काय: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 18: | Line 18: | ||
<li>षट्काय जीव व मार्गणा के भेद-प्रभेद। <br /> | <li>षट्काय जीव व मार्गणा के भेद-प्रभेद। <br /> | ||
* पृथिवी आदि के कायिकादि चार-चार भेद–देखें [[ पृथिवी ]]।<br /> | * पृथिवी आदि के कायिकादि चार-चार भेद–देखें [[ पृथिवी ]]।<br /> | ||
* जीव के | * जीव के एकेंद्रियादि भेद व त्रस स्थावर काय में अंतर।–देखें [[ स्थावर ]]<br /> | ||
* सूक्ष्म बादर काय व त्रस स्थावर काय।–देखें [[ वह वह नाम ]]<br /> | * सूक्ष्म बादर काय व त्रस स्थावर काय।–देखें [[ वह वह नाम ]]<br /> | ||
* प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक व साधारण।–देखें [[ वनस्पति ]]<br /> | * प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक व साधारण।–देखें [[ वनस्पति ]]<br /> | ||
Line 25: | Line 25: | ||
<li> बहुप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं? </li> | <li> बहुप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं? </li> | ||
<li> कायमार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व। <br /> | <li> कायमार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व। <br /> | ||
* काय मार्गणा विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, | * काय मार्गणा विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ–देखें [[ वह वह नाम ]]<br /> | ||
* काय मार्गणा विषयक गुणस्थान मार्गणास्थान। जीवसमास के स्वामित्व की 20 प्ररूपणाएँ।–देखें [[ सत् ]] <br /> | * काय मार्गणा विषयक गुणस्थान मार्गणास्थान। जीवसमास के स्वामित्व की 20 प्ररूपणाएँ।–देखें [[ सत् ]] <br /> | ||
* काय मार्गणा में | * काय मार्गणा में संभव कर्मों का बंध, उदय, सत्त्व–देखें [[ वह वह नाम ]]<br /> | ||
* कौन काय से मरकर कहाँ उपजै और कौन गुण व पद तक उत्पन्न कर सके?–देखें [[ जन्म#6 | जन्म - 6 ]]<br /> | * कौन काय से मरकर कहाँ उपजै और कौन गुण व पद तक उत्पन्न कर सके?–देखें [[ जन्म#6 | जन्म - 6 ]]<br /> | ||
* काय मार्गणा में भाव मार्गणा की इष्टता तथा तहाँ आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें [[ मार्गणा ]]</li> | * काय मार्गणा में भाव मार्गणा की इष्टता तथा तहाँ आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें [[ मार्गणा ]]</li> | ||
<li>तेजस आदि कायिकों का लोक में अवस्थान व तद्गत शंका समाधान।<br /> | <li>तेजस आदि कायिकों का लोक में अवस्थान व तद्गत शंका समाधान।<br /> | ||
* त्रस, स्थावर आदि जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें [[ तिर्यंच#3 | तिर्यंच - 3 ]]<br /> | * त्रस, स्थावर आदि जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें [[ तिर्यंच#3 | तिर्यंच - 3 ]]<br /> | ||
* काय स्थिति व भव स्थिति में | * काय स्थिति व भव स्थिति में अंतर।–देखें [[ स्थिति#2 | स्थिति - 2 ]]<br /> | ||
* पंचास्तिकाय।–देखें [[ अस्तिकाय ]]</li> | * पंचास्तिकाय।–देखें [[ अस्तिकाय ]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 44: | Line 44: | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> शुभ अशुभ काययोग के लक्षण।<br /> | <li class="HindiText"> शुभ अशुभ काययोग के लक्षण।<br /> | ||
* शुभ अशुभ काययोग में | * शुभ अशुभ काययोग में अनंत विकल्प कैसे संभव है?–देखें [[ योग#2 | योग - 2 ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> जीव या शरीर के चलने को काययोग क्यों नहीं कहते?<br /> | <li class="HindiText"> जीव या शरीर के चलने को काययोग क्यों नहीं कहते?<br /> | ||
Line 50: | Line 50: | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> पर्याप्तावस्था में कार्मणकाययोग के सद्भाव में भी मिश्रयोग क्यों नहीं कहते?<br /> | <li class="HindiText"> पर्याप्तावस्था में कार्मणकाययोग के सद्भाव में भी मिश्रयोग क्यों नहीं कहते?<br /> | ||
* अप्रमत्तादि गुणस्थानों में काययोग कैसे | * अप्रमत्तादि गुणस्थानों में काययोग कैसे संभव है?–देखें [[ योग#4 | योग - 4 ]]<br /> | ||
* मिश्र व कार्मण योग में चक्षुर्दर्शन नहीं होता।–देखें [[ दर्शन#7 | दर्शन - 7 ]]<br /> | * मिश्र व कार्मण योग में चक्षुर्दर्शन नहीं होता।–देखें [[ दर्शन#7 | दर्शन - 7 ]]<br /> | ||
* काययोग विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, | * काययोग विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।–देखें [[ वह वह नाम ]]<br /> | ||
* काययोग में | * काययोग में संभव कर्मों का बंध, उदय व सत्त्व।–देखें [[ वह वह नाम ]]<br /> | ||
* मरण व व्याघात हो जाने पर एक काययोग ही शेष रहता है।–देखें [[ मनोयोग#6 | मनोयोग - 6]]</li> | * मरण व व्याघात हो जाने पर एक काययोग ही शेष रहता है।–देखें [[ मनोयोग#6 | मनोयोग - 6]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 66: | Line 66: | ||
नियमसार/34 <span class="PrakritText"> काया हु बहुपदेसत्तं।</span>=<span class="HindiText">बहुप्रदेशीपना ही कायत्व है। (प्र.सा/त. प्र.व ता.वृ./135)।</span><br /> | नियमसार/34 <span class="PrakritText"> काया हु बहुपदेसत्तं।</span>=<span class="HindiText">बहुप्रदेशीपना ही कायत्व है। (प्र.सा/त. प्र.व ता.वृ./135)।</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/5/1/265/5 <span class="SanskritText"> ‘काय’ शब्द: शरीरे व्युत्पादित: इहोपचारादव्यारोप्यते। कुत: उपचार:। यथा शरीरं पुद्गलद्रव्यप्रचयात्मकं तथा धर्मादिष्वपि प्रदेशप्रचयापेक्षया काया इव काया इति। </span>=<span class="HindiText">व्युत्पत्ति से काय शब्द का अर्थ शरीर है तो भी यहाँ उपचार से उसका आरोप किया है। प्रश्न—उपचार का क्या कारण है? उत्तर—जिस प्रकार शरीर पुद्गल द्रव्य के प्रचय रूप होता है, उसी प्रकार धर्मादिक द्रव्य भी प्रदेश प्रचय की अपेक्षा काय के समान होने से काय कहे गये हैं। ( राजवार्तिक/5/1/7-8/432/29 ) ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/34 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/24/70/1 )।</span><br /> | सर्वार्थसिद्धि/5/1/265/5 <span class="SanskritText"> ‘काय’ शब्द: शरीरे व्युत्पादित: इहोपचारादव्यारोप्यते। कुत: उपचार:। यथा शरीरं पुद्गलद्रव्यप्रचयात्मकं तथा धर्मादिष्वपि प्रदेशप्रचयापेक्षया काया इव काया इति। </span>=<span class="HindiText">व्युत्पत्ति से काय शब्द का अर्थ शरीर है तो भी यहाँ उपचार से उसका आरोप किया है। प्रश्न—उपचार का क्या कारण है? उत्तर—जिस प्रकार शरीर पुद्गल द्रव्य के प्रचय रूप होता है, उसी प्रकार धर्मादिक द्रव्य भी प्रदेश प्रचय की अपेक्षा काय के समान होने से काय कहे गये हैं। ( राजवार्तिक/5/1/7-8/432/29 ) ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/34 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/24/70/1 )।</span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/29/329/20 <span class="SanskritText"> ‘तेषां संघे वानूर्ध्वे’ इति चिनोतेर्घञि आदेशश्च कत्वे काय: समूह जीवकाय: पृथिव्यादि:। </span>=<span class="HindiText">यहाँ ‘संघे वानूर्ध्वे’ सूत्र से ‘चि’ धातु से ‘घञ्’ प्रत्यय होने पर ‘च’ के स्थान में ‘क’ हो जाने से ‘काय’ शब्द बनता है। अत: जीवों के समूह को जीवकाय कहते हैं।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> शरीर के अर्थ में काय का लक्षण—</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> शरीर के अर्थ में काय का लक्षण—</strong> </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./1/75 <span class="PrakritText">अप्पप्पवुत्तिसंचियपुग्गलपिंडं वियाण काओ त्ति। सो जिणमयम्हि भणिओ पुढवा कायाइयो छद्धा।75।</span>=<span class="HindiText">योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचय को प्राप्त हुए औदारिकादिरूप पुद्गल पिंड को काय जानना चाहिए। ( धवला 1/1,1,4/ 86/139 ) (पं.सं./सं./1/153)।</span><br /> | पं.सं./प्रा./1/75 <span class="PrakritText">अप्पप्पवुत्तिसंचियपुग्गलपिंडं वियाण काओ त्ति। सो जिणमयम्हि भणिओ पुढवा कायाइयो छद्धा।75।</span>=<span class="HindiText">योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचय को प्राप्त हुए औदारिकादिरूप पुद्गल पिंड को काय जानना चाहिए। ( धवला 1/1,1,4/ 86/139 ) (पं.सं./सं./1/153)।</span><br /> | ||
