मूर्त
From जैनकोष
केवल आकारवान् को नहीं, बल्कि इन्द्रिय ग्राह्य पदार्थ को मूर्त या रूपी कहते हैं । सो छहों द्रव्यों में पुद्गल ही मूर्त है । यद्यपि सूक्ष्म होने के कारण परमाणु व सूक्ष्म स्कन्धरूप वर्गणाएँ इन्द्रिय ग्राह्य नहीं हैं, परन्तु उनका कार्य जो स्थूल स्कन्ध, वह इन्द्रिय ग्राह्य है । इस कारण उनका भी मूर्तीकपना सिद्ध होता है । और इसी प्रकार उनका कार्य होने से संसारी जीवों के रागादि भाव व प्रदेश भी कथंचित् मूर्तीक हैं ।
- मूर्त व अमूर्त का लक्षण
पं. का./मू./९९ जे खलु इंदिय गज्झा विसया जीवेहिं होंति ते मुत्ता । सेसं हवदि अमुत्तं.... ।९९। = जो पदार्थ जीवों के इन्द्रियग्राह्य विषय हैं, वे मूर्त हैं और शेष पदार्थ समूह अमूर्त हैं । (प्र. सा./त. प्र./१३१); (पं. ध./उ./७); (और भी देखें - नीचे रूपी का लक्षण नं . १, ३) ।
न. च. वृ./६४ रूवाइपिंडो मुत्तं विवरीये ताण विवरीयं ।६२। = रूप आदि गुणों का पिण्ड मूर्त है और उससे विपरीत अमूर्त । (द्र. सं./मू./१५), (नि. सा./ता. वृ./९) ।
आ. प./६ मूर्तस्य भावो मूर्तत्वं रूपादिमत्त्वम् । अमूर्तस्य भावोऽमूर्तत्वं रूपादिरहितत्वम् इति गुणानां व्युत्पत्तिः । = मूर्त द्रव्य का भाव मूर्तत्व है अर्थात् रूपादिमान् होना ही मूर्तत्व है । इसी प्रकार अमूर्त द्रव्यों का भाव अमूर्तत्व है अर्थात् रूपादि रहित होना ही अमूर्तत्व है ।
देखें - नीचे रूपी का लक्षण नं . २ (गोल आदि आकारवान् मूर्त है) ।
पं. का./ता. वृ./२७/५६/१८ स्पर्शरसगन्धवर्णवती मूर्तिरुच्यते तत्सद्भावात्, मूर्तः पुद्गलः । = स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण सहित मूर्ति होती है, उसके सद्भाव के कारण पुद्गल द्रव्य मूर्त है ।(पं. ध./उ./९) ।
- रूपी व अरूपी के लक्षण
स. सि./५/४/२७१/२ न विद्यते रूपमेषामित्यरूपाणि, रूपप्रतिषेधे तत्सहचारिणां रसादीनामपि प्रतिषेधः । तेन अरूपाण्यमूर्तानीत्यर्थः ।
स. सि./५/५/२७१/७ रूपं मूर्तिरित्यर्थः । का मूर्तिः । रूपादिसंस्थानपरिणामो मूर्तिः । रूपमेषामस्तीति रूपिणः । मूर्तिमन्त इत्यर्थः । अथवा रूपमिति गुणविशेषवचनशब्दः । तदेषामस्तीति रूपिणः । रसाद्यग्रहणमिति चेन्न; तदविनाभावात्तदन्तर्भावः । =- इन धर्मादि द्रव्यों में रूप नहीं पाया जाता, इसलिए अरूपी हैं । यहाँ केवल रूप का निषेध किया है, किन्तु रसादिक उसके सहचारी हैं । अतः उनका भी निषेध हो जाता है । इससे अरूपी का अर्थ अमूर्त है । (रा. वा./५/४/८/४४४/१) ।
- मूर्ति किसे कहते हैं ? रूपादिक के आकार से परिणमन होने को मूर्ति कहते हैं । जिनके रूप अर्थात् आकार पाया जाता है, वे रूपी कहलाते हैं । इसका अर्थ मूर्तिमान् है । (रूप, रस, गन्ध व स्पर्श के द्वारा तथा गोल, तिकोन, चौकोर आदि संस्थानों के द्वारा होने वाला परिणाम मूर्ति कहलाता है−रा. वा.); (रा. वा./५/५/२/४४४/२१) ।
