मोक्ष: Difference between revisions
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p id="1"> (1) अग्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु के कर्म प्रकृति चौथे प्राभृत के चौबीस योगहारों में | <p id="1"> (1) अग्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु के कर्म प्रकृति चौथे प्राभृत के चौबीस योगहारों में ग्यारहवाँ योगद्वार । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 10. 81-86 </span></p> | ||
<p id="2">(2) चार पुरुषार्थों में चौथा पुरुषार्थ । यह धर्म साध्य है और पुरुषार्थ इसका साधन है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 9.137 </span></p> | <p id="2">(2) चार पुरुषार्थों में चौथा पुरुषार्थ । यह धर्म साध्य है और पुरुषार्थ इसका साधन है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 9.137 </span></p> | ||
<p id="3">(3) कर्मों का क्षय हो जाना । यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप मार्ग से प्राप्त होता है । ध्यान और अध्ययन इसके साधन है । यह शुक्लध्यान के बिना नहीं होता है । इसे प्राप्त करने पर जीव ‘‘सिद्ध’’ संज्ञा से सम्बोधित किये जाते है । मोक्ष प्राप्त जीवों को अतुल्य अन्तराय से रहित अत्यन्त सुख प्राप्त होता है । इससे अनन्तज्ञान आदि आठ गुणों की प्राप्ति होती है । स्त्रियों के दोष स्वरूप और चंचल होने से उन्हें इसकी प्राप्ति नहीं होती । जीव स्वरूप की अपेक्षा रूप रहित है परन्तु शरीर के सम्बन्ध से रूपी हो रहा है अत: जीव का रूप रहित होना ही मोक्ष कहलाता है । इसके दो भेद हैं― भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष । कर्मक्षय से कारण भूत अत्यन्त शुद्ध परिणाम भावमोक्ष और अन्तिम शुक्लध्यान के योग द्वारा सर्व कर्मों से आत्मा का विश्लेष होना द्रव्यमोक्ष है । <span class="GRef"> महापुराण 24.116, 43.111, 46.195, 67.9-10, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 6.297, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.109, 56.83-84, 58. 18, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.172-173 </span></p> | <p id="3">(3) कर्मों का क्षय हो जाना । यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप मार्ग से प्राप्त होता है । ध्यान और अध्ययन इसके साधन है । यह शुक्लध्यान के बिना नहीं होता है । इसे प्राप्त करने पर जीव ‘‘सिद्ध’’ संज्ञा से सम्बोधित किये जाते है । मोक्ष प्राप्त जीवों को अतुल्य अन्तराय से रहित अत्यन्त सुख प्राप्त होता है । इससे अनन्तज्ञान आदि आठ गुणों की प्राप्ति होती है । स्त्रियों के दोष स्वरूप और चंचल होने से उन्हें इसकी प्राप्ति नहीं होती । जीव स्वरूप की अपेक्षा रूप रहित है परन्तु शरीर के सम्बन्ध से रूपी हो रहा है अत: जीव का रूप रहित होना ही मोक्ष कहलाता है । इसके दो भेद हैं― भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष । कर्मक्षय से कारण भूत अत्यन्त शुद्ध परिणाम भावमोक्ष और अन्तिम शुक्लध्यान के योग द्वारा सर्व कर्मों से आत्मा का विश्लेष होना द्रव्यमोक्ष है । <span class="GRef"> महापुराण 24.116, 43.111, 46.195, 67.9-10, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 6.297, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.109, 56.83-84, 58. 18, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.172-173 </span></p> |
Revision as of 14:27, 20 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
शुद्ध रत्नत्रय की साधना से अष्ट कर्मों की आत्यन्तिकी निवृत्ति द्रव्यमोक्ष है और रागादि भावों की निवृत्ति भावमोक्ष है । मनुष्य गति से ही जीव को मोक्ष होना सम्भव है । आयु के अन्त में उसका शरीर काफूरवत् उड़ जाता है और वह स्वाभाविक ऊर्ध्व गति के कारण लोकशिखर पर जा विराजते हैं, जहाँ वह अनन्तकाल तक अनन्त अतीन्द्रिय सुख का उपभोग करते हुए अपने चरम शरीर के आकार रूप से स्थित रहते हैं और पुनः शरीर धारण करके जन्म-मरण के चक्कर में कभी नहीं पड़ते । ज्ञान ही उनका शरीर होता है । जैन दर्शनकार उसके प्रदेशों की सर्व व्यापकता स्वीकार नहीं करते हैं, न ही उसे निर्गुण व शून्य मानते हैं । उसके स्वभावभूत अनन्त ज्ञान आदि आठ प्रसिद्ध गुण हैं । जितने जीव मुक्त हाते हैं उतने ही निगोद राशि से निकलकर व्यवहार राशि में आ जाते हैं, इससे लोक जीवों से रिक्त नहीं होता ।
- भेद व लक्षण
- अजीव, जीव व उभय बन्ध के लक्षण ।−देखें बन्ध - 1.5 ।
- अजीव, जीव व उभय बन्ध के लक्षण ।−देखें बन्ध - 1.5 ।
- मोक्ष व मुक्त जीव निर्देश
- सिद्ध भगवान् के अनेकों नाम ।−देखें परमात्मा ।
- अर्हन्त व सिद्ध में कथंचित् भेदाभेद ।
- वास्तव में भावमोक्ष ही मोक्ष है ।
- मुक्तजीव निश्चय से स्व में रहते हैं, सिद्धालय में रहना व्यवहार है ।
- अपुनरागमन सम्बन्धी शंका-समाधान ।
- जितने जीव मोक्ष जाते हैं उतने ही निगोद से निकलते हैं ।
- जीव मुक्त हो गया है, इसके चिह्न ।
- सिद्धों में कथंचित् विग्रहगति ।−देखें विग्रह गति ।
- सिद्ध भगवान् के अनेकों नाम ।−देखें परमात्मा ।
- सिद्धों की प्रतिमा सम्बन्धी विचार ।−देखें चैत्य चैत्यालय - 1 ।
- सिद्धों के गुण व भाव आदि
- आठ गुणों के लक्षण आदि ।−देखें वह वह नाम ।
- सिद्धों में गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ ।−देखें सत् ।
- सर्वज्ञत्व की सिद्धि ।−देखें केवलज्ञान - 5 ।
- उपरोक्त गुणों के अवरोधक कर्मों का निर्देश ।
- सूक्ष्मत्व व अगुरुलघुत्व गुणों के अवरोधक कर्मों की स्वीकृति में हेतु ।
- सिद्धों में कुछ गुणों व भावों का अभाव ।
- इन्द्रिय व संयम के अभाव सम्बन्धी शंका ।
- मोक्ष प्राप्ति योग्य द्रव्य क्षेत्र आदि
- सिद्धों में अपेक्षाकृत कथंचित् भेद- निर्देश
- मुक्तियोग्य क्षेत्र- निर्देश ।
- मुक्तियोग्य काल- निर्देश ।
- अनेक भवों की साधना से मोक्ष होता है एक भव में नहीं ।−देखें संयम - 2.10 ।
- [[मोक्ष प्राप्ति योग्य द्रव्य क्षेत्र आदि#4.4 | मुक्तियोग्य गति निर्देश ।