धवला 7/2,1,2/6/8 <span class="PrakritText"> | धवला 7/2,1,2/6/8 <span class="PrakritText">‘‘आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिंड: काय: पृथिवीकायादिनामकर्मजनितपरिणामो वा कार्ये कारणोपचारेण काय:, चीयंते अस्मिन् जीवा इति व्युत्पत्तेर्वा काय:।’’</span>=<span class="HindiText">आत्मा की प्रवृत्ति द्वारा उपचरित किये गये पुद्गलपिंड को काय कहते हैं। अथवा पृथिवीकाय आदि नामकर्मों के द्वारा उत्पन्न परिणाम को कार्य में कारण के उपचार से काय कहा है। अथवा, ‘जिसमें जीवों का संचय किया जाय’ ऐसी व्युत्पत्ति से काय (शब्द) बना है। ( राजवार्तिक/9/711/603/30 लक्षण सं.1) ( धवला 1/1,1,4/138/1 तथा 1,1,39/366/2 में लक्षण नं. 1 व 2)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> उपरोक्त लक्षण की ईंट पत्थरों के साथ अतिव्याप्ति नहीं है।</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> उपरोक्त लक्षण की ईंट पत्थरों के साथ अतिव्याप्ति नहीं है।</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,4/138/1 <span class="PrakritText">‘‘चीयत इति काय:। नेष्टाकादिचयेन व्यभिचार: पृथिव्यादिकर्मभिरिति विशेषणात्। औदारिकादिकर्मभि: पुद्गलविपाकिभिश्चीयत इति चेन्न, पृथिव्यादिकर्मणां सहकारिणामभावे ततश्चयनानुपपत्ते:।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—जो संचित किया जाता है उसे काय कहते हैं, ऐसी व्याप्ति बना लेने पर, काय को छोड़कर ईंट आदि के संचयरूप विपक्ष में भी यह व्याप्ति घटित हो जाती है, अत: व्यभिचार दोष आता है ?<strong> उत्तर</strong>—नहीं आता है; क्योंकि, पृथिवी आदि कर्मों के उदय से इतना विशेषण जोड़ कर ही, ‘जो संचित किया जाता है’ उसे काय कहते हैं ऐसी व्याख्या की गयी है।<strong> प्रश्न</strong>—‘पुद्गलविपाकी औदारिक आदि कर्मों के उदय से जो संचित किया जाता है उसे काय कहते हैं, ऐसी व्याख्या क्यों नहीं की गयी ? <strong>उत्तर</strong>—ऐसा नहीं है, क्योंकि, सहकारीरूप पृथिवी आदि नामकर्म के अभाव रहने पर केवल औदारिक आदि नामकर्म के उदय से नोकर्म वर्गणाओं का संचय नहीं हो सकता।</span></li> | धवला 1/1,1,4/138/1 <span class="PrakritText">‘‘चीयत इति काय:। नेष्टाकादिचयेन व्यभिचार: पृथिव्यादिकर्मभिरिति विशेषणात्। औदारिकादिकर्मभि: पुद्गलविपाकिभिश्चीयत इति चेन्न, पृथिव्यादिकर्मणां सहकारिणामभावे ततश्चयनानुपपत्ते:।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—जो संचित किया जाता है उसे काय कहते हैं, ऐसी व्याप्ति बना लेने पर, काय को छोड़कर ईंट आदि के संचयरूप विपक्ष में भी यह व्याप्ति घटित हो जाती है, अत: व्यभिचार दोष आता है ?<strong> उत्तर</strong>—नहीं आता है; क्योंकि, पृथिवी आदि कर्मों के उदय से इतना विशेषण जोड़ कर ही, ‘जो संचित किया जाता है’ उसे काय कहते हैं ऐसी व्याख्या की गयी है।<strong> प्रश्न</strong>—‘पुद्गलविपाकी औदारिक आदि कर्मों के उदय से जो संचित किया जाता है उसे काय कहते हैं, ऐसी व्याख्या क्यों नहीं की गयी ? <strong>उत्तर</strong>—ऐसा नहीं है, क्योंकि, सहकारीरूप पृथिवी आदि नामकर्म के अभाव रहने पर केवल औदारिक आदि नामकर्म के उदय से नोकर्म वर्गणाओं का संचय नहीं हो सकता।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> कार्माण काययोगियों में यह लक्षण कैसे घटित होगा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> कार्माण काययोगियों में यह लक्षण कैसे घटित होगा</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,4/138/3 <span class="PrakritText"> कार्मणशरीरस्थानां जीवानां पृथिव्यादिकर्मभिश्चितनोकर्मपुद्गलभावादकायत्वं स्यादिति चेन्न, तच्चयनहेतुकर्मणस्तत्रापि सत्त्वतस्तद्वयपदेशस्य न्याय्यत्वात्। अथवा | धवला 1/1,1,4/138/3 <span class="PrakritText"> कार्मणशरीरस्थानां जीवानां पृथिव्यादिकर्मभिश्चितनोकर्मपुद्गलभावादकायत्वं स्यादिति चेन्न, तच्चयनहेतुकर्मणस्तत्रापि सत्त्वतस्तद्वयपदेशस्य न्याय्यत्वात्। अथवा आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिंड: काय:। अत्रापि स दोषो न निर्वायत इति चेन्न, आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिंडस्य तत्र सत्त्वात्। आत्मप्रवृत्त्युपचितनोकर्मपुद्गलपिंडस्य तत्रासत्त्वान्न तस्य कायव्यपदेश इति चेन्न, तच्चयनहेतुकर्मणस्तत्रास्तित्वतस्तस्य तद्व्यपदेशसिद्धे:।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न—कार्मणकाययोग में स्थित जीव के पृथिवी आदि के द्वारा संचित हुए नोकर्मपुद्गल का अभाव होने से अकायत्व प्राप्त हो जायेगा ? उत्तर—ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि, नोकर्मरूप पुद्गलों के संचय का कारण पृथिवी आदि कर्मसहकृत औदारिकादि नामकर्म का सत्त्व कार्मणकाययोग अवस्था में भी पाया जाता है, इसलिए उस अवस्था में भी कायपने का व्यवहार बन जाता है। 2. अथवा योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचित हुए औदारिकादिरूप पुद्गलपिंड को काय कहते हैं। प्रश्न—काय का इस प्रकार का लक्षण करने पर भी पहले जो दोष दे आये हैं वह दूर नहीं होता है। उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि, योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचित हुए कर्मरूप पुद्-गलपिंड का कार्मणकाययोग अवस्था में सद्भाव पाया जाता है। अर्थात् जिस समय आत्मा कार्मणकाययोग की अवस्था में होता है, उस समय उसके ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का सद्भाव रहता ही है, इसलिए इस अपेक्षा से उसके कायपना बन जाता है। प्रश्न—कार्मणकाय योगरूप अवस्था में योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचय को प्राप्त हुए (कर्मरूप पुद्गलपिंड भले ही रहो परंतु) नोकर्मरूप पुद्गलपिंड का असत्त्व होने के कारण कार्मण काययोग में स्थित जीव के ‘काय’ यह व्यपदेश नहीं बन सकता ? उत्तर—नोकर्म पुद्गलपिंड के संचय के कारणभूत कर्म का कार्मणकाययोगरूप अवस्था में भी सद्भाव होने से कार्मणकाययोग में स्थित जीव के ‘काय’ यह संज्ञा बन जाती है।</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
Line 79: | Line 79: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">षट्काय जीव व मार्गणा के भेद-प्रभेद</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">षट्काय जीव व मार्गणा के भेद-प्रभेद</strong> <br /> | ||
षट्खंडागम 1/1,1/ सूत्र 39-42/264-272’’ ( तिलोयपण्णत्ति/5/278-280 )<br /> | |||
(प.=पर्याप्त; अप=अपर्याप्त) काय <br /> | (प.=पर्याप्त; अप=अपर्याप्त) काय <br /> | ||
चार्ट </span><br /> | चार्ट </span><br /> | ||
