आकाश: Difference between revisions
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खाली जगह (Space) को आकाश कहते हैं। इसे एक सर्व व्यापक अखण्ड अमूर्त द्रव्य स्वीकार किया गया है। जो अपने अन्दर सर्व द्रव्योंको समानेकी शक्ति रखता है यद्यपि यह अखण्ड है पर इसका अनुमान करानेके लिए इसमें प्रदेशों रूप खण्डोंकी कल्पना कर ली जाती है। यह स्वयं तो अनन्त है परन्तु इसके मध्यवर्ती कुछ मात्र भागमें ही अन्य द्रव्य अवस्थित हैं। उसके इस भागका नाम लोक है और उससे बाहर शेष सर्व आकाशका नाम अलोक है। अवगाहना शक्तिकी विचित्रताके कारण छोटे-से लोकमें अथवा इसके एक प्रदेशपर अनन्तानन्त द्रव्य स्थित हैं। | खाली जगह (Space) को आकाश कहते हैं। इसे एक सर्व व्यापक अखण्ड अमूर्त द्रव्य स्वीकार किया गया है। जो अपने अन्दर सर्व द्रव्योंको समानेकी शक्ति रखता है यद्यपि यह अखण्ड है पर इसका अनुमान करानेके लिए इसमें प्रदेशों रूप खण्डोंकी कल्पना कर ली जाती है। यह स्वयं तो अनन्त है परन्तु इसके मध्यवर्ती कुछ मात्र भागमें ही अन्य द्रव्य अवस्थित हैं। उसके इस भागका नाम लोक है और उससे बाहर शेष सर्व आकाशका नाम अलोक है। अवगाहना शक्तिकी विचित्रताके कारण छोटे-से लोकमें अथवा इसके एक प्रदेशपर अनन्तानन्त द्रव्य स्थित हैं।<br> | ||
१ भेद व लक्षण | १ भेद व लक्षण<br> | ||
1 | <OL start=1 class="DecimalNumberList"> <LI> आकाश सामान्यका लक्षण </LI> | ||
<LI> आकाश द्रव्योंके भेद </LI> | |||
<LI> लोकाकाश व आलोककाशके लक्षण </LI> | |||
<LI> प्राणायाम सम्बन्धी आकाश मण्डल </LI> </OL> | |||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> आकाश निर्देश </LI> </OL> | |||
1 | <OL start=1 class="DecimalNumberList"> <LI> आकाशका आकार </LI> | ||
<LI> आकाशके प्रदेश </LI> | |||
<LI> आकाश द्रव्यके विशेष गुण </LI> | |||
<LI> आकाशके १६ सामान्य विशेष स्वभाव </LI> | |||
<LI> आकाशका आधार </LI> | |||
<LI> अखण्ड आकाशमें खण्ड कल्पना </LI> | |||
<LI> लोकाकाश व आलोकाकाशकी सिद्धि </LI> </OL> | |||
<OL start=3 class="HindiNumberList"> <LI> अवगाहना सम्बन्धी विषय </LI> </OL> | |||
1 | <OL start=1 class="DecimalNumberList"> <LI> सर्वावगाहना गुण आकाशमें ही है अन्य द्रव्यमें नहीं तथा हेतु </LI> | ||
<LI> लोकाकाशमें अवगाहना गुणका माहात्मय </LI> | |||
<LI> लोक/अस. प्रदेशोंपर एकानेक जीवोंकी अवस्थान विधि </LI> | |||
<LI> अवगाहना गुणोंकी सिद्धि </LI> | |||
<LI> असं. प्रदेशी लोकमें अनन्त द्रव्योंके अवगाहकी सिद्धि </LI> | |||
<LI> एक प्रदेश पर अनन्त द्रव्योंके अवगाहकी सिद्धि </LI> </OL> | |||
<OL start=4 class="HindiNumberList"> <LI> अन्य सम्बन्धित विषय </LI> </OL> | |||
<UL start=0 class="BulletedList"> <LI> अन्य द्रव्योंमे भी अवगाहन गुण - <b>देखे </b>[[`अवगाहन' <]] /LI> | |||
<LI> अमूर्त आकाशके साथ मूर्त द्रव्योंके स्पर्श सम्बन्धी - <b>देखे </b>[[स्पर्श]] /२ </LI> | |||
<LI> लोकाकाशमें वर्तनाका निमित्त - <b>देखे </b>[[काल]] /२ </LI> | |||
<LI> अवगाहन गुण उदासीन कारण है -दे कारण III/२ </LI> | |||
<LI> आकाशका अक्रियावत्त्व - <b>देखे </b>[[द्रव्य]] /३ </LI> | |||
<LI> आकाशमें प्रदेश कल्पना तथा युक्ति - <b>देखे </b>[[द्रव्य]] /४ </LI> | |||
<LI> आकाश द्रव्य अस्तिकाय है - <b>देखे </b>[[अस्तिकाय <]] /LI> | |||
<LI> आकाश द्रव्यकी संख्या - <b>देखे </b>[[संख्या]] /३ </LI> | |||
<LI> लोकाकाशके विभागका कारण धर्मास्तिकाय - <b>देखे </b>[[धर्माधर्म]] /१ </LI> | |||
<LI> लोकाकाशमें उत्पादादिकी सिद्ध - <b>देखे </b>[[उत्पाद व्ययध्रौव्य]] /३ </LI> | |||
<LI> शब्द आकाशका गुण नहीं - <b>देखे </b>[[शब्द]] /२ </LI> | |||
<LI> द्रव्योंको आकाश प्रतिष्ठित कहना व्यवहार है - <b>देखे </b>[[द्रव्य]] /५ </LI> </UL> | |||
<OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> भेद व लक्षण </LI> </OL> | |||
<OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> आकाशका सामान्य का लक्षण </LI> </OL> | |||
[[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ५/४,६,७,१८ नित्यावस्थितान्यरूपाणि ।।४।। आ आकाशादेकद्रव्याणि ।।६।। निष्क्रियाणि च ।।७।। अकाशस्यावगाहः ।।१८।। | [[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ५/४,६,७,१८ नित्यावस्थितान्यरूपाणि ।।४।। आ आकाशादेकद्रव्याणि ।।६।। निष्क्रियाणि च ।।७।। अकाशस्यावगाहः ।।१८।।<br> | ||
= आकाश द्रव्य नित्य अवस्थित और अरूपी है ।।५।। तथा एक अखण्ड द्रव्य है ।।६।। व निष्क्रिय है ।।७।। और अवगाह देना इसका उफकार है ।।१८।। | <p class="HindiSentence">= आकाश द्रव्य नित्य अवस्थित और अरूपी है ।।५।। तथा एक अखण्ड द्रव्य है ।।६।। व निष्क्रिय है ।।७।। और अवगाह देना इसका उफकार है ।।१८।।</p> | ||
पं.का/मू.९० सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तह य पुग्गलाणं च। जं देदि विवरमखिलं तं लोगे हवदि आगासं ।।९०।। | पं.का/मू.९० सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तह य पुग्गलाणं च। जं देदि विवरमखिलं तं लोगे हवदि आगासं ।।९०।।<br> | ||
= कलोहमें जीवोंको और पुद्गलोंको वैसे ही शेष समस्त द्रव्योंका जो सम्पूर्ण अवकाश देता है वह आकाश द्रव्य है। | <p class="HindiSentence">= कलोहमें जीवोंको और पुद्गलोंको वैसे ही शेष समस्त द्रव्योंका जो सम्पूर्ण अवकाश देता है वह आकाश द्रव्य है।</p> | ||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/१८/२८४ जीवपुद्गलादीनामवगाहिनामवकाशदानमवगाह आकाशस्योपकारो वेदितव्यः।। | [[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/१८/२८४ जीवपुद्गलादीनामवगाहिनामवकाशदानमवगाह आकाशस्योपकारो वेदितव्यः।।<br> | ||
= अवगाहनं करनेवाले जीव और पुद्गलोंको अवकाश देना आकाशका उपकार जानना चाहिए। | <p class="HindiSentence">= अवगाहनं करनेवाले जीव और पुद्गलोंको अवकाश देना आकाशका उपकार जानना चाहिए। </p> | ||
(गो./जी.प्र/६०५/१०६०/४) | (गो./जी.प्र/६०५/१०६०/४)<br> | ||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१/२१-२२/४३४ आकाशन्तेऽस्मिन द्रव्याणि स्वयं चाकाशत इत्याकाशम् ।।२१।। अवकाशदानाद्वा ।।२२।। | [[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१/२१-२२/४३४ आकाशन्तेऽस्मिन द्रव्याणि स्वयं चाकाशत इत्याकाशम् ।।२१।। अवकाशदानाद्वा ।।२२।।<br> | ||
= जिसमें जीवादि द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायोंके साथ प्रकाशमान हों तथा जो स्वयं अपने को प्रकाशित भी करे वह आकाश है ।।२१।। अथवा जो अन्य सर्व द्रव्योंको अवकाश दे वह आकाश है। | <p class="HindiSentence">= जिसमें जीवादि द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायोंके साथ प्रकाशमान हों तथा जो स्वयं अपने को प्रकाशित भी करे वह आकाश है ।।२१।। अथवा जो अन्य सर्व द्रव्योंको अवकाश दे वह आकाश है।</p> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,३,१/४/७ आगासं सपदेसं तु उड्ढोधो तिरओविय। खेत्तलोगं वियाणाहि अणंतजिण-देसिदं ।।४।। | [[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,३,१/४/७ आगासं सपदेसं तु उड्ढोधो तिरओविय। खेत्तलोगं वियाणाहि अणंतजिण-देसिदं ।।४।।<br> | ||
= आकाश सप्रदेशी है, और वह ऊपर, नीचे और तिरछे सर्वत्र फैला हुआ है। उसे ही क्षेत्र लोक जानना चाहिए। उसे जिन भगवान्ने अनन्त कहा है। | <p class="HindiSentence">= आकाश सप्रदेशी है, और वह ऊपर, नीचे और तिरछे सर्वत्र फैला हुआ है। उसे ही क्षेत्र लोक जानना चाहिए। उसे जिन भगवान्ने अनन्त कहा है।</p> | ||
[[नयचक्रवृहद्]] गाथा संख्या ९८ चेयणरहियममुत्तं अवगाहलक्खणं च सव्वगयं...। तं णहदव्वं जिणुद्दिट्ठं ।।९८।। | [[नयचक्रवृहद्]] गाथा संख्या ९८ चेयणरहियममुत्तं अवगाहलक्खणं च सव्वगयं...। तं णहदव्वं जिणुद्दिट्ठं ।।९८।।<br> | ||
= जो चेतन रहित अमूर्त सर्वद्रव्योंको अवगाह देनेवाला सर्व व्यापी है = उसको जिनेन्द्र भगवानने आकाश द्रव्य कहा है। | <p class="HindiSentence">= जो चेतन रहित अमूर्त सर्वद्रव्योंको अवगाह देनेवाला सर्व व्यापी है = उसको जिनेन्द्र भगवानने आकाश द्रव्य कहा है।</p> | ||
द्र.स./मू.१९/५७ अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण आयासम्... ।।१९।। | द्र.स./मू.१९/५७ अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण आयासम्... ।।१९।।<br> | ||
= जो जीवादि द्रव्योंको अवकाश देनेवाला है उसको जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहा हुआ आकाश द्रव्य जानो। | <p class="HindiSentence">= जो जीवादि द्रव्योंको अवकाश देनेवाला है उसको जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहा हुआ आकाश द्रव्य जानो।</p> | ||
([[नियमसार]] / [[नियमसार तात्त्पर्यवृत्ति | तात्त्पर्यवृत्ति ]] गाथा संख्या ९/२४) | ([[नियमसार]] / [[नियमसार तात्त्पर्यवृत्ति | तात्त्पर्यवृत्ति ]] गाथा संख्या ९/२४)<br> | ||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> आकाश द्रव्योंके भेद </LI> </OL> | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/१२/२७८ आकाशं, द्विधाविभक्तं लोकाकाशमेलोकाकाशं चेति। | [[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/१२/२७८ आकाशं, द्विधाविभक्तं लोकाकाशमेलोकाकाशं चेति।<br> | ||
= आकाश द्रव्य दो प्रकारका है-लोकाकाश और अलोकाकाश। | <p class="HindiSentence">= आकाश द्रव्य दो प्रकारका है-लोकाकाश और अलोकाकाश।</p> | ||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१२/१८/४५६/१०), ([[नयचक्रवृहद्]] गाथा संख्या ९८. ([[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या १९) | ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१२/१८/४५६/१०), ([[नयचक्रवृहद्]] गाथा संख्या ९८. ([[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या १९)<br> | ||
<OL start=3 class="HindiNumberList"> <LI> लोकाकाश व आलोकाकाशके लक्षण </LI> </OL> | |||
[[पंचास्तिकाय]] / / मूल या टीका गाथा संख्या ९१ जोवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगादोणण्ण। तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्त ।।९१।। | [[पंचास्तिकाय]] / / मूल या टीका गाथा संख्या ९१ जोवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगादोणण्ण। तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्त ।।९१।।<br> | ||
= जीव पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म (तथा काल) लोकके अनन्य हैं। अन्तरहित ऐसा आकाश उससे (लोकसे) अनन्य तथा अन्य है। | <p class="HindiSentence">= जीव पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म (तथा काल) लोकके अनन्य हैं। अन्तरहित ऐसा आकाश उससे (लोकसे) अनन्य तथा अन्य है।</p> | ||
[[बारसाणुवेक्खा]] गाथा संख्या ३९ जीवादि पयट्ठाणं समवाओ सो णिरुच्चये लोगो। तिविहो हवेई लोगो अहमज्झिमउड्भेयेणं ।।३९।। | [[बारसाणुवेक्खा]] गाथा संख्या ३९ जीवादि पयट्ठाणं समवाओ सो णिरुच्चये लोगो। तिविहो हवेई लोगो अहमज्झिमउड्भेयेणं ।।३९।। <br> | ||
= जीवादि छः पदार्थोंका जो समूह है उसे लोक कहते हैं। और वह अधोलोक, ऊर्ध्वलोक व मध्यलोकके भेद से तीन प्रकारका है। | <p class="HindiSentence">= जीवादि छः पदार्थोंका जो समूह है उसे लोक कहते हैं। और वह अधोलोक, ऊर्ध्वलोक व मध्यलोकके भेद से तीन प्रकारका है।</p> | ||
(क.अ./मू.११६) | (क.अ./मू.११६)<br> | ||
[[मूलाचार]] / [[आचारवृत्ति]] / गाथा संख्या ५४० लोयदि लाओयदि पल्लोयदिसल्लोयदिति एगत्थो तह्माजिणेहिं कसिणं तेणेसो वुच्चदे लोओ ।।५४०।। | [[मूलाचार]] / [[आचारवृत्ति]] / गाथा संख्या ५४० लोयदि लाओयदि पल्लोयदिसल्लोयदिति एगत्थो तह्माजिणेहिं कसिणं तेणेसो वुच्चदे लोओ ।।५४०।। <br> | ||
= जीस कारणसे जिनेन्द्र भगवान् का मतिश्रुतज्ञानकी अपेक्षा साधारण रूप देखा गया है, मनःपर्यय ज्ञानकी अपेक्षा कुछ उससे भी विशेष और केवलज्ञानकी अपेक्षा सम्पूर्ण रूपसे देखा गया है इसलिए वह लोक कहा जाता है। | <p class="HindiSentence">= जीस कारणसे जिनेन्द्र भगवान् का मतिश्रुतज्ञानकी अपेक्षा साधारण रूप देखा गया है, मनःपर्यय ज्ञानकी अपेक्षा कुछ उससे भी विशेष और केवलज्ञानकी अपेक्षा सम्पूर्ण रूपसे देखा गया है इसलिए वह लोक कहा जाता है।</p> | ||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/१२/२७८ धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यन्ते स लोक इति। | [[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/१२/२७८ धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यन्ते स लोक इति।<br> | ||
स यत्र तल्लोकाकाशम्। ततो बहिः सर्वतोऽनन्तालोकाकाशम्। | स यत्र तल्लोकाकाशम्। ततो बहिः सर्वतोऽनन्तालोकाकाशम्।<br> | ||
= जहाँ धर्मादि द्रव्य विलोके जाते हैं उसे लोक कहते हैं। उससे बाहर सर्वत्र अनन्त अलोकाकाश है। | <p class="HindiSentence">= जहाँ धर्मादि द्रव्य विलोके जाते हैं उसे लोक कहते हैं। उससे बाहर सर्वत्र अनन्त अलोकाकाश है।</p> | ||
(ति/प.४/१६४-१३५), ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१२/१८/४५६/७), ([[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,३,९/१), ([[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[ पंचास्तिकाय संग्रह तत्त्वप्रदीपिका | तत्त्वप्रदीपिका]] / गाथा संख्या ८७/१३८), ([[प्रवचनसार]] / [[ प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका | तत्त्वप्रदीपिका ]] / गाथा संख्या १२८/१८०), ([[नयचक्रवृहद्]] गाथा संख्या ९९), (द्र.सं.मू.२०), ([[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[तात्पर्यवृत्ति]] / गाथा संख्या २२/४८), ([[पंचाध्यायी]] / उत्तरार्ध श्लोक संख्या २२) ([[त्रिलोकसार]] गाथा संख्या ५) | (ति/प.४/१६४-१३५), ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१२/१८/४५६/७), ([[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,३,९/१), ([[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[ पंचास्तिकाय संग्रह तत्त्वप्रदीपिका | तत्त्वप्रदीपिका]] / गाथा संख्या ८७/१३८), ([[प्रवचनसार]] / [[ प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका | तत्त्वप्रदीपिका ]] / गाथा संख्या १२८/१८०), ([[नयचक्रवृहद्]] गाथा संख्या ९९), (द्र.सं.मू.२०), ([[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[तात्पर्यवृत्ति]] / गाथा संख्या २२/४८), ([[पंचाध्यायी]] / उत्तरार्ध श्लोक संख्या २२) ([[त्रिलोकसार]] गाथा संख्या ५)<br> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,५०/२८८/३ को लोकः। लोक्यन्त उपलभ्यन्ते यस्मिन् जीवादयः पदार्थोः स लोकः। | [[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,५०/२८८/३ को लोकः। लोक्यन्त उपलभ्यन्ते यस्मिन् जीवादयः पदार्थोः स लोकः।<br> | ||
