ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 61 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
कम्मं पि सयं कुव्वदि सगेण भावेण सम्ममप्पाणं । (61)
जीवो वि य तारिसओ कम्मसहावेण भावेण ॥68॥
अर्थ:
कर्म अपने स्वभाव से सम्यक् रूप में स्वयं को करता है; उसी प्रकार जीव भी कर्मस्वभाव (रागादि) भाव से सम्यक् रूप में स्वयं को करता है।
समय-व्याख्या:
अत्र निश्चयपयेनाभिन्नकारकत्वाकर्मणो जीवस्य च स्वयं स्वरूपकर्तृत्वमुक्तम् । कर्म खलु कर्मत्वप्रवर्तमानपुद᳭गलस्कंधरूपेण कर्तृतामनुबिभ्राणं, कर्तत्वगमनशक्तिरूपेण करणतामात्मसात्कुर्वत्, प्राप्यकर्मत्वपरिणामरूपेण कर्मतां कलयत्, पूर्वभावव्यपायेऽपि ध्रुवत्वालंबनादुपात्तापादानत्पम्, उपजायमानपरिणामरूपकर्मणाश्रीयमाणत्वादुपोढसंप्रदानत्वम् आधीयमानपरिणामाधारत्वाद᳭गृहीताधिकरणत्वं, स्वयमेव षट᳭कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानं न कारकांतरमपेक्षते । एवं जीवोऽपि भावपर्यायेण प्रवर्तमानात्मद्रव्यरूपेण कर्तृतामनुबिभ्राणो, भावपर्यायगमनशक्तिरूपेण करणतामात्मसात्कुर्वन्, प्राप्यभावपर्यायरूपेण कर्मतां कलयन्, पूर्वभावपर्यायव्यपायेऽपि ध्रुवत्वालंबनादुपात्तापादानत्व:, उपजायमानभावपर्यायरूपकर्मणाश्रीयमाणात्वादुपोढसंप्रदानत्वं:, आधीयमानभावपर्यायाधारत्वाद᳭गृहीताधिकरणत्व:, स्वयमेव षट᳭कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकांतरमपेक्षते । अत: कर्मण: कर्तुनास्ति जीव: कर्ता, जीवस्य कर्तुनास्ति कर्म कर्तृ निश्चयेनेति ॥६१॥
समय-व्याख्या हिंदी :
निश्चय-नय से अभिन्न कारक होने से कर्म और जीव स्वयं स्वरूप के (अपने-अपने रूप के) कर्ता हैं ऐसा यहाँ कहा है ।
कर्म वास्तव में
- कर्म-रूप से प्रवर्तमान पुद्गल-स्कन्ध-रूप से कर्तृत्व को धारण करता हुआ,
- कर्मपना प्राप्त करने की शक्तिरूप करणपने को अंगीकृत करता हुआ,
- प्राप्य ऐसे कर्मत्व-परिणाम-रूप से कर्मपने का अनुभव करता हुआ,
- पूर्व भाव का नाश हो जाने पर भी ध्रुवत्व को अवलम्बन करने से जिसने अपादानपने को प्राप्त किया है ऐसा,
- उत्पन्न होने वाले परिणाम-रूप कर्म द्वारा समाश्रित होने से (अर्थात् उत्पन्न होने वाले परिणाम-रूप कार्य अपने को दिया जाने से) सम्प्रदान को प्राप्त और
- धारण किये हुए परिणाम का आधार होने से जिसने अधिकरण-पने को ग्रहण किया है ऐसा
इस प्रकार जीव भी
- भाव-पर्याय-रूप से प्रवर्तमान आत्म-द्रव्य-रूप से कर्तृत्व को धारण करता हुआ,
- भाव-पर्याय प्राप्त करने की शक्ति-रूप करण-पने को अंगीकृत करता हुआ,
- प्राप्य ऐसी भाव-पर्याय-रूप से कर्म-पने का अनुभव करता हुआ,
- पूर्व भाव-पर्याय का नाश होने पर भी ध्रुवत्व का अवलम्बन करने से जिसने अपादान-पने को प्राप्त किया है ऐसा,
- उत्पन्न होने वाले भाव-पर्याय-रूप कर्म द्वारा समाश्रित होने से (अर्थात् उत्पन्न होने वाला भाव-पर्याय-रूप कार्य अपने को दिया जाने से) सम्प्रदान-पने को प्राप्त और
- धारण की हुई भाव-पर्याय का आधार होने से जिसने अधिकरण-पने को ग्रहण किया है ऐसा
इसलिए निश्चय से कर्मा-रूप कर्ता को जीव कर्ता नहीं है और जीव-रूप कर्ता को कर्म कर्ता नहीं है । (जहां कर्म कर्ता है वहाँ जीव कर्ता नहीं है और जहां जीव कर्ता है वहाँ कर्म कर्ता नहीं है) ॥६१॥