प्रदेश: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> परमाणु के अर्थ में</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> परमाणु के अर्थ में</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/2/38/192/6 <span class="SanskritText">प्रदिश्यन्त इति प्रदेशाः परमाणवः ।</span> = <span class="HindiText">प्रदेश शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्रदिश्यन्ते’ होती है । इसका अर्थ परमाणु है । ( सर्वार्थसिद्धि/5/8/274/7 ) ( राजवार्तिक/2/38/1/147/28 ) ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2">आकाश का अंश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2">आकाश का अंश</strong> </span><br /> | ||
प्रवचनसार/140 <span class="PrakritGatha">आगासमणुणिविट्ठं आगासपदेससण्णया भणिदं । सव्वेसिं च अणूणं सक्कदि तं देदुमवगासं ।140।</span> =<span class="HindiText"> एक परमाणु जितने आकाश में रहता है उतने आकाश को ‘आकाश प्रदेश’ के नाम सेकहा गया है और वह समस्त परमाणुओं को अवकाश देने में समर्थ है ।140। ( राजवार्तिक/5/1/8/432/33 ) ( नयचक्र बृहद्/141 )( द्रव्यसंग्रह/27 ) ( गोम्मटसार जीवकाण्ड मू./591/1029) ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/35-36 ) ।</span><br /> | |||
कषायपाहुड़/2/2,2/12/7/10 <span class="SanskritText"> निर्भाग आकाशावयवः (प्रदेश:)</span> = <span class="HindiText">जिसका दूसरा हिस्सा नहीं हो सकता ऐसे आकाश के अवयव को प्रदेश कहते हैं ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.3" id="1.1.3">पर्याय के अर्थ में</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.3" id="1.1.3">पर्याय के अर्थ में</strong> </span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/5 <span class="SanskritText">प्रदेशाख्याः परस्परव्यतिरेकित्वात्पर्यायाः उच्यन्ते ।</span> = <span class="HindiText">प्रदेशनाम के उनके जो अवयव हैं वे भी परस्पर व्यतिरेकवाले होने से पर्याय कहलाती हैं । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">प्रदेशबन्ध का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">प्रदेशबन्ध का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/8/24 <span class="SanskritText">नामप्रत्ययाः सर्वतोयोगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ।24।</span> = <span class="HindiText">कर्मप्रकृतियों के कारणभूत प्रति समय योग विशेष से सूक्ष्म, एकक्षेत्रावगाही और स्थित अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणु सब आत्म प्रदेशों में (सम्बन्ध को प्राप्त) होते हैं ।24। (मू.आ./1241), (विशेष विस्तार देखें [[ सर्वार्थसिद्धि#8.24.402 | सर्वार्थसिद्धि - 8.24.402 ]]), ( पंचाध्यायी x`/ उ/933) .</span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि 8/3/379/7 <span class="SanskritText">इयत्तावधारणं प्रदेशः । कर्मभावपरिणतपुद्गलस्कन्धानां परमाणुपरिच्छेदेनावधारणं प्रदेशः ।</span> =<span class="HindiText"> इयत्ता (संख्या) का अवधारण करना प्रदेश है । (पं.सं./प्रा./4/514) । अर्थात् कर्मरूप से परिणत पुद्गलस्कन्धों का परमाणुओं की जानकारी करके निश्चय करना प्रदेशबन्ध है । ( राजवार्तिक/8/3/7/567/12 ) । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">प्रदेशबन्ध के भेद</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">प्रदेशबन्ध के भेद</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">विस्रसोपचयों में हानि-वृद्धि सम्बन्धी नियम</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">विस्रसोपचयों में हानि-वृद्धि सम्बन्धी नियम</strong> </span><br /> | ||