= प्रश्न - लोक किसे कहते है? उत्तर - जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं अर्थात् उपलब्ध होते हैं उसे लोक कहते हैं। | <p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - लोक किसे कहते है? <br> <b>उत्तर</b> - जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं अर्थात् उपलब्ध होते हैं उसे लोक कहते हैं।</p> | ||
(म.प्र.४/१३), ([[नयचक्रवृहद्]] गाथा संख्या १४२-१४३) | (म.प्र.४/१३), ([[नयचक्रवृहद्]] गाथा संख्या १४२-१४३)<br> | ||
<OL start=4 class="HindiNumberList"> <LI> प्राणायाम सम्बन्धी आकाश मण्डल </LI> </OL> | |||
[[ज्ञानसार]] श्लोक संख्या ५७ अग्निः त्रिकोणः रक्तः कृष्णश्चः प्रभञ्जनः तथावृतः। चतुष्कोणं पीतं पृथ्वी स्वेतं जलं शुद्धचन्द्राभम् ।।५७।। | [[ज्ञानसार]] श्लोक संख्या ५७ अग्निः त्रिकोणः रक्तः कृष्णश्चः प्रभञ्जनः तथावृतः। चतुष्कोणं पीतं पृथ्वी स्वेतं जलं शुद्धचन्द्राभम् ।।५७।।<br> | ||
= अग्नि त्रिकोण लाल रंग, पवन, गोलाकार श्याम वर्ण, पृथ्वी चौकोण पीत वर्ण, तथा जल अर्ध चन्द्राकार शीतल चन्द्र समान होता है। | <p class="HindiSentence">= अग्नि त्रिकोण लाल रंग, पवन, गोलाकार श्याम वर्ण, पृथ्वी चौकोण पीत वर्ण, तथा जल अर्ध चन्द्राकार शीतल चन्द्र समान होता है।</p> | ||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> आकाश निर्देश </LI> </OL> | |||
<OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> आकाशका आकार </LI> </OL> | |||
आचारसार ३/२४ व्योमामूर्त स्थितं नित्यं चतुरस्रं सम धनम्। अवगाहनाहेतवश्चान्तानन्त प्रदेशकम् ।।२४।। | आचारसार ३/२४ व्योमामूर्त स्थितं नित्यं चतुरस्रं सम धनम्। अवगाहनाहेतवश्चान्तानन्त प्रदेशकम् ।।२४।।<br> | ||
= आकाश द्रव्य अमूर्त है, नित्य अवंस्थित है, घनाकार चौकोर है, अवगाहनाका हेतु है, अनन्तान्त प्रदेशी है। | <p class="HindiSentence">= आकाश द्रव्य अमूर्त है, नित्य अवंस्थित है, घनाकार चौकोर है, अवगाहनाका हेतु है, अनन्तान्त प्रदेशी है।</p> | ||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> आकाशके प्रदेश </LI> </OL> | |||
[[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ५/९ आताशस्यानन्ताः ।।९।। | [[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ५/९ आताशस्यानन्ताः ।।९।।<br> | ||
= आकाश द्रव्यके अनन्त प्रदेश हैं | <p class="HindiSentence">= आकाश द्रव्यके अनन्त प्रदेश हैं</p> | ||
(द्र.सं.२५) ([[नियमसार]] / मूल या टीका गाथा संख्या ३६) ([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ५८७/१०२५) | (द्र.सं.२५) ([[नियमसार]] / मूल या टीका गाथा संख्या ३६) ([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ५८७/१०२५)<br> | ||
[[प्रवचनसार]] / [[ प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका | तत्त्वप्रदीपिका ]] / गाथा संख्या १३५/१९१ सर्वव्याप्यनन्तप्रदेशप्रस्ताररूपत्वादाकाशस्य च प्रदेशत्त्वम्। | [[प्रवचनसार]] / [[ प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका | तत्त्वप्रदीपिका ]] / गाथा संख्या १३५/१९१ सर्वव्याप्यनन्तप्रदेशप्रस्ताररूपत्वादाकाशस्य च प्रदेशत्त्वम्।<br> | ||
= सर्वव्यापी अनन्तप्रदेशों के विस्ताररूप होनेसे आकाश प्रदेशवान् है। | <p class="HindiSentence">= सर्वव्यापी अनन्तप्रदेशों के विस्ताररूप होनेसे आकाश प्रदेशवान् है।</p> | ||
<OL start=3 class="HindiNumberList"> <LI> आकाश द्रव्यके विशेष गुण </LI> </OL> | |||
[[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ५/१८ आकाशस्यावगाहः ।।१८।। | [[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ५/१८ आकाशस्यावगाहः ।।१८।।<br> | ||
= अवगाहन देना आकाशद्रव्यका उपकार है। | <p class="HindiSentence">= अवगाहन देना आकाशद्रव्यका उपकार है।</p> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १५/३३/७ ओगाहणलक्खणमायासदव्वं। | [[धवला]] पुस्तक संख्या १५/३३/७ ओगाहणलक्खणमायासदव्वं।<br> | ||
= आकाश द्रव्यका असाधारण लक्षण अवगाहन देना है। | <p class="HindiSentence">= आकाश द्रव्यका असाधारण लक्षण अवगाहन देना है।</p> | ||
[[आलापपद्धति]] अधिकार संख्या २/१/१३४ आकाशद्रव्ये अवगाहनाहेतुत्वमर्मूतत्वमचेतनत्वमिति। | [[आलापपद्धति]] अधिकार संख्या २/१/१३४ आकाशद्रव्ये अवगाहनाहेतुत्वमर्मूतत्वमचेतनत्वमिति।<br> | ||
= आकाश द्रव्यके अवगाहना हेतुत्व, अमूर्तत्व और अचेतनत्वमें (विशेष) गुण हैं। | <p class="HindiSentence">= आकाश द्रव्यके अवगाहना हेतुत्व, अमूर्तत्व और अचेतनत्वमें (विशेष) गुण हैं।</p> | ||
[[प्रवचनसार]] / [[ प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका | तत्त्वप्रदीपिका ]] / गाथा संख्या १३३ विशेषगुणो हियुगपरसर्वद्रव्याणां साधारणावगाहहेतुत्वामाकाशस्य। | [[प्रवचनसार]] / [[ प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका | तत्त्वप्रदीपिका ]] / गाथा संख्या १३३ विशेषगुणो हियुगपरसर्वद्रव्याणां साधारणावगाहहेतुत्वामाकाशस्य।<br> | ||
= युगपत् सर्व द्रव्योंके साधरण अवगाहका हेतुत्व आकाशका विशेष गुण है। | <p class="HindiSentence">= युगपत् सर्व द्रव्योंके साधरण अवगाहका हेतुत्व आकाशका विशेष गुण है।</p> | ||
<OL start=4 class="HindiNumberList"> <LI> आकाशके १६ सामान्य विशेष स्वभाव </LI> </OL> | |||
[[नयचक्रवृहद्]] गाथा संख्या ७० इगवीसं तु सहावा दोण्हं (१) तिण्हं (२) तु सोडसा भणिया। पंचदसा पुण काले दव्वसहावा (३) य णयव्वा ।।७०।। | [[नयचक्रवृहद्]] गाथा संख्या ७० इगवीसं तु सहावा दोण्हं (१) तिण्हं (२) तु सोडसा भणिया। पंचदसा पुण काले दव्वसहावा (३) य णयव्वा ।।७०।।<br> | ||
= जीव व पुद्गलके २१ स्वभाव, धर्म, अधर्म, और आकाश द्रव्यके १६ स्वभाव, तथा कालद्रव्यके १५ स्वभाव कहे गये हैं। | <p class="HindiSentence">= जीव व पुद्गलके २१ स्वभाव, धर्म, अधर्म, और आकाश द्रव्यके १६ स्वभाव, तथा कालद्रव्यके १५ स्वभाव कहे गये हैं।</p> | ||
([[आलापपद्धति]] अधिकार संख्या ४) | ([[आलापपद्धति]] अधिकार संख्या ४)<br> | ||
[[नयचक्रवृहद्]] गाथा संख्या ७० (सद्रूप, असद्रूप, नित्य, अनित्य, एक, अनेक, भेद, अभेद, भव्य, अभव्य, स्वभाव, निभाव, चैतन्य, अचैतन्य, मूर्त, अमूर्त, एक प्रदेशी, अनेक प्रदेशी, शुद्ध, अशुद्ध, उपचरित, अनुपचरित, एकान्त, अनेकान्त। इन चौबीसमें-से अनेक, भव्य, अभव्य, निभाव, चैतन्य, मूर्त, एक प्रदेशत्व, अशुद्ध। इन आठ रहित १६ सामान्य विशेष स्वभाव आकाश द्रव्यमें हैं) | [[नयचक्रवृहद्]] गाथा संख्या ७० (सद्रूप, असद्रूप, नित्य, अनित्य, एक, अनेक, भेद, अभेद, भव्य, अभव्य, स्वभाव, निभाव, चैतन्य, अचैतन्य, मूर्त, अमूर्त, एक प्रदेशी, अनेक प्रदेशी, शुद्ध, अशुद्ध, उपचरित, अनुपचरित, एकान्त, अनेकान्त। इन चौबीसमें-से अनेक, भव्य, अभव्य, निभाव, चैतन्य, मूर्त, एक प्रदेशत्व, अशुद्ध। इन आठ रहित १६ सामान्य विशेष स्वभाव आकाश द्रव्यमें हैं) <br> | ||
([[आलापपद्धति]] अधिकार संख्या ४) | ([[आलापपद्धति]] अधिकार संख्या ४)<br> | ||
<OL start=5 class="HindiNumberList"> <LI> आकाशका आधार </LI> </OL> | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ३/१/२०४ आकाशमात्मप्रतिष्ठम्। | [[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ३/१/२०४ आकाशमात्मप्रतिष्ठम्।<br> | ||
= आकाश द्रव्य स्वयं अपने आधारसे स्थिति है। | <p class="HindiSentence">= आकाश द्रव्य स्वयं अपने आधारसे स्थिति है।</p> | ||
([[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/१२/२७७) ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ३/१/८/१६०/१६) | ([[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/१२/२७७) ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ३/१/८/१६०/१६)<br> | ||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१२/२-४/४५४ आकाशस्यापि अन्याधारकल्पनेति चेत्, न; स्वप्रतिष्ठत्वात् ।।२।। ततोऽधिकप्रमाणद्रव्यान्तराधाराभावत् ।।३।। तथा चानवस्थानिवृत्तिः ।।४।। | [[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१२/२-४/४५४ आकाशस्यापि अन्याधारकल्पनेति चेत्, न; स्वप्रतिष्ठत्वात् ।।२।। ततोऽधिकप्रमाणद्रव्यान्तराधाराभावत् ।।३।। तथा चानवस्थानिवृत्तिः ।।४।।<br> | ||
= प्रश्न - आकाशका भी कोई अन्य आधार होना चाहिए? उत्तर - नहीं, वह स्वयं अपने आधारपर ठहरा हुआ है ।।२।। उससे अधिक प्रमाणवाले दूसरे द्रव्यका अभाव होनेके कारण भी उसका आधारभूत कोई दूसरा नहीं हो सकता ।।३।। यदि किसी दूसरे आधारकी कल्पना की जाये तो उससे अनवस्था दोषका प्रसंग आयेगा, परन्तु स्वयं अपना आधारभूत होनेसे वह नहीं आ सकता है। | <p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - आकाशका भी कोई अन्य आधार होना चाहिए? <br> <b>उत्तर</b> - नहीं, वह स्वयं अपने आधारपर ठहरा हुआ है ।।२।। उससे अधिक प्रमाणवाले दूसरे द्रव्यका अभाव होनेके कारण भी उसका आधारभूत कोई दूसरा नहीं हो सकता ।।३।। यदि किसी दूसरे आधारकी कल्पना की जाये तो उससे अनवस्था दोषका प्रसंग आयेगा, परन्तु स्वयं अपना आधारभूत होनेसे वह नहीं आ सकता है।</p> | ||
<OL start=6 class="HindiNumberList"> <LI> अखण्ड आकाशमें खण्ड कल्पना </LI> </OL> | |||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/८/५-६/४५०/३ एकद्रव्यस्य प्रदेशकल्पना उपचारतः स्यात्। उपचारश्च मिथ्योक्तिर्न तत्त्वपरीक्षायामधिक्रियते प्रयोजनाभावात्। न हि मृगतृष्णिकया मृषार्थात्मिकया जलकृत्यं क्रियते इति; तन्न; किं कारणम्। मुख्यक्षेत्राविभागात्। मुख्य एव क्षेत्रविभागः, अन्यो हि घटावगाह्यः आकाशप्रदेशः इतरावगाह्यश्चान्य इति। यदि अन्यत्वं न स्यात् व्याप्तित्वं व्याहन्यते ।।५।। निरवयवत्वानुपपत्तिरिति चेत्; न; द्रव्यविभागाभावत् ।।६।। | [[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/८/५-६/४५०/३ एकद्रव्यस्य प्रदेशकल्पना उपचारतः स्यात्। उपचारश्च मिथ्योक्तिर्न तत्त्वपरीक्षायामधिक्रियते प्रयोजनाभावात्। न हि मृगतृष्णिकया मृषार्थात्मिकया जलकृत्यं क्रियते इति; तन्न; किं कारणम्। मुख्यक्षेत्राविभागात्। मुख्य एव क्षेत्रविभागः, अन्यो हि घटावगाह्यः आकाशप्रदेशः इतरावगाह्यश्चान्य इति। यदि अन्यत्वं न स्यात् व्याप्तित्वं व्याहन्यते ।।५।। निरवयवत्वानुपपत्तिरिति चेत्; न; द्रव्यविभागाभावत् ।।६।।<br> | ||
= एक द्रव्य यद्यपि अविभागी है वह घटकी तरह संयुक्त द्रव्य नहीं है। फिर भी उसमें प्रवेश वास्तविक हैं उपचारसे नहीं। घरके द्वारा जो आकाशका क्षेत्र अवगाहित किया जाता है वह पटादिके द्वारा नहीं। दोनों जुदे-जुदे हैं। यदि प्रदेश भिन्नता न होती तो वह सर्वव्यापी नहीं हो सकता था। अतः द्रव्य अविभागी होकर भी प्रदेशशून्य नहीं हैं। अनेक प्रदेशी होते हुए भी द्रव्यरूपसे उन प्रदेशोंके विभाग न होनेके कारण निरवयव और अखण्ड द्रव्य माननेमें कोई बाधा नहीं है। | <p class="HindiSentence">= एक द्रव्य यद्यपि अविभागी है वह घटकी तरह संयुक्त द्रव्य नहीं है। फिर भी उसमें प्रवेश वास्तविक हैं उपचारसे नहीं। घरके द्वारा जो आकाशका क्षेत्र अवगाहित किया जाता है वह पटादिके द्वारा नहीं। दोनों जुदे-जुदे हैं। यदि प्रदेश भिन्नता न होती तो वह सर्वव्यापी नहीं हो सकता था। अतः द्रव्य अविभागी होकर भी प्रदेशशून्य नहीं हैं। अनेक प्रदेशी होते हुए भी द्रव्यरूपसे उन प्रदेशोंके विभाग न होनेके कारण निरवयव और अखण्ड द्रव्य माननेमें कोई बाधा नहीं है।</p> | ||
[[प्रवचनसार]] / [[ प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका | तत्त्वप्रदीपिका ]] / गाथा संख्या १४०/१९८ अस्ति चाविभागैकद्रव्यत्वेऽप्यंशकल्पनमाकाशस्य, सर्वेषामणुनामवकाशदानस्यान्यथानुपपत्तेः। यदि पुनराकाशस्यांशा न स्युरिति मतिस्तदाङ्गुलीयलं नभसि प्रसार्य निरूप्यतां किमेकं क्षेत्रं किमनेकम्।। | [[प्रवचनसार]] / [[ प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका | तत्त्वप्रदीपिका ]] / गाथा संख्या १४०/१९८ अस्ति चाविभागैकद्रव्यत्वेऽप्यंशकल्पनमाकाशस्य, सर्वेषामणुनामवकाशदानस्यान्यथानुपपत्तेः। यदि पुनराकाशस्यांशा न स्युरिति मतिस्तदाङ्गुलीयलं नभसि प्रसार्य निरूप्यतां किमेकं क्षेत्रं किमनेकम्।।<br> | ||
= आकाश अविभाग (अखण्ड) एक द्रव्य है। फिर भी उसमें (प्रदेश रूप) खण्ड कल्पना हो सकती है, क्योंकि यदि, ऐसा न हो तो सब परमाणुओंको अवकाश देना नहीं बनेगा। ऐसा होनेपर भी, यदि आकाशके अंश नहीं होते (अर्थात् अंश कल्पना नहीं की जाती) ऐसी मान्यता हो तो आकाशमें दो अँगुलिया फैलाकर बताइये कि दो अंगुलियोंका एक क्षेत्र है या अनेक? (अर्थात् यह दो अंगुल आकाश है यह व्यवहार तभी बनेगा जबकि अखण्ड द्रव्यमें खण्ड कल्पना स्वीकार की जाये।) | <p class="HindiSentence">= आकाश अविभाग (अखण्ड) एक द्रव्य है। फिर भी उसमें (प्रदेश रूप) खण्ड कल्पना हो सकती है, क्योंकि यदि, ऐसा न हो तो सब परमाणुओंको अवकाश देना नहीं बनेगा। ऐसा होनेपर भी, यदि आकाशके अंश नहीं होते (अर्थात् अंश कल्पना नहीं की जाती) ऐसी मान्यता हो तो आकाशमें दो अँगुलिया फैलाकर बताइये कि दो अंगुलियोंका एक क्षेत्र है या अनेक? (अर्थात् यह दो अंगुल आकाश है यह व्यवहार तभी बनेगा जबकि अखण्ड द्रव्यमें खण्ड कल्पना स्वीकार की जाये।)</p> | ||
[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या २७/७५ निर्विभागद्रव्यस्यापि विभागकल्पनमायातं घटाकाशपटाकाशमित्यादिवदिति। | [[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या २७/७५ निर्विभागद्रव्यस्यापि विभागकल्पनमायातं घटाकाशपटाकाशमित्यादिवदिति। <br> | ||
= घटाकाश व पटाकाशकी तरह विभाग रहित आकाश द्रव्यकी भी विभाग कल्पना सिद्ध हुई। | <p class="HindiSentence">= घटाकाश व पटाकाशकी तरह विभाग रहित आकाश द्रव्यकी भी विभाग कल्पना सिद्ध हुई। </p> | ||
([[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[ पंचास्तिकाय संग्रह तत्त्वप्रदीपिका | तत्त्वप्रदीपिका]] / गाथा संख्या ५/१५) | ([[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[ पंचास्तिकाय संग्रह तत्त्वप्रदीपिका | तत्त्वप्रदीपिका]] / गाथा संख्या ५/१५)<br> | ||
