काय: Difference between revisions
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<p class="HindiText">काय का प्रसिद्ध अर्थ शरीर है। शरीरवत् ही बहुत प्रदेशों के समूह रूप होने के कारण कालातिरिक्त जीवादि पाँच | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="HindiText">काय का प्रसिद्ध अर्थ शरीर है। शरीरवत् ही बहुत प्रदेशों के समूह रूप होने के कारण कालातिरिक्त जीवादि पाँच द्रव्य भी कायवान् कहलाते हैं। जो पंचास्तिकाय करके प्रसिद्ध हैं। यद्यपि जीव अनेक भेद रूप हो सकते हैं पर उन सबके शरीर या काय छह ही जाति की हैं—पृथिवी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति व त्रस अर्थात् मांसनिर्मित शरीर। यह ही षट् कायजीव के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह शरीर भी औदारिक आदि के भेद से पाँच प्रकार हैं। उस उस शरीर के निमित्त से होने वाली आत्मप्रदेशों की चंचलता उस नामवाला काययोग कहलाता है। पर्याप्त अवस्था में काययोग होते हैं और अपर्याप्त <span class="HindiText">अवस्था में मिश्र योग क्योंकि तहाँ कार्मण योग के आधीन रहता हुआ ही वह वह योग प्रगट होता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong class="HindiText"> काय | <li><span class="HindiText"><strong class="HindiText"> काय सामान्य का लक्षण व शंका समाधान</strong> | ||
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<li class="HindiText"> शरीर के अर्थ में काय का लक्षण। <br /> | <li class="HindiText"> शरीर के अर्थ में काय का लक्षण। <br /> | ||
* औदारिक शरीर व उनके | * औदारिक शरीर व उनके लक्षण–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> कार्मण काययोगियों में काय का यह लक्षण कैसे घटित होगा? </li> | <li class="HindiText"> कार्मण काययोगियों में काय का यह लक्षण कैसे घटित होगा? </li> | ||
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<li>षट्काय जीव व मार्गणा के भेद-प्रभेद। <br /> | <li>षट्काय जीव व मार्गणा के भेद-प्रभेद। <br /> | ||
* पृथिवी आदि के कायिकादि चार-चार भेद–देखें | * पृथिवी आदि के कायिकादि चार-चार भेद–देखें [[ पृथिवी ]]।<br /> | ||
* जीव के एकेन्द्रियादि भेद व त्रस | * जीव के एकेन्द्रियादि भेद व त्रस स्थावर काय में अन्तर।–देखें [[ स्थावर ]]<br /> | ||
* | * सूक्ष्म बादर काय व त्रस स्थावर काय।–देखें [[ वह वह नाम ]]<br /> | ||
* प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित | * प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक व साधारण।–देखें [[ वनस्पति ]]<br /> | ||
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<li> अकाय मार्गणा का लक्षण</li> | <li> अकाय मार्गणा का लक्षण</li> | ||
<li> बहुप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं? </li> | <li> बहुप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं? </li> | ||
<li> कायमार्गणा में | <li> कायमार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व। <br /> | ||
* काय मार्गणा विषयक सत्, | * काय मार्गणा विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ–देखें [[ वह वह नाम ]]<br /> | ||
* काय मार्गणा विषयक | * काय मार्गणा विषयक गुणस्थान मार्गणास्थान। जीवसमास के स्वामित्व की 20 प्ररूपणाएँ।–देखें [[ सत् ]] <br /> | ||
* काय मार्गणा में | * काय मार्गणा में सम्भव कर्मों का बन्ध, उदय, सत्त्व–देखें [[ वह वह नाम ]]<br /> | ||
* कौन काय से मरकर कहाँ उपजै और कौन गुण व पद तक | * कौन काय से मरकर कहाँ उपजै और कौन गुण व पद तक उत्पन्न कर सके?–देखें [[ जन्म#6 | जन्म - 6 ]]<br /> | ||
* काय मार्गणा में भाव मार्गणा की इष्टता तथा तहाँ आय के अनुसार | * काय मार्गणा में भाव मार्गणा की इष्टता तथा तहाँ आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें [[ मार्गणा ]]</li> | ||
<li>तेजस आदि कायिकों का लोक में | <li>तेजस आदि कायिकों का लोक में अवस्थान व तद्गत शंका समाधान।<br /> | ||
* त्रस, | * त्रस, स्थावर आदि जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें [[ तिर्यंच#3 | तिर्यंच - 3 ]]<br /> | ||
* काय स्थिति व भव स्थिति में | * काय स्थिति व भव स्थिति में अन्तर।–देखें [[ स्थिति#2 | स्थिति - 2 ]]<br /> | ||
* पंचास्तिकाय।–देखें | * पंचास्तिकाय।–देखें [[ अस्तिकाय ]]</li> | ||
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<li class="HindiText"> काययोग के भेद।<br /> | <li class="HindiText"> काययोग के भेद।<br /> | ||
* औदारिकादि काययोगों के | * औदारिकादि काययोगों के लक्षणादि।–देखें [[ वह वह नाम ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> शुभ अशुभ काययोग के लक्षण।<br /> | <li class="HindiText"> शुभ अशुभ काययोग के लक्षण।<br /> | ||
* शुभ अशुभ काययोग में | * शुभ अशुभ काययोग में अनन्त विकल्प कैसे सम्भव है?–देखें [[ योग#2 | योग - 2 ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव या शरीर के चलने को काययोग | <li class="HindiText"> जीव या शरीर के चलने को काययोग क्यों नहीं कहते?<br /> | ||
* काययोग विषयक | * काययोग विषयक गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास के स्वामित्व की 20 प्ररूपणाएँ।–देखें [[ सत् ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> पर्याप्तावस्था में कार्मणकाययोग के सद्भाव में भी मिश्रयोग क्यों नहीं कहते?<br /> | ||
* अप्रमत्तादि | * अप्रमत्तादि गुणस्थानों में काययोग कैसे सम्भव है?–देखें [[ योग#4 | योग - 4 ]]<br /> | ||
* मिश्र व कार्मण योग में चक्षुर्दर्शन नहीं | * मिश्र व कार्मण योग में चक्षुर्दर्शन नहीं होता।–देखें [[ दर्शन#7 | दर्शन - 7 ]]<br /> | ||
* काययोग विषयक | * काययोग विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।–देखें [[ वह वह नाम ]]<br /> | ||
* काययोग में | * काययोग में सम्भव कर्मों का बन्ध, उदय व सत्त्व।–देखें [[ वह वह नाम ]]<br /> | ||
* मरण व | * मरण व व्याघात हो जाने पर एक काययोग ही शेष रहता है।–देखें [[ मनोयोग#6 | मनोयोग - 6]]</li> | ||
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</ol><ol start="1"> <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1">काय | </ol><ol start="1"> <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1">काय सामान्य का लक्षण व शंकाएँ</strong> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong> बहुप्रदेशी के अर्थ में काय का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