राजवार्तिक/9/7/11/603/31 <span class="SanskritText"> | राजवार्तिक/9/7/11/603/31 <span class="SanskritText"> तत्संबंधिजीव: षड्विध:—पृथिवीकायिक: अप्कायिक: तेजस्कायिक: वायुकायिक: वनस्पतिकायिक: त्रसकायिकश्चेति।</span>=<span class="HindiText">काय संबंधी जीव छह प्रकार के हैं–पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक। (यहाँ ‘अकाय’ का ग्रहण नहीं किया है, यही ऊपर वाले से इसमें विशेषता है। इसका भी कारण यह है कि ऊपर काय मार्गणा के भेद हैं और यहाँ षट्काय जीवों के।) (मू.आ./204-205) (पं.सं./प्रा./1/75), ( धवला 1/1,1,4/86/139 ), ( गोम्मटसार जीवकांड/181/414 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/37/6 )।<br /></span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">अकाय मार्गणा का लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">अकाय मार्गणा का लक्षण</strong></span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./1/87<span class="PrakritGatha"> जह कंचणमग्गियं मुच्चइ किट्टेण कलियाराय। तह कायबंधमुक्का अकाट्टया झाणजोएण।87।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार अग्नि में दिया गया सुवर्ण किट्टिका (बहिरंगमल) और कालिमा ( | पं.सं./प्रा./1/87<span class="PrakritGatha"> जह कंचणमग्गियं मुच्चइ किट्टेण कलियाराय। तह कायबंधमुक्का अकाट्टया झाणजोएण।87।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार अग्नि में दिया गया सुवर्ण किट्टिका (बहिरंगमल) और कालिमा (अंतरंग मल) इन दोनों प्रकार के मलों से रहित हो जाता है उसी प्रकार ध्यान के योग से शुद्ध हुए और काय के बंधन से मुक्त हुए जीव अकायिक जानना चाहिए। ( धवला 1/1,1,39/ 144/266 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/203/449 )।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">बहुप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">बहुप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं</strong></span><br /> | ||
धवला/1/1,1,46/277/6 <span class="PrakritText">जीवप्रदेशप्रचयात्मकत्वात्सिद्धा अपि सकाया इति चेन्न, | धवला/1/1,1,46/277/6 <span class="PrakritText">जीवप्रदेशप्रचयात्मकत्वात्सिद्धा अपि सकाया इति चेन्न, तेषामनादिबंधनबद्धजीवप्रदेशात्मकत्वात्। अनादिप्रचयोऽपि काय: किन्न स्यादिति चेन्न, मूर्तानां पुद्गलानां कर्मनोकर्मपर्यायपरिणतानां सादिसांतप्रचयस्य कायत्वाभ्युपगमात्।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—जीव प्रदेशों के प्रचयरूप होने के कारण सिद्ध जीव भी सकाय हैं, फिर उन्हें अकाय क्यों कहा ? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि सिद्ध जीव अनादिकालीन स्वाभाविक बंधन से बद्ध जीव प्रदेशस्वरूप हैं, इसलिए उसकी अपेक्षा यहाँ कायपना नहीं लिया है।<strong> प्रश्न</strong>–अनादि कालीन आत्मप्रदेशों के प्रचय को काय क्यों नहीं कहा ?<strong> उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, यहाँ पर कर्म और नोकर्म रूप पर्याय से परिणत मूर्त पुद्गलों के सादि और सांत प्रदेश प्रचय को ही कायरूप से स्वीकार किया गया है। (किसी अपेक्षा उनको कायपना है भी। यथा–)<br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/24/70/1 <span class="SanskritText"> कायत्वं कथ्यते—बहुप्रदेशप्रचयं दृष्ट्वा यथा शरीरं कायो भण्यते | द्रव्यसंग्रह टीका/24/70/1 <span class="SanskritText"> कायत्वं कथ्यते—बहुप्रदेशप्रचयं दृष्ट्वा यथा शरीरं कायो भण्यते तथानंतज्ञानादिगुणाधारभूतानां लोकाकाशप्रमितासंख्येयशुद्धप्रदेशानां प्रचयं समूहं संघातं मेलापकं दृष्ट्वा मुक्तात्मनि कायत्वं भण्यते।</span>=अब इन (मुक्तात्माओं) में कायपना कहते हैं—बहुत से प्रदेशों में व्याप्त होकर रहने को देखकर जैसे शरीर को काय कहते हैं, अर्थात् जैसे शरीर में अधिक प्रदेश होने के कारण शरीर को काय कहते हैं उसी प्रकार अनंतज्ञानादि गुणों के आधारभूत जो लोकाकाश के बराबर असंख्यात शुद्ध प्रदेश हैं उनके समूह, संघात अथवा मेल को देखकर मुक्त जीव में भी कायत्व कहा जाता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">काय मार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">काय मार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व</strong> </span><br /> | ||
षट्खंडागम/1/1,1/43-46 <span class="PrakritText">पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया बाउकाइया वणप्फइकाइया एक्कम्मि चेय मिच्छइट्ठिट्ठाणे।43। तसकाइया बीइंदिय-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।44। बादरकाइया बादरेइंदियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।45। तेण परमकाइया चेदि।46।</span>=<span class="HindiText">पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थान में ही होते हैं।43। द्वींद्रिय से लेकर अयोगकेवली तक त्रस जीव होते हैं।44। बादर एकेंद्रिय जीवों से लेकर अयोगकेवली पर्यंत जीव बादरकायिक होते हैं।45। स्थावर और बादरकाय से परे कायरहित अकायिक जीव होते हैं।46। (विशेष–देखें [[ जन्म#4 | जन्म - 4]])।</span><br /> | |||
गोम्मटसार | गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/309/438/8 <span class="SanskritText"> गुणस्थानद्वयं। कुत:। ‘‘णहि सासणो अपुण्णे साहारणसुहमगेयतेउदुगे।’’ इति पारिशेष्यात् पृथ्व्यप्प्रत्येकवनस्पतिषु सासादनस्योत्पत्ते:।’’ <br /> | ||
गोम्मटसार | गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/703/14 ते मिथ्यादृष्टौ पर्याप्तापर्याप्ताश्च। सासादने बादरपृथ्व्यब्वनस्पतिस्थावरकाया: द्वित्रिचतुरिंद्रियासंज्ञित्रसकायाश्चापर्याप्ता: संज्ञित्रसकाय: उभयश्चेति षड्जीवनिकाय:। मिश्रे संज्ञिपंचेंद्रियत्रसकायपर्याप्त एव। असंयते उभय:, संदेशयते पर्याप्त एव। प्रमत्ते पर्याप्त:। साहारकर्धिस्तूभय:। अप्रमत्तादिक्षीणकषायांतेषु पर्याप्त एव। सयोगे पर्याप्त:। समुद्घाते तूभय:। अयोगे पर्याप्त एव।=</span><span class="HindiText">‘‘णहि सासणो....’’ इस वचनतै पृथिवी अप प्रत्येक वनस्पति विषैं ही सासादन मर उपजै है (अत: तहाँ अपर्याप्तावस्था विषै दो गुणस्थान संभवै मिथ्यादृष्टि व सासादन) तहाँ मिथ्यादृष्टि विषै तौ छहो (कायवाले) पर्याप्त वा अपर्याप्त हैं। सासादनविषै बादर पृथिवी, अप व वनस्पति ए—स्थावर अर त्रस विषै बेंद्री तेंद्री चौंद्री असैनी पंचेंद्री ए तौ अपर्याप्त ही हैं और सैनी त्रसकाय पर्याप्त अपर्याप्त दोऊ हैं। आगैं संज्ञी पंचेंद्री त्रसकाय ही है। तहाँ मिश्र विषै पर्याप्त ही है। अविरत विषै दोऊ है। देश संयत विषै पर्याप्त ही है। प्रमत्त विषै पर्याप्त है। आहारक (समुद्घात) सहित दोऊ हैं। अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत पर्याप्त ही है। सयोगी विषै पर्याप्त हैं। समुद्घात सहित दोऊ हैं। अयोगी विषै पर्याप्त ही है। ( गोम्मटसार जीवकांड व जी.प्र./678) (विशेष देखें [[ जन्म#4 | जन्म - 4]])<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">तैजस आदि कायिकों का लोक में अवस्थान व तद्गत शंका समाधान</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">तैजस आदि कायिकों का लोक में अवस्थान व तद्गत शंका समाधान</strong> </span><br /> | ||
