ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 12 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
पज्जयविजुदं दव्वं दव्वविमुत्ता य पज्जया णत्थि । ।
दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा परूवेंति ॥12॥
अर्थ:
पर्याय रहित द्रव्य और द्रव्य रहित पर्यायें नहीं होती हैं। दोनों का अनन्यभूत भाव / अभिन्नपना श्रमण प्ररूपित करते हैं।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब निश्चय से द्रव्य-पर्यायों का अभेद दिखाते हैं --
[पज्जयविजुदं दव्वं] दही, दुग्ध आदि पर्यायों से रहित गोरस के समान पर्याय से रहित द्रव्य नहीं है । [दव्वविमुत्ताय पज्जया णत्थि] गोरस रहित दही, दुग्ध आदि पर्यायों के समान द्रव्य से विमुक्त / द्रव्य से रहित पर्यायें नहीं हैं। [दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा परूवेंति] क्योंकि अभिन्न प्रदेशों द्वारा निष्पन्न होने से अभिन्न क्षेत्रत्व होने के कारण, अभेदनय से द्रव्य और पर्याय में भेद नहीं है; इसीकारण द्रव्य-पर्याय - दोनों का अनन्यभूत अभिन्नभाव, सत्ता, अस्तित्व स्वरूप प्ररूपित करते हैं । ऐसा प्ररूपित कौन करते हैं? श्रमण, महा-श्रमण, सर्वज्ञ-भगवान ऐसा प्ररूपित करते हैं । अथवा द्वितीय व्याख्यान-द्रव्य और पर्याय दोनों का अनन्यभूत अभिन्नभाव पदार्थ, दोनों की अभिन्न वस्तु श्रमण प्ररूपित करते हैं । भाव शब्द से पदार्थ कैसे कहते हैं? (यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं) - भाव, पदार्थ या वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है, ऐसे वचन से भाव का अर्थ पदार्थ किया ।
यहाँ सिद्धरूप शुद्ध गुणों से अभिन्न, शुद्ध पर्यायों से अभिन्न शुद्ध जीवास्तिकाय नामक शुद्ध जीवद्रव्य शुद्ध निश्चयनय से उपादेय है -- यह भावार्थ है ।
क्रिया-कारक में से किसी एक का उल्लेख होने पर अन्य का अध्याहार (ऊपर से ग्रहण) कर लेने के समान अथवा स्यात् शब्द के अध्याहार के समान जिस वाक्य में नय शब्द का उच्चारण नहीं हो, वहाँ दोनों नयों का शब्द व्यवहार कर लेना चाहिए ॥१२॥