नि.सा./मू./ | नि.सा./मू./34<span class="PrakritText"> काया हु बहुपदेसत्तं।</span>=<span class="HindiText">बहुप्रदेशीपना ही कायत्व है। (प्र.सा/त. प्र.व ता.वृ./135)।</span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./5/1/265/5<span class="SanskritText"> ‘काय’ शब्द: शरीरे व्युत्पादित: इहोपचारादव्यारोप्यते। कुत: उपचार:। यथा शरीरं पुद्गलद्रव्यप्रचयात्मकं तथा धर्मादिष्वपि प्रदेशप्रचयापेक्षया काया इव काया इति। </span>=<span class="HindiText">व्युत्पत्ति से काय शब्द का अर्थ शरीर है तो भी यहाँ उपचार से उसका आरोप किया है। प्रश्न—उपचार का क्या कारण है? उत्तर—जिस प्रकार शरीर पुद्गल द्रव्य के प्रचय रूप होता है, उसी प्रकार धर्मादिक द्रव्य भी प्रदेश प्रचय की अपेक्षा काय के समान होने से काय कहे गये हैं। (रा.वा./5/1/7-8/432/29) (नि.सा./ता.वृ./34) (द्र.सं./टी./24/70/1)।</span><br /> | ||
स्या.म./29/329/20<span class="SanskritText"> ‘तेषां संघे वानूर्ध्वे’ इति चिनोतेर्घञि आदेशश्च कत्वे काय: समूह जीवकाय: पृथिव्यादि:। </span>=<span class="HindiText">यहाँ ‘संघे वानूर्ध्वे’ सूत्र से ‘चि’ धातु से ‘घञ्’ प्रत्यय होने पर ‘च’ के स्थान में ‘क’ हो जाने से ‘काय’ शब्द बनता है। अत: जीवों के समूह को जीवकाय कहते हैं।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> शरीर के अर्थ में काय का लक्षण—</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> शरीर के अर्थ में काय का लक्षण—</strong> </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./ | पं.सं./प्रा./1/75 <span class="PrakritText">अप्पप्पवुत्तिसंचियपुग्गलपिंडं वियाण काओ त्ति। सो जिणमयम्हि भणिओ पुढवा कायाइयो छद्धा।75।</span>=<span class="HindiText">योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचय को प्राप्त हुए औदारिकादिरूप पुद्गल पिंड को काय जानना चाहिए। (ध.1/1,1,4/ 86/139) (पं.सं./सं./1/153)।</span><br /> | ||
ध. | ध.7/2,1,2/6/8 <span class="PrakritText">‘‘आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिण्ड: काय: पृथिवीकायादिनामकर्मजनितपरिणामो वा कार्ये कारणोपचारेण काय:, चीयन्ते अस्मिन् जीवा इति व्युत्पत्तेर्वा काय:।’’</span>=<span class="HindiText">आत्मा की प्रवृत्ति द्वारा उपचरित किये गये पुद्गलपिंड को काय कहते हैं। अथवा पृथिवीकाय आदि नामकर्मों के द्वारा उत्पन्न परिणाम को कार्य में कारण के उपचार से काय कहा है। अथवा, ‘जिसमें जीवों का संचय किया जाय’ ऐसी व्युत्पत्ति से काय (शब्द) बना है। (रा.वा./9/711/603/30 लक्षण सं.1) (ध. 1/1,1,4/138/1 तथा 1,1,39/366/2 में लक्षण नं. 1 व 2)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> उपरोक्त लक्षण की ईंट | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> उपरोक्त लक्षण की ईंट पत्थरों के साथ अतिव्याप्ति नहीं है।</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,4/138/1<span class="PrakritText">‘‘चीयत इति काय:। नेष्टाकादिचयेन व्यभिचार: पृथिव्यादिकर्मभिरिति विशेषणात्। औदारिकादिकर्मभि: पुद्गलविपाकिभिश्चीयत इति चेन्न, पृथिव्यादिकर्मणां सहकारिणामभावे ततश्चयनानुपपत्ते:।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—जो संचित किया जाता है उसे काय कहते हैं, ऐसी व्याप्ति बना लेने पर, काय को छोड़कर ईंट आदि के संचयरूप विपक्ष में भी यह व्याप्ति घटित हो जाती है, अत: व्यभिचार दोष आता है ?<strong> उत्तर</strong>—नहीं आता है; क्योंकि, पृथिवी आदि कर्मों के उदय से इतना विशेषण जोड़ कर ही, ‘जो संचित किया जाता है’ उसे काय कहते हैं ऐसी व्याख्या की गयी है।<strong> प्रश्न</strong>—‘पुद्गलविपाकी औदारिक आदि कर्मों के उदय से जो संचित किया जाता है उसे काय कहते हैं, ऐसी व्याख्या क्यों नहीं की गयी ? <strong>उत्तर</strong>—ऐसा नहीं है, क्योंकि, सहकारीरूप पृथिवी आदि नामकर्म के अभाव रहने पर केवल औदारिक आदि नामकर्म के उदय से नोकर्म वर्गणाओं का संचय नहीं हो सकता।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> कार्माण काययोगियों में यह लक्षण कैसे घटित होगा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> कार्माण काययोगियों में यह लक्षण कैसे घटित होगा</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,4/138/3<span class="PrakritText"> कार्मणशरीरस्थानां जीवानां पृथिव्यादिकर्मभिश्चितनोकर्मपुद्गलभावादकायत्वं स्यादिति चेन्न, तच्चयनहेतुकर्मणस्तत्रापि सत्त्वतस्तद्वयपदेशस्य न्याय्यत्वात्। अथवा आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिण्ड: काय:। अत्रापि स दोषो न निर्वायत इति चेन्न, आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिण्डस्य तत्र सत्त्वात्। आत्मप्रवृत्त्युपचितनोकर्मपुद्गलपिण्डस्य तत्रासत्त्वान्न तस्य कायव्यपदेश इति चेन्न, तच्चयनहेतुकर्मणस्तत्रास्तित्वतस्तस्य तद्व्यपदेशसिद्धे:।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न—कार्मणकाययोग में स्थित जीव के पृथिवी आदि के द्वारा संचित हुए नोकर्मपुद्गल का अभाव होने से अकायत्व प्राप्त हो जायेगा ? उत्तर—ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि, नोकर्मरूप पुद्गलों के संचय का कारण पृथिवी आदि कर्मसहकृत औदारिकादि नामकर्म का सत्त्व कार्मणकाययोग अवस्था में भी पाया जाता है, इसलिए उस अवस्था में भी कायपने का व्यवहार बन जाता है। 2. अथवा योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचित हुए औदारिकादिरूप पुद्गलपिण्ड को काय कहते हैं। प्रश्न—काय का इस प्रकार का लक्षण करने पर भी पहले जो दोष दे आये हैं वह दूर नहीं होता है। उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि, योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचित हुए कर्मरूप पुद्-गलपिण्ड का कार्मणकाययोग अवस्था में सद्भाव पाया जाता है। अर्थात् जिस समय आत्मा कार्मणकाययोग की अवस्था में होता है, उस समय उसके ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का सद्भाव रहता ही है, इसलिए इस अपेक्षा से उसके कायपना बन जाता है। प्रश्न—कार्मणकाय योगरूप अवस्था में योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचय को प्राप्त हुए (कर्मरूप पुद्गलपिण्ड भले ही रहो परन्तु) नोकर्मरूप पुद्गलपिण्ड का असत्त्व होने के कारण कार्मण काययोग में स्थित जीव के ‘काय’ यह व्यपदेश नहीं बन सकता ? उत्तर—नोकर्म पुद्गलपिण्ड के संचय के कारणभूत कर्म का कार्मणकाययोगरूप अवस्था में भी सद्भाव होने से कार्मणकाययोग में स्थित जीव के ‘काय’ यह संज्ञा बन जाती है।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">षट्काय जीव व मार्गणा के भेद-प्रभेद</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">षट्काय जीव व मार्गणा के भेद-प्रभेद</strong> <br /> | ||
ष.खं. | ष.खं. 1/1,1/सूत्र 39-42/264-272’’ (ति.प./5/278-280)<br /> | ||
(प.=पर्याप्त; अप=अपर्याप्त) काय <br /> | (प.=पर्याप्त; अप=अपर्याप्त) काय <br /> | ||