षट्खण्डागम 14/5,6/ सू. 520-528/438-444 <span class="PrakritText">विस्सासुवचयपरूवणदाए एक्केवकम्हि जीवपदेसे केवडिया विस्सासुवचया उवचिदा ।520। अणंता विस्सासुवचया उवचिदा सव्वजीवेहि अणंतगुणा ।521। ते च सव्वलोगागदेहि बद्धा ।522। तेसिं चउब्विहा हाणी-दव्वहाणी खेत्तहाणी कालहाणी भावहाणी चेदि ।523। दव्वहाणिपरूवणदाए ओरालियसरीरस्स जे एयपदेसियवग्गणाए दव्वा ते बहुआ अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।524। जे दुपदेसियवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।525। एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पंचपदेसिय- छप्पदेसिय-सत्तपदेसिय- अट्ठपदेसिय-णवपदेसिय-दसपदेसिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसिय-अणंतपदेसिय-अणंताणंतपदेसियवग्गणाए दब्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।526। तदो अंगलस्स असंखेज्जदिभागं गंतूणं तेसिं पंचविहा हाणी- अणंतभागहाणी असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणीअसंखेज्जगुणहाणी ।527। (टीका- तत्थ एक्केक्किस्से हाणीए अद्धाणमंगुलस्स असंखेज्जदिभागो ।) एवं चदुण्णं सरीराणं ।528।</span> = <span class="HindiText">चार शरीरों में बन्धी नोकर्म वर्गणाओं की अपेक्षा - विस्रसोपचय प्ररूपणाकी अपेक्षा एक-एक जीव प्रदेश पर कितने विस्रसोपचय उपचित हैं ।520। अनन्त विस्रसोपचय उपचित हैं जो कि सब जीवों से अनन्त गुणे हैं ।521। वे सबलोक में से आकर बद्ध हुए हैं ।522। उनकी चार प्रकार की हानि होती है - द्रव्यहानि, क्षेत्रहानि, कालहानि और भावहानि ।523। द्रव्यहानि प्ररूपणा की अपेक्षा औदारिक शरीर की एक प्रदेशी वर्गणा के जो द्रव्य हैं वे बहुत हैं जो कि अनन्त विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।524। जो द्विप्रदेशी वर्गणा के द्रव्य हैं वे विशेषहीन हैं जो अनन्त विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।525। इसी प्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पंचप्रदेशी, छहप्रदेशी, सातप्रदेशी, आठप्रदेशी, नौप्रदेशी, दसप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, अनन्तप्रदेशी और अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणा के जो द्रव्य हैं विशेषहीन हैं जो प्रत्येक अनन्त विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।526। उसके बाद अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर उनकी पाँचप्रकार की हानि होती है - अनन्त भागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भाग हानि , संख्यात गुणहानि और असंख्यात गुणहानि ।527। (टीका-उनमें से एक-एक हानि का अध्वान अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । ) उसी प्रकार चार शरीरों की प्ररूपणा करनी चाहिए ।528।<br /> | |||
<strong>नोट </strong>- बिलकुल इसी प्रकार अन्य तीन हानियों का कथन करना चाहिए । ( | <strong>नोट </strong>- बिलकुल इसी प्रकार अन्य तीन हानियों का कथन करना चाहिए । ( षट्खण्डागम 14/5,6/ सू. 529-543/445-493) ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">एक समयप्रबद्ध में प्रदेशों का प्रमाण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">एक समयप्रबद्ध में प्रदेशों का प्रमाण</strong> </span><br /> | ||
पंचसंग्रह / प्राकृत/4/495 <span class="PrakritGatha">पंचरस-पंचवण्णेहिं परिणयदुगंध चदुहिं फासेहिं । दवियमणंतपदेसं जीवेहि अणंतगुणहीणं ।495।</span> = <span class="HindiText">पाँच रस, पाँच वर्ण, दो ग<u>न्ध</u> और शीतादि चार स्पर्श से परिणत, सिद्ध जीवों से अनन्तगुणितहीन, तथा अभव्य जीवों से अनन्तगुणित अनन्त प्रदेशी पुद्गल द्रव्य को यह जीव एक समय में ग्रहण करता है । 495। (गो., क./मू./191), ( द्रव्यसंग्रह टीका/33/94/1 ), (पं.सं./सं./4/337) ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">समयबद्ध वर्गणाओं में अल्पबहुत्व विभाग</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">समयबद्ध वर्गणाओं में अल्पबहुत्व विभाग</strong> </span><br /> | ||
धवला 6/1,9-7,43/201/6 <span class="PrakritText"> ते च कम्मपदेसा जहण्णवग्गणाए बहुआ, तत्तो उवरि वग्गणं पडि विसेसहीणा अणंतभागेण । भागहारस्स अर्द्ध गंतूण दुगुणहीणा । एवं णेदव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति । एवं चत्तारि य बंधा परूविदा होंति ।</span> =<span class="HindiText"> वे कर्मप्रदेश जघन्य वर्गणा में बहुत होते हैं उससे ऊपर प्रत्येक वर्गणा के प्रति विशेषहीन अर्थात् अनन्तवें भाग से हीन होते जाते हैं । और भागाहार के आधे प्रमाण दूर जाकर दुगुनेहीन अर्थात् आधे, रह जाते हैं । इस प्रकार यह क्रम अन्तिम वर्गणा तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार प्रकृति बन्ध के द्वारा यहाँ चारों ही बन्ध प्ररूपित हो जाते हैं ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">योग व प्रदेशबन्ध में परस्पर सम्बन्ध</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">योग व प्रदेशबन्ध में परस्पर सम्बन्ध</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">स्वामित्व की अपेक्षा प्रदेशबन्ध प्ररूपणा</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">स्वामित्व की अपेक्षा प्रदेशबन्ध प्ररूपणा</strong> <br /> | ||
