काहेको सोचत अति भारी, रे मन!
From जैनकोष
काहेको सोचत अति भारी, रे मन!
पूरब करमनकी थित बाँधी, सो तो टरत न टारी।।काहे. ।।
सब दरवनिकी तीन कालकी, विधि न्यारीकी न्यारी ।
केवलज्ञानविषैं प्रतिभासी, सो सो ह्वै है सारी ।।काहे. ।।१ ।।
सोच किये बहु बंध बढ़त है, उपजत है दुख ख्वारी ।
चिंता चिता समान बखानी, बुद्धि करत है कारी ।।काहे. ।।२ ।।
रोग सोग उपजत चिंतातैं, कहौ कौन गुनवारी ।
`द्यानत' अनुभव करि शिव पहुँचे, जिन चिंता सब जारी ।।काहे. ।।३ ।।