लोक
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
- लोकस्वरूप का तुलनात्मक अध्ययन
- लोकसामान्य निर्देश
- लोकाकाश व लोकाकाश में द्रव्यों का अवगाह। - देखें आकाश - 3।
- लोक का लक्षण।
- लोक का आकार।
- लोक का विस्तार
- वातवलयों का परिचय।
- लोक के आठ रुचक प्रदेश।
- लोक विभाग निर्देश।
- त्रस व स्थावर लोक निर्देश।
- अधोलोक सामान्य परिचय।
- भावनलोक निर्देश।
- व्यंतरलोक निर्देश।
- मध्य लोक निर्देश।
- ज्योतिष लोक सामान्य निर्देश।
- ज्योतिष विमानों की संचारविधि। - देखें ज्योतिष - 2.7।
- लोकाकाश व लोकाकाश में द्रव्यों का अवगाह। - देखें आकाश - 3।
- जंबूद्वीप निर्देश
- जंबूद्वीप सामान्य निर्देश।
- जंबूद्वीप में क्षेत्र, पर्वत, नदी, आदि का प्रमाण।
- क्षेत्र निर्देश।
- कुलाचल पर्वत निर्देश।
- विजयार्ध पर्वत निर्देश।
- सुमेरु पर्वत निर्देश।
- पांडुक शिला निर्देश।
- अन्य पर्वतों का निर्देश।
- द्रह निर्देश।
- कुंड निर्देश।
- नदी निर्देश।
- देवकुरु व उत्तरकुरु निर्देश।
- जंबू व शाल्मली वृक्षस्थल।
- विदेह के क्षेत्र निर्देश।
- लोकस्थित कल्पवृक्ष व कमलादि। - देखें वृक्ष । 1/4
- लोकस्थित चैत्यालय।- देखें चैत्य चैत्यालय - 3।
- जंबूद्वीप सामान्य निर्देश।
- अन्य द्वीप सागर निर्देश
- द्वीप पर्वतों आदि के नाम रस आदि
- द्वीप, समुद्रों के अधिपति देव - देखें व्यंतर - 4.7।
- द्वीप, समुद्रों आदि के नामों की अन्वर्थता। - देखें वह वह नाम ।
- जंबूद्वीप के पर्वतों के नाम
- जंबूद्वीप के पर्वतीय कूट व तन्निवासी देव।
- सुमेरु पर्वत के वनों में कूटों के नाम व देव।
- जंबूद्वीप के द्रहों व वापियों के नाम।
- महा द्रह के कूटों के नाम।
- जंबूद्वीप की नदियों के नाम।
- लवण सागर के पर्वत पाताल व तन्निवासी देव।
- मानुषोत्तर पर्वत के कूटों व देवों के नाम।
- नंदीश्वर द्वीप की वापियाँ व उनके देव।
- कुंडलवर पर्वत के कूटों व देवों के नाम।
- रुचक पर्वत के कूटों व देवों के नाम।
- पर्वतों आदि के वर्ण।
- द्वीप, समुद्रों के अधिपति देव - देखें व्यंतर - 4.7।
- द्वीप क्षेत्र पर्वत आदि का विस्तार
- द्वीप-सागरों का सामान्य विस्तार।
- लवणसागर व उसके पातालादि।
- अढाई द्वीप के क्षेत्रों का विस्तार।
- जंबूद्वीप के पर्वतों व कूटों का विस्तार
- शेष द्वीपों के पर्वतों व कूटों का विस्तार।
- अढाई द्वीप के वनखंडों का विस्तार।
- अढाई द्वीप की नदियों का विस्तार।
- मध्यलोक की वापियों व कुंडों का विस्तार।
- अढाई द्वीप के कमलों का विस्तार।
- द्वीप-सागरों का सामान्य विस्तार।
- लोक के चित्र
- वैदिक धर्माभिमत भूगोल
- बौद्ध धर्माभिमत भूगोल
- अधोलोक
- अधोलोक सामान्य
- प्रत्येक पटल में इंद्रक व श्रेणीबद्ध
- रत्नप्रभा पृथिवी
- अब्बहुल भाग में नरकों के पटल
- भावन लोक
- रत्नप्रभा पृथिवी
- ज्योतिष लोक
- मध्यलोक में चरज्योतिष विमानों का अवस्थान।
- ज्योतिष विमानों का आकार।
- अचर ज्योतिष विमानों का अवस्थान।
- ज्योतिष विमानों की संचारविधि।
- मध्यलोक में चरज्योतिष विमानों का अवस्थान।
- ऊर्ध्व लोक
- पद्मद्रह।- देखें चित्र सं - 24।
- सुमेरु पर्वत
- नाभिगिरि पर्वत
- गजदंत पर्वत
- यमक व कांचन गिरि
- पद्म द्रह
- पद्म द्रह के मध्यवर्ती कमल
- देव कुरु व उत्तर कुरु
- विदेह का कच्छा क्षेत्र
- पूर्वापर विदेह - देखें चित्र सं - 13
- जंबू व शाल्मली वृक्ष स्थल
- लवण सागर
- अधोलोक सामान्य
- लोकस्वरूप का तुलनात्मक अध्ययन
- लोकनिर्देश का सामान्य परिचय
पृथिवी, इसके चारों ओर का वायुमंडल, इसके नीचे की रचना तथा इसके ऊपर आकाश में स्थित सौरमंडल का स्वरूप आदि, इनके ऊपर रहने वाली जीव राशि, इनमें उत्पन्न होने वाले पदार्थ, एक दूसरे के साथ इनका संबंध। ये सब कुछ वर्णन भूगोल का विषय है। प्रत्यक्ष होने से केवल इस पृथिवी मंडल की रचना तो सर्व सम्मत है, परंतु अन्य बातों का विस्तार जानने के लिए अनुमान ही एकमात्र आधार है। यद्यपि आधुनिक यंत्रों से इसके अतिरिक्त कुछ अन्य भूखंडों का भी प्रत्यक्ष करना संभव है पर असीम लोक की अपेक्षा वह किसी गणना में नहीं है। यंत्रों से भी अधिक विश्वस्त योगियों की सूक्ष्म दृष्टि है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखने पर लोकों की रचना के रूप में यह सब कथन व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति व अवनति का प्रदर्शन मात्र है। एक स्वतंत्र विषय होने के कारण उसका दिग्दर्शन यहाँ कराया जाना संभव नहीं है। आज तक भारत में भूगोल का आधार वह दृष्टि ही रही है। जैन, वैदिक व बौद्ध आदि सभी दर्शनकारों ने अपने-अपने ढंग से इस विषय का स्पर्श किया है और आज के आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी। सभी की मान्यताएँ भिन्न-भिन्न होती हुई भी कुछ अंशों में मिलती हैं। जैन व वैदिक भूगोल काफी अंशों में मिलता है। वर्तमान भूगोल के साथ किसी प्रकार भी मेल बैठता दिखाई नहीं देता, परंतु यदि विशेषज्ञ चाहें तो इस विषय की गहराइयों में प्रवेश करके आचार्यों के प्रतिपादन की सत्यता सिद्ध कर सकते हैं। इन्हीं सब दृष्टियों की संक्षिप्त तुलना इस अधिकार में की गयी है।
- जैनाभिमत भूगोल-परिचय
जैसा कि अगले अधिकारों पर से जाना जाता है, इस अनंत आकाश के मध्य का वह अनादि व अकृत्रिम भाग जिसमें कि जीव, पुद्गल आदि षट्द्रव्य समुदाय दिखाई देता है, वह लोक कहलाता है, जो इस समस्त आकाश की तुलना में ना के बराबर है। - लोक नाम से प्रसद्धि आकाश का यह खंड मनुष्याकार है तथा चारों ओर तीन प्रकार की वायुओं से वेष्ठित है। लोक के ऊपर से लेकर नीचे तक बीचों-बीच एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त त्रसनाली है। त्रस जीव इससे बाहर नहीं रहते पर स्थावर जीव सर्वत्र रहते हैं। यह तीन भागों में विभक्त हैं - अधोलोक, मध्यलोक व ऊर्ध्वलोक। अधोलोक में नारकी जीवों के रहने के अति दु:खमय रौरव आदि सात नरक हैं, जहाँ पापी जीव मरकर जन्म लेते हैं, और ऊर्ध्वलोक में करोड़ों योजनों के अंतराल से एक के ऊपर एक करके 16स्वर्गों में कल्पवासी विमान हैं। जहाँ पुण्यात्मा जीव मरकर जन्मते हैं। उनसे भी ऊपर एक भवावतारी लौकांतिकों के रहने का स्थान है, तथा लोक के शीर्ष पर सिद्धलोक है जहाँ कि मुक्त जीव ज्ञानमात्र शरीर के साथ अवस्थित हैं। मध्यलोक में वलयाकार रूप से अवस्थित असंख्यातों द्वीप व समुद्र एक के पीछे एक को वेष्ठित करते हैं। जंबू, धातकी, पुष्कर आदि तो द्वीप हैं और लवणोद, कालोद, वारुणीवर, क्षीरवर, इक्षुवर, आदि समुद्र हैं। प्रत्येक द्वीप व समुद्र पूर्व-पूर्व की अपेक्षा दूने विस्तार युक्त हैं। सबके बीच में जंबू द्वीप है, जिसके बीचों-बीच सुमेरु पर्वत है। पुष्कर द्वीप के बीचों-बीच वलयाकार मानुषोत्तर पर्वत है, जिससे उसके दो भाग हो जाते हैं।