चार्ट </span><br /> | चार्ट </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./9/7/11/603/31<span class="SanskritText"> तत्संबन्धिजीव: षड्विध:—पृथिवीकायिक: अप्कायिक: तेजस्कायिक: वायुकायिक: वनस्पतिकायिक: त्रसकायिकश्चेति।</span>=<span class="HindiText">काय सम्बंधी जीव छह प्रकार के हैं–पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक। (यहाँ ‘अकाय’ का ग्रहण नहीं किया है, यही ऊपर वाले से इसमें विशेषता है। इसका भी कारण यह है कि ऊपर काय मार्गणा के भेद हैं और यहाँ षट्काय जीवों के।) (मू.आ./204-205) (पं.सं./प्रा./1/75), (ध. 1/1,1,4/86/139), (गो.जी./मू./181/414), (द्र.सं./टी./13/37/6)।<br /></span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">अकाय मार्गणा का लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">अकाय मार्गणा का लक्षण</strong></span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./ | पं.सं./प्रा./1/87<span class="PrakritGatha"> जह कंचणमग्गियं मुच्चइ किट्टेण कलियाराय। तह कायबंधमुक्का अकाट्टया झाणजोएण।87।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार अग्नि में दिया गया सुवर्ण किट्टिका (बहिरंगमल) और कालिमा (अन्तरंग मल) इन दोनों प्रकार के मलों से रहित हो जाता है उसी प्रकार ध्यान के योग से शुद्ध हुए और काय के बन्धन से मुक्त हुए जीव अकायिक जानना चाहिए। (ध.1/1,1,39/ 144/266); (गो.जी./मू./203/449)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">बहुप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">बहुप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं</strong></span><br /> | ||
ध./ | ध./1/1,1,46/277/6 <span class="PrakritText">जीवप्रदेशप्रचयात्मकत्वात्सिद्धा अपि सकाया इति चेन्न, तेषामनादिबन्धनबद्धजीवप्रदेशात्मकत्वात्। अनादिप्रचयोऽपि काय: किन्न स्यादिति चेन्न, मूर्तानां पुद्गलानां कर्मनोकर्मपर्यायपरिणतानां सादिसान्तप्रचयस्य कायत्वाभ्युपगमात्।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—जीव प्रदेशों के प्रचयरूप होने के कारण सिद्ध जीव भी सकाय हैं, फिर उन्हें अकाय क्यों कहा ? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि सिद्ध जीव अनादिकालीन स्वाभाविक बन्धन से बद्ध जीव प्रदेशस्वरूप हैं, इसलिए उसकी अपेक्षा यहाँ कायपना नहीं लिया है।<strong> प्रश्न</strong>–अनादि कालीन आत्मप्रदेशों के प्रचय को काय क्यों नहीं कहा ?<strong> उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, यहाँ पर कर्म और नोकर्म रूप पर्याय से परिणत मूर्त पुद्गलों के सादि और सान्त प्रदेश प्रचय को ही कायरूप से स्वीकार किया गया है। (किसी अपेक्षा उनको कायपना है भी। यथा–)<br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./24/70/1<span class="SanskritText"> कायत्वं कथ्यते—बहुप्रदेशप्रचयं दृष्ट्वा यथा शरीरं कायो भण्यते तथानन्तज्ञानादिगुणाधारभूतानां लोकाकाशप्रमितासंख्येयशुद्धप्रदेशानां प्रचयं समूहं संघातं मेलापकं दृष्ट्वा मुक्तात्मनि कायत्वं भण्यते।</span>=अब इन (मुक्तात्माओं) में कायपना कहते हैं—बहुत से प्रदेशों में व्याप्त होकर रहने को देखकर जैसे शरीर को काय कहते हैं, अर्थात् जैसे शरीर में अधिक प्रदेश होने के कारण शरीर को काय कहते हैं उसी प्रकार अनन्तज्ञानादि गुणों के आधारभूत जो लोकाकाश के बराबर असंख्यात शुद्ध प्रदेश हैं उनके समूह, संघात अथवा मेल को देखकर मुक्त जीव में भी कायत्व कहा जाता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">काय मार्गणा में | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">काय मार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व</strong> </span><br /> | ||
ष.खं./ | ष.खं./1/1,1/43-46 <span class="PrakritText">पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया बाउकाइया वणप्फइकाइया एक्कम्मि चेय मिच्छइट्ठिट्ठाणे।43। तसकाइया बीइंदिय-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।44। बादरकाइया बादरेइंदियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।45। तेण परमकाइया चेदि।46।</span>=<span class="HindiText">पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थान में ही होते हैं।43। द्वीन्द्रिय से लेकर अयोगकेवली तक त्रस जीव होते हैं।44। बादर एकेन्द्रिय जीवों से लेकर अयोगकेवली पर्यन्त जीव बादरकायिक होते हैं।45। स्थावर और बादरकाय से परे कायरहित अकायिक जीव होते हैं।46। (विशेष–देखें [[ जन्म#4 | जन्म - 4]])।</span><br /> | ||
गो.क./जी.प्र./ | गो.क./जी.प्र./309/438/8<span class="SanskritText"> गुणस्थानद्वयं। कुत:। ‘‘णहि सासणो अपुण्णे साहारणसुहमगेयतेउदुगे।’’ इति पारिशेष्यात् पृथ्व्यप्प्रत्येकवनस्पतिषु सासादनस्योत्पत्ते:।’’ <br /> | ||
गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./703/14 ते मिथ्यादृष्टौ पर्याप्तापर्याप्ताश्च। सासादने बादरपृथ्व्यब्वनस्पतिस्थावरकाया: द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञित्रसकायाश्चापर्याप्ता: संज्ञित्रसकाय: उभयश्चेति षड्जीवनिकाय:। मिश्रे संज्ञिपञ्चेन्द्रियत्रसकायपर्याप्त एव। असंयते उभय:, संदेशयते पर्याप्त एव। प्रमत्ते पर्याप्त:। साहारकर्धिस्तूभय:। अप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तेषु पर्याप्त एव। सयोगे पर्याप्त:। समुद्घाते तूभय:। अयोगे पर्याप्त एव।=</span><span class="HindiText">‘‘णहि सासणो....’’ इस वचनतै पृथिवी अप प्रत्येक वनस्पति विषैं ही सासादन मर उपजै है (अत: तहाँ अपर्याप्तावस्था विषै दो गुणस्थान संभवै मिथ्यादृष्टि व सासादन) तहाँ मिथ्यादृष्टि विषै तौ छहो (कायवाले) पर्याप्त वा अपर्याप्त हैं। सासादनविषै बादर पृथिवी, अप व वनस्पति ए—स्थावर अर त्रस विषै बेंद्री तेंद्री चौंद्री असैनी पंचेंद्री ए तौ अपर्याप्त ही हैं और सैनी त्रसकाय पर्याप्त अपर्याप्त दोऊ हैं। आगैं संज्ञी पंचेंद्री त्रसकाय ही है। तहाँ मिश्र विषै पर्याप्त ही है। अविरत विषै दोऊ है। देश संयत विषै पर्याप्त ही है। प्रमत्त विषै पर्याप्त है। आहारक (समुद्घात) सहित दोऊ हैं। अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यन्त पर्याप्त ही है। सयोगी विषै पर्याप्त हैं। समुद्घात सहित दोऊ हैं। अयोगी विषै पर्याप्त ही है। (गो.जी./मू.व जी.प्र./678) (विशेष देखें [[ जन्म#4 | जन्म - 4]])<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">तैजस आदि कायिकों का लोक में | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">तैजस आदि कायिकों का लोक में अवस्थान व तद्गत शंका समाधान</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.7/2,7,71/401/3<span class="PrakritText"> कम्मभूमिपडिभागसयंभूरमणदीवद्धे चेव किर तेउकाइया होंति, ण अण्णत्थेत्ति के वि आइरिया भणंति। ....अण्णे के वि आइरिया सव्वेसु दीवसमुद्देसु तेउकाइयबादरपज्जत्ता संभवंति त्ति भणंति। कुदो। सयंभूरमणदीवसमुद्दप्पण्णाणं बादरते उपज्जत्ताणं वाएण हिरिज्जमाणाणं कीडणसीलदेवरतंताणं वा सव्वदीवसमुद्देसुसविउव्वणाणं गमणसंभवादो। केइमाइरिया तिरियलोगादो संखेज्जगुणो फासिदो त्ति भणंति। कुदो। सव्वपुढवीसु बादरतेउपज्जत्ताणं संभवादो। तिसु वि उवदेसेसु को एत्थ गेज्झो। तइज्जो घेत्तव्वो जुत्तीए अणुग्गहित्तादो। ण च सुत्तं त्तिण्हमेक्कस्स वि मुक्ककंठं होऊण परूवयमत्थि। पहिल्लओ उवएसो वक्खाणे इरियेहि य संमदो त्ति एत्थ सो चेव णिद्दिट्ठो।=</span> | ||