धवला 7/2,7,71/401/3 <span class="PrakritText"> कम्मभूमिपडिभागसयंभूरमणदीवद्धे चेव किर तेउकाइया होंति, ण अण्णत्थेत्ति के वि आइरिया भणंति। ....अण्णे के वि आइरिया सव्वेसु दीवसमुद्देसु तेउकाइयबादरपज्जत्ता संभवंति त्ति भणंति। कुदो। सयंभूरमणदीवसमुद्दप्पण्णाणं बादरते उपज्जत्ताणं वाएण हिरिज्जमाणाणं कीडणसीलदेवरतंताणं वा सव्वदीवसमुद्देसुसविउव्वणाणं गमणसंभवादो। केइमाइरिया तिरियलोगादो संखेज्जगुणो फासिदो त्ति भणंति। कुदो। सव्वपुढवीसु बादरतेउपज्जत्ताणं संभवादो। तिसु वि उवदेसेसु को एत्थ गेज्झो। तइज्जो घेत्तव्वो जुत्तीए अणुग्गहित्तादो। ण च सुत्तं त्तिण्हमेक्कस्स वि मुक्ककंठं होऊण परूवयमत्थि। पहिल्लओ उवएसो वक्खाणे इरियेहि य संमदो त्ति एत्थ सो चेव णिद्दिट्ठो।=</span> | धवला 7/2,7,71/401/3 <span class="PrakritText"> कम्मभूमिपडिभागसयंभूरमणदीवद्धे चेव किर तेउकाइया होंति, ण अण्णत्थेत्ति के वि आइरिया भणंति। ....अण्णे के वि आइरिया सव्वेसु दीवसमुद्देसु तेउकाइयबादरपज्जत्ता संभवंति त्ति भणंति। कुदो। सयंभूरमणदीवसमुद्दप्पण्णाणं बादरते उपज्जत्ताणं वाएण हिरिज्जमाणाणं कीडणसीलदेवरतंताणं वा सव्वदीवसमुद्देसुसविउव्वणाणं गमणसंभवादो। केइमाइरिया तिरियलोगादो संखेज्जगुणो फासिदो त्ति भणंति। कुदो। सव्वपुढवीसु बादरतेउपज्जत्ताणं संभवादो। तिसु वि उवदेसेसु को एत्थ गेज्झो। तइज्जो घेत्तव्वो जुत्तीए अणुग्गहित्तादो। ण च सुत्तं त्तिण्हमेक्कस्स वि मुक्ककंठं होऊण परूवयमत्थि। पहिल्लओ उवएसो वक्खाणे इरियेहि य संमदो त्ति एत्थ सो चेव णिद्दिट्ठो।=</span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"> कर्मभूमि के प्रतिभागरूप अर्ध | <li><span class="HindiText"> कर्मभूमि के प्रतिभागरूप अर्ध स्वयंभूरमण द्वीप में ही तैजस कायिक जीव होते हैं, अन्यत्र नहीं–ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> अन्य कितने ही आचार्य ‘सर्व द्वीपसमुद्रों में तेजसकायिक बादर पर्याप्त जीव संभव हैं’ ऐसा कहते हैं, क्योंकि | <li><span class="HindiText"> अन्य कितने ही आचार्य ‘सर्व द्वीपसमुद्रों में तेजसकायिक बादर पर्याप्त जीव संभव हैं’ ऐसा कहते हैं, क्योंकि स्वयंभूरमणद्वीप व समुद्र में उत्पन्न बादर तेजसकायिक पर्याप्त जीवों का वायु से ले जाये जाने के कारण अथवा क्रीड़नशील देवों के परतंत्र होने से सर्व द्वीप समुद्रों में विक्रिया युक्त होकर गमन संभव है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> कितने आचार्यों का कहना है कि उक्त जीवों के द्वारा वैक्रियकसमुद्घात की अपेक्षा तिर्यग्लोक से संख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि (उस प्रकार) सब द्वीप समुद्रों में बादर तेजसकायिक पर्याप्त जीवों की | <li><span class="HindiText"> कितने आचार्यों का कहना है कि उक्त जीवों के द्वारा वैक्रियकसमुद्घात की अपेक्षा तिर्यग्लोक से संख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि (उस प्रकार) सब द्वीप समुद्रों में बादर तेजसकायिक पर्याप्त जीवों की संभावना है। उपर्युक्त तीनों उपदेशों में से तीसरा उपदेश यहाँ ग्रहण करने योग्य है क्योंकि वह युक्ति से अनुगृहीत है। दूसरी बात यह है कि सूत्र इन तीन उपदेशों में से एक का भी मुक्तकंठ होकर प्ररूपक नहीं है। पहिला उपदेश व्याख्यानों और व्याख्यानाचार्यों से संमत है। इसलिए यहाँ उसी का निर्देश किया गया है।</span><br /> | ||
धवला/7/2,6,35/332/9 <span class="PrakritText"> तेउ-आउ-रुक्खाणं कधं तत्थ संभवो। ण इंदिएहि अगेज्झाणं सुट्ठ्ठसण्हाणं पुढविजोगियाणमत्थित्तस्स विरोहाभावादो।<br /> | धवला/7/2,6,35/332/9 <span class="PrakritText"> तेउ-आउ-रुक्खाणं कधं तत्थ संभवो। ण इंदिएहि अगेज्झाणं सुट्ठ्ठसण्हाणं पुढविजोगियाणमत्थित्तस्स विरोहाभावादो।<br /> | ||
धवला/7/2,7,78/405/5 ‘‘तहं जलंता णिरयपुढवीसु अग्गिणो बहंतीओ णईओ च णत्थि त्ति जदि अभावो वुच्चदे, तंपि णं घडदे-‘षष्ठ सप्तमयो: शीतं शीतोष्णं | धवला/7/2,7,78/405/5 ‘‘तहं जलंता णिरयपुढवीसु अग्गिणो बहंतीओ णईओ च णत्थि त्ति जदि अभावो वुच्चदे, तंपि णं घडदे-‘षष्ठ सप्तमयो: शीतं शीतोष्णं पंचमे स्मृतम्। चतुर्ष्वत्युष्णमुद्दिष्टंस्तासामेव महीगुणा:।1। इदि तत्थ वि आउ तेऊणं संभवादो। कधं पुढवीणं हेट्ठा पत्तेयसरीराणं संभवो। ण, सीएण वि सम्मुच्छिज्जमाणपगण-कुहुणादीणमुवलंभादो। कधमुण्हम्हि संभवो। ण, अच्चुण्हे वि समुप्पज्जमाणजवासपाईणमुवलंभादो।’’</span><span class="HindiText"> =(पर्याप्त व अपर्याप्त बादर)<strong> प्रश्न</strong>—तैजसकायिक, जलकायिक, और वनस्पतिकायिक जीवों की वहाँ (भवनवासियों के विभावों व अधोलोक की आठपृथिवियों में संभावना कैसे है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, इंद्रियों से अग्राह्य व अतिशय सूक्ष्म पृथिवी संबद्ध उन जीवों के अस्तित्व का कोई विरोध नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>—नरक पृथिवियों में जलती हुई अग्नियाँ और बहती हुई नदियाँ नहीं हैं ? <strong>उत्तर</strong>—इस कारण यदि उनका अभाव कहते हो, तो वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि-छठी और सातवीं पृथिवी में शीत, तथा पाँचवीं में शीत व उष्ण दोनों माने गये हैं। शेष चार पृथिवियों में अत्यंत उष्णता है। ये उनके ही पृथिवी गुण हैं।।1।। इस प्रकार उन नरक पृथिवियों में अप्कायिक व तेजसकायिक जीवों की संभावना है।<strong> प्रश्न</strong>—पृथिवियों के नीचे प्रत्येक शरीर जीवों की संभावना कैसे है ? <strong>उत्तर</strong>—नहीं; क्योंकि शीत से भी उत्पन्न होने वाले पगण और कुहुण आदि वनस्पति विशेष पाये जाते हैं। <strong>प्रश्न</strong>—उष्णता में प्रत्येक शरीर जीवों का उत्पन्न होना कैसे संभव है ?<strong> उत्तर—</strong>नहीं, क्योंकि, अत्यंत उष्णता में भी उत्पन्न होने वाले जवासप आदि वनस्पति विशेष पाये जाते हैं। विशेष देखो जन्म/4–(सासादन संबंधी दृष्टि भेद)</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
Line 109: | Line 109: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">काय योग का लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">काय योग का लक्षण</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/6/1/619/7 | सर्वार्थसिद्धि/6/1/619/7 वीर्यांतरायक्षयोपशमसद्भावे सति औदारिकादिसप्तविधकायवर्गणान्यतमालंबनापेक्ष आत्मप्रदेशपरिस्पंद: काययोग:।=<span class="HindiText">वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम के होने पर औदारिकादि सप्त प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक प्रकार की वर्गणाओं के आलंबन से होने वाला आत्मप्रदेश परिस्पंद काययोग कहलाता है। ( राजवार्तिक/6/1/10/505/17 )</span><br /> | ||
धवला 1/1,1,65/308/6 <span class="SanskritText"> सप्तानां कायानां सामान्यं काय:, तेन जनितेन वीर्येण | धवला 1/1,1,65/308/6 <span class="SanskritText"> सप्तानां कायानां सामान्यं काय:, तेन जनितेन वीर्येण जीवप्रदेशपरिस्पंदलक्षणेन योग: काययोग:।</span><span class="HindiText">=सात प्रकार के कायों में जो अन्वयरूप से रहता है उसे सामान्य काय कहते हैं। उस काय से उत्पन्न हुए आत्मप्रदेशपरिस्पंद लक्षण वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसे काययोग कहते हैं।</span><br /> | ||
धवला 7/2,1,33/76/9 <span class="PrakritText">चउव्विहसरीराणि अवलंविय जीवपदेसाणं संकोचविकोचो सो कायजोगो णाम।</span><span class="HindiText">=जो चतुर्विध शरीरों के | धवला 7/2,1,33/76/9 <span class="PrakritText">चउव्विहसरीराणि अवलंविय जीवपदेसाणं संकोचविकोचो सो कायजोगो णाम।</span><span class="HindiText">=जो चतुर्विध शरीरों के अवलंबन से जीवप्रदेशों का संकोच विकोच होता है, वह काययोग है।</span><br /> | ||
धवला 10/4,2,4,175/437/11 <span class="PrakritText"> वातपित्तसेंभादीहि जणिदपरिस्समेण जाव जीवपरिप्फंदो कायजोगो णाम। </span><span class="HindiText">=वात, पित्त व कफ आदि के द्वारा उत्पन्न परिश्रम से जो जीव प्रदेशों का | धवला 10/4,2,4,175/437/11 <span class="PrakritText"> वातपित्तसेंभादीहि जणिदपरिस्समेण जाव जीवपरिप्फंदो कायजोगो णाम। </span><span class="HindiText">=वात, पित्त व कफ आदि के द्वारा उत्पन्न परिश्रम से जो जीव प्रदेशों का परिस्पंद होता है वह काययोग कहा जाता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> काययोग के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> काययोग के भेद</strong> </span><br /> | ||
