नामकर्म: Difference between revisions
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<li class="HindiText"> नामकर्म प्रकृतियों में शुभ-अशुभ विभाग।–देखें [[ प्रकृतिबंध#2 | प्रकृतिबंध - 2]]।</li> | <li class="HindiText"> नामकर्म प्रकृतियों में शुभ-अशुभ विभाग।–देखें [[ प्रकृतिबंध#2 | प्रकृतिबंध - 2]]।</li> | ||
<li class="HindiText"> शुभ-अशुभ नामकर्म के बंधयोग्य परिणाम।–देखें [[ पुण्य पाप ]]। </li> | <li class="HindiText"> शुभ-अशुभ नामकर्म के बंधयोग्य परिणाम।–देखें [[पुण्य]], [[पाप]]। </li> | ||
<li class="HindiText"> नामकर्म की बंध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ।–देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | <li class="HindiText"> नामकर्म की बंध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ।–देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | ||
<li class="HindiText"> जीव विपाकी नामकर्म को भी अघाती कहने का कारण।–देखें [[ अनुभाग#3 | अनुभाग - 3]]। </li> | <li class="HindiText"> जीव विपाकी नामकर्म को भी अघाती कहने का कारण।–देखें [[ अनुभाग#3 | अनुभाग - 3]]। </li> |
Revision as of 20:23, 15 February 2024
सिद्धांतकोष से
- नामकर्म का लक्षण
प्रवचनसार/117 कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण। अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वासुरं कुणदि।=नाम संज्ञावाला कर्म जीव के शुद्ध स्वभाव को आच्छादित करके उसे मनुष्य, तिर्यंच, नारकी अथवा देव रूप करता है। ( गोम्मटसार कर्मकांड/12/9 ) सर्वार्थसिद्धि/8/3/379/2 नाम्नो नरकादिनामकरणम् । सर्वार्थसिद्धि/8/4/381/1 नमयत्यात्मानं नम्यतेऽनेनेति वा नाम। =(आत्मा का) नारक आदि रूप नामकरण करना नामकर्म की प्रकृति (स्वभाव) है। जो आत्मा को नमाता है या जिसके द्वारा आत्मा नमता है वह नामकर्म है। (राजवार्तिक/8/3/4/367/5 तथा 8/4/2/568/4); (प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति)।
धवला 6/1,9,1,10/13/3 नाना मिनोति निर्वर्त्तयतीति नाम। जे पोग्गला सरीरसंठाणसंघडणवण्णगंधादिकज्जकारया जीवणिविट्ठा ते णामसण्णिदा होति त्ति उत्तं होदि। =जो नाना प्रकार की रचना निवृत्त करता है, वह नामकर्म है। शरीर, संस्थान, संहनन, वर्ण, गंध आदि कार्यों के करने वाले जो पुद्गल जीव में निविष्ट हैं, वे ‘नाम’ इस संज्ञा वाले होते हैं, ऐसा अर्थ कहा गया है। (गोम्मटसार कर्मकांड/12/9); (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/20/13/16); (द्रव्यसंग्रह टीका/33/92/12 )।
- नामकर्म के भेद
- मूलभेद रूप 42 प्रकृतियाँ
ष.ख.6/1,9-1/सूत्र 28/50 गदिणामं जादिणामं सरीरणामं सरीरबंधणणामं सरीरसंघादणामं सरीरसंट्ठाणणामं सरीरअंगोवंगणामं सरीरसंघडणणामं वण्णणामं गंधणामं रसणामं फासणामं आणुपुव्वीणामं अगुरुलहुवणामं उवघादणामं परघादणामं उस्सासणामं आदावणामं उज्जोवणामं विहायगदिणामं तसणामं थावरणामं बादरणामं सुहुमणामं पज्जत्तणामं अपज्जत्तणामं पत्तेयसरीरणामं साधारणसरीरणामं थिरणामं अथिरणामं सुहणामं असुहणामं सुभगणामं दूभगणामं सुस्सरणामं दुस्सरणामं आदेज्जणामं अणादेज्जणामं जसकित्तिणामं अजसकित्तिणामं णिमिणामं तित्थयरणामं चेदि।28। =- गति,
- जाति,
- शरीर,
- शरीरबंधन,
- शरीरसंघात,
- शरीरसंस्थान,
- शरीरअंगोपांग,
- शरीरसंहनन,
- वर्ण,
- गंध,
- रस,
- स्पर्श,
- आनुपूर्वी,
- अगुरुलघु,
- उपघात,
- परघात,
- उच्छ्वास,
- आतप,