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<li><span class="HindiText"> कर्मभूमि के प्रतिभागरूप अर्ध | <li><span class="HindiText"> कर्मभूमि के प्रतिभागरूप अर्ध स्वयम्भूरमण द्वीप में ही तैजस कायिक जीव होते हैं, अन्यत्र नहीं–ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> अन्य कितने ही आचार्य ‘सर्व द्वीपसमुद्रों में तेजसकायिक बादर पर्याप्त जीव संभव हैं’ ऐसा कहते हैं, क्योंकि स्वयम्भूरमणद्वीप व समुद्र में उत्पन्न बादर तेजसकायिक पर्याप्त जीवों का वायु से ले जाये जाने के कारण अथवा क्रीड़नशील देवों के परतन्त्र होने से सर्व द्वीप समुद्रों में विक्रिया युक्त होकर गमन सम्भव है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> कितने आचार्यों का कहना है कि उक्त जीवों के द्वारा वैक्रियकसमुद्घात की अपेक्षा | <li><span class="HindiText"> कितने आचार्यों का कहना है कि उक्त जीवों के द्वारा वैक्रियकसमुद्घात की अपेक्षा तिर्यग्लोक से संख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि (उस प्रकार) सब द्वीप समुद्रों में बादर तेजसकायिक पर्याप्त जीवों की सम्भावना है। उपर्युक्त तीनों उपदेशों में से तीसरा उपदेश यहाँ ग्रहण करने योग्य है क्योंकि वह युक्ति से अनुगृहीत है। दूसरी बात यह है कि सूत्र इन तीन उपदेशों में से एक का भी मुक्तकण्ठ होकर प्ररूपक नहीं है। पहिला उपदेश व्याख्यानों और व्याख्यानाचार्यों से संमत है। इसलिए यहाँ उसी का निर्देश किया गया है।</span><br /> | ||
ध./ | ध./7/2,6,35/332/9<span class="PrakritText"> तेउ-आउ-रुक्खाणं कधं तत्थ संभवो। ण इंदिएहि अगेज्झाणं सुट्ठ्ठसण्हाणं पुढविजोगियाणमत्थित्तस्स विरोहाभावादो।<br /> | ||
ध./ | ध./7/2,7,78/405/5 ‘‘तहं जलंता णिरयपुढवीसु अग्गिणो बहंतीओ णईओ च णत्थि त्ति जदि अभावो वुच्चदे, तंपि णं घडदे-‘षष्ठ सप्तमयो: शीतं शीतोष्णं पञ्चमे स्मृतम्। चतुर्ष्वत्युष्णमुद्दिष्टंस्तासामेव महीगुणा:।1। इदि तत्थ वि आउ तेऊणं संभवादो। कधं पुढवीणं हेट्ठा पत्तेयसरीराणं संभवो। ण, सीएण वि सम्मुच्छिज्जमाणपगण-कुहुणादीणमुवलंभादो। कधमुण्हम्हि संभवो। ण, अच्चुण्हे वि समुप्पज्जमाणजवासपाईणमुवलंभादो।’’</span><span class="HindiText"> =(पर्याप्त व अपर्याप्त बादर)<strong> प्रश्न</strong>—तैजसकायिक, जलकायिक, और वनस्पतिकायिक जीवों की वहाँ (भवनवासियों के विभावों व अधोलोक की आठपृथिवियों में सम्भावना कैसे है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, इन्द्रियों से अग्राह्य व अतिशय सूक्ष्म पृथिवी सम्बद्ध उन जीवों के अस्तित्व का कोई विरोध नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>—नरक पृथिवियों में जलती हुई अग्नियाँ और बहती हुई नदियाँ नहीं हैं ? <strong>उत्तर</strong>—इस कारण यदि उनका अभाव कहते हो, तो वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि-छठी और सातवीं पृथिवी में शीत, तथा पाँचवीं में शीत व उष्ण दोनों माने गये हैं। शेष चार पृथिवियों में अत्यन्त उष्णता है। ये उनके ही पृथिवी गुण हैं।।1।। इस प्रकार उन नरक पृथिवियों में अप्कायिक व तेजसकायिक जीवों की सम्भावना है।<strong> प्रश्न</strong>—पृथिवियों के नीचे प्रत्येक शरीर जीवों की सम्भावना कैसे है ? <strong>उत्तर</strong>—नहीं; क्योंकि शीत से भी उत्पन्न होने वाले पगण और कुहुण आदि वनस्पति विशेष पाये जाते हैं। <strong>प्रश्न</strong>—उष्णता में प्रत्येक शरीर जीवों का उत्पन्न होना कैसे सम्भव है ?<strong> उत्तर—</strong>नहीं, क्योंकि, अत्यन्त उष्णता में भी उत्पन्न होने वाले जवासप आदि वनस्पति विशेष पाये जाते हैं। विशेष देखो जन्म/4–(सासादन सम्बन्धी दृष्टि भेद)</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">काय योग का लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">काय योग का लक्षण</strong></span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./6/1/619/7 वीर्यान्तरायक्षयोपशमसद्भावे सति औदारिकादिसप्तविधकायवर्गणान्यतमालम्बनापेक्ष आत्मप्रदेशपरिस्पन्द: काययोग:।=<span class="HindiText">वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम के होने पर औदारिकादि सप्त प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक प्रकार की वर्गणाओं के आलम्बन से होने वाला आत्मप्रदेश परिस्पन्द काययोग कहलाता है। (रा.वा./6/1/10/505/17)</span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,65/308/6<span class="SanskritText"> सप्तानां कायानां सामान्यं काय:, तेन जनितेन वीर्येण जीवप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणेन योग: काययोग:।</span><span class="HindiText">=सात प्रकार के कायों में जो अन्वयरूप से रहता है उसे सामान्य काय कहते हैं। उस काय से उत्पन्न हुए आत्मप्रदेशपरिस्पन्द लक्षण वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसे काययोग कहते हैं।</span><br /> | ||
ध. | ध.7/2,1,33/76/9 <span class="PrakritText">चउव्विहसरीराणि अवलंविय जीवपदेसाणं संकोचविकोचो सो कायजोगो णाम।</span><span class="HindiText">=जो चतुर्विध शरीरों के अवलम्बन से जीवप्रदेशों का संकोच विकोच होता है, वह काययोग है।</span><br /> | ||
ध. | ध.10/4,2,4,175/437/11<span class="PrakritText"> वातपित्तसेंभादीहि जणिदपरिस्समेण जाव जीवपरिप्फंदो कायजोगो णाम। </span><span class="HindiText">=वात, पित्त व कफ आदि के द्वारा उत्पन्न परिश्रम से जो जीव प्रदेशों का परिस्पन्द होता है वह काययोग कहा जाता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> काययोग के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> काययोग के भेद</strong> </span><br /> | ||
ष.खं. | ष.खं.1/1,1/सू.56/289 <span class="PrakritText">कायजोगो सत्तविहो ओरलियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो वेउव्वियकायजोगो वेउव्वियमिस्सकायजोगो आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो कम्मइयकायजोगो चेदि।56।</span> =<span class="HindiText">काय योग सात प्रकार का है-औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग। (रा.वा./1/7/14/39/22) </span>(ध.8/3,6/21/7) (द्र.सं./टी./13/37/8)</li> | ||