<OL start=7 class="HindiNumberList"> <LI> लोकाकाश व अलोकाकाशकी सिद्धि </LI> </OL> | |||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१८/१०-१३/४६७/२४ अजातत्वादभाव इति चेत् न; असिद्धेः ।।१०।। ...द्रव्यार्थिकगुणभावे पर्यायार्थिकप्रधान्यात् स्वप्रत्ययागुरुलघुगुणवृद्धिहानिविकल्पापेक्षया अवगाहकजीवपुद्गलपरप्रत्ययावगाहभेदविवक्षया च आकाशस्य जातत्वोपपत्तेः हेतोरसिद्धः। अथवा, व्ययोत्पादौ आकाशस्य दृश्यते। यथा चरमसमयस्यासर्वज्ञस्य सर्वज्ञत्वेनोत्यादस्तथोपलब्धेः असर्वज्ञत्वेन व्ययस्तथानुपलब्धेः; एवं चरमसमयस्यासर्वज्ञस्य साक्षादनुपलभ्यकाशं सर्वज्ञत्वोपपत्तौ उपलभ्यत इति उपलभ्यत्वेनोत्पन्नमनुपलभ्यत्वेन च विनष्टम्। अनावृत्तिराकाशमिति चेत; न; नामवत् तत्सिद्धेः ।।११।। ...यथा नाम वेदनादि अमूर्तत्वात् अनावृत्यपिसदस्तीत्यभ्युपगम्यते, तथा आकाशमपि वस्तुभूतमित्यवसेयम्। शब्दलिङ्गत्वादिति चेत्; नः पौद्गलिकत्वात् ।।१२।। प्रधान विकार आकाशमिति चेत; नः तत्परिणामाभावात् आत्मावत् ।।१३।। | [[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१८/१०-१३/४६७/२४ अजातत्वादभाव इति चेत् न; असिद्धेः ।।१०।। ...द्रव्यार्थिकगुणभावे पर्यायार्थिकप्रधान्यात् स्वप्रत्ययागुरुलघुगुणवृद्धिहानिविकल्पापेक्षया अवगाहकजीवपुद्गलपरप्रत्ययावगाहभेदविवक्षया च आकाशस्य जातत्वोपपत्तेः हेतोरसिद्धः। अथवा, व्ययोत्पादौ आकाशस्य दृश्यते। यथा चरमसमयस्यासर्वज्ञस्य सर्वज्ञत्वेनोत्यादस्तथोपलब्धेः असर्वज्ञत्वेन व्ययस्तथानुपलब्धेः; एवं चरमसमयस्यासर्वज्ञस्य साक्षादनुपलभ्यकाशं सर्वज्ञत्वोपपत्तौ उपलभ्यत इति उपलभ्यत्वेनोत्पन्नमनुपलभ्यत्वेन च विनष्टम्। अनावृत्तिराकाशमिति चेत; न; नामवत् तत्सिद्धेः ।।११।। ...यथा नाम वेदनादि अमूर्तत्वात् अनावृत्यपिसदस्तीत्यभ्युपगम्यते, तथा आकाशमपि वस्तुभूतमित्यवसेयम्। शब्दलिङ्गत्वादिति चेत्; नः पौद्गलिकत्वात् ।।१२।। प्रधान विकार आकाशमिति चेत; नः तत्परिणामाभावात् आत्मावत् ।।१३।।<br> | ||
= प्रश्न - आकाश उत्पन्न नहीं हुआ इसलिए उसका अभाव है? उत्तर - आकाशको अनुत्पन्न कहना असिद्ध है। क्योंकि द्रव्यार्थिककी गौणता और पर्यायार्थिककी मुख्यता होनेपर अगुरुलघु गुणोंकी वृद्धि और हानिके निमित्तसे स्वप्रत्यय उत्पाद व्यय और अवगाहक जीव पुद्गलोंके परिणमनके अनुसार परप्रत्यय उत्पाद व्यय आकाशमें होते ही रहते हैं। जैसे-कि अन्तिम समयमें सर्वज्ञताकी विनाश होकर किसी मनुष्यको सर्वज्ञता उत्पन्न हुई हो ता आकाश पहले अनुपलभ्य था वही पीछे सर्वज्ञको उपलभ्य हो गया। अतः आकाशभी अनुपलभ्यत्वेन विनष्ट होकर उपलभ्यत्वेन उत्पन्न हुआ ।।१०।। प्रश्न - आकाश आवरणाभाव मात्र है? उत्तर - नहीं किन्तु वस्तुभूत है। जेसे कि नाम और वेदनादि अमूर्त होनेसे अनावरणरूप होकर भी सत् हैं, उसी तरह आकाश भी ।।११।। प्रश्न - अवकाश देना यह आकाशका लक्षण नहीं हैं? क्योंकि उसका लक्षण शब्द है। उत्तर - ऐसा नहीं है क्योंकि शब्द पौद्गलिक है और आकाश अमूर्तिक। प्रश्न - आकाश तो प्रधानका विकार है? उत्तर - नहीं क्योंकि नित्य तथा निष्क्रिय व अनन्त रूप प्रधानके आत्माकी भान्ति विकार ही नहीं हो सकता। | <p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - आकाश उत्पन्न नहीं हुआ इसलिए उसका अभाव है? <br> <b>उत्तर</b> - आकाशको अनुत्पन्न कहना असिद्ध है। क्योंकि द्रव्यार्थिककी गौणता और पर्यायार्थिककी मुख्यता होनेपर अगुरुलघु गुणोंकी वृद्धि और हानिके निमित्तसे स्वप्रत्यय उत्पाद व्यय और अवगाहक जीव पुद्गलोंके परिणमनके अनुसार परप्रत्यय उत्पाद व्यय आकाशमें होते ही रहते हैं। जैसे-कि अन्तिम समयमें सर्वज्ञताकी विनाश होकर किसी मनुष्यको सर्वज्ञता उत्पन्न हुई हो ता आकाश पहले अनुपलभ्य था वही पीछे सर्वज्ञको उपलभ्य हो गया। अतः आकाशभी अनुपलभ्यत्वेन विनष्ट होकर उपलभ्यत्वेन उत्पन्न हुआ ।।१०।। <br> <b>प्रश्न</b> - आकाश आवरणाभाव मात्र है? <br> <b>उत्तर</b> - नहीं किन्तु वस्तुभूत है। जेसे कि नाम और वेदनादि अमूर्त होनेसे अनावरणरूप होकर भी सत् हैं, उसी तरह आकाश भी ।।११।। <br> <b>प्रश्न</b> - अवकाश देना यह आकाशका लक्षण नहीं हैं? क्योंकि उसका लक्षण शब्द है। <br> <b>उत्तर</b> - ऐसा नहीं है क्योंकि शब्द पौद्गलिक है और आकाश अमूर्तिक। <br> <b>प्रश्न</b> - आकाश तो प्रधानका विकार है? <br> <b>उत्तर</b> - नहीं क्योंकि नित्य तथा निष्क्रिय व अनन्त रूप प्रधानके आत्माकी भान्ति विकार ही नहीं हो सकता।</p> | ||
(विशेष दे.[[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या १/परि...पृ. १६६/शोलापुर वाले पं. बंशीधर) । | (विशेष दे.[[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या १/परि...पृ. १६६/शोलापुर वाले पं. बंशीधर) ।<br> | ||
[[पंचाध्यायी]] / उत्तरार्ध श्लोक संख्या २३ सोऽप्यलोको न शून्योऽस्ति षड्भिर्द्रव्यैरशेषतः। व्योममात्रवशेषत्वाद् व्योमात्मा केवलं भवेत् ।।२३।। | [[पंचाध्यायी]] / उत्तरार्ध श्लोक संख्या २३ सोऽप्यलोको न शून्योऽस्ति षड्भिर्द्रव्यैरशेषतः। व्योममात्रवशेषत्वाद् व्योमात्मा केवलं भवेत् ।।२३।।<br> | ||
= वह अलोक भी सम्पूर्ण छहों द्रव्योंसे शून्य नहीं है किन्तु आकाश मात्र शेष रहनेसे वह अन्य पाँच द्रव्यों से रहित केवल आकाशमय है। | <p class="HindiSentence">= वह अलोक भी सम्पूर्ण छहों द्रव्योंसे शून्य नहीं है किन्तु आकाश मात्र शेष रहनेसे वह अन्य पाँच द्रव्यों से रहित केवल आकाशमय है।</p> | ||
<OL start=3 class="HindiNumberList"> <LI> अवगाहना सम्बन्धी विषय </LI> </OL> | |||
<OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> सर्वावगाहना गुण आकासमें ही है अन्य द्रव्यमें नहीं तथा हेतु </LI> </OL> | |||
प्र.सा/त.प्र./१३३ विशेषगुणो हि युगपत्सर्वद्रव्याणां साधारणावगाहहेतुत्वमाकाशस्य...एवममूर्तानां विशेषगुणसंक्षेपाधिगमे लिङ्गम्। तत्रैककालमेव सकलद्रव्यसाधारणावगाहसंपादनमसर्वगतत्वादेव शेषद्रव्यणामसम्भवदाकाशमधिगमयति। | प्र.सा/त.प्र./१३३ विशेषगुणो हि युगपत्सर्वद्रव्याणां साधारणावगाहहेतुत्वमाकाशस्य...एवममूर्तानां विशेषगुणसंक्षेपाधिगमे लिङ्गम्। तत्रैककालमेव सकलद्रव्यसाधारणावगाहसंपादनमसर्वगतत्वादेव शेषद्रव्यणामसम्भवदाकाशमधिगमयति।<br> | ||
= युगपत् सर्वद्रव्योंके साधारण अवगाहका हेतुत्व आकाशका विशेषगुण है।...इस प्रकार अमूर्त द्रव्योंके विशेष गुणोंका ज्ञान होनेपर अमूर्त द्रव्योंको जाननेके लिए लिंग प्राप्त होते हैं। (अर्थात् विशेष गुणोंके द्वारा अमूर्त द्रव्योंका ज्ञान होता है)..वहाँ एक ही कालमें समस्त द्रव्योंके साधारण अवगाहका संपादन (अवगाह हेतुत्व रूप लिंग) आकाशको बतलाता है, क्योंकि शेष द्रव्योंके सर्वगत न होनेसे उनके यह सम्भव नहीं है। | <p class="HindiSentence">= युगपत् सर्वद्रव्योंके साधारण अवगाहका हेतुत्व आकाशका विशेषगुण है।...इस प्रकार अमूर्त द्रव्योंके विशेष गुणोंका ज्ञान होनेपर अमूर्त द्रव्योंको जाननेके लिए लिंग प्राप्त होते हैं। (अर्थात् विशेष गुणोंके द्वारा अमूर्त द्रव्योंका ज्ञान होता है)..वहाँ एक ही कालमें समस्त द्रव्योंके साधारण अवगाहका संपादन (अवगाह हेतुत्व रूप लिंग) आकाशको बतलाता है, क्योंकि शेष द्रव्योंके सर्वगत न होनेसे उनके यह सम्भव नहीं है।</p> | ||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> लोकाकाशमें अवगाहना गुणका माहात्म्य </LI> </OL> | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,३,२/२४/२ तम्हा ओगहणलक्खणेण सिद्धलोगागासस्स ओगाहणमाहप्पमाइरियपरंपरागदोवदेसेण भणिस्सामो। तं जहा-उस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते खेत्ते सुहुमणिगोदजीवस्स जहण्णोगाहणा भवदि। तम्हि ट्ठिदघणलोगमेत्तजीवपदेसेसु पडिपदेसमभव सिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता होदूण ट्ठिदओरालियशरीरपरमाणूणं तं चेव खेत्तभोगासं जादि। पुणो आरालियसरीरपरमाणूहिंतो अणंतगुणाणं तेजइयसरीरपरमाणूणं पि तम्हि चेव खेत्ते आगोहणा भवदि।...तेजइयपरमाणूहिंतो अणंतगुणा कम्मइपरमाणू तेणेव जीवेण मिच्छत्तादिकारणेहिं संचिदापडिपदेसमभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता तत्थ भवंति, तेसिं पि तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। पुणो ओरालिय-तेजा-कम्मइय-विस्ससोवचयाणं पदिक्कं सव्वजीवेहि अणंतगुणाणं पडिपरमाणुम्हि तत्तियमेत्ताणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। एवमेगजीवेणच्छिदअंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते जहण्णखेत्तम्हि समाणोगाहणा होदूण विदिओ जीवो तत्थेव अच्छदि। एवमणंताणंताणं समाणोगाहणाणं जीवाणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। तदो अवरो जीवो तम्हि चेव मज्झिमपदेसमंतिमं काऊण उवव्वणो। एदस्स वि ओगाहणाए अणंताणंत जीवा समाणोगाहणा अच्छंति त्ति पुव्वं व परूवेदव्वं। एवमेगेपदेसा सव्वदिसासु वड्ढोवेदव्वा जाव लोगो आवुण्णो त्ति। | [[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,३,२/२४/२ तम्हा ओगहणलक्खणेण सिद्धलोगागासस्स ओगाहणमाहप्पमाइरियपरंपरागदोवदेसेण भणिस्सामो। तं जहा-उस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते खेत्ते सुहुमणिगोदजीवस्स जहण्णोगाहणा भवदि। तम्हि ट्ठिदघणलोगमेत्तजीवपदेसेसु पडिपदेसमभव सिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता होदूण ट्ठिदओरालियशरीरपरमाणूणं तं चेव खेत्तभोगासं जादि। पुणो आरालियसरीरपरमाणूहिंतो अणंतगुणाणं तेजइयसरीरपरमाणूणं पि तम्हि चेव खेत्ते आगोहणा भवदि।...तेजइयपरमाणूहिंतो अणंतगुणा कम्मइपरमाणू तेणेव जीवेण मिच्छत्तादिकारणेहिं संचिदापडिपदेसमभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता तत्थ भवंति, तेसिं पि तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। पुणो ओरालिय-तेजा-कम्मइय-विस्ससोवचयाणं पदिक्कं सव्वजीवेहि अणंतगुणाणं पडिपरमाणुम्हि तत्तियमेत्ताणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। एवमेगजीवेणच्छिदअंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते जहण्णखेत्तम्हि समाणोगाहणा होदूण विदिओ जीवो तत्थेव अच्छदि। एवमणंताणंताणं समाणोगाहणाणं जीवाणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। तदो अवरो जीवो तम्हि चेव मज्झिमपदेसमंतिमं काऊण उवव्वणो। एदस्स वि ओगाहणाए अणंताणंत जीवा समाणोगाहणा अच्छंति त्ति पुव्वं व परूवेदव्वं। एवमेगेपदेसा सव्वदिसासु वड्ढोवेदव्वा जाव लोगो आवुण्णो त्ति।<br> | ||
= अब हम अवगाहण लक्षणसे प्रसिद्ध लोकाकाशके अवगाहन माहात्म्यको आचार्य परम्परागत उपदेशके अनुसार कहते हैं। वह इस प्रकार है-उत्सेधांगुलके अअंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रमें सूक्ष्म निगोदिया जीवकी जघन्य आवगाहना है। उस क्षेत्रमें स्थित घनलोक मात्र जीवके प्रेदेशमें-से प्रत्येक प्रदेशपर अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र होकरके स्थित औदारिक शरीरके परमाणुओंका वही क्षेत्र अवकाशपनेको प्राप्त होता है। पुनः औदारिक शरीरके परमाणुओंसे अनन्तगुणे तेजस्कशरीरके परमाणुओंकी भी उसी क्षेत्रमें अवगाहना होती है। तैजस परमाणुओंसे अनन्तगुणे उस ही जीवके द्वारा मिथ्यात्व अविरति आदि कारणोंसे संचित और प्रत्येक प्रदेशपर अभव्य सिद्धोंसे अनन्तगुणे तथा सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र कर्म परमाणु उस क्षेत्रमें रहते है। इसलिए उन कर्म परमाणुओंकी भी उस ही क्षेत्रमें अवगाहना होती है। पुनः औदारिक शरीर, तैजस शरीर और कार्माण शरीरके विस्रसोपचयोंका जो कि प्रत्येक सर्वजीवोंसे अनुन्तगुणे हैं और प्रत्येक परमाणुपर उतने ही प्रमाण है। उसकी भी उसी ही क्षेत्रमें अवगाहना होती है। इस प्रकार एक जीवसे व्याप्त अंगुलके असंख्यात्वे भागमात्र उसी जघन्य क्षेत्रमें समान अवगाहना वाला होकरके दूसरा जीव भी रहता है। इसी प्रकार समान अवगाहना वाले अनन्तानन्त जीवोंकी उसी ही क्षेत्रमें अवाहना होती है। तत्पश्चात् दूसरा कोई जीव उसी क्षेत्रमें उसके मध्यवर्ती प्रदेशको अपनी अवगाहना का अन्तिम प्रदेश करके उत्पन्न हुआ। इस जीवकी भी अवगाहनामें समान अवगाहनावाले अनन्तानन्त जीव रहते हैं। इस प्रकार यहाँ भी पूर्व के समान प्ररुपणा करनी चाहिए। इस प्रकार लोकके परिपूर्ण होने तक सभी दिशाओंमें लोकका एक एक प्रदेश बढ़ाते जाना चाहिए। | <p class="HindiSentence">= अब हम अवगाहण लक्षणसे प्रसिद्ध लोकाकाशके अवगाहन माहात्म्यको आचार्य परम्परागत उपदेशके अनुसार कहते हैं। वह इस प्रकार है-उत्सेधांगुलके अअंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रमें सूक्ष्म निगोदिया जीवकी जघन्य आवगाहना है। उस क्षेत्रमें स्थित घनलोक मात्र जीवके प्रेदेशमें-से प्रत्येक प्रदेशपर अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र होकरके स्थित औदारिक शरीरके परमाणुओंका वही क्षेत्र अवकाशपनेको प्राप्त होता है। पुनः औदारिक शरीरके परमाणुओंसे अनन्तगुणे तेजस्कशरीरके परमाणुओंकी भी उसी क्षेत्रमें अवगाहना होती है। तैजस परमाणुओंसे अनन्तगुणे उस ही जीवके द्वारा मिथ्यात्व अविरति आदि कारणोंसे संचित और प्रत्येक प्रदेशपर अभव्य सिद्धोंसे अनन्तगुणे तथा सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र कर्म परमाणु उस क्षेत्रमें रहते है। इसलिए उन कर्म परमाणुओंकी भी उस ही क्षेत्रमें अवगाहना होती है। पुनः औदारिक शरीर, तैजस शरीर और कार्माण शरीरके विस्रसोपचयोंका जो कि प्रत्येक सर्वजीवोंसे अनुन्तगुणे हैं और प्रत्येक परमाणुपर उतने ही प्रमाण है। उसकी भी उसी ही क्षेत्रमें अवगाहना होती है। इस प्रकार एक जीवसे व्याप्त अंगुलके असंख्यात्वे भागमात्र उसी जघन्य क्षेत्रमें समान अवगाहना वाला होकरके दूसरा जीव भी रहता है। इसी प्रकार समान अवगाहना वाले अनन्तानन्त जीवोंकी उसी ही क्षेत्रमें अवाहना होती है। तत्पश्चात् दूसरा कोई जीव उसी क्षेत्रमें उसके मध्यवर्ती प्रदेशको अपनी अवगाहना का अन्तिम प्रदेश करके उत्पन्न हुआ। इस जीवकी भी अवगाहनामें समान अवगाहनावाले अनन्तानन्त जीव रहते हैं। इस प्रकार यहाँ भी पूर्व के समान प्ररुपणा करनी चाहिए। इस प्रकार लोकके परिपूर्ण होने तक सभी दिशाओंमें लोकका एक एक प्रदेश बढ़ाते जाना चाहिए।</p> | ||
३. लोक/असं.प्रदेशोंपर एकानेक जीवोंकी अवस्थान विधि | ३. लोक/असं.प्रदेशोंपर एकानेक जीवोंकी अवस्थान विधि<br> | ||
[[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ५/१५ (लोकाकाशस्य) असंख्येयभागादिषु जीवनाम् (अवगाहः)। | [[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ५/१५ (लोकाकाशस्य) असंख्येयभागादिषु जीवनाम् (अवगाहः)।<br> | ||