- अथवा रूप यह गुण विशेष का वाची शब्द है । वह जिनके पाया जाता है, वे रूपी हैं । रूप के साथ अविनाभावी होने के कारण यहाँ रसादि का भी उसी में अन्तर्भाव हो जाता है । (रा. वा./५/५/३-४/४४४/२४); (रा. वा./१/२७/१, ३/८८/४, १३) ।
गो. जी./मू./६१३-६१४/१०६९ णिद्धिदरोलीमज्झे विसरिसजादिस्स समगुणं एक्कं । रूवित्ति होदि सण्णा सेसाणं ता अरूवित्ति ।६१३। दो गुणणिद्धाणुस्स य दोगुणलुक्खाणुगं हवे रूवी । इगिति गुणादि अरूवी रुक्खस्स वि तंव इदि जाणे ।६१४। = - स्निग्ध और रूक्ष की श्रेणी में जो विसदृश जाति का एक समगुण है, उसकी रूपी संज्ञा है और समगुण को छोड़कर अवशिष्ट सबकी अरूपी संज्ञा है ।६१३। ५. स्निग्ध के दो गुणों से युक्त परमाणु की अपेक्षा रूक्ष का दो गुण युक्त परमाणु रूपी हैं । शेष एक तीन चार आदि गुणों के धारक परमाणु अरूपी हैं ।६१४।
- आत्मा की अमूर्तत्व शक्ति का लक्षण―
स. सा./आ./परि./शक्ति नं. २० कर्मबन्धव्यपगमव्यञ्जितसहजस्पर्शादिशून्यात्मप्रदेशात्मिका अमूर्तत्वशक्तिः । = कर्मबन्ध के अभाव से व्यक्त किये गये, सहज स्पर्शादिशून्य ऐसे आत्मप्रदेशस्वरूप अमूर्तत्व शक्ति है ।
- सूक्ष्म व स्थूल सभी पुद्गलों में मूर्तत्व
पं. का./मू./७८ आदेसमेत्तमुत्तो धादुचउक्कस्स कारणं जो दु । सो णेओ परमाणू परिणामगुणो सयमसद्दो ।७८। = जो नय विशेष की अपेक्षा कथंचित् मूर्त व कथंचित् अमूर्त है, चार धातुरूप स्कन्ध का कारण है और परिणमनस्वभावी है, उसे परमाणु जानना चाहिए । वह स्वयं अशब्द होता है ।७८। (ति. प./१/१०१); ( देखें - परमाणु / २ / १ में न. च. वृ./१०१) ।
स. सि./१/२७/१३४/९ ‘रूपिषु’ इत्येन पुद्गलाः परिगृह्यन्ते । = ‘रूपिषु’ इस पद के द्वारा पुद्गलों का ग्रहण होता है । (रा. वा./१/२७/४/८८/१८); (गो. जी./जी. प्र./५९४/१०३३/८ पर उद्धृत श्लोक) ।
पं. का./त. प्र./९९ ते कदाचित्स्थूलस्कन्धत्वमापन्नाः कदाचित्सूक्ष्मत्वमापन्नाः कदाचित्परमाणुत्वमापन्नाः इन्द्रियग्रहणयोग्यता-सद्भावात् गृह्यमाणा अगृह्यमाणा वा मूर्त्ता इत्युच्यन्ते । = वे पदार्थ कदाचित् स्थूलस्कन्धपने को प्राप्त होते हुए, कदाचित् सूक्ष्म स्कन्धपने को प्राप्त होते हुए और कदाचित् परमाणुपने को प्राप्त होते हुए, इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होते हों या न होते हों, परन्तु मूर्त हैं; क्योंकि उन सभी में इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होने की योग्यता का सद्भाव है । (विशेष देखें - वर्गणा ) ।