जंबू द्वीप, धातकी व पुष्कर का अभ्यंतर अर्धभाग, ये अढाई द्वीप हैं इनसे आगे मनुष्यों का निवास नहीं है। शेष द्वीपों में तिर्यंच व भूतप्रेत आदि व्यंतर देव निवास करते हैं। - जंबूद्वीप में सुमेरु के दक्षिण में हिमवान, महाहिमवान व निषध, तथा उत्तर में नील, रुक्मि व शिखरी ये छः कुलपर्वत हैं जो इस द्वीप को भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत व ऐरावत नामवाले सात क्षेत्रों में विभक्त करते हैं। प्रत्येक पर्वत पर एक महाह्रद है जिनमें से दो-दो नदियाँ निकलकर प्रत्येक क्षेत्र में पूर्व व पश्चिम दिशा मुख से बहती हुई लवण सागर में मिल जाती है। उस-उस क्षेत्र में वे नदियाँ अन्य सहस्रों परिवार नदियों को अपने में समा लेती हैं। भरत व ऐरावत क्षेत्रों में बीचों-बीच एक-एक विजयार्धपर्वत है। इन क्षेत्रों की दो-दो नदियों व इस पर्वत के कारण ये क्षेत्र छः-छः खंडों में विभाजित हो जाते हैं, जिनमें मध्यवर्ती एक खंड में आर्य जन रहते हैं और शेष पाँच में म्लेच्छ। इन दोनों क्षेत्रों में ही धर्म-कर्म व सुख-दु:ख आदि की हानि-वृद्धि होती है, शेष क्षेत्र सदा अवस्थित हैं। - विदेह क्षेत्र में सुमेरु के दक्षिण व उत्तर में निषध व नील पर्वतस्पर्शी सौमनस, विद्युत्प्रभ तथा गंधमादन व माल्यवान नाम के दो-दो गजदंताकार पर्वत हैं, जिनके मध्य देवकुरु व उत्तरकुरु नाम की दो उत्कृष्ट भोगभूमियाँ हैं, जहाँ के मनुष्य व तिर्यंच बिना कुछ कार्य करे अति सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। उनकी आयु भी असंख्यातों वर्ष की होती है। इन दोनों क्षेत्रों में जंबू व शाल्मली नाम के दो वृक्ष हैं। जंबू वृक्ष के कारण ही इसका नाम जंबूद्वीप है। इसके पूर्व व पश्चिम भाग में से प्रत्येक में 16,16 क्षेत्र हैं जो 32 विदेह कहलाते हैं। इनका विभाग वहाँ स्थित पर्वत व नदियों के कारण से हुआ है। प्रत्येक क्षेत्र में भरतक्षेत्रवत् छह खंडों की रचना है। इन क्षेत्रों में कभी धर्म विच्छेद नहीं होता। - दूसरे व तीसरे आधे द्वीप में पूर्व व पश्चिम विस्तार के मध्य एक-एक सुमेरु है। प्रत्येक सुमेरु संबंधी छः पर्वत व सात क्षेत्र हैं जिनकी रचना उपरोक्तवत् है। - लवणोद के तलभाग में अनेकों पाताल हैं, जिनमें वायु की हानि-वृद्धि के कारण सागर के जल में भी हानि-वृद्धि होती रहती है। पृथिवीतल से 790 योजन ऊपर आकाश में क्रम से सितारे, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, बुध, शुक्र, वृहस्पति, मंगल व शनीचर इन ज्योतिष ग्रहों के संचार क्षेत्र अवस्थित हैं, जिनका उल्लंघन न करते हुए वे सदा सुमेरु की प्रदक्षिणा देते हुए घूमा करते हैं। इसी के कारण दिन, रात, वर्षा ऋतु आदि की उत्पत्ति होती है। जैनाम्नाय में चंद्रमा की अपेक्षा सूर्य छोटा माना जाता है।
- वैदिक धर्माभिमत भूगोल-परिचय
-देखें आगे चित्र सं - 1 से 4।
(विष्णु पुराण/2/2-7 के आधार पर कथित भावार्थ) इस पृथिवी पर जंबू, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर ये सात द्वीप, तथा लवणोद, इक्षुरस, सुरोद, सर्पिस्सलिल, दधितोय, क्षीरोद और स्वादुसलिल ये सात समुद्र हैं (2/2-4) जो चूड़ी के आकार रूप से एक दूसरे को वेष्टित करके स्थित हैं। ये द्वीप पूर्व-पूर्व द्वीप की अपेक्षा दूने विस्तारवाले हैं। (2/4, 88)।
इन सबके बीच में जंबूद्वीप और उसके बीच में 84000 योजन ऊँचा सुमेरु पर्वत है। जो 16000 योजन पृथिवी में घुसा हुआ है। सुमेरु से दक्षिण में हिमवान, हेमकूट और निषध तथा उत्तर मे नील, श्वेत और शृंगी ये छः वर्ष पर्वत हैं। जो इसको भारतवर्ष, किंपुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्यमय और उत्तर कुरु, इन सात क्षेत्रों में विभक्त कर देते हैं। - नोट - जंबूद्वीप की चातुर्द्वीपिक भूगोल के साथ तुलना (देखें चातुर्द्विपिक भूगोल परिचय)। मेरु पर्वत की पूर्व व पश्चिम में इलावृत की मर्यादाभूत माल्यवान व गंधमादन नाम के दो पर्वत हैं जो निषध व नील तक फैले हुए हैं। मेरु के चारों ओर पूर्वादि दिशाओं में मंदर, गंधमादन, विपुल, और सुपार्श्व ये चार पर्वत हैं। इनके ऊपर क्रमश: कदंब, जंबू, पीपल व बट ये चार वृक्ष हैं। जंबूवृक्ष के नाम से ही यह द्वीप जन्बूद्वीप नाम से प्रसिद्ध है। वर्षों में भारतवर्ष कर्मभूमि है और शेष वर्ष भोगभूमियाँ हैं क्योंकि भारत में ही कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलियुग ये चार काल वर्तते हैं और स्वर्ग मोक्ष के पुरुषार्थ की सिद्धि है। अन्य क्षेत्रों में सदा त्रेता युग रहता है और वहां के निवासी पुण्यवान व आधि-व्याधि से रहित होते हैं। (अध्याय 2)।
भरतक्षेत्र में महेंद्र आदि छः कुलपर्वत हैं, जिनसे चंद्रमा आदि अनेक नदियाँ निकलती हैं। नदियों के किनारों पर कुरु पाँचाल आदि (आर्य) और पौंड्र कलिंग आदि (म्लेच्छ) लोग रहते हैं। (अध्याय 3) इसी प्रकार प्लक्षद्वीप में भी पर्वत व उनसे विभाजित क्षेत्र हैं। वहाँ प्लक्ष नाम का वृक्ष है और सदा त्रेता काल रहता है। शाल्मल आदि शेष सर्व द्वीपों की रचना प्लक्ष द्वीपवत् है। पुष्कर द्वीप के बीचों-बीच वलयाकार मानुषोत्तर पर्वत है जिससे उसके दो खंड हो गये हैं। अभ्यंतर खंड का नाम धातकी है। यहाँ भोगभूमि है इस द्वीप में पर्वत व नदियाँ नहीं हैं। इस द्वीप को स्वादूदक समुद्र वेष्ठित करता है। इससे आगे प्राणियों का निवास नहीं है। (अध्याय 4)।
इस भूखंड के नीचे दस-दस हजार योजन के सात पाताल हैं - अतल, वितल, नितल, गभस्तिमत्, महातल, सुतल और पाताल। पातालों के नीचे विष्णु भगवान् हजारों फनों से युक्त शेषनाग के रूप में स्थित होते हुए इस भूखंड को अपने सिर पर धारण करते हैं। (अध्याय 5) पृथिवीतल और जल के नीचे रौरव, सूकर, रोध, ताल, विशसन, महाज्वाल, तप्तकुंभ, लवण, विलोहित, रुधिरांभ, वैतरणी, कृमीश, कृमिभोजन, असिपत्र वन, कृष्ण, लालाभक्ष, दारुण, पूयवह, पाप, बह्णिज्वाल, अधःशिरा, संदंश, कालसूत्र, तमस्, अवीचि, श्वभोजन, अप्रतिष्ठ, और अरुचि आदि महाभयंकर नरक हैं, जहाँ पापी जीव मरकर जन्म लेते हैं। (अध्याय 6) भूमि से एक लाख योजन ऊपर जाकर, एक-एक लाख योजन के अंतराल से सूर्य, चंद्र, व नक्षत्र मंडल स्थित हैं, तथा उनके ऊपर दो - दो लाख योजन के अंतराल से बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, शनि, तथा इनके ऊपर एक-एक लाख योजन के अंतराल से सप्तऋषि व ध्रुव तारे स्थित हैं। इससे 1 करोड़ योजन ऊपर महर्लोक है जहाँ कल्पों तक जीवित रहने वाले कल्पवासी भृगु आदि सिद्धगण रहते हैं। इससे 2 करोड़ योजन ऊपर जनलोक है जहाँ ब्रह्माजी के पुत्र सनकादि रहते हैं। आठ करोड़ योजन ऊपर तप लोक है जहाँ वैराज देव निवास करते हैं।
12 करोड़ योजन ऊपर सत्यलोक है, जहाँ फिर से न मरनेवाले जीव रहते हैं, इसे ब्रह्मलोक भी कहते हैं। भूलोक व सूर्यलोक के मध्य में मुनिजनों से सेवित भुवलोक है और सूर्य तथा ध्रुव के बीच में 14 लाख योजन स्वलोक कहलाता है। ये तीनों लोक कृतक हैं। जनलोक, तपलोक व सत्यलोक ये तीन अकृतक हैं। इन दोनों कृतक व अकृतक के मध्य में महर्लोक है। इसलिए यह कृताकृतक है। (अध्याय 7)।
- बौद्धाभिमत भूगोल-परिचय