= जीवोंका अवगाह लोकाकाशके असंख्यातवें भागको आदि लेकर सर्वलोक पर्यन्त होता है। | <p class="HindiSentence">= जीवोंका अवगाह लोकाकाशके असंख्यातवें भागको आदि लेकर सर्वलोक पर्यन्त होता है।</p> | ||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१५/३-४/४५७/३१ लोकस्य प्रदेशाः असंख्येया भागाः कृताः, तत्रैकस्मिन्नसंख्येयभागे एको जीवोऽवतिष्ठते। तथा द्वित्रिचतुरादिष्वपि असंख्येयभागेषु आ सर्वलोकादगाहः प्रत्येतव्यः। नानाजीवानाम् तु सर्वलोक एव।...असंख्येस्याऽसंख्येयविकल्पत्वात्। अजघन्योत्कृष्टासंख्येयस्या हि असंख्येय विकल्पाः अतोऽवगाहविकल्पो जीवानां सिद्धः। | [[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१५/३-४/४५७/३१ लोकस्य प्रदेशाः असंख्येया भागाः कृताः, तत्रैकस्मिन्नसंख्येयभागे एको जीवोऽवतिष्ठते। तथा द्वित्रिचतुरादिष्वपि असंख्येयभागेषु आ सर्वलोकादगाहः प्रत्येतव्यः। नानाजीवानाम् तु सर्वलोक एव।...असंख्येस्याऽसंख्येयविकल्पत्वात्। अजघन्योत्कृष्टासंख्येयस्या हि असंख्येय विकल्पाः अतोऽवगाहविकल्पो जीवानां सिद्धः।<br> | ||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/८/४/४४९/३३ जीवः तावत्प्रदेशोऽपि संहरणविसर्पणस्वभावत्वात् कर्मनिर्वर्तितं शरीरमणु महाद्वा अधितिष्ठंस्तावदवगाह्य वर्तते। यदा तु लोकपूरणं भवति तदा मन्दरस्याधश्चित्रवज्रपटलयोर्मध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशाः व्यवतिष्ठन्ते, इतरे प्रदेशाः ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते। | [[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/८/४/४४९/३३ जीवः तावत्प्रदेशोऽपि संहरणविसर्पणस्वभावत्वात् कर्मनिर्वर्तितं शरीरमणु महाद्वा अधितिष्ठंस्तावदवगाह्य वर्तते। यदा तु लोकपूरणं भवति तदा मन्दरस्याधश्चित्रवज्रपटलयोर्मध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशाः व्यवतिष्ठन्ते, इतरे प्रदेशाः ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते।<br> | ||
= लोकके असंख्यात प्रदेश हैं, उनके असंख्यात भाग किये जायें। एक असंख्येय भागोंमें भी जीव रहता है तथा दो तीन चार आदि असंख्येय भागोंमें और सम्पूर्ण लोकमें जीवोंका अवगाह समझना चाहिए। नाना जीवोंकी अवगाह तो सर्व लोक है। असंख्यातके भी असंख्यात विकल्प हैं। और अजघन्योस्कृष्ट असंख्येयके असंख्येय विकल्प हैं। अतः जीवोंके अवगाहमें भेद भी हो जाता है। तथा जीवके असंख्यातप्रदेशी होनेपर भी संकोचविस्तार शील होनेसे कर्मके अनुसार प्राप्त छोटे या बड़े शरीरमें तत्प्रमाण होकर रहता है जब इसकी समुद्घात कालमें लोकपूरण अवस्था होती है तब इसके मध्यवर्ती आठ प्रदेश सुमेरु पर्वतके नीचे चित्र और वज्रपटलके मध्यके आठ प्रदेशोंपर स्थित हो जाते हैं, बाकी प्रदेश ऊपर नीचे चारों ओर फैल जाते है। | <p class="HindiSentence">= लोकके असंख्यात प्रदेश हैं, उनके असंख्यात भाग किये जायें। एक असंख्येय भागोंमें भी जीव रहता है तथा दो तीन चार आदि असंख्येय भागोंमें और सम्पूर्ण लोकमें जीवोंका अवगाह समझना चाहिए। नाना जीवोंकी अवगाह तो सर्व लोक है। असंख्यातके भी असंख्यात विकल्प हैं। और अजघन्योस्कृष्ट असंख्येयके असंख्येय विकल्प हैं। अतः जीवोंके अवगाहमें भेद भी हो जाता है। तथा जीवके असंख्यातप्रदेशी होनेपर भी संकोचविस्तार शील होनेसे कर्मके अनुसार प्राप्त छोटे या बड़े शरीरमें तत्प्रमाण होकर रहता है जब इसकी समुद्घात कालमें लोकपूरण अवस्था होती है तब इसके मध्यवर्ती आठ प्रदेश सुमेरु पर्वतके नीचे चित्र और वज्रपटलके मध्यके आठ प्रदेशोंपर स्थित हो जाते हैं, बाकी प्रदेश ऊपर नीचे चारों ओर फैल जाते है।</p> | ||
<OL start=4 class="HindiNumberList"> <LI> अवगाहना गुणों की सिद्धि </LI> </OL> | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५।१८/२८४ यद्यवकाशदानमस्य स्वभावो वज्रादिभिर्लोष्टदीनां भित्त्यादिभिर्गवादीनां च व्याघातो न प्राप्नोति। दृश्यते च व्याघातः। तस्मादस्यावकाशदानं हीयते इति। नैष दोषः, वज्रलोष्टादीनां स्थूलनांपरस्पर व्याघात इति नास्यावकाशदानसामर्थ्य हीयते तत्रावगाहिनामेवव्याघातात्। वज्रादयः पुनः स्थूलत्वात्परस्परं प्रत्यवकाशदानं न कुर्वन्तीति नासावाकाशदोषः ये खलु पुद्गलाः सूक्ष्मास्ते परस्परं प्रत्यवकाशादानं कुर्वन्ति। यद्येवं नेदमाकाशस्यासाधारणं लक्षणम्; इतरेषामपि तत्सद्भावादिति। तन्न; सर्वपदार्थोनां साधारणावगाहनहेतुत्वमस्यासाधारणं लक्षणमिति नास्ति दोषः। अलोकाकाशे तद्भावादभाव इति चेत्; न; स्वाभावापरित्यागात्। | [[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५।१८/२८४ यद्यवकाशदानमस्य स्वभावो वज्रादिभिर्लोष्टदीनां भित्त्यादिभिर्गवादीनां च व्याघातो न प्राप्नोति। दृश्यते च व्याघातः। तस्मादस्यावकाशदानं हीयते इति। नैष दोषः, वज्रलोष्टादीनां स्थूलनांपरस्पर व्याघात इति नास्यावकाशदानसामर्थ्य हीयते तत्रावगाहिनामेवव्याघातात्। वज्रादयः पुनः स्थूलत्वात्परस्परं प्रत्यवकाशदानं न कुर्वन्तीति नासावाकाशदोषः ये खलु पुद्गलाः सूक्ष्मास्ते परस्परं प्रत्यवकाशादानं कुर्वन्ति। यद्येवं नेदमाकाशस्यासाधारणं लक्षणम्; इतरेषामपि तत्सद्भावादिति। तन्न; सर्वपदार्थोनां साधारणावगाहनहेतुत्वमस्यासाधारणं लक्षणमिति नास्ति दोषः। अलोकाकाशे तद्भावादभाव इति चेत्; न; स्वाभावापरित्यागात्।<br> | ||
= प्रश्न - यदि अवकाश देना अवकाशका स्वभाव है तो वज्रादिकसे लोढा आदिका और भीत आदिसे गायका व्याघात नहीं प्राप्त होता, किन्तु व्याघात तो देखा जाता है इससे मालूम होता है कि अवकाश देना अवकाश का स्वभाव नहीं ठहरता है? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है क्योंकि वज्र और लोढा आदिक स्थूल पदार्थ हैं इसलिए इनका आपसमें व्याघात है, अतः आकाशकी अवगाह देने रूप सामर्थ्य नहीं नष्ट होती। यहाँ जो व्याघात दिखाई देता है वह अवगाहन करनेवाले पदार्थोंका ही है। तात्पर्य यह है कि वज्रादित स्थूल पदार्थ हैं, इसलिए वे परस्पर में अवकाश नहीं देते हैं यह कुछ आकाशका दोष नहीं है। हाँ जो पुद्गल सूक्ष्म होते हैं वे परस्पर अवकाश देते हैं। प्रश्न - यदि ऐसा है तो यह आकाशका असाधारण लक्षण नहीं रहता, क्योंकि दूरसे पदार्थोमें भी इसका सद्भाव पाया जाता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि आकाश द्रव्य सब पदार्थोंको अवकाश देनेमें साधारण कारण है यही इसका असाधारण लक्षण है, इसलिए कोई दोष नहीं है। प्रश्न - अलोककाशमें अवकाश देने रूप स्वभाव नहीं पाया जाता, इससे ज्ञात होता है कि यह आकाशका स्वभाव नहीं है? उत्तर - नहीं, क्योंकि कोई भी द्रव्य अपने स्वभावका त्याग नहीं करता। | <p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - यदि अवकाश देना अवकाशका स्वभाव है तो वज्रादिकसे लोढा आदिका और भीत आदिसे गायका व्याघात नहीं प्राप्त होता, किन्तु व्याघात तो देखा जाता है इससे मालूम होता है कि अवकाश देना अवकाश का स्वभाव नहीं ठहरता है? <br> <b>उत्तर</b> - यह कोई दोष नहीं है क्योंकि वज्र और लोढा आदिक स्थूल पदार्थ हैं इसलिए इनका आपसमें व्याघात है, अतः आकाशकी अवगाह देने रूप सामर्थ्य नहीं नष्ट होती। यहाँ जो व्याघात दिखाई देता है वह अवगाहन करनेवाले पदार्थोंका ही है। तात्पर्य यह है कि वज्रादित स्थूल पदार्थ हैं, इसलिए वे परस्पर में अवकाश नहीं देते हैं यह कुछ आकाशका दोष नहीं है। हाँ जो पुद्गल सूक्ष्म होते हैं वे परस्पर अवकाश देते हैं। <br> <b>प्रश्न</b> - यदि ऐसा है तो यह आकाशका असाधारण लक्षण नहीं रहता, क्योंकि दूरसे पदार्थोमें भी इसका सद्भाव पाया जाता है? <br> <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि आकाश द्रव्य सब पदार्थोंको अवकाश देनेमें साधारण कारण है यही इसका असाधारण लक्षण है, इसलिए कोई दोष नहीं है। <br> <b>प्रश्न</b> - अलोककाशमें अवकाश देने रूप स्वभाव नहीं पाया जाता, इससे ज्ञात होता है कि यह आकाशका स्वभाव नहीं है? <br> <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि कोई भी द्रव्य अपने स्वभावका त्याग नहीं करता।</p> | ||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१/२३/४३४/६ अलोकाकाशस्यावकाशदानाभावात्तदभाव इति चेत्; न; तत्सामर्थ्याविरहात् ।।२३।। ...क्रियानिमित्तत्वेऽपि रूढिविशेषबललाभात् गोशब्दवत् तदभावेऽपि प्रवर्तते | [[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१/२३/४३४/६ अलोकाकाशस्यावकाशदानाभावात्तदभाव इति चेत्; न; तत्सामर्थ्याविरहात् ।।२३।। ...क्रियानिमित्तत्वेऽपि रूढिविशेषबललाभात् गोशब्दवत् तदभावेऽपि प्रवर्तते<br> | ||
= प्रश्न - अलोकाकाशमें द्रव्योंका अवगाहन न होनेसे यह उसका स्वभाव गटित नहीं होता? उत्तर - शक्तिकी दृष्टिसे उसमें भी आकाशका व्यवहार होता है। क्रियाका निमित्तपना होनेपर भी रूढि विशेषके बलसे भी अलोकाकाशको आकाश संज्ञा प्राप्त हो जाती है, जिस प्रकार बैठी हुई गऊमें चलन क्रियाका अभाव होनेपर भी चलन शक्तिके कारण गौ शब्दकी प्रवृत्ति देखी जाती है। | <p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - अलोकाकाशमें द्रव्योंका अवगाहन न होनेसे यह उसका स्वभाव गटित नहीं होता? <br> <b>उत्तर</b> - शक्तिकी दृष्टिसे उसमें भी आकाशका व्यवहार होता है। क्रियाका निमित्तपना होनेपर भी रूढि विशेषके बलसे भी अलोकाकाशको आकाश संज्ञा प्राप्त हो जाती है, जिस प्रकार बैठी हुई गऊमें चलन क्रियाका अभाव होनेपर भी चलन शक्तिके कारण गौ शब्दकी प्रवृत्ति देखी जाती है।</p> | ||
[[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या ६०५/१०६०/५ ननु क्रियावतोरवगाहिजीवपुद्गलयोरेवावकाशदानं युक्तं धर्मादीनां तु निष्क्रियाणां नित्यसंबद्धानां तत् कथम्? इति तन्न उपचारेण तत्सिद्धेः। यथा गमानाभावेऽपि सर्वगतामाकाशमित्युच्यते सर्वत्र सद्भवात् तथा धर्मादीनां अवगाहनक्रियाया अभावेऽपि सर्वत्र दर्शनात् अवगाह इत्युपचर्यते। | [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या ६०५/१०६०/५ ननु क्रियावतोरवगाहिजीवपुद्गलयोरेवावकाशदानं युक्तं धर्मादीनां तु निष्क्रियाणां नित्यसंबद्धानां तत् कथम्? इति तन्न उपचारेण तत्सिद्धेः। यथा गमानाभावेऽपि सर्वगतामाकाशमित्युच्यते सर्वत्र सद्भवात् तथा धर्मादीनां अवगाहनक्रियाया अभावेऽपि सर्वत्र दर्शनात् अवगाह इत्युपचर्यते।<br> | ||
= प्रश्न - जो अवगाह क्रियावान तौ जीव पुद्गल हैं तिनिको अवकाश देना युक्त कहा। बहुरि धर्मादिक द्रव्य तो निष्क्रिय हैं, नित्य सम्बन्धको धरैं हैं नवीन नाहीं आये जिनको अवकाश देनासम्भवै। ऐसे इहाँ कैसे कहिये सो कहौ? उत्तर - जो उपचार करि कहिये हैं जैसे गमनका अभाव होते संतै भी सर्वत्र सद्भावकी अपेक्षा आकाशको सर्वगत कहिये तैसे धर्मादि द्रव्यनिकैं अवगाह क्रियाका अभाव होते संतै भी लोक विषै सर्वत्र सद्भावकी अपेक्षा अवगाहनका उपचार कीजिये है। | <p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - जो अवगाह क्रियावान तौ जीव पुद्गल हैं तिनिको अवकाश देना युक्त कहा। बहुरि धर्मादिक द्रव्य तो निष्क्रिय हैं, नित्य सम्बन्धको धरैं हैं नवीन नाहीं आये जिनको अवकाश देनासम्भवै। ऐसे इहाँ कैसे कहिये सो कहौ? <br> <b>उत्तर</b> - जो उपचार करि कहिये हैं जैसे गमनका अभाव होते संतै भी सर्वत्र सद्भावकी अपेक्षा आकाशको सर्वगत कहिये तैसे धर्मादि द्रव्यनिकैं अवगाह क्रियाका अभाव होते संतै भी लोक विषै सर्वत्र सद्भावकी अपेक्षा अवगाहनका उपचार कीजिये है। </p> | ||
([[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/१८/२८४/३) ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१८/२/४६६/१८)। | ([[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/१८/२८४/३) ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१८/२/४६६/१८)।<br> | ||
<OL start=5 class="HindiNumberList"> <LI> असं. प्रदेशी लोकमें अनन्त द्रव्योंके अवगाहकी सिद्धि </LI> </OL> | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/१०/२७५ स्यादेतदसंख्यातप्रदेशो लोकः अनन्तप्रदेशस्यान्तानन्तप्रदेशस्य च स्कन्धस्याधिकरणमिति विरोधः....नैष दोषः; सूक्ष्मपरिणामावगाहशक्तियोगात्। परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिणता एकै कस्मिन्नप्याकाशप्रदेशेऽनन्तानन्ता अवतिष्ठन्ते अवगाहनशक्तिश्चैषाव्याहतास्ति। तस्मादेकस्मिन्नपि प्रदेशे अनन्तानन्तानामवस्थानं न विरुध्यते। (नायमेकान्तः-अल्पेऽधिकरणे महद्द्व्यं नावतिष्ठते इति....प्रत्यविशेषः संघातविशेषः इत्यर्थः।...संहृतविसर्पितचम्पकादिगन्धादिवत् ६/[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] ) | [[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/१०/२७५ स्यादेतदसंख्यातप्रदेशो लोकः अनन्तप्रदेशस्यान्तानन्तप्रदेशस्य च स्कन्धस्याधिकरणमिति विरोधः....नैष दोषः; सूक्ष्मपरिणामावगाहशक्तियोगात्। परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिणता एकै कस्मिन्नप्याकाशप्रदेशेऽनन्तानन्ता अवतिष्ठन्ते अवगाहनशक्तिश्चैषाव्याहतास्ति। तस्मादेकस्मिन्नपि प्रदेशे अनन्तानन्तानामवस्थानं न विरुध्यते। (नायमेकान्तः-अल्पेऽधिकरणे महद्द्व्यं नावतिष्ठते इति....प्रत्यविशेषः संघातविशेषः इत्यर्थः।...संहृतविसर्पितचम्पकादिगन्धादिवत् ६/[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] )<br> | ||
= प्रश्न - लोक असंख्यात प्रदेशवाला है इसलिए वह अनन्तानन्त प्रदेशवाले स्कन्धका आधार है इस बातके माननेमें विरोध आता है। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सूक्ष्म परिणमन होनेसे और अवगाहन शक्तिके निमित्तसे अनन्त या अनन्तानन्त प्रदेशवाले पुद्गल स्कन्धोंका आकाश आधार हो जाता है। सूक्ष्म रूपसे परिणत हुए परमाणु आकाशके एक-एक प्रदेशमें अनन्तानन्त ठहर जाते हैं। इनकी यह अवगाहन शक्ति व्याघात रहित है। इसलिए आकाशके एक प्रदेशमें भी अनन्तानन्त पुद्गलोंका अवस्थान विरोधको प्राप्त नहीं होंता। फिर यह कोई एकान्तिक नियम नहीं है कि छोटे आधारमें बड़ा द्रव्य ठहर ही नहीं सकता हो। पुद्गलोंमें विशेष प्रकार सघन संघात होनेसे क्षेत्रमें बहुतोंका अवस्थान हो जाता है जैसे कि छोटी-सी चम्पाकी कलीमें सूक्ष्म रूपसे बहुतसे गन्धावयव रहते हैं, पर वे ही जब फैलते हैं तो समस्त दिशाओंको व्याप्त कर लेते हैं। | <p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - लोक असंख्यात प्रदेशवाला है इसलिए वह अनन्तानन्त प्रदेशवाले स्कन्धका आधार है इस बातके माननेमें विरोध आता है। <br> <b>उत्तर</b> - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सूक्ष्म परिणमन होनेसे और अवगाहन शक्तिके निमित्तसे अनन्त या अनन्तानन्त प्रदेशवाले पुद्गल स्कन्धोंका आकाश आधार हो जाता है। सूक्ष्म रूपसे परिणत हुए परमाणु आकाशके एक-एक प्रदेशमें अनन्तानन्त ठहर जाते हैं। इनकी यह अवगाहन शक्ति व्याघात रहित है। इसलिए आकाशके एक प्रदेशमें भी अनन्तानन्त पुद्गलोंका अवस्थान विरोधको प्राप्त नहीं होंता। फिर यह कोई एकान्तिक नियम नहीं है कि छोटे आधारमें बड़ा द्रव्य ठहर ही नहीं सकता हो। पुद्गलोंमें विशेष प्रकार सघन संघात होनेसे क्षेत्रमें बहुतोंका अवस्थान हो जाता है जैसे कि छोटी-सी चम्पाकी कलीमें सूक्ष्म रूपसे बहुतसे गन्धावयव रहते हैं, पर वे ही जब फैलते हैं तो समस्त दिशाओंको व्याप्त कर लेते हैं।</p> | ||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१०/३-६/४५३/१४) | ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१०/३-६/४५३/१४)<br> | ||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/१४/२७९ अवगाहनस्वभावत्वात्सूक्ष्मपरिणामाच्च मूर्तिमतामप्यवगाहो न विरुध्यते एकापवरके अनेकप्रदीपप्रकाशावस्थानवत्। आगमप्रामाण्याच्च तथाऽध्यवसेयम्। | [[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/१४/२७९ अवगाहनस्वभावत्वात्सूक्ष्मपरिणामाच्च मूर्तिमतामप्यवगाहो न विरुध्यते एकापवरके अनेकप्रदीपप्रकाशावस्थानवत्। आगमप्रामाण्याच्च तथाऽध्यवसेयम्।<br> | ||