षट्खंडागम 1/1,1/ सू.56/289 <span class="PrakritText">कायजोगो सत्तविहो ओरलियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो वेउव्वियकायजोगो वेउव्वियमिस्सकायजोगो आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो कम्मइयकायजोगो चेदि।56।</span> =<span class="HindiText">काय योग सात प्रकार का है-औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग। ( राजवार्तिक/1/7/14/39/22 ) </span>( धवला 8/3,6/21/7 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/37/8 )</li> | |||
<li><strong class="HindiText" name="3.3" id="3.3"> शुभ-अशुभ काययोग के लक्षण</strong> </li> | <li><strong class="HindiText" name="3.3" id="3.3"> शुभ-अशुभ काययोग के लक्षण</strong> </li> | ||
बारस अणुवेक्खा/53,55 <span class="PrakritGatha"> बंधणछेदणमारणकिरिया सा असुहकायेत्ति।53। जिणदेवादिसु पूजा सुहकायंत्ति य हवे चेट्ठा।55।=</span><span class="HindiText"> | बारस अणुवेक्खा/53,55 <span class="PrakritGatha"> बंधणछेदणमारणकिरिया सा असुहकायेत्ति।53। जिणदेवादिसु पूजा सुहकायंत्ति य हवे चेट्ठा।55।=</span><span class="HindiText">बांधने, छेदने और मारने की क्रियाओं को अशुभकाय कहते हैं।53। जिनदेव, जिनगुरू, तथा जिनशास्त्रों की पूजारूप काय की चेष्टा को शुभकाय कहते हैं। </span> | ||
रा.वा/6/3/1-2/506-507<span class="SanskritText"> प्राणातिपातादत्तादानमैथुनप्रयोगादिरशुभ: काययोग:।2। | रा.वा/6/3/1-2/506-507<span class="SanskritText"> प्राणातिपातादत्तादानमैथुनप्रयोगादिरशुभ: काययोग:।2। ततोऽनंतविकल्पादंय: शुभ:।3।</span> ...<span class="HindiText">.तद्यथा अहिंसास्तेयब्रह्मचर्यादि: शुभ: काययोग:।=हिंसा, चोरी और मैथुनप्रयोगादि अनंत विकल्परूप अशुभकाय योग है।2। तथा उससे अन्य जो अहिंसा, अस्तेय ब्रह्मचर्यादि अनंत विकल्प वे शुभ काययोग हैं। ( सर्वार्थसिद्धि/6/3/319/10 ) <strong>4. जीव या शरीर के चलने को काययोग क्यों नहीं कहते</strong> ?</span> धवला 5/1,7,48/226/2 <span class="PrakritText"> ण सरीरणामकम्मोदयजणिदो वि, पोग्गलविवाइयाणं जीवपरिफद्दणहेउत्तविरोहा।</span>=<span class="HindiText">योग शरीरनामकर्मोदय-जनित भी नहीं है, क्योंकि, पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के जीवपरिस्पंदन का कारण होने में विरोध है। </span> धवला 7/2,1,33/77/3 <span class="PrakritText"> ण जीवे चलंते जीवपदेसाणं संकोचविकोचणियमो, सिज्झंतपढमसमए एत्तो लोअग्गं गच्छंतम्मि जीवपदेसाणं संकोचविकोचाणुवलंभा।</span>=<span class="HindiText">चलते समय जीवप्रदेशों के संकोच-विकोच का नियम नहीं है, क्योंकि, सिद्ध होने के प्रथम समय में जब जीव यहाँ से अर्थात् मध्यलोक से, लोक के अग्रभाग को जाता है, तब उसके प्रदेशों में संकोच-विकोच नहीं पाया जाता। </span> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> पर्याप्तावस्था में कार्माण काय के सद्भाव में भी मिश्रयोग क्यों नहीं कहते ?</strong></span> <br> धवला 1/1,1,76/316/4 <span class="PrakritText"> पर्याप्तावस्थायां कार्मणशरीरस्य | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> पर्याप्तावस्था में कार्माण काय के सद्भाव में भी मिश्रयोग क्यों नहीं कहते ?</strong></span> <br> धवला 1/1,1,76/316/4 <span class="PrakritText"> पर्याप्तावस्थायां कार्मणशरीरस्य सत्त्वात्तत्राप्युभयनिबंधनात्मप्रदेशपरिस्पंद इति औदारिकमिश्रकाययोग: किमु न स्यादिति चेन्न, तत्र तस्य सतोऽपि जीवप्रदेशपरिस्पंदस्याहेतुत्वात्। न पारंपर्यकृतं तद्धेतुत्वं तस्यौपचारिकत्वात्। न तदप्यविवक्षितत्वात्।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—पर्याप्त अवस्था में कार्मणशरीर का सद्भाव होने के कारण वहाँ पर भी कार्मण और औदारिकशरीर के स्कंधों के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में परिस्पंद होता है, इसलिए वहाँ पर भी औदारिकमिश्रकाययोग क्यों नहीं कहा जाता ?<strong> उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, पर्याप्त अवस्था में यद्यपि कार्मण शरीर विद्यमान है फिर भी वह जीव प्रदेशों के परिस्पंदन का कारण नहीं है। यदि पर्याप्त अवस्था में कार्मणशरीर परंपरा से जीव प्रदेशों के परिस्पंद का कारण कहा जावे, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, कार्मणशरीर को परंपरा से निमित्त मानना उपचार है। यदि कहें कि उपचार का भी यहाँ पर ग्रहण कर लिया जावे, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उपचार से परंपरारूप निमित्त के ग्रहण करने की यहाँ विवक्षा नहीं है।</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> |
Revision as of 16:21, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
काय का प्रसिद्ध अर्थ शरीर है। शरीरवत् ही बहुत प्रदेशों के समूह रूप होने के कारण कालातिरिक्त जीवादि पाँच द्रव्य भी कायवान् कहलाते हैं। जो पंचास्तिकाय करके प्रसिद्ध हैं। यद्यपि जीव अनेक भेद रूप हो सकते हैं पर उन सबके शरीर या काय छह ही जाति की हैं—पृथिवी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति व त्रस अर्थात् मांसनिर्मित शरीर। यह ही षट् कायजीव के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह शरीर भी औदारिक आदि के भेद से पाँच प्रकार हैं। उस उस शरीर के निमित्त से होने वाली आत्मप्रदेशों की चंचलता उस नामवाला काययोग कहलाता है। पर्याप्त अवस्था में काययोग होते हैं और अपर्याप्त अवस्था में मिश्र योग क्योंकि तहाँ कार्मण योग के आधीन रहता हुआ ही वह वह योग प्रगट होता है।
- काय सामान्य का लक्षण व शंका समाधान
- बहुप्रदेशी के अर्थ में काय का लक्षण।
- शरीर के अर्थ में काय का लक्षण।
* औदारिक शरीर व उनके लक्षण–देखें वह वह नाम ।
- कार्मण काययोगियों में काय का यह लक्षण कैसे घटित होगा?
- बहुप्रदेशी के अर्थ में काय का लक्षण।
- षट्काय जीव व मार्गणा निर्देश व शंकाएँ
- षट्काय जीव व मार्गणा के भेद-प्रभेद।
* पृथिवी आदि के कायिकादि चार-चार भेद–देखें पृथिवी ।
* जीव के एकेंद्रियादि भेद व त्रस स्थावर काय में अंतर।–देखें स्थावर
* सूक्ष्म बादर काय व त्रस स्थावर काय।–देखें वह वह नाम
* प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक व साधारण।–देखें वनस्पति
- अकाय मार्गणा का लक्षण
- बहुप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं?
- कायमार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व।
* काय मार्गणा विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ–देखें वह वह नाम
* काय मार्गणा विषयक गुणस्थान मार्गणास्थान। जीवसमास के स्वामित्व की 20 प्ररूपणाएँ।–देखें सत्
* काय मार्गणा में संभव कर्मों का बंध, उदय, सत्त्व–देखें वह वह नाम
* कौन काय से मरकर कहाँ उपजै और कौन गुण व पद तक उत्पन्न कर सके?–देखें जन्म - 6
* काय मार्गणा में भाव मार्गणा की इष्टता तथा तहाँ आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें मार्गणा - तेजस आदि कायिकों का लोक में अवस्थान व तद्गत शंका समाधान।
* त्रस, स्थावर आदि जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें तिर्यंच - 3
* काय स्थिति व भव स्थिति में अंतर।–देखें स्थिति - 2
* पंचास्तिकाय।–देखें अस्तिकाय
- षट्काय जीव व मार्गणा के भेद-प्रभेद।
- काययोग निर्देश व शंका समाधान
- काययोग का लक्षण।
- काययोग के भेद।
* औदारिकादि काययोगों के लक्षणादि।–देखें वह वह नाम
- शुभ अशुभ काययोग के लक्षण।
* शुभ अशुभ काययोग में अनंत विकल्प कैसे संभव है?–देखें योग - 2
- जीव या शरीर के चलने को काययोग क्यों नहीं कहते?