<li><strong class="HindiText" name="3.3" id="3.3"> शुभ-अशुभ काययोग के लक्षण</strong> </li> | <li><strong class="HindiText" name="3.3" id="3.3"> शुभ-अशुभ काययोग के लक्षण</strong> </li> | ||
बा.अ./ | बा.अ./53,55<span class="PrakritGatha"> बंधणछेदणमारणकिरिया सा असुहकायेत्ति।53। जिणदेवादिसु पूजा सुहकायंत्ति य हवे चेट्ठा।55।=</span><span class="HindiText">बान्धने, छेदने और मारने की क्रियाओं को अशुभकाय कहते हैं।53। जिनदेव, जिनगुरू, तथा जिनशास्त्रों की पूजारूप काय की चेष्टा को शुभकाय कहते हैं। </span> | ||
रा.वा/ | रा.वा/6/3/1-2/506-507<span class="SanskritText"> प्राणातिपातादत्तादानमैथुनप्रयोगादिरशुभ: काययोग:।2। ततोऽनन्तविकल्पादन्य: शुभ:।3।</span> ...<span class="HindiText">.तद्यथा अहिंसास्तेयब्रह्मचर्यादि: शुभ: काययोग:।=हिंसा, चोरी और मैथुनप्रयोगादि अनन्त विकल्परूप अशुभकाय योग है।2। तथा उससे अन्य जो अहिंसा, अस्तेय ब्रह्मचर्यादि अनन्त विकल्प वे शुभ काययोग हैं। (स.सि./6/3/319/10) <strong>4. जीव या शरीर के चलने को काययोग क्यों नहीं कहते</strong> ?</span> ध.5/1,7,48/226/2<span class="PrakritText"> ण सरीरणामकम्मोदयजणिदो वि, पोग्गलविवाइयाणं जीवपरिफद्दणहेउत्तविरोहा।</span>=<span class="HindiText">योग शरीरनामकर्मोदय-जनित भी नहीं है, क्योंकि, पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के जीवपरिस्पन्दन का कारण होने में विरोध है। </span>ध.7/2,1,33/77/3<span class="PrakritText"> ण जीवे चलंते जीवपदेसाणं संकोचविकोचणियमो, सिज्झंतपढमसमए एत्तो लोअग्गं गच्छंतम्मि जीवपदेसाणं संकोचविकोचाणुवलंभा।</span>=<span class="HindiText">चलते समय जीवप्रदेशों के संकोच-विकोच का नियम नहीं है, क्योंकि, सिद्ध होने के प्रथम समय में जब जीव यहाँ से अर्थात् मध्यलोक से, लोक के अग्रभाग को जाता है, तब उसके प्रदेशों में संकोच-विकोच नहीं पाया जाता। </span> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> पर्याप्तावस्था में कार्माण काय के सद्भाव में भी मिश्रयोग क्यों नहीं कहते ?</strong></span> <br>ध.1/1,1,76/316/4<span class="PrakritText"> पर्याप्तावस्थायां कार्मणशरीरस्य सत्त्वात्तत्राप्युभयनिबन्धनात्मप्रदेशपरिस्पन्द इति औदारिकमिश्रकाययोग: किमु न स्यादिति चेन्न, तत्र तस्य सतोऽपि जीवप्रदेशपरिस्पन्दस्याहेतुत्वात्। न पारम्पर्यकृतं तद्धेतुत्वं तस्यौपचारिकत्वात्। न तदप्यविवक्षितत्वात्।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—पर्याप्त अवस्था में कार्मणशरीर का सद्भाव होने के कारण वहाँ पर भी कार्मण और औदारिकशरीर के स्कन्धों के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्द होता है, इसलिए वहाँ पर भी औदारिकमिश्रकाययोग क्यों नहीं कहा जाता ?<strong> उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, पर्याप्त अवस्था में यद्यपि कार्मण शरीर विद्यमान है फिर भी वह जीव प्रदेशों के परिस्पन्दन का कारण नहीं है। यदि पर्याप्त अवस्था में कार्मणशरीर परम्परा से जीव प्रदेशों के परिस्पन्द का कारण कहा जावे, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, कार्मणशरीर को परम्परा से निमित्त मानना उपचार है। यदि कहें कि उपचार का भी यहाँ पर ग्रहण कर लिया जावे, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उपचार से परम्परारूप निमित्त के ग्रहण करने की यहाँ विवक्षा नहीं है।</span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p> पंचभूतात्मक प्रतिक्षण परिवर्तनशील शरीर । <span class="GRef"> महापुराण 66.86 </span></p> | |||
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Revision as of 21:39, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
काय का प्रसिद्ध अर्थ शरीर है। शरीरवत् ही बहुत प्रदेशों के समूह रूप होने के कारण कालातिरिक्त जीवादि पाँच द्रव्य भी कायवान् कहलाते हैं। जो पंचास्तिकाय करके प्रसिद्ध हैं। यद्यपि जीव अनेक भेद रूप हो सकते हैं पर उन सबके शरीर या काय छह ही जाति की हैं—पृथिवी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति व त्रस अर्थात् मांसनिर्मित शरीर। यह ही षट् कायजीव के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह शरीर भी औदारिक आदि के भेद से पाँच प्रकार हैं। उस उस शरीर के निमित्त से होने वाली आत्मप्रदेशों की चंचलता उस नामवाला काययोग कहलाता है। पर्याप्त अवस्था में काययोग होते हैं और अपर्याप्त अवस्था में मिश्र योग क्योंकि तहाँ कार्मण योग के आधीन रहता हुआ ही वह वह योग प्रगट होता है।
- काय सामान्य का लक्षण व शंका समाधान
- बहुप्रदेशी के अर्थ में काय का लक्षण।
- शरीर के अर्थ में काय का लक्षण।
* औदारिक शरीर व उनके लक्षण–देखें वह वह नाम ।
- कार्मण काययोगियों में काय का यह लक्षण कैसे घटित होगा?
- बहुप्रदेशी के अर्थ में काय का लक्षण।
- षट्काय जीव व मार्गणा निर्देश व शंकाएँ
- षट्काय जीव व मार्गणा के भेद-प्रभेद।
* पृथिवी आदि के कायिकादि चार-चार भेद–देखें पृथिवी ।
* जीव के एकेन्द्रियादि भेद व त्रस स्थावर काय में अन्तर।–देखें स्थावर
* सूक्ष्म बादर काय व त्रस स्थावर काय।–देखें वह वह नाम
* प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक व साधारण।–देखें वनस्पति
- अकाय मार्गणा का लक्षण
- बहुप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं?
- कायमार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व।
* काय मार्गणा विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ–देखें वह वह नाम
* काय मार्गणा विषयक गुणस्थान मार्गणास्थान। जीवसमास के स्वामित्व की 20 प्ररूपणाएँ।–देखें सत्
* काय मार्गणा में सम्भव कर्मों का बन्ध, उदय, सत्त्व–देखें वह वह नाम
* कौन काय से मरकर कहाँ उपजै और कौन गुण व पद तक उत्पन्न कर सके?–देखें जन्म - 6
* काय मार्गणा में भाव मार्गणा की इष्टता तथा तहाँ आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें मार्गणा - तेजस आदि कायिकों का लोक में अवस्थान व तद्गत शंका समाधान।
* त्रस, स्थावर आदि जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें तिर्यंच - 3
* काय स्थिति व भव स्थिति में अन्तर।–देखें स्थिति - 2
* पंचास्तिकाय।–देखें अस्तिकाय
- षट्काय जीव व मार्गणा के भेद-प्रभेद।
- काययोग निर्देश व शंका समाधान
- काययोग का लक्षण।
- काययोग के भेद।
* औदारिकादि काययोगों के लक्षणादि।–देखें वह वह नाम
- शुभ अशुभ काययोग के लक्षण।
* शुभ अशुभ काययोग में अनन्त विकल्प कैसे सम्भव है?–देखें योग - 2
- जीव या शरीर के चलने को काययोग क्यों नहीं कहते?
* काययोग विषयक गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास के स्वामित्व की 20 प्ररूपणाएँ।–देखें सत्
- पर्याप्तावस्था में कार्मणकाययोग के सद्भाव में भी मिश्रयोग क्यों नहीं कहते?