= (पुद्गलोंका) अवगाहन स्वभाव है और सूक्ष्मरूपसे परिणमन हो जाता है इसलिए एक मकानमें जिस प्रकार अनेक दीपकोंका प्रकाश रह जाता है उसी प्रकार-मूर्तमान पुद्गलोंका एक जगह अवगाह विरोधको प्राप्त नहीं होता तथा आगम प्रमाणसे यह बात जानी जाती है। | <p class="HindiSentence">= (पुद्गलोंका) अवगाहन स्वभाव है और सूक्ष्मरूपसे परिणमन हो जाता है इसलिए एक मकानमें जिस प्रकार अनेक दीपकोंका प्रकाश रह जाता है उसी प्रकार-मूर्तमान पुद्गलोंका एक जगह अवगाह विरोधको प्राप्त नहीं होता तथा आगम प्रमाणसे यह बात जानी जाती है।</p> | ||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१३/४-६/४२७) | ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१३/४-६/४२७)<br> | ||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१५/५/४५८/७ प्रमाणविरोधादवगाहायुरिति चेत्।...तन्न; किं कारणम् जीवद्वै विध्यात्। द्विविधा जीवा; बादराः सूक्ष्माश्चेति। तत्र बादराः सप्रतिघातशरीराः। सूक्ष्मा जीवाः सूक्ष्मपरिणामादेव सशरीरत्वेऽपि परस्परेण बादरैश्च न प्रतिहन्यन्त इत्यप्रतिघातशरीराः। ततो यत्रैकसूक्ष्मनिगोतजीवस्तिष्ठति तत्रनन्तानन्ताः साधारणशरीराः वसन्ति। बादराणां च मनुष्यादीनां शरीरेषु सस्वेदजसंमूर्च्छनजादीनां जीवानां प्रतिशरीरं बहूनामवस्थानमिति नास्तयवगाहविरोधः। यदि बादरा एव जीवा अभविष्यन्नपतिर्हि अवगाहविरोधोऽजनिष्यत। कथं सशरीरस्यात्मनोऽप्रतिघातत्वमिति चेत् दृष्टत्वात् दृश्यते हि बालाग्रकोटिमात्रछिद्ररहिते धनबहलायसभित्तितले वज्रमयकपाटे बहिः समन्तात् वज्रलेपलिप्ते अपवरके देवदत्तस्य मृतस्य मूर्तिमज्ज्ञानावरणादिकर्मतैजसकार्माणाशरीरसंबन्धित्वेऽपि गृहमभित्त्वैवनिर्गमनम्, तथा सूक्ष्मनिगोतानामप्यप्रतिघातित्वं वेदितव्यम्।। | [[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१५/५/४५८/७ प्रमाणविरोधादवगाहायुरिति चेत्।...तन्न; किं कारणम् जीवद्वै विध्यात्। द्विविधा जीवा; बादराः सूक्ष्माश्चेति। तत्र बादराः सप्रतिघातशरीराः। सूक्ष्मा जीवाः सूक्ष्मपरिणामादेव सशरीरत्वेऽपि परस्परेण बादरैश्च न प्रतिहन्यन्त इत्यप्रतिघातशरीराः। ततो यत्रैकसूक्ष्मनिगोतजीवस्तिष्ठति तत्रनन्तानन्ताः साधारणशरीराः वसन्ति। बादराणां च मनुष्यादीनां शरीरेषु सस्वेदजसंमूर्च्छनजादीनां जीवानां प्रतिशरीरं बहूनामवस्थानमिति नास्तयवगाहविरोधः। यदि बादरा एव जीवा अभविष्यन्नपतिर्हि अवगाहविरोधोऽजनिष्यत। कथं सशरीरस्यात्मनोऽप्रतिघातत्वमिति चेत् दृष्टत्वात् दृश्यते हि बालाग्रकोटिमात्रछिद्ररहिते धनबहलायसभित्तितले वज्रमयकपाटे बहिः समन्तात् वज्रलेपलिप्ते अपवरके देवदत्तस्य मृतस्य मूर्तिमज्ज्ञानावरणादिकर्मतैजसकार्माणाशरीरसंबन्धित्वेऽपि गृहमभित्त्वैवनिर्गमनम्, तथा सूक्ष्मनिगोतानामप्यप्रतिघातित्वं वेदितव्यम्।।<br> | ||
= प्रश्न - द्रव्य प्रमाणसे जीवराशि अनन्तानन्त है तो वह असंख्यात प्रदेश प्रमाण लोकाकाशमें कैसे रह सकती है? उत्तर - जीव बादर और सूक्ष्मके भेदसे दो प्रकारके हैं। बादर जीव सप्रतिघात शरीरी होते हैं पर सूक्ष्म जीवोंका सूक्ष्म परिणमन होनेके कारण सशरीरी होने पर भी न तो बादरोंसे प्रतिघात होता है और न परस्पर ही। वे अप्रतिघातशरीरी होते हैं इसलिए जहाँ एक सूक्ष्म निगोद जीव रहता है वहीं अनन्तानन्त साधारण सूक्ष्म शरीरी रहते हैं। बादर मनुष्यादिके शरीरोंमें भी संस्वेदज आदि अनेक सम्मूर्छन जीव रहते हैं। यदि सभी जीव बादर ही होते तो अवगाहमें गड़बड़ पड सकती थी। सशरीरी आत्मा भी अप्रतिघाति है यह बात तो अनुभव सिद्ध है। निश्छिद्र लोहेके मकानसे, जिसमें वज्रके किवाड़ लगे हों, और वज्रलेपभी जिसमें किया गया हो, मर कर जीव कार्माण शरीरके साथ निकल जाता है। यह कार्माणशरीर मूर्तिमान ज्ञानावरणादि कर्मोंका पिण्डर है। तैजस शरीरभी इसके साथ सदा रहता है। मरण कालमें इन दोनों शरीरोंके साथ जीव वज्रमय कमरेसे निकल जाता है और उस कमरे में कहीं भी छेद या दरार नहीं पड़ती। इसी तरह सूक्ष्म निगोदिया जीवोंका शरीरभी अप्रतिघाती ही समजना चाहिए। | <p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - द्रव्य प्रमाणसे जीवराशि अनन्तानन्त है तो वह असंख्यात प्रदेश प्रमाण लोकाकाशमें कैसे रह सकती है? <br> <b>उत्तर</b> - जीव बादर और सूक्ष्मके भेदसे दो प्रकारके हैं। बादर जीव सप्रतिघात शरीरी होते हैं पर सूक्ष्म जीवोंका सूक्ष्म परिणमन होनेके कारण सशरीरी होने पर भी न तो बादरोंसे प्रतिघात होता है और न परस्पर ही। वे अप्रतिघातशरीरी होते हैं इसलिए जहाँ एक सूक्ष्म निगोद जीव रहता है वहीं अनन्तानन्त साधारण सूक्ष्म शरीरी रहते हैं। बादर मनुष्यादिके शरीरोंमें भी संस्वेदज आदि अनेक सम्मूर्छन जीव रहते हैं। यदि सभी जीव बादर ही होते तो अवगाहमें गड़बड़ पड सकती थी। सशरीरी आत्मा भी अप्रतिघाति है यह बात तो अनुभव सिद्ध है। निश्छिद्र लोहेके मकानसे, जिसमें वज्रके किवाड़ लगे हों, और वज्रलेपभी जिसमें किया गया हो, मर कर जीव कार्माण शरीरके साथ निकल जाता है। यह कार्माणशरीर मूर्तिमान ज्ञानावरणादि कर्मोंका पिण्डर है। तैजस शरीरभी इसके साथ सदा रहता है। मरण कालमें इन दोनों शरीरोंके साथ जीव वज्रमय कमरेसे निकल जाता है और उस कमरे में कहीं भी छेद या दरार नहीं पड़ती। इसी तरह सूक्ष्म निगोदिया जीवोंका शरीरभी अप्रतिघाती ही समजना चाहिए।</p> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,३,२/२२/४ कधमणंता जीवा असंखेज्जपदेसिए लोए अच्छंति। ...लोगमज्झम्हि जदि होंति, तो लोगस्स असंख्येज्जदिभागमेत्तेहि चेव जीवेहि होदव्वमिदि? - णेदं घडदे, पोग्गलाणं पि असंखेज्जत्तप्पसंगादो...लोगमेत्ता परमाणू भवंति,... लोगमेत्तपरमाणूहि कम्मसरीरघड-पड-त्थंभादिसु एगो वि ण णिप्पज्जदे, अणंताणंतपरमाणुसमुदयसमागमेण विणा एक्किस्से ओसण्णासण्णियाए वि सभवाभावा। होदु चे ण, सयलपोग्गलदव्वस्स अणुवलद्धिप्पसंगादो, सव्वजीवाणमक्कमेण केवलणाणुप्पत्तिप्पसंगादो, च। एवमइप्पसंगो माहोदि त्ति अवगेज्झमाण जीवाजीवसत्तण्णहाणुववत्तीदो अवगाहणधम्मिओलोगागासो त्तिइच्छि दव्वो खीरकुम्भस्स मधुकंभो व्व। | [[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,३,२/२२/४ कधमणंता जीवा असंखेज्जपदेसिए लोए अच्छंति। ...लोगमज्झम्हि जदि होंति, तो लोगस्स असंख्येज्जदिभागमेत्तेहि चेव जीवेहि होदव्वमिदि? - णेदं घडदे, पोग्गलाणं पि असंखेज्जत्तप्पसंगादो...लोगमेत्ता परमाणू भवंति,... लोगमेत्तपरमाणूहि कम्मसरीरघड-पड-त्थंभादिसु एगो वि ण णिप्पज्जदे, अणंताणंतपरमाणुसमुदयसमागमेण विणा एक्किस्से ओसण्णासण्णियाए वि सभवाभावा। होदु चे ण, सयलपोग्गलदव्वस्स अणुवलद्धिप्पसंगादो, सव्वजीवाणमक्कमेण केवलणाणुप्पत्तिप्पसंगादो, च। एवमइप्पसंगो माहोदि त्ति अवगेज्झमाण जीवाजीवसत्तण्णहाणुववत्तीदो अवगाहणधम्मिओलोगागासो त्तिइच्छि दव्वो खीरकुम्भस्स मधुकंभो व्व। <br> | ||
= प्रश्न - असंख्यातप्रदेशवाले लोकमें अनन्त संख्यावाले जीव कैसे रह सकते हैं?..यदि लोकके मध्यमें जीव रहते हैं (अलोकमें नहीं) तो वे लोकके असंख्यातवें भागमात्रमें ही होने चाहिए? उत्तर - शंकाकारका उक्त कथन घटित नहीं होता, क्योंकि उक्त कथनके मान लेनेपर पुद्गलोंके भी असंख्यातपनेका प्रसंग आता है।...अर्थात् लोकाकाशके प्रदेश प्रमाण हो परमाणु होंगे...तथा उन लोकप्रमाणपरमाणुओंके द्वारा कर्म, शरीर, घटपट और स्तंभ आदिकोंमें-से एकभी वस्तु निष्पन्न नहीं हो सकती हैं, क्योंकि, अनन्तानन्त परमाणुओंके समुदायका समागम हुए बिना एक अवसन्नपन्न संज्ञक भी स्कन्ध होना सम्भव नहीं है। प्रश्न - एकभी वस्तु निष्पन्न नहीं होवे, तो भी क्या हानि है? उत्तर - नहीं क्योंकि, ऐसा माननेपर समस्त पुद्गल द्रव्यकी अनुपलब्धिका प्रसंग आता है, तथा सर्व जीवोंके एक साथ ही केवलज्ञानकी उत्पत्तिका भी प्रसंग प्राप्त होता है। (क्योंकि इतने मात्र परमाणुओंसे यदि किसी प्रकार सम्भव भी हो तो भी एक ही जीवका कार्माण शरीर बन पायेगा अन्य सर्व जीव कर्मरहित हो जायेंगे)...इस प्रकार अतिप्रसंग दोष न आवे, इसलिए अवगाह्यमान जीव और अजीव द्रव्योंकी सत्ता अन्यथा न बननेसे क्षीर कुम्भका मधुकुम्भके समान अवगाहन धर्मवाला लोकाकाश है, ऐसा मान लेना चाहिए। | <p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - असंख्यातप्रदेशवाले लोकमें अनन्त संख्यावाले जीव कैसे रह सकते हैं?..यदि लोकके मध्यमें जीव रहते हैं (अलोकमें नहीं) तो वे लोकके असंख्यातवें भागमात्रमें ही होने चाहिए? <br> <b>उत्तर</b> - शंकाकारका उक्त कथन घटित नहीं होता, क्योंकि उक्त कथनके मान लेनेपर पुद्गलोंके भी असंख्यातपनेका प्रसंग आता है।...अर्थात् लोकाकाशके प्रदेश प्रमाण हो परमाणु होंगे...तथा उन लोकप्रमाणपरमाणुओंके द्वारा कर्म, शरीर, घटपट और स्तंभ आदिकोंमें-से एकभी वस्तु निष्पन्न नहीं हो सकती हैं, क्योंकि, अनन्तानन्त परमाणुओंके समुदायका समागम हुए बिना एक अवसन्नपन्न संज्ञक भी स्कन्ध होना सम्भव नहीं है। <br> <b>प्रश्न</b> - एकभी वस्तु निष्पन्न नहीं होवे, तो भी क्या हानि है? <br> <b>उत्तर</b> - नहीं क्योंकि, ऐसा माननेपर समस्त पुद्गल द्रव्यकी अनुपलब्धिका प्रसंग आता है, तथा सर्व जीवोंके एक साथ ही केवलज्ञानकी उत्पत्तिका भी प्रसंग प्राप्त होता है। (क्योंकि इतने मात्र परमाणुओंसे यदि किसी प्रकार सम्भव भी हो तो भी एक ही जीवका कार्माण शरीर बन पायेगा अन्य सर्व जीव कर्मरहित हो जायेंगे)...इस प्रकार अतिप्रसंग दोष न आवे, इसलिए अवगाह्यमान जीव और अजीव द्रव्योंकी सत्ता अन्यथा न बननेसे क्षीर कुम्भका मधुकुम्भके समान अवगाहन धर्मवाला लोकाकाश है, ऐसा मान लेना चाहिए।</p> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ३/१,२,४५/२५८/१ ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ एत्तियमेत्तमणुसपज्जत्तरासिम्हि संखेज्जपदरं गुलेहिं गुणिदे माणुसखेत्तादो संखेज्जगुणत्तप्पसंगा।...संखेज्जुसेहंगुलमेत्तोगाहणो मणुसपज्जत्तरासी सम्मादि त्ति णासंकणिज्जं, सव्वुक्कस्सोगाहणमणुसपज्जत्तरासिम्हि संखेज्जपमाणपदरं गुलमेत्तोगाहणगुणगारमुहवित्थारुवलं भादो। | [[धवला]] पुस्तक संख्या ३/१,२,४५/२५८/१ ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ एत्तियमेत्तमणुसपज्जत्तरासिम्हि संखेज्जपदरं गुलेहिं गुणिदे माणुसखेत्तादो संखेज्जगुणत्तप्पसंगा।...संखेज्जुसेहंगुलमेत्तोगाहणो मणुसपज्जत्तरासी सम्मादि त्ति णासंकणिज्जं, सव्वुक्कस्सोगाहणमणुसपज्जत्तरासिम्हि संखेज्जपमाणपदरं गुलमेत्तोगाहणगुणगारमुहवित्थारुवलं भादो।<br> | ||
= प्रश्न - ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ इतनी मनुष्य पर्याप्तराशिको सख्यात प्रतरांगुलों (मनुष्यका निवास क्षेत्र) से गुणा किया जाये तो उस प्रमाणको मनुष्य क्षेत्रसे (४५ लाख योजन व्यास = १६००९०३०६५४६० १.१९\२५६ वर्ग योजन = ९४४२५१०४९६८१९४३४००००००००० प्रतरांगुल। इसमें-से दो समुद्रोंका क्षेत्रफल घटानेपर शेष = ६१९७०८४६६८१६४१६२०००००००० प्रतरांगुल। अन्तर्दीप तो हैं पर उनमें मनुष्य अत्यल्प होनेसे विवक्षामें नहीं लिये) संख्यात गुणाका प्रसंग आ जावेगा। ...उसमें संख्यात् उत्सेधांगुलमात्र अवगाहनासे युक्त मनुष्य पर्याप्त राशि समा जायेगी (अधिक नहीं)। उत्तर - सो ठीक नहीं, क्योंकि सबसे उत्कृष्ट अवगाहनासे युक्त मनुष्य मनुष्य पर्याप्तराशिमें संख्यात प्रमाण प्रतारंगुल मात्र अवगाहनके गुणकारका मुख विस्तार पाया जाता है (न कि सब मनुष्योंका)। | <p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ इतनी मनुष्य पर्याप्तराशिको सख्यात प्रतरांगुलों (मनुष्यका निवास क्षेत्र) से गुणा किया जाये तो उस प्रमाणको मनुष्य क्षेत्रसे (४५ लाख योजन व्यास = १६००९०३०६५४६० १.१९\२५६ वर्ग योजन = ९४४२५१०४९६८१९४३४००००००००० प्रतरांगुल। इसमें-से दो समुद्रोंका क्षेत्रफल घटानेपर शेष = ६१९७०८४६६८१६४१६२०००००००० प्रतरांगुल। अन्तर्दीप तो हैं पर उनमें मनुष्य अत्यल्प होनेसे विवक्षामें नहीं लिये) संख्यात गुणाका प्रसंग आ जावेगा। ...उसमें संख्यात् उत्सेधांगुलमात्र अवगाहनासे युक्त मनुष्य पर्याप्त राशि समा जायेगी (अधिक नहीं)। <br> <b>उत्तर</b> - सो ठीक नहीं, क्योंकि सबसे उत्कृष्ट अवगाहनासे युक्त मनुष्य मनुष्य पर्याप्तराशिमें संख्यात प्रमाण प्रतारंगुल मात्र अवगाहनके गुणकारका मुख विस्तार पाया जाता है (न कि सब मनुष्योंका)।</p> | ||
[[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[तात्पर्यवृत्ति]] / गाथा संख्या ९०/१५० अनन्तानन्तजीवात्सेभ्योऽप्यनन्तगुणाः पुद्गला लोकाकाशप्रमितप्रदेशप्रमाणाः कालाणवो धर्माधर्मौ चेति सर्वे कथमवकाशं लभन्त इति। भगवानाह। एकापवरके अनेकप्रदीपप्रकाशवदेकगूढनागरसगद्याणके बहुसुवर्णदेकस्मिनुष्टीक्षीरघटे मधुघटवदेकसिमन् भूमिगूहे जयघण्टादिवद्विशिष्टावगाहगुणेनासंख्येयप्रदेशऽपि लोके अनन्तसंख्या अपि जीवादयोऽवकाशं लभन्त इत्यभिप्रायः। | [[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[तात्पर्यवृत्ति]] / गाथा संख्या ९०/१५० अनन्तानन्तजीवात्सेभ्योऽप्यनन्तगुणाः पुद्गला लोकाकाशप्रमितप्रदेशप्रमाणाः कालाणवो धर्माधर्मौ चेति सर्वे कथमवकाशं लभन्त इति। भगवानाह। एकापवरके अनेकप्रदीपप्रकाशवदेकगूढनागरसगद्याणके बहुसुवर्णदेकस्मिनुष्टीक्षीरघटे मधुघटवदेकसिमन् भूमिगूहे जयघण्टादिवद्विशिष्टावगाहगुणेनासंख्येयप्रदेशऽपि लोके अनन्तसंख्या अपि जीवादयोऽवकाशं लभन्त इत्यभिप्रायः।<br> | ||
= प्रश्न - जीव अनन्तानन्त हैं, उसमें भी अनन्त गुणे पुद्गल द्रव्य हैं, लोककाश प्रदेश प्रमाण काल द्रव्य है, तथा एक धर्म द्रव्य व एक अधर्म द्रव्य है। असंख्यात् प्रदेशी लोकमें ये सब कैसे अवकाश पाते हैं? उत्तर - एक घरमें जिस प्रकार अनेक दीपकोंका प्रकाश समा रहा है, जिस प्रकार एक छोटेसे गुटकेमें बहुत-सी सुवर्णकी राशि सहती है उष्ट्रीके एक घट दूधमें एक शहदका घड़ा समा जाता है, तथा एक भूमि गृहमें जय-जय व घण्टादिके शब्द समा जाते हैं, उसी प्रकार असंख्यात प्रदेशी लोकमें विशिष्ट अवगाहन शक्तिके कारण जीवादि अनन्त पदार्थ सहज अवकाश पा लेते हैं। | <p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - जीव अनन्तानन्त हैं, उसमें भी अनन्त गुणे पुद्गल द्रव्य हैं, लोककाश प्रदेश प्रमाण काल द्रव्य है, तथा एक धर्म द्रव्य व एक अधर्म द्रव्य है। असंख्यात् प्रदेशी लोकमें ये सब कैसे अवकाश पाते हैं? <br> <b>उत्तर</b> - एक घरमें जिस प्रकार अनेक दीपकोंका प्रकाश समा रहा है, जिस प्रकार एक छोटेसे गुटकेमें बहुत-सी सुवर्णकी राशि सहती है उष्ट्रीके एक घट दूधमें एक शहदका घड़ा समा जाता है, तथा एक भूमि गृहमें जय-जय व घण्टादिके शब्द समा जाते हैं, उसी प्रकार असंख्यात प्रदेशी लोकमें विशिष्ट अवगाहन शक्तिके कारण जीवादि अनन्त पदार्थ सहज अवकाश पा लेते हैं।</p> | ||
(द्र.स./मू.२०/५९) | (द्र.स./मू.२०/५९)<br> | ||