(5वीं शताब्दी के वसुबंधुकृत अभिधर्मकोश के आधार पर तिलोयपण्णत्ति/ प्र. 87/ H.L. Jain द्वारा कथित का भावार्थ )। लोक के अधोभाग में 16,00,000 योजन ऊँचा अपरिमित वायुमंडल है। इसके ऊपर 11,20,000 योजन ऊँचा जलमंडल है। इस जलमंडल में 3,20,000 यो. भूमंडल है। इस भूमंडल के बीच में मेरु पर्वत है। आगे 80,000 योजन विस्तृत सीता (समुद्र) है जो मेरु को चारों ओर से वेष्ठित करके स्थित है। इसके आगे 40,000 योजन विस्तृत युगंधर पर्वत वलयाकार से स्थित है। इसके आगे भी इसी प्रकार एक एक सीता (समुद्र) के अंतराल से उत्तरोत्तर आधे-आधे विस्तार से युक्त क्रमशः ईषाधर, खदिरक, सुदर्शन, अश्वकर्ण, विनतक, और निर्मिधर पर्वत हैं। अंत में लोहमय चक्रवाल पर्वत है। निमिंधर और चक्रवाल पर्वतों के मध्य में जो समुद्र स्थित है उसमें मेरू को पूर्वादि दिशाओं में क्रम से अर्धचंद्राकार पूर्वविदेह, शकटाकार जंबूद्वीप, मंडलाकार अबरगोदानीय और समचतुष्कोण उत्तरकुरु ये चार द्वीप स्थित हैं। इन चारों के पार्श्व भागों में दो-दो अंतर्द्वीप हैं। उनमें से जंबूद्वीप के पासवाले चमरद्वीप में राक्षसों का और शेष द्वीप में मनुष्यों का निवास है। जंबूद्वीप में उत्तर की ओर 9 कीटाद्रि (छोटे पर्वत) तथा उनके आगे हिमवान पर्वत अवस्थित है। उसके आगे अनवतप्त नामक अगाध सरोवर है, जिसमें से गंगा, सिंधु, वक्षु और सीता ये नदियाँ निकलती हैं। उक्त सरोवर के समीप में जंबू वृक्ष है। जिसके कारण इस द्वीप का जंबू ऐसा नाम पड़ा है। जंबूद्वीप के नीचे 20,000 योजन प्रमाण अवीचि नामक नरक है। उसके ऊपर क्रमशः प्रतापन आदि सात नरक और हैं। इन नरकों के चारों पार्श्व भाग में कुकूल, कुणप, क्षुरमार्गादिक और खारोदक (असिपत्रवन, श्यामशबल-श्व-स्थान, अयःशाल्मली वन और वैतरणीनदी) ये चार उत्सद है। इन नरकों के धरातल में आठ शीत नरक और हैं। भूमि से 40,000 योजन ऊपर जाकर चंद्रसूर्य परिभ्रमण करते हैं। जिस समय जंबूद्वीप में मध्याह्न होता है उस समय उत्तरकुरु में अर्धरात्रि, पूर्वविदेह में अस्तगमन और अवरगोदानीय में सूर्योदय होता है। मेरु पर्वत की पूर्वादि दिशाओं में उसके चार परिषंड (विभाग) हैं, जिन पर क्रम से यक्ष, मालाधार, सदामद और चातुर्महाराजिक देव रहते हैं। इसी प्रकार शेष सात पर्वतों पर भी देवों के निवास हैं। मेरुशिखर पर त्रायस्त्रिंश (स्वर्ग) है। इससे ऊपर विमानों में याम, तुषित आदि देव रहते हैं। उपरोक्त देवों में चातुर्महाराजिक, और त्रायस्त्रिंश देव मनुष्यवत् काम-भोग भोगते हैं। याम, तुषित आदि क्रमशः आलिंगन, पाणिसंयोग, हसित और अवलोकन से तृप्ति को प्राप्त होते हैं। उपरोक्त कामधातु देवों के ऊपर रूपधातु देवों के ब्रह्मकायिक आदि 17 स्थान हैं। ये सब क्रमशः ऊपर - ऊपर अवस्थित हैं। जंबूद्वीपवासी मनुष्यों की ऊँचाई केवल 3 1/2 हाथ है। आगे क्रम से बढ़ती हई अनभ्र देवों के शरीर की ऊँचाई 125 योजन प्रमाण है।
- आधुनिक विश्व परिचय
लोक के स्वरूप का निर्देश करने के अंतर्गत दो बातें जाननीय हैं - खगोल तथा भूगोल। खगोल की दृष्टि से देखने पर इस असीम आकाश में असंख्यातों गोलाकार भूखंड हैं। सभी भ्रमणशील हैं। भौतिक पदार्थों के आण्विक विधान की भाँति इनके भ्रमण में अनेक प्रकार की गतियें देखी जा सकती हैं। पहली गति है प्रत्येक भूखंड का अपने स्थान पर अवस्थित रहते हुए अपने ही धुरी पर लट्टू की भाँति घूमते रहना। दूसरी गति है सूर्य जैसे किसी बड़े भूखंड को मध्यम में स्थापित करके गाड़ी के चक्के में लगे अरों की भाँति अनेकों अन्य भूखंडों का उसकी परिक्रमा करते रहना, परंतु परिक्रमा करते हुए भी अपनी परिधि का उल्लंघन न करना। परिक्रमाशील इन भूखंडों के समुदाय को एक सौर-मंडल या एक ज्योतिषि-मंडल कहा जाता है। प्रत्येक सौर-मंडल में केंद्रवर्ती एक सूर्य होता है और अरों के स्थानवर्ती अनेकों अन्य भूखंड होते हैं, जिनमें एक चंद्रमा, अनेकों ग्रह, अनेकों उपग्रह तथा अनेकों पृथ्वियें सम्मिलित हैं। ऐसे-ऐसे सौर-मंडल इस आकाश में न जाने कितने हैं। प्रत्येक भूखंड गोले की भाँति गोल है परंतु प्रत्येक सौर-मंडल गाड़ी के पहिये की भाँति चक्राकार है। तीसरी गति है किसी और मंडल को मध्य में स्थापित करके अन्य अनेकों सौर-मंडलों द्वारा उसकी परिक्रमा करते रहना, और परिक्रमा करते हुए भी अपनी परिधि का उल्लंघन न करना।
इन भूखंडों में से अनेकों पर अनेक आकार प्रकार वाली जीव राशि का वास है, और अनेकों पर प्रलय जैसी स्थिति है। जल तथा वायु का अभाव हो जाने के कारण उन पर आज बसती होना संभव नहीं है। जिन पर आज बसती बनी है उन पर पहले कभी प्रलय थी और जिन पर आज प्रलय है उन पर आगे कभी बसती हो जाने वाली है। कुछ भूखंडों पर बसने वाले अत्यंत सुखी हैं और कुछ पर रहने वाले अत्यंत दुःखी, जैसे कि अंतरिक्ष की आधुनिक खोज के अनुसार मंगल पर जो बसती पाई गई है वह नारकीय यातनायें भोग रही है।
जिस भूखंड पर हम रहते हैं यह भी पहले कभी अग्नि का गोला था जो सूर्य में से छिटक कर बाहर निकल गया था। पीछे इसका ऊपरी तल ठंडा हो गया। इसके भीतर अब भी ज्वाला धधक रही है। वायुमंडल धरातल से लेकर इसके ऊपर उत्तरोत्तर विरल होते हुए 500 मील तक फैला हुआ है। पहले इस पर जीवों का निवास नहीं था, पीछे क्रम से सजीव पाषाण आदि, वनस्पति, नमी में रहने वाले छोटे-छोटे कोकले, जल में रहने वाले मत्स्यादि, पृथिवी तथा जल दोनों में रहने वाले मेंढक, कछुआ आदि बिलों में रहने वाले सरीसृप आदि आकाश में उड़ने वाले भ्रमर, कीट, पतंग व पक्षी, पृथिवी पर रहने वाले स्तनधारी पशु बंदर आदि और अंत में मनुष्य उत्पन्न हुए। तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार और भी असंख्य जीव जातियें उत्पन्न हो गयीं।
इस भूखंड के चारों ओर अनंत आकाश हैं, जिसमें सूर्य चंद्र तारे आदि दिखाई देते हैं। चंद्रमा सबसे अधिक समीप में है। तत्पश्चात् क्रमशः शुक्र, बुद्ध, मंगल, बृहस्पति, शनि आदि ग्रह, इनसे साढे नौ मील दूर सूर्य, तथा उससे भी आगे असंख्यातों मील दूर असंख्य तारागण हैं। चंद्रमा तथा ग्रह स्वयं प्रकाश न होकर सूर्य के प्रकाश से प्रकाशवत् दिखते हैं। तारे यद्यपि दूर होने के कारण बहुत छोटे दिखते हैं परंतु इनमें से अधिकतर सूर्य की अपेक्षा लाखों गुणा बड़े हैं तथा अनेकों सूर्य की भाँति स्वयं जाज्वल्यमान हैं।
भूगोल की दृष्टि से देखने पर इस पृथिवी पर एशिया, योरूप, अफ्रीका, अमेरिका, आस्टेलिया आदि अनेकों उपद्वीप हैं। सुदूर पूर्व में ये सब संभवतः परस्पर में मिले हुए थे। भारतवर्ष एशिया का दक्षिणी पूर्वी भाग है। इसके उत्तर में हिमालय और मध्य में विंध्यागिरि, सतपुड़ा आदि पहाड़ियों की अटूट शृंखला है। पूर्व तथा पश्चिम के सागर में गिरने वाली गंगा तथा सिंधुनामक दो प्रधान नदियाँ हैं जो हिमालय से निकलकर सागर की ओर जाती हैं। इसके उत्तर में आर्य जाति और पश्चिम दक्षिण आदि दिशाओं में द्राविड़, भील, कौंल, नाग आदि अन्यान्य प्राचीन अथवा म्लेच्छ जातियाँ निवास करती हैं।
- उपरोक्त मान्यताओं की तुलना
- जैन व वैदिक मान्यता बहुत अंशों में मिलती है। -
जैसे -- चूड़ी के आकार रूप से अनेकों द्वीपों व समुद्रों का एक दूसरे को वेष्टित किये हुए अवस्थान।
- जंबूद्वीप, सुमेरु, हिमवान, निषध, नील, श्वेत (रुक्मि), शृंगी (शिखरी) ये पर्वत, भारतवर्ष (भरत क्षेत्र) हरिवर्ष, रम्यक, हिरण्मय (हैरण्यवत) उत्तरकुरु ये क्षेत्र, माल्यवान व गंधमादन पर्वत, जंबूवृक्ष इन नामों का दोनों मान्यताओं में समान होना।
- भारतवर्ष में कर्मभूमि तथा अन्य क्षेत्रों में त्रेतायुग (भोगभूमि) का अवस्थान।मेरु की चारों दिशाओं में मंदर आदि चार पर्वत जैनमान्य चार गजदंत हैं।
- कुलपर्वतों से नदियों का निकलना तथा आर्य व म्लेच्छ जातियों का अवस्थान।
- प्लक्ष द्वीप में प्लक्षवृक्ष जंबूद्वीपवत् उसमें पर्वतों व नदियों आदि का अवस्थान वैसा ही है जैसा कि धातकी खंड में धातकी वृक्ष व जंबूद्वीप के समान दुगनी रचना।