- निगोद से निकलकर सीधी मुक्तिप्राप्ति सम्बन्धी ।–देखें जन्म - 5 ।
- मुक्तियोग्य तीर्थ निर्देश ।
- मुक्तियोग्य चारित्र निर्देश ।
- मुक्तियोग्य प्रत्येक व बोधित बुद्ध निर्देश ।
- मुक्तियोग्य ज्ञान निर्देश ।
- मोक्षमार्ग में अवधि व मनःपर्यय ज्ञान का कोई स्थान नहीं ।−देखें अवधिज्ञान - 2.6 ।
- मोक्षमार्ग में मति व श्रुतज्ञान प्रधान हैं।–देखें श्रुतज्ञान - 1.2।
- मुक्तियोग्य संहनन निर्देश ।−देखें संहनन ।
- सिद्धों में अपेक्षाकृत कथंचित् भेद- निर्देश
- गति, क्षेत्र, लिंग आदि की अपेक्षा सिद्धों में अल्पबहुत्व ।−देखें अल्पबहुत्व - 3 .1 ।
- मुक्तजीवों का मृत शरीर आकार ऊर्ध्वगमन व अवस्थान
- उनके मृत शरीर सम्बन्धी दो धाराएँ ।
- संसार के चरम समय में मुक्त होकर ऊपर को जाते हैं ।
- ऊर्ध्व ही गमन क्यों इधर- उधर क्यों नहीं ।
- मुक्त जीव सर्वलोक में नहीं व्याप जाता ।
- सिद्धलोक से ऊपर क्यों नहीं जाते ।−देखें धर्माधर्म - 2 ।
- उनके मृत शरीर सम्बन्धी दो धाराएँ ।
- मुक्तजीव पुरुषाकार छायावत् होते हैं ।
- मुक्तजीवों का आकार चरमदेह से किंचिदून है ।
- सिद्धलोक में मुक्तात्माओं का अवस्थान ।
- मोक्ष के अस्तित्व सम्बन्धी शंकाएँ
- सिद्धों में जीवत्व सम्बन्धी ।−देखें जीव - 2, 4 ।
- मोक्षसुख सद्भावात्मक है ।−देखें सुख - 2 ।
- शुद्ध निश्चय नय से न बन्ध है न मोक्ष ।−देखें नय - V.1.5 ।
- सिद्धों में उत्पाद व्यय ध्रौव्य ।−देखें उत्पाद - 3 ।
- मोक्ष में पुरुषार्थ का सद्भाव ।−देखें पुरुषार्थ - 1 ।
- सिद्धों में जीवत्व सम्बन्धी ।−देखें जीव - 2, 4 ।
पुराणकोष से
(1) अग्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु के कर्म प्रकृति चौथे प्राभृत के चौबीस योगहारों में ग्यारहवाँ योगद्वार । हरिवंशपुराण 10. 81-86
(2) चार पुरुषार्थों में चौथा पुरुषार्थ । यह धर्म साध्य है और पुरुषार्थ इसका साधन है । हरिवंशपुराण 9.137
(3) कर्मों का क्षय हो जाना । यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप मार्ग से प्राप्त होता है । ध्यान और अध्ययन इसके साधन है । यह शुक्लध्यान के बिना नहीं होता है । इसे प्राप्त करने पर जीव ‘‘सिद्ध’’ संज्ञा से सम्बोधित किये जाते है । मोक्ष प्राप्त जीवों को अतुल्य अन्तराय से रहित अत्यन्त सुख प्राप्त होता है । इससे अनन्तज्ञान आदि आठ गुणों की प्राप्ति होती है । स्त्रियों के दोष स्वरूप और चंचल होने से उन्हें इसकी प्राप्ति नहीं होती । जीव स्वरूप की अपेक्षा रूप रहित है परन्तु शरीर के सम्बन्ध से रूपी हो रहा है अत: जीव का रूप रहित होना ही मोक्ष कहलाता है । इसके दो भेद हैं― भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष । कर्मक्षय से कारण भूत अत्यन्त शुद्ध परिणाम भावमोक्ष और अन्तिम शुक्लध्यान के योग द्वारा सर्व कर्मों से आत्मा का विश्लेष होना द्रव्यमोक्ष है । महापुराण 24.116, 43.111, 46.195, 67.9-10, पद्मपुराण 6.297, हरिवंशपुराण 2.109, 56.83-84, 58. 18, वीरवर्द्धमान चरित्र 16.172-173