<OL start=6 class="HindiNumberList"> <LI> एक प्रदेशपर अनन्त द्रव्योंके अवगाहकी सिद्धि </LI> </OL> | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/१०/२७५ परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिणता एकैकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशेऽनन्तानन्ताः अवतिष्ठन्ते। | [[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/१०/२७५ परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिणता एकैकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशेऽनन्तानन्ताः अवतिष्ठन्ते।<br> | ||
= सूक्ष्म रूपसे परिणत हुए पुद्गल परमाणु आकाशके एक-एक प्रदेशपर अनन्तान्त ठहर सकते हैं। | <p class="HindiSentence">= सूक्ष्म रूपसे परिणत हुए पुद्गल परमाणु आकाशके एक-एक प्रदेशपर अनन्तान्त ठहर सकते हैं।</p> | ||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१०/३-६/४५३) (विशेष | ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१०/३-६/४५३) (विशेष <b>देखे </b>[[आकाश]] ३/५।)<br> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १४/५,६,५३१/४४५/१ एगपदेसियस्स पोग्गलस्स होदु णाम एगागासपदेसे अवट्ठाणं, कथं दुपदेसिय-तिपदेसियसंखेज्जासंखेज्ज-अणंतपदेसियक्खंधाणंणतत्थावट्ठाणं ण, तत्थ अणंतोगाहगुणस्स संभवादो। तं पि कुदो णव्वदे जीव-पोगगलाणमाणं तियत्तण्णहाणुव्वत्ती दो। | [[धवला]] पुस्तक संख्या १४/५,६,५३१/४४५/१ एगपदेसियस्स पोग्गलस्स होदु णाम एगागासपदेसे अवट्ठाणं, कथं दुपदेसिय-तिपदेसियसंखेज्जासंखेज्ज-अणंतपदेसियक्खंधाणंणतत्थावट्ठाणं ण, तत्थ अणंतोगाहगुणस्स संभवादो। तं पि कुदो णव्वदे जीव-पोगगलाणमाणं तियत्तण्णहाणुव्वत्ती दो।<br> | ||
= प्रश्न - एक प्रदेशी पुद्गलका एक आकाश प्रदेशमें अवस्थान होवो परन्तु द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, संख्यात प्रदेशी, असंख्यात् प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी स्कन्धोंका वहाँ अवस्थान कैसे हो सकता है? उत्तर - नहीं। क्योंकि वहाँ अनन्तको अवगाहन करनेका गुण सम्भव है। प्रश्न - सो भी कैसे? उत्तर - जीव व पुद्गलोंकी अनन्तपनेकी अन्यथा उपपत्ति सम्भव नहीं। | <p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - एक प्रदेशी पुद्गलका एक आकाश प्रदेशमें अवस्थान होवो परन्तु द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, संख्यात प्रदेशी, असंख्यात् प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी स्कन्धोंका वहाँ अवस्थान कैसे हो सकता है? <br> <b>उत्तर</b> - नहीं। क्योंकि वहाँ अनन्तको अवगाहन करनेका गुण सम्भव है। <br> <b>प्रश्न</b> - सो भी कैसे? <br> <b>उत्तर</b> - जीव व पुद्गलोंकी अनन्तपनेकी अन्यथा उपपत्ति सम्भव नहीं।</p> | ||
[[प्रवचनसार]] / [[ प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका | तत्त्वप्रदीपिका ]] / गाथा संख्या १४०/१९८ स खल्वेकोऽपिशेषपञ्चद्रव्यप्रदेशानां सौक्ष्म्यपरिणतानन्तपरमाणुस्कन्धानां चावकाशदानसमर्थः। | [[प्रवचनसार]] / [[ प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका | तत्त्वप्रदीपिका ]] / गाथा संख्या १४०/१९८ स खल्वेकोऽपिशेषपञ्चद्रव्यप्रदेशानां सौक्ष्म्यपरिणतानन्तपरमाणुस्कन्धानां चावकाशदानसमर्थः।<br> | ||
= वह आकाश का एक प्रदेश भी बाकीके पाँच द्रव्योंके प्रदेशोंको तथा परम सूक्ष्मता रूपसे परिणमे हुए अनन्त परमाणुओं के स्कन्धोंको अवकाश देनेके लिए समर्थ है। | <p class="HindiSentence">= वह आकाश का एक प्रदेश भी बाकीके पाँच द्रव्योंके प्रदेशोंको तथा परम सूक्ष्मता रूपसे परिणमे हुए अनन्त परमाणुओं के स्कन्धोंको अवकाश देनेके लिए समर्थ है।</p> | ||
[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या २७ जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुउट्टद्धं। तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुट्टुणदाणरिहं ।।२७।। | [[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या २७ जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुउट्टद्धं। तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुट्टुणदाणरिहं ।।२७।।<br> | ||
= जितना आकाश अविभागी पुद्गलाणुसे रोका जाता है, उसको सर्व परमाणुओंको स्थान देनेमें समर्थ प्रदेश जानो।। | <p class="HindiSentence">= जितना आकाश अविभागी पुद्गलाणुसे रोका जाता है, उसको सर्व परमाणुओंको स्थान देनेमें समर्थ प्रदेश जानो।।</p> | ||
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Revision as of 01:58, 9 May 2009
खाली जगह (Space) को आकाश कहते हैं। इसे एक सर्व व्यापक अखण्ड अमूर्त द्रव्य स्वीकार किया गया है। जो अपने अन्दर सर्व द्रव्योंको समानेकी शक्ति रखता है यद्यपि यह अखण्ड है पर इसका अनुमान करानेके लिए इसमें प्रदेशों रूप खण्डोंकी कल्पना कर ली जाती है। यह स्वयं तो अनन्त है परन्तु इसके मध्यवर्ती कुछ मात्र भागमें ही अन्य द्रव्य अवस्थित हैं। उसके इस भागका नाम लोक है और उससे बाहर शेष सर्व आकाशका नाम अलोक है। अवगाहना शक्तिकी विचित्रताके कारण छोटे-से लोकमें अथवा इसके एक प्रदेशपर अनन्तानन्त द्रव्य स्थित हैं।
१ भेद व लक्षण
- आकाश सामान्यका लक्षण
- आकाश द्रव्योंके भेद
- लोकाकाश व आलोककाशके लक्षण
- प्राणायाम सम्बन्धी आकाश मण्डल
- आकाश निर्देश
- आकाशका आकार
- आकाशके प्रदेश
- आकाश द्रव्यके विशेष गुण
- आकाशके १६ सामान्य विशेष स्वभाव
- आकाशका आधार
- अखण्ड आकाशमें खण्ड कल्पना
- लोकाकाश व आलोकाकाशकी सिद्धि
- अवगाहना सम्बन्धी विषय
- सर्वावगाहना गुण आकाशमें ही है अन्य द्रव्यमें नहीं तथा हेतु
- लोकाकाशमें अवगाहना गुणका माहात्मय
- लोक/अस. प्रदेशोंपर एकानेक जीवोंकी अवस्थान विधि
- अवगाहना गुणोंकी सिद्धि
- असं. प्रदेशी लोकमें अनन्त द्रव्योंके अवगाहकी सिद्धि
- एक प्रदेश पर अनन्त द्रव्योंके अवगाहकी सिद्धि
- अन्य सम्बन्धित विषय
- अन्य द्रव्योंमे भी अवगाहन गुण - देखे [[`अवगाहन' <]] /LI>
- अमूर्त आकाशके साथ मूर्त द्रव्योंके स्पर्श सम्बन्धी - देखे स्पर्श /२
- लोकाकाशमें वर्तनाका निमित्त - देखे काल /२
- अवगाहन गुण उदासीन कारण है -दे कारण III/२
- आकाशका अक्रियावत्त्व - देखे द्रव्य /३
- आकाशमें प्रदेश कल्पना तथा युक्ति - देखे द्रव्य /४
- आकाश द्रव्य अस्तिकाय है - देखे [[अस्तिकाय <]] /LI>
- आकाश द्रव्यकी संख्या - देखे संख्या /३
- लोकाकाशके विभागका कारण धर्मास्तिकाय - देखे धर्माधर्म /१
- लोकाकाशमें उत्पादादिकी सिद्ध - देखे उत्पाद व्ययध्रौव्य /३
- शब्द आकाशका गुण नहीं - देखे शब्द /२
- द्रव्योंको आकाश प्रतिष्ठित कहना व्यवहार है - देखे द्रव्य /५
- भेद व लक्षण
- आकाशका सामान्य का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ५/४,६,७,१८ नित्यावस्थितान्यरूपाणि ।।४।। आ आकाशादेकद्रव्याणि ।।६।। निष्क्रियाणि च ।।७।। अकाशस्यावगाहः ।।१८।।
= आकाश द्रव्य नित्य अवस्थित और अरूपी है ।।५।। तथा एक अखण्ड द्रव्य है ।।६।। व निष्क्रिय है ।।७।। और अवगाह देना इसका उफकार है ।।१८।।
पं.का/मू.९० सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तह य पुग्गलाणं च। जं देदि विवरमखिलं तं लोगे हवदि आगासं ।।९०।।
= कलोहमें जीवोंको और पुद्गलोंको वैसे ही शेष समस्त द्रव्योंका जो सम्पूर्ण अवकाश देता है वह आकाश द्रव्य है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ५/१८/२८४ जीवपुद्गलादीनामवगाहिनामवकाशदानमवगाह आकाशस्योपकारो वेदितव्यः।।
= अवगाहनं करनेवाले जीव और पुद्गलोंको अवकाश देना आकाशका उपकार जानना चाहिए।
(गो./जी.प्र/६०५/१०६०/४)
राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/१/२१-२२/४३४ आकाशन्तेऽस्मिन द्रव्याणि स्वयं चाकाशत इत्याकाशम् ।।२१।। अवकाशदानाद्वा ।।२२।।
= जिसमें जीवादि द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायोंके साथ प्रकाशमान हों तथा जो स्वयं अपने को प्रकाशित भी करे वह आकाश है ।।२१।। अथवा जो अन्य सर्व द्रव्योंको अवकाश दे वह आकाश है।
धवला पुस्तक संख्या ४/१,३,१/४/७ आगासं सपदेसं तु उड्ढोधो तिरओविय। खेत्तलोगं वियाणाहि अणंतजिण-देसिदं ।।४।।
= आकाश सप्रदेशी है, और वह ऊपर, नीचे और तिरछे सर्वत्र फैला हुआ है। उसे ही क्षेत्र लोक जानना चाहिए। उसे जिन भगवान्ने अनन्त कहा है।
नयचक्रवृहद् गाथा संख्या ९८ चेयणरहियममुत्तं अवगाहलक्खणं च सव्वगयं...। तं णहदव्वं जिणुद्दिट्ठं ।।९८।।
= जो चेतन रहित अमूर्त सर्वद्रव्योंको अवगाह देनेवाला सर्व व्यापी है = उसको जिनेन्द्र भगवानने आकाश द्रव्य कहा है।
द्र.स./मू.१९/५७ अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण आयासम्... ।।१९।।
= जो जीवादि द्रव्योंको अवकाश देनेवाला है उसको जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहा हुआ आकाश द्रव्य जानो।
(नियमसार / तात्त्पर्यवृत्ति गाथा संख्या ९/२४)
- आकाश द्रव्योंके भेद
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ५/१२/२७८ आकाशं, द्विधाविभक्तं लोकाकाशमेलोकाकाशं चेति।
= आकाश द्रव्य दो प्रकारका है-लोकाकाश और अलोकाकाश।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/१२/१८/४५६/१०), (नयचक्रवृहद् गाथा संख्या ९८. (द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या १९)
- लोकाकाश व आलोकाकाशके लक्षण
पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा संख्या ९१ जोवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगादोणण्ण। तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्त ।।९१।।
= जीव पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म (तथा काल) लोकके अनन्य हैं। अन्तरहित ऐसा आकाश उससे (लोकसे) अनन्य तथा अन्य है।
बारसाणुवेक्खा गाथा संख्या ३९ जीवादि पयट्ठाणं समवाओ सो णिरुच्चये लोगो। तिविहो हवेई लोगो अहमज्झिमउड्भेयेणं ।।३९।।
= जीवादि छः पदार्थोंका जो समूह है उसे लोक कहते हैं। और वह अधोलोक, ऊर्ध्वलोक व मध्यलोकके भेद से तीन प्रकारका है।
(क.अ./मू.११६)
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ५४० लोयदि लाओयदि पल्लोयदिसल्लोयदिति एगत्थो तह्माजिणेहिं कसिणं तेणेसो वुच्चदे लोओ ।।५४०।।
= जीस कारणसे जिनेन्द्र भगवान् का मतिश्रुतज्ञानकी अपेक्षा साधारण रूप देखा गया है, मनःपर्यय ज्ञानकी अपेक्षा कुछ उससे भी विशेष और केवलज्ञानकी अपेक्षा सम्पूर्ण रूपसे देखा गया है इसलिए वह लोक कहा जाता है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ५/१२/२७८ धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यन्ते स लोक इति।
स यत्र तल्लोकाकाशम्। ततो बहिः सर्वतोऽनन्तालोकाकाशम्।
= जहाँ धर्मादि द्रव्य विलोके जाते हैं उसे लोक कहते हैं। उससे बाहर सर्वत्र अनन्त अलोकाकाश है।
(ति/प.४/१६४-१३५), ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/१२/१८/४५६/७), (धवला पुस्तक संख्या ४/१,३,९/१), (पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या ८७/१३८), (प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या १२८/१८०), (नयचक्रवृहद् गाथा संख्या ९९), (द्र.सं.मू.२०), (पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा संख्या २२/४८), (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक संख्या २२) (त्रिलोकसार गाथा संख्या ५)
धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,५०/२८८/३ को लोकः। लोक्यन्त उपलभ्यन्ते यस्मिन् जीवादयः पदार्थोः स लोकः।
=
प्रश्न - लोक किसे कहते है?
उत्तर - जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं अर्थात् उपलब्ध होते हैं उसे लोक कहते हैं।
(म.प्र.४/१३), (नयचक्रवृहद् गाथा संख्या १४२-१४३)
- प्राणायाम सम्बन्धी आकाश मण्डल
ज्ञानसार श्लोक संख्या ५७ अग्निः त्रिकोणः रक्तः कृष्णश्चः प्रभञ्जनः तथावृतः। चतुष्कोणं पीतं पृथ्वी स्वेतं जलं शुद्धचन्द्राभम् ।।५७।।
= अग्नि त्रिकोण लाल रंग, पवन, गोलाकार श्याम वर्ण, पृथ्वी चौकोण पीत वर्ण, तथा जल अर्ध चन्द्राकार शीतल चन्द्र समान होता है।
- आकाश निर्देश
- आकाशका आकार
आचारसार ३/२४ व्योमामूर्त स्थितं नित्यं चतुरस्रं सम धनम्। अवगाहनाहेतवश्चान्तानन्त प्रदेशकम् ।।२४।।
= आकाश द्रव्य अमूर्त है, नित्य अवंस्थित है, घनाकार चौकोर है, अवगाहनाका हेतु है, अनन्तान्त प्रदेशी है।
- आकाशके प्रदेश
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ५/९ आताशस्यानन्ताः ।।९।।
= आकाश द्रव्यके अनन्त प्रदेश हैं
(द्र.सं.२५) (नियमसार / मूल या टीका गाथा संख्या ३६) (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या ५८७/१०२५)
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या १३५/१९१ सर्वव्याप्यनन्तप्रदेशप्रस्ताररूपत्वादाकाशस्य च प्रदेशत्त्वम्।
= सर्वव्यापी अनन्तप्रदेशों के विस्ताररूप होनेसे आकाश प्रदेशवान् है।
- आकाश द्रव्यके विशेष गुण
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ५/१८ आकाशस्यावगाहः ।।१८।।
= अवगाहन देना आकाशद्रव्यका उपकार है।
धवला पुस्तक संख्या १५/३३/७ ओगाहणलक्खणमायासदव्वं।
= आकाश द्रव्यका असाधारण लक्षण अवगाहन देना है।
आलापपद्धति अधिकार संख्या २/१/१३४ आकाशद्रव्ये अवगाहनाहेतुत्वमर्मूतत्वमचेतनत्वमिति।
= आकाश द्रव्यके अवगाहना हेतुत्व, अमूर्तत्व और अचेतनत्वमें (विशेष) गुण हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या १३३ विशेषगुणो हियुगपरसर्वद्रव्याणां साधारणावगाहहेतुत्वामाकाशस्य।
= युगपत् सर्व द्रव्योंके साधरण अवगाहका हेतुत्व आकाशका विशेष गुण है।
- आकाशके १६ सामान्य विशेष स्वभाव
नयचक्रवृहद् गाथा संख्या ७० इगवीसं तु सहावा दोण्हं (१) तिण्हं (२) तु सोडसा भणिया। पंचदसा पुण काले दव्वसहावा (३) य णयव्वा ।।७०।।
= जीव व पुद्गलके २१ स्वभाव, धर्म, अधर्म, और आकाश द्रव्यके १६ स्वभाव, तथा कालद्रव्यके १५ स्वभाव कहे गये हैं।
(आलापपद्धति अधिकार संख्या ४)
नयचक्रवृहद् गाथा संख्या ७० (सद्रूप, असद्रूप, नित्य, अनित्य, एक, अनेक, भेद, अभेद, भव्य, अभव्य, स्वभाव, निभाव, चैतन्य, अचैतन्य, मूर्त, अमूर्त, एक प्रदेशी, अनेक प्रदेशी, शुद्ध, अशुद्ध, उपचरित, अनुपचरित, एकान्त, अनेकान्त। इन चौबीसमें-से अनेक, भव्य, अभव्य, निभाव, चैतन्य, मूर्त, एक प्रदेशत्व, अशुद्ध। इन आठ रहित १६ सामान्य विशेष स्वभाव आकाश द्रव्यमें हैं)
(आलापपद्धति अधिकार संख्या ४)
- आकाशका आधार
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ३/१/२०४ आकाशमात्मप्रतिष्ठम्।
= आकाश द्रव्य स्वयं अपने आधारसे स्थिति है।
(सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ५/१२/२७७) ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/१/८/१६०/१६)
राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/१२/२-४/४५४ आकाशस्यापि अन्याधारकल्पनेति चेत्, न; स्वप्रतिष्ठत्वात् ।।२।। ततोऽधिकप्रमाणद्रव्यान्तराधाराभावत् ।।३।। तथा चानवस्थानिवृत्तिः ।।४।।
=
प्रश्न - आकाशका भी कोई अन्य आधार होना चाहिए?