पं. ध./उ./१० नासंभवं भवेदेतत् प्रत्यक्षानुभवाद्यथा । संनिकर्षोऽस्ति वर्णाद्यैरिन्द्रियाणां न चेतरैः ।१०। = साक्षात् अनुभव होने के कारण स्पर्श, रस, गन्ध व वर्ण को मूर्तीक कहना असम्भव नहीं है, क्योंकि जैसे इन्द्रियों का उनके साथ सन्निकर्ष होता है, वैसे उनका किन्हीं अन्य गुणों के साथ नहीं होता ।
- कर्म में पौद्गलिकत्व व मूर्तत्व
पं. का./मू./१३३ जम्हा कम्मस्स फलं विसयं फासेहिं भुंजदे णियदं । जीवेण सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि । = क्योंकि कर्म का फल जो (मूर्त) विषय वे नियम से (मूर्त ऐसी) स्पर्शनादि इन्द्रियों द्वारा जीव से सुख-दुःख रूप में भोगे जाते हैं, इसलिए कर्म मूर्त है ।
स. सा./मू./४५ अट्ठविहं पि य कम्मं सव्वं पुग्गलमयं जिणा विंति । = आठों प्रकार का कर्म पुद्गलमय है, ऐसा जिनदेव कहते हैं । (आप्त./प./११५/२४६/८) ।
स. सि./५/१९/२८५/११ एतेषां कारणभूतानि कर्माण्यपि शरीरग्रहणेन गृह्यन्ते । एतानि पौद्गलिकानि... । स्यान्मतं कार्मणमपौद्गलिकम्; अनाकारत्वाद् । आकारवतां हि औदारिकादीनां पौद्गलिकत्वं युक्तमिति । तन्न; तदपि पौद्गलिकमेव; तद्विपाकस्य मूर्तिमत्संबन्धनिमित्तत्वात् । दृश्यते हि ब्रीह्यादीनामुदकादिद्रव्यसंबन्धप्रापितपरिपाकानां पौद्गलिकत्वम् । तथा कार्मणमपि गुडकण्टकादि-मूर्तिमद्द्रव्योपनिपाते सति विपच्यमानत्वात्पौद्गलिकमित्यवसेयम् । = इन औदारिकादि पाँचों शरीरों के कारणभूत जो कर्म हैं, उनका भी शरीर पद के ग्रहण करने से ग्रहण हो जाता है अर्थात् वे भी कार्मण नाम का शरीर कहे जाते हैं ( देखें - कार्मण / १ / २ ) । ये सब शरीर पौद्गलिक हैं । प्रश्न− आकारवान् होने के कारण औदारिकादि शरीरों को तो पौद्गलिक मानना युक्त है, परन्तु कार्मण शरीर को पौद्गलिक मानना युक्त नहीं है, क्योंकि वह आकाशवत् निराकार है । उत्तर− नहीं, कार्मण शरीर भी पौद्गलिक ही है, क्योंकि उसका फल मूर्तिमान् पदार्थों के सम्बन्ध से होता है । यह तो स्पष्ट दिखाई देता है कि जलादिक के सम्बन्ध से पकने वाले धान आदि पौद्गलिक हैं । उसीप्रकार कार्मण शरीर भी गुड़ और काँटे आदि इष्टानिष्ट मूर्तिमान् पदार्थों के मिलने पर फल देते हैं, इससे ज्ञात होता है कि कार्मण शरीर भी पौद्गलिक है । (रा. वा./५/१९/१९/१४७/१०) ।
क. पा./१/१, १/३९/५७/४ तं पि मुत्तं चेव । तं कथं णव्वदे । मुत्तोसहसंबंधेण परिणामंतरगमणण्णहाणुववत्तीदो । ण च परिणामगमणमसिद्धं; तस्स तेण जर-कुट्ठ-क्खयादीणं विणासाणुववत्तीए परिणामंतरगमणसिद्धीदो । = कृत्रिम होते हुए भी कर्म मूर्त्त ही है । प्रश्न− यह कैसे जाना जाता है कि कर्म मूर्त है ? उत्तर− क्योंकि मूर्त औषधि के सम्बन्ध से अन्यथा परिणामान्तर की उत्पत्ति सम्भव नहीं है अर्थात् रुग्णावस्था की उपशान्ति हो नहीं सकती । और यह परिणामान्तर की प्राप्ति असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि उसके बिना ज्वर, कुष्ठ और क्षय आदि रोगों का विनाश बन नहीं सकता है ।