* अप्रमत्तादि गुणस्थानों में काययोग कैसे सम्भव है?–देखें योग - 4
* मिश्र व कार्मण योग में चक्षुर्दर्शन नहीं होता।–देखें दर्शन - 7
* काययोग विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम
* काययोग में सम्भव कर्मों का बन्ध, उदय व सत्त्व।–देखें वह वह नाम
* मरण व व्याघात हो जाने पर एक काययोग ही शेष रहता है।–देखें मनोयोग - 6
- काययोग का लक्षण।
- काय सामान्य का लक्षण व शंकाएँ
- बहुप्रदेशी के अर्थ में काय का लक्षण
नि.सा./मू./34 काया हु बहुपदेसत्तं।=बहुप्रदेशीपना ही कायत्व है। (प्र.सा/त. प्र.व ता.वृ./135)।
स.सि./5/1/265/5 ‘काय’ शब्द: शरीरे व्युत्पादित: इहोपचारादव्यारोप्यते। कुत: उपचार:। यथा शरीरं पुद्गलद्रव्यप्रचयात्मकं तथा धर्मादिष्वपि प्रदेशप्रचयापेक्षया काया इव काया इति। =व्युत्पत्ति से काय शब्द का अर्थ शरीर है तो भी यहाँ उपचार से उसका आरोप किया है। प्रश्न—उपचार का क्या कारण है? उत्तर—जिस प्रकार शरीर पुद्गल द्रव्य के प्रचय रूप होता है, उसी प्रकार धर्मादिक द्रव्य भी प्रदेश प्रचय की अपेक्षा काय के समान होने से काय कहे गये हैं। (रा.वा./5/1/7-8/432/29) (नि.सा./ता.वृ./34) (द्र.सं./टी./24/70/1)।
स्या.म./29/329/20 ‘तेषां संघे वानूर्ध्वे’ इति चिनोतेर्घञि आदेशश्च कत्वे काय: समूह जीवकाय: पृथिव्यादि:। =यहाँ ‘संघे वानूर्ध्वे’ सूत्र से ‘चि’ धातु से ‘घञ्’ प्रत्यय होने पर ‘च’ के स्थान में ‘क’ हो जाने से ‘काय’ शब्द बनता है। अत: जीवों के समूह को जीवकाय कहते हैं। - शरीर के अर्थ में काय का लक्षण—
पं.सं./प्रा./1/75 अप्पप्पवुत्तिसंचियपुग्गलपिंडं वियाण काओ त्ति। सो जिणमयम्हि भणिओ पुढवा कायाइयो छद्धा।75।=योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचय को प्राप्त हुए औदारिकादिरूप पुद्गल पिंड को काय जानना चाहिए। (ध.1/1,1,4/ 86/139) (पं.सं./सं./1/153)।
ध.7/2,1,2/6/8 ‘‘आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिण्ड: काय: पृथिवीकायादिनामकर्मजनितपरिणामो वा कार्ये कारणोपचारेण काय:, चीयन्ते अस्मिन् जीवा इति व्युत्पत्तेर्वा काय:।’’=आत्मा की प्रवृत्ति द्वारा उपचरित किये गये पुद्गलपिंड को काय कहते हैं। अथवा पृथिवीकाय आदि नामकर्मों के द्वारा उत्पन्न परिणाम को कार्य में कारण के उपचार से काय कहा है। अथवा, ‘जिसमें जीवों का संचय किया जाय’ ऐसी व्युत्पत्ति से काय (शब्द) बना है। (रा.वा./9/711/603/30 लक्षण सं.1) (ध. 1/1,1,4/138/1 तथा 1,1,39/366/2 में लक्षण नं. 1 व 2)। - उपरोक्त लक्षण की ईंट पत्थरों के साथ अतिव्याप्ति नहीं है।
ध.1/1,1,4/138/1‘‘चीयत इति काय:। नेष्टाकादिचयेन व्यभिचार: पृथिव्यादिकर्मभिरिति विशेषणात्। औदारिकादिकर्मभि: पुद्गलविपाकिभिश्चीयत इति चेन्न, पृथिव्यादिकर्मणां सहकारिणामभावे ततश्चयनानुपपत्ते:।=प्रश्न—जो संचित किया जाता है उसे काय कहते हैं, ऐसी व्याप्ति बना लेने पर, काय को छोड़कर ईंट आदि के संचयरूप विपक्ष में भी यह व्याप्ति घटित हो जाती है, अत: व्यभिचार दोष आता है ? उत्तर—नहीं आता है; क्योंकि, पृथिवी आदि कर्मों के उदय से इतना विशेषण जोड़ कर ही, ‘जो संचित किया जाता है’ उसे काय कहते हैं ऐसी व्याख्या की गयी है। प्रश्न—‘पुद्गलविपाकी औदारिक आदि कर्मों के उदय से जो संचित किया जाता है उसे काय कहते हैं, ऐसी व्याख्या क्यों नहीं की गयी ? उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि, सहकारीरूप पृथिवी आदि नामकर्म के अभाव रहने पर केवल औदारिक आदि नामकर्म के उदय से नोकर्म वर्गणाओं का संचय नहीं हो सकता। - कार्माण काययोगियों में यह लक्षण कैसे घटित होगा
ध.1/1,1,4/138/3 कार्मणशरीरस्थानां जीवानां पृथिव्यादिकर्मभिश्चितनोकर्मपुद्गलभावादकायत्वं स्यादिति चेन्न, तच्चयनहेतुकर्मणस्तत्रापि सत्त्वतस्तद्वयपदेशस्य न्याय्यत्वात्। अथवा आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिण्ड: काय:। अत्रापि स दोषो न निर्वायत इति चेन्न, आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिण्डस्य तत्र सत्त्वात्। आत्मप्रवृत्त्युपचितनोकर्मपुद्गलपिण्डस्य तत्रासत्त्वान्न तस्य कायव्यपदेश इति चेन्न, तच्चयनहेतुकर्मणस्तत्रास्तित्वतस्तस्य तद्व्यपदेशसिद्धे:।=प्रश्न—कार्मणकाययोग में स्थित जीव के पृथिवी आदि के द्वारा संचित हुए नोकर्मपुद्गल का अभाव होने से अकायत्व प्राप्त हो जायेगा ? उत्तर—ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि, नोकर्मरूप पुद्गलों के संचय का कारण पृथिवी आदि कर्मसहकृत औदारिकादि नामकर्म का सत्त्व कार्मणकाययोग अवस्था में भी पाया जाता है, इसलिए उस अवस्था में भी कायपने का व्यवहार बन जाता है। 2. अथवा योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचित हुए औदारिकादिरूप पुद्गलपिण्ड को काय कहते हैं। प्रश्न—काय का इस प्रकार का लक्षण करने पर भी पहले जो दोष दे आये हैं वह दूर नहीं होता है। उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि, योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचित हुए कर्मरूप पुद्-गलपिण्ड का कार्मणकाययोग अवस्था में सद्भाव पाया जाता है। अर्थात् जिस समय आत्मा कार्मणकाययोग की अवस्था में होता है, उस समय उसके ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का सद्भाव रहता ही है, इसलिए इस अपेक्षा से उसके कायपना बन जाता है। प्रश्न—कार्मणकाय योगरूप अवस्था में योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचय को प्राप्त हुए (कर्मरूप पुद्गलपिण्ड भले ही रहो परन्तु) नोकर्मरूप पुद्गलपिण्ड का असत्त्व होने के कारण कार्मण काययोग में स्थित जीव के ‘काय’ यह व्यपदेश नहीं बन सकता ? उत्तर—नोकर्म पुद्गलपिण्ड के संचय के कारणभूत कर्म का कार्मणकाययोगरूप अवस्था में भी सद्भाव होने से कार्मणकाययोग में स्थित जीव के ‘काय’ यह संज्ञा बन जाती है।
- बहुप्रदेशी के अर्थ में काय का लक्षण
- षट्काय जीव मार्गणा निर्देश व शंकाएँ
- षट्काय जीव व मार्गणा के भेद-प्रभेद
ष.खं. 1/1,1/सूत्र 39-42/264-272’’ (ति.प./5/278-280)
(प.=पर्याप्त; अप=अपर्याप्त) काय
चार्ट
रा.वा./9/7/11/603/31 तत्संबन्धिजीव: षड्विध:—पृथिवीकायिक: अप्कायिक: तेजस्कायिक: वायुकायिक: वनस्पतिकायिक: त्रसकायिकश्चेति।=काय सम्बंधी जीव छह प्रकार के हैं–पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक। (यहाँ ‘अकाय’ का ग्रहण नहीं किया है, यही ऊपर वाले से इसमें विशेषता है। इसका भी कारण यह है कि ऊपर काय मार्गणा के भेद हैं और यहाँ षट्काय जीवों के।) (मू.आ./204-205) (पं.सं./प्रा./1/75), (ध. 1/1,1,4/86/139), (गो.जी./मू./181/414), (द्र.सं./टी./13/37/6)। - अकाय मार्गणा का लक्षण