- पुष्करद्वीप के मध्य वलयकार मानुषोत्तर पर्वत तथा उसके अभ्यंतर भाग में धातकी नामक खंड।
- पुष्कर द्वीप से परे प्राणियों का अभाव लगभग वैसा ही है, जैसा कि पुष्करार्ध से आगे मनुष्यों का अभाव।
- भूखंड के नीचे पातालों का निर्देश लवण सागर के पातालों से मिलता है।
- पृथिवी के नीचे नरकों का अवस्थान।
- .आकाश में सूर्य, चंद्र आदि का अवस्थान क्रम। 10. कल्पवासी तथा फिर से न मरने वाले (लौकांतिक) देवों में लोक।
- इसी प्रकार जैन व बौद्ध मान्यताएँ भी बहुत अंशों में मिलती हैं। जैसे -
- पृथिवी के चारों तरफ आयु व जलमंडल का अवस्थान जैन मान्य वातवलयों के समान है।
- मेरु आदि पर्वतों का एक-एक समुद्र के अंतराल से उत्तरोत्तर वेष्टित वलयाकाररूपेण अवस्थान।
- जंबूद्वीप, पूर्वविदेह, उत्तरकुरु, जंबूवृक्ष, हिमवान, गंगा, सिंधु आदि नामों की समानता।
- जंबूद्वीप के उत्तर में नौ क्षुद्रपर्वत, हिमवान, महासरोवर व उनसे गंगा, सिंधु आदि नदियों का निकास ऐसा ही है जैसा कि भरतक्षेत्र के उत्तर में 11 कूटों युक्त हिमवान पर्वत पर स्थित पद्म द्रह से गंगा सिंधु व रोहितास्या नदियों का निकास।
- जंबूद्वीप के नीचे एक के पश्चात् एक करके अनेकों नरकों का अवस्थान।
- पृथिवी से ऊपर चंद्र-सूर्य का परिभ्रमण।
- मेरु शिखर पर स्वर्गों का अवस्थान लगभग ऐसा ही है जैसा कि मेरु शिखर से ऊपर केवल एक बाल प्रमाण अंतर से जैन मान्य स्वर्ग के प्रथम ‘ऋतु’ नामक पटल का अवस्थान।
- देवों में कुछ का मैथुन से और कुछ का स्पर्श या अवलोकन आदि से काम-भोग का सेवन तथा ऊपर के स्वर्गों में कामभोग का अभाव जैनमान्यतावत् ही है। (देखें देव - II.2.10)।
- देवों का ऊपर ऊपर अवस्थान।
- मनुष्यों की ऊंचाई से लेकर देवों के शरीरों की ऊँचाई तक क्रमिक वृद्धि लगभग जैन मान्यता के अनुसार है (देखें अवगाहना - 3,4) 3 आधुनिक भूगोल के साथ यद्यपि जैन भूगोल स्थूल दृष्टि से देखने पर मेल नहीं खाता पर आचार्यों की सुदूरवर्ती सूक्ष्मदृष्टि व उनकी सूत्रात्मक कथन पद्धति को ध्यान में रखकर विचारा जाये तो वह भी बहुत अंशों में मिलता प्रतीत होता है। यहाँ यह बात अवश्य ध्यान में रखने योग्य है कि वैज्ञानिक जनों के अनुमान का आधार पृथिवी का कुछ करोड़ वर्ष मात्र पूर्व का इतिहास है, जब कि आचार्यों की दृष्टि कल्पों पूर्व के इतिहास को स्पर्श करती है,। जैसे कि -
- पृथिवी के लिए पहले अग्नि का गोला होने की कल्पना, उसका धीरे-धीरे ठंडा होना और नये सिरे से उस पर जीवों व मनुष्यों की उत्पत्ति का विकास लगभग जैनमान्य प्रलय के स्वरूप से मेल खाता है। (देखें प्रलय )।
- पृथिवी के चारों ओर के वायु मंडल में 500 मील तक उत्तरोत्तर तरलता जैन मान्य तीन वातवलयोंवत् ही है।
- एशिया आदि महाद्वीप जैनमान्य भरतादि क्षेत्रों के साथ काफी अंश में मिलते हैं (देखें अगला शीर्षक )
- आर्य व म्लेच्छ जातियों का यथायोग्य अवस्थान भी जैनमान्यता को सर्वथा उल्लंघन करने को समर्थ नहीं।
- सूर्य-चंद्र आदि के अवस्थान में तथा उन पर जीव राशि संबंधी विचार में अवश्य दोनों मान्यताओं में भेद है। अनुसंधान किया जाय तो इसमें भी कुछ न कुछ समन्वय प्राप्त किया जा सकता है।
सातवीं आठवीं शताब्दी के वैदिक विचारकों ने लोक के इस चित्रण को वासना के विश्लेषण के रूप में उपस्थित किया है। (जैन धर्म का इतिहास /2/1)। यथा -अधोलोक वासना ग्रस्त व्यक्ति की तम: पूर्ण वह स्थिति जिसमें कि उसे हिताहित का कुछ भी विवेक नहीं होता और स्वार्थसिद्धि के क्षेत्र में बड़े से बड़े अन्याय तथा अत्याचार करते हुए भी जहाँ उसे यह प्रतीति नहीं होती कि उसने कुछ बुरा किया है। मध्य लोक उसकी वह स्थिति है जिसमें कि उसे हिताहित का विवेक जागृत हो जाता है परंतु वासना की प्रबलता के कारण अहित से हटकर हित की ओर झुकने का सत्य पुरुषार्थ जागृत करने की सामर्थ्य उसमें नहीं होती है। इसके ऊपर ज्योतिष लोक या अंतरिक्ष लोक उसकी साधना वाली वह स्थिति है जिसमें उसके भीतर उत्तरोत्तर उन्नत पारमार्थिक अनुभूतियां झलक दिखाने लगती हैं। इसके अंतर्गत पहले विद्युतलोक आता है जिसमें क्षणभर को तत्त्दर्शन होकर लुप्त हो जाता है। तदनंतर तारा लोक आता है जिसमें तात्त्विक अनुभूतियों की झलक टिमटिमाती या आँख-मिचौनी खेलती प्रतीत होती हैं। अर्थात् कभी स्वरूप में प्रवेश होता है और कभी पुनः विषयासक्ति जागृत हो जाती है। इसके पश्चात् सूर्य लोक आता है जिसमें ज्ञान सूर्यका उदय होता है, और इसके पश्चात् अंत में चंद्र लोक आता है जहाँ पहुँचने पर साधक समता-भूमि में प्रवेश पाकर अत्यंत शांत हो जाता है। उर्ध्व लोक के अंतर्गत तीन भूमियां हैं - महर्लोक, जनलोक और तपलोक। पहली भूमि में वह अर्थात् उसकी ज्ञानचेतना लोकालोक में व्याप्त होकर महान हो जाती है, दूसरी भूमियें कृतकृत्यता की और तीसरी भूमियें अनंत आनंद की अनुभूति में वह सदा के लिए लय हो जाती है। यह मान्यता जैन के अध्यात्म के साथ शत प्रतिशत नहीं तो 80 प्रतिशत मेल अवश्य खाती है।
- जैन व वैदिक मान्यता बहुत अंशों में मिलती है। -
- चातुर्द्वीपिक भूगोल परिचय
( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ प्र. 138/ H.L. Jain का भावार्थ )- काशी नगरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित संपूर्णानंद अभिनंदन ग्रंथ में दिये गये, श्री रायकृष्णदासजी के एक लेखके अनुसार, वैदिक धर्म मान्य सप्तद्वीपिक भूगोल की अपेक्षा चातुर्द्वीपिक भूगोल अधिक प्राचीन है। इसका अस्तित्व अब भी वायुपुराण में कुछ -कुछ मिलता है। चीनी यात्री मेगस्थनीज के समय में भी यही भूगोल प्रचलित था; क्योंकि वह लिखता है - भारत के सीमांतर पर तीन और देश माने जाते हैं - सीदिया, बैक्ट्रिया तथा एरियाना। सादिया से उसके भद्राश्व व उत्तरकुरु तथा बैक्ट्रिया व एरियाना से केतुमाल द्वीप अभिप्रेत है। अशोक के समय में भी यही भूगोल प्रचलित था, क्योंकि उसके शिलालेख में जंबूद्वीप भारतवर्ष की संज्ञा है। महाभाष्य में आकर सर्वप्रथम सप्तद्वीपिक भूगोल की चर्चा है। अतएव वह अशोक तथा महाभाष्यकाल के बीच की कल्पना जान पड़ती है।
- सप्तद्वीपक भूगोल की भाँति यह चातुर्द्वीपिक भूगोल कल्पनामात्र नहीं है, बल्कि इसका आधार वास्तविक है। उसका सामंजस्य आधुनिक भूगोल से हो जाता है।
- चातुर्द्वीपिक भूगोल में जंबूद्वीप पृथिवी के चार महाद्वीपों में से एक है और भारतवर्ष जंबूद्वीप का ही दूसरा नाम है। वही सप्तद्वीपिक भूगोल में आकर इतना बड़ा हो जाता है कि उसकी बराबरी वाले अन्य तीन द्वीप (भद्राश्व, केतुमाल व उत्तरकुरु) उसके वर्ष बनकर रह जाते हैं। और भारतवर्ष नामवाला एक अन्य वर्ष (क्षेत्र) भी उसी के भीतर कल्पित कर लिया जाता है।
- चातुर्द्वीपी भूगोल का भारत (जंबूद्वीप) जो मेरु तक पहुँचता है, सप्तद्वीपिक भूगोल में जंबूद्वीप के तीन वर्षों या क्षेत्रों में विभक्त हो गया है। - भारतवर्ष, किंपुरुष व हरिवर्ष। भारत का वर्ष पर्वत हिमालय है। किंपुरुष हिमालय के परभाग में मंगोलों की बस्ती है, जहाँ से सरस्वती नदी का उद्गम होता है, तथा जिसका नाम आज भी कन्नौर में अवशिष्ट है। यह वर्ष पहले तिब्बत तक पहुँचता था, क्योंकि वहाँ तक मंगोलों की बस्ती पायी जाती है। तथा इसका वर्ष पर्वत हेमकूट है, जो कतिपय स्थानों में हिमालयंतर्गत ही वर्णित हुआ है। (जैन मान्यता में किंपुरुष के स्थानपर हैमवत् और हिमकूट के स्थान पर महाहिमवान का उल्लेख है )। हरिवर्ष से हिरात का तात्पर्य है जिसका पर्वत निषध है, जो मेरू तक पहुँचता है। इसी हरिवर्ष का नाम अवेस्ता में हरिवरजी मिलता है।