देखें - ईर्यापथ / ३ (द्रव्यकर्मों में, स्निग्धता, रूक्षता व खट्टा-मीठा रस आदि भी पाये जाते हैं ।) (और भी देखें - वर्गणा / २ / १ / व वर्ण/४) ।
- द्रव्य व भाव वचन में पौद्गलिकत्व व मूर्तत्व
स.सि./५/१९/२८६/७ वाग् द्विविधा द्रव्यवाग् भाववागिति । तत्र भाववाक् तावद्वीर्यान्तरायमतिश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनाम-लाभनिमित्तत्वात् पौद्गलिकी । तदभावे तद्वृत्त्यभावात् । तत्सामर्थ्योपेतेन क्रियावतात्म्ना प्रेर्यमाणाः पुद्गला वाक्त्वेन विपरिणमन्त इति द्रव्यवागपि पौद्गलिकी; श्रोत्रेन्द्रियविषयत्वात् ।...अमूर्ता वागिति चेन्न, मूर्तिमद्ग्रहणावरोधव्याघाताभिभवादिदर्शनान्मूर्तिमत्त्वसिद्धेः । = वचन दो प्रकार का है−द्रव्यवचन और भाववचन । इनमें से भाववचन वीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरण तथा श्रुतज्ञानावरण कर्मों के क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्म के निमित्त से होता है, इसलिए वह पौद्गलिक है; क्योंकि पुद्गलों के अभाव में भाववचन का सद्भाव नहीं पाया जाता । चूँकि इस प्रकार की सामर्थ्य से युक्त क्रियावान् आत्मा के द्वारा प्रेरित होकर पुद्गल वचनरूप से परिणमन करते हैं, इसलिए द्रव्यवचन भी पौद्गलिक हैं; दूसरे द्रव्यवचन श्रोत्रेन्द्रिय के विषय हैं, इससे भी पता चलता है कि वे पौद्गलिक हैं । प्रश्न− वचन अमूर्त है ? उत्तर− नहीं, क्योंकि वचनों का मूर्त इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण होता है, वे मूर्त भीत आदि के द्वारा रुक जाते हैं, प्रतिकूल वायु आदि के द्वारा उनका व्याघात देखा जाता है, तथा अन्य कारणों से उनका अभिभव आदि देखा जाता है । (गो. जी./जी.प्र./६०६/१०६२/२); (रा. वा./५/१९/१५/४६९/३१; १८/४७०/९); (चा. सा. /८८/१) ।
रा. वा. /५/१९/१८/४७०/१४ नैते हेतवः । यस्तावदुच्यते−इन्द्रिय-ग्राह्यत्वादिति; श्रोत्रमाकाशमयममूर्त्तममूर्त्तस्य ग्राहकमिति को विरोधः । यश्चोच्यते−प्रेरणादिति; नासौ प्रेर्यते गुणस्य गमनाभावात् । देशान्तरस्थेन कथं गृह्यते इति चेत् ।....वेगवद्द्रव्याभिघातात् तदनारम्भेऽग्रहणं न प्रेरणमिति । योऽप्युच्यतेत−अवरोधादिति; स्पर्शवद्द्रव्याभिघातादेव दिगन्तरे शब्दान्तरानारम्भात्, एकदिक्कारम्भे सति अवरोध इव लक्ष्यते न तु मुख्योऽस्तीति । अत्रोच्यते−नैते दोषाः । श्रोत्रं ‘तावदाकाशमयम्’ इति नोपपद्यते; आकाशस्यामूर्तस्य कार्यान्तरारम्भशक्तिविरहात् । अदृष्टवशादिति चेत्; चिन्त्यमेतत्−किमसावदृष्ट