- उद्योत,
- विहायोगति,
- त्रस,
- स्थावर,
- बादर,
- सूक्ष्म,
- पर्याप्त,
- अपर्याप्त,
- प्रत्येक शरीर,
- साधारण शरीर,
- स्थिर,
- अस्थिर,
- शुभ,
- अशुभ,
- सुभग,
- दुर्भग,
- सुस्वर,
- दु:स्वर,
- आदेय,
- अनादेय,
- यश:कीर्ति;
- अयश:कीर्ति;
- निर्माण और
- तीर्थंकर, ये नाम कर्म की 42 पिंड प्रकृतियाँ हैं।28। ( षट्खंडागम 13/5,5/ सू.101/363); ( तत्त्वार्थसूत्र/8/11 ); ( मू.आ./1230-1233) ( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/4 ); ( म.बं.1/5/28/3); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/26/19/7 )
- उत्तर भेदरूप 93 प्रकृतियाँ
देखें – ( गति चार हैं–नरकादि। जाति पाँच हैं–एकेंद्रिय आदि। शरीर पाँच हैं–औदारिकादि। बंधन पाँच हैं–औदारिकादि शरीर बंधन। संघात पाँच हैं–औदारिकादि शरीर संघात। संस्थान छह हैं–समचतुरस्र आदि। अंगोपांग तीन हैं–औदारिक आदि। संहनन छ: हैं–वज्रऋृषभनाराच आदि। वर्ण पाँच हैं–शुक्ल आदि। गंध दो हैं–सुगंध, दुर्गंध। रस पाँच हैं–तिक्त आदि। स्पर्श आठ हैं–कर्कश आदि। आनुपूर्वी चार हैं–नरकगत्यानुपूर्वी आदि। विहायोगति दो हैं–प्रशस्त अप्रशस्त।–इस प्रकार इन 14 प्रकृतियों के उत्तर भेद 65 हैं। मूल 14 की बजाय उनके 65 उत्तर भेद गिनने पर नामकर्म की कुल प्रकृतियाँ 93 (42+65–14=93) हो जाती हैं।)
- नामकर्म की असंख्यात प्रकृतियाँ
षट्खंडागम 12/4,2,14/सूत्र 16/483 णामस्स कम्मस्स असंखेज्जलोगमेत्तपयडीओ।16। =नामकर्म की असंख्यात लोकमात्र प्रकृतियाँ हैं। ( राजवार्तिक/8/13/3/581/5 )
षट्खंडागम 13/2,5/सूत्र/पृष्ठ– णिरयगइयाओग्गाणुपुव्विणामाए पयडीओ अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तबाहल्लाणि तिरियपदराणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहिं ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ। एवडियाओ पयडीओ। (116/371)। तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्विणामाए पयडीओ लोओ सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहवियप्पेहिगुणिदाओ। एवडियाओ पयडीओ।(118-376)। मणुसगंइपाओग्गाणुपुव्विणामाए पयडीओ पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लाणि तिरियपदराणि उड्ढकवाडछेदणणिप्फण्णाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ। एवडियाओ पयडीओ।(120/377)। देवगइपाओग्गाणुपुव्विणामाए पयडीयो णवजोयणसदबाहल्लाणि तिरियपदराणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ। एवडियाओ पयडीओ।(122/383)। =नरकगत्यानुपूर्वी नामकर्म की प्रकृतियाँ अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र तिर्यक्प्रतररूप बाहल्य को श्रेणि के असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतनी हैं। उसकी इतनी मात्र प्रकृतियाँ हैं।116। तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म की प्रकृतियाँ लोक को जगश्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र अवगाहना विकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतनी हैं। उसकी इतनी मात्र प्रकृतियाँ होती हैं।118। मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म की प्रकृतियाँ ऊर्ध्वकपाटछेदन से निष्पन्न पैंतालीस लाख योजन बाहल्य वाले तिर्यक् प्रतरों के जगश्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतनी हैं। उसकी उतनी मात्र प्रकृतियाँ होती हैं।120। देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म की प्रकृतियाँ नौ सौ योजन बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतरों को जगश्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतनी होती हैं। उसकी उतनी मात्र प्रकृतियाँ हैं।122।