पं.सं./प्रा./1/87 जह कंचणमग्गियं मुच्चइ किट्टेण कलियाराय। तह कायबंधमुक्का अकाट्टया झाणजोएण।87।=जिस प्रकार अग्नि में दिया गया सुवर्ण किट्टिका (बहिरंगमल) और कालिमा (अन्तरंग मल) इन दोनों प्रकार के मलों से रहित हो जाता है उसी प्रकार ध्यान के योग से शुद्ध हुए और काय के बन्धन से मुक्त हुए जीव अकायिक जानना चाहिए। (ध.1/1,1,39/ 144/266); (गो.जी./मू./203/449)। - बहुप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं
ध./1/1,1,46/277/6 जीवप्रदेशप्रचयात्मकत्वात्सिद्धा अपि सकाया इति चेन्न, तेषामनादिबन्धनबद्धजीवप्रदेशात्मकत्वात्। अनादिप्रचयोऽपि काय: किन्न स्यादिति चेन्न, मूर्तानां पुद्गलानां कर्मनोकर्मपर्यायपरिणतानां सादिसान्तप्रचयस्य कायत्वाभ्युपगमात्।=प्रश्न—जीव प्रदेशों के प्रचयरूप होने के कारण सिद्ध जीव भी सकाय हैं, फिर उन्हें अकाय क्यों कहा ? उत्तर—नहीं, क्योंकि सिद्ध जीव अनादिकालीन स्वाभाविक बन्धन से बद्ध जीव प्रदेशस्वरूप हैं, इसलिए उसकी अपेक्षा यहाँ कायपना नहीं लिया है। प्रश्न–अनादि कालीन आत्मप्रदेशों के प्रचय को काय क्यों नहीं कहा ? उत्तर—नहीं, क्योंकि, यहाँ पर कर्म और नोकर्म रूप पर्याय से परिणत मूर्त पुद्गलों के सादि और सान्त प्रदेश प्रचय को ही कायरूप से स्वीकार किया गया है। (किसी अपेक्षा उनको कायपना है भी। यथा–)
द्र.सं./टी./24/70/1 कायत्वं कथ्यते—बहुप्रदेशप्रचयं दृष्ट्वा यथा शरीरं कायो भण्यते तथानन्तज्ञानादिगुणाधारभूतानां लोकाकाशप्रमितासंख्येयशुद्धप्रदेशानां प्रचयं समूहं संघातं मेलापकं दृष्ट्वा मुक्तात्मनि कायत्वं भण्यते।=अब इन (मुक्तात्माओं) में कायपना कहते हैं—बहुत से प्रदेशों में व्याप्त होकर रहने को देखकर जैसे शरीर को काय कहते हैं, अर्थात् जैसे शरीर में अधिक प्रदेश होने के कारण शरीर को काय कहते हैं उसी प्रकार अनन्तज्ञानादि गुणों के आधारभूत जो लोकाकाश के बराबर असंख्यात शुद्ध प्रदेश हैं उनके समूह, संघात अथवा मेल को देखकर मुक्त जीव में भी कायत्व कहा जाता है।
- काय मार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व
ष.खं./1/1,1/43-46 पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया बाउकाइया वणप्फइकाइया एक्कम्मि चेय मिच्छइट्ठिट्ठाणे।43। तसकाइया बीइंदिय-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।44। बादरकाइया बादरेइंदियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।45। तेण परमकाइया चेदि।46।=पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थान में ही होते हैं।43। द्वीन्द्रिय से लेकर अयोगकेवली तक त्रस जीव होते हैं।44। बादर एकेन्द्रिय जीवों से लेकर अयोगकेवली पर्यन्त जीव बादरकायिक होते हैं।45। स्थावर और बादरकाय से परे कायरहित अकायिक जीव होते हैं।46। (विशेष–देखें जन्म - 4)।
गो.क./जी.प्र./309/438/8 गुणस्थानद्वयं। कुत:। ‘‘णहि सासणो अपुण्णे साहारणसुहमगेयतेउदुगे।’’ इति पारिशेष्यात् पृथ्व्यप्प्रत्येकवनस्पतिषु सासादनस्योत्पत्ते:।’’
गो.जी./जी.प्र./703/14 ते मिथ्यादृष्टौ पर्याप्तापर्याप्ताश्च। सासादने बादरपृथ्व्यब्वनस्पतिस्थावरकाया: द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञित्रसकायाश्चापर्याप्ता: संज्ञित्रसकाय: उभयश्चेति षड्जीवनिकाय:। मिश्रे संज्ञिपञ्चेन्द्रियत्रसकायपर्याप्त एव। असंयते उभय:, संदेशयते पर्याप्त एव। प्रमत्ते पर्याप्त:। साहारकर्धिस्तूभय:। अप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तेषु पर्याप्त एव। सयोगे पर्याप्त:। समुद्घाते तूभय:। अयोगे पर्याप्त एव।=‘‘णहि सासणो....’’ इस वचनतै पृथिवी अप प्रत्येक वनस्पति विषैं ही सासादन मर उपजै है (अत: तहाँ अपर्याप्तावस्था विषै दो गुणस्थान संभवै मिथ्यादृष्टि व सासादन) तहाँ मिथ्यादृष्टि विषै तौ छहो (कायवाले) पर्याप्त वा अपर्याप्त हैं। सासादनविषै बादर पृथिवी, अप व वनस्पति ए—स्थावर अर त्रस विषै बेंद्री तेंद्री चौंद्री असैनी पंचेंद्री ए तौ अपर्याप्त ही हैं और सैनी त्रसकाय पर्याप्त अपर्याप्त दोऊ हैं। आगैं संज्ञी पंचेंद्री त्रसकाय ही है। तहाँ मिश्र विषै पर्याप्त ही है। अविरत विषै दोऊ है। देश संयत विषै पर्याप्त ही है। प्रमत्त विषै पर्याप्त है। आहारक (समुद्घात) सहित दोऊ हैं। अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यन्त पर्याप्त ही है। सयोगी विषै पर्याप्त हैं। समुद्घात सहित दोऊ हैं। अयोगी विषै पर्याप्त ही है। (गो.जी./मू.व जी.प्र./678) (विशेष देखें जन्म - 4)
- तैजस आदि कायिकों का लोक में अवस्थान व तद्गत शंका समाधान
ध.7/2,7,71/401/3 कम्मभूमिपडिभागसयंभूरमणदीवद्धे चेव किर तेउकाइया होंति, ण अण्णत्थेत्ति के वि आइरिया भणंति। ....अण्णे के वि आइरिया सव्वेसु दीवसमुद्देसु तेउकाइयबादरपज्जत्ता संभवंति त्ति भणंति। कुदो। सयंभूरमणदीवसमुद्दप्पण्णाणं बादरते उपज्जत्ताणं वाएण हिरिज्जमाणाणं कीडणसीलदेवरतंताणं वा सव्वदीवसमुद्देसुसविउव्वणाणं गमणसंभवादो। केइमाइरिया तिरियलोगादो संखेज्जगुणो फासिदो त्ति भणंति। कुदो। सव्वपुढवीसु बादरतेउपज्जत्ताणं संभवादो। तिसु वि उवदेसेसु को एत्थ गेज्झो। तइज्जो घेत्तव्वो जुत्तीए अणुग्गहित्तादो। ण च सुत्तं त्तिण्हमेक्कस्स वि मुक्ककंठं होऊण परूवयमत्थि। पहिल्लओ उवएसो वक्खाणे इरियेहि य संमदो त्ति एत्थ सो चेव णिद्दिट्ठो।=- कर्मभूमि के प्रतिभागरूप अर्ध स्वयम्भूरमण द्वीप में ही तैजस कायिक जीव होते हैं, अन्यत्र नहीं–ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं।
- अन्य कितने ही आचार्य ‘सर्व द्वीपसमुद्रों में तेजसकायिक बादर पर्याप्त जीव संभव हैं’ ऐसा कहते हैं, क्योंकि स्वयम्भूरमणद्वीप व समुद्र में उत्पन्न बादर तेजसकायिक पर्याप्त जीवों का वायु से ले जाये जाने के कारण अथवा क्रीड़नशील देवों के परतन्त्र होने से सर्व द्वीप समुद्रों में विक्रिया युक्त होकर गमन सम्भव है।
- कितने आचार्यों का कहना है कि उक्त जीवों के द्वारा वैक्रियकसमुद्घात की अपेक्षा तिर्यग्लोक से संख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि (उस प्रकार) सब द्वीप समुद्रों में बादर तेजसकायिक पर्याप्त जीवों की सम्भावना है। उपर्युक्त तीनों उपदेशों में से तीसरा उपदेश यहाँ ग्रहण करने योग्य है क्योंकि वह युक्ति से अनुगृहीत है। दूसरी बात यह है कि सूत्र इन तीन उपदेशों में से एक का भी मुक्तकण्ठ होकर प्ररूपक नहीं है। पहिला उपदेश व्याख्यानों और व्याख्यानाचार्यों से संमत है। इसलिए यहाँ उसी का निर्देश किया गया है।