आकाशं संस्करोति, उतात्मानम्, आहोस्वित् शरीरैकदेशमिति । न तावदाकाशे संस्कारो युज्यते; अमूर्तित्वात् अन्यगुणत्वादसंबन्धाच्च । आत्मन्यपि शरीरादत्यन्तमन्यत्वेन कल्पिते नित्ये निरवयवे संस्काराधानं न युज्यते, तदुपार्जनफलादानासंभवात् । नापि शरीरैकदेशे युज्यते; अन्यगुणत्वात् अनभिसंबन्धाच्च । किंच, मूर्तिमत्संबन्धजनितविपत्संपत्तिदर्शनात् श्रोत्रं मूर्त्तमेवेत्यवसेयम् । यदप्युच्यते−स्पर्शवद् द्रव्याभिघातात् शब्दान्तरानारम्भ इति; खात्पतिता नो रत्नवृष्टिः, स्पर्शवद्द्रव्याभिघातादेव मूर्त्तत्वमस्य सिद्धम् । न हि अमूर्तः कश्चित् मूर्तिमता विहन्यते । तत एव च मुख्यावरोधसिद्धिः स्पर्शवदभिघाताभ्युपगमात् । = प्रश्न− उपरोक्त सर्व ही हेतु ठीक नहीं हैं, क्योंकि श्रोत्रेन्द्रिय आकाशमय होने के कारण स्वयं अमूर्त है और इसलिए अमूर्त शब्द को भी ग्रहण कर सकता है । वायु के द्वारा प्रेरित होना भी नहीं बनता, क्योंकि शब्द गुण है और गुण में क्रिया नहीं होती । संयोग, विभाग व शब्द इन तीनों से शब्दान्तर उत्पन्न हो जाने से नये शब्द सुनाई देते हैं । वास्तव में प्रेरित शब्द सुनाई नहीं देता । जहाँ वेगवान् द्रव्य का अभिघात होता है वहाँ नये शब्दों की उत्पत्ति नहीं होती । जो शब्द का अवरोध जैसा मालूम देता है, वस्तुतः वह अवरोध नहीं है, किन्तु अन्य स्पर्शवान् द्रव्य का अभिघात होने से एक ही दिशा में शब्द उत्पन्न हो जाता है । वह अवरोध जैसा लगता है । अतः शब्द अमूर्त है ? उत्तर− ये कोई दोष नहीं हैं; क्योंकि-श्रोत्र को आकाशमय कहना उचित नहीं है, क्योंकि अमूर्त आकाश कार्यान्तर को उत्पन्न करने की शक्ति से रहित है। अदृष्ट की सहायता से भी आकाश में या आत्मा में या शरीर के एकदेश में संस्कार उत्पन्न करने की बात ठीक नहीं है, क्योंकि अन्य द्रव्य का गुण होने के कारण आकाश व शरीर से उस अदृष्ट का कोई सम्बन्ध नहीं है । और आत्मा आपके ही स्वयं निरंश व नित्य होने के कारण उसके फल से रहित है । दूसरे यह बात भी है कि मूर्तिमान् तेल आदि द्रव्यों से श्रोत्र में अतिशय देखा जाता है तथा मूर्तिमान कील आदि से उसका विनाश देखा जाता है, अतः श्रोत्र को मूर्त मानना ही समुचित है । आपका यह कहना कि स्पर्शवान् द्रव्य के अभिघात से शब्दान्तर उत्पन्न हो जाता है, स्वयं इस बात की सिद्धि करता है कि शब्द मूर्त है, क्योंकि कोई भी अमूर्त पदार्थ मूर्त के द्वारा अभिघात को प्राप्त नहीं हो सकता । इसलिए मुख्यरूप से शब्द के अभिघात वाला हेतु भी खण्डित नहीं होता ।