* काययोग विषयक गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास के स्वामित्व की 20 प्ररूपणाएँ।–देखें सत्
- पर्याप्तावस्था में कार्मणकाययोग के सद्भाव में भी मिश्रयोग क्यों नहीं कहते?
* अप्रमत्तादि गुणस्थानों में काययोग कैसे संभव है?–देखें योग - 4
* मिश्र व कार्मण योग में चक्षुर्दर्शन नहीं होता।–देखें दर्शन - 7
* काययोग विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम
* काययोग में संभव कर्मों का बंध, उदय व सत्त्व।–देखें वह वह नाम
* मरण व व्याघात हो जाने पर एक काययोग ही शेष रहता है।–देखें मनोयोग - 6
- काययोग का लक्षण।
- काय सामान्य का लक्षण व शंकाएँ
- बहुप्रदेशी के अर्थ में काय का लक्षण
नियमसार/34 काया हु बहुपदेसत्तं।=बहुप्रदेशीपना ही कायत्व है। (प्र.सा/त. प्र.व ता.वृ./135)।
सर्वार्थसिद्धि/5/1/265/5 ‘काय’ शब्द: शरीरे व्युत्पादित: इहोपचारादव्यारोप्यते। कुत: उपचार:। यथा शरीरं पुद्गलद्रव्यप्रचयात्मकं तथा धर्मादिष्वपि प्रदेशप्रचयापेक्षया काया इव काया इति। =व्युत्पत्ति से काय शब्द का अर्थ शरीर है तो भी यहाँ उपचार से उसका आरोप किया है। प्रश्न—उपचार का क्या कारण है? उत्तर—जिस प्रकार शरीर पुद्गल द्रव्य के प्रचय रूप होता है, उसी प्रकार धर्मादिक द्रव्य भी प्रदेश प्रचय की अपेक्षा काय के समान होने से काय कहे गये हैं। ( राजवार्तिक/5/1/7-8/432/29 ) ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/34 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/24/70/1 )।
स्याद्वादमंजरी/29/329/20 ‘तेषां संघे वानूर्ध्वे’ इति चिनोतेर्घञि आदेशश्च कत्वे काय: समूह जीवकाय: पृथिव्यादि:। =यहाँ ‘संघे वानूर्ध्वे’ सूत्र से ‘चि’ धातु से ‘घञ्’ प्रत्यय होने पर ‘च’ के स्थान में ‘क’ हो जाने से ‘काय’ शब्द बनता है। अत: जीवों के समूह को जीवकाय कहते हैं। - शरीर के अर्थ में काय का लक्षण—
पं.सं./प्रा./1/75 अप्पप्पवुत्तिसंचियपुग्गलपिंडं वियाण काओ त्ति। सो जिणमयम्हि भणिओ पुढवा कायाइयो छद्धा।75।=योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचय को प्राप्त हुए औदारिकादिरूप पुद्गल पिंड को काय जानना चाहिए। ( धवला 1/1,1,4/ 86/139 ) (पं.सं./सं./1/153)।
धवला 7/2,1,2/6/8 ‘‘आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिंड: काय: पृथिवीकायादिनामकर्मजनितपरिणामो वा कार्ये कारणोपचारेण काय:, चीयंते अस्मिन् जीवा इति व्युत्पत्तेर्वा काय:।’’=आत्मा की प्रवृत्ति द्वारा उपचरित किये गये पुद्गलपिंड को काय कहते हैं। अथवा पृथिवीकाय आदि नामकर्मों के द्वारा उत्पन्न परिणाम को कार्य में कारण के उपचार से काय कहा है। अथवा, ‘जिसमें जीवों का संचय किया जाय’ ऐसी व्युत्पत्ति से काय (शब्द) बना है। ( राजवार्तिक/9/711/603/30 लक्षण सं.1) ( धवला 1/1,1,4/138/1 तथा 1,1,39/366/2 में लक्षण नं. 1 व 2)। - उपरोक्त लक्षण की ईंट पत्थरों के साथ अतिव्याप्ति नहीं है।
धवला 1/1,1,4/138/1 ‘‘चीयत इति काय:। नेष्टाकादिचयेन व्यभिचार: पृथिव्यादिकर्मभिरिति विशेषणात्। औदारिकादिकर्मभि: पुद्गलविपाकिभिश्चीयत इति चेन्न, पृथिव्यादिकर्मणां सहकारिणामभावे ततश्चयनानुपपत्ते:।=प्रश्न—जो संचित किया जाता है उसे काय कहते हैं, ऐसी व्याप्ति बना लेने पर, काय को छोड़कर ईंट आदि के संचयरूप विपक्ष में भी यह व्याप्ति घटित हो जाती है, अत: व्यभिचार दोष आता है ? उत्तर—नहीं आता है; क्योंकि, पृथिवी आदि कर्मों के उदय से इतना विशेषण जोड़ कर ही, ‘जो संचित किया जाता है’ उसे काय कहते हैं ऐसी व्याख्या की गयी है। प्रश्न—‘पुद्गलविपाकी औदारिक आदि कर्मों के उदय से जो संचित किया जाता है उसे काय कहते हैं, ऐसी व्याख्या क्यों नहीं की गयी ? उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि, सहकारीरूप पृथिवी आदि नामकर्म के अभाव रहने पर केवल औदारिक आदि नामकर्म के उदय से नोकर्म वर्गणाओं का संचय नहीं हो सकता। - कार्माण काययोगियों में यह लक्षण कैसे घटित होगा
धवला 1/1,1,4/138/3 कार्मणशरीरस्थानां जीवानां पृथिव्यादिकर्मभिश्चितनोकर्मपुद्गलभावादकायत्वं स्यादिति चेन्न, तच्चयनहेतुकर्मणस्तत्रापि सत्त्वतस्तद्वयपदेशस्य न्याय्यत्वात्। अथवा आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिंड: काय:। अत्रापि स दोषो न निर्वायत इति चेन्न, आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिंडस्य तत्र सत्त्वात्। आत्मप्रवृत्त्युपचितनोकर्मपुद्गलपिंडस्य तत्रासत्त्वान्न तस्य कायव्यपदेश इति चेन्न, तच्चयनहेतुकर्मणस्तत्रास्तित्वतस्तस्य तद्व्यपदेशसिद्धे:।=प्रश्न—कार्मणकाययोग में स्थित जीव के पृथिवी आदि के द्वारा संचित हुए नोकर्मपुद्गल का अभाव होने से अकायत्व प्राप्त हो जायेगा ? उत्तर—ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि, नोकर्मरूप पुद्गलों के संचय का कारण पृथिवी आदि कर्मसहकृत औदारिकादि नामकर्म का सत्त्व कार्मणकाययोग अवस्था में भी पाया जाता है, इसलिए उस अवस्था में भी कायपने का व्यवहार बन जाता है। 2. अथवा योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचित हुए औदारिकादिरूप पुद्गलपिंड को काय कहते हैं। प्रश्न—काय का इस प्रकार का लक्षण करने पर भी पहले जो दोष दे आये हैं वह दूर नहीं होता है। उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि, योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचित हुए कर्मरूप पुद्-गलपिंड का कार्मणकाययोग अवस्था में सद्भाव पाया जाता है। अर्थात् जिस समय आत्मा कार्मणकाययोग की अवस्था में होता है, उस समय उसके ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का सद्भाव रहता ही है, इसलिए इस अपेक्षा से उसके कायपना बन जाता है। प्रश्न—कार्मणकाय योगरूप अवस्था में योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचय को प्राप्त हुए (कर्मरूप पुद्गलपिंड भले ही रहो परंतु) नोकर्मरूप पुद्गलपिंड का असत्त्व होने के कारण कार्मण काययोग में स्थित जीव के ‘काय’ यह व्यपदेश नहीं बन सकता ? उत्तर—नोकर्म पुद्गलपिंड के संचय के कारणभूत कर्म का कार्मणकाययोगरूप अवस्था में भी सद्भाव होने से कार्मणकाययोग में स्थित जीव के ‘काय’ यह संज्ञा बन जाती है।
- बहुप्रदेशी के अर्थ में काय का लक्षण
- षट्काय जीव मार्गणा निर्देश व शंकाएँ
- षट्काय जीव व मार्गणा के भेद-प्रभेद
षट्खंडागम 1/1,1/ सूत्र 39-42/264-272’’ ( तिलोयपण्णत्ति/5/278-280 )
(प.=पर्याप्त; अप=अपर्याप्त) काय
चार्ट