धवला 3/1,2,87/330/2 पुढविकाइयणामकम्मोदयवंतो जीवा पुढविकाइया त्ति वुच्चंति। पुढविकाइयणामकम्मं ण कहिं वि वुत्तमिदि चे ण, तस्स एइंदियजादिणामकम्मंतव्भूदत्तादो। एवं सदि कम्माणं संखाणियमो सुत्तसिद्धो ण घडदि त्ति वुच्चदे। ण सुत्ते कम्माणि अट्ठेव अट्ठेदालसयमेवेत्ति संखतरपडिसेहविधाययएवकाराभावदो। पुणो कत्तियाणि कम्माणि होंति। हय-गय-विय-फुल्लंधुव-सलहमक्कुणुद्देहि-गोमिंदादीणि जेत्तियाणि कम्मफलाणि लोगे उवलब्भंते कम्माणि वि तत्तियाणि चेव। एवं सेसकाइयाणं वि वत्तव्वं। =पृथिवीकाय नामकर्म से युक्त जीवों को पृथिवीकायिक कहते हैं। प्रश्न–पृथिवीकाय नामकर्म कहीं भी (कर्म के भेदों में) नहीं कहा गया है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, पृथिवीकाय नाम का कर्म एकेंद्रिय नामक नामकर्म के भीतर अंतर्भूत है। प्रश्न–यदि ऐसा है तो सूत्र प्रसिद्ध कर्मों की संख्या का नियम नहीं रह सकता है ? उत्तर–सूत्र में, कर्म आठ ही अथवा 148 ही नहीं कहे गये हैं; क्योंकि आठ या 148 संख्या को छोड़कर दूसरी संख्याओं का प्रतिषेध करने वाला एवकार पद सूत्र में नहीं पाया जाता। प्रश्न–तो फिर कर्म कितने हैं ? उत्तर–लोक में घोड़ा, हाथी, वृक (भेड़िया), भ्रमर, शलभ, मत्कुण, उद्देहिका (दीमक), गोमी और इंद्र आदि रूप से जितने कर्मों के फल पाये जाते हैं, कर्म भी उतने ही हैं। (धवला 7/2,1,19/70/7) इसी प्रकार शेष कायिक जीवों के विषय में भी कथन करना चाहिए।
धवला 7/2,10,32/505/5 सुहुमकम्मोदएण जहा जीवाणं वणप्फदिकाइयादीणं सुहुमत्तं होदि तहा णिगोदणामकम्मोदएण णिगोदत्तं होदि। =सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिस प्रकार वनस्पतिकायिकादि जीवों के सूक्ष्मपना होता है उसी प्रकार निगोद नामकर्म के उदय से निगोदत्व होता है।
धवला 13/5,5,101/366/9 को पिंडो णाम। बहूणं पयडीणं संदोहो पिंडो। तसादि पयडीणं बहुत्तं णत्थि त्ति ताओ अपिंडपयडीओ त्ति ण घेत्तव्वं, तत्थ वि बहूणं पयडीणमुवलंभादो। कुदो तदुवलद्धी। जुत्तोदो। का जुत्तो। कारणबहुत्तेण विणा भमर-पयंग-मायंग-तुरंगा-दीणं बहुत्ताणुववत्तीदो। धवला 13/5,5,133/387/11 ण च एदासिमुत्तरोत्तरपयडीओ णत्थि, पत्तेयसरीराणं धव-धम्मणादीणं साहारणसरीराणं मूलयथूहल्लयादीणं बहुविहसर-गमणादीणमुवलंभादो। =1. प्रश्न–पिंड (प्रकृति) का अर्थ क्या है ? उत्तर–बहुत प्रकृतियों का समुदाय पिंड कहा जाता है। प्रश्न–त्रस आदि प्रकृतियाँ तो बहुत नहीं हैं, इसलिए क्या वे अपिंड प्रकृतियाँ हैं ? उत्तर–ऐसा ग्रहण नहीं करना चाहिए; क्योंकि, वहाँ भी युक्ति से बहुत प्रकृतियाँ उपलब्ध होती हैं। और वह युक्ति यह है कि–क्योंकि, कारण के बहुत हुए बिना भ्रमर, पतंग, हाथी, और घोड़ा आदिक नाना भेद नहीं बन सकते हैं, इसलिए जाना जाता है, कि त्रसादि प्रकृतियाँ बहुत हैं।...। 2. यह कहना भी ठीक नहीं है कि अगुरुलघु नामकर्म आदि की उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ नहीं हैं, क्योंकि, धव और धम्ममन आदि प्रत्येक शरीर, मूली और थूहर आदि साधारण शरीर; तथा नाना प्रकार के स्वर और नाना प्रकार के गमन आदि उपलब्ध होते हैं।
और भी देखें नीचे शीर्षक नं - 5 (भवनवासी आदि सर्व भेद नामकर्मकृत हैं।)
- तीर्थंकरत्ववत् गणधरत्व आदि प्रकृतियों का निर्देश क्यों नहीं
