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ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 13 - तात्पर्य-वृत्ति

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दव्वेण विणा ण गुणा गुणेहिं दव्वं विणा ण संभवदि ।

अव्वदिरित्तो भावो दव्वगुणाणं हवदि तम्हा ॥13॥

अर्थ: 

द्रव्य के बिना गुण नहीं हैं, गुणों के बिना द्रव्य संभव नहीं है; इसलिये द्रव्य और गुणों के अव्यतिरिक्त / अभिन्न भाव है।

तात्पर्य-वृत्ति हिंदी : 

अब निश्चय से द्रव्य और गुणों के अभेद का समर्थन करते हैं --

[दव्वेण विणा ण गुणा] पुद्गल से रहित वर्णादि के समान द्रव्य के बिना गुण नहीं हैं । [गुणेहिं बिणा दव्वं ण संभवदि] वर्णादि गुणों से रहित पुद्गल द्रव्य के समान गुणों के बिना द्रव्य संभव नहीं है । [अव्वदिरित्तो भावो दव्वगुणाणं हवदि तम्हा] द्रव्य और गुण के अभिन्न सत्ता द्वारा निष्पन्न होने से अभिन्न द्रव्यत्व होने के कारण, अभिन्न प्रदेशों द्वारा निष्पन्न होने से अभिन्न-क्षेत्रत्व होने के कारण, उत्पाद-व्यय का अविनाभावी एक काल होने से अभिन्न कालत्व होने के कारण, एक स्वरूपत्व होने से अभिन्न भावत्व होने के कारण, क्योंकि द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अभेद है, इसलिये अव्यतिरिक्त है, अभिन्न है । वह क्या अभिन्न है? भाव, सत्ता, अस्तित्व अभिन्न है । किनकी सत्ता अभिन्न है? द्रव्य-गुणों की सत्ता अभिन्न है ।

अथवा द्वितीय व्याख्यान-अव्यतिरिक्त है, अभिन्न है। वह कौन अभिन्न है? भाव, पदार्थ, वस्तु अभिन्न है । किनके होने से वह अभिन्न है? द्रव्य-गुणों के होने से वह अभिन्न है; इसप्रकार इसके द्वारा पदार्थ द्रव्य-गुणात्मक है ऐसा कहा गया है ।

निर्विकल्प समाधि के बल से जात / उत्पन्न, वीतराग सहज परमानन्द सुख की सम्वित्ति, उपलब्धि प्रतीत, अनुभूति रूप जो स्वसंवेदन ज्ञान है, उससे ही परिच्छेद्य / जाननेयोग्य / प्राप्त करने योग्य, रागादि विभावरूप विकल्पजालों से शून्य / रहित, केवल (मात्र) ज्ञानादि गुणों के समूह से भरितावस्थ (परिपूर्ण) जो शुद्ध जीवास्तिकाय नामक शुद्धात्मद्रव्य है, वही मन द्वारा ध्यान करने योग्य है, वही वचन द्वारा कहने योग्य है तथा काय द्वारा उसके ही अनुकूल अनुष्ठान करने योग्य है -- यह गाथा का तात्पर्यार्थ है ॥१३॥

इसप्रकार गुण-पर्याय रूप तीन लक्षणों के प्रतिपादन रूप से दो गाथायें पूर्ण हुईं । इसप्रकार पूर्व गाथा (१०वीं) के साथ तीन गाथाओं के समूह द्वारा चौथा स्थल पूर्ण हुआ ।

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इसी गाथा की समय-व्याख्या टीका

तात्पर्य-वृत्ति अनुक्रमणिका

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