- इस प्रकार रम्यक, हिरण्यमय और उत्तरकुरू नामक वर्षों में विभक्त होकर चातुर्द्वीपिक भूगोल वाले उत्तरकुर महाद्वीप के तीन वर्ष बन गये हैं।
- किंतु पूर्व और पश्चिम के भद्राश्व व केतुमाल द्वीप यथापूर्व दो के दो ही रह गये। अंतर केवल इतना है कि यहाँ वे दो महाद्वीप न होकर एक द्वीप के अंतर्गत दो वर्ष या क्षेत्र हैं। साथ ही मेरु को मेखलित करने वाला, सप्तद्वीपिक, भूगोल का, इलावृतक भी एक स्वतंत्र वर्ष बन गया है।
- यों उक्त चार द्वीपों से पल्लवित भारतवर्ष आदि तीन दक्षिणी, हरिवर्ष आदि तीन उत्तरी, भद्राश्व व केतुमाल से दो पूर्व व पश्चिमी तथा इलावृत नाम का केंद्रीय वर्ष, जंबूद्वीप के नौ वर्षों की रचना कर रहा है।
- (जैनाभिमत भूगोल में 9 की बजाय 10 वर्षों का उल्लेख है। भारतवर्ष, किंपुरुष व हरिवर्ष के स्थान पर भरत, हैमवत व हरि ये तीन मेरु के दक्षिण में हैं। रम्यक, हिरण्यमय तथा उत्तरकुरु के स्थान पर रम्यक, हैरण्यवत व ऐरावत ये तीन मेरु के उत्तर में हैं। भद्राश्व व केतुमाल के स्थान पर पूर्वविदेह व पश्चिमविदेह ये दो मेरु के पूर्व व पश्चिम में हैं। तथा इलावृत के स्थान पर देवकुरु व उत्तरकुरु ये दो मेरु के निकटवर्ती हैं। यहाँ वैदिक मान्यता में तो मेरु के चौगिर्द एक ही वर्ष मान लिया गया और जैन मान्यता में उसे दक्षिण व उत्तर दिशावाले दो भागों में विभक्त कर दिया है। पूर्व व पश्चिमी भद्राश्व व केतुमाल द्वीपों में वैदिकजनों ने क्षेत्रों का विभाग न दर्शाकर अखंड रखा पर जैन मान्यता में उनके स्थानीय पूर्व व पश्चिम विदेहों को भी 16, 16 क्षेत्रों में विभक्त कर दिया गया )।
- मेरु पर्वत वर्तमान भूगोल का पामीर प्रदेश है। उत्तरकुरु पश्चिमी तुर्किस्तान है। सीता नदी यारकंद नदी है। निषध पर्वत हिंदकुश पर्वतों की शृंखला है। हैमवत भारतवर्ष का ही दूसरा नाम रहा है। (देखें वह वह नाम)।
- लोकनिर्देश का सामान्य परिचय
- लोकसामान्य निर्देश
- लोक का लक्षण
- लोक का आकार
- लोक का विस्तार
- वातवलयों का परिचय
- वातवलय सामान्य परिचय
- तीन वलयों का अवस्थान क्रम
- पृथिवियों के सात वातवलयों का स्पर्श
- वातवलयों का विस्तार
- लोक के आठ रुचक प्रदेश
- लोक विभाग निर्देश
- त्रस व स्थावर लोक निर्देश
- अधोलोक सामान्य परिचय
- भावनलोक निर्देश
- व्यंतरलोक निर्देश
- मध्यलोक निर्देश
- ज्योतिषलोक सामान्य निर्देश
- ऊर्ध्वलोक सामान्य परिचय
- लोकसामान्य निर्देश
- लोक का लक्षण
देखें आकाश - 1.3 (1. आकाशके जितने भाग में जीव, पुद्गल आदि षट् द्रव्य देखे जायें सो लोक है और उसके चारों तरफ शेष अनंत आकाश अलोक है, ऐसा लोकका निरुक्ति अर्थ है। 2. अथवा षट् द्रव्यों का समवाय लोक है )
देखें लौकांतिक - 1। (3.जन्म-जरामरणरूप यह संसार भी लोक कहलाता है।)
राजवार्तिक/5/12/10-13/455/20 यत्र पुण्यपापफललोकनं स लोकः।10।.... कः पुनरसौ। आत्मा। लोकति पश्यत्युपलभते अर्थानिति लोक:।11।... सर्वज्ञेनानंताप्रतिहतकेवलदर्शनेन लोक्यते यः स लोकः। तेन धर्मादीनामपि लोकत्वं सिद्धम्।13।= जहाँ पुण्य व पाप का फल जो सुख-दु:ख वह देखा जाता है सो लोक है इस व्युत्पत्ति के अनुसार लोक का अर्थ आत्मा होता है। जो पदार्थो को देखे व जाने सो लोक इस व्युत्पत्ति से भी लोक का अर्थ आत्मा है। आत्मा स्वयं अपने स्वरूप का लोकन करता है अतः लोक है। सर्वज्ञ के द्वारा अनंत व अप्रतिहत केवलदर्शन से जो देखा जाये सो लोक है, इस प्रकार धर्म आदि द्रव्यों का भी लोकपना सिद्ध है।
- लोक का आकार
तिलोयपण्णत्ति/1/137-138 हेटि्ठमलोयायारो वेत्तासणसण्णिहो सहावेण। मज्झिमलोयायारो उब्भियमुर अद्धसारिच्छो।137। उवरिमलोयाआरो उब्भियमुरवेण होइ सरिसत्तो। संठाणो एदाणं लोयाणं एण्हिं साहेमि।138।= इन (उपरोक्त) तीनों में से अधोलोक का आकार स्वभाव से वेत्रासनके सदृश है, और मध्यलोकका आकार खड़े किये हुए आधे मृदंग के ऊर्ध्व भाग के समान है। ऊर्ध्वलोक का आकार खडे किए हुए मृदंग के सदृश है।138। ( धवला 4/1,3.2/गाथा 6/11) ( त्रिलोकसार/6 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/4-9 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/112/11 )।
धवला 4/1,3,2/गाथा 7/11 तलरुक्खसंठाणो।7।= यह लोक तालवृक्षके आकारवाला है।
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/प्र.24 प्रो. लक्षमीचंद - मिस्रदेशके गिरजे में बने हुए महास्तूप से यह लोकाकाशका आकार किंचिंत् समानता रखता प्रतीत होता है।
- लोक का विस्तार
तिलोयपण्णत्ति/1/149-163 सेढिपमाणायामं भागेसु दक्खिणुत्तरेसु पुढं। पुव्बावरेसु वासं भूमिमुहे सत्त येक्कपंचेक्का।149। चोद्दसरज्जुपमाणो उच्छेहो होदि सयललोगस्स।अद्धमुरज्जस्सुदवो समग्गमुखोदयसरिच्छो।150। व हेट्ठिममज्धिमउवरिमलोउच्छेहो कमेण रज्जू वो। सत्त य जोयणलक्खं जोयणलक्खूणसगरज्जू।151। इहरयणसक्करावालुपंकधूमतममहातमादिपहा। सुरवद्धम्मि महीओ सत्त च्चिय रज्जुअंतरिआ।152।धम्मावंसामेघाअंजणरिट्ठाणउब्भमघवीओ। माघविया इय ताणं पुढवीणं वोत्तणामाणि।153।मज्झिमजगस्स हेट्ठिमभागादो णिग्गदो पढमरज्जू। सक्करपहपुढवीए हेट्ठिमभागम्मि णिट्ठादि।154। तत्तो दोइरज्जू वालुवपहहेट्ठि समप्पेदि। तह य तइज्जारज्जूपंकपहहेट्ठास्स भागम्मि।155। धूमपहाए हेट्ठिमभागम्मि समप्पदे तुरियरज्जू। तह पंचमिया रज्जू तमप्पहाहेट्ठिमपएसे।156। महतमहेट्ठिमयंते छट्ठी हि समप्पदे रज्जू। तत्तो सत्तमरज्जू लोयस्स तलम्मि णिट्ठादि।157। मज्झिमजगस्स उवरिमभागादु दिवड्ढरज्जुपरिमाणं। इगिजोयणलक्खूणं सोहम्मविमाणधयदंडे।158। वच्चदि दिवड्ढरज्जू माहिंदसणक्कुमारउवरिम्मि। णिट्ठादि अद्धरज्जूबंभुत्तर उड्ढभागम्मि।159। अवसादि अद्धरज्जू काविट्ठस्सोवरिट्ठभागम्मि। स च्चियमहसुक्कोवरि सहसारोवरि अ स च्चेय।160। तत्तो य अद्धरज्जू आणदकप्पस्स उवरिमपएसे। स य आरणस्स कप्पस्स उवरिमभागम्मि गेविज्जं।161। तत्तो उवरिमभागे णवाणुत्तरओ होंति एक्करज्जूवो। एवं उवरिमलोए रज्जुविभागो समुद्दिट्ठं।162। णियणिय चरिमिंदयधयदंडग्गं कप्पभूमिअवसाणं कप्पादीदमहीए विच्छेदो लोयविच्छेदो।169। =- दक्षिण और उत्तर भाग में लोक का आयाम जगश्रेणी प्रमाण अर्थात् सात राजू है। पूर्व और पश्चिम भाग में भूमि और मुख का व्यास क्रम से सात, एक, पाँच और एक राजू है। तात्पर्य यह है कि लोक की मोटाई सर्वत्र सात राजू है, और विस्तार क्रम से लोक के नीचे सात राजू, मध्यलोक में एक राजू, ब्रह्म स्वर्ग पर पाँच राजू और लोक के अंत में एक राजू है।149।
- संपूर्ण लोक की ऊँचाई 14 राजू प्रमाण है। अर्धमृदंग की ऊँचाई संपूर्ण मृदंग की ऊँचाई के सदृश है। अर्थात् अर्धमृदंग सदृश अधोलोक जैसे सात राजू ऊँचा है उसी प्रकार ही पूर्ण मृदंग के सदृश ऊर्ध्वलोक भी सात ही राजू ऊँचा है।150। क्रम से अधोलोक की ऊँचाई सात राजू, मध्यलोक की ऊँचाई 1,00,000 योजन, और ऊर्ध्वलोक की ऊँचाई एक लाख योजन कम सात राजू है।151। ( धवला 4/1,3,2/गाथा 8/11 ); ( त्रिलोकसार/113 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/11,16-17 )।