राजवार्तिक/9/7/11/603/31 तत्संबंधिजीव: षड्विध:—पृथिवीकायिक: अप्कायिक: तेजस्कायिक: वायुकायिक: वनस्पतिकायिक: त्रसकायिकश्चेति।=काय संबंधी जीव छह प्रकार के हैं–पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक। (यहाँ ‘अकाय’ का ग्रहण नहीं किया है, यही ऊपर वाले से इसमें विशेषता है। इसका भी कारण यह है कि ऊपर काय मार्गणा के भेद हैं और यहाँ षट्काय जीवों के।) (मू.आ./204-205) (पं.सं./प्रा./1/75), ( धवला 1/1,1,4/86/139 ), ( गोम्मटसार जीवकांड/181/414 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/37/6 )। - अकाय मार्गणा का लक्षण
पं.सं./प्रा./1/87 जह कंचणमग्गियं मुच्चइ किट्टेण कलियाराय। तह कायबंधमुक्का अकाट्टया झाणजोएण।87।=जिस प्रकार अग्नि में दिया गया सुवर्ण किट्टिका (बहिरंगमल) और कालिमा (अंतरंग मल) इन दोनों प्रकार के मलों से रहित हो जाता है उसी प्रकार ध्यान के योग से शुद्ध हुए और काय के बंधन से मुक्त हुए जीव अकायिक जानना चाहिए। ( धवला 1/1,1,39/ 144/266 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/203/449 )। - बहुप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं
धवला/1/1,1,46/277/6 जीवप्रदेशप्रचयात्मकत्वात्सिद्धा अपि सकाया इति चेन्न, तेषामनादिबंधनबद्धजीवप्रदेशात्मकत्वात्। अनादिप्रचयोऽपि काय: किन्न स्यादिति चेन्न, मूर्तानां पुद्गलानां कर्मनोकर्मपर्यायपरिणतानां सादिसांतप्रचयस्य कायत्वाभ्युपगमात्।=प्रश्न—जीव प्रदेशों के प्रचयरूप होने के कारण सिद्ध जीव भी सकाय हैं, फिर उन्हें अकाय क्यों कहा ? उत्तर—नहीं, क्योंकि सिद्ध जीव अनादिकालीन स्वाभाविक बंधन से बद्ध जीव प्रदेशस्वरूप हैं, इसलिए उसकी अपेक्षा यहाँ कायपना नहीं लिया है। प्रश्न–अनादि कालीन आत्मप्रदेशों के प्रचय को काय क्यों नहीं कहा ? उत्तर—नहीं, क्योंकि, यहाँ पर कर्म और नोकर्म रूप पर्याय से परिणत मूर्त पुद्गलों के सादि और सांत प्रदेश प्रचय को ही कायरूप से स्वीकार किया गया है। (किसी अपेक्षा उनको कायपना है भी। यथा–)
द्रव्यसंग्रह टीका/24/70/1 कायत्वं कथ्यते—बहुप्रदेशप्रचयं दृष्ट्वा यथा शरीरं कायो भण्यते तथानंतज्ञानादिगुणाधारभूतानां लोकाकाशप्रमितासंख्येयशुद्धप्रदेशानां प्रचयं समूहं संघातं मेलापकं दृष्ट्वा मुक्तात्मनि कायत्वं भण्यते।=अब इन (मुक्तात्माओं) में कायपना कहते हैं—बहुत से प्रदेशों में व्याप्त होकर रहने को देखकर जैसे शरीर को काय कहते हैं, अर्थात् जैसे शरीर में अधिक प्रदेश होने के कारण शरीर को काय कहते हैं उसी प्रकार अनंतज्ञानादि गुणों के आधारभूत जो लोकाकाश के बराबर असंख्यात शुद्ध प्रदेश हैं उनके समूह, संघात अथवा मेल को देखकर मुक्त जीव में भी कायत्व कहा जाता है।
- काय मार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व
षट्खंडागम/1/1,1/43-46 पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया बाउकाइया वणप्फइकाइया एक्कम्मि चेय मिच्छइट्ठिट्ठाणे।43। तसकाइया बीइंदिय-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।44। बादरकाइया बादरेइंदियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।45। तेण परमकाइया चेदि।46।=पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थान में ही होते हैं।43। द्वींद्रिय से लेकर अयोगकेवली तक त्रस जीव होते हैं।44। बादर एकेंद्रिय जीवों से लेकर अयोगकेवली पर्यंत जीव बादरकायिक होते हैं।45। स्थावर और बादरकाय से परे कायरहित अकायिक जीव होते हैं।46। (विशेष–देखें जन्म - 4)।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/309/438/8 गुणस्थानद्वयं। कुत:। ‘‘णहि सासणो अपुण्णे साहारणसुहमगेयतेउदुगे।’’ इति पारिशेष्यात् पृथ्व्यप्प्रत्येकवनस्पतिषु सासादनस्योत्पत्ते:।’’
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/703/14 ते मिथ्यादृष्टौ पर्याप्तापर्याप्ताश्च। सासादने बादरपृथ्व्यब्वनस्पतिस्थावरकाया: द्वित्रिचतुरिंद्रियासंज्ञित्रसकायाश्चापर्याप्ता: संज्ञित्रसकाय: उभयश्चेति षड्जीवनिकाय:। मिश्रे संज्ञिपंचेंद्रियत्रसकायपर्याप्त एव। असंयते उभय:, संदेशयते पर्याप्त एव। प्रमत्ते पर्याप्त:। साहारकर्धिस्तूभय:। अप्रमत्तादिक्षीणकषायांतेषु पर्याप्त एव। सयोगे पर्याप्त:। समुद्घाते तूभय:। अयोगे पर्याप्त एव।=‘‘णहि सासणो....’’ इस वचनतै पृथिवी अप प्रत्येक वनस्पति विषैं ही सासादन मर उपजै है (अत: तहाँ अपर्याप्तावस्था विषै दो गुणस्थान संभवै मिथ्यादृष्टि व सासादन) तहाँ मिथ्यादृष्टि विषै तौ छहो (कायवाले) पर्याप्त वा अपर्याप्त हैं। सासादनविषै बादर पृथिवी, अप व वनस्पति ए—स्थावर अर त्रस विषै बेंद्री तेंद्री चौंद्री असैनी पंचेंद्री ए तौ अपर्याप्त ही हैं और सैनी त्रसकाय पर्याप्त अपर्याप्त दोऊ हैं। आगैं संज्ञी पंचेंद्री त्रसकाय ही है। तहाँ मिश्र विषै पर्याप्त ही है। अविरत विषै दोऊ है। देश संयत विषै पर्याप्त ही है। प्रमत्त विषै पर्याप्त है। आहारक (समुद्घात) सहित दोऊ हैं। अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत पर्याप्त ही है। सयोगी विषै पर्याप्त हैं। समुद्घात सहित दोऊ हैं। अयोगी विषै पर्याप्त ही है। ( गोम्मटसार जीवकांड व जी.प्र./678) (विशेष देखें जन्म - 4)
- तैजस आदि कायिकों का लोक में अवस्थान व तद्गत शंका समाधान
धवला 7/2,7,71/401/3 कम्मभूमिपडिभागसयंभूरमणदीवद्धे चेव किर तेउकाइया होंति, ण अण्णत्थेत्ति के वि आइरिया भणंति। ....अण्णे के वि आइरिया सव्वेसु दीवसमुद्देसु तेउकाइयबादरपज्जत्ता संभवंति त्ति भणंति। कुदो। सयंभूरमणदीवसमुद्दप्पण्णाणं बादरते उपज्जत्ताणं वाएण हिरिज्जमाणाणं कीडणसीलदेवरतंताणं वा सव्वदीवसमुद्देसुसविउव्वणाणं गमणसंभवादो। केइमाइरिया तिरियलोगादो संखेज्जगुणो फासिदो त्ति भणंति। कुदो। सव्वपुढवीसु बादरतेउपज्जत्ताणं संभवादो। तिसु वि उवदेसेसु को एत्थ गेज्झो। तइज्जो घेत्तव्वो जुत्तीए अणुग्गहित्तादो। ण च सुत्तं त्तिण्हमेक्कस्स वि मुक्ककंठं होऊण परूवयमत्थि। पहिल्लओ उवएसो वक्खाणे इरियेहि य संमदो त्ति एत्थ सो चेव णिद्दिट्ठो।=- कर्मभूमि के प्रतिभागरूप अर्ध स्वयंभूरमण द्वीप में ही तैजस कायिक जीव होते हैं, अन्यत्र नहीं–ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं।
- अन्य कितने ही आचार्य ‘सर्व द्वीपसमुद्रों में तेजसकायिक बादर पर्याप्त जीव संभव हैं’ ऐसा कहते हैं, क्योंकि स्वयंभूरमणद्वीप व समुद्र में उत्पन्न बादर तेजसकायिक पर्याप्त जीवों का वायु से ले जाये जाने के कारण अथवा क्रीड़नशील देवों के परतंत्र होने से सर्व द्वीप समुद्रों में विक्रिया युक्त होकर गमन संभव है।
- कितने आचार्यों का कहना है कि उक्त जीवों के द्वारा वैक्रियकसमुद्घात की अपेक्षा तिर्यग्लोक से संख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि (उस प्रकार) सब द्वीप समुद्रों में बादर तेजसकायिक पर्याप्त जीवों की संभावना है। उपर्युक्त तीनों उपदेशों में से तीसरा उपदेश यहाँ ग्रहण करने योग्य है क्योंकि वह युक्ति से अनुगृहीत है। दूसरी बात यह है कि सूत्र इन तीन उपदेशों में से एक का भी मुक्तकंठ होकर प्ररूपक नहीं है। पहिला उपदेश व्याख्यानों और व्याख्यानाचार्यों से संमत है। इसलिए यहाँ उसी का निर्देश किया गया है।