रा. वा./५/१९/१९/४७०/२८ यथा नारकादयो भास्करप्रभाभिवान्मूर्तिमन्तः, तथा सिंहगजभेर्यादिशब्दैर्बृहद्भिः शकुनिरुतादयोऽभिभूयन्ते । तथा कंसादिषु पतिता ध्वन्यन्तरारम्भे हेतवो भवन्ति । गिरिगह्वरादिषु च प्रतिहताः प्रतिश्रुद्भावमास्कन्दन्ति । अत्राह−अमूर्तेरप्यभिभवा दृश्यन्ते− यथा विज्ञानस्य सुरादिभिः मूर्तिमद्भिस्ततो नायं निश्चयहेतुरिति उच्यते−नायं व्यभिचारः, विज्ञानस्य क्षायोपशमिकस्य पौद्गलिकत्वाभ्यपगमात् । = जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से अभिभूत होने वाले तारा आदि मूर्तिक हैं, उसी तरह सिंह की दहाड़, हाथी की चिंघाड़ और भेरी आदि के घोष से पक्षी आदि के मन्द शब्दों का भी अभिभव होने से वे मूर्त हैं । कांसे के बर्तन आदि में पड़े हुए शब्द शब्दान्तर को उत्पन्न करते हैं । पर्वतों की गुफाओं आदि से टकराकर प्रतिध्वनि होती है । प्रश्न− मूर्तिमान् से अभिभव होने का हेतु ठीक नहीं है, क्योंकि मूर्तिमान् सुरा आदि से अमूर्त विज्ञान का अभिभव देखा जाता है । उत्तर− यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि संसारी जीवों के क्षायोपशमिक ज्ञान को कथंचित् मूर्तिक स्वीकार किया गया है । (देखें - आगे शीर्षक नं . ५); (स. सि./५/१९/२८८/५) ।
- द्रव्य व भावमन में पौद्गलिकत्व व मूर्तत्व
स. सि./५/३/२६९/२ मनोऽपि द्विविधं द्रव्यमनो भावमनश्चेति ।...द्रव्यमनश्चरूपादियोगात्पुद्गलद्रव्यविकारः । रूपादिवन्मनः । ज्ञानोपयोगकरणत्वाच्चक्षुरिन्द्रियवत् । ननु अमूर्तेऽपि शब्दे ज्ञानोपयोगकरणत्वदर्शनाद् व्यभिचारी हेतुरिति चेत् । न; तस्य पौद्गलिकत्वान्मूर्तिमत्वोपपत्तेः । ननु यथा परमाणूनां रूपादिमत्कार्यदर्शनाद्रूपादिमत्वं न तथा वायुमनसो रूपादिमत्कार्य दृश्यते इति तेषामपि तदुपपत्तेः । सर्वेषां परमाणूनां सर्वरूपादिमत्कार्यत्वप्राप्तियोग्याभ्युपगमात् । = मन भी दो प्रकार का है−द्रव्यमन व भावमन । उनमें से द्रव्यमन में रूपादिक पाये जाते हैं । अतः वह पुद्गल द्रव्य की पर्याय है । दूसरे मन रूपादिवाला है, ज्ञानोपयोग का करण होने से, चक्षुरिन्द्रियवत् । = प्रश्न− यह हेतु व्यभिचारी है, क्योंकि अमूर्त होते हुए भी शब्द में ज्ञानोपयोग की करणता देखी जाती है ? उत्तर− नहीं, क्योंकि शब्द को पौद्गलिक स्वीकार किया गया है । (देखें - पिछला शीर्षक ) अतः वह मूर्त है । प्रश्न− जिस प्रकार परमाणुओं के रूपादि गुणवाले कार्य देखे जाते हैं, अतः वे रूपादि वाले सिद्ध होते हैं, उसी प्रकार वायु और मन के रूपादि गुणवाले कार्य नहीं देखे जाते ? उत्तर− नहीं, क्योंकि वायु और मन के भी रूपादि गुण वाले कार्यों के होने की योग्यता मानी गयी है । [परमाणुओं में जाति भेद न होने से वायु व मन के कोई स्वतन्त्र परमाणु नहीं हैं, जिनका कि पृथक् से कोई स्वतन्त्र कार्य देखा जा सके। [ देखें - परमाणु / २ / २ ] (रा. वा./५/३/३/४४२/९) ।