उत्तर - नहीं, वह स्वयं अपने आधारपर ठहरा हुआ है ।।२।। उससे अधिक प्रमाणवाले दूसरे द्रव्यका अभाव होनेके कारण भी उसका आधारभूत कोई दूसरा नहीं हो सकता ।।३।। यदि किसी दूसरे आधारकी कल्पना की जाये तो उससे अनवस्था दोषका प्रसंग आयेगा, परन्तु स्वयं अपना आधारभूत होनेसे वह नहीं आ सकता है।
- अखण्ड आकाशमें खण्ड कल्पना
राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/८/५-६/४५०/३ एकद्रव्यस्य प्रदेशकल्पना उपचारतः स्यात्। उपचारश्च मिथ्योक्तिर्न तत्त्वपरीक्षायामधिक्रियते प्रयोजनाभावात्। न हि मृगतृष्णिकया मृषार्थात्मिकया जलकृत्यं क्रियते इति; तन्न; किं कारणम्। मुख्यक्षेत्राविभागात्। मुख्य एव क्षेत्रविभागः, अन्यो हि घटावगाह्यः आकाशप्रदेशः इतरावगाह्यश्चान्य इति। यदि अन्यत्वं न स्यात् व्याप्तित्वं व्याहन्यते ।।५।। निरवयवत्वानुपपत्तिरिति चेत्; न; द्रव्यविभागाभावत् ।।६।।
= एक द्रव्य यद्यपि अविभागी है वह घटकी तरह संयुक्त द्रव्य नहीं है। फिर भी उसमें प्रवेश वास्तविक हैं उपचारसे नहीं। घरके द्वारा जो आकाशका क्षेत्र अवगाहित किया जाता है वह पटादिके द्वारा नहीं। दोनों जुदे-जुदे हैं। यदि प्रदेश भिन्नता न होती तो वह सर्वव्यापी नहीं हो सकता था। अतः द्रव्य अविभागी होकर भी प्रदेशशून्य नहीं हैं। अनेक प्रदेशी होते हुए भी द्रव्यरूपसे उन प्रदेशोंके विभाग न होनेके कारण निरवयव और अखण्ड द्रव्य माननेमें कोई बाधा नहीं है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या १४०/१९८ अस्ति चाविभागैकद्रव्यत्वेऽप्यंशकल्पनमाकाशस्य, सर्वेषामणुनामवकाशदानस्यान्यथानुपपत्तेः। यदि पुनराकाशस्यांशा न स्युरिति मतिस्तदाङ्गुलीयलं नभसि प्रसार्य निरूप्यतां किमेकं क्षेत्रं किमनेकम्।।
= आकाश अविभाग (अखण्ड) एक द्रव्य है। फिर भी उसमें (प्रदेश रूप) खण्ड कल्पना हो सकती है, क्योंकि यदि, ऐसा न हो तो सब परमाणुओंको अवकाश देना नहीं बनेगा। ऐसा होनेपर भी, यदि आकाशके अंश नहीं होते (अर्थात् अंश कल्पना नहीं की जाती) ऐसी मान्यता हो तो आकाशमें दो अँगुलिया फैलाकर बताइये कि दो अंगुलियोंका एक क्षेत्र है या अनेक? (अर्थात् यह दो अंगुल आकाश है यह व्यवहार तभी बनेगा जबकि अखण्ड द्रव्यमें खण्ड कल्पना स्वीकार की जाये।)
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या २७/७५ निर्विभागद्रव्यस्यापि विभागकल्पनमायातं घटाकाशपटाकाशमित्यादिवदिति।
= घटाकाश व पटाकाशकी तरह विभाग रहित आकाश द्रव्यकी भी विभाग कल्पना सिद्ध हुई।
(पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या ५/१५)
- लोकाकाश व अलोकाकाशकी सिद्धि
राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/१८/१०-१३/४६७/२४ अजातत्वादभाव इति चेत् न; असिद्धेः ।।१०।। ...द्रव्यार्थिकगुणभावे पर्यायार्थिकप्रधान्यात् स्वप्रत्ययागुरुलघुगुणवृद्धिहानिविकल्पापेक्षया अवगाहकजीवपुद्गलपरप्रत्ययावगाहभेदविवक्षया च आकाशस्य जातत्वोपपत्तेः हेतोरसिद्धः। अथवा, व्ययोत्पादौ आकाशस्य दृश्यते। यथा चरमसमयस्यासर्वज्ञस्य सर्वज्ञत्वेनोत्यादस्तथोपलब्धेः असर्वज्ञत्वेन व्ययस्तथानुपलब्धेः; एवं चरमसमयस्यासर्वज्ञस्य साक्षादनुपलभ्यकाशं सर्वज्ञत्वोपपत्तौ उपलभ्यत इति उपलभ्यत्वेनोत्पन्नमनुपलभ्यत्वेन च विनष्टम्। अनावृत्तिराकाशमिति चेत; न; नामवत् तत्सिद्धेः ।।११।। ...यथा नाम वेदनादि अमूर्तत्वात् अनावृत्यपिसदस्तीत्यभ्युपगम्यते, तथा आकाशमपि वस्तुभूतमित्यवसेयम्। शब्दलिङ्गत्वादिति चेत्; नः पौद्गलिकत्वात् ।।१२।। प्रधान विकार आकाशमिति चेत; नः तत्परिणामाभावात् आत्मावत् ।।१३।।
=
प्रश्न - आकाश उत्पन्न नहीं हुआ इसलिए उसका अभाव है?
उत्तर - आकाशको अनुत्पन्न कहना असिद्ध है। क्योंकि द्रव्यार्थिककी गौणता और पर्यायार्थिककी मुख्यता होनेपर अगुरुलघु गुणोंकी वृद्धि और हानिके निमित्तसे स्वप्रत्यय उत्पाद व्यय और अवगाहक जीव पुद्गलोंके परिणमनके अनुसार परप्रत्यय उत्पाद व्यय आकाशमें होते ही रहते हैं। जैसे-कि अन्तिम समयमें सर्वज्ञताकी विनाश होकर किसी मनुष्यको सर्वज्ञता उत्पन्न हुई हो ता आकाश पहले अनुपलभ्य था वही पीछे सर्वज्ञको उपलभ्य हो गया। अतः आकाशभी अनुपलभ्यत्वेन विनष्ट होकर उपलभ्यत्वेन उत्पन्न हुआ ।।१०।।
प्रश्न - आकाश आवरणाभाव मात्र है?
उत्तर - नहीं किन्तु वस्तुभूत है। जेसे कि नाम और वेदनादि अमूर्त होनेसे अनावरणरूप होकर भी सत् हैं, उसी तरह आकाश भी ।।११।।
प्रश्न - अवकाश देना यह आकाशका लक्षण नहीं हैं? क्योंकि उसका लक्षण शब्द है।
उत्तर - ऐसा नहीं है क्योंकि शब्द पौद्गलिक है और आकाश अमूर्तिक।
प्रश्न - आकाश तो प्रधानका विकार है?
उत्तर - नहीं क्योंकि नित्य तथा निष्क्रिय व अनन्त रूप प्रधानके आत्माकी भान्ति विकार ही नहीं हो सकता।
(विशेष दे.तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या १/परि...पृ. १६६/शोलापुर वाले पं. बंशीधर) ।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक संख्या २३ सोऽप्यलोको न शून्योऽस्ति षड्भिर्द्रव्यैरशेषतः। व्योममात्रवशेषत्वाद् व्योमात्मा केवलं भवेत् ।।२३।।
= वह अलोक भी सम्पूर्ण छहों द्रव्योंसे शून्य नहीं है किन्तु आकाश मात्र शेष रहनेसे वह अन्य पाँच द्रव्यों से रहित केवल आकाशमय है।
- अवगाहना सम्बन्धी विषय
- सर्वावगाहना गुण आकासमें ही है अन्य द्रव्यमें नहीं तथा हेतु
प्र.सा/त.प्र./१३३ विशेषगुणो हि युगपत्सर्वद्रव्याणां साधारणावगाहहेतुत्वमाकाशस्य...एवममूर्तानां विशेषगुणसंक्षेपाधिगमे लिङ्गम्। तत्रैककालमेव सकलद्रव्यसाधारणावगाहसंपादनमसर्वगतत्वादेव शेषद्रव्यणामसम्भवदाकाशमधिगमयति।
= युगपत् सर्वद्रव्योंके साधारण अवगाहका हेतुत्व आकाशका विशेषगुण है।...इस प्रकार अमूर्त द्रव्योंके विशेष गुणोंका ज्ञान होनेपर अमूर्त द्रव्योंको जाननेके लिए लिंग प्राप्त होते हैं। (अर्थात् विशेष गुणोंके द्वारा अमूर्त द्रव्योंका ज्ञान होता है)..वहाँ एक ही कालमें समस्त द्रव्योंके साधारण अवगाहका संपादन (अवगाह हेतुत्व रूप लिंग) आकाशको बतलाता है, क्योंकि शेष द्रव्योंके सर्वगत न होनेसे उनके यह सम्भव नहीं है।
- लोकाकाशमें अवगाहना गुणका माहात्म्य
धवला पुस्तक संख्या ४/१,३,२/२४/२ तम्हा ओगहणलक्खणेण सिद्धलोगागासस्स ओगाहणमाहप्पमाइरियपरंपरागदोवदेसेण भणिस्सामो। तं जहा-उस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते खेत्ते सुहुमणिगोदजीवस्स जहण्णोगाहणा भवदि। तम्हि ट्ठिदघणलोगमेत्तजीवपदेसेसु पडिपदेसमभव सिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता होदूण ट्ठिदओरालियशरीरपरमाणूणं तं चेव खेत्तभोगासं जादि। पुणो आरालियसरीरपरमाणूहिंतो अणंतगुणाणं तेजइयसरीरपरमाणूणं पि तम्हि चेव खेत्ते आगोहणा भवदि।...तेजइयपरमाणूहिंतो अणंतगुणा कम्मइपरमाणू तेणेव जीवेण मिच्छत्तादिकारणेहिं संचिदापडिपदेसमभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता तत्थ भवंति, तेसिं पि तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। पुणो ओरालिय-तेजा-कम्मइय-विस्ससोवचयाणं पदिक्कं सव्वजीवेहि अणंतगुणाणं पडिपरमाणुम्हि तत्तियमेत्ताणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। एवमेगजीवेणच्छिदअंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते जहण्णखेत्तम्हि समाणोगाहणा होदूण विदिओ जीवो तत्थेव अच्छदि। एवमणंताणंताणं समाणोगाहणाणं जीवाणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। तदो अवरो जीवो तम्हि चेव मज्झिमपदेसमंतिमं काऊण उवव्वणो। एदस्स वि ओगाहणाए अणंताणंत जीवा समाणोगाहणा अच्छंति त्ति पुव्वं व परूवेदव्वं। एवमेगेपदेसा सव्वदिसासु वड्ढोवेदव्वा जाव लोगो आवुण्णो त्ति।
= अब हम अवगाहण लक्षणसे प्रसिद्ध लोकाकाशके अवगाहन माहात्म्यको आचार्य परम्परागत उपदेशके अनुसार कहते हैं। वह इस प्रकार है-उत्सेधांगुलके अअंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रमें सूक्ष्म निगोदिया जीवकी जघन्य आवगाहना है। उस क्षेत्रमें स्थित घनलोक मात्र जीवके प्रेदेशमें-से प्रत्येक प्रदेशपर अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र होकरके स्थित औदारिक शरीरके परमाणुओंका वही क्षेत्र अवकाशपनेको प्राप्त होता है। पुनः औदारिक शरीरके परमाणुओंसे अनन्तगुणे तेजस्कशरीरके परमाणुओंकी भी उसी क्षेत्रमें अवगाहना होती है। तैजस परमाणुओंसे अनन्तगुणे उस ही जीवके द्वारा मिथ्यात्व अविरति आदि कारणोंसे संचित और प्रत्येक प्रदेशपर अभव्य सिद्धोंसे अनन्तगुणे तथा सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र कर्म परमाणु उस क्षेत्रमें रहते है। इसलिए उन कर्म परमाणुओंकी भी उस ही क्षेत्रमें अवगाहना होती है। पुनः औदारिक शरीर, तैजस शरीर और कार्माण शरीरके विस्रसोपचयोंका जो कि प्रत्येक सर्वजीवोंसे अनुन्तगुणे हैं और प्रत्येक परमाणुपर उतने ही प्रमाण है। उसकी भी उसी ही क्षेत्रमें अवगाहना होती है। इस प्रकार एक जीवसे व्याप्त अंगुलके असंख्यात्वे भागमात्र उसी जघन्य क्षेत्रमें समान अवगाहना वाला होकरके दूसरा जीव भी रहता है। इसी प्रकार समान अवगाहना वाले अनन्तानन्त जीवोंकी उसी ही क्षेत्रमें अवाहना होती है। तत्पश्चात् दूसरा कोई जीव उसी क्षेत्रमें उसके मध्यवर्ती प्रदेशको अपनी अवगाहना का अन्तिम प्रदेश करके उत्पन्न हुआ। इस जीवकी भी अवगाहनामें समान अवगाहनावाले अनन्तानन्त जीव रहते हैं। इस प्रकार यहाँ भी पूर्व के समान प्ररुपणा करनी चाहिए। इस प्रकार लोकके परिपूर्ण होने तक सभी दिशाओंमें लोकका एक एक प्रदेश बढ़ाते जाना चाहिए।
३. लोक/असं.प्रदेशोंपर एकानेक जीवोंकी अवस्थान विधि
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ५/१५ (लोकाकाशस्य) असंख्येयभागादिषु जीवनाम् (अवगाहः)।
= जीवोंका अवगाह लोकाकाशके असंख्यातवें भागको आदि लेकर सर्वलोक पर्यन्त होता है।
राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/१५/३-४/४५७/३१ लोकस्य प्रदेशाः असंख्येया भागाः कृताः, तत्रैकस्मिन्नसंख्येयभागे एको जीवोऽवतिष्ठते। तथा द्वित्रिचतुरादिष्वपि असंख्येयभागेषु आ सर्वलोकादगाहः प्रत्येतव्यः। नानाजीवानाम् तु सर्वलोक एव।...असंख्येस्याऽसंख्येयविकल्पत्वात्। अजघन्योत्कृष्टासंख्येयस्या हि असंख्येय विकल्पाः अतोऽवगाहविकल्पो जीवानां सिद्धः।
राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/८/४/४४९/३३ जीवः तावत्प्रदेशोऽपि संहरणविसर्पणस्वभावत्वात् कर्मनिर्वर्तितं शरीरमणु महाद्वा अधितिष्ठंस्तावदवगाह्य वर्तते। यदा तु लोकपूरणं भवति तदा मन्दरस्याधश्चित्रवज्रपटलयोर्मध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशाः व्यवतिष्ठन्ते, इतरे प्रदेशाः ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते।
= लोकके असंख्यात प्रदेश हैं, उनके असंख्यात भाग किये जायें। एक असंख्येय भागोंमें भी जीव रहता है तथा दो तीन चार आदि असंख्येय भागोंमें और सम्पूर्ण लोकमें जीवोंका अवगाह समझना चाहिए। नाना जीवोंकी अवगाह तो सर्व लोक है। असंख्यातके भी असंख्यात विकल्प हैं। और अजघन्योस्कृष्ट असंख्येयके असंख्येय विकल्प हैं। अतः जीवोंके अवगाहमें भेद भी हो जाता है। तथा जीवके असंख्यातप्रदेशी होनेपर भी संकोचविस्तार शील होनेसे कर्मके अनुसार प्राप्त छोटे या बड़े शरीरमें तत्प्रमाण होकर रहता है जब इसकी समुद्घात कालमें लोकपूरण अवस्था होती है तब इसके मध्यवर्ती आठ प्रदेश सुमेरु पर्वतके नीचे चित्र और वज्रपटलके मध्यके आठ प्रदेशोंपर स्थित हो जाते हैं, बाकी प्रदेश ऊपर नीचे चारों ओर फैल जाते है।
- अवगाहना गुणों की सिद्धि
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ५।१८/२८४ यद्यवकाशदानमस्य स्वभावो वज्रादिभिर्लोष्टदीनां भित्त्यादिभिर्गवादीनां च व्याघातो न प्राप्नोति। दृश्यते च व्याघातः। तस्मादस्यावकाशदानं हीयते इति। नैष दोषः, वज्रलोष्टादीनां स्थूलनांपरस्पर व्याघात इति नास्यावकाशदानसामर्थ्य हीयते तत्रावगाहिनामेवव्याघातात्। वज्रादयः पुनः स्थूलत्वात्परस्परं प्रत्यवकाशदानं न कुर्वन्तीति नासावाकाशदोषः ये खलु पुद्गलाः सूक्ष्मास्ते परस्परं प्रत्यवकाशादानं कुर्वन्ति। यद्येवं नेदमाकाशस्यासाधारणं लक्षणम्; इतरेषामपि तत्सद्भावादिति। तन्न; सर्वपदार्थोनां साधारणावगाहनहेतुत्वमस्यासाधारणं लक्षणमिति नास्ति दोषः। अलोकाकाशे तद्भावादभाव इति चेत्; न; स्वाभावापरित्यागात्।
=
प्रश्न - यदि अवकाश देना अवकाशका स्वभाव है तो वज्रादिकसे लोढा आदिका और भीत आदिसे गायका व्याघात नहीं प्राप्त होता, किन्तु व्याघात तो देखा जाता है इससे मालूम होता है कि अवकाश देना अवकाश का स्वभाव नहीं ठहरता है?