धवला/7/2,6,35/332/9 तेउ-आउ-रुक्खाणं कधं तत्थ संभवो। ण इंदिएहि अगेज्झाणं सुट्ठ्ठसण्हाणं पुढविजोगियाणमत्थित्तस्स विरोहाभावादो।
धवला/7/2,7,78/405/5 ‘‘तहं जलंता णिरयपुढवीसु अग्गिणो बहंतीओ णईओ च णत्थि त्ति जदि अभावो वुच्चदे, तंपि णं घडदे-‘षष्ठ सप्तमयो: शीतं शीतोष्णं पंचमे स्मृतम्। चतुर्ष्वत्युष्णमुद्दिष्टंस्तासामेव महीगुणा:।1। इदि तत्थ वि आउ तेऊणं संभवादो। कधं पुढवीणं हेट्ठा पत्तेयसरीराणं संभवो। ण, सीएण वि सम्मुच्छिज्जमाणपगण-कुहुणादीणमुवलंभादो। कधमुण्हम्हि संभवो। ण, अच्चुण्हे वि समुप्पज्जमाणजवासपाईणमुवलंभादो।’’ =(पर्याप्त व अपर्याप्त बादर) प्रश्न—तैजसकायिक, जलकायिक, और वनस्पतिकायिक जीवों की वहाँ (भवनवासियों के विभावों व अधोलोक की आठपृथिवियों में संभावना कैसे है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, इंद्रियों से अग्राह्य व अतिशय सूक्ष्म पृथिवी संबद्ध उन जीवों के अस्तित्व का कोई विरोध नहीं है। प्रश्न—नरक पृथिवियों में जलती हुई अग्नियाँ और बहती हुई नदियाँ नहीं हैं ? उत्तर—इस कारण यदि उनका अभाव कहते हो, तो वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि-छठी और सातवीं पृथिवी में शीत, तथा पाँचवीं में शीत व उष्ण दोनों माने गये हैं। शेष चार पृथिवियों में अत्यंत उष्णता है। ये उनके ही पृथिवी गुण हैं।।1।। इस प्रकार उन नरक पृथिवियों में अप्कायिक व तेजसकायिक जीवों की संभावना है। प्रश्न—पृथिवियों के नीचे प्रत्येक शरीर जीवों की संभावना कैसे है ? उत्तर—नहीं; क्योंकि शीत से भी उत्पन्न होने वाले पगण और कुहुण आदि वनस्पति विशेष पाये जाते हैं। प्रश्न—उष्णता में प्रत्येक शरीर जीवों का उत्पन्न होना कैसे संभव है ? उत्तर—नहीं, क्योंकि, अत्यंत उष्णता में भी उत्पन्न होने वाले जवासप आदि वनस्पति विशेष पाये जाते हैं। विशेष देखो जन्म/4–(सासादन संबंधी दृष्टि भेद)
- षट्काय जीव व मार्गणा के भेद-प्रभेद
- काय योग निर्देश व शंका समाधान
- काय योग का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/6/1/619/7 वीर्यांतरायक्षयोपशमसद्भावे सति औदारिकादिसप्तविधकायवर्गणान्यतमालंबनापेक्ष आत्मप्रदेशपरिस्पंद: काययोग:।=वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम के होने पर औदारिकादि सप्त प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक प्रकार की वर्गणाओं के आलंबन से होने वाला आत्मप्रदेश परिस्पंद काययोग कहलाता है। ( राजवार्तिक/6/1/10/505/17 )
धवला 1/1,1,65/308/6 सप्तानां कायानां सामान्यं काय:, तेन जनितेन वीर्येण जीवप्रदेशपरिस्पंदलक्षणेन योग: काययोग:।=सात प्रकार के कायों में जो अन्वयरूप से रहता है उसे सामान्य काय कहते हैं। उस काय से उत्पन्न हुए आत्मप्रदेशपरिस्पंद लक्षण वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसे काययोग कहते हैं।
धवला 7/2,1,33/76/9 चउव्विहसरीराणि अवलंविय जीवपदेसाणं संकोचविकोचो सो कायजोगो णाम।=जो चतुर्विध शरीरों के अवलंबन से जीवप्रदेशों का संकोच विकोच होता है, वह काययोग है।
धवला 10/4,2,4,175/437/11 वातपित्तसेंभादीहि जणिदपरिस्समेण जाव जीवपरिप्फंदो कायजोगो णाम। =वात, पित्त व कफ आदि के द्वारा उत्पन्न परिश्रम से जो जीव प्रदेशों का परिस्पंद होता है वह काययोग कहा जाता है। - काययोग के भेद
षट्खंडागम 1/1,1/ सू.56/289 कायजोगो सत्तविहो ओरलियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो वेउव्वियकायजोगो वेउव्वियमिस्सकायजोगो आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो कम्मइयकायजोगो चेदि।56। =काय योग सात प्रकार का है-औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग। ( राजवार्तिक/1/7/14/39/22 ) ( धवला 8/3,6/21/7 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/37/8 ) - शुभ-अशुभ काययोग के लक्षण बारस अणुवेक्खा/53,55 बंधणछेदणमारणकिरिया सा असुहकायेत्ति।53। जिणदेवादिसु पूजा सुहकायंत्ति य हवे चेट्ठा।55।=बांधने, छेदने और मारने की क्रियाओं को अशुभकाय कहते हैं।53। जिनदेव, जिनगुरू, तथा जिनशास्त्रों की पूजारूप काय की चेष्टा को शुभकाय कहते हैं। रा.वा/6/3/1-2/506-507 प्राणातिपातादत्तादानमैथुनप्रयोगादिरशुभ: काययोग:।2। ततोऽनंतविकल्पादंय: शुभ:।3। ....तद्यथा अहिंसास्तेयब्रह्मचर्यादि: शुभ: काययोग:।=हिंसा, चोरी और मैथुनप्रयोगादि अनंत विकल्परूप अशुभकाय योग है।2। तथा उससे अन्य जो अहिंसा, अस्तेय ब्रह्मचर्यादि अनंत विकल्प वे शुभ काययोग हैं। ( सर्वार्थसिद्धि/6/3/319/10 ) 4. जीव या शरीर के चलने को काययोग क्यों नहीं कहते ? धवला 5/1,7,48/226/2 ण सरीरणामकम्मोदयजणिदो वि, पोग्गलविवाइयाणं जीवपरिफद्दणहेउत्तविरोहा।=योग शरीरनामकर्मोदय-जनित भी नहीं है, क्योंकि, पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के जीवपरिस्पंदन का कारण होने में विरोध है। धवला 7/2,1,33/77/3 ण जीवे चलंते जीवपदेसाणं संकोचविकोचणियमो, सिज्झंतपढमसमए एत्तो लोअग्गं गच्छंतम्मि जीवपदेसाणं संकोचविकोचाणुवलंभा।=चलते समय जीवप्रदेशों के संकोच-विकोच का नियम नहीं है, क्योंकि, सिद्ध होने के प्रथम समय में जब जीव यहाँ से अर्थात् मध्यलोक से, लोक के अग्रभाग को जाता है, तब उसके प्रदेशों में संकोच-विकोच नहीं पाया जाता।
- पर्याप्तावस्था में कार्माण काय के सद्भाव में भी मिश्रयोग क्यों नहीं कहते ?
धवला 1/1,1,76/316/4 पर्याप्तावस्थायां कार्मणशरीरस्य सत्त्वात्तत्राप्युभयनिबंधनात्मप्रदेशपरिस्पंद इति औदारिकमिश्रकाययोग: किमु न स्यादिति चेन्न, तत्र तस्य सतोऽपि जीवप्रदेशपरिस्पंदस्याहेतुत्वात्। न पारंपर्यकृतं तद्धेतुत्वं तस्यौपचारिकत्वात्। न तदप्यविवक्षितत्वात्। =प्रश्न—पर्याप्त अवस्था में कार्मणशरीर का सद्भाव होने के कारण वहाँ पर भी कार्मण और औदारिकशरीर के स्कंधों के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में परिस्पंद होता है, इसलिए वहाँ पर भी औदारिकमिश्रकाययोग क्यों नहीं कहा जाता ? उत्तर—नहीं, क्योंकि, पर्याप्त अवस्था में यद्यपि कार्मण शरीर विद्यमान है फिर भी वह जीव प्रदेशों के परिस्पंदन का कारण नहीं है। यदि पर्याप्त अवस्था में कार्मणशरीर परंपरा से जीव प्रदेशों के परिस्पंद का कारण कहा जावे, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, कार्मणशरीर को परंपरा से निमित्त मानना उपचार है। यदि कहें कि उपचार का भी यहाँ पर ग्रहण कर लिया जावे, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उपचार से परंपरारूप निमित्त के ग्रहण करने की यहाँ विवक्षा नहीं है।
- काय योग का लक्षण
पुराणकोष से
पंचभूतात्मक प्रतिक्षण परिवर्तनशील शरीर । महापुराण 66.86