स. सि./५/१९/२८७/१ भावमनस्तावत्...पुद्गलावलम्बनत्वात् पौद्गलिकम् । द्रव्यमनश्च... गुणदोषविचारस्मरणादिप्रणिधानाभिमुखस्यात्मनोऽनुग्राहकाः पुद्गला मनस्तवेन परिणता इति पौद्गलिकम् । = भावमन पुद्गलों के अवलम्बन से होता है, इसलिए पौद्गलिक है । तथा जो पुद्गल गुणदोष विचार और स्मरणादि उपयोग के सन्मुख हुए आत्मा के उपकारक हैं वे ही मनरूप से परिणत होते हैं, अतः द्रव्यमन पौद्गलिक है । [अणु प्रमाण कोई पृथक् मन नामक पदार्थ नहीं है [ देखें - मन / १२ ] (रा. वा./५/१९/२०/४७१/२); (चा. सा./८८/३); (गो. जी./जी. प्र./६०६/१०६२/६) ।
देखें - मनःपर्यय / १ / ४ [संसारी जीव और उसका क्षायोपशमिक ज्ञान क्योंकि कथंचित् मूर्त है (देखें - अगला शीर्षक ), अतः उससे अपृथक् भूत मति, स्मृति, चिन्ता आदिरूप भावमन भी मूर्त है ]।
- जीव के क्षायोपशमिकादि भावों में पौद्गलिकत्व व मूर्तत्व
रा.वा./१/२०/७/८०/२४ भावतः स्वविषयपुद्गलस्कन्धानां रूपादिविकल्पेषु जीवपरिणामेषु चौदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकेषु वर्तते । कुतः । पौद्गलिकत्वादेषाम् ।
रा. वा. /१/२७/४/८८/१९ जीवपर्यायेषु औदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकेषूत्पद्यतेऽवधिज्ञानम् रूपिद्रव्यसंबन्धात्, न क्षायिकपारिणामिकेषु....तत्संबन्धाभावात् । = रूपी पदार्थ विषयक अवधिज्ञान भाव की अपेक्षा स्वविषयभूत पुद्गलस्कन्धों के रूपादि विकल्पों में तथा जीव के औदयिक, औपशमिक व क्षायोपशमिक भावों में वर्तता है, क्योंकि रूपीद्रव्य का (कर्मों का) सम्बन्ध होने के कारण ये भाव पौद्गलिक हैं । परन्तु क्षायिक व पारिणामिक भावों में नहीं वर्तता है, क्योंकि उन दोनों में उस रूपीद्रव्य के सम्बन्ध का अभाव है ।
- जीव के रागादिक भावों में पौद्गलिकत्व व मूर्तत्व
स. सा./मू./४६, ५१, ५५ ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं । जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावाः ।४६। जीवस्स णत्थि रागो णवि दोसो णेव विज्जदे मोहो ।... ।५१। जेण दु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्स परिणामा ।५५। = ‘ये सब अध्यवसानादि भाव जीव हैं’ इस प्रकार जिनेन्द्रदेव ने जो उपदेश दिया है सो व्यवहारनय दर्शाया है ।४६। निश्चय से तो जीव के न राग है, न द्वेष और न मोह ।५१। क्योंकि ये सब पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं ।५५। (स. सा./मू. /४४, ५६, ६८) ।
स. सि./७/१७/३५५/१० रागादयः पुनः कर्मोदयतन्त्रा इति नात्मस्वभावत्वाद्धेयाः । = रागादिक कर्मों के उदय से होते हैं, अतः वे आत्मा के स्वभाव न होने से हेय हैं । (रा. वा./७/१७/५/५४५/१८) ।