- तहाँ भी - तीनों लोकों में से अर्धमृदंगाकार अधोलोक में रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा, महातमप्रभा ये सात पृथिवियाँ एक-एक राजू के अंतराल से हैं।152। धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये इन उपर्युक्त पृथिवियों के अपरनाम हैं।153। मध्यलोक के अधोभाग से प्रारंभ होकर पहला राजू शर्कराप्रभा पृथिवी के अधोभाग में समाप्त होता है।154। इसके आगे दूसरा राजू प्रारंभ होकर बालुकाप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है। तथा तीसरा राजू पंकप्रभा के अधोभाग में।155। चौथा धूमप्रभा के अधोभाग में, पाँचवाँ तमःप्रभा के अधोभाग में।156। और छठा राजू महातमःप्रभा के अंत में समाप्त होता है। इससे आगे सातवाँ राजू लोक के तलभाग में समाप्त होता है।157। (इस प्रकार अधोलोक की 7 राजू ऊँचाई का विभाग है।)
- रत्नप्रभा पृथिवी के तीन भागों में खरभाग 16000 यो., पंक भाग 84000 यो. और अब्बहुल भाग 80,000 योजन मोटे हैं। देखें रत्नप्रभा - 2।
- लोक में मेरू के तलभाग से उसकी चोटी पर्यंत 1,00,000 योजन ऊँचा व 1 राजू प्रमाण विस्तार युक्त मध्यलोक है। इतना ही तिर्यक्लोक है। - देखें तिर्यंच - 3.1 )। मनुष्यलोक चित्रा पृथिवी के ऊपर से मेरु की चोटी तक 99,000 योजन विस्तार तथा अढाई द्वीप प्रमाण 45,00,000 योजन विस्तार युक्त है। -देखें मनुष्य - 4.1।
- चित्रा पृथिवी के नीचे खर व पंक भाग में 1,00,000 यो. तथा चित्रा पृथिवी के ऊपर मेरु की चोटी तक 99,000 योजन ऊँचा और एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त भावनलोक है। - देखें भावन लोक - 4.15। इसी प्रकार व्यंतरलोक भी जानना। - देखें व्यंतर - 4.1-5। चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर जाकर 110 योजन बाहल्य व 1 राजू विस्तार युक्त ज्योतिष लोक है। -देखें ज्योतिषि लोक - 1.2.6
- मध्यलोक के ऊपरी भाग से सौधर्म विमान का ध्वजदंड 1,00,000 योजन कम 1½राजू प्रमाण ऊँचा है।158। इसके आगे 1½ राजू प्रमाण ऊँचा है। 158। इसके आगे 1½ राजू माहेंद्र व सनत्कुमार स्वर्ग के ऊपरी भाग में, 1/2 राजू ब्रह्मोत्तर के ऊपरी भाग में।159। 1/2 राजू कापिष्ठ के ऊपीर भाग में, 1/2 राजू महाशुक्र के ऊपरी भाग में, 1/2 राजु सहस्रार के ऊपरी भाग में।160। 1/2 राजू आनत के ऊपरी भाग में और 1/2 राजू आरण-अच्युत के ऊपरी भाग में समाप्त हो जाता है।161। उसके ऊपर एक राजू की ऊँचाई में नवग्रैवेयक, नव अनुदिश, और 5 अनुत्तर विमान हैं। इस प्रकार ऊर्ध्वलोक में 7 राजू का विभाग कहा गया।162। अपने-अपने अंतिम इंद्रक -विमान समन्बधी ध्वजदंड के अग्रभाग तक उन-उन स्वर्गों का अंत समझना चाहिए। और कल्पातीत भूमि का जो अंत है वही लोक का भी अंत है।163।
- (लोक शिखर के नीचे 425 धनुष और 21 योजन मात्र जाकर अंतिम सर्वार्थसिद्धि इंद्रक स्थित है। (देखें स्वर्ग_देव - 5.1;) सर्वार्थसिद्धि इंद्रक के ध्वजदंड से 12 योजन मात्र ऊपर जाकर अष्टम पृथिवी है। वह 8 योजन मोटी व एक राजू प्रमाण विस्तृत है। उसके मध्य ईषत् प्राग्भार क्षेत्र है। वह 45,00,000 योजन विस्तार युक्त है। मध्य में 8 योजन और सिरों पर केवल अंगुल प्रमाण मोटा है। इस अष्टम पृथिवी के ऊपर 7050 धनुष जाकर सिद्धिलोक है। (देखें मोक्ष - 1.7)।
- वातवलयों का परिचय
- वातवलय सामान्य परिचय
तिलोयपण्णत्ति/1/268 गोमुत्तमुग्गवण्णा धणोदधी तह धणाणिलओ वाऊ। तणु वादो बहुवण्णो रुक्खस्स तयं व वलयातियं।268। = गोमूत्र के समान वर्णवाला घनोदधि, मूंग के समान वर्णवाला घनवात तथा अनेक वर्णवाला तनुवात। इस प्रकार ये तीनों वातवलय वृक्ष की त्वचा के समान (लोकको घेरे हुए) हैं।268। ( राजवार्तिक/3/1/8/160/16 ); ( त्रिलोकसार/123 ); (देखें चित्र सं - 9 पृ. 439)।
- तीन वलयों का अवस्थान क्रम
तिलोयपण्णत्ति/1/269 पढमो लोयाधारो घणोवही इह घणाणिलो ततो। तप्परदो तणुवादो अंतम्मि णहंणिआधारं।269। = इनमें से प्रथम घनोदधि वातवलय लोक का आधारभूत है, इसके पश्चात् घनवातवलय, उसके पश्चात् तनुवातवलय और फिर अंत में निजाधार आकाश है।269। ( सर्वार्थसिद्धि/3/1/204/3 ); ( राजवार्तिक/3/1/8/160/14 ); (तत्त्वार्थ वृत्ति/3/1/श्लोक 1-2/112 )।
तत्त्वार्थ वृत्ति /3/1/111/19 सर्वाः सप्तापि भूमयो घनातप्रतिष्ठा वर्तंते। स च घनवातः अंबुवातप्रतिष्ठोऽस्ति। स चांबुवातस्तनुवातस्तनृप्रतिष्ठो वर्तते। स च तनुवात आकाशप्रतिष्ठो भवति। आकाशस्यालंबनं किमपि नास्ति। = दृष्टि नं. 2- ये सभी सातों भूमियाँ घनवात के आश्रय स्थित हैं। वह घनवात भी अंबु (घनोदधि) वात के आश्रय स्थित है और वह अंबुवात तनुवात के आश्रय स्थित है। वह तनुवात आकाश के आश्रय स्थित है, तथा आकाश का कोई भी आलंबन नहीं है।
- पृथिवियों के सात वातवलयों का स्पर्श
तिलोयपण्णत्ति/2/24 सत्तच्चिय भूमीओ णवदिसभाएण घणोवहिविलग्गा। अट्ठमभूमीदसदिस भागेसु घणोवहिं छिवदि।24।
तिलोयपण्णत्ति 8/206-207 सोहम्मदुगविमाणा घणस्सरूवस्स उवरि सलिलस्स। चेट्ठंते पवणोवरि माहिंदसणक्कुमाराणिं।206। बम्हाई चत्तारो कप्पा चेट्ठंति सलिलवादढं। आणदपाणदपहुदीसेसा सुद्धम्मि गयणयले।207। = सातों (नरक) पृथिवियाँ ऊर्ध्वदिशा को छोड़कर शेष नौ दिशाओं में घनोदधि वातवलय से लगी हई हैं, परंतु आठवीं पृथिवी दशों दिशाओं में ही वातवलय को छूती है। 24। सौधर्म युगल के विमान घनस्वरूप जल के ऊपर तथा माहेंद्र व सनत्कुमार कल्प के विमान पवन के ऊपर स्थित हैं।206। ब्रह्मादि चार कल्प जल व वायु दोनों के ऊपर, तथा आनत प्राणत आदि शेष विमान शुद्ध आकाशतल में स्थित हैं।207।
- वातवलयों का विस्तार
तिलोयपण्णत्ति/1/270-281 जोयणवीससहस्सां बहलंतम्मारुदाण पत्तेक्कं। अट्ठाखिदीणं हेट्ठेलोअतले उवरि जाव इगिरज्जू।270। सगपण चउजोयणयं सत्तमणारयम्मि पुहविपणधीए। पंचचउतियपमाणं तिरीयखेत्तस्स पणिधोए।271। सगपंचचउसमाणा पणिधीए होंति बम्हकप्पस्स। पणचउतिय जोयणया उवरिमलोयस्स यंतम्मि।272। कोसदुगमेक्ककोसं किंचूणेक्कं च लोयसिहरम्मि। ऊणपमाणं दंडा चउस्सया पंचवीस जुदा।273। तीसं इगिदालदलं कोसा तियभाजिदा य उणवणया। सत्तमखिदिपणिधीए वम्हजुदे वाउबहुलत्तं।280। दो छब्बारस भागब्भहिओ कोसो कमेण वाउघणं। लोयउवरिम्मि एवं लोय विभायम्मि पण्णत्तं।281। =दृष्टि नं. 1- आठ पृथिवियों के नीचे लोक के तलभाग से एक राजू की ऊँचाई तक इन वायुमंडलों में से प्रत्येक की मोटाई 20,000 योजन प्रमाण है।270। सातवें नरक में पृथिवियों के पार्श्व भाग में क्रम से इन तीनों वातवलयों की मोटाई 7,5 और 4 तथा इसके ऊपर तिर्यग्लोक (मर्त्यलोक ) के पार्श्वभाग में 5,4 और 3 योजन प्रमाण है।271। इसके आगे तीनों वायुओं की मोटाई ब्रह्म स्वर्ग के पार्श्व भाग में क्रम से 7,5 और 4 योजन प्रमाण, तथा ऊर्ध्वलोक के अंत में (पार्श्व भाग में) 5, 4 और 3 योजन प्रमाण है।272। लोक के शिखर पर (पार्श्व भाग में) उक्त तीनों वातवलयों का बाहल्य क्रमशः 2 कोस, 1 कोस और कुछ कम 1 कोस है। यहाँ कुछ कम का प्रमाण 2425 धनुष समझना चाहिए।273। (शिखर पर प्रत्येक की मोटाई 20,000 योजन है - देखें मोक्ष - 1.7) ( त्रिलोकसार/124-126 )। दृष्टि नं. 2- सातवीं पृथिवी और ब्रह्म युगल के पार्श्वभाग में तीनों वायुओं की मोटाई क्रम से 30, 41/2 और 49/3 कोस हैं।280। लोक शिखर पर तीनों वातवलयों की मोटाई क्रम से 1(1/3), 1(1/2) और 1 (1/12) कोस प्रमाण है। ऐसा लोक विभाग में कहा गया है।281। - विशेष देखें चित्र सं - 9 पृ. 439.