राजवार्तिक/8/11/41/580/3 यथा तीर्थकरत्वं नामकर्मोच्यते तथा गणधरत्वादीनामुपसंख्यानं कर्तव्यम्, गणधरचक्रधरवासुदेवबलदेवा अपि विशिष्टर्द्धियुक्ता इति चेत्; तन्न; किं कारणम् । अन्यनिमित्तत्वात् । गणधरत्वं श्रुतज्ञानावरणाक्षयोपशमप्रकर्षनिमित्तम्, चक्रधरत्वादीनि उच्चैर्गोत्रविशेषहेतुकानि। =प्रश्न–जिस प्रकार तीर्थंकरत्व नामकर्म कहते हो उसी प्रकार गणधरत्व आदि नामकर्मों का उल्लेख करना चाहिए था; क्योंकि गणधर, चक्रधर, वासुदेव, और बलदेव भी विशिष्ट ऋद्धि से युक्त होते हैं ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, वे दूसरे निमित्तों से उत्पन्न होते हैं। गणधरत्व में तो श्रुतज्ञानावरण का प्रकर्ष क्षयोपशम निमित्त है और चक्रधरत्व आदिकों में उच्चगोत्र विशेष हेतु है।
- देवगति में भवनवासी आदि सर्वभेद नाम कर्मकृत हैं
राजवार्तिक/4/10/3/216/6 सर्वे ते नामकर्मोदयापादितविशेषा वेदितव्या:। राजवार्तिक/4/11/3/217/18 नामकर्मोदयविशेषस्तद्विशेषसंज्ञा:। ...किन्नरनामकर्मोदयात्किन्नरा: किंपुरुषनामकर्मोदयात् किंपुरुषा इत्यादि:। राजवार्तिक/4/12/5/218/17 तेषां संज्ञाविशेषाणां पूर्ववन्निर्वृत्तिर्वेदितव्यादेवगतिनामकर्मविशेषोदयादिति। =वे सब (असुर नाग आदि भवनवासी देवों के भेद) नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुए भेद जानने चाहिए। नामकर्मोदय की विशेषता से ही वे (व्यंतर देवों के किन्नर आदि) नाम होते हैं। जैसे–किन्नर नामकर्म के उदय से किन्नर और किंपुरुष नामकर्म के उदय से किंपुरुष, इत्यादि। उन ज्योतिषी देवों की भी पूर्ववत् ही निर्वृत्ति जाननी चाहिए। अर्थात् (सूर्य चंद्र आदि भी) देवगति नामकर्म विशेष के उदय से होते हैं। - नामकर्म के अस्तित्व की सिद्धि
धवला 6/1,9-1,10/13/4 तस्स णामकम्मस्स अत्थित्तं कुदोवगम्मदे। सरीरसंठाणवण्णादिकज्जभेदण्णहाणुववत्तीदो। =प्रश्न–उस नामकर्म का अस्तित्व कैसे जाना जाता है ? उत्तर–शरीर, संस्थान, वर्ण आदि कार्यों के भेद अन्यथा हो नहीं सकते हैं।
धवला 7/2,1,19/70/9 ण च कारणेण विणा कज्जाणमुप्पत्ती अत्थि। दीसंति च पुढविआउ-तेउ-वाउ-वणप्फदितसकाइयादिसु अणेगाणि कज्जाणि। तदो कज्जमेत्ताणि चेव कम्माणि वि अत्थि त्ति णिच्छओ कायव्वो।=कारण के बिना तो कार्य की उत्पत्ति होती नहीं है। और पृथिवी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति, और त्रसकायिक आदि जीवों में उनकी उक्त पर्यायोंरूप अनेक कार्य देखे जाते हैं। इसलिए जितने कार्य हैं उतने उनके कारणरूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए। - अन्य संबंधित विषय
- नामकर्म के उदाहरण।–देखें प्रकृतिबंध - 3।
- नामकर्म प्रकृतियों में शुभ-अशुभ विभाग।–देखें प्रकृतिबंध - 2।
- शुभ-अशुभ नामकर्म के बंधयोग्य परिणाम।–देखें पुण्य, पाप।
- नामकर्म की बंध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम ।
- जीव विपाकी नामकर्म को भी अघाती कहने का कारण।–देखें अनुभाग - 3।
- गति नामकर्म जन्म का कारण नहीं आयु है।–देखें आयु - 2।
- मूलभेद रूप 42 प्रकृतियाँ
पुराणकोष से
प्राणियों के आकारों का सृष्टिकर्ता कर्म । जीव इसी से विविध नामों को प्राप्त करते हैं । जीवों के शारीरिक अंगों की रचना यही कर्म करता है । इसकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ा कोड़ी सागर तथा जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त तक की होती है । महापुराण 15.87, हरिवंशपुराण - 3.97,हरिवंशपुराण - 3.58, वीरवर्द्धमान चरित्र 16.152, 157-160