ध./7/2,6,35/332/9 तेउ-आउ-रुक्खाणं कधं तत्थ संभवो। ण इंदिएहि अगेज्झाणं सुट्ठ्ठसण्हाणं पुढविजोगियाणमत्थित्तस्स विरोहाभावादो।
ध./7/2,7,78/405/5 ‘‘तहं जलंता णिरयपुढवीसु अग्गिणो बहंतीओ णईओ च णत्थि त्ति जदि अभावो वुच्चदे, तंपि णं घडदे-‘षष्ठ सप्तमयो: शीतं शीतोष्णं पञ्चमे स्मृतम्। चतुर्ष्वत्युष्णमुद्दिष्टंस्तासामेव महीगुणा:।1। इदि तत्थ वि आउ तेऊणं संभवादो। कधं पुढवीणं हेट्ठा पत्तेयसरीराणं संभवो। ण, सीएण वि सम्मुच्छिज्जमाणपगण-कुहुणादीणमुवलंभादो। कधमुण्हम्हि संभवो। ण, अच्चुण्हे वि समुप्पज्जमाणजवासपाईणमुवलंभादो।’’ =(पर्याप्त व अपर्याप्त बादर) प्रश्न—तैजसकायिक, जलकायिक, और वनस्पतिकायिक जीवों की वहाँ (भवनवासियों के विभावों व अधोलोक की आठपृथिवियों में सम्भावना कैसे है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, इन्द्रियों से अग्राह्य व अतिशय सूक्ष्म पृथिवी सम्बद्ध उन जीवों के अस्तित्व का कोई विरोध नहीं है। प्रश्न—नरक पृथिवियों में जलती हुई अग्नियाँ और बहती हुई नदियाँ नहीं हैं ? उत्तर—इस कारण यदि उनका अभाव कहते हो, तो वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि-छठी और सातवीं पृथिवी में शीत, तथा पाँचवीं में शीत व उष्ण दोनों माने गये हैं। शेष चार पृथिवियों में अत्यन्त उष्णता है। ये उनके ही पृथिवी गुण हैं।।1।। इस प्रकार उन नरक पृथिवियों में अप्कायिक व तेजसकायिक जीवों की सम्भावना है। प्रश्न—पृथिवियों के नीचे प्रत्येक शरीर जीवों की सम्भावना कैसे है ? उत्तर—नहीं; क्योंकि शीत से भी उत्पन्न होने वाले पगण और कुहुण आदि वनस्पति विशेष पाये जाते हैं। प्रश्न—उष्णता में प्रत्येक शरीर जीवों का उत्पन्न होना कैसे सम्भव है ? उत्तर—नहीं, क्योंकि, अत्यन्त उष्णता में भी उत्पन्न होने वाले जवासप आदि वनस्पति विशेष पाये जाते हैं। विशेष देखो जन्म/4–(सासादन सम्बन्धी दृष्टि भेद)
- षट्काय जीव व मार्गणा के भेद-प्रभेद
- काय योग निर्देश व शंका समाधान
- काय योग का लक्षण
स.सि./6/1/619/7 वीर्यान्तरायक्षयोपशमसद्भावे सति औदारिकादिसप्तविधकायवर्गणान्यतमालम्बनापेक्ष आत्मप्रदेशपरिस्पन्द: काययोग:।=वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम के होने पर औदारिकादि सप्त प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक प्रकार की वर्गणाओं के आलम्बन से होने वाला आत्मप्रदेश परिस्पन्द काययोग कहलाता है। (रा.वा./6/1/10/505/17)
ध.1/1,1,65/308/6 सप्तानां कायानां सामान्यं काय:, तेन जनितेन वीर्येण जीवप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणेन योग: काययोग:।=सात प्रकार के कायों में जो अन्वयरूप से रहता है उसे सामान्य काय कहते हैं। उस काय से उत्पन्न हुए आत्मप्रदेशपरिस्पन्द लक्षण वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसे काययोग कहते हैं।
ध.7/2,1,33/76/9 चउव्विहसरीराणि अवलंविय जीवपदेसाणं संकोचविकोचो सो कायजोगो णाम।=जो चतुर्विध शरीरों के अवलम्बन से जीवप्रदेशों का संकोच विकोच होता है, वह काययोग है।
ध.10/4,2,4,175/437/11 वातपित्तसेंभादीहि जणिदपरिस्समेण जाव जीवपरिप्फंदो कायजोगो णाम। =वात, पित्त व कफ आदि के द्वारा उत्पन्न परिश्रम से जो जीव प्रदेशों का परिस्पन्द होता है वह काययोग कहा जाता है। - काययोग के भेद
ष.खं.1/1,1/सू.56/289 कायजोगो सत्तविहो ओरलियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो वेउव्वियकायजोगो वेउव्वियमिस्सकायजोगो आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो कम्मइयकायजोगो चेदि।56। =काय योग सात प्रकार का है-औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग। (रा.वा./1/7/14/39/22) (ध.8/3,6/21/7) (द्र.सं./टी./13/37/8) - शुभ-अशुभ काययोग के लक्षण बा.अ./53,55 बंधणछेदणमारणकिरिया सा असुहकायेत्ति।53। जिणदेवादिसु पूजा सुहकायंत्ति य हवे चेट्ठा।55।=बान्धने, छेदने और मारने की क्रियाओं को अशुभकाय कहते हैं।53। जिनदेव, जिनगुरू, तथा जिनशास्त्रों की पूजारूप काय की चेष्टा को शुभकाय कहते हैं। रा.वा/6/3/1-2/506-507 प्राणातिपातादत्तादानमैथुनप्रयोगादिरशुभ: काययोग:।2। ततोऽनन्तविकल्पादन्य: शुभ:।3। ....तद्यथा अहिंसास्तेयब्रह्मचर्यादि: शुभ: काययोग:।=हिंसा, चोरी और मैथुनप्रयोगादि अनन्त विकल्परूप अशुभकाय योग है।2। तथा उससे अन्य जो अहिंसा, अस्तेय ब्रह्मचर्यादि अनन्त विकल्प वे शुभ काययोग हैं। (स.सि./6/3/319/10) 4. जीव या शरीर के चलने को काययोग क्यों नहीं कहते ? ध.5/1,7,48/226/2 ण सरीरणामकम्मोदयजणिदो वि, पोग्गलविवाइयाणं जीवपरिफद्दणहेउत्तविरोहा।=योग शरीरनामकर्मोदय-जनित भी नहीं है, क्योंकि, पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के जीवपरिस्पन्दन का कारण होने में विरोध है। ध.7/2,1,33/77/3 ण जीवे चलंते जीवपदेसाणं संकोचविकोचणियमो, सिज्झंतपढमसमए एत्तो लोअग्गं गच्छंतम्मि जीवपदेसाणं संकोचविकोचाणुवलंभा।=चलते समय जीवप्रदेशों के संकोच-विकोच का नियम नहीं है, क्योंकि, सिद्ध होने के प्रथम समय में जब जीव यहाँ से अर्थात् मध्यलोक से, लोक के अग्रभाग को जाता है, तब उसके प्रदेशों में संकोच-विकोच नहीं पाया जाता।
- पर्याप्तावस्था में कार्माण काय के सद्भाव में भी मिश्रयोग क्यों नहीं कहते ?
ध.1/1,1,76/316/4 पर्याप्तावस्थायां कार्मणशरीरस्य सत्त्वात्तत्राप्युभयनिबन्धनात्मप्रदेशपरिस्पन्द इति औदारिकमिश्रकाययोग: किमु न स्यादिति चेन्न, तत्र तस्य सतोऽपि जीवप्रदेशपरिस्पन्दस्याहेतुत्वात्। न पारम्पर्यकृतं तद्धेतुत्वं तस्यौपचारिकत्वात्। न तदप्यविवक्षितत्वात्। =प्रश्न—पर्याप्त अवस्था में कार्मणशरीर का सद्भाव होने के कारण वहाँ पर भी कार्मण और औदारिकशरीर के स्कन्धों के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्द होता है, इसलिए वहाँ पर भी औदारिकमिश्रकाययोग क्यों नहीं कहा जाता ? उत्तर—नहीं, क्योंकि, पर्याप्त अवस्था में यद्यपि कार्मण शरीर विद्यमान है फिर भी वह जीव प्रदेशों के परिस्पन्दन का कारण नहीं है। यदि पर्याप्त अवस्था में कार्मणशरीर परम्परा से जीव प्रदेशों के परिस्पन्द का कारण कहा जावे, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, कार्मणशरीर को परम्परा से निमित्त मानना उपचार है। यदि कहें कि उपचार का भी यहाँ पर ग्रहण कर लिया जावे, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उपचार से परम्परारूप निमित्त के ग्रहण करने की यहाँ विवक्षा नहीं है।
- काय योग का लक्षण
पुराणकोष से
पंचभूतात्मक प्रतिक्षण परिवर्तनशील शरीर । महापुराण 66.86