भी श्रद्धावान् है।324।
देखें सम्यग्दर्शन - II/1 (देव, गुरु, धर्म, तत्त्व व पदार्थों आदि की श्रद्धा करता है, आत्मस्वभाव की रुचि रखता है।)
देखें सम्यग्दर्शन - I.2 (नि:शंकितादि आठ अंगों को व प्रशम संवेग अनुकम्पा आस्तिक्य आदि गुणों को धारण करता है।)
देखें सम्यग्दृष्टि - 2 (सम्यग्दृष्टि को राग द्वेष व मोह का अभाव है।)
द्र.सं./टी./45/194/10 शुद्धात्मभावनोत्पन्ननिर्विकारवास्तवसुखामृतमुपादेयं कृत्वा संसारशरीरभोगेषु योऽसौ हेयबुद्धि: सम्यग्दर्शनशुद्ध: स चतुर्थगुणस्थानवर्ती व्रतरहितो दर्शनिको भण्यते। =शुद्धात्म भावना से उत्पन्न निर्विकार यथार्थ सुखरूपी अमृत को उपादेय करके संसार शरीर और भोगों में जो हेय बुद्धि है वह सम्यग्दर्शन से शुद्ध चतुर्थगुणस्थान वाला व्रतरहित दर्शनिक है। (देखें सम्यग्दृष्टि - 5-2); (और भी देखें राग - 6)
पं.ध./उ./261,271 उपेक्षा सर्वभोगेषु सद्दृष्टेर्दृष्टरोगवत् । अवश्यं तदवस्थायास्तथाभावो निसर्गज:।261। इत्येवं ज्ञाततत्त्वीऽसौ सम्यग्दृष्टिर्निजात्मदृक । वैषयिके सुखे ज्ञाने राग-द्वेषौ परित्यजेत् ।371। =सम्यग्दृष्टि को सर्वप्रकार के भोगों में प्रत्यक्ष रोग की तरह अरुचि होती है, क्योंकि, उस सम्यक्त्वरूप अवस्था का, विषयों में अवश्य अरुचि का होना स्वत:सिद्ध स्वभाव है।261। इस प्रकार तत्त्वों को जानने वाला स्वात्मदर्शी यह सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियजन्य सुख और ज्ञान में राग तथा द्वेष का परित्याग करे।371। -देखें राग - 6।