स. सा./आ. /गा. नं. अनाकुलत्वलक्षणसौख्याख्यात्मस्वभावविलक्षणत्वात्किल दुःखं; तदन्तःपातिन एव किलाकुलत्वलक्षणा अध्यवसानादिभावाः । ततो न ते चिदन्वयविभ्रमेऽप्यात्मस्वभावाः किन्तु पुद्गलस्वभावाः ।४५। यः प्रीतिरूपो रागाः....अप्रीतिरूपो द्वेषः...अप्रतिपत्तिरूपो मोहः स सर्वोऽपि पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् ।५१। = अनाकुलता लक्षण सुख नामक आत्म स्वभाव है । उससे विलक्षण दुःख है । उस दुःख में ही आकुलता लक्षण वाले अध्यवसान आदि भाव समाविष्ट हो जाते हैं; इसलिए, यद्यपि वे चैतन्य के साथ सम्बन्ध होने का भ्रम उत्पन्न करते हैं, तथापि वे आत्मस्वभाव नहीं हैं, किन्तु पुद्गल स्वभाव हैं ।४५। जो यह प्रीतिरूप राग है, या अप्रीतिरूप द्वेष है या यथार्थ तत्त्व की अप्रतिपत्तिरूप मोह है वह सर्व ही जीव का नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है ।५१। (स. सा./आ. /७४, ७५, १०२, ११५, १३८) ।
द्र. सं./टी./१६/५३/३ अशुद्धनिश्चयेन योऽसौ रागादिरूपो भावबन्ध: कथ्यते सोऽपि शुद्धनिश्चयनयेन पुद्गलबन्ध एव । = अशुद्ध निश्चयनय से जो वह रागादिरूप भाव बन्ध (जीव का) कहा जाता है, यह भी शुद्ध निश्चयनय से पुद्गल का ही है ।
पं. का./ता. वृ./१३४/१९७/१८ एवं नैयायिकमताश्रितशिष्यसंबोधनार्थं नयविभागेन पुण्यपापद्वयस्य मूर्तत्वसमर्थनरूपेणैकसूत्रेण तृतीयस्थल गतं । = इस प्रकार नैयायिक मताश्रित शिष्य के सम्बोधनार्थ नयविभाग से पुण्य व पाप इन दोनों के मूर्तपने का समर्थन करने रूप सूत्र कहा गया ।
- संसारी जीव में मूर्तत्व
स. सि./१/२७/१३४/९ ‘रूपिषु’ इत्यनेन पुद्गलाः पुद्गलद्रव्यसंबन्धाश्च जीवाः परिगृह्यन्ते । = सूत्र में कहे गये ‘रूपिषु’ इस पद से पुद्गलों का और पुद्गलों से बद्ध जीवों का ग्रहण होता है ।
गो. जी./जी. प्र./५९४/१०३३/८ पर उद्धृत−संसारिण्यपि पुद्गलः । = संसारी जीव में ‘पुद्गल’ शब्द प्रवर्तता है ।
देखें - बंध / २ / ५ / १ (संसारी जीव कथंचित् मूर्त है इसी कारण मूर्त कर्मों से बँधता है) ।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- द्रव्यों में मूर्त अमूर्त का विभाग ।– देखें - द्रव्य / ३ ।
- मूर्त द्रव्य के गुण मूर्त और अमूर्त द्रव्य के गुण अमूर्त होते हैं ।– देखें - गुण / ३ / १२ ।
- मूर्त द्रव्यों के साथ अमूर्त द्रव्यों का स्पर्श कैसे ।– देखें - स्पर्श / २ ।
- परमाणुओं में रूपी व अरूपी विभाग ।– देखें - मूर्त / २ , ४, ५ ।
- अमूर्त जीव के साथ मूर्त कर्म कैसे बँधे ।- देखें - बन्ध / २ ।
- भाव कर्मों के पौद्गलिकत्व का समन्वय ।- देखें - विभाव / ५ ।
- जीव का अमूर्तत्व ।- देखें - द्रव्य / ३ ।
- द्रव्यों में मूर्त अमूर्त का विभाग ।– देखें - द्रव्य / ३ ।