- वातवलय सामान्य परिचय
- लोक के आठ रुचक प्रदेश
राजवार्तिक/1/20/12/76/13 मेरुप्रतिष्ठवज्रवैडूर्यपटलांतररुचकसंस्थिता अष्टावाकाशप्रदेशलोकमध्यम्। = मेरू पर्वत के नीचे वज्र व वैडूर्य पटलों के बीच में चौकोर संस्थानरूप से अवस्थित आकाश के आठ प्रदेश लोक का मध्य हैं।
- लोक विभाग निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/1/136 सयलो एस य लोओ णिप्पण्णो सेढिविदंमाणेण। तिवियप्पो णादव्वो हेट्ठिममज्झिल्लउड्ढ भेएण।136। = श्रेणी वृंद्र के मान से अर्थात् जगश्रेणी के घन प्रमाण से निष्पन्न हुआ यह संपूर्ण लोक अधोलोक मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक के भेद से तीन प्रकार का है।136। ( बारस अणुवेक्खा/39 ); ( धवला 13/5,5,50/288/4 )।
- त्रस व स्थावर लोक निर्देश
(पूर्वोक्त वेत्रासन व मृदंगाकार लोक के बहु मध्य भाग में, लोक शिखर से लेकर उसके अंत पर्यंत 13 राजू लंबी व मध्यलोक समान एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त नाड़ी है। त्रस जीव इस नाड़ी से बाहर नहीं रहते इसलिए यह त्रसनाली नाम से प्रसिद्ध है। (देखें त्रस - 2.3, त्रस - 2.4)। परंतु स्थावर जीव इस लोक में सर्वत्र पाये जाते हैं। (देखें स्थावर - 9) तहाँ भी सूक्ष्म जीव तो लोक में सर्वत्र ठसाठस भरे हैं, पर बादर जीव केवल त्रसनाली में होते हैं (देखें सूक्ष्म - 3.7) उनमें भी तेजस्कायिक जीव केवल कर्मभूमियों में ही पाये जाते हैं अथवा अधोलोक व भवनवासियों के विमानों में पाँचों कायों के जीव पाये जाते हैं, पर स्वर्ग लोक में नहीं - देखें काय - 2.5। विशेष देखें चित्र सं - 9 पृ. 439।
- अधोलोक सामान्य परिचय
(सर्वलोक तीन भागों में विभक्त है - अधो, मध्य व ऊर्ध्व - देखें लोक - 2.2,3 मेरु तल के नीचे का क्षेत्र अधोलोक है, जो वेत्रासन के आकार वाला है। 7 राजू ऊँचा व 7 राजू मोटा है। नीचे 7 राजू व ऊपर 1 राजू प्रमाण चौड़ा है। इसमें ऊपर से लेकर नीचे तक क्रम से रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा व महातमप्रभा नामकी 7 पृथिवियाँ लगभग एक राजू अंतराल से स्थित हैं। प्रत्येक पृथिवी में यथायोग्य 13,11 आदि पटल 1000 योजन अंतराल से अवस्थित हैं। कुल पटल 49 हैं। प्रत्येक पटल में अनेकों बिल या गुफाएँ हैं। पटल का मध्यवर्ती बिल इंद्रक कहलाता है। इसकी चारों दिशाओं व विदिशाओं में एक श्रेणी में अवस्थित बिल श्रेणीबद्ध कहलाते हैं और इनके बीच में रत्नराशिवत् बिखरे हुए बिल प्रकीर्णक कहलाते हैं। इन बिलों में नारकी जीव रहते हैं। (देखें नरक - 5.1-3)। सातों पृथिवियों के नीचे अंत में एक राजू प्रमाण क्षेत्र खाली है। (उसमें केवल निगोद जीव रहते हैं)- देखें चित्र सं - 10 पृ. 441।
- भावनलोक निर्देश
(उपरोक्त सात पृथिवियों में जो रत्नप्रभा नाम की प्रथम पृथिवी है, वह तीन भागों में विभक्त है - खरभाग, पंकभाग व अब्बहुल भाग। खरभाग भी चित्र, वैडूर्य, लोहितांक आदि 16 प्रस्तरों में विभक्त है। प्रत्येक प्रस्तर 1000 योजन मोटा है। उनमें चित्र नाम का प्रथम प्रस्तर अनेकों रत्नों व धातुओं की खान है। (देखें रत्नप्रभा- 2)। तहाँ खर व पंकभाग में भावनवासी देवों के भवन हैं और अब्बहुल भाग में नरक पटल है। (देखें भवन - 4/1 चित्र)। इसके अतिरिक्त तिर्यक् लोक में भी यत्र-तत्र-सर्वत्र उनके पुर, भवन व आवास हैं। (देखें व्यंतर - 4.1-5)। (विशेष देखें भवन - 4)।
- व्यंतरलोक निर्देश
(चित्रा पृथिवी के तल भाग से लेकर सुमेरु की चोटी तक तिर्यग् लोक प्रमाण विस्तृत सर्वक्षेत्र व्यंतरों के रहने का स्थान है। इसके अतिरिक्त खर व पंकभाग में भी उनके भवन हैं। मध्यलोक के सर्व द्वीप-समुद्रों की वेदिकाओं पर, पर्वतों के कूटों पर, नदियों के तटों पर इत्यादि अनेक स्थलों पर यथायोग्य रूप में उनके पुर, भवन व आवास हैं। (विशेष देखें व्यंतर - 4.1-5)।
- मध्यलोक निर्देश
- द्वीप-सागर आदि निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/5/8-10,27 सब्वे दीवसमुद्दा संखादीदा भवंति समवट्टा। पढमो दीओ उवही चरिमो मज्झम्मि दीउवही।8। चित्तोवरि बहुमज्झे रज्जूपरिमाणदीहविक्खंभे। चेट्ठंति दीवउवही एक्केक्कं वेढिऊणं हु प्परिदो।9। सव्वे वि वाहिणीसा चित्तखिदिं खंडिदण चेट्ठंति। वज्जखिदीए उवरिं दीवा वि हु चित्ताए।10। जंबूदीवे लवणो उवही कालो त्ति धादईसंडे। अवसेसा वारिणिही वत्तव्वा दीवसमणामा।28। =- सब द्वीपसमुद्र असंख्यात एवं समवृत्त हैं। इनमें से पहला द्वीप, अंतिम समुद्र और मध्य में द्वीप समुद्र हैं।8। चित्रा पृथिवी के ऊपर बहुमध्य भाग में एकराजू लंबे-चौड़े क्षेत्र के भीतर एक-एक को चारों ओर से घेरे हुए द्वीप व समुद्र स्थित हैं। 9। सभी समुद्र चित्रा पृथिवी खंडित कर वज्रा पृथिवी के ऊपर, और सब द्वीप चित्रा पृथिवी के ऊपर स्थित हैं।10। (मूलाचार./1076); ( तत्त्वार्थसूत्र/3/7-8 ); ( हरिवंशपुराण/5/2,626-627 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/19 )।
- जंबूद्वीप में लवणोदधि और धातकीखंड में कालोद नामक समुद्र है। शेष समुद्रों के नाम द्वीपों के नाम के समान ही कहना चाहिए।28। (मूलाचार/1077); ( राजवार्तिक/3/38/7/208/17 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/183 )।
त्रिलोकसार/886 वज्जमयमूलभागा वेलुरियकयाइरम्मा सिहरजुदा। दीवो वहीणमंते पायारा होंति सव्वत्थ।886। = सभी द्वीप व समुद्रों के अंत में परिधि रूप से वैडूर्यमयी जगती होती है, जिनका मूल वज्रमयी होता है तथा जो रमणीक शिखरों में संयुक्त हैं। (-विशेष देखें लोक - 3.2 तथा लोक - 4.1 )।
नोट - (द्वीप-समुद्रों के नाम व समुद्रों के जल का स्वाद - देखें लोक - 5.1, लोक - 5.)।
- तिर्यक्लोक, मनुष्यलोक आदि विभाग
धवला 4/1, 3,1/9/3 देसभेएण तिविहो, मंदरचिलियादो, उवरिमुड्ढलोगो, मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो, मंदरपरिच्छिण्णो मज्झलोगो त्ति। = देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है। मंदराचल (सुमेरु पर्वत) की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊर्ध्वलोक है। मंदराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है। मंदराचल से परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्यलोक है।
हरिवंशपुराण/5/1 तनुवातांतपर्यंतस्तिर्यग्लोको व्यवस्थितः। लक्षितावधिरूर्ध्वाधो मेरुयोजनलक्षया।1। =- तनुवातवलय के अंतभाग तक तिर्यग्लोक अर्थात् मध्यलोक स्थित है। मेरु पर्वत एक लाख योजन वाला विस्तारवाला है। उसी मेरु पर्वत द्वारा ऊपर तथा नीचे इस तिर्यग्लोक की अवधि निश्चित हैं।1। (इसमें असंख्यात द्वीप, समुद्र एक दूसरे को वेष्टित करके स्थित हैं देखें लोक - 2.11। यह सारा का सारा तिर्यग्लोक कहलाता है, क्योंकि तिर्यंच जीव इस क्षेत्र में सर्वत्र पाये जाते हैं।
- उपरोक्त तिर्यग्लोक के मध्यवर्ती, जंबूद्वीप से लेकर मानुषोत्तर पर्वत तक अढाई द्वीप व दो सागर से रुद्ध 45,00,000 योजन प्रमाण क्षेत्र मनुष्यलोक है। देवों आदि के द्वारा भी उनका मानुषोत्तर पर्वत के पर भाग में जाना संभव नहीं है। (-देखें मनुष्य - 4.1)।
- मनुष्य लोक के इन अढाई द्वीपों में से जंबूद्वीप में 1 और घातकी व पुष्करार्ध में दो-दो मेरु हैं। प्रत्येक मेरु संबंधी 6 कुलधर पर्वत होते हैं, जिनसे वह द्वीप 7 क्षेत्रों में विभक्त हो जाता है। मेरु के प्रणिधि भाग में दो कुरु तथा मध्यवर्ती विदेह क्षेत्र के पूर्व व पश्चिमवर्ती दो विभाग होते हैं। प्रत्येक में 8 वक्षार पर्वत, 6 विभंगा नदियाँ तथा 16 क्षेत्र हैं। उपरोक्त 7 व इन 32 क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो-दो प्रधान नदियाँ हैं। 7 क्षेत्रों में से दक्षिणी व उत्तरीय दो क्षेत्र तथा 32 विदेह इन सबके मध्य में एक-एक विजयार्ध पर्वत हैं, जिनपर विद्याधरों की बस्तियाँ हैं। (देखें लोक - 3.5)।