उत्तर - यह कोई दोष नहीं है क्योंकि वज्र और लोढा आदिक स्थूल पदार्थ हैं इसलिए इनका आपसमें व्याघात है, अतः आकाशकी अवगाह देने रूप सामर्थ्य नहीं नष्ट होती। यहाँ जो व्याघात दिखाई देता है वह अवगाहन करनेवाले पदार्थोंका ही है। तात्पर्य यह है कि वज्रादित स्थूल पदार्थ हैं, इसलिए वे परस्पर में अवकाश नहीं देते हैं यह कुछ आकाशका दोष नहीं है। हाँ जो पुद्गल सूक्ष्म होते हैं वे परस्पर अवकाश देते हैं।
प्रश्न - यदि ऐसा है तो यह आकाशका असाधारण लक्षण नहीं रहता, क्योंकि दूरसे पदार्थोमें भी इसका सद्भाव पाया जाता है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि आकाश द्रव्य सब पदार्थोंको अवकाश देनेमें साधारण कारण है यही इसका असाधारण लक्षण है, इसलिए कोई दोष नहीं है।
प्रश्न - अलोककाशमें अवकाश देने रूप स्वभाव नहीं पाया जाता, इससे ज्ञात होता है कि यह आकाशका स्वभाव नहीं है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि कोई भी द्रव्य अपने स्वभावका त्याग नहीं करता।
राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/१/२३/४३४/६ अलोकाकाशस्यावकाशदानाभावात्तदभाव इति चेत्; न; तत्सामर्थ्याविरहात् ।।२३।। ...क्रियानिमित्तत्वेऽपि रूढिविशेषबललाभात् गोशब्दवत् तदभावेऽपि प्रवर्तते
=
प्रश्न - अलोकाकाशमें द्रव्योंका अवगाहन न होनेसे यह उसका स्वभाव गटित नहीं होता?
उत्तर - शक्तिकी दृष्टिसे उसमें भी आकाशका व्यवहार होता है। क्रियाका निमित्तपना होनेपर भी रूढि विशेषके बलसे भी अलोकाकाशको आकाश संज्ञा प्राप्त हो जाती है, जिस प्रकार बैठी हुई गऊमें चलन क्रियाका अभाव होनेपर भी चलन शक्तिके कारण गौ शब्दकी प्रवृत्ति देखी जाती है।
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ६०५/१०६०/५ ननु क्रियावतोरवगाहिजीवपुद्गलयोरेवावकाशदानं युक्तं धर्मादीनां तु निष्क्रियाणां नित्यसंबद्धानां तत् कथम्? इति तन्न उपचारेण तत्सिद्धेः। यथा गमानाभावेऽपि सर्वगतामाकाशमित्युच्यते सर्वत्र सद्भवात् तथा धर्मादीनां अवगाहनक्रियाया अभावेऽपि सर्वत्र दर्शनात् अवगाह इत्युपचर्यते।
=
प्रश्न - जो अवगाह क्रियावान तौ जीव पुद्गल हैं तिनिको अवकाश देना युक्त कहा। बहुरि धर्मादिक द्रव्य तो निष्क्रिय हैं, नित्य सम्बन्धको धरैं हैं नवीन नाहीं आये जिनको अवकाश देनासम्भवै। ऐसे इहाँ कैसे कहिये सो कहौ?
उत्तर - जो उपचार करि कहिये हैं जैसे गमनका अभाव होते संतै भी सर्वत्र सद्भावकी अपेक्षा आकाशको सर्वगत कहिये तैसे धर्मादि द्रव्यनिकैं अवगाह क्रियाका अभाव होते संतै भी लोक विषै सर्वत्र सद्भावकी अपेक्षा अवगाहनका उपचार कीजिये है।
(सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ५/१८/२८४/३) ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/१८/२/४६६/१८)।
- असं. प्रदेशी लोकमें अनन्त द्रव्योंके अवगाहकी सिद्धि
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ५/१०/२७५ स्यादेतदसंख्यातप्रदेशो लोकः अनन्तप्रदेशस्यान्तानन्तप्रदेशस्य च स्कन्धस्याधिकरणमिति विरोधः....नैष दोषः; सूक्ष्मपरिणामावगाहशक्तियोगात्। परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिणता एकै कस्मिन्नप्याकाशप्रदेशेऽनन्तानन्ता अवतिष्ठन्ते अवगाहनशक्तिश्चैषाव्याहतास्ति। तस्मादेकस्मिन्नपि प्रदेशे अनन्तानन्तानामवस्थानं न विरुध्यते। (नायमेकान्तः-अल्पेऽधिकरणे महद्द्व्यं नावतिष्ठते इति....प्रत्यविशेषः संघातविशेषः इत्यर्थः।...संहृतविसर्पितचम्पकादिगन्धादिवत् ६/ राजवार्तिक )
=
प्रश्न - लोक असंख्यात प्रदेशवाला है इसलिए वह अनन्तानन्त प्रदेशवाले स्कन्धका आधार है इस बातके माननेमें विरोध आता है।
उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सूक्ष्म परिणमन होनेसे और अवगाहन शक्तिके निमित्तसे अनन्त या अनन्तानन्त प्रदेशवाले पुद्गल स्कन्धोंका आकाश आधार हो जाता है। सूक्ष्म रूपसे परिणत हुए परमाणु आकाशके एक-एक प्रदेशमें अनन्तानन्त ठहर जाते हैं। इनकी यह अवगाहन शक्ति व्याघात रहित है। इसलिए आकाशके एक प्रदेशमें भी अनन्तानन्त पुद्गलोंका अवस्थान विरोधको प्राप्त नहीं होंता। फिर यह कोई एकान्तिक नियम नहीं है कि छोटे आधारमें बड़ा द्रव्य ठहर ही नहीं सकता हो। पुद्गलोंमें विशेष प्रकार सघन संघात होनेसे क्षेत्रमें बहुतोंका अवस्थान हो जाता है जैसे कि छोटी-सी चम्पाकी कलीमें सूक्ष्म रूपसे बहुतसे गन्धावयव रहते हैं, पर वे ही जब फैलते हैं तो समस्त दिशाओंको व्याप्त कर लेते हैं।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/१०/३-६/४५३/१४)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ५/१४/२७९ अवगाहनस्वभावत्वात्सूक्ष्मपरिणामाच्च मूर्तिमतामप्यवगाहो न विरुध्यते एकापवरके अनेकप्रदीपप्रकाशावस्थानवत्। आगमप्रामाण्याच्च तथाऽध्यवसेयम्।
= (पुद्गलोंका) अवगाहन स्वभाव है और सूक्ष्मरूपसे परिणमन हो जाता है इसलिए एक मकानमें जिस प्रकार अनेक दीपकोंका प्रकाश रह जाता है उसी प्रकार-मूर्तमान पुद्गलोंका एक जगह अवगाह विरोधको प्राप्त नहीं होता तथा आगम प्रमाणसे यह बात जानी जाती है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/१३/४-६/४२७)
राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/१५/५/४५८/७ प्रमाणविरोधादवगाहायुरिति चेत्।...तन्न; किं कारणम् जीवद्वै विध्यात्। द्विविधा जीवा; बादराः सूक्ष्माश्चेति। तत्र बादराः सप्रतिघातशरीराः। सूक्ष्मा जीवाः सूक्ष्मपरिणामादेव सशरीरत्वेऽपि परस्परेण बादरैश्च न प्रतिहन्यन्त इत्यप्रतिघातशरीराः। ततो यत्रैकसूक्ष्मनिगोतजीवस्तिष्ठति तत्रनन्तानन्ताः साधारणशरीराः वसन्ति। बादराणां च मनुष्यादीनां शरीरेषु सस्वेदजसंमूर्च्छनजादीनां जीवानां प्रतिशरीरं बहूनामवस्थानमिति नास्तयवगाहविरोधः। यदि बादरा एव जीवा अभविष्यन्नपतिर्हि अवगाहविरोधोऽजनिष्यत। कथं सशरीरस्यात्मनोऽप्रतिघातत्वमिति चेत् दृष्टत्वात् दृश्यते हि बालाग्रकोटिमात्रछिद्ररहिते धनबहलायसभित्तितले वज्रमयकपाटे बहिः समन्तात् वज्रलेपलिप्ते अपवरके देवदत्तस्य मृतस्य मूर्तिमज्ज्ञानावरणादिकर्मतैजसकार्माणाशरीरसंबन्धित्वेऽपि गृहमभित्त्वैवनिर्गमनम्, तथा सूक्ष्मनिगोतानामप्यप्रतिघातित्वं वेदितव्यम्।।
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प्रश्न - द्रव्य प्रमाणसे जीवराशि अनन्तानन्त है तो वह असंख्यात प्रदेश प्रमाण लोकाकाशमें कैसे रह सकती है?
उत्तर - जीव बादर और सूक्ष्मके भेदसे दो प्रकारके हैं। बादर जीव सप्रतिघात शरीरी होते हैं पर सूक्ष्म जीवोंका सूक्ष्म परिणमन होनेके कारण सशरीरी होने पर भी न तो बादरोंसे प्रतिघात होता है और न परस्पर ही। वे अप्रतिघातशरीरी होते हैं इसलिए जहाँ एक सूक्ष्म निगोद जीव रहता है वहीं अनन्तानन्त साधारण सूक्ष्म शरीरी रहते हैं। बादर मनुष्यादिके शरीरोंमें भी संस्वेदज आदि अनेक सम्मूर्छन जीव रहते हैं। यदि सभी जीव बादर ही होते तो अवगाहमें गड़बड़ पड सकती थी। सशरीरी आत्मा भी अप्रतिघाति है यह बात तो अनुभव सिद्ध है। निश्छिद्र लोहेके मकानसे, जिसमें वज्रके किवाड़ लगे हों, और वज्रलेपभी जिसमें किया गया हो, मर कर जीव कार्माण शरीरके साथ निकल जाता है। यह कार्माणशरीर मूर्तिमान ज्ञानावरणादि कर्मोंका पिण्डर है। तैजस शरीरभी इसके साथ सदा रहता है। मरण कालमें इन दोनों शरीरोंके साथ जीव वज्रमय कमरेसे निकल जाता है और उस कमरे में कहीं भी छेद या दरार नहीं पड़ती। इसी तरह सूक्ष्म निगोदिया जीवोंका शरीरभी अप्रतिघाती ही समजना चाहिए।
धवला पुस्तक संख्या ४/१,३,२/२२/४ कधमणंता जीवा असंखेज्जपदेसिए लोए अच्छंति। ...लोगमज्झम्हि जदि होंति, तो लोगस्स असंख्येज्जदिभागमेत्तेहि चेव जीवेहि होदव्वमिदि? - णेदं घडदे, पोग्गलाणं पि असंखेज्जत्तप्पसंगादो...लोगमेत्ता परमाणू भवंति,... लोगमेत्तपरमाणूहि कम्मसरीरघड-पड-त्थंभादिसु एगो वि ण णिप्पज्जदे, अणंताणंतपरमाणुसमुदयसमागमेण विणा एक्किस्से ओसण्णासण्णियाए वि सभवाभावा। होदु चे ण, सयलपोग्गलदव्वस्स अणुवलद्धिप्पसंगादो, सव्वजीवाणमक्कमेण केवलणाणुप्पत्तिप्पसंगादो, च। एवमइप्पसंगो माहोदि त्ति अवगेज्झमाण जीवाजीवसत्तण्णहाणुववत्तीदो अवगाहणधम्मिओलोगागासो त्तिइच्छि दव्वो खीरकुम्भस्स मधुकंभो व्व।
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प्रश्न - असंख्यातप्रदेशवाले लोकमें अनन्त संख्यावाले जीव कैसे रह सकते हैं?..यदि लोकके मध्यमें जीव रहते हैं (अलोकमें नहीं) तो वे लोकके असंख्यातवें भागमात्रमें ही होने चाहिए?
उत्तर - शंकाकारका उक्त कथन घटित नहीं होता, क्योंकि उक्त कथनके मान लेनेपर पुद्गलोंके भी असंख्यातपनेका प्रसंग आता है।...अर्थात् लोकाकाशके प्रदेश प्रमाण हो परमाणु होंगे...तथा उन लोकप्रमाणपरमाणुओंके द्वारा कर्म, शरीर, घटपट और स्तंभ आदिकोंमें-से एकभी वस्तु निष्पन्न नहीं हो सकती हैं, क्योंकि, अनन्तानन्त परमाणुओंके समुदायका समागम हुए बिना एक अवसन्नपन्न संज्ञक भी स्कन्ध होना सम्भव नहीं है।
प्रश्न - एकभी वस्तु निष्पन्न नहीं होवे, तो भी क्या हानि है?
उत्तर - नहीं क्योंकि, ऐसा माननेपर समस्त पुद्गल द्रव्यकी अनुपलब्धिका प्रसंग आता है, तथा सर्व जीवोंके एक साथ ही केवलज्ञानकी उत्पत्तिका भी प्रसंग प्राप्त होता है। (क्योंकि इतने मात्र परमाणुओंसे यदि किसी प्रकार सम्भव भी हो तो भी एक ही जीवका कार्माण शरीर बन पायेगा अन्य सर्व जीव कर्मरहित हो जायेंगे)...इस प्रकार अतिप्रसंग दोष न आवे, इसलिए अवगाह्यमान जीव और अजीव द्रव्योंकी सत्ता अन्यथा न बननेसे क्षीर कुम्भका मधुकुम्भके समान अवगाहन धर्मवाला लोकाकाश है, ऐसा मान लेना चाहिए।
धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,४५/२५८/१ ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ एत्तियमेत्तमणुसपज्जत्तरासिम्हि संखेज्जपदरं गुलेहिं गुणिदे माणुसखेत्तादो संखेज्जगुणत्तप्पसंगा।...संखेज्जुसेहंगुलमेत्तोगाहणो मणुसपज्जत्तरासी सम्मादि त्ति णासंकणिज्जं, सव्वुक्कस्सोगाहणमणुसपज्जत्तरासिम्हि संखेज्जपमाणपदरं गुलमेत्तोगाहणगुणगारमुहवित्थारुवलं भादो।
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प्रश्न - ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ इतनी मनुष्य पर्याप्तराशिको सख्यात प्रतरांगुलों (मनुष्यका निवास क्षेत्र) से गुणा किया जाये तो उस प्रमाणको मनुष्य क्षेत्रसे (४५ लाख योजन व्यास = १६००९०३०६५४६० १.१९\२५६ वर्ग योजन = ९४४२५१०४९६८१९४३४००००००००० प्रतरांगुल। इसमें-से दो समुद्रोंका क्षेत्रफल घटानेपर शेष = ६१९७०८४६६८१६४१६२०००००००० प्रतरांगुल। अन्तर्दीप तो हैं पर उनमें मनुष्य अत्यल्प होनेसे विवक्षामें नहीं लिये) संख्यात गुणाका प्रसंग आ जावेगा। ...उसमें संख्यात् उत्सेधांगुलमात्र अवगाहनासे युक्त मनुष्य पर्याप्त राशि समा जायेगी (अधिक नहीं)।
उत्तर - सो ठीक नहीं, क्योंकि सबसे उत्कृष्ट अवगाहनासे युक्त मनुष्य मनुष्य पर्याप्तराशिमें संख्यात प्रमाण प्रतारंगुल मात्र अवगाहनके गुणकारका मुख विस्तार पाया जाता है (न कि सब मनुष्योंका)।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा संख्या ९०/१५० अनन्तानन्तजीवात्सेभ्योऽप्यनन्तगुणाः पुद्गला लोकाकाशप्रमितप्रदेशप्रमाणाः कालाणवो धर्माधर्मौ चेति सर्वे कथमवकाशं लभन्त इति। भगवानाह। एकापवरके अनेकप्रदीपप्रकाशवदेकगूढनागरसगद्याणके बहुसुवर्णदेकस्मिनुष्टीक्षीरघटे मधुघटवदेकसिमन् भूमिगूहे जयघण्टादिवद्विशिष्टावगाहगुणेनासंख्येयप्रदेशऽपि लोके अनन्तसंख्या अपि जीवादयोऽवकाशं लभन्त इत्यभिप्रायः।
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प्रश्न - जीव अनन्तानन्त हैं, उसमें भी अनन्त गुणे पुद्गल द्रव्य हैं, लोककाश प्रदेश प्रमाण काल द्रव्य है, तथा एक धर्म द्रव्य व एक अधर्म द्रव्य है। असंख्यात् प्रदेशी लोकमें ये सब कैसे अवकाश पाते हैं?
उत्तर - एक घरमें जिस प्रकार अनेक दीपकोंका प्रकाश समा रहा है, जिस प्रकार एक छोटेसे गुटकेमें बहुत-सी सुवर्णकी राशि सहती है उष्ट्रीके एक घट दूधमें एक शहदका घड़ा समा जाता है, तथा एक भूमि गृहमें जय-जय व घण्टादिके शब्द समा जाते हैं, उसी प्रकार असंख्यात प्रदेशी लोकमें विशिष्ट अवगाहन शक्तिके कारण जीवादि अनन्त पदार्थ सहज अवकाश पा लेते हैं।
(द्र.स./मू.२०/५९)
- एक प्रदेशपर अनन्त द्रव्योंके अवगाहकी सिद्धि
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ५/१०/२७५ परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिणता एकैकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशेऽनन्तानन्ताः अवतिष्ठन्ते।
= सूक्ष्म रूपसे परिणत हुए पुद्गल परमाणु आकाशके एक-एक प्रदेशपर अनन्तान्त ठहर सकते हैं।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/१०/३-६/४५३) (विशेष देखे आकाश ३/५।)
धवला पुस्तक संख्या १४/५,६,५३१/४४५/१ एगपदेसियस्स पोग्गलस्स होदु णाम एगागासपदेसे अवट्ठाणं, कथं दुपदेसिय-तिपदेसियसंखेज्जासंखेज्ज-अणंतपदेसियक्खंधाणंणतत्थावट्ठाणं ण, तत्थ अणंतोगाहगुणस्स संभवादो। तं पि कुदो णव्वदे जीव-पोगगलाणमाणं तियत्तण्णहाणुव्वत्ती दो।
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प्रश्न - एक प्रदेशी पुद्गलका एक आकाश प्रदेशमें अवस्थान होवो परन्तु द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, संख्यात प्रदेशी, असंख्यात् प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी स्कन्धोंका वहाँ अवस्थान कैसे हो सकता है?
उत्तर - नहीं। क्योंकि वहाँ अनन्तको अवगाहन करनेका गुण सम्भव है।
प्रश्न - सो भी कैसे?
उत्तर - जीव व पुद्गलोंकी अनन्तपनेकी अन्यथा उपपत्ति सम्भव नहीं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या १४०/१९८ स खल्वेकोऽपिशेषपञ्चद्रव्यप्रदेशानां सौक्ष्म्यपरिणतानन्तपरमाणुस्कन्धानां चावकाशदानसमर्थः।
= वह आकाश का एक प्रदेश भी बाकीके पाँच द्रव्योंके प्रदेशोंको तथा परम सूक्ष्मता रूपसे परिणमे हुए अनन्त परमाणुओं के स्कन्धोंको अवकाश देनेके लिए समर्थ है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या २७ जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुउट्टद्धं। तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुट्टुणदाणरिहं ।।२७।।
= जितना आकाश अविभागी पुद्गलाणुसे रोका जाता है, उसको सर्व परमाणुओंको स्थान देनेमें समर्थ प्रदेश जानो।।