<strong>पं.सं./प्रा./4/502</strong>-512), ( | <strong>पं.सं./प्रा./4/502</strong>-512), ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड/210-216/256 ) ।<br /> | ||
<strong>संकेत -</strong></span> | <strong>संकेत -</strong></span> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">एक योग निमित्तक प्रदेश बंध में अल्पबहुत्व क्यों ?</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">एक योग निमित्तक प्रदेश बंध में अल्पबहुत्व क्यों ?</strong> </span><br /> | ||
धवला 10/4,2,4,213,511/3 <span class="PrakritText">जदि जोगादो पदेसबंधो होदि तो सव्वकम्माणं पदेसपिंडस्स समाणत्तं पावदि, एगकारणत्तादो । ण च एवं, पुव्विल्लप्पाबहुएण सह विरोहादो त्ति । एवं पच्चवट्ठिदसिस्सत्थमुत्तरसुत्तावयवो आगदो ‘णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि’ त्ति । पयडी णाम सहाओ, तस्स विसेसो भेदो, तेण पयडिविसेसेण कम्माणं पदेसबंधट्ठाणाणि समाणकारणत्ते वि पदेसेहि विसेसाहियाणि ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> यदि योग से प्रदेशबन्ध होता है तो सब कर्मोंके प्रदेश समूह के समानता प्राप्त होती है, क्योंकि उन सबके प्रदेशबन्ध का एक ही कारण है । <strong>उत्तर-</strong>परन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि, वैसा होने पर पूर्वोक्त अल्पबहुत्व के साथ विरोध आता है । इस प्रत्यवस्था युक्त शिष्य के लिए उक्त सूत्र के ‘णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि’ इस उत्तर अवयव का अवतार हुआ है । प्रकृति का अर्थ स्वभाव है, उसके विशेष से अभिप्राय भेद का है । उस प्रकृति विशेष से कर्मों के प्रदेश बन्धस्थान एक कारण के होने पर भी प्रदेशों से विशेष अधिक है ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8">सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की अन्तिम फालि में प्रदेशों सम्बन्धी दो मत</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8">सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की अन्तिम फालि में प्रदेशों सम्बन्धी दो मत</strong> </span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 4/3,22/639/334/11 <span class="PrakritText">जइवसहाइरिएण उवलद्धा वे उवएसा । सम्मत्तचरिमफालीदो सम्मामिच्छत्तचरिमफाली असंखे. गुणहीणा त्ति एगो उवएसो । अवरेगो सम्मामिच्छत्तचारिमफाली तत्तो विसेसाहिया त्ति । एत्थ एदेसिं दोण्हं पि उवएसाणं णिच्छयं काउमसमत्थेण जइवसहाइरिएण एगो एत्थ विलिहिदो अवरेगो ट्ठिदिसंकमे । तेणेदं वे वि उपदेसा थप्पं कादूण वत्तव्वा त्ति ।</span> = <span class="HindiText">यतिवृषभाचार्य को दो उपदेश प्राप्त हुए । सम्यक्त्व की अन्तिम फालि से सम्यग्मिथ्यात्व की अन्तिमफालि असंख्यातगुणी हीन है यह पहला उपदेश है । तथा सम्यग्मिथ्यात्व की अन्तिम फालि उससे (सम्यक्त्व की अन्तिम फालि से ) विशेष अधिक है यह दूसरा, उपदेश है । इन दोनों ही उपदेशों का निश्चय करने में असमर्थ यतिवृषभाचार्य ने एक उपदेश यहाँ लिखा और एक उपदेश स्थिति संक्रम में लिखा, अतः इन दोनों ही उपदेशों को स्थगित करके उपदेश करना चाहिए ।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9">अन्य प्ररूपणाओं सम्बन्धी विषय सूची</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9">अन्य प्ररूपणाओं सम्बन्धी विषय सूची</strong> <br /> | ||
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<li> Space Point, ( | <li> Space Point, ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ प्र. 107) । </li> | ||
<li> Location, Points or Place as decimal Place. ( | <li> Location, Points or Place as decimal Place. ( धवला 5/ प्र.27) ।</li> | ||
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Revision as of 19:13, 17 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
आकाश के छोटे-से-छोटे अविभागी अंशका नाम प्रदेश है, अर्थात् एक परमाणु जितनी जगह घेरता है उसे प्रदेश कहते हैं । जिस प्रकार अखण्ड भी आकाश में प्रदेशभेद की कल्पना करके अनन्त प्रदेश बताये गये हैं, उसी प्रकार सभी द्रव्यों में पृथक्-पृथक् प्रदेशों की गणना का निर्देश किया गया है । उपचार से पुद्गल परमाणु को भी प्रदेश कहते हैं और इस प्रकार पुद्गल कर्मों केप्रदेशों का जीवके प्रदेशों के साथ बन्ध होना प्रदेशबन्ध कहा जाता है ।
- प्रदेश व प्रदेशबन्ध निर्देश
- प्रदेश का लक्षणः -
- परमाणु के अर्थ में;
- आकाश का अंश;
- पर्याय के अर्थ में ।
- स्कन्ध के भेद प्रभेद- देखें स्कंध - 1.2
- पृथक्-पृथक् द्रव्यों में प्रदेशों का प्रमाण - देखें वह वह द्रव्य ।
- द्रव्यों में प्रदेश-कल्पना सम्बन्धी युक्ति - देखें द्रव्य - 4.2
- लोक के आठ मध्य प्रदेश-देखें लोक - 2.5
- जीव के चलिताचलित प्रदेश - देखें जीव - 4।
- प्रदेशबन्ध का लक्षण ।
- प्रदेशबन्ध के भेद ।
- कर्म प्रदेशों में रूप, रस व गन्धादि - देखें ईर्यापथ - 3
- अनुभाग व प्रदेश में परस्पर सम्बन्ध-देखें अनुभाग - 2.4
- स्थितिबन्ध व प्रदेशबन्ध में सम्बन्ध -देखें स्थिति - 3.1
- प्रदेश का लक्षणः -
- प्रदेश बंध सम्बन्धी नियम व प्ररूपणाएँ
- विस्रसोपचयों में हानि-वृद्धि सम्बन्धी नियम ।
- एक समयप्रबद्ध में प्रदेशों का प्रमाण ।
- समयप्रबद्ध वर्गणाओं में अल्पबहुत्व विभाग ।
- * पाँचों शरीरों में बद्ध प्रदेशों में व विस्रसोपचयों में अल्प बहुत्व - देखें अल्पबहुत्व ।3/4/3,6
- * प्रदेशबंधका निमित्त योग है । -देखें बंध - 5.1
- * प्रदेशबंध में योग संबंधी शंकाएँ -देखें योग - 2
- * योगस्थानों व प्रदेशबंध में सम्बन्ध -देखें योग - 5 ।
- योग व प्रदेश बंध में परस्पर सम्बन्ध ।
- स्वामित्व की अपेक्षा प्रदेशबंध प्ररूपणा ।
- प्रकृतिबंध की अपेक्षा स्वामित्व प्ररूपणा ।
- एक योग निमित्तक प्रदेशबंध में अल्पबहुत्व क्यों ?
- सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की अन्तिम फालि में प्रदेशों सम्बन्धी दो मत ।
- अन्य प्ररूपणाओं सम्बन्धी विषय सूची ।
- मूलोत्तर प्रकृति, पंच शरीर, व 23 वर्गणाओं के प्रदेशों सम्बन्धी संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन काल अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप प्ररूपणाएँ - देखें वह वह नाम ।
- प्रदेश सत्त्व सम्बन्धी नियम । -देखें सत्त्व - 2.7
- विस्रसोपचयों में हानि-वृद्धि सम्बन्धी नियम ।
- प्रदेश व प्रदेशबन्ध निर्देश
- प्रदेश का लक्षण
- परमाणु के अर्थ में
सर्वार्थसिद्धि/2/38/192/6 प्रदिश्यन्त इति प्रदेशाः परमाणवः । = प्रदेश शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्रदिश्यन्ते’ होती है । इसका अर्थ परमाणु है । ( सर्वार्थसिद्धि/5/8/274/7 ) ( राजवार्तिक/2/38/1/147/28 ) ।
- आकाश का अंश
प्रवचनसार/140 आगासमणुणिविट्ठं आगासपदेससण्णया भणिदं । सव्वेसिं च अणूणं सक्कदि तं देदुमवगासं ।140। = एक परमाणु जितने आकाश में रहता है उतने आकाश को ‘आकाश प्रदेश’ के नाम सेकहा गया है और वह समस्त परमाणुओं को अवकाश देने में समर्थ है ।140। ( राजवार्तिक/5/1/8/432/33 ) ( नयचक्र बृहद्/141 )( द्रव्यसंग्रह/27 ) ( गोम्मटसार जीवकाण्ड मू./591/1029) ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/35-36 ) ।
कषायपाहुड़/2/2,2/12/7/10 निर्भाग आकाशावयवः (प्रदेश:) = जिसका दूसरा हिस्सा नहीं हो सकता ऐसे आकाश के अवयव को प्रदेश कहते हैं ।
- पर्याय के अर्थ में
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/5 प्रदेशाख्याः परस्परव्यतिरेकित्वात्पर्यायाः उच्यन्ते । = प्रदेशनाम के उनके जो अवयव हैं वे भी परस्पर व्यतिरेकवाले होने से पर्याय कहलाती हैं ।
- परमाणु के अर्थ में
- प्रदेशबन्ध का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/8/24 नामप्रत्ययाः सर्वतोयोगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ।24। = कर्मप्रकृतियों के कारणभूत प्रति समय योग विशेष से सूक्ष्म, एकक्षेत्रावगाही और स्थित अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणु सब आत्म प्रदेशों में (सम्बन्ध को प्राप्त) होते हैं ।24। (मू.आ./1241), (विशेष विस्तार देखें सर्वार्थसिद्धि - 8.24.402 ), ( पंचाध्यायी x`/ उ/933) .
सर्वार्थसिद्धि 8/3/379/7 इयत्तावधारणं प्रदेशः । कर्मभावपरिणतपुद्गलस्कन्धानां परमाणुपरिच्छेदेनावधारणं प्रदेशः । = इयत्ता (संख्या) का अवधारण करना प्रदेश है । (पं.सं./प्रा./4/514) । अर्थात् कर्मरूप से परिणत पुद्गलस्कन्धों का परमाणुओं की जानकारी करके निश्चय करना प्रदेशबन्ध है । ( राजवार्तिक/8/3/7/567/12 ) ।
- प्रदेशबन्ध के भेद
(प्रदेश बन्ध चार प्रकार का होता है - उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य व अजघन्य ।)
- प्रदेश का लक्षण
- प्रदेश बन्ध सम्बन्धी नियम व प्ररूपणाएँ
- विस्रसोपचयों में हानि-वृद्धि सम्बन्धी नियम
षट्खण्डागम 14/5,6/ सू. 520-528/438-444 विस्सासुवचयपरूवणदाए एक्केवकम्हि जीवपदेसे केवडिया विस्सासुवचया उवचिदा ।520। अणंता विस्सासुवचया उवचिदा सव्वजीवेहि अणंतगुणा ।521। ते च सव्वलोगागदेहि बद्धा ।522। तेसिं चउब्विहा हाणी-दव्वहाणी खेत्तहाणी कालहाणी भावहाणी चेदि ।523। दव्वहाणिपरूवणदाए ओरालियसरीरस्स जे एयपदेसियवग्गणाए दव्वा ते बहुआ अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।524। जे दुपदेसियवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।525। एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पंचपदेसिय- छप्पदेसिय-सत्तपदेसिय- अट्ठपदेसिय-णवपदेसिय-दसपदेसिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसिय-अणंतपदेसिय-अणंताणंतपदेसियवग्गणाए दब्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।526। तदो अंगलस्स असंखेज्जदिभागं गंतूणं तेसिं पंचविहा हाणी- अणंतभागहाणी असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणीअसंखेज्जगुणहाणी ।527। (टीका- तत्थ एक्केक्किस्से हाणीए अद्धाणमंगुलस्स असंखेज्जदिभागो ।) एवं चदुण्णं सरीराणं ।528। = चार शरीरों में बन्धी नोकर्म वर्गणाओं की अपेक्षा - विस्रसोपचय प्ररूपणाकी अपेक्षा एक-एक जीव प्रदेश पर कितने विस्रसोपचय उपचित हैं ।520। अनन्त विस्रसोपचय उपचित हैं जो कि सब जीवों से अनन्त गुणे हैं ।521। वे सबलोक में से आकर बद्ध हुए हैं ।522। उनकी चार प्रकार की हानि होती है - द्रव्यहानि, क्षेत्रहानि, कालहानि और भावहानि ।523। द्रव्यहानि प्ररूपणा की अपेक्षा औदारिक शरीर की एक प्रदेशी वर्गणा के जो द्रव्य हैं वे बहुत हैं जो कि अनन्त विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।524। जो द्विप्रदेशी वर्गणा के द्रव्य हैं वे विशेषहीन हैं जो अनन्त विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।525। इसी प्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पंचप्रदेशी, छहप्रदेशी, सातप्रदेशी, आठप्रदेशी, नौप्रदेशी, दसप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, अनन्तप्रदेशी और अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणा के जो द्रव्य हैं विशेषहीन हैं जो प्रत्येक अनन्त विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।526। उसके बाद अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर उनकी पाँचप्रकार की हानि होती है - अनन्त भागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भाग हानि , संख्यात गुणहानि और असंख्यात गुणहानि ।527। (टीका-उनमें से एक-एक हानि का अध्वान अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । ) उसी प्रकार चार शरीरों की प्ररूपणा करनी चाहिए ।528।
नोट - बिलकुल इसी प्रकार अन्य तीन हानियों का कथन करना चाहिए । ( षट्खण्डागम 14/5,6/ सू. 529-543/445-493) ।
- एक समयप्रबद्ध में प्रदेशों का प्रमाण
पंचसंग्रह / प्राकृत/4/495 पंचरस-पंचवण्णेहिं परिणयदुगंध चदुहिं फासेहिं । दवियमणंतपदेसं जीवेहि अणंतगुणहीणं ।495। = पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध और शीतादि चार स्पर्श से परिणत, सिद्ध जीवों से अनन्तगुणितहीन, तथा अभव्य जीवों से अनन्तगुणित अनन्त प्रदेशी पुद्गल द्रव्य को यह जीव एक समय में ग्रहण करता है । 495। (गो., क./मू./191), ( द्रव्यसंग्रह टीका/33/94/1 ), (पं.सं./सं./4/337) ।
- समयबद्ध वर्गणाओं में अल्पबहुत्व विभाग
धवला 6/1,9-7,43/201/6 ते च कम्मपदेसा जहण्णवग्गणाए बहुआ, तत्तो उवरि वग्गणं पडि विसेसहीणा अणंतभागेण । भागहारस्स अर्द्ध गंतूण दुगुणहीणा । एवं णेदव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति । एवं चत्तारि य बंधा परूविदा होंति । = वे कर्मप्रदेश जघन्य वर्गणा में बहुत होते हैं उससे ऊपर प्रत्येक वर्गणा के प्रति विशेषहीन अर्थात् अनन्तवें भाग से हीन होते जाते हैं । और भागाहार के आधे प्रमाण दूर जाकर दुगुनेहीन अर्थात् आधे, रह जाते हैं । इस प्रकार यह क्रम अन्तिम वर्गणा तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार प्रकृति बन्ध के द्वारा यहाँ चारों ही बन्ध प्ररूपित हो जाते हैं ।
- योग व प्रदेशबन्ध में परस्पर सम्बन्ध
म.बं. 6/92-134 का भावार्थ - उत्कृष्ट योग से उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध तथा जघन्य योग से जघन्य प्रदेशबन्ध होता है .
- स्वामित्व की अपेक्षा प्रदेशबन्ध प्ररूपणा
पं.सं./प्रा./4/502-512), ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड/210-216/256 ) ।
संकेत -- संज्ञी = संज्ञी, पर्याप्त, उत्कृष्ट योग से युक्त, अल्प प्रकृति का बन्धक उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है ।
- असंज्ञी = असंज्ञी, अपर्याप्त, जघन्य योग से युक्त, अधिक प्रकृतिका बन्धक, जघन्य प्रदेशबन्ध करता है ।
- सू.ल./1 = सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त, जघन्य योग से युक्त जीव के अपनी पर्याय का प्रथम समय ।
- सू.ल./2 = सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त की आयु बन्ध के त्रिभाग प्रथम समय ।
- सू. ल./च = चरम भवस्थ तथा तीन विग्रह में से प्रथम विग्रह में स्थित निगोदिया जीव ।
- विस्रसोपचयों में हानि-वृद्धि सम्बन्धी नियम
उत्कृष्ट प्रदेश बन्ध |
उघन्य प्रदेशबन्ध |
||
गुणस्थान |
प्रकृतिका नाम |
गुणस्थान वस्वामित्व |
प्रकृतिका नाम |
1.मूल प्रकृति प्ररूपणा |
|||
1,2,4-6 |
आयु |
सू.ल./1 |
आयु के बिना |
1-9 |
मोह |
|
|
10 |
ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, नाम, गोत्र, अन्तराय |
सू.ल./2 |
आयु |
2. उत्तर प्रकृति प्ररूपणा |
|||
1. |
स्त्यान., निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, अनन्तानु. चतु., स्त्री वन.पुं. वेद, नरकतिर्यग् व देवगतिपंचेन्द्रियादि पाँच जाति, औदारिक, तैजस, व कार्मणशरीर, न्यग्रोधादि 5 संस्थान,वज्रनाराचआदि 5 संहनन,औदारिक अंगोपांग, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, नरकानुपूर्वी, तिर्यगानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहा., त्रस, स्थावर,बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयश,निर्माण, नीचगोत्र = 66 |
अविरतसम्य.
अप्रमत्त |
देवगति, व आनुपूर्वी, वैक्रियक शरीर, व अंगोपांग, तीर्थंकर=5
आहारक द्वय |
1-9 |
असाता, देव व मनुष्यायु, देव- गति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियकनाराचसंहनन = 13 |
|
|
4 |
अप्रत्याख्यान चतुष्क =4 |
|
|
4-9 |
हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, निद्रा, प्रचला,तीर्थंकर =9 |
|
|
5 |
प्रत्याख्यान चतुष्क =4 |
|
|
7 |
आहारक द्विक |
|
|
9 |
पुरुष वेद, संज्वलन चतुष्क =5 |
|
|
10 |
ज्ञानावरणकी 5, दर्शनावरणकी चक्षु आदि 4, अन्तराय5,साता, यशस्कीर्ति, उच्चगोत्र = 17 |
|
|
- प्रकृतिबन्ध की अपेक्षा स्वामित्व प्ररूपणा
प्रमाण तथा संकेत - (देखें पूर्वोक्त प्रदेशबन्ध प्ररूपणा नं - 10)।
नं. |
प्रकृतिका नाम |
स्वमित्व व गुणस्थान |
|||
उत्कृष्ट |
जघन्य |
||||
1 |
ज्ञानावरण– |
||||
|
पाँचों |
10 |
सू.ल./च |
||
2 |
दर्शनावरण– |
||||
1-4 |
चक्षु, अचक्षु अवधि व केवलदर्शन |
10 |
सू.ल./च |
||
5 |
निद्रा |
10 |
सू.ल./च |
||
6 |
निद्रानिद्रा |
1 |
सू.ल./च |
||
7 |
प्रचला |
10 |
सू.ल./च |
||
8 |
प्रचलाप्रचला |
1 |
सू.ल./च |
||
3 |
वेदनीय– |
||||
1 |
साता |
10 |
सू.ल./च |
||
2 |
असाता |
1-9 |
सू.ल./च |
||
4 |
मोहनीय– |
||||
1 |
मिथ्यात्व |
1 |
सू.ल./च |
||
2-5 |
अनन्ता. चतु. |
1 |
सू.ल./च |
||
6-10 |
अप्रत्या. चतु. |
4 |
सू.ल./च |
||
11-14 |
प्रत्या.चतु. |
5 |
सू.ल./च |
||
14-17 |
संज्वलन चतु. |
9 |
सू.ल./च |
||
17-23 |
हास्य,रति, अरति, शोक,भय, जुगुप्सा |
4-9 |
सू.ल./च |
||
24 |
स्त्री वेद |
1 |
सू.ल./च |
||
25 |
पुरुष |
10 |
सू.ल./च |
||
26 |
नपुं. |
1 |
सू.ल./च |
||
5 |
आयु– |
||||
1 |
नरकायु |
1 |
असंज्ञी |
||
2 |
तिर्यग् |
1 |
सू.ल./च |
||
3 |
मनुष्य |
1-9 |
|
||
4 |
देवायु |
1-9 |
|
||
6 |
नामकर्म– |
||||
1 |
गति– |
||||
|
नरक |
1 |
असंज्ञी |
||
|
तिर्यग् |
1 |
सू.ल./च |
||
|
मनुष्य |
1 |
सू.ल./च |
||
|
देव |
1-9 |
अविरति सम्य0 |
||
2 |
जाति– |
|
|
||
|
एकेन्द्रियादि पांचों |
1 |
सू.ल./च |
||
3 |
शरीर– |
||||
|
औदारिक |
1 |
सू.ल./च |
||
|
वैक्रियक |
1-9 |
अविरति सम्य0 |
||
|
आहारक |
7 |
अप्रमत्त |
||
|
तैजस |
1 |
सू.ल./च |
||
|
कार्मण |
1 |
सू.ल./च |
||
4 |
अंगोपांग– |
||||
|
औदारिक |
1 |
|
||
|
वैक्रियक |
1-9 |
अविरति |
||
|
आहारक |
7 |
अप्रमत्त |
||
5 |
निर्माण |
1 |
सू.ल./च |
||
6 |
बन्धन |
1 |
सू.ल./च |
||
7 |
संघात |
1 |
सू.ल./च |
||
8 |
संस्थान– |
||||
|
समचतुरस्र |
1-9 |
सू.ल./च |
||
|
शेष पांचों |
1 |
सू.ल./च |
||
9 |
संहनन– |
||||
|
वज्र वृषभ नाराच |
1-9 |
सू.ल./च |
||
|
शेष पांचों |
1 |
सू.ल./च |
||
10-13 |
स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण |
1 |
सू.ल./च |
||
14 |
आनुपूर्वी– |
||||
|
नरक |
1 |
असंज्ञी |
||
|
तिर्यग व मनुष्य |
1 |
सू.ल./च |
||
|
देव |
1-9 |
अविरत सम्य0 |
||
15 |
अगुरुलघु |
1 |
सू.ल./च |
||
16 |
उपघात |
1 |
सू.ल./च |
||
17 |
परघात |
1 |
सू.ल./च |
||
18 |
आतप |
1 |
सू.ल./च |
||
19 |
उद्योत |
1 |
सू.ल./च |
||
20 |
उच्छ्वास |
1 |
सू.ल./च |
||
21 |
विहायोगति– |
||||
|
प्रशस्त |
1-9 |
सू.ल./च |
||
|
अप्रशस्त |
1 |
सू.ल./च |
||
22 |
प्रत्येक |
1 |
सू.ल./च |
||
23 |
त्रस |
1 |
सू.ल./च |
||
24 |
सुभग |
1-9 |
सू.ल./च |
||
25 |
सुस्वर |
1 |
सू.ल./च |
||
26 |
शुभ |
1 |
सू.ल./च |
||
27 |
सूक्ष्म |
1 |
सू.ल./च |
||
28 |
पर्याप्त |
1 |
सू.ल./च |
||
29 |
स्थिर |
1 |
सू.ल./च |
||
30 |
आदेय |
1-9 |
सू.ल./च |
||
31 |
यश:कीर्ति |
10 |
सू.ल./च |
||
32 |
साधारण |
1 |
सू.ल./च |
||
33 |
स्थावर |
1 |
सू.ल./च |
||
34 |
दुर्भग |
1 |
सू.ल./च |
||
35 |
दु:स्वर |
1 |
सू.ल./च |
||
36 |
अशुभ |
1 |
सू.ल./च |
||
37 |
बादर |
1 |
सू.ल./च |
||
38 |
अपर्याप्त |
1 |
सू.ल./च |
||
39 |
अस्थिर |
1 |
सू.ल./च |
||
40 |
अनादेय |
1 |
सू.ल./च |
||
41 |
अयश:कीर्ति |
1 |
सू.ल./च |
||
42 |
तीर्थंकर |
|
|
||
7 |
गोत्र– |
||||
1 |
उच्च |
10 |
सू.ल./च |
||
2 |
नीच |
1 |
सू.ल./च |
||
8 |
अन्तराय– |
|
|
||
1 |
पांचों |
10 |
सू.ल./च |
- एक योग निमित्तक प्रदेश बंध में अल्पबहुत्व क्यों ?
धवला 10/4,2,4,213,511/3 जदि जोगादो पदेसबंधो होदि तो सव्वकम्माणं पदेसपिंडस्स समाणत्तं पावदि, एगकारणत्तादो । ण च एवं, पुव्विल्लप्पाबहुएण सह विरोहादो त्ति । एवं पच्चवट्ठिदसिस्सत्थमुत्तरसुत्तावयवो आगदो ‘णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि’ त्ति । पयडी णाम सहाओ, तस्स विसेसो भेदो, तेण पयडिविसेसेण कम्माणं पदेसबंधट्ठाणाणि समाणकारणत्ते वि पदेसेहि विसेसाहियाणि । = प्रश्न - यदि योग से प्रदेशबन्ध होता है तो सब कर्मोंके प्रदेश समूह के समानता प्राप्त होती है, क्योंकि उन सबके प्रदेशबन्ध का एक ही कारण है । उत्तर-परन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि, वैसा होने पर पूर्वोक्त अल्पबहुत्व के साथ विरोध आता है । इस प्रत्यवस्था युक्त शिष्य के लिए उक्त सूत्र के ‘णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि’ इस उत्तर अवयव का अवतार हुआ है । प्रकृति का अर्थ स्वभाव है, उसके विशेष से अभिप्राय भेद का है । उस प्रकृति विशेष से कर्मों के प्रदेश बन्धस्थान एक कारण के होने पर भी प्रदेशों से विशेष अधिक है ।
- सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की अन्तिम फालि में प्रदेशों सम्बन्धी दो मत
कषायपाहुड़ 4/3,22/639/334/11 जइवसहाइरिएण उवलद्धा वे उवएसा । सम्मत्तचरिमफालीदो सम्मामिच्छत्तचरिमफाली असंखे. गुणहीणा त्ति एगो उवएसो । अवरेगो सम्मामिच्छत्तचारिमफाली तत्तो विसेसाहिया त्ति । एत्थ एदेसिं दोण्हं पि उवएसाणं णिच्छयं काउमसमत्थेण जइवसहाइरिएण एगो एत्थ विलिहिदो अवरेगो ट्ठिदिसंकमे । तेणेदं वे वि उपदेसा थप्पं कादूण वत्तव्वा त्ति । = यतिवृषभाचार्य को दो उपदेश प्राप्त हुए । सम्यक्त्व की अन्तिम फालि से सम्यग्मिथ्यात्व की अन्तिमफालि असंख्यातगुणी हीन है यह पहला उपदेश है । तथा सम्यग्मिथ्यात्व की अन्तिम फालि उससे (सम्यक्त्व की अन्तिम फालि से ) विशेष अधिक है यह दूसरा, उपदेश है । इन दोनों ही उपदेशों का निश्चय करने में असमर्थ यतिवृषभाचार्य ने एक उपदेश यहाँ लिखा और एक उपदेश स्थिति संक्रम में लिखा, अतः इन दोनों ही उपदेशों को स्थगित करके उपदेश करना चाहिए ।
- अन्य प्ररूपणाओं सम्बन्धी विषय सूची
(म.बं.6/... पृ.)
नं.मूल उत्तरविषयज.उ.पदभुजगारादि पदज.उ.षट्
गुण
वृद्धि
ओघ व आदेश से अष्ट कर्म प्ररूपणा
1.मूलसमुत्कीर्तना6/10-1026/146-
53-54147-79
भंगविचय6/125-126
/65-66
जीवस्थान व6/154-156/83स
अध्यवसाय- 84
स्थान
उत्तरसन्निकर्ष6/269-565/178
भंग विचय6/566-569/350-354
- Space Point, ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ प्र. 107) ।
- Location, Points or Place as decimal Place. ( धवला 5/ प्र.27) ।
पुराणकोष से
आकाश द्रव्य का सबसे छोटा भाग । हरिवंशपुराण 7.17