- इस अढाई द्वीप तथा अंतिम द्वीप व सागर में ही कर्मभूमि है, अन्य सर्व द्वीप व सागर में सर्वदा भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। कृष्यादि षट्कर्म तथा धर्म-कर्म संबंधी अनुष्ठान जहाँ पाये जायें वह कर्मभूमि है, और जहाँ जीव बिना कुछ किये प्राकृतिक पदार्थों के आश्रय पर उत्तम भोगभोगते हुए सुखपूर्वक जीवन-यापन करें वह भोगभूमि है। अढाई द्वीप के सर्व क्षेत्रों में भी सर्व विदेह क्षेत्रों में त्रिकाल उत्तम प्रकार की कर्मभूमि रहती है। दक्षिणी व उत्तरी दो-दो क्षेत्रों में षट्काल परिवर्तन होता है। तीन कालों में उत्तम,मध्यम व जघन्य भोगभूमि और तीन कालों में उत्तम, मध्यम व जघन्य भोगभूमि और तीन कालों में उत्तम, मध्यम व जघन्य कर्मभूमि रहती है। दोनों कुरुओं में सदा उत्तम भोगभूमि रहती है, इनके आगे दक्षिण व उत्तरवर्ती दो क्षेत्रों में सदा मध्यम भोगभूमि और उनसे भी आगे के शेष दो क्षेत्रों में सदा जघन्य भोगभूमि रहती है (देखें भूमि - 3) भोगभूमि में जीव की आयु, शरीरोत्सेध, बल व सुख क्रम से वृद्धिंगत होता है और कर्मभूमि में क्रमशः हानिगत होता है। - देखें काल - 4 .18। 5. मनुष्यलोक व अंतिम स्वयंप्रभ द्वीप व सागर को छोड़कर शेष सभी द्वीप, सागरों में विकलेंद्रिय व जलचर नहीं होते हैं। इसी प्रकार सर्व ही भोगभूमियों में भी वे नहीं होते हैं। वैर वश देवों के द्वारा ले जाये गये वे सर्वत्र संभव हैं। - देखें तिर्यंच - 3.7।
- द्वीप-सागर आदि निर्देश
- ज्योतिषलोक सामान्य निर्देश
पूर्वोक्त चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर जाकर 110 योजन पर्यंत आकाश में एक राजू प्रमाण विस्तृत ज्योतिष लोक है। नीचे से ऊपर की ओर क्रम से तारागण, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, शुक्र, बृहस्पति, मंगल, शनि व शेष अनेक ग्रह अवस्थित रहते हुए अपने-अपने योग्य संचार-क्षेत्र में मेरु की प्रदक्षिणा देते रहते हैं। इनमें से चंद्र इंद्र है और सूर्य प्रतींद्र। 1 सूर्य, 88 ग्रह, 28 नक्षत्र व 66,975 तारे, ये एक चंद्रमा का परिवार है। जंबूद्वीप में दो, लवणसागर में 4, धातकी खंड में 12, कालोद में 42 और पुष्करार्ध में 72 चंद्र हैं। ये सब तो चर अर्थात् चलने वाले ज्योतिष विमान हैं। इससे आगे पुष्कर के परार्ध में 8, पुष्करोद में 32, वारुणीवर द्वीप में 64 और इससे आगे सर्व द्वीप समुद्रों में उत्तरोत्तर दुगुने चंद्र अपने परिवार सहित स्थित हैं। ये अचर ज्योतिष विमान हैं - देखें ज्योतिष लोक - 5।
- ऊर्ध्वलोक सामान्य परिचय
सुमेरु पर्वत की चोटी से एक बाल मात्र अंतर से ऊर्ध्वलोक प्रारंभ होकर लोक-शिखर पर्यंत 100400 योजनकम 7 राजू प्रमाण ऊर्ध्वलोक है। उसमें भी लोक शिखर से 21 योजन 425 धनुष नीचे तक तो स्वर्ग है और उससे ऊपर लोक शिखर पर सिद्धलोक है। स्वर्गलोक में ऊपर-ऊपर स्वर्ग पटल स्थित हैं। इन पटलों में दो विभाग हैं - कल्प व कल्पातीत। इंद्र सामानिक आदि 10 कल्पनाओं युक्त देव कल्पवासी हैं और इन कल्पनाओं से रहित अहमिंद्र कल्पातीत विमानवासी हैं। आठ युगलोंरूप से अवस्थित कल्प पटल 16 हैं - सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेंद्र, बह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत। इनसे ऊपर ग्रैवेयेक, अनुदिश व अनुत्तर ये तीन पटल कल्पातीत हैं। प्रत्येक पटल लाखों योजनों के अंतराल से ऊपर-ऊपर अवस्थित हैं। प्रत्येक पटल में असंख्यात योजनों के अंतराल से अन्य क्षुद्र पटल हैं। सर्वपटल मिलकर 63 हैं। प्रत्येक पटल में विमान हैं। नरक के बिलोंवत् ये विमान भी इंद्रक श्रेणीबद्ध व प्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकारों में विभक्त हैं। प्रत्येक क्षुद्रपटल में एक - एक इंद्रक है और अनेकों श्रेणीबद्ध व प्रकीर्णक। प्रथम महापटल में 33 और अंतिम में केवल एक सर्वार्थसिद्धि नाम का इंद्रक है, इसकी चारों दिशाओं में केवल एक-एक श्रेणीबद्ध है। इतना यह सब स्वर्गलोक कहलाता है। (नोट— चित्र सहित विस्तार के लिए देखें स्वर्ग - 5) सर्वार्थसिद्धि विमान के ध्वजदंड से 29 योजन 425 धनुष ऊपर जाकर सिद्ध लोक है। जहाँ मुक्तजीव अवस्थित हैं। तथा इसके आगे लोक का अंत हो जाता है (देखें मोक्ष - 1.7)।
- लोक का लक्षण
पुराणकोष से
आकाश का वह भाग जहाँ जीव आदि छहों द्रव्य विद्यमान होते हैं । यह अनादि, असंख्यातप्रदेशी तथा लोकाकाश संज्ञक होता है । इसका आकार नीचे, ऊपर और मध्य में क्रमश: वेत्रासन, मृदंग, और झालर सदृश है । इस प्रकार इसके तीन भेद हैं― अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक । यह कमर पर हाथ रखकर और पैर फैलाकर अचल खड़े पुरुष महापुराण के आकार के समान होता है । विस्तार की अपेक्षा यह अधोलोक में सात रज्जु है । इसके पश्चात् क्रमश: ह्रास होते-होते मध्यलोक में एक रज्जु और आगे प्रदेश वृद्धि होने से ब्रह्मब्रह्मोत्तर स्वर्ग के समीप पाँच रज्जू विस्तृत रह जाता है । तीनों लोकों की लांबाई चौदह रज्जू इसमें सात रज्जू सुमेरु पर्वत के नीचे तनुवातवलय तक और सात रज्जू ऊपर लोकाग्रपर्यंत तनुवातवलय तक है । चित्रा पृथिवी से आरंभ होकर पहला राजू शर्कराप्रभा पृथिवी के अधोभाग में समाप्त होता है । इसके आगे दूसरा आरंभ होकर वालुकाप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है । इसी प्रकार तीसरा राजू पंकप्रभा के अधोभाग में, चौथा धूमप्रभा के अधोभाग में, पाँचवाँ तम प्रभा के तम:भाग के अधोभाग में, छठा महातम:प्रभा के अंतभाग में तथा सातवाँ राजू लोक के तलगाग में समाप्त होता है । रत्नप्रभा प्रथम पृथिवी के तीन भाग हैं― खर, पंक और अब्बहुल । इनमें खर भाग सोलह हजार योजन, पंकभाग चौरासी हजार योजन और अब्बहुल भाग अस्सी हजार योजन मोटा है । ऊर्ध्व लोक में ऐशान स्वर्ग तक डेढ़ रज्जू, माहेंद्र स्वर्ग तक पुन: डेढ़ रज्जु पश्चात् कापिष्ठ स्वर्ग तक एक, सहस्रार स्वर्ग तक फिर एक, इसके आगे आरण अच्युत स्वर्ग तक एक और इसके ऊपर ऊर्ध्वलोक के अंत तक एक रज्जू । इस प्रकार सात रज्जु प्रमाण ऊंचाई है । इसे सब आर से धनोदधि, धनवान और तनुवात ये तीनों वातवलय घेरकर स्थित है । घनोदधि-वातवलय गोमूत्रवर्ण के समान, घनवातवलय मूंग वर्ण का और तनुवातवलय अनेक वर्ण वाला है । ये वलय दंडाकार लंबे और घनीभूत होकर ऊपर-नीचे चारों ओर लोक के अंत तक है । अधोलोक में प्रत्येक का विस्तार बीस-बीस हजार याजन और लोक के ऊपर कुछ कम एक योजन हैं । जब ये दंडाकार नहीं रहते तब क्रमश: सात पाँच और चार योजन विस्तृत होते हैं । मध्यलोक में इनका विस्तार क्रमश पाँच चार और तीन योजन रह जाता हे । ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग के करा में ये क्रमश सात पांच और चार योजन विस्तृत हो जाते हैं । पुन: प्रदेशों में हानि होने से मोक्षस्थान के पास क्रमश पाँच और तीन योजन विस्तृत रह जाते हैं । इसके पश्चात घनोदधिवातवलय आधा योजना, घनवातवलय उससे आधा और तनुवातवलय उससे कुछ कम विस्तृत है । तनुवातवलय के अंत तक तिर्यग्लोक है । इस लोक की ऊपरी और नीचे की अवधि सुमेरु पर्वत द्वारा निश्चित होती है और यह सुमेरु पर्वत पृथिवी तक में एक हजार योजन नीचे है तथा चित्रा पृथिवी के समतल से लेकर निन्यानवे हजार योजन ऊँचाई तक है । असंख्यात द्वीप और समुद्रों से वेष्टित गोल जंबूद्वीप इसी मध्यलोक में है । इस जंबूद्वीप में सात क्षेत्र, एक मेरु, दो कुरु, जंबू और शाल्मली दो वृक्ष, छ: कुलाचल, छ: महासरोवर, चौदह महानदियाँ, बारह विभंगा नदियाँ, बीस वक्षारगिरि, चौंतीस राजधानी, चौंतीस रूप्याचल, चौंतीस वृषभाचल, अड़सठ गुहाएं, चार नाभिगिरि और तीन हजार सात सौ चालीस विद्याधरों के नगर है । जंबूद्वीप से दूने क्षेत्रों वाला धातकीखंडद्वीप तथा दूने पर्वतों और क्षेत्र आदि से युक्त पुष्करार्ध इस प्रकार ढाई द्वीप तक महापुराण लोक है । महापुराण 4.13-15, 40-46, पद्मपुराण 3.30, 24.70, 31.15, 105, 109-110, हरिवंशपुराण 4.4-16, 33-41, 48-49, 5.1-12, 577, पांडवपुराण 22.68, वीरवर्द्धमान चरित्र